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सम्पादकीय
पाठकवृन्द ! पूज्य आचार्यों ने कहा है-
'धर्मार्थकाममोक्षेषु बैलक्षण्यं कलासु च । करोति कीर्ति प्रीति च साधुकाव्यनिषेषणम् ।।'
अर्थात् - 'निर्दोष, गुणालंकारशाली व सरस काव्यशास्त्रों का अध्ययन, श्रवण व मनन आणि धर्म अर्थ काम मोक्ष इन चारों पुरुषार्थों का एवं संगीत आदि ६४ कलाओं का विशिष्ट ज्ञान उत्पन करता है एवं कीर्ति व प्रीति उत्पन्न करता है।' उक्त प्रवचन से प्रस्तुत 'यशस्तिलकचम्पू' भी समूचे भारतीय संस्कृत साहित्य में उच्च कोटि का, निर्दोष, गुणालंकारशाली, सरस, अनोखा एवं बेजोड़ महाकाव्य है, अतः इसके अध्ययन आदि से भी निस्सन्देह उक्त प्रयोजन सिद्ध होता है, परन्तु अभी तक किसी विद्वान् ने श्रीमत्सोमदेवसूरि के 'यशस्तिलकचम्पू' महाकाव्य की भाघाटीका नहीं की, अतः हमने ८ वर्ष पर्यन्त कठोर साधना करके इसकी 'यशस्तिलकदीपिका' नामकी भाषाटीका की और उसमें से यह पूर्वखण्ड प्रकाशित किया ।
संशोधन एवं उसमें उपयोगी प्रतियाँ --
आठ आश्वास ( सर्ग ) चाला यशस्तिलकचम्पू' महाकाव्य निर्णयसागर मुद्रण यन्त्रालय बम्बई से सम् १६९ में यो खण्डों में से प्रथमखण्ड ( ३ आश्वास पर्यन्त ) मूल व संस्कृत टीका सहित मुद्रित हुआ है और दूसरा खण्ड, जो कि ४ आश्वास से लेकर ८ आश्वास पर्यन्त है, ४॥ आश्वास तक सटीक और बाकी का निष्टीक ( मूलमात्र ) प्रकाशित हुआ है । परन्तु दूसरे स्वम्ड मैं प्रति पेज में अनेक स्थलों पर विशेष अशुद्धियाँ हैं एवं पहले खण्ड में यद्यपि उतनी अशुद्धियाँ नहीं है तथापि कतिपय स्थानों में अशुद्धियाँ हैं । दूसरा खण्ड तो मूल रूप में भी कई जगह त्रुटित प्रकाशित हुआ है । अतः हम इसके अनुसन्धान हेतु जयपुर, नागौर, सीकर व अजमेर- आदि स्थानों पर पहुँचे और वहाँ के शास्त्रभण्डारों से प्रस्तुत ग्रन्थ की ह० लि० मूल व सटिप्पण तथा सटीक प्रतियाँ निकलवाई और उक्त स्थानों पर महीनों ठहरकर संशोधन आदि कार्य सम्पन्न किया । अभिप्राय यह है इस मद्दा क्लिष्ट संस्कृत प्रन्थ की उलकी हुई गुत्थियों के सुलझाने में हमें इसकी महत्त्वपूर्ण संस्कृत टीका के सिवाय उक्त स्थानों के शास्त्र भण्डारों को इ० लि मूल व सटि प्रतियों का विशेष आधार मिला। इसके सिवाय हमें नागौर के सरस्वतीभवन में श्रीदेव - विरचित 'यशस्तिल पञ्जिका' मिली, जिसमें इसके कई हजार शब्द, जो कि वर्तमान कोशग्रन्थों में नहीं हैं, उनका लिखित है, हमने वहाँपर ठहर कर उसके शब्द निघण्टु का संकलन किया, विद्वानों की जानकारी के लिए हमने उसे परिशिष्ट संख्या २ में ज्यों का त्यों प्रकाशित कर दिया है। इससे भी हमें सहायता मिली एवं भाषा टीका को पल्लवित करने में नीतिवाक्यामृत, प्रदिपुराण, चरक, सुश्रुत, भावप्रकाश, कौटिल्य अर्थशास्त्र, साहित्यदर्पण व वाग्भट्टालंकार आदि अनेक प्रन्थों की सहायता मिली।
अतः प्रस्तुत 'यशस्तिलक' की 'यशस्तिलकदीपिका' नाम की भाषाटीका विशेष अध्ययन, मनन व अनुसन्धानपूर्वक लिखी गई है, इसमें मूलमन्धकार की आत्मा क्यों की त्यों बनाए रखने का भरसक प्रयत्न किया गया है, शब्दश: सही अनुवाद किया गया है। साधारण संस्कृत पढ़े हुए सज्जन इसे पढ़कर मूलथ लगा सकते हैं ।