SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 265
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तृतीय पाश्चासः भन्योन्याशसंशोभामिकण्टकमहीतलः। वक्ष्मीपतिस्तटस्थोऽपि भिन्नमुद्रवहिनवात् ॥ ८९ ॥ हे राजन् ! जो विजयश्री का इच्छुक राजा शत्रभूव राजाओं को परस्पर में युद्ध कराने के कारण अपनी भूमि को निष्कण्टक-झुद्रशत्रुओं से रहित--बना लेता है, वह तटस्थ-दूरवर्ती होने पर भी उसप्रकार लक्ष्मी ( राज्य-सम्पत्ति) का स्वामी होजाता है जिसप्रकार दूसरे देश को प्राप्त हुआ बड़ा व्यापारी ऐसी जहाज का स्वामी होता है, जिस पर उसने अपने नाम की छाप लगा दी है। अर्थात्-जिसप्रकार माल ( पत्र-श्रादि ) से भरी हुई जहाज पर अपना नाम अङ्कित करके दूसरे देश को प्रस्थान करनेवाला व्यापारी उस जहाज का स्वामी होता है उसीप्रकार विजयश्री का इच्छुक राजा भी भेद नीति का अवलम्बन करके तटस्थ होकर के भी शत्रुभूत राजाओं को आपस में लड़ाकर अपने पृथ्वी-तल को क्षुद्र शत्रुओं से रहित करता हुआ राज्य लक्ष्मी का स्वामी होजाता है। भावार्थ-प्रस्तुत नीतिकार' ने विजिगीषु राजा का कर्तव्य निर्देश करते हुए कहा है कि “विजिगीपु को शत्रु के कुटुम्बियों को अपने पन में मिलाना चाहिये, क्योंकि उनके मिलाने के सिवाय शत्रु सेना को नष्ट करनेवाला कोई मन्त्र नहीं है। शुक्र विद्वान् ने भी उक्त बात कही है।॥ १॥ भेदनीति के बारे में निसप्रकार लिखा है कि "विजिगीपु जिस शत्र पर चढाई करे, उसके कुटम्बियों को साम-दानादि उपाय द्वारा अपने पक्ष में मिलाकर उन्हें शत्रु से युद्ध करने के लिये प्ररित करे। विजयश्री चाहनेवाले राजा को अपनी फौज की क्षति द्वारा शत्रु को नष्ट नहीं करना चाहिये किन्तु कांटे से कांदा निकालने की तरह शत्र द्वारा शत्रु को नष्ट करने में प्रयत्नशील होना चाहिये। जिसप्रकार बेल से बेल ताड़ित किये जाने पर दोनों में से एक अथवा दोनों फूट जाते हैं उसीप्रकार जब विजिगीषु द्वारा शत्रु से शत्रु लड़ाया जाता है तब उनमें से एक का अथवा दोनों का नाश निश्चित होता है, जिसके फलस्वरूप विजिगीषु का दोनों प्रकार से लाभ होता है"। विजिगीषु का कर्तव्य है कि "शत्रु ने इसका जितना नुकसान किया है उससे ज्यादा शत्रु की हानि करके उससे सन्धि कर ले"। गौतम विद्वान ने भी “शत्रु से सन्धि करने के बारे में उक्त बाद का समर्थन किया है ।। १॥ श्राचार्यश्री ने कहा है कि "जिसप्रकार उण्डा लोहा गरम लोहे से नहीं जुड़ता किन्तु गरम लोहे ही जुड़ते हैं उसीप्रकार दोनों कुपित होने पर परस्पर सन्धि के सूत्र में बँधते है"। शुक्र विद्वान का उद्धरण भी यही कहता है ॥१॥ + 'शत्रुसंत्रासाविष्कण्टकमहीतल क० । १. तथा च सोमदेवरि:- दायादादपरः परपलस्याफ्र्षणमन्नोऽस्ति ॥1॥ यस्याभिमुखं गच्छेत्तस्यावश्यं दायादानुत्थापयेत् ॥ २॥ २. तथा च शुकः-में दायादात् परो री विद्यतेऽत्र कथंचन । अभिचारकमन्त्र शत्रुसैन्यनिषूदने ।। । । * तथा च सोमदेवपूर :-कण्ट केन कण्टकमिव परेप पर मुहरेत् ॥ १ ॥ विल्वेन हि विल्वं हन्यमानमुभयपाप्यात्मनो गभाय ॥ २ ॥ यावस्परेणापकृत तावतोऽधिकमकृत्य सन्धि कुर्यात् ॥ ३ ॥ ३. तथा च गौतमः-यावन्मानोऽपराधश्न शगुणा दि कृतो भवेत् । तावत्तस्याधिक कृत्दा सन्धिः हार्यो बालान्वितैः ॥ १ ॥ ४. तया च सोमदेवरि:-नातप्त लोई लोहेन सन्धते ।। १॥ ५. तथा व शुक्र :-क्षम्यामांपे तमाभ्यां लोहाभ्यां च यया भवेत् । भूमिपाना प विज्ञेयस्तथा सन्धिः परस्परम् ॥ ९ ॥ नौतियाक्याभूत (भाषाटीका-समेत) .५५-३९६ युद्धसमुदशा से संकलित–सम्पादक ३१.
SR No.090545
Book TitleYashstilak Champoo Purva Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy