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द्वितीय आवास:
श्री लीलाकमवावनिपते साम्राज्यचिद्धं मह
की पति निकेतनं क्षिमित्रधूविश्रामधाम स्वयम् । लक्ष्मीविभ्रमदर्पणं कुछगृहं राज्याधिरेष्याः पुनः
श्रीङ्गास्थानमिदं विभाति भवनं वाग्देवताया इव ॥ २९३ ।। वशीकृतमहीपालः श्रोहीला मकरः । चिरमत्र स्थितः मधे चतुरतामक क्षितिम् ॥२४५॥ विदेश स्वरों पुरः सुरतख्धानैः समं मात के
सूर्य समय सामजं कुरु गुरी पानोचितां वाहिनीम् 1
समशेकमपि प्रादुर्भवस्वके
यस्मिन् स्वर्गेपशेर्महोत्सवविधिः सोऽयास्त्रिलोकजिनः ॥ २४५ ॥ कर्णाञ्जलिपुटैः पातु चेतः सूक्तामृते यदि । श्रयतां सोमदेवस्य नश्याः काव्योतियुक्तयः ॥ २४६ ॥
इति सकलतार्किकचूडामणेः श्रीमन्नेमिदेव भगवतः शिष्वंग सोनवद्यगद्यपद्यविद्यारक्रतिशिवमण्डनीभवच्चरणकमलेन श्री सोमदेवसूरिणा विरचिते यशोधरमहाराजचरिते यशस्तिलकापरनाम्नि महाकाव्ये पबन्धोत्सवो नाम द्वितीय आश्वासः समाप्तः ।
है
हे राजन् ! आपका ऐसा यह विशाल भवन, जो कि लक्ष्मी का कीड़ा कमल, महान् साम्राज्य-चिह्न एवं ऋति का उत्पति गृह है । अर्थात् इससे आपकी कीर्ति उत्पन्न होती है। इसीप्रकार जो पृथिवी की का स्वाभाविक निवास गृह, लक्ष्मी के विलास का मुकुर ( दर्पण ) व राज्य की अधिष्ठात्री देवता का कुलमन्दिर सरीखा और सरस्वती के क्रीड़ा स्थान सदृश है, विशेषरूप से सुशोभित ! ऐसे अप, जिन्होंने राजाओं को वशीकृत किया है ( अपनी आज्ञापालन में प्राप्त कराया है) और जिसप्रकार कम-वनों में लक्ष्मी ( शोभा ) क्रीड़ा करती है उसीप्रकार आप में भी लक्ष्मी ( राज्य लक्ष्मी या शोभा ) कीड़ा करती है, 'इस त्रिभुवनतिलक' नामके राजमहल में स्थिति हुए चार समुद्र पर्यन्त इस पृथिवी का चिरकाल तक पालन करो ||२४४|| वह जगत्प्रसिद्ध ऐसा जिनेन्द्र ( ऋषभदेव आदि तीर्थङ्कर भगवान् ) तीन लोक की रक्षा करे । अर्थात् विघ्न विनाश करता हुआ मोक्ष प्राप्ति करे, जिसके ऐसे केवलज्ञान कल्याणक के अवसर पर, जिसमें समस्त पाप प्रकृतियों (समस्त घातिया कर्म व १६ नाम कर्म की प्रकृतियाँ) को त सेन (क्षय) किया गया है, सौधर्म स्वर्ग के इन्द्र की महोत्सव विधि इसप्रकार निम्नप्रकार सम्पन्न हुई । उदाहरणार्थ – हे कुवेर ! तुम कल्पवृक्षों के वनों के साथ-साथ आगे-आगे शीघ्र ही प्रस्थान करो। इन्द्र-सारथि ! तुम ऐरावत हाथी को शीघ्र ही सुसज्जित करो -- प्रस्थान-योग्य बनाओ । हे बृहस्पति नामक मंत्री ! तुम देवताओं की सेना को शीघ्र ही प्रस्थान के योग्य करो || २४५ || हे विद्वानो ! यदि आपका मन काव्यरूप अमृत को कानरूपी अञ्जलिपुटों (पात्रों ) द्वारा पीने का उत्सुक - उत्कण्ठित है तो सोमदेवाचार्य को 'यशस्तिल कचम्पू महाकाव्य' के मधुर वचनों की गद्यपद्यात्मक रचनाएँ आपके द्वारा श्रवण की जावें ||२४३ ।। इसप्रकार समस्त तार्किक ( पडदर्शन - वेत्ता ) चक्रवतियों के चूड़ामणि ( शिरोरन या सर्वश्रेष्ठ ) श्रीमदाचार्य 'नेमिदेव' के शिष्य श्रीमत्सोमदेवसूरि द्वारा, जिसके चरण कमल तत्काल निर्दोष गद्य-पद्य विद्याधरों के चक्रवर्तियों के मस्तकों के आभूषण हुए हैं, रचे हुए 'यशोधरमहाराजचरित' में, जिसका दूसरा नाम ' यशस्तिलकचम्पू महाकाव्य' है. 'पट्टबन्धोत्सव' नामका द्वितीय आश्वास पूर्ण हुआ ।
* दानोचित' क० ।
१.
रूपक च उपमालंकार । २. रूपक व अतियालंकार । ३.
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अतिशयालंकार । ४.
रूपक व उपमालंकार ।