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________________ तृतीय आश्वासः : शत्रुसंततिष्विव लघीयसीषु रात्रिपु वैरिमनोरथेष्विव शोषमभिलषत्सु जलाशयेषु सपत्रपक्षेष्वित्र श्रीयमाणकोसद पुण्डरीकिणीखण्डेषु कुरुलालिकुलावलिझमानभ्रूलतान्तहृदयंगमम् अनङ्गरलो तरङ्गापाङ्गावलोकसार जिसिभ्य मानसहचर लोकद्दम् अरविन्द मकरन्दाभोवसंवादिमन्दस्यन्दमानाश्वासानिलासरालम् अवरदगर्भादिभू सस्मित प्रसूनो पद्दारि तनिखिलक्ष देशम उम्मकिपाकपेशको रापकृतकर्णामृतवर्षम् अभिनवोद्भिद्यमानकुकुड्सकोल्बणभुजवात मध्वम् उल्लसहलाच जलवाहि नी विदितखावलम् उदीर्यतरमाभिसंपादितालकेलिया पिकम् अनन्यभूत्रिशिरोविरारकुल्योकण्ठम् अगमाभ्यप्रसाधितमकरध्वजारा धनञ्जघन वेदिकम् उच्छकदमवर तर सिकुसुमपरिमलोपडिन्जमामवनदेवताभवनम् ज्याकडो ३५३... प्रसार- सरीखे विशेष दीर्घ होरहे थे। जब रात्रियाँ उसप्रकार लघीयसी ( ह्रस्व-छोटी ) होरही थी जिसप्रकार आपकी शत्रु-संततियाँ लघीयसी ( अल्पसंख्यक ) होरही हैं। इसीप्रकार जब तालाब उसप्रकार शुष्क होरहे थे जिसप्रकार आपके शत्रु मनोरथ शुष्क (निष्फल ) होरहे हैं और जब कमलिनी-पत्र उसप्रकार क्षीयमाणकोश- दण्डशाली थे । अर्थात् जिनके कोश ( कमल के मध्यभाग) और दण्ड ( कमलनाल ) उसप्रकार नष्ट होरहे थे जिसप्रकार आपके शत्रु-परिवार क्षीयमाणकोशदण्डशाली (जिनका कोश - खजाना और दरड -- सैन्य नष्ट होरहा है ऐसे) होरहे हैं। कैसा है उधान (बगीचा) और सीजन ? जो ( स्त्रीजन ) ऐसे भ्रुकुटि ( भौहें ) रूपलता - प्रान्तभाग से मनोहर है, जो कि केशपाशरूप अगर-समूह सा आस्वादन किया जारहा है और उद्यान भी भ्रमर-श्रेणी द्वारा आस्वादन किये जानेवाले पुष्पों से मनोहर है। जो (खीजन) कामराग से उत्कण्ठित हुए कटाक्षावलोकन की चितवनरूप नदी द्वारा मित्रजनरूप वृक्षों को सींच रहा है और बगीचा भी नदी के जलपूर द्वारा वृक्षों को सींच रहा है। जो ( बीजन) कमलपुष्प-रस की सुगन्धि को अनुकरण करनेवाली ( स ) व संचर नेपाली हत्या से यर है और बगीचा भी कमलपुष्पों की सुगन्धि धारण करनेवालो व भन्द मन्द संचार करनेवाली ( शीतल, मन्द व सुगन्धि ) वायु से व्याप्त है। जिसने ओष्टरूप कोमल पत्तों के मध्यभाग से उत्पन्न हुए हास्यरूप पुष्पों से समस्त दिशाओं के प्रान्तभाग भेंट-युक्त किये हैं और उद्यान भी समस्त दिशाओं के प्रान्त भाग पुष्पों से उपहारित ( भैट:युक्त ) कर रहा है। जो ( सीजन ) मतवाली कोयल सरीखे मीठे वचनों द्वारा कानों में अमृत-वृष्टि कर रहा है और बगीचा भी मतवाली कोयल की मधुरध्वनि द्वारा कानों को अमृत वृष्टि कर रहा है। जिसकी भुजारूप लता का मध्यभाग नवीन उत्पन्न होरहीं कुछ ( स्तन / रूप पुष्प कलियों से व्याप्त है और बगीचा भी पुष्पकलियों से संयुक्त लता-मध्यभागवाला है । जिसने जलते हुए सौन्दर्यरूप जल से व्याप्त त्रिवली उदर-रेखा ) रूप नदी द्वारा स्वातिका -( खाई ) मण्डल की रचना की है और बगीचा भी जल से भरी हुई खात्तिका - ( खाई ) वलयवाला है। जिसने विशेष गम्भीर नाभि ( उदर-मध्यभाग ) द्वारा जलक्रीड़ा-योग्य बावड़ी उत्पन्न की है और बगीचा भी जलकोड़ा-योग्य बावड़ी से अलंकृत है। जिसने कुल्पोपकण्ठ ( स्मरमन्दिर स्त्री की जननेद्रिय - का समीपवर्ती स्थान ) काम-वाणों के परों के अग्रभाग - सरीखी आनन्दकारिणी रोमपक्तिरूप हरी दूब द्वारा श्ररित किया है और बगीचा भी जिसका कुल्योपकण्ठ ( कृत्रिम नदी का समीपवर्ती स्थान ) हरे दूर्गारों से व्याप्त है। जिसने कामदेव की आराधना हेतु वृक्ष के समीप जङ्घारूपी वेदी शृङ्गारित की है और बगीचा भी वृक्षों के समीप रची गई कामदेव की आराधनावाली वेदी से सुशोभित है। जिसने उछलते हुए निरन्तर प्रेम-पुष्पों की सुगन्धि से वनदेवता भवन उसप्रकार सुगन्धित किया है जिसप्रकार बगीचा पुष्प सुगन्धि से वनदेवता - भजन सुगन्धित करता है। जो (स्त्रीजन समीप में प्रकट हुए जङ्घारूप केला के स्कन्ध-वन से उसप्रकार रमणीक है जिसप्रकार वगीचा महान् केला के स्कन्धवन से रमणीक ( | ४५
SR No.090545
Book TitleYashstilak Champoo Purva Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size15 MB
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