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________________ PRA यशस्तिलफचम्पूकमव्ये वृक्षाकण्टफिनो अधिनियम बिरलेषयसंहिता नुस्खातान्प्रतिरोपयन्कुसुमिताश्चिन्वस्लघून वर्धपन् । उद्यान्सनमयाच कृशयन्नस्युनितान्पातय-- मालाकार इव प्रयोगनिपुणो राजन्मही पालय ॥ १० ॥ स्वल्पादपि रिपोझैजादचत्थस्थेव शानिनि । भयं जायेत कालेन तस्मात्कस्तमुपेक्षते ॥ ११ ॥ इति समासाहितसमस्तसचिवपुरःसरस्थितेनीतिवृहस्पतेश्च लमीमुद्राङ्गा गाङ्गेयोर्मिकामिव हस्ते कृत्येतिकश्यताक्रिया सत्यवागिव प्रतिपन्नधर्मविजयकभाशे यथाकालं पापि गुणानन्वतिष्टम् । बाहिर निकालकर उन्हें देश निकाले का दंड देकर-पृथ्वी का पालन करता है। जिसप्रकार धगीचे का माली परस्पर में मिले हुए आम व अनार-आदि वृक्षों को पृथक्-पृथक् करता हुआ-विरले करता हुआबगीचे की रक्षा करता है उसीप्रकार राजा भी परस्पर में मिले हुए शत्रुभूत राजाओं को भेदनीति द्वारा पृथक्-पृथक करता हुआ पृथ्वी का पालन करता है। जिस प्रकार बगीचे का माली घायु के झकोरों-आदि द्वारा उखाड़े हुए वृक्षों व पौधों को पुनः क्यारी में आरोपित-स्थापित करता हुआ चगीचे की रक्षा करता है उसीप्रकार राजा भी सजा पाए हुए अपराधियों को पुनः आरोपित-मन्त्री-आदि के पदों पर नियुसकरता हुआ पृथ्वी का पालन करता है। जिसप्रकार गीचे का माली फूले हुए वृक्षों से पुष्प-राशि चुनता हुश्रा बगीचे की रक्षा करता है उसीप्रकार राजा भी धनाट्य प्रजाजनों से टेक्स रूप में छठा अंश ग्रहण करता हुआ पृथ्वी का पालन करता है। जिस प्रकार घगीचे का माली छोटे वक्षों के पोधों को बढ़ाता हुआ बगीचे की रक्षा करता है उसीप्रकार राजा भी युद्ध में मरे हुए सैनिकों के पुत्रादिकों को बढ़ाता हुआधनादि देकर सहायता करता हुआ-पृथ्वी का पालन करता है। जिसप्रकार बगीचे का माली ऊँचे वृक्षों को भली प्रकार नमाता है, क्योंकि उनकी छाया गिरने से दूसरे वृक्ष नहीं बढ़ पाते, इसलिए उन्हें नमाता हुआ बगीचे की रक्षा करता है उसीप्रकार राजा भी घमण्डी शत्रुभूत राजाओं को नमाता हुआ-अपने वश करता हुआ पृथ्वी का पालन करता है। जिसप्रकार जगीचे का माली विस्तीर्ण-विशाल (विशेष लम्बे चौड़े) वृक्षों को कृश ( पतले) करता हुआ ( कलम करना हुआ) वगीचे की रक्षा करता है उसीप्रकार राजा भी अत्यधिक सैन्यशाली शत्रुभूत राजाओं को कृश ( थोड़ी सेनावाले ) करता हुआ पृथ्वी की रक्षा करता है एवं जिसप्रकार बगीचे का माली विशाल ऊँचे वृक्षों को गिराता हुआ वगीचे की रक्षा करता है उसीप्रकार राजा भी प्रचुर फौजवाले शत्रुभूत राजाओं को युद्धभूमि में धराशायी बनाता हुआ पृथ्वी का संरक्षण करता है' ॥ १०८ हे राजन् ! होनशक्तिशाली शत्रु के धीज (संतान) से भी विजयश्री के इच्छुक राजा को उत्तरकाल में उसप्रकार भय उत्पन्न होता है जिसप्रकार पीपल वृक्ष के छोटे से बीज से भी दूसरे वृक्षों को उत्तरकाल में भय उत्पन्न होता है। क्योंकि वह ( पीपल का पेड़) दुसरे वृक्षों को समूल नष्ट कर डालसा है। इसलिये हे राजन् ! अल्प शक्तिवाले शत्रुरूपी बीज की कौन उपेक्षा (अनादर ) करेगा? अपि तु कोई नहीं करेगा। निष्कर्ष- इसलिये हे राजन् ! शत्रुओं को उखाड़ते हुए राज्य को निष्कष्टक बनाइए ॥ १०६ ।। * "विश्लेषयन्संहता' क० । + 'पृथूथ लघयमत्युचिश्तान क.| 'शस्विनः कः । १. दृष्टान्तालंकार । २. उपमालंकार आक्षेपालंकार ।
SR No.090545
Book TitleYashstilak Champoo Purva Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size15 MB
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