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ME नमो नमो निम्मलदसणस्स पूज्य आनंद-क्षमा-ललित-सुशील-सुधर्मसागर-गुरुभ्यो नमः
(भाग
- सचूर्णिक-आगम-सुत्ताणि ।
आगम - ०२ 'सूत्रकृत्' चूर्णि:
आजमा आजम मूल संशोधक :- पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्यश्री आनंदसागरसूरीश्वरजी महाराजसाहेब
अभिनव-संकलनकर्ता :- आगम दिवाकर मुनिश्री दीपरत्नसागरजी (M.Com., M.Ed., Ph.D., श्रुतमहर्षि]
पूज्य शासनप्रभावक आचार्य श्री हर्षसागरसूरिजी म० की प्रेरणा से श्री परम आनंद श्वेताम्बर मूर्तिपूजक जैन संघ, पालडी, अमदावाद
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ईस प्रोजेक्ट के संपूर्ण-अनुदान-दाता
सच्चारित्र चूडामणि स्वर्गस्थ पूज्यपाद श्री परम आनंद श्वेताम्बर मूर्तिपूजक जैन संघ गच्छाधिपति आचार्यदेव श्री देवेन्द्रसागर ।
वीतराग सोसायटी, प्रभूदास ठक्कर कोलेज रोड, पालडी, अमदावाद सूरीश्वरजी महाराज साहेब
करीब पचास साल पहेले परम पूज्य स्वर्गस्थ गच्छाधिपति आचार्य देव श्रीमद् देवेन्द्रसागरसूरीश्वरजी महाराज साहेब द्वारा संस्थापित इस संघमें श्री शीतलनाथ भगवंत का जिनालय भी है, जिन के प्रतिष्ठाचार्य भी पूज्य देवेन्द्रसागरसूरीश्वरजी म. ही है।
इस संघमें पूज्य साधू-भगवंत एवं साध्वी-महाराज के लिए उपाश्रय भी है, जहां हर-साल चातुर्मास करवा के श्रावक-श्राविकाओ को धर्म-आराधन से लाभान्वित करवाया जाता है । इस संघमें आयंबिलभवन, उबाला हुआ पानी, ज्ञान-भण्डार एवं पाठशाला की भी बहोत अच्छी सुविधा प्रदान हो रही है | ऐसे सम्यग-मार्गी संघ की सद्भावना और प्रभावक आचार्य पूज्य श्री हर्षसागरसूरिजी म. की प्रेरणा से इस शास्त्र के लिए अनुदान प्राप्त हुआ है।
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यानमगाजास आजमाव
नमो नमो निम्मलदसणस्स
सचूर्णिक-आगम-सुत्ताणि
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मूल संशोधक
अभिनव-संकलनकर्ता
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E TEHEREMEDHERS
पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्य श्री आनंदसागरसूरीश्वरजी महाराज
आगम दिवाकर मुनिश्री दीपरत्नसागरजी [M.Com., M.Ed., Ph.D., श्रुतमहषि]
प्रत-प्राप्ति और पेज-सेटिंग कर्ता : के चेरमन श्री प्रवीणभाई शाह, अमेरिका
मुद्रक : नवप्रभात प्रिन्टींग प्रेस अमदाबाद Mo 9825598855/9825306275
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ਸਰੀਰ
ਨੂੰ ਹਰ ਸਾਲ ਹੀ
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ਰੋਸਾਕ ਕਰ ਕਰ
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भाग-2 [०२] श्री सत्रकताङग-चर्णि:
नमो नमो निम्मलदंसणस्स
पूज्य श्रीआनंद-क्षमा-ललित-सुशील-सुधर्मसागर गुरुभ्यो नमः
"सूत्रकृत" चूर्णि:
{बहुश्रुतकिंवदन्त्या, जिनदासगणिवर्य विहिता
[आद्य संपादक: - पूज्य आगमोद्धारक आचार्यदेव श्री आनंदसागर सूरीश्वरजी म. सा. ] (किञ्चित् वैशिष्ठ्यं समर्पितेन सह )
पुनः संकलनकर्ता→ मुनि दीपरत्नसागर
(M.Com., M.Ed., Ph.D., श्रुतमहर्षि)
01/02/2017, बुधवार, २०७३ महा शुक्ल ५
'सचूर्णिक-आगम-सुत्ताणि' श्रेणि भाग-२
पूज्य आगमोद्धारकश्री सशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता आगमसूत्र [०२], अंगसूत्रे [१२] सूत्रकृत जिनदासमणिविहिता चूर्णि;
[5]
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आगम
(०२)
। “सूत्रकृत्" - अंगसूत्र-२ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः )
श्रुतस्कंध [ ], अध्ययन [ ], उद्देशक [ ], नियुक्ति: [ ], मूलं [ ] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
09605
प्रत सूत्रांक
श्रीसूत्रकृताङ्गचूर्णिः।
दीप
अनुक्रम
...बहुश्रुतकिंवदन्त्या श्रीजिनदासगणिवर्यविहिता मुद्रणप्रयोजिका-मालवदेशान्तर्गतरत्नपुरीय (रतलामगत) श्रीऋषभदेवजीकेशरीमलजी श्वेतांबरसंस्था. .
मुद्रणकर्ता-सूर्यपुरीयश्रीजैनानंदमुद्रणालयव्यापारयिता शा० मोहनलाल मगनलाल थदामी. विक्रमस्य संवत् १९९८ ,. . श्रीवीरस्य २४६८,
क्राइष्टस्य १९४१ पण्यं रूप्यकपंचक
प्रतय: ५००. . सर्वेऽधिकारा मुद्रणस्य मुद्रणकारकाधीनाः
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... सूत्रकृताङ्गसूत्रस्य मूल “टाइटल पेज"
[6]
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सामाचारी-संरक्षक, ज्ञानधनी, आगम-संशोधक, तीव्र-मेधावी, समाधिमृत्यु-प्राप्त, बहमुखीप्रतिभाधारक पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्यदेव श्री आनंदसागरसरीश्वरजी महाराज साहेब
• जिन्होने शुद्ध-श्रद्धा, सम्यक्-श्रुत आराधना, यथाख्यातचारित्र के प्रति गति और अंत समय देह-ममत्व के त्याग के द्वारा कायोत्सर्ग नामक अभ्यंतर- : तप कि मिशाल कायम कि है ऐसे बहुश्रुत आचार्य श्री सागरानंदसूरीश्वरजी महाराज का परिचय कराना मेरे लिए नामुमकिन है, फिर भी गुरुभक्ति बुद्धि से । श्रद्धांजली स्वरुप एक मामुली सी झलक पैस करने का यह प्रयास मात्र है।
.चारित्र-ग्रहण के बाद अल्प कालमे जो अपने गुरुदेव की छत्रछाया से दूर हो गये, तो भी गुरुदेव के स्वर्ग-गमन को सिर्फ कर्मो का प्रभाव मानकर अपने संयम के लक्ष्य प्रति स्थिर रहते हए अकेले ज्ञान-मार्ग कि साधना के पथ पर चले | पढाई के लिए ही कितने महिनो तक रोज एकासणा तप के साथ । बारह किल्लोमिटर पैदल विहार भी किया | लेकिन अपने मंझिल पे डटे रहे, और परिणाम स्वरुप संस्कृत एवं प्राकृत भाषा का, प्राचीन लिपिओ का, व्याकरण| न्याय-साहित्य आदि का सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्त किया | जैन आगमशास्त्रो के समुद्र को भी पार कर गए|
. एक अकेला आदमी भी क्या नहीं कर शकता? इस प्रश्न का उत्तर हमें इस महापुरुष के जीवन और कवन से मिल गया, जब वे चल पड़े देवर्द्धिगणी : क्षमाश्रमण के स्थापित पथ पर. बिना किसी सहाय लिए हए सिर्फ अकेले ही "जैन-आगम-शास्त्रो" को दीर्घजीवी बनाने के लिए अनेक हस्तप्रतो से शुद्ध-पाठ तैयार किये | दो वैकल्पिक आगम, कल्पसूत्र और नियुक्तिओ को जोड़कर ४५ आगम-शास्त्रो को संशोधित कर के संपादित किया | फिर पालीताणामें आगम मंदिर बनवाकर आरस-पत्थर के ऊपर ये सभी आगम-साहित्य को कंडारा, सूरतमें तामपत्र पर भी अंकित करवाए और "आगम मंजूषा" नाम से मुद्रण भी करवा के बड़ी बड़ी पेटीमें रखवा के गाँव गाँव भेज दिए | वर्तमानकालमे सर्व प्रथमबार ऐसा कार्य हुआ |
.सिर्फ मूल आगम के कार्य से ही उन के कदम रुके नही थे, उन्होंने आगमो की वृत्ति, चूर्णि, नियुक्ति, अव चूरी, संस्कृत-छाया आदि का भी | संशोधन-सम्पादन किया | उपयोगी विषयो के लिए उन्होंने एक लाख श्लोक प्रमाण संस्कृत-प्राकृत नए ग्रंथो की रचना भी की | कितने ही ग्रंथो की प्रस्तावना भी लिखी | ये सम्यक्-श्रुत मुद्रित करवाने के लिए आगमोदय समिति, देवचंद लालभाई इत्यादि विभिन्न संस्था की स्थापना भी की।
.ज्ञानमार्ग के अलावा सम्मेतशिखर, अंतरीक्षजी, केशरियाजी आदि तीर्थरक्षा कर के सम्यक-दर्शन-आराधना का परिचय भी दिया | राजाओं को प्रतिबोध | • कर के और वाचनाओ द्वारा अपनी प्रवचन-प्रभावकता भी उजागर करवाई | बालदिक्षा, देवद्रव्य-संरक्षण, तिथि-प्रश्न इत्यादि विषयोमे सत्य-पक्षमें अंत तक दृढ़ . रहे | जैनशासन के लिए जब जरुरत पड़ी तब अदालती कारवाईंओ का सामना भी बड़ी निडरता से किया था |
• सागरानंदजी के नाम से मशहूर हो चुके पूज्य आनंदसागरसूरीश्वरजीने अपने परिवार स्वरुप ७०० साधू-साध्वीजी भी शासन को भेट किये | ....ये थे हमारे गुरुदेव "सागरजी"...
......मुनि दीपरत्नसागर...
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संयमैकलक्षी, उपधान-तप-प्रेरक, चारित्र-मार्ग-रागी, प्रवचन-पटु, सुपरिवार-युक्त पूज्य गच्छाधिपतिआचार्यदेव श्री देवेन्द्रसागरसूरीश्वरजी महाराज साहेब
... परमपूज्य आचार्यश्री आनंदसागरसूरीश्वरजी के पाट-परंपरामे हुए तिसरे गच्छाधिपति थे पूज्य आचार्य श्री देवेन्द्रसागरसूरीश्वरजी, जो एक पून्यवान् आत्मा थे, दीक्षा ग्रहण के बाद अल्पकालमे ही एक शिष्य के गुरु बन गये | फिर क्या । शिष्यो कि संख्या बढ़ती चली, बढ़ते हए पुन्य के साथ-साथ वे आखिर 'गच्छाधिपति' पद पे आरूढ़ हो गए | इस महात्मा का पुन्य सिर्फ शिष्यों तक सिमित नही था, वे जहा कहीं भी 'उपधान-तप' की प्रेरणा करते थे, तुरंत ही वहां 'उपधान' हो जाते थे | प्रवचनपटुता एवं पर्षदापुन्य के कारण उन के उपदेश-प्राप्त बहोत आत्माओने संयम-मार्ग का स्वीकार किया | खुद भी संयमैकलक्षी होने के कारण चारित्रमार्ग के रागी तो थे ही, साथसाथ ज्ञानमार्ग का स्पर्श भी उन का निरंतर रहेता था | आप कभी भी दुपहर को चले जाइए, वे खुद अकेले या शिष्यपरिवार के साथ कोई भी ग्रन्थ के अध्ययन-अध्यापनमें रत दिखाई देंगे। ... ये तो हमने उनके जीवन के दो-तीन पहेल दिखाए | एक और भी अनुसरणीय बात उन के जीवन में देखने को मिली थी- 'आराधना-प्रेम'. कैसी भी शारीरिक स्थिति हो, मगर उन्होंने दोनों शाश्वती ओलीजी, [पोष)दशमी, शुक्ल पंचमी, त्रिकाल देववंदन, पर्व या पर्वतिथि के देववंदन आदि आराधना कभी नहीं छोड़ी | आखरी सालोमें जब उन को एहसास हो गया की अब 'अंतिम-आराधना' का अवसर नजदीक है, तब उन के मुहमें एक ही रटण बारबार चालु हो गया“अरिहंतनुं शरण, सिद्धनुं शरण, साधुनुं शरण, केवली भगवंते भाखेला धर्मनु शरण " इसी चार शरणो के रटण के साथ ही वे समाधि-मृत्यु-रूप सम्यक् निद्रा को प्राप्त हुए थे | ऐसे महान् सूरिवर को भावबरी वंदना |
... मुनि दीपरत्नसागर...
अनुदान दाता संस्था:- "श्री परम-आनंद श्वेतांबर मूर्तिपूजक जैन संघ"
वीतराग सोसायटी, प्रभूदास ठककर कोलेज रोड, पालडी, अमदावाद करीब ५० साल पहेले परम पूज्य स्व. गच्छाधिपति आचार्यदेव श्रीमद् देवेन्द्रसागरसूरीश्वरजी महाराजसाहेब द्वारा संस्थापित इस संघमें श्री शीतलनाथ भगवंत का जिनालय भी है, जिन के प्रतिष्ठाचार्य भी पूज्य देवेंद्रसागरसूरीजी म.सा. ही है | इस संघमें पूज्य साधू भगवंत एवं साध्वीजीओ का उपाश्रय भी है जहा हर-साल चातुर्मास करवाके श्रावक-श्राविकाओ को धर्म-आराधन से लाभान्वित करवाया जाता है । इस संघमें आयंबिलभवन, उबाला हुआ पानी, ज्ञान-भण्डार एवं पाठशाला की भी बहोत अच्छी सुविधा प्रदान हो रही है | ऐसे सम्यग्-मार्गी संघ की सद्भावना और प्रभावक आचार्य पूज्य श्री हर्षसागरसूरिजी म० की प्रेरणा से इस शास्त्र के लिए अनुदान प्राप्त हुआ है |
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'सागर-समुदाय एकता-संरक्षक, तीर्थ- उद्धार कार्य-प्रवृत्त, गुणानुरागी'
इस “सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि' श्रेणि भाग १ से ४० के संपूर्ण अनुदान के प्रेरणादा
पूज्य शासनप्रभावक आचार्य श्री हर्षसागरसूरिजी महाराज साहेब
पूज्यपाद स्व. गच्छाधिपति देवेन्द्रसागर सूरीश्वरजी के विनयी शिष्य एवं दो गच्छाधिपतिओ के मुख्य सहायक के रुपमे 'सागर समुदाय' के सुचारु संचालक पूज्य हर्षसागरसूरिजी, जिन की प्रेरणा से ये “स चूर्णिक-आगम-सुत्ताणि" के मुद्रण के लिए संपूर्ण द्रव्यराशि प्राप्त हुई, उनका अत्यल्प परिचय यहां करेंगे । • समुदाय एकता के लिए सदैव प्रयत्नशील रहते हुए ये महात्मा समुदाय के साधु-साध्वीजी की आवश्यकताओकी पूर्ती के लिए भी प्रवृत्त रहेते है, प्राचीन अर्वाचीन तीर्थो के जीर्णोद्धार एवं विकाश के लिए भी उत्साहित रहेते है, ज्ञान क्षेत्र अछूता न रहे इसीलिए अनुमोदना, अनुदान एवं समय मिलने पर शास्त्र-वांचनमें भी रूचि रखते है | समुदाय के जरूरतमंद साध्वीजी भगवंतो के आवास का विषय हो या साध्वीजी के विहारमें मजदूर का वेतन चुकाना हो, ऐसे छोटे-छोटे कार्यों के प्रति भी उन का लक्ष्य रहेता है | दर्शन-शुद्धि के लिए जब उन्होंने समग्र भारतवर्ष के १०० साल तक के पुराने जिनालयो में १८ अभिषेक की प्रेरणा की, उस वक्त लगभग सभी अभिषेक-सामग्री की द्रव्य-शुद्धि का ख़याल रखते हुए अपनी मेधावी बुद्धि का परिचय दिया था, साथमे अनुकंपा भाव से पुजारी या विधि करानेवाले को यत्किंचित् बहुमान प्रगट करते हुए कुछ धन राशि प्रदान करवाई |
ऐसे बहुगुण-संपन्न महात्मा पूज्य आचार्यश्री हर्षसागर सूरिजी को हम भावभरी वंदना करते हुए इस श्रुतकार्य का प्रारंभ करने जा रहे है |
***
[9]
मुनि दीपरत्नसागर
[कात्रेज]पूना, शंखेश्वर, कपडवंज, प्रभासपाटण आदि स्थानोमे आगममंदिर के प्रेरक, कर्मग्रंथ अभ्यासु, निस्पृह महात्मा पूज्यपाद गच्छाधिपति आचार्य श्री दौलतसागर सूरीश्वरजी महाराज साहेब
(एवं) अजातशत्रु, स्वाध्याय रसिक, प्रशांतमूर्ती और अपने गुरु के प्रीतिपात्र परम पूज्य आचार्य श्री नंदीवर्धनसागर-सूरिजी महाराज साहेब
इस पवित्र श्रुत-कार्यमे दोनो सूरिवरो का स्मरण करते हुए कोटि कोटि वंदना के साथ
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मलाक:
.१५
०१४
*
मूलाङ्का: ८०६ सूत्रकृताङ्ग सूत्रस्य विषयानुक्रम
नियुक्ति गाथा: २०५ मलाक: विषय: पृष्ठाक मुलांक: विषय: | पृष्ठांक |
विषय:
पृष्ठाक श्रुतस्कंध- १ * * | अध्ययनं ३ उपसर्ग:
*-* अध्ययनं ९ धर्म
२२९ अध्ययनं १ समयं १६५ | उद्देशक:-१- प्रतिकुल उपसर्ग:
४३७ -धर्म स्वरूपं, हिंसादिपंचकस्यउद्देशक:-१- पञ्च महाभूत:, १८२ | उद्देशक:-२- अनुकूल उपसर्ग:
त्यागस्य उपदेश:, अनाचार-आत्माद्वैत, देहात्म, २०४ | उद्देशक:-३- परवादी वचनात् १२३
त्याग:, प्रव्रज्याविधानं -आत्माषष्ठ एवं अफालवादः
आत्मिकदुखं
अध्ययनं १० समाधि:
२४१ ૨૮
उद्देशक:-२- नियति, अज्ञान, ०५४ २२५ | उद्देशक:-४- यथावस्थित अर्थ- १३२ ४७३ -प्राणातिपात आदि विरमणम्, -ज्ञान एवं क्रिया - वादः
प्ररूपणं
-आधाकर्माहार-स्त्री संगति: एवं ०६० उद्देशक:-३- जगत्कर्तृत्व, ०६४
| अध्ययनं ४ स्त्रीपरिज्ञा
निदानादेः निषेधः, -त्रैराशिक एवं अनुष्ठानवादः २४७ | उद्देशक:-१.२ स्त्री परिषहः
-एकत्व आदि भावनास्वरूपं ०७६ उद्देशक:-४- लोकवादः
०७० | अध्ययनं ५ नरकविभक्तिः १६५
अध्ययनं ११ मार्ग:
२५२ -असर्वज्ञवादः, अहिंसा, चर्यादि
| उद्देशक:-१- नरकवेदना
१६५
४९७ -मोक्षमार्गः, विरतिउपदेश:, अध्ययनं २ वैतालियं ०७७ ३२७ | उद्देशक:-२-चतुर्गतिभमणं
-भावसमाधि: ०८९ उद्देशक:-१- मनुष्यभवस्य
| अध्ययनं ६ वीरस्तुतिः
*- अध्ययनं १२ समवसरणं | २६५ दुर्लभत्वं, -मोहादि-निर्वृति:. ३५२ |-महावीरप्रभो: गुणवर्णनं
५३५ । -अज्ञानादि-वादं,भवधमण हेतुः -प्रथमं महाव्रतं आदिः अध्ययनं ७ कशील परिभाषा
-अनासक्ति उपदेश: १११ उद्देशक:-२-परिसह-कषाय-जय | ०८८
-हिंसा एवं तत् कर्मफलं,
* अध्ययनं १३ यथातथ्य -परिग्रह-परिचयादी-निषेध: -बोधि दुर्लभत्वं,
-मोक्ष एवं बंधस्वरूप. -समितिवर्णनम् -स्वसमय-परसमय वर्णनं,
-मद त्याग उपदेश: उद्देशक:-३- मुक्तिहेतुः,महाव्रत- | १०१
-आहार विधि-निषेध:
*. अध्ययनं १४ ग्रन्थ:
२९६ माहात्म्यं, कर्म फल-संवर एवं
अध्ययनं ८ वीर्य
५८० ।-अपरिग्रह-ब्रह्मचर्य उपदेश:, निर्जरादिः ४११ -वीर्यस्य भेदवर्णनं, बाल एवं २१६
|-प्रश्नोत्तरविधि:, भाषाविवेकः, __पंडित वीर्यम
|-सूत्रोच्चारणं व अर्थप्रतिपादनं पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
३००
१७९
اواه
12
३८१
२८४
१४३
3
२१६
[10]
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पृष्ठांक:
४२१
सूत्रकृताङ्ग सूत्रस्य विषयानुक्रम पृष्ठांक: | | मूलांक विषय: पृष्ठांक: | अध्ययनं २ क्रियास्थानं
३५५ ६४८ -त्रयोदश क्रियास्थानानि
अध्ययनं ३ आहारपरिज्ञा ६७५ -विविध वनस्पतिकायस्य
उत्पति, तस्य आहारविधि: -जीवोत्पत्ति: तस्य आहार एवं शरीर वर्णनं
|
मूलाङ्का: ८०६ मूलांक:
विषय: ** अध्ययनं १५ आदानं ६०७ -मोक्षस्य उपाया:,
-अवभमणनिषेध हेतुः
अध्ययनं १६ गाथा ६३२ |-अनगार स्वरूपं
| श्रुतस्कंध-२ अध्ययनं १ पुण्डरिक -पुण्डरिक-उद्धरणं दृष्टांत एवं तद् भावस्य कथनं, देहात्मपञ्चमहाभूत-कारणिक आदि वाद कथनं
३९४
|
४३२
नियुक्ति गाथा: २०५ | मूलांक: विषय:
** अध्ययनं ५ आचारश्रुतं ७०५ -अनेकान्त वचनप्रयोगकरणं
-जीव अजीव आदि तत्त्वस्य
अस्तित्व-स्वीकार: अध्ययनं ६ आर्द्रकीयं | -गोशालक एवं आर्द्रकमारस्य
परस्पर वार्ता, शाक्य भिक्षुसार्धं आर्द्रकुमारस्य संवादः
अध्ययनं ७ नालंदीयं ७९३ |-पेढालपुत्र एवं गौतमस्य
परस्पर वार्ता
३२६
*
.
३२७
६३३
-पप
४०८
४६७
अध्ययनं ४ प्रत्याख्यानं -अप्रत्याख्यान स्वरूप, -प्रत्याख्यान हेतुः, षड् जीवनिकाय हिंसा विरमणं
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[सूत्रकृत-चूर्णि) इस प्रकाशन की विकास-गाथा यह प्रत सबसे पहले “ सूत्रकृताङ्गसूत्र" के नामसे सन १९४१ (विक्रम संवत १९९८) में रुषभदेवजी केशरमलजी श्वेताम्बर संस्था द्वारा प्रकाशित हुई, इस के संपादक-महोदय थे पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्यदेव श्री आनंदसागरसूरीश्वरजी (सागरानंदसूरिजी) महाराज साहेब |
वृत्ति की तरह चूर्णी के भी दुसरे प्रकाशनों की बात सुनी है, जिसमे ऑफसेट-प्रिंट और स्वतंत्र प्रकाशन दोनों की बात सामने आयी है, मगर मैंने अभी तक कोई प्रत देखी नहीं है।
*- हमारा ये प्रयास क्यों? -* आगम की सेवा करने के हमें तो बहोत अवसर मिले, ४५-आगम सटीक भी हमने ३० भागोमे १२५०० से ज्यादा पृष्ठोमें प्रकाशित करवाए है, किन्तु लोगो की पूज्य श्री सागरानंदसूरीश्वरजी के प्रति श्रद्धा तथा प्रत स्वरुप प्राचीन प्रथा का आदर देखकर हमने उन सभी प्रतो को स्केन करवाई, उसके बाद एक स्पेशियल फोरमेट बनवाया, जिसके बीचमे पूज्यश्री संपादित प्रत ज्यों की त्यों रख दी, ऊपर शीर्षस्थानमे आगम का नाम, फिर श्रुतस्कंध-अध्ययन-उद्देशक-मूलसूत्र-नियुक्ति आदि के नंबर लिख दिए, ताकि पढ़नेवाले को प्रत्येक पेज पर कौनसा अध्ययन, उद्देशक आदि चल रहे है उसका सरलतासे ज्ञान हो शके, बायीं तरफ आगम का क्रम और इसी प्रत का सूत्रक्रम दिया है, उसके साथ वहाँ 'दीप अनुक्रम' भी दिया है, जिससे हमारे प्राकृत, संस्कृत, हिंदी गुजराती, इंग्लिश आदि सभी आगम प्रकाशनोमें प्रवेश कर शके| हमारे अनुक्रम तो प्रत्येक प्रकाशनोमें एक सामान और क्रमशः आगे बढ़ते हुए ही है, इसीलिए सिर्फ क्रम नंबर दिए है, मगर प्रत में गाथा और सूत्रों के नंबर अलग-अलग होने से हमने जहां सूत्र है वहाँ कौंस [-] दिए है और जहां गाथा है वहाँ ||-|| ऐसी दो लाइन खींची है। इस आगम चूर्णि के प्रकाशनोमें भी हमने उपरोक्त प्रकाशनवाली पद्धत्ति ही स्वीकार करने का विचार किया था, परंतु चूर्णि और वृत्ति की संकलन पद्धत्ति एक-समान नहीं है, चूर्णिमे मुख्यतया सूत्रों या गाथाओ के अपूर्ण अंश दे कर ही सूत्रो या गाथाओ को सूचित कर के पूरी चूर्णि तैयार हुई है, कहीं-कहीं नियुक्ति एवं सूत्र या गाथा की चूर्णि है ही नहि, इसीलिए हमें यहाँ सम्पादन पद्धत्ति बदलनी पड़ी है | हमने यहाँ उद्देशक आदि के सूत्रो या गाथाओ का क्रम, [१-१४, १५-२४] इस तरह साथमे दिया है और बायीं तरफ़ उपर आगम-क्रम और नीचे इस चूर्णि के सूत्रक्रम और दीप-अनुक्रम दिए है, जिससे आप हमारे आगम प्रकाशनोंमे प्रवेश कर शकते है।
शासनप्रभावक पूज्य आचार्यश्री हर्षसागरसूरिजी म.सा. की प्रेरणासे और श्री परम आनंद श्वेताम्बर मूर्तिपूजक जैनसंघ, पालडी, अमदावाद की संपूर्ण द्रव्य सहाय से ये 'सचूर्णिक-आगम-सुत्ताणि' भाग-२ का मुद्रण हुआ है, हम उन के प्रति हमारा आभार व्यक्त करते है |
......मुनि दीपरत्नसागर.
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सूत्रकृत् चूर्णि:
[श्रुतस्कन्ध-]
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आगम
(०२)
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१], उद्देशक [१], नियुक्ति: [१-३५], मूलं [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] “सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
प्रत सूत्रांक
श्रीसूत्रकृताङ्गचूर्णिः।
PAMERIEIPATRAD
मंगलचर्चा
दीप अनुक्रम
ॐ नमः सिद्धेभ्यः। णमो अरिहंताणं णमो सिद्धाणं णमो आयरियाणं णमो उवज्झायाणं णमो लोए सव्वसाहणं, मंगलादीणि सत्याणि मंगलमज्झाणि मंगलअवसाणाणि, मंगलपरिग्गहिआ सिस्सा अवग्गहेहावायधारणासमत्था सत्थाण पारगा भवंति, ताणि य सत्याणि लोगे विरायंति वित्थारं च गच्छंति, तथादिमंगलेण, सिस्साआरंभप्पभिति णिव्विसाया सत्थं पडिवजिऊणं अविग्घेण सत्थस्स पारं गच्छंति, मझमंगलेण तदेव सत्थं परिजितं भवति, अवसाणमंगलेण सिस्सपसिस्ससंताणे पडिवाएन्ति, आहआचार्या ! मंगलंकरणाच्छाखं न मङ्गलमापद्यते, अथवेह मङ्गलात्मकस्यापि शास्त्रस्यान्यन्मङ्गलमुच्यते अतस्तस्याप्यन्यत् तस्यान्यन्म-| ङ्गलमादेयमित्यतोऽनवस्था, न चेदनवस्था प्रतिपद्यते ततो यथा मालमपि शास्त्रं अन्यमङ्गलशून्यत्वात् न मङ्गलं तथा मङ्गलमपि | | अन्यमङ्गलशून्यत्वादमङ्गलमिति मङ्गलाभावः, उच्यते,, यस्य शास्त्रादर्थान्तरभूतं मङ्गलं तं प्रत्येपा कल्पना भवेत् , इह त्वमाकं
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... उपोद्घात् नियुक्तिः, आदि-मध्य-अंत्य मंगलस्य निर्देश:
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आगम
(०२)
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१], उद्देशक [१], नियुक्ति: [१-३५], मूलं [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] “सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
सुत्रकचूर्णिः
प्रत सूत्रांक
[]
दीप अनुक्रम
मंगलचर्चाः शास्त्रमेव मङ्गलं ? यन्मङ्गलमुपादीयते किमत्रामङ्गलंका वाऽनवस्थेति ?, नायमसत्पक्षः, किन्तु यस्यापि शास्त्रादर्थान्तरभूतं तस्यापि नामंगलप्रसंगो न वाऽनवस्था, कुतः, खपरानुग्रहकारित्वान्मङ्गलस्य प्रदीपवत् लवणादिवद्वा, आह-महालत्रयान्तरालद्वयं न मङ्गलमापद्यतेऽर्थापनितः, यदिवेह सर्वमेव शास्त्र मङ्गलमिति प्रतिपद्यते मङ्गलवयग्रहणमनर्थकं ?, उच्यते, समस्तमेव शास्त्रं त्रिधा । विभज्यते, कुतोऽन्तरालद्वयपरिकल्पनं यदमङ्गलं भवेत् ?, कथं पुनः सर्वमेव शास्त्रं मङ्गलमिति चेत् ?, उच्यते, निर्जरार्थत्वात् तपोवत् , आह-यदि स्वयमेव शास्त्रं मङ्गलमित्यतः किमिह मङ्गलग्रहणं क्रियते ?, उच्यते. ननूक्तं नैवेह शास्त्रादर्थान्तरभूतं मङ्गलमुपादीयते, किन्तु मङ्गलमिदं शास्त्रमिति केवलमुञ्चायते, आह-तदुचारणं किंफलं ?, यदि मालमिति न संबध्यते किं तद् १. मङ्गलं भवति, शिष्यमतिमङ्गलपरिग्रहार्थं तदभिधानं, इह शिष्यः कथं शास्त्रं मालमित्येव मंगलबुद्ध्या परिगृहीयादिति, यस्मादिह मङ्गलमपि मङ्गलबुद्ध्या परिगृह्यमाणं मङ्गलं भवति, साधुवत् , आह-ततः सर्वमेवेदं मङ्गलमित्येतावदस्तु नार्थों मङ्गलत्रयबुद्धिग्रहेण, उच्यते, ननु तत्रापि कारणमुक्तं-यथव हि शाखं मङ्गलमपि सत् न मङ्गलबुद्धिपरिग्रहमन्तरेण मङ्गलं भवति साधुवत् , तथा मङ्गलजयकारणमपि अविनपारगमनादि न मङ्गलत्रयबुद्ध्या विना सिध्यतीत्यतस्तदभिधानमिति, मगेगत्यर्थस्य अलप्रत्ययान्तस्य मङ्गलमिति रूपं भवति, मंग्यतेऽनेन हितमिति मङ्गलं, मंग्यते साध्यत इतियावत् , अथवा मंगो-धर्मः, 'ला आदाने' मङ्गं लातीति मङ्गलं, धर्मोपादाने हेतुरित्यर्थः, अथवा निपातनादिष्टार्थप्रकृतिप्रत्ययोपादान्मङ्गलं, इष्टार्थाश्च प्रकृतयः-मकि मण्डने, मन ज्ञाने, मदी हर्षे, मदि मोदस्वमगतिषु, मह पूजायामित्येवमादीनामलप्रत्ययान्तानां मङ्गलमेतन्निपात्यते, मंक्यते अनेन मन्यते वाऽनेनेति मङ्गलमित्यादि लक्षणशास्त्रीययाऽनुवृत्या योजनीयमिति, अथवा मं गालयति भवादिति मङ्गलं, संमारादपनयतीत्यर्थः, अथवा ॥२ ॥
'मंगल' संबंधि विवेचनं
[15]
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आगम
(02)
प्रत
सूत्रांक
[]
दीप
अनुक्रम
[]
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र -२ (निर्युक्तिः+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१], उद्देशक [१], निर्युक्तिः [१-३५], मूलं [-]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र-[०२] “सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
श्रीसूत्रक्रताङ्गवर्णिः
॥ ३ ॥
शास्त्रस्य मा गलो भूदिति मङ्गलं, गलो-विघ्नं मा गालो वा भूदिति मङ्गलं, गलनं गालो, नाश इत्यर्थः, सम्यग्दर्शनादिमार्गलयनाद्वा मङ्गलमित्यादि नैरुक्ता भाषेत इति । तं च नामादि चतुर्विधमपि जहा आवस्सए तथा परूवेयव्वं जाव जाणगपरीरभविय शरीरखइरितं दध्वमंगलं दध्यक्षतसुवर्णसिद्धार्थकादि, भावमंगलंपि तहेव, अथवा भावमंगलं णिज्जुत्तिकारणं चैव वृत्तं 'तित्थगरे य जिणवरे सुत्तकरे गणधरे व णमिणं । सुत्तकडस्स भगवतो णिज्जुति कित्तइस्सामि ॥ १ ॥ इह तीर्थकरणातीर्थकरा वक्ष्यन्ते तत्र तृप्लवनतरणयोरित्यस्य तीर्थमिति तं च नामादि चतुर्विधं तत्थ दव्यतित्थं मागहादि, अदवा सरिआदीणं जो अवगासो समो णिरपायो य, तिअति जं तेण, तहिं वा तरिइत्ति तित्थं, एवं दव्यतित्थे पसिद्धे तरिता तरणं तरियच्वं च पसिद्धाणि चैव तत्थ तारओ पुरिसो तरणं बाहोडबादि तरियां नदी समुद्दो वा तं च देहादितरितव्वतारणतो दाहोसमणत्तो तहाछेदणओ वज्झमलपवाहणतो अणेगंतियं फलतो य, स्वयं च द्रव्यात्मकत्वात् द्रव्यतीर्थमुच्यते, अपिचदाहोवसमं तव्हाऍ छेदणं मलपवाहणं चैव । तिसु अत्थेसु नियतं तम्हा तं दव्त्रतो तित्थं ॥ १ ॥ भावतित्थं चाउच्चण्णो संघो जओ सुत्ते भणियं ? - "तित्थं भंते! तित्थं तित्थकरे तित्थं १, गोतमा ! अरहा ताव णियमा तित्थकरे, तित्थं पुण चाउच्चण्णाइण्णो संघो, तम्मिय पसिद्धे तरिता तरणं तरियच्वं च पसिद्धाणि चैव तत्थ तरिता साधू तरणं सम्मदंसणणाणचरिताणि, तरितन्त्रं भवसमुद्दो, जतो णाणादिभावतो मिच्छत्तऽण्णाणऽविरतिभवभावेहिंतो तारयति तेण भावतित्थंति, अथवा कोहलोभकम्म| मयदाहृतण्हा छेद कम्ममलादवणयण मेगन्ति अमचंतियं च तेण कअतित्ति अतो भावतित्थं, अपित्र - कोइंमि उ णिग्गहिते अतुलोत्रममो भवे मणूसाणं । लोभम्मि उ णिग्गहिते तव्हावोच्छेदणं होंति ॥ १ ॥ अडविहों कम्मरओ बहुएहिं भवेहिं संचितो
मंगल' एवं तीर्थ संबंधि विवेचनं,
[16]
तीर्थसिद्धिः
॥ ३ ॥
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आगम
(०२)
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१], उद्देशक [१], नियुक्ति: [१-३५], मूलं [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] “सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
नियुक्ति
श्रीसूत्रकताङ्गचूर्णिः
मंगलं
॥४
॥
प्रत सूत्रांक
0
दीप
जम्हा । तवसंजमेण वोच्छिजति तम्हा तं भावतो तित्थं ।। २ ।। अथवा-दसणणाणचरित्ते(हिं)णिउत्तं जिणवरेहिं सब्वेहि । तिहि अत्थेहिं णिउत्तं तम्हा तं भावतो तित्थं ॥३॥ तं भावतित्थं जेहिं कयं ते तित्थकरे, तित्थगरग्रहणेन अतीताणागतवरमाणा सच्चतित्थकरा गहिया, 'जिणे'त्ति दव्वजिणा भावजिणा य, दव्यजिणा जेण जं दच्वं जिय, यथा जितमनेनौषधमिति, संग्रामे वा शत्रुजयात् द्रव्यजिना भवन्ति, भावजिणा जेहिं कोहमाणमायालोमा जिता, जिणगहणेण उवसामगखवगसजोगिजिणा तिण्णिावि गहिता, तदणंतरं सुत्त-सुत्तकयं ते गणधरा एकारसवि, अविग्रहणेण सेसगणधरवंसोवि, सूयकडस्सत्ति उवरि भण्णिाहिति, अत्थजसधम्मलच्छीपयत्तविभवाण छण्हमेतेसिं 'भग' इति सण्णा, सो जस्स अस्थि सो भण्णति भगवं, अतो सूयकडस्स भगवतो, 'णिज्जुत्तिति निश्चयेन वा आधिक्येन सार्थादितो वा युक्ता नियुक्ताः-सम्यगवस्थिताः श्रुताभिधेयविशेषा जीवादयः, तथाहि| सत्रे त एव निर्युक्ताः यत्पुनरनयोपनिद्धास्तेनेयं निर्युक्तानां युक्तिः नियुक्तयुक्तिः, युक्तशब्दलोपान्नियुक्तिः, आह-यदि सूत्र एव नियुक्ताः सम्यगवस्थानात् सुखबोधा एव ते अर्थाः, किमिह तेर्था निर्युक्ताः, उच्यते, निर्युक्ता अपि सन्तः सूत्रेाः नियुक्त्या पुनरव्याख्यानात् न सर्वेऽववुझ्यन्ते अतो णिज्जुति कित्तइस्सामि । अथवा भावमंगलं गंदी, सावि णामादि चतुर्विधा, | दन्वे संखवारसगतूरसंघातो, भावणंदी पंचविधं णाणं, 'णादंसणिस्स णाण'मितिकाऊणं दंसणमवि तदन्तर्गतं चेव, देसण| पुब्वगं च चरित्तमवि गहितं; गंदि वण्णेऊणं सुतणाणेण अहिगारो, उक्तं च एत्थं पुण अधिकारो सुतणाणेणं जो सुतेणं | तु । सेसाणमप्पणोऽविय अणुओग पदीयदिद्रुतो ॥१॥ जतो य सुतणाणस्स उद्देसो समुद्देसो अणुण्णा अणुयोगो य पव्वत्तति, तत्थवि उद्देससमुद्देसअणुण्णाओ गताओ, इह तु अणुयोगेण अहियारो, सो चतुर्विधो, तंजहा-चरणकरणाणुयोगो
अनुक्रम
| तीर्थ, जिन, भग, नियुक्ति एवं नन्दी शब्दस्य व्याख्या
[17]
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आगम
(०२)
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१], उद्देशक [१], नियुक्ति: [१-३५], मूलं [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[२] “सूत्रकृत' जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
अनुयोग
श्रीसूत्रकताङ्ग चूर्णिः
द्वाराणिः
प्रत सूत्रांक
दीप
| धम्माणु० गणिताणु० दव्वाणुयोगो, तत्थ कालियसुयं चरणकरणाणुयोगो, इसिभासिओत्तरज्झयणाणि धम्माणुयोगो, सूरपण्णतादि गणितानुयोगो, दिट्ठिबातो दवाणुजोगोचि, अथवा दुविधो अणुयोगो-पुहुत्ताणुयोगो अपुहुत्ताणुयोगोय, जत्थ एते चत्तारि अणुयोगा पिहप्पिहं वक्खाणिजंति पुहुत्ताणुयोगो, अपुहुत्ताणुजोगो पुण जं एकेकं सुतं एतेहिं चउहिंवि अणुयोगेहिं सत्तहि णयसतेहिं वक्खाणिजति, केचिरं पुणकालं अपुहुर्त आसि ?, उच्यते, 'जावंति अञ्जवइरा अपुहुत्तं कालियाणुयोगस्स । तेणारेण पुहुत्तं कालियसुयदिट्ठिवाए य ॥ १॥ केण पुण पुहुत्तं कयं', उच्यते-'देविन्दवन्दितेहिं महाणुभागेहिं रक्खियजेहिं । जुगमासज विभत्तो अणुयोगो तो कओ चतुधा ॥१॥ अजरक्खितउट्ठाणपारियाणियं परिकधेऊण पूसमित्ततियं विझं च विसेसेऊणं जहा य पुहुत्तीकया तहा माणिऊण इह चरणाणुयोगेण अधिकारो, सो पुण इमेहिं दारेहि अणुगंतव्यो, तंजहा-'णिक्खेवे १| गट्ठ.२ णिरुत्त ३ विधी ४ पवत्ती ५ य केण वा ६ कम्स ७ तद्दार ८ भेद ९ लक्खण १० तदरिहपरिसा ११ य सुत्तत्थो १२॥१॥ तत्थ णिक्खेबो-णासो णामादि, एगट्ठियाणि सकपुरंदरवत् , ताणि पुण सुनेगट्ठियाणि अत्थेगट्ठियाणि य, णिच्छियमुत्तं शिरुतं णिज्वयणं या णिरुतं, तं पुण सुत्तणिरुतं अत्थनिरुत्तं च, विधी-काए विपीए सुणेयच्वं , परती-कथं अणुयोगो पबत्तति ?, केवंविधेण आचार्येण अत्थो वत्तव्यो ?, एताणि दाराणि जहा आयारे कप्पे वा परूविताणि तथा परूवेयव्याणि जाव एवंविधेण आयरिएण कस्स अत्थो बत्तव्योति?, उच्यते, सव्वस्सेव सुतणाणस्स, वित्थरेण पुण सुत्तकडस्स, जेणेत्थ परसमयदिडिओ परूविजंति, कस्मत्ति वत्तव्बे जति सुयकडस्स अणुयोगो, सुतकडं णं किं अंग अंगाई सुयक्खधो सुतक्खंधा अज्झयणं अज्झयणाई उद्देसो उद्देपा ?, उच्यते-सूयगडं णं अंग णो अंगाई णो सुरक्खंधो सयक्खंधा णो अज्झयणं अज्झयणा उद्देसो उद्देसा,
अनुक्रम
चतुर अनुयोगस्य विवरणं, 'सूयगड़' शब्दस्य पर्यायाः,
[18]
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आगम
(०२)
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१], उद्देशक [१], नियुक्ति: [१-३५], मूलं [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
श्रीसूत्रकृनाइचूर्णिः
॥६ ॥
प्रत सूत्रांक
U
दीप
तम्हा सुतं णिक्विविस्सामि कडं णिक्खिविस्मामि सुतं णिविखविस्सामि खंधं णिक्खि विस्सामि अज्झयणं णिक्खिविस्सामि
एकार्थानि
सूत्रं च | उद्देसं णिक्खिविस्सामि, 'मुत्तकई अंगाणं वितियं तस्स य इमाणि णामाणि । सुत्तकडं सूतकर्ड सूयकर्ड चेव गोषणाई ॥२शा सुश्रपुरुसस्म वारसंगाणि मलत्थाणीयाणि, सेसमुतखंधा उर्वगाणि कलाच्यंगुष्ठादिवत , तेसि वारसह अंगाणं ||il एतं वितियं अंग, णामाणि एगट्टियाणि इंद्रशक्रपुरन्दरवन , तंजहा-सुत्तकडंति वा सुतकडंति वा सूयकर्षति बा, णाम पुण दुविधंगोण्णं इयर च, गुणेभ्यो जायं गौण, जधा तवतीति तवणो जलतीति जलणो एवमादि, तत्थेताणि एगट्टियणामाणि गोण्णाति, तत्थ सुतकडं 'पूड प्राणिप्रम' सो पसवो दुविधो-दब्वे भावे य, द्रव्यप्रसवो स्त्रीगर्भप्रसववत्, भावप्रसवो गणधरेभ्य इदं । प्रसूतं, अथवा 'अत्थं भासति अरहा' ततः सूत्रं प्रसवति, 'सुत्तकड'त्ति यथा गृहं वास्तुसूत्रवत् तदनुसारेण कुटुं क्रियते कहूं या सुत्तानुसारेण करवचिजति, भावसूत्रेण तु सूत्राणुसारेण निर्वाणपथं गम्यते। सूनकडं णामादि चतुर्विध, वइरित्ता दध-! सूयणा जहा लोयसूयगा णलगवसूवगा लोहस्यगादि वा दरम्यगा, भावे इमं चेब, खयोवसमिए भावे ससमयपरसमयसूय| णामेचं, अहवा सु णामादि चतुर्विधं, दब्बसुचे इमाणि 'जइ अद्धा गाथा ॥३।। दब्वं तु बोंडगादी भावे सुत्तमह सूयगं णाणं ।' दब्यसुतं अंडज बोंडजं कीड वागजं बालज । से किं तं अंडज, हंसगम्भादि, बोंडज कप्पासादी, कीडर्ज कोसियादि, वागर्ज सणअयसिमाती, बाल उड्डियादि, भावे इमं चेव भवति, सूयगं णाम जाणं, णाणं णाणेण चेव साइजइ, अथवा इमेण णाणेणं णाणाणि य अण्णाणाणि य सहजंति, तं पुण जधा 'बुझिअत्ति तिउहिजडू' तं सूत्रं चतुर्विधं-'सपणासंगहवित्तेजातिणिबंधे य कस्यादि ॥४॥' तत्थ मण्णासुतं तिविधं-ससमए परसमए उभयेत्ति, सममए ताव विगती, पढमि(मालि)या, जे छेदे
Styarmid
अनुक्रम
KRADENCE
सूत्र-कृत् पदयो: निक्षेपाः,
[19]
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आगम
(02)
प्रत
सूत्रांक
[]
दीप
अनुक्रम []
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र- २ (निर्युक्तिः+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१], उद्देशक [१], निर्युक्तिः [१-३५], मूलं [-] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र [०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
श्रीसूत्रताङ्गचूर्णि
|| 6 ||
सागारियं ण से सेवे, सध्यामगंध परिष्णाय णिरामगंधो परिव्वए, एवमादीणि, परसमए यथा पुगलो संस्कारो क्षेत्रज्ञः सत्ता, उभये जं सममए परममए य संभवति । सहस्त्रमपि यथा द्रव्यमित्या कारिते सर्वद्रव्याणि सगृहीतानि, तद्यथा जीवाजीवद्रव्याणीति, जीवति संसारत्था असंसारत्था य सव्वै संगहिता, अजीवत्ति सव्वे धम्मत्थिकायादयो, वित्तिजातिणिबद्धं सुतं जाव वृत्तवर्द्ध सिलोगादिवद्धं वा तं चउब्विधं तंजहा गद्यं पद्यं कध्ये गेयं, गद्यं चूर्णिग्रन्थः ब्रह्मचर्यादि, पद्यं गाथासोलसगादि, कथनीयं कथ्यं जहा उत्तरज्झयणाणि इसिभासिताणि णायाणि य, गेयं णाम सरसंचारेण जधा काविलिज्जे 'अभुवे असासयंमि संसारंभि दुक्खपराए' एवं सुयं गतं भवति । इदाणिं वितियं पयं कडेत्ति, तत्थ गाथा 'करणं च कारगो य कडं च ५ गाथा ॥ तत्र 'कड' इत्याकारिते कर्त्ता करणं कार्यमित्येतत्रितयमपि गृह्यते, तत्थ कारगो कडं च अच्छंतु, करणं ताव भणामि, तं करणं णामादि छन्विहं णामकरणं जस्स करणमिति णामं, अथवा णामस्त णामतो वा जं करणं भण्णति, ठवणाकरणं क गणासादि अक्खणिक्खेवो, जो वा जस्स करणस्य आकारविसेसोत्ति, दव्यस्स दव्वेण वा दव्यम्मि वा जं करणं तं व्यकरणंति, तं दुविहं-आगमओ य गोआगमओ य, आगमओ जागए अणुवउत्ते, णोआगमओ जाणगसरीरभवियमरीस्वतिरितं दुविधं-सण्णाकरणं नोसण्णा करणं, तत्थ सणाकरणं अणेगविधं, जंमि जंमि दव्वे करणसण्णा भवति तं सण्णाकरणं, तंजहा कडकरणं अद्धाकरणं पेलुकरणादि, सष्णाणाममेव तत्र मती होजा तंण भवति, जम्हा णामं जं वत्थुणोऽभिधाणंति, जं वा तदत्थविगले णामं कीरति यथा मृतकस्य इन्द्र इति णामं दब्बलक्खणं तु द्रवते द्र्यते वा द्रव्यं, द्रवति खपर्यायान् प्राप्नोति क्षरति चेत्यर्थः, द्र्यते-गम्यते तैस्तैः पर्यायविशेषैः, अथवा गच्छति तखान् पर्यायविशेषानिति द्रव्यं, पेलुकरणादीति पुण ण तदस्थविहूणं, ण सदमेति भणितं होति,
San
'करण' शब्दस्य निक्षेपा:, भेदा:
[20]
करणा
धिकारः
|| 6 ||
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आगम
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भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१], उद्देशक [१], नियुक्ति: [१-३५], मूलं - पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[२] “सूत्रकृत' जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
श्रीसूत्रक
करणा धिकार:
ताङ्गचूर्णिः
॥८॥
प्रत सूत्रांक []
दीप
आह-जइ ण तदत्थविहीणं तो किं दब्वकरणं ?, जतो तेण दव्वं कीरति, सणाकरणंति य करणं रूढीतो, आह-जति तदत्थविरहितं ण भवति तो किं दव्यकरणं भवति ?, भावकरणमेव भवतु?, उच्यते, जतो तेण दवं कीरति, जहा पेल्लीओ णाणियाओ!, ताओ कीरति एवमादि, सण्णकरणतिय रूढीतो। इदाणिं णोसण्णाकरणं, तत्थ णिज्जुत्तिगाथा 'दब्वे पओगवीसस पयोगसा मूलउत्तरे चेव। उत्तरकरणं वंजण अत्थे उ उवक्खरो सघो॥ ५॥णोसण्णादबकरणं दुविध-पयोगकरणं विस्ससाकरणं च, पयोगकरणं दुविह-जीवपओगकरणं अजीवपयोगकरणं च, होति पयोगो जीववावारो, तेण जं विणिम्माणं सजी| वमञ्जीयं या पयोगकरणं तयं च दुहा, तत्थ जीवपयोगकरणं दुविधं-मूलप्पयोगकरणं उत्तरप्पयोगकरणं च, मूले करणं मूलकरणं, |आद्यमित्यर्थः, उत्तरओ करयां उत्तरकरणं, संस्करणादित्यर्थः, अथवा उत्तरकरणस्स अत्थो णिज्जुत्तिगाथाचतुत्थपदेण भण्णति,
अत्थो उ उव्वक्खरो सचो, उबकारीत्यर्थः, येन वा कृतेन तन्मूलकरणं अभिव्यज्यते-उवकारसमर्थं भवतीत्यर्थः, यथा हस्त इति, कलाचिअष्ठतलोपसलसमुदयः, तस्य उक्खेवणादि उत्तरकरणं, अथवा संडासयं करेति महि वा, अथवा शरीर एव | | गर्भता मूलकारणं, उत्तरकारणं तु चंक्रमणादि, अथवा मूलकरणं शरीराणि पंच, गाथा ।।६।। उरालियादीणि पंच शरीराणि । मूलकरणं, उत्तरकरणं जं णिफण्णाओ णिप्फञ्जति, तं च एतेसिं चेव ओरालियवेउब्धियाहारयाणं तिहं उत्तरकरणं, सेसाणं पत्थि, ओरालियादीणं तिण्डं मूलकरणं, अटुंगाणि अंगोवंगाणि उत्तरकरणं, ताणि य तंजहा-सीसं उरो य उदरं पट्टी बाहा य दो य उरूओ। एते अटुंगा खलु सेसाणि भवे उबंगाणि ॥१॥ होति उबंगा अंगुलिकण्णाणासापवणं चेव । णहकेसदंतमंसू अंगोवंगेवमादीणि ॥ २॥ अथवा उरालियरसेवेगस्स इमं उत्तरकरणं-दंतरागो कण्णवद्धणं णहकेसरागो खधं वायामादीहिं पीणितं
अनुक्रम
HAR
[21]
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आगम
(०२)
प्रत सूत्रांक
[]
दीप अनुक्रम
[]
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (निर्युक्तिः+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१], उद्देशक [१], निर्युक्तिः [१-३५], मूलं [-]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र [०२], अंग सूत्र -[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णिः
| संघातादि
सूत्रक
ङ्गचूर्णिः
1-0 11
DIST
A Sun and
करोति, एवं ओरालियम्स, वेउच्यिउत्तरकरणं उत्तरवेउब्वियरूवं विउब्वेति, आधारए णत्थि एताणि, इमं वा आहारगस्स | गमणादीणि, अथवा पंचेन्द्रियाणि - सोइंदियाईणि मूलकरणं, सोइदियं कलंबुगापुप्फसंठितं, एयं मूलकरणं उत्तरकरणं तु कण्णावेहवालाईकरणादि, अथवा यदुपहतस्योपकरणस्य तदुपकारित्वात् य उपक्रमः क्रियते विसेण ओसधेण वा, एवं सेमाणंपि, यावन्तीन्द्रि याणि सन्ताणि शोभानिमितं अर्थोपलब्धिनिमित्तं वा उत्तरगुणता निवर्त्तयति, शोभा वर्णस्कन्धादि, अर्थोपलब्धिस्तु बाधिर्यतिमिरप्रसुप्यादीनां उपक्रमतः पुनः स्वस्थकरणं, अथवा दबिंदियाणि परिणामियाणि विसेण अगदेण वर्णउपयोगवाताय भवति, अथवा विममेव विविणा उपजुञ्जमानं रसायणीभवति, औषधग्रामाश्च ये शरीरोपकारिणः पथ्यभोजनक्रियाविशेषाः सर्व एव चाऽऽहारः, • अथवा स्वरभेदवर्ण भेदकरणानि । इदानीं एतेसिं चैव पंचण्डं सरीराणं तिविधं करणं भवति, तंजा-संघायणाकरणं परिमाडणाकरणं संघाय परिसाडणाकरणं, तेयाकम्माणं संघातणवअं दुविधं करणं, एताणि तिष्णिवि करणाणि कालतो मग्गिजंति, तत्थोरालियसंघातकरणं एगसमयियं, जं पढमसमयोत्रवण्णगस्म, जहा तेल्ले उग्गाहिमओ छूढो तप्पढमताए आदियति, सेससमएस सिणेहं गिण्हइवि मुंचवि, एवं जीवोवि उबवतो पढमे समए एगंतसो गेण्हति ओरालियम रीरपाउग्गाणि दव्वाणि, ण पुण किंचिवि विमुयति, परिसाडणावि समओ चैत्र, सो मरणकालसमए एगंतसो चैव मुंचति, मज्झिमे काले किंचि गेण्हति किंचि मुंचति, सो जहणोणं खुड्डागं भवग्गहणं तिममयूर्ण, उक्कोसेणं तिष्णि पलिओवमाणि समयुजाणि, किह पुण खुड्डागभवग्गणं तिसमयूर्ण भवति ?, उच्यते, 'दो विग्गमि ममया समयो संघातणाऍ तेहूणं । खुड्डागभवग्गणं सव्वजहणो ठिती कालो ॥१॥ उक्कोसो समग्रूणो जो सो संघातणासमयहीणो । किह ण दुममयविहीणी साडणसमयेऽत्रणीतंमि || २ || भण्णति भवचरिमंमिवि समए
क्षुद्र भवग्रहणस्य समय गणना
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118 11
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आगम
(०२)
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१], उद्देशक [१], नियुक्ति: [१-३५], मूलं - पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
संघातादि
श्रीसूत्रकताङ्गचूर्णिः
प्रत सूत्रांक
[]
दीप
संघायसाडणा चेव । परभवपढमे साडणमतो तदुणो ण कालोति ॥३॥ जइ परपढमे साडो णिधिग्गहतो य तंमि संघातो। णणु सब्बसाडसंघातणाओं समए विरुद्धाओ॥४॥?, उच्यते, जम्हा विगच्छमाणं विगतं उप्पजमाणमुप्पणं । तो परभवादिसमए मोक्खादाणाण ण विरोधो ॥५॥ चुतिसमए णेहभवो इहदेहविमोक्खतो जहाऽतीते । जइ ण परभवोऽवि तहिं तो सो को होउ संसारी? ॥६॥ णणु जह विग्गहकाले देहाभावेऽवि परभवग्गहणं । तह देहाभावम्मिवि होजेहभवोऽवि को दोसो? ॥७॥ जं चिय विग्गहकाले देहाभावेऽपि तो परभवो सो। चुइसमए उ ण देहो ण विग्गहो जइ स को भोतु ।।८।। इदाणिं अंतरं| संघान्तरकालो जहण्याओ खुड्डयं तिसमयूर्ण । दो विग्गहम्मि समया ततिओ संघायणासमयो ॥१॥ तेहूणं खुड्डभवं धरित्तु परभवमविग्गहेणेव । गंतूण पढमसमए संघाययओ स विष्णेयो ॥२॥ उकोसो तेत्तीसं समयाहियपुवकोडिअहियाई । सो सागरोचमाई अविग्गहेणेव संघातं ॥३॥ काऊण पुष्वकोडिं धरि सुरजेट्टमायुगं तत्तो । भोत्तूण इह ततीए समए संघातयंतस्स ।। ४ ।। इदाणिं वेउव्यियस्स-वेउन्चियसंघायो समओ सो पुण विउवणादीए । ओरालियाणमथवा देवादीणादिगहणमि ॥१॥ उक्कोसो समयदुर्ग जो समय विउविउं मतो वितिए । समए सुरेसु वच्चति निविग्गहतो यतं तस्स |२।। उभयं जहष्ण समयो सो पुण दुसमयविउब्वियमतस्स । परमतराई संघातसमयहीणाई तेतीसं ॥३॥ वेउच्चियपरिसाडणकालोवि समय एव । इदाणि अंतरं, | वेउब्वियसरीरसंघातंतरं जहण्णेणं एगसमय, सो पढमसमयविउवियमयस्म विग्गहेण ततियए समए वेउबिएसु देवेसु संघातेतस्म भवति, अथवा ततियसमयवेउच्चियमतस्स अबिग्गहेणं देवेसु संघातपरिसाडणंतरं जहष्णेणं समय एव, सो पुण चिरपिउवितस्स | देवेसु अविग्गहेणं संघातेंतस्स भवति, साडम्स अंतरं जहण्णेणं अंतोमुहुर्त, तिण्हवि एतेसिं अंतर उकोसेणं अणंतकाल वणस्सतिकालो।
अनुक्रम
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आगम
(०२)
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१], उद्देशक [१], नियुक्ति: [१-३५], मूलं [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[२] “सूत्रकृत' जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
विस्रसादि
श्रीसूत्रकताङ्गचूर्णिः ॥ ११॥
प्रत सूत्रांक
दीप
इदाणिं आहारगस्स-आहारे संघातो परिसाडणा य समयं समं होति । उभयं जहण्णमुकोसय च अंतोमुहत्तस्स ॥१॥ बंधणसाडुभयाणं जहण्णमंतोमुहुत्तमंतरण । उक्कोसेण अवई पोग्गलपरियट्ट देसूर्ण ॥२॥ तेयाकम्माणं पुण संताणाणादितो ण संघातो। | भव्वाण होज साडो सेलेसीचरिमसमयंमि ॥३॥ इदाणि जीवउत्तरप्पयोगकरणं, तत्थ गाथा 'संघातणा य परिसाडणा य मीसे तहेव पडिसेहो । पडसंग्वसगडथूणाउडतिरिच्छाणु(इ)करणं तु॥१॥ तत्थ संघायणकरणं जहा पडो तंतुसंघातेण णिवित्तिजति, परिसाडणाकरणं जहा संखगं परिसाडणाए णिवतिजति, संघातपरिसाडणाकरणं जहा सगडं संघातणाए पडिसाडणाए य णिविचिजति, व संघाती व परिसाडो जथा धूणा उड़ा तिरिच्छा वा कीरति, जीवउत्तरकरणं गतं । जीवपयोगकरणं सम्मत् ।। इदाणिमजीवप्पयोगकरणं जंज णिजीवाणं कीरति जीवप्पयोगतो तं तं । यण्णाति रूवकम्मादि वावि तमजीवकरणंति ॥१॥ वष्णकरणादि जहा बत्थाणं कुसुंभरागादि कजति, रूपकम्माति वनि कट्ठकम्मादिरूवा कजंति, अजीवप्पयोगकरणं गतं, पयोगकरणं परिसमाप्तं ।। इदाणिं विस्ससाकरणं-विस्रसेति कोऽर्थः?, वित्ति विपर्यये अन्यथाभाव इत्यर्थः, अथवा सृ गती, विविधा गतिर्विश्रसा, एत्थ णिज्जुतिगाथा 'खंधेसु अ दुपदेसादिएसु अब्भेसु विज्जुमाईसु । णिप्फावगाणि दब्वाणि तं जाणसुवीससाकरणं' ॥ ॥ तं विस्मसाकरणं दुविधं-सादीयं अणादीयं च, अणादीयं जधा धम्माधम्मागासाणं अण्णोण्णासमाहाणंति, णणु करणमणादीयं च विरुद्धं, भण्णती ण दोसोऽयं, अण्णोण्णसमाधाणं जमित्थं करणं, ण णिवत्ती, अथवा परपच्चयादुपचारमानं करणं यथा गृहमाकाशीकृतं, उत्पन्नमाकाशं विनष्टं गृहं, गृहे उत्पन्ने विनष्टमाकाशं । इदाणिं सादीय विस्ससाकरणं, तं दुविध-चक्षुफासियं अचक्खुफासियं च, जं चक्खुमा दीसति तं चक्खुफासिय, तं अन्भा अन्भरुक्खा एवमादि,चक्खुसा जंण दीसंति
PASSANILIUID
BACHIEN
INDI
a rahattamiltin A I IME
ANSIDE
अनुक्रम
NAR
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आगम
(०२)
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१], उद्देशक [१], नियुक्ति: [१-३५], मूलं - पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत' जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
बन्धनादि परिणामाः
ऋ ताङ्गचूणिः ॥ १२ ॥
प्रत सूत्राक
दीप
तं अचक्खुफासियं जहा दुपदेसियाणं परमाणुपोग्गलाणं एवमादीणं जं संघातेणं भेदेन वा करण उप्पजति तं ण दीसति छ उमत्थेणंति | | तेण अचक्खुफासियं, वादरपरिणतस्स अणंतपदेसियस्स चक्षुफासियं भवति, तेसिं दसविधो परिणामी, तंजहा-बंधणगतिसंठाणे भेदे गंधरसवण्णफासे य । अगुरुअलहुपरिणामे दममेऽविय सद्दपरीणामे ॥१॥ बंधणपरिणामे दुविधे पत्ते-णिबंधण परिणामे य लुक्खधंधणपरिणाम य, 'निद्धस्स निद्वेण दुआहिएणं, लुक्खस्स लुक्खेण दुआहिएणं । णिद्धस्स लुक्खेण उबेति बंधो, जहण्णवञ्जो विसमो समो वा ॥१॥ समणिद्धताएँ बंधो ण होति समलुक्खिताएवि ण होइ । वेमायणिद्धलुक्खत्तणेण बंधो तु खंधाणं ॥ २॥ गतिपरिणामो तिविदो उकोसजहण्णमज्झिमो चे। लोगंता लोगत गमणं एगेण समयेणं ॥३॥ तहय पदेसि पदेमा जहण्णसमएण होति संकंती । अजहष्णमणुक्कोसो तेण पर खेतकाले य ।। ४॥ एमेव य गंधाणं गतिपरिणामो जहण्णमुक्कोसो । कालो जहण्णतुल्लो उक्कोसेणं असंखेको ।। ५ ।। समयादी संखेजो कालो उक्कोसएण उ असंखो। परमाणूखंधाण य ठितीय एवं परीणामो ॥६॥ परिमंडले य वट्टे तसे चउरंस आयते चेत्र । संठाणे परिणामो सहऽणित्थत्थेण छम्मेया ॥७॥ पयरघणा सोसि सेढी नदी य आयत विसेसो। सव्वे ते दुविहा (जुम्मओज) पदेसुक्कमगजहण्णा ॥८॥ माणु परिमंडलस्स उ सब्वेसि जहण्णमोयजुम्मगमा । उक्कोस जहणं पुण पदेस उग्गाहणकमेणं ॥ ९॥ पंतपदेसुक्कोसं तह यमसंखप्पदेसमोगाढं । चीमा चत्तालीमा परिमंडलि दो जहण्णगपा ॥१०॥ पंचग चारसगं खलु सत्त य बत्तीसगं च | बट्टमि । तिय छक्कग पणतीसा चत्तारि य होइ नसंमि ॥ ११॥ जव चेव तहा चउरो सत्तावीसा य अटु चउरंसे । तिगद्गपण| रस छक्कं पणयाला वाचरिमयस्स ॥१२॥ एसो संठाणगमो पएसओगहणापडिद्दिट्ठो । दुगमादीसंयोगो हबति अणिस्थत्थसंठाणं
अनुक्रम
बंधन-परिणामस्य भेदा:
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आगम
(०२)
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१], उद्देशक [१], नियुक्ति: [१-३५], मूलं - पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[२] “सूत्रकृत' जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
प्रत सुत्रांक
Palmi
[]
श्रीसूत्रक
॥१३॥ मेदस्स तु परिणामो संघातविहूयणेण दब्वाणं । संघातेणं बंधो होइ वियोगेण भेदोत्ति ।। १४ ॥ भेदेण सुहमखंधो मेदादिनागचूर्णिः | संघातेणं च बादरों खंधो। सुहुमपरिणाममीसक्कमेण भेदेण परमाणू ।। १५॥ अह वायरो उ खंधो चक्खुद्देसे य गंतगप- MAपरिणामा: ॥१३॥ देसो। संघातभेदमीसग पडसंखयसगडमाधम्मा ॥१६॥ खंडगपयरगचुणियअणुतडिओक्कारियाए तह चेव । भेदपरिणामो
पंचह णायव्यो सबखंधाणं ॥१७।। खंडेहिं खंड भेदं पयरसभेदं जहऽम्भपडलस्स । चुण्णं चुणियभेदं अणुतडितं वंससकलं ते ॥१८॥ बुंदसि समारोहे भेदे उक्केरियाए उकेरं । वीसस्सपयोगमीसग संघातवियोग विविधगमो।।१९।। जति कालगमेगगुणं सुक्किलयपि य हवेज बहुयगुणं । परिणामिजति कालं सुक्केण गुणाहियगुणेणं ॥२०॥ जति सुक्किलमेगगुणं कालगदव्वं तु बहुगुणं जति य। परिणामिजति सुक्कं कालेण गुणाहियगुणेणं ।। २१ ।। जति सुक्कं एगगुणं कालयदव्बंपि एगगुणमेव । कावोय परिणामो तुल्ल| गुणत्तेण संभवति ॥२२॥ एवं पंचवि चण्णा संजोएणं तु वण्णपरिणामो । एगत्तीसं भंगा सब्वेऽपि य यष्णपरिणामे ॥२३॥
एमेव य परिणामो गंधाण रमाण तह य फासाणं । संठाणांण य भणिश्रो संजोएण बहुविहविकप्पो ॥२४॥ अगुरूलहुपरिणामो || परमाणूओ आरम्भ जाय असंखेजपदेसिया बंधा सुहमपरिणयावि खंधा अगुरूलहुगा चेव । तत वितते घणशुसिरे भासाए मंदघोरHI| मिस्सा य । मेदस्मवि परिणामा एबमणेगा मुणेयया ॥२५॥ छाया य आतवे या उजोतो तह य अंधगारो य। एसोऽवि | पोग्गलाणं परिणामो फंदणा जा य ।। २६॥ सीया गादिपगांसा छाया पाइच्चिया बहुविकप्पा । उण्हो पुणप्पगासो णायव्यो
आयचो णामं ।। २७।। णवि सीतो णवि उण्हो समो पगासो य होति उज्जोओ। कालमइलं तमंपिय बियाण तं अंधयारंति ॥२८॥ दन्यस्म चलणारफंदणा उ सा पुण गतित्ति णिहिट्ठा। वीमसपयोगमीसग अत्तपरेणं उभयतोऽचि ।। २९ ।। अभ्रेन्द्रधन्यादीनां च ।
MAHINDRAPHAR
दीप
अनुक्रम
THANDRANI
mins
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आगम
(०२)
प्रत सूत्रांक
[]
दीप अनुक्रम
[]
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र -२ (निर्युक्तिः+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१], उद्देशक [१], निर्युक्तिः [१-३५], मूलं [-] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र -[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
श्रीसूत्र
चूर्णि
। १४ ।।
परिणामकरणं, दव्यकरणं गतं । इदाणि खेत्तकरणं-'ण विणा आगासेणं' गाथा |१| यत्किचिदिति उत्क्षेपणापक्षेपणादि घटादिकरणादि वा न क्षेत्र मंतरेण क्रियते, क्षेत्रं- आकाश, तस्स करणं नत्थि, तहावि वंजणपरियावण्णं उच्छुकरणं, सालिकरणं जहा वा साधूहि अच्छमाणेहिं खेतीको गामो णगरं वा, जंमि वा खेत्ते करणं कीरति भणिञ्जति वा, कालकरणंति 'कालो जो जाव'तियो' गाथा | १० | जावता कालेणं क्रियते, यम्मि वा काले क्रियते, एवं ओहेण, णामओ पुण इमे इकारस करणे (१०-११-१२) | बिवं च बालवं चेव, कोलवं श्रीविलोयणं । गराइ वणियं विड्डी, सुद्धपडिवए पिसादीया । पक्खतिधयो दुगुणिआ जोण्दादौ सोधये पण पुण काले । सचाहिए देवसियं तं चिय रूवाहियं रतिं || १ || सुचराष्टदिवैकरपूर्ण दिवाकृतिरामदिवादरभूत दिवा' एसु विट्ठी, सुद्धी पंडिवयरति दिवसस्स य पंचमदुमी रति । दिवसस्स बारिसी पोण्णिमाए रतिं चयं होंति ||१|| बहुलचउत्थीऍ दिवा बहुलस्स य सत्चमी हवति रतिं । एक्कारसिं च बहुले दिवा ववं होति करणं तु ।। २ ।। सउणि चतुष्पय गागं कित्थुगं च चतुरो धुवा करणा । किण्हच उदसिरचि उणी सेसं तियं कमसो ॥ ३ ॥ कालकरणं गतं । इदाणिं भावकरणं भावस्स भावेण भावे या करणं, तत्थ निज्जुत्तिगाथा-भावे पयोगवीसस पयोगसा मूल उत्तरं चैव । उत्तरकमसुतजोवणवण्णादी भोयणादीसु ॥ १ ॥ भावकरणं दुविध-पयोगसा बीससा य, पयोगकरणं दुविधं मूलपयोगकरणं उत्तरपयोगकरणं च मूलपयोगकरणं पंच शरीराणि, ताणि पुण उदइयभावणिफण्णाणि का तर्हि भावना ?, उदइयो हि भावो दुविधो-जीवोदओ अजीवोदइओ य, तत्थ जीवोदइओ पंचण्डं सरीराणं अण्णतरेणोदितो जीवः स तथाभूत इति जीवोदयभावो, अथ पुण जीवोदयोदितानि शरीरारंभकाणि द्रव्याणि तथा समुदिताणि तत्थ शरीरे भवन्तीत्यर्थः, अजीवोदयिको भावः, यथा च तत्र द्रव्यकरणोपदिष्टं दबेदियाई विसओसधादीहिं तथेहापि तेषु
[27]
क्षेत्रादि करणानि
॥ १४ ॥
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आगम
(०२)
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१], उद्देशक [१], नियुक्ति: [१-३५], मूलं - पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[२] “सूत्रकृत' जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
भावकरण
श्रीसूत्रताङ्गचूर्णिः ॥१५
प्रत सूत्रांक []
SHIP
दीप
| परिणमत्सु भावोऽभिसंबध्यते, तानि हि द्रव्येद्रियाणि विसऔपधादिद्रव्यविशेषः परिणम्यमानानि औदयिकमेव भावं परिणमंति, तेसु सरीरेसु इंदिएसु वा किं मूलकरणं , उच्यते, सरीरपजत्ती मूलकरणं, सेसं तु मूलकरणस्सेव उत्तरकरणं भवति, जहा उत्तर
कमसुतजोवणवण्णादी भोयणादीसु, गब्भवक्कतिएस ओरालिएसु ताव जोणीजम्मणणिक्खंतस्स कल्पकौमारयौवनमध्यमस्थावराall दिवयाणि क्रमशः प्रजायते, निपेकादिक्रमो वा यथा भवति, तथा वृक्षेष्वपि अंकुरपत्रकंदनालगन्भेतुपशूककणपाकक्रमाः क्रमशो निष्पद्यते, सुत्तेति कलाधिगमो व्याकरणादिभाषापाटवं वा सौखयं वा यतो भवति, तिर्यग्योनिजातीनामपि शुकादीनां मवति, उक्तं च-"तेण परं सिक्खापुव्वर्ग वा उत्तरगुणलद्धि वा पडुच्च भासाविसेसो भवति", 'जोवणे'त्ति पुनर्नवं यौवनं भवति औषधादिमिः, कस्यचित् वर्णकरणं च भोजनादिभिः क्रियते, यथा स्नेहं पिरतो वर्णप्रसादो भवति, आदिग्रहणात् अभ्यङ्गोद्वर्तनादिभिर्वा वर्णविशेषो भवति १, वेउब्धियं रूबं विउव्वतित्ति, वुत्तं पयोगभाव करणं । इदाणिं विस्ससाभावकरणं तत्थ गाथा| 'वषणादिगा य वपणादिगेसु' गाथा ॥१५॥ वर्णादिगो णाम वण्णगंधरसफासा, द्वितीयवपणादिग्रहणं वर्णादिगेसु दव्वेसु
यथा परमाणुद्रव्यस्य कृष्णादिभिर्वर्णविशेषैः परिणामतः यः परिणामविश्रसाभावः, गंधरसफरिसेसुवि, विश्रसामेलो णाम पंचण्डं || वा वण्णाणं संयोगविसेसेणं उप्पजति जहा अन्माणं अन्भरुक्खाणं संज्झाणं गंधधणगराईणं एक समयं उक्कोसेणं जचिरं कालं,
अथिरा उत्पश्यनंतरविनाशिनः, कालान्तरावस्थायिनव संध्यारागादयः, ये तु परमाण्वादिषु स्थिराः ते असंख्येयमपि कालं भवंति, तथा च छायां प्राप्य छायात्वेन परिणमंति पुद्गलाः, ते विश्रसापरिणामादेव, एवमुष्णमपि, तथैव विश्रसापरिणामादेवाप्रायोगिकमपि स्थिरं भूत्वा दधिमस्तुकिलायनिष्टनवनीततत्वेन परिणमंति, भणिनं भावकरणं, एत्थ भावकरणेण अहियारो, तत्थ
अनुक्रम
ANUSAHES
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आगम
(०२)
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१], उद्देशक [१], नियुक्ति: [१-३५], मूलं - पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
श्रीमत्रक
चूर्णिः ॥१६॥
प्रत सूत्रांक
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णिज्जुत्तिगाथा-'मूलकरणं पुण सुते तिविधे जोगे सुभासुभे झाणे। ससमयसुत्तेण पगयं अज्झवसाणेण या सूत्र
मूलीसुभेणं ।। १६ ॥ सुत्ते मूलकरणं दुविधं-लोइयसुतकरणं लोउचरियसुतकरणं च, तत्थ लोए ताव जो जस्स सत्थस्स कत्ता यथा
चरकरणादि सुलसा याज्ञवलश्च तंतुग्रीवथ, अस्माकमपि गणधरैर्टब्ध, तत्कतरेण योगेन कृतं ?, उच्यते-त्रिविधेनापि, मनसा तावदुपयुक्ता, वाचा भापते, कायेन प्रगृहीताञ्जलिः तीर्थकराभिमुख उत्कुटुका, भंगिकथुतोषयुक्तस्य वा त्रिविध उपयोगो भवति, एवमीर्यासमितस्यापि त्रियोगतेककाले भवति, मनसा तावत्पथ्युपयुक्तों वाचा किंचित् पृष्टो व्याकरोति कायेन गच्छत्येव, एवं त्रिविध
मपि तस्य भवति । 'सुभासुभेजशाणेति, जं सम्मदिट्ठी करेति, एत्थरि सुतकरणे ससमयसुतेण पगतं. णो परसमयेण, सुभेणं 0 अज्झवसायेणं, सुभेण गणघरेहिं कतं, एवं ताव गणधराणं मूलकरणं, तस्सिसाणं तु उत्तरकरणं, अथवा तेसिमवि मूलकरणं घडेति, । यदुत अपूर्वमेव पढंति, वक्तारोऽपि च भवंति 'अनेन साधुना आचारः कृत' इति, यत्तु विस्मृतं पुनः संस्क्रियते तदुत्तरकरणमय,
उक्तं करणं । इदानीं कारकः, ज्ञानदर्शनसंयुक्ता गणधरा एव कारकाः, तदेव च क्रियमाणं सूत्र 'कजमाणे कडेतिकाऊणं कर्ड भवति, तं पुण गणधरेहिं कि उक्कोसकालद्वितीएहि कम्मेहि वट्टमाणेहिं कतं०१ जहण्णाद्वितीएहिं? अजहण्णमणुकोसद्वितीएहि ?, एत्थ गाथा-'हितिअणुभागे वंधण णिकाय णिवत्तदीहहस्से य । संकमउदीरणाए उदए वेदे उचसमे य ॥१७॥ ठितिचि अजहण्यामणुक्कोसहितीएहिं कम्मेहि कयं, तेहिं पुण किं तिव्वाणुभावेसु मंदाणुभावेसु 'बंधणेति किं बंधतेहिं कतं णिजरंतेहि कतं ?, तदावरणिज्जाई पडुच्च णो बंधतेहिं कत, णो णिधर्त्ततेहिं, णो णिकायतेहिं, णो दिग्धीकरतेहि हस्सीकरतेहि, उत्तरपगडीसंकर्म करतेहिंवि अकरेंतेहिंवि कतं, तदावरणिजाई कम्माई अणुदीरंतेहि, सेसाई उदीरंतेहिंवि अणुदीरेंतेहिंवि कयं,
दीप
अनुक्रम
मूल एवं उत्तरकरण
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भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१], उद्देशक [१], नियुक्ति: [१-३५], मूलं [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] “सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
मूत्रकरण
प्रत सूत्रांक []
श्रीसूत्रक- |'उदए'त्ति केसिंचि उदए वटुंतेहि केसिंचि अणुदए वढुंतेहिं पुरिसवेदे बटुंतेहिं कतं, 'उपसमें ति केसिंचि उत्समो केसिंचि ताङ्गचूर्णिः अणुवसमे, अथवा उबसमेत्ति खओवसमिए भावे वटुंतेहिं कतं, कार एव तस्योपदिश्यते, कथं पुण तेहिं कतं?, 'सोऊण ॥१७॥
| जिणवरमतं' गाथा (१८) तपणियमणाणरुक्खं आरूढो केवली अमितणाणी। तो मुअइ णाणबुद्धि भवियजणविरोधणट्ठाए ॥2॥ तं बुद्धिमएण पडेण गणधरा गेण्हिउं णिरवसेसं। तित्थंकरभासिताई गंति ततो पवयणट्ठा ॥२॥ एवं गणधरसलदिएदि
कृतं, सेसाणं मूलगणधरवञ्जाणं पुश्वकतं अधिञ्जतेहिं तदावरणिजाणं कम्माणं खयोवसमं काऊण कर्तति, एवं गणधरेहिं कृते FA को गुणः १, उच्यते-घेत्तुं च सुई सुहगुणणधारणा दातु पुच्छिउं चेव । एतेण कारणेणं जीतंति कतं गणधरेहिं ॥१॥ अज्सव
| साषणं कतंति-पसस्थेहिं अज्झवसाणेहिं कतं, ण पूयासकारवित्तिहेतु वा. उक्तं हि-"पंचर्हि तु ठाणेहि मु अधिजेआ, तंजहाAणाणट्ठताए०, वइजोगेण पभासति गाथा ।।१९।। यद्भगवान् भाषते स वाग्योग एव, न श्रुतं, श्रुतस्य क्षायोपशमिकचादित्युक्तं,
वाग्योगस्तु नामप्रत्ययत्वादोदयिको, विज्ञानमप्यस्य क्षायिकत्वात् केवलं, शब्दस्तु पुद्गलात्मकत्वात् द्रव्यश्रुतमात्र, अतोन भावश्रुतमिति, अतो वइजोगेण अरहता अत्थो पगरिसेहिं भासितो पभासिओ, केसि ?, 'अणेगजोगकरणा(गंधरा)ण साधूणं' ते य के', | गणधरा, कथं पुण ते अपोगजोगकरणा ?, उच्यते-जतो अणेगविधलद्धिसंपण्णा, तंजहा-कोबुद्धी बीयबुद्धी पयाणुसारी खीर-IN सप्पिमधुशासबाओ, वइजोगेण कतं तित्थंति तित्थगरेहिं यइजोगेण पभासिते हि गणधरेहि वहजोगेण चेव सुत्तीकतं, तं पुण गहितं 'जीवस्स साभावियगुणेहिं ति पागतभासाए, स सभावगुणः, वैकृतस्तु संस्कृतभाषा, आगंतुक इत्यर्थः, तं च पुण एवं "अक्वरमतिगुणसंघातणाए' गाथा ।।२०।। अक्षरगुणो णाम एकैकमणतपर्याय अक्षरं, अक्षरामिलापो वा अक्षरगुणो, अमौ ह्य.
SE
दीप
अनुक्रम
ONS
MISSI
॥ १७॥
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भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१], उद्देशक [१], नियुक्ति: [१-३५], मूलं [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सूत्रकृत' जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
गणधराणां
श्रीसूत्रक- ताइन्चूर्णिः ॥१८॥
सादस्य:
___FEE
प्रत सूत्रांक
दीप
मिलाप्योऽर्थः, न शक्यते अक्षरमंतरेण प्रकाशयितुं प्रदीवमंतरेणेव तमसि घट इत्यतोऽमिलाप्य एवाक्षरगुणः, 'मति'ति मतिणाणविशुद्धयाए सव्वेवि समा, अक्षरसमा अक्षरसंघातणाए लद्धिओवि सब्वे समा, अथवा जहा जहा अक्षराणि मतिविशुद्धताए संघाएंति 'तहा तहा णिजरा भवति, 'तदुभययोगेणं ति वाइएण माणसेण य जोगेणंति कृतं सूत्रकृतं, सूत्रकृतं सूत्र-सूत्रकृतं सूचनाद्वा सूत्रं, 'सुत्तेण
सूइतत्ति य' गाथा ।।२शा सूइता प्रोता इत्यर्थः, उपलब्धव्या या, ते सुतपदेण अत्थपदा सहता, सूत्राणुसारेण ज्ञायत इति नासूत्रोऽौँ विद्यते, तेन पुनर्पुज्यमाना योजिताः, अयुज्जमानास्तु अपार्थकनिरर्थकादयः न योजिताः 'तो बहुविधप्पगारा जुत्तत्ति गर्छ पर्य कथ्यं गेयं चउबिहेण जातिबंधेण पयुत्ता, अथवा प्रतिज्ञादिपंचावयव विशेपेण प्रयुक्ता, ते पुण ससमयजुत्ता अणादीया, सम्भतिकालं तावत्प्रतीत्य संख्येयानि पदानि, कथं पुण ते अणंता गमा अर्णता पज्जवा?, अतीताणागतं कालं पड्डुच्च अणंता गमा अर्णता पज्जवा, पण्णवर्ग वा पद्धच अर्थता गमा अणंता पज्जवा, जेण चोदसपुयी चोदसपुधिस्स छट्ठाणपडिओ, गम्यते अनेनाथों इति गमका, गणधरा पुणो सब्वे अक्खरलद्वितो मतिलदिओ य तुल्ला यथा तुल्यवर्तिस्नेहा: पदीपाः प्रकाशेन तुल्या आदित्या वा तथाऽक्षरमतिलाभाभ्यां तुल्याः, अथवा यथा आदित्यः खभावतः प्रकाशयति एवं गणघरा अपि गणनिवर्तकस्य कर्मणः उदयाद्गणधारितं कुर्वति, एस्थ पुण इमाओवि गाथाओ भाणितव्याओ 'कताकतं केण कतं केसु य दब्वेसु कीरति बावि । काहे च कारओ वा णयतो करणं कतिविध वा ॥१॥ कथं, एताणि सच पयाई, तत्थ सुत्तकडं किंकतं कज्जति अकयं कज्जति ?,जं भणिय-कि उप्पण्णं कज्जति अणुप्पण्णं कज्जति ?, एत्थ गएहिं मग्गणं-केइ उप्पण्णं इच्छंति, केइ अणुप्पणं ति, ते य णेगमादी सत्त मूलणया, | तत्थादिणेगमस्स अणुप्पणं कीरति, यो उप्पण्यां कीरति, कम्हा ?, जहा पंचस्थिकाया णिचा एवं सूतकडंपि ण कयादि णासी
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भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१], उद्देशक [१], नियुक्ति: [१-३५], मूलं [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] “सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
प्रत सूत्रांक
श्रीसूत्रकवाङ्गचूर्णिः ॥१९॥
दीप
|ण कदाइ ण भवइ ण कयाइ ण भविस्सति भूयं च भवद य भविस्सति य धुवे णितिए अक्वए अधए अवट्ठिए णिचे ण एसउत्पमादिभावो केणइ उप्पायितोतिकटु, जयावि भरधेरवतेसु चोरिन्जति तयावि महाविदेहे वासे अवोच्छिण्णामेव, सेसाणं णेगमाण IAL विचार चउण्ह य संगहादीणं णयाणं उप्पण्णं कीरति, जेण पण्णरससुवि कम्भूमीसु पुरिसं पडुच उप्पजति, जति उप्पष्णं तिविधेणं सामिचेणं उप्पण्ण-समुट्ठाणसामित्चेण वायणसा० लद्धीसा०, एत्थ को णयो के समुप्पर्ति इच्छति', तत्थ जे पढमबजा योगमसंगइवहारा ते तिविपि उप्पत्ति इच्छंति, समुट्ठाणं जहा तित्थकरस्स सएणं उट्ठाणेणं, वायणाए वायणायरियस्स णिस्साए जहा भगवता गौतमखामी वाइतो, लद्धीए जहा भवियस्म किंचि निमित्तं दणं जातिस्मरणादिगं तदावरणिजाणं कम्माणं खयोवसमेणं उप्पजति, उज्जुसुतो समुट्ठाणं णेच्छति, किं कारणं, भगवं चेव उट्ठाणं स एव वायणायरिओ गोतमप्पभितीणं, तेण दुविध बायणासामित्तं लद्धिसामित्तं, तिणि सद्दणया लद्धिमिच्छंति, जेण उट्ठाणे वायणायरिए य विज्जमाणेऽवि अभवियस्म ण उप्पज्ज-- |ति, अभावात् , कतातंति गतं ।। केण कयंति य, ववहारतो जिणेदेण गणधरेहिं च, वस्सामिणातु णिच्छयणतस्स, सतो जातो पाषणं । 'केसु दम्वेसु कीरतित्ति णेगमस्स मणुण्णेसु दव्वेसु कीरति, जहा 'मणुणं भोयण भोचा, मणुण्णं सयणासणं । मणुण्णसि अगारंसि, मणुण्णं ज्झायते मुणी ॥१२॥ योगतेण मणुणं हवइ हु परिणामकारगं दव्यं । वभिचाराओ सेसा विति ततो सपदग्वेसु | ॥२॥ण सब्यपज्जयेसु, जेण 'सुत्ते ण सबपज्जबा' इति वचनात् , केसु दबेसुत्ती गतं । काहे य कारओ भवति, उद्दिद्वेचिय पोगमणयस्स कत्ताऽणधिज्जमाणोऽवि । जं कारण मुद्देसो मि य कज्जोवतारोत्ति ॥ १॥ संगहलवहाराणं पचासण्णतरकारणआणतो। उदिट्टमि तदत्थं गुरुपयम्ले समासीणो ॥२॥ उज्जुसुतस्त पढतो अपुब्बसुतपज्जवे ममए २ अक्रममाणो उपजुत्तस्स वा
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भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१], उद्देशक [१], नियुक्ति: [१-३५], मूलं [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत' जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
प्रत सुत्रांक
दीप
श्रीसूत्रक- णो सुतं भवति, समत्ते अज्झयणे सुयं भवति, तिहं सदणयाणं अपुव्ये सुतपज्जवे समये समये अफममाणस्स णियमा सम्मदिहिस्सा आलोचताजचूणिः
नादयः उवयुत्तस्स. णो सुर्य भवति, समत्ते कारओ सुतं भवति, एत्थ 'अंगेसु ताव युक्तो कत्ता सद्दकिरियोवयुत्तोचि । सद्दादीणमणण्णो | ॥२०॥ M7 परिणामो जेण सुतमतिओ ॥१॥ कत्ता णयतोऽभिहितो अथवा णयतोत्ति णीतियो णेया। सामाइयहेतुपयोजयारओ सो गयो |
य इमो ॥२॥ आलोयणाइ विणये खेचदिसा अभिग्गहे य काले य । रिक्वगुण. संपयावि य अभिवाहारे य अट्ठमयो ।।३।। नयतीति नैयायिका-गमयति एभिः प्रकारैः, एवंगुणसंपण्णा य जो सुताई देति सो णायकारी पायवादी य भवति, आलोयणा व सुतोवसंपया य दायव्वा पडिच्छगेणं, सिस्सेणावि जति मूलगुणउत्तरगुणा वा विराधिता ताहे उद्देसावितेण णिस्सल्लेण होता। | आलोयणसुद्धस्सवि देज विणीयस्स णाविणीयस्स । ण हि दिञ्जति आभरणं पलियत्तियकण्णहत्थस्स ॥१॥ सो विणीतो केरिसो, 'अणुरत्तो भनिगतो अमुई अणुअत्तओ विसेसष्णू । उज्जुमइ अपरितंतो इच्छितमत्थं लभति साधू ॥शा विणीयस्सविय कयमंगलस्स | तयविग्धपारगमणाय । दंजा सुकतोवयोगो दब्यादिसु सुप्पसत्थेसु ॥२॥ तत्थ दब्बे सालिवीधियागोधुमजवादिधण्णसमीपे, ण
तु तिलचणगादिसमीचे, खेनं पसत्थमपसत्थं वा, उच्छवणे सालिवणे पउमसरे कुसुमिए व वणसंडे । गंभीरसाणुणाए पदाहिणजले | | जिणघरे वा ॥१॥ दिज ण 3 भग्गनामितसुसाणसुण्णामणुण्णगेहेसुं । छारंगारकयारामेज्झादीदव्वदुद्रुसु ॥२॥ अथवा | | अस्थि काणिवि खेत्ताणि जेसु सज्झायो चेव ण कीरति जहा चैदेसे पण्णत्ती, सिंधुविसए य ण पढिअति, मसाणादिसु वा, एवं
जो जहिं । इदाथि तिषिण दिसाओ अभिगिज्झ उद्दिसियचं-'पुव्वाभिमुहो उत्तरमहो व देज्जाऽहया पडिच्छेज्जा । जाए जिणादयो | वा दिसाएँ जिणचेइआई वा ।।१।। कालेत्ति इमं अंग कालेण पढिज्जति, रातिदिणाणं पढमचरिमासु, अहवा उदिसंता-चाउद्दसिं.
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भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१], उद्देशक [१], नियुक्ति: [१-३५], मूलं - पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] “सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
NAGAR
सूत्रक
आलोचनाद्या:
गचूर्णिः
प्रत
सूत्रांक
A
पण्णरसिं वज्जेचा अट्ठमी च णवी च छष्टुिं च । चउस्थि वारसिं च दोण्हपि पक्खाणं ॥१॥ पसत्थेसु वा रिक्खेनु 'मयसिरमा पुस्सो तिणि य पुब्बाइ मूलमस्सेसा। हत्थो चित्ता य तहा दस विद्धिकराई णाणस ॥१॥ जस्स वा अणुकूलं, अथवा 'संझागयं रविगतं विडेरं सग्गहं विलंपिं च । राहुहतं गहमिणं च वज्जए सत्त णक्खत्ते ॥१।। संझागतंमि कलहो होति कुभत्तं विलंविणक्खत्ते । बिडेरे परविजयो आइचगते अणिबाणी ।।१।। जं' सग्गर्हसि कीरइ णक्ख ते तत्थ दुग्गहो होइ । राहुद्दयंमि य मरणं गहभिण्ण लोहिउग्गालो ॥२॥ पण्णत्ती दिहिवाओ य दिवडूखेत्तेसु उदिसंति। गुणसंपया णाम पुचि विणेयो जह विणीतो इमे य से गुणा जइ अस्थि तो उद्दिस्सति-पियधम्मो ददधम्मो संचिग्गो बज्जभीरु असढोय। खंतो दंतो मुत्तो थिरव्यतजितिंदिओ | उज्ज् ॥१२असतो तुलासमाणो समितो तह साधुसंगधग्यो य । गुणसंपदोववेदो जोगो सेसो अजोगो तु ॥२॥णेयोऽभिव्वाहारोऽभिबाहरणमहमस्स साधुस्स । इदमुहिस्सामि सुत्तत्थोभयतो कालिअसुतंमि ॥३॥ दव्वगुणपज्जवेहि य भूतावायमि गुरु समादितु । पेढुट्टिमिणं मे इच्छामऽणुसासणं सिस्से ।। ४ ।। माहुणो पसत्थो वा अभिवाहरति, 'करणं तन्वाचारो गुरुसीसाणं चतुर्विधं तं च। | उद्देसो बायणया तहा समुद्देमणमणुण्णा ||१|| कत्थ लक्ष्मतित्ति जहा णमोकारो,णाणावरणिज्जस्स दुविधाणि फड्डुगाणि सबघा-1
तीणि देसघातीणि य, तत्थ सव्वघातीहिं उग्धातितेहिं देसघातिहिं उदिण्णेहिं उग्धातितोहें अणुदिण्णेहिं उबसामिएहिं विज्झविज्झ-IN माणस्स लब्भति, कथं लभतित्ति गयं, भणित सूतगडंति णाम अंगस्स, तस्स पुण सूयकडस्स 'दो चेव सुयक्खंधा अज्झयणाई हवंति तेवीसं । तेत्तीसं उद्देसा आयारातो दुगुणमेयं ॥१॥२३|| गाथा सोलसगंमी जेसि अज्झयणाणं ते इमे गाथासोलमगा, महन्ति अज्झयणाणि२ अहवा महंति च ताणि अज्झयणाणि२, तत्थ पढमो सुतखंधो गाधासोलसगा इइ नाव भणं तित्तिकाऊणं
दीप
SimilaTRA
अनुक्रम
LLPEPER
EATMELLETraum
PAHARASHIOPEUTITIAN HEAL
२१
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प्रत सूत्रांक
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दीप
अनुक्रम
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भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र -२ (निर्युक्तिः+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१], उद्देशक [१], निर्युक्तिः [१-३५], मूलं [-] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र - [०२] अंग सूत्र [०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि :
श्रीसूत्रकृ चूर्णि ॥ २२ ॥
तेण गाथा क्सिया सोलस णिक्खिवितव्या सुतं णिक्खिवितन्वं खंधो णिक्खिवितच्चो, 'णिक्खेवो गाथाए ॥ २३ ॥ गाथा णामादि चतुर्विधा णामठवणाओ गयाओ, दग्वे जाणगसरीरभवियसरीरवइरित्ता पत्तयपोत्थयलिहिता, भावगाथा दुविधाआगमतो णोआगमतो य, आगमतो जाणए उपयुक्त्ते, गोआगमतो एयं चैव, सोलसयं गामाइ छविधं, णामठवणाओ तह चैव, वरितं सोलसमचित्तचितमीसगाणि दव्त्राणि, खेतसोलसगं सोलस आगामपदेसा, कालसोलसयं सोलस समया, सोलससमयठितियं वा दयं, भावसोलसयं इमाणि चैव मोलस अज्झयणाणि खयोवसमिए भावे, सुत्ते खंधे य चउको णिक्खेवो पूर्ववत्, जाब भावसंधी एतेसिं चैव सोलसण्ड अज्झयणाणं समुदयसमितिसमागमेणं गाथासोलसयसुत्तखंधोति लब्भति, गाथासोलसया इमे अत्याहिकारा भवति, ससमयपरममयपरूवणा य० गाथा ||२३|| पढमज्झयणे ससमयपरसमयपरूवणाए अधिगारो १, वितियज्झयणाधियारोपण ते ससमयगुणे परसमयदोसे य णाऊ ससमए संबुज्झियन्वं २, तत्तिगज्ायणाहिगागे संबुद्धो संतो जत्थ उवसग्गेणं चालिअ ३, चउत्थायणाओ इत्थिदोसविवजणा, तेऽवि अणुलोम उवसग्गा चैव उवसग्गभीरुणो थीवस (२५) पडिलोमगा वा ४, पंचम अज्झयणाहियारो जो उवसग्गभीरू इत्यीवसमोगओ बहुयं पावं अजिऊण णरएस उबवजति ५, छडुस्स एवं जाणिऊणं महप्पा महावीरो उवसग्गाणि जिणित्ति इत्थीपसंगदोसा य दोसे जाणित्तु इत्थिगाओ वजेत्ता निव्वाणं गतो भगवान् अतो आयरिओऽवि एवं चेव चैव सीसस्स उवदिसन्तो हक्वाति जहा सम्मए जहअ उवसग्गा यणिजिणितया इत्थिगाणि उ वजेताओ एवं सीलं वं च भवति ६, परिचतणिसीलकुसील० गाथा ||२६|| सत्तमए णिस्सीला गिहत्था दुस्सीला अण्णउत्थिया सममवि पामत्थादयो कुशीला वजेत्ता सयं च शीलवता भवितवं ८, अहमस्स सयं सीलवता पाऊण वीरियदुर्ग पंडितवीरिए
[35]
गाथादि निक्षेपाः
॥ २२ ॥
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भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१], उद्देशक [१], नियुक्ति: [१-३५], मूलं [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[२] “सूत्रकृत' जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
प्रत सुत्रांक
दीप
श्रीसूत्रक
| पयतितई । सेसाणं पुण इमो अहियारो-धम्मो समाहिमग्गो गाथा ।। २७ ॥ वितियावि आयाणिय संकलिया गाथा ||२८|| अर्थाधिनाङ्ग चूणि एवं वीरियपंडितअभिगमणट्ठाए धम्मो कहिजइ, पंडियचीरियट्टितो व धर्म कथेति ९, दसमस्स समाधिं च सो उवदिसति १०, कारा: उप॥ २३॥
किमाद्याच | णाणादिसंजुत्तो से मग्गो उबदिस्मइ सो वा परेसिं उबदिमति एकारसमस्स ११, चारसमस्स एवं मग्गपडिवण्णो गामायगं (मगर्य) Aवा उबस्साए या भिक्खायरियगयं वा दुञ्जमाणे वा परउत्थिगा परउत्थिगभावितावि गिद्दी विवदेज सिं पडिसेधणट्ठा समोसरण| ज्यणे तिहावि तिसवाणं पासंडियमताणं असम्भावकुदिट्ठीओ पडिसेधिजने १२ तेरसमस्स जे पडिसेपेत्ता अहवा मग्गो परि
कहिअति मवेचि ते धम्म समाधिमग्गं वाण थाणंति १३, चोद्दसमस्स समाधिमग्गद्वितस्सवि सीसगुणदोसा परिकहिअंति | सीसगुणसंपणोण य गुरुकुलबासो वसितव्यो १४, पण्णरसमस्स आयाणिज्जे आत्मार्थिकेन आयतचरित्तेण भवियव्यं सुत्तन्थो य पायेण संकलियाण बद्धो १५, एतेसिं पण्णरसण्डवि अज्झयणाणं गाथाए पिंडकवयणेणं अत्थोऽभिवजति दरिसिजति विभाष्यत इत्यर्थः, गाथासोलमगाणं पिंडत्थो वणितो समासेणं। एत्तो एकेकं पुण अज्झयणं कित्तयिस्सामि ॥१॥ तत्थ पदमज्झयणं
समयोत्ति, तस्स इमे अणुओगदारा भवंति, तंजहा-उवकमोणिक्खेवो अणुगमो णयो, उपक्रम्यते अनेनेत्युपक्रमः, क्रम पादविक्षेपे IN उप सामीप्ये सस्थमामीवीकरणं, मन्थस्स णासदेमाणयणमिति भणितं होति, तथा-निक्षिप्यतेऽनेनेति निक्षेपः, क्षिप प्रेरणे इति,
नियतो निश्रितो क्षेपो निक्षेपो न्यामः स्थापनेतियावत , अनुगम्यतेऽनेनेत्यनुगमः, अनुगतो वा सूत्रस्य गमो अनुगमः, अनुरूपार्थ| गमनं वा अनुगमः, सूत्रानुमारणमित्यर्थः, णी प्रापणे, तस्य नव इति भवति, मूत्रप्रापणे व्यापारोपायानयतीति नयः, नीयते वा अनेनेति नयः, वस्तुनः पर्यायानां संभवतोऽभिगमनमित्यर्थः, एतेसिं च उवकमादिदाराणं एसेव कमो, यतो नाणुपक्रान्तं अम-10२३ ।।
अनुक्रम
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आगम
(०२)
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१], उद्देशक [१], नियुक्ति: [१-३५], मूलं - पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
श्रीसूत्रक
उपक्रमः
प्रत सूत्रांक
ताङ्गचूर्णिः ॥२४॥
दीप
मीपीभूतं सन्निक्षिप्यते, न च नामादिभिरनिक्षिप्तं अर्थतोऽनुगम्यते, न च नयमतविकलो अनुगम इति, जतो सत्थं सम्बन्धात्मकेन उपक्रमेण स्थापनासमीपमानीयते नामादिन्यस्तनिक्षेपमर्थतोऽनुगम्यते नानानयैः अतोऽयमेवानुयोगद्वारक्रम इति, सो उपकमो छन्चिहोऽवि-णामोवकमो ठवणा०दव्य खेत्त काल भावण्णू उबकमो, छबिहोवि जहा आवस्सए तहा परूवेयव्यो, अहबा उवकमो छविधो-आणुपुच्ची णामं पमाण वत्तव्यया अत्याधियारो समोतारो, एतेऽवि जहा अणुयोगद्वारे तहा भासितव्या जाव समोतारो | सम्मत्तो। एवं समयज्झयणं अणुपुव्वादिएहिं दारेहिं जत्थ जत्य समोतरति तत्थ तत्थ समोतारेयवं, आणुपुचीए उकितणाणुपुबीए गणणाणुपुधीए य समोतरति, सा तिविहा-पुवाणुपुत्री पच्छाणुपुत्री अणाणुपुती, समयज्झयणं पुवाणुपुबीए पढम, पच्छाणुपुबीए सोलसम,अणाणुपुबीए एताए चेव एगादियाए एगुत्तरिआए सोलस(ग)च्छगताए सेढिए अण्णमण्णभासो दुरूवूगो,एस्थ पत्थारविहिकरणं इम-एकाद्या गच्छ पर्यन्ताः,परस्परसमाहताः राशयत्तद्धि विज्ञेय, विकल्पगणिते फलम् ।।१।गणिते त्यविभक्त तु,लब्धं शेपैविभाजयेत् ।। आदावते च तत् स्थाप्यं,विकल्पगणिते क्रमात् ॥२॥णामे छविधणामे समोतरति,तत्थ छविधो भावो वणिजति,तत्थवि खयोवसमिए भावे समोतरति, जतो सबमेव सुयं खयोवसमिए भावे बट्टति । पमाणं चउविधं-दवप्पमाणं खेलप्पमाणं कालप्पमाणं भावप्पमाणं च, प्रमीयतेऽनेनेति प्रमाणं, तत्थ समयो भावात्मकत्वात् भावप्रमाणगोचरं, तं भावप्पमाणं तिविधं-गुणप्पमाणं नयप्पमाणं संखप्पमाण; | गुणप्पमाणं दुविध-जीवगुणप्पमाणं अजीवगुणप्पमाणं च, तत्थ जीवाणण्णत्तगओ समयस्स जीवगुणप्पमाणे समोतारो, जीवगुणपमाणं तिविधं-णाणगुणप्पमाणं दसणगुणप्पमाणं चरित्त(गुणप्पमाणं च),तत्र बोधात्मकत्वात् समयस्स णाणगुणप्पमाणे समोतारों, णाणप्पमाणं चतुर्विधं-पचक्खं अणुमाणं उवम्मं आगमो, तत्थ समयस्स पायं परोवदेसत्तणतो आगमप्पमाणे समोतरति, आगमो
अनुक्रम
॥ २४॥
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आगम
(०२)
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१], उद्देशक [१], नियुक्ति: [१-३५], मूलं - पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[२] “सूत्रकृत' जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
ताङ्गचर्णिः ।। २५॥
गुणनयवत
प्रत सूत्रांक
दीप
दुविधो-लोइओ लोगुनरो य,लोगुत्तरिए समोतरति,सोऽवि तिविधी-सुसे अत्थे तदुभयेत्ति,तिसुवि समोतरति,अथवा आगमो तिविधो-
अत्तागमो अणंतरागमो परंपरागमो य, तत्थ समयस्स अस्थत्तो तित्थकरस्स अत्तागमोगणधराणं अगंतरागमे गणधरसिस्साणं परंपरा- | गमो, सुत्त(स्थ)ओ गणधराणं अत्तागमो गणहरसीसाणं अणंतरागमो,तेण परं सुत्तत्थभअयोविणो अत्तागमो णो अणंतरागमो,परंपरा
गमो, गुणप्पमाणं गतं । इदाणिं णयप्पमाणं-तस्थ मूढणइयं सुतं कालियं तु ण णया समोतरंति इह । आसञ्ज तु सोयारं णए णयवि। सारतो बूया ॥१॥ इदाणिं णयप्पमाणे ण समोसरति, पुरा पुण जाव चउण्ह अणुयोगाण अपुहुत्तं आसि ताय सुत्ते णा अवितारिजंता, ॥ इयाणिं पुहुत्ताणुयोगे णायतारिज्जति । इदणि संखप्पमाणं, तं अट्ठविहं, तंजहा-णामट्ठवणसंखा दवखेचकालसंखा परिमाणपजवभावे Ka संखा चेव, तत्थ परिमाणासंखाए समोतरति, परिमाणसंखा य दुविधा-कालियसुतपरिमाणसंखा य दिहिवायसुतपरिमाणसंखा य,
| कालिय० संखाए समोतरति, कालियसुतपरिमाणसंखा दुविधा-अंगपचिट्ठ अंगबाहिरं च, अंगपविढे समोतरति, पजवसंखाए अर्णता | पज्जवा, जतो भणितं-सव्वागासपदेसग्गं; सव्वागासपदेसेहि अर्णतगुणितं पज्जवग्गं अक्खरं लब्भति, संखेज्जा अक्खरा संखेज्जा
संघाता संखेजा पदा संखेा सिलोगा संखेज्जाओ गाथाओ संखेज्जा वेढा संखेज्जा अणुयोगदारा। इदाणि वत्तव्बया, सा तिविधाAY मममयवत्तव्यया परसमयवत्तव्यया ससमयपरसमयवत्तव्यया, तत्थ ससमयवत्तवयाए समोतरति, परसमए उभयं वा सम्मदिहिस्स
| ससमयो, जाणतो सब्वज्झयणाई ससमयवत्तव्वणियताई, मिच्छत्तसमूहमयं सम्मचं जं च तदुवकारंमि वट्टइ परसिद्धंतो तो तस्स (तओ ससिद्धंतो। अस्थाहिकारो दुविधो-अज्झयणस्थाधिकारी य उद्देसास्थाधिकारो य, तत्थ अज्झयणत्याहिगारो ससमयपरसमयप| स्वणाए, उद्देसत्थाहिकारो इमों-पढममुद्देशए ताव इमे छ अस्थाहिकारा भवंति, तंजहा-महपंचभूता एकप्पयतज्जीवतस्सरीरी य तह
अनुक्रम
1॥२५॥
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आगम
(०२)
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१], उद्देशक [१], नियुक्ति: [१-३५], मूलं [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
सूत्रक
गर्णिः
प्रत सुत्रांक
।२६ ॥
दीप
ओधनाम्नी य अकारगवादी आतछट्ठो अफलवादी ॥१(३०)। वितियए चत्तारि अत्थाहिकारा, तंजहा-बितिए णियतीवायो अण्णाणी तह य णाणवादी य। कम्मं चयंण गच्छति चतुर्विधं भिक्खुममयंमि ॥२(३१)। तइए आहाकम्मं कडवादी जह य ते पवादी तु । किच्चवमा य चउत्थे परप्पवादी य विरतेसु ।।२(३२)। ततिएऽत्थ अस्थाहिकारोआहाकम्म परवादिकाय,चउत्थे एगो चेव अधिगारो किच्चुत्रमा ॥ परप्पयादीगाणं । एवं समोतारेण जत्थ जत्थ समोतरति तत्थ तत्थावतारितं, उवक्रमो गतो। इदाणि णिक्खेवो, सो तिविहो- ओषणिप्फण्णो णामणि सुत्तालावयणिप्फण्णोत्ति, ओहो णाम जं सामण्णं सुत्तस्स णाम, तं चउविधं-अज्झयणं अज्झीणं आयो
ज्झयणा,अज्झयणं णामादि चतुर्विधं, दबज्झयणं पत्तयपोत्थयलिहितं, भावज्झयणं इदमेव समयंति, अज्झीणं णामादिचतुर्विधं, 17 दबज्झीणं सन्वागाससेढी, भावज्झीणं इदमेव समयज्झयणं, ण खीज्जति दिर्जत अण्णेसिं, तत्थ गाथा-जह दीवा दीवसतं पदि
प्पदी सोय दिप्पती दीपो । दीपसमा आयरिया दीपंति परं च दीति॥१॥ इदणि आयो, सो नामादि चउन्धिहो, दब्बाओ सचितादि, सचित्ते दुपयादि ३ मिस्से स एव साभरणाणं दुपदादीणं, अचित्ते हिरण्णादि ४, भावाओ इदमेव समयज्झयणं । इदार्णि झवणा, णामादि चतुर्विधा-दव्यज्झवणा पल्हस्थियाए पोती ज्झविजति घोडो विवजाए एवमादि, भावझवणा दुविधा-पसस्थभावज्झवणा य अपसत्वभावज्झवणा य, पसत्थभावज्झवणा य णाणस्स झवणा ३, अपसत्थभावझवणा कोहस्स ४, चउसुवि एतेसु समयज्झयणं भावे समोतरति । इदाणि एतेसिं चउण्हवि णिरुत्तेण विहिणा वक्खाणं भण्णति-तत्थ णिरुत्तगाथाओ-जेण सुहज्झप्पयणं अज्झप्पाणयणमधिअणयणं वा । बोहस्स संजमस्स व मोक्खस्स व तो तमज्झयणं ।।१।। जेण सुहज्झप्पं जणेति अतो अज्झप्पजणणं, पगारणकारलोचाओ अज्झयणंति, अथवा बोहादीणं अधिकण णज्झयणं, अयनं गमनमित्यर्थः, अज्मीणं दिज्जतं
अनुक्रम
'अध्ययन' शब्दस्य निक्षेपा:
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आगम
(०२)
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१], उद्देशक [१], नियुक्ति: [१-३५], मूलं - पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] “सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
समयनिक्षेपाः
प्रत सूत्रांक []
श्रीसूत्रक
अवोच्छित्तिणययो अलोगो वा। आयोणाणादीणं झवणा पावाण खरगत्ति ॥शागतो ओहणिफणो णिखेको । अह णामणिफण्णो ताङ्गचूर्णिः समयोति, सो बारसविधो-णाम ठवणादविए खेते काले कुतित्थसंगारे । कुलगणसंकरसमए गंडी तह भावसमए य ॥२९|| णामं ॥२७॥
| ठवणाओ तहेव वतिरितो दवसमओ जो जम्स सचित्तस्स अचित्तस्स वा मभावो, तंजहा-सचित्तस्सोवयोगो सेसाणं गतिठिति| अवगाहगहणाणि, अध अञ्चित्तेण दवाणं सम्भावा भवंति वण्णगंधरसफासेहि, वण्णतो कालतो भमरोणीलं उप्पलं रत्तो कंबल
सारो पीतिया हरिदा सुकिलो ससी सुगंधं चंदणादि दुग्गंधो ल्हसुणादी कदुआ सुंठि तित्तो थियो कसायि चतूरं कविटुं अम्बं अम्बयं | महुरो गुलो कक्खडो पासाणो स एव गुरु लहुगं उलूगपत्तं सीतं हिमं उण्हो अग्गी णिद्धं घतं लुक्खा छारिया एवमादि, अहवा जो जस्स दब्वस्सोवयोगकालो सो तस्स समयो, तंजहा-खीरस्स ताव उण्हमणुण्हं तमसीतं वा, एवमण्णेसिपि पुप्फफलादीणं विभासियवं, अथवा-वर्षासु लवणममृतं शरदि जलं गोपयश्च हेमन्ते । शिशिरे चामलकरसो घृतं वसंते गुडो वसंतस्थान्ते ॥१॥ खेत्त| समयो आगासस्स धम्मो-एगेणऽवि से पुष्णो दोहिवि पुण्णे सतंपि 'माइजा । अहवा जो जेसिं गामाईणं खेत्ताणं ससभावो, जहा आगामे गामधम्मो णगरे णगरधम्म इति, देवकुरादीणं वा खेत्तणंपि जो सम्भावो, अहबा जहा परिपकस्स सालिखेतस्स लुणिसव्वस| मये, अहवा उडलोगअधोलोगतिरियलोगस्स वा जो सम्भावो, कालसमयो जो जस्स कालस्स सम्भावो ओसप्पिणी अबसप्पिणी, | उस्सप्पिणी उस्सप्पति तथा सुभाणुभावा मुदिता एगता सुभा एवं छब्धिहो कालो वण्णेतव्यो, जहा जवुद्दीवपण्णत्तीए:। पासंडसमयो जो जस्स पासंडस्स सम्भावो धम्मतेत्यर्थः, तंजहा केइ 'आरंभेण धम्मं ववसिता केसिंचि णाणा ण धम्मो, केसिंचि अ. भिपेचनोपवासगुरुकुलवासादिभिः, संगारसमयो हि यस्य येन यस्मिन् काले विधिर्दत्तः, सिंगार:-समयो जहा पुव्यकअसंगारेण
दीप अनुक्रम
॥२७॥
अध्ययन-१ आरब्धः
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आगम
(०२)
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१], उद्देशक [१], नियुक्ति: [१-३५], मूलं - पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
HO
श्रीसूत्रकवाङ्गचूर्णिः ॥२८॥
नुगमी
प्रत सूत्रांक []
सिद्धत्थसारथिणा चलदेवो संबोधितो, पुट्टिलाए तेयलिपुत्तो, पभावतीए उद्दायणो, एवमादि, कुलसमयो जो जस्स कूलस्स धम्मो, आचार इत्यर्थः, तद्यथा-शकानं आव पितृशुद्धिः खंडशुद्धिः आभीराणां अमातृमंथनी शुद्धिः, गणसमयो जो जस्स गणस्स समयो, तंजहा-मल्लगणस्स जो मल्लो अणाहो मरति स सेममल्लः संस्कार्यते, पतितं चैनमुद्धरति, गण्डिसमयो जहा भिक्खूणं गोसे पन्जागंडी मज्झण्हे भावणगंडी अवरहे धम्मकथागंडी सज्झाए समितिगंडी, भावसमयो इमं चेव अज्झयणं खयोवसमिए भावे, एतेण चेव एत्थ अहिगारो, सेसाणि मतिविकोवणत्थं परूविताणि । णामणिफण्णो निक्खेवो गतो। इदाणि सुत्तालावगणिफण्णो णिक्खेवो, सो पत्तलक्षणोवि ण णिक्खिप्पति, कम्हा?, लाघवत्थं, जम्हा अस्थि इतो ततीयं अणुयोगदारं अणुगमोत्ति, तहिं वा णिक्खित्तं इह णिखित्तं भवति, तम्हा तहिं चेव णिक्खिविस्सामीति । आह-यदि प्राप्तावसरोऽप्यसौ न संन्यस्यते किमिहोव्यत इति, उच्यते-निक्षेपमात्रसामान्यादसौ केवलमिहोपदिश्यते, न तु न्यस्यते, गुरुता मा भूदित्युक्तो निक्षेपः॥ इदाणि ततियमणुयोग
दार अणुगमोत्ति, सो दुविधो-सुत्ताणुगमो निज्जुत्तिअणुगमो, गिज्जुत्तिअणुगमो तिविहो-णिक्खेवणिज्जुत्तिअणुगमो उवुग्घातणि। ज्जुत्तिअणुगमो सुत्तफासियणिज्जुत्तिअणुगमो, तत्थ णिक्खेवणिज्जुत्तीअणुगमो अणुगतो एयं हेट्ठा णिक्खेववक्खाणं भणितं,
इदाणि उवघातणिज्जुत्तिअणुगमो, उवघातो णाम प्रभवः प्रमतिः निर्गम इत्यर्थः, अभच्छन्ने यथा चंदो, न राजति नभस्तले। उपोद्घातं विना शास्वं. तथा न भ्राजति विधौ ॥११॥ यथा हि दृष्टसर्वांगो, संवीतबदनो नरः। अभिव्यक्तिं न यात्येवं, शास्त्रमुद्घातवर्जितं ॥२॥ सो य उवघातो इमेहिं छवीसाए दारेहिं अणुगंतबो, तंजहा-उद्देसे णिदेसे य णिग्गमे खेत्तकाल पुरिसे य । कारणपञ्चय लक्षण णये समोतारणाणुमतो ॥१॥ किं कतिविधं कस्स कहिं केसु कथं केचिरं हवति कालं। कति संतरमविरहियं भवाग
TOHITHILONDITIHARIRAMmmentHANNERAL
दीप
अनुक्रम
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आगम
(०२)
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१], उद्देशक [१], नियुक्ति: [१-३५], मूलं [गाथा १-२७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] “सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
सूत्रानुग
मादि
प्रत
m सूत्रांक | श्रीसूत्रक
|| रिस फासण णिरुत्ती॥२॥ एताणि जहा सामाइयणिज्जुत्तीए भाणियब्वाणि, उवग्यायणिज्जुत्ती गता। संपति सुत्तफासिय||१-२७||| ताङ्गचूर्णिः | णिज्जुत्ती-जं सुत्तस्स बक्खाणं तीसे अवसरो, सा पुण पत्ताविण भण्णते इधत्ति, किं?, जेणासति सुत्ते कस्स तई ?, तंजहा-कमप्पत्ते ॥२९॥
सुत्ताणुगमे बोच्छिति होहिति, तीसे य तदावसरोअस्थाणमिदं तीसे, जइ भो सो कीस भण्णइ एधई ?, इव सा भण्णति णिज्जुत्तिमे
तसामण्णतो, णवरं अतो एतेण संबंधेण, इदाणि निज्जुत्ति अणुगमाणंतरं सुत्ताणुगम भणामि, सुत्तस्स अणुगमे सुत्ताणुमरणमित्यर्थः दीप
किमिह हीणाधिकविपजत्थादीदोसदुट्ठस्स आहु णिदोसस्स य वक्खाणं आरम्भति ?,णिहोसस्स, ण सदोसस्स, जतो सुचाणुगमे अनुक्रम
सुत्तमुच्चारेयवं, सुत्तेऽणुगते सुद्धे णिच्छिते तह कतो पदच्छेदो सुत्सालावण्णासमिक्खिते फासो तु, एवं सुत्ताणुगमो सुत्तालावय
|कयो य णिक्खेवो। सुत्तफासिय निज्जुत्ती णया य वचंति समगं तु ॥१॥ तत्थ सुत्ताणुगमे सुतं उचरियवं अहीणक्खरं अणच[१-२७]
क्खरं अवाइद्धखरं अक्खलितं अमिलिय अविच्चामिलितं पडिपुण्णं पडिपुण्याघोसं कंडोहविप्पमुई तो तत्थ णज्जिहिहि ससमजयपदं वा वंधपदं वा मोक्खपदं वा ससमयपदं वा णोससमयपदं वा ते, तंमि उच्चारिते समाणे केसिंचि भगवंताणं केइ अत्था-10
धिकारा अधिकता, भवंति, केइ अणधिगता, तो तेसिं अणभिगताणं अत्थाणं अभिगमणट्ठताए पएण पयं वनइस्सामि, तत्थ संहिता Hय पदं चेव, पयत्थो पदविग्गहो । चालणा पञ्चवत्थाणं, छविधं विद्धि लक्खणं ॥१॥ तत्थ संहिता सुत्तं इम-'बुज्झिज तिउ
टिजा, बंधणं परिजाणिया। किमाहु बंधणं धीरे?, किं वा जाणं तिउट्टति ? ॥१|| बुज्झिज्जेति कुत्र बुध्धेत ? धर्मे | 2, D|बुध्येत इति, बुज्झितं वा बुज्झेजा बुज्झेजा तिकालगाहणं बुद्धो तमेवार्थ पुनः पुनर्बुध्यते, बुद्ध्यमानो वा बुद्ध्येत, किं पुनः तए | बुझेज्ज वा उबलभेज वा भिंदेज वा एवमन्येऽपि ज्ञानार्था धातवो वक्तव्याः , तद्यथा जहेज वा आगमेज वा, समयोति अधि
सूत्रस्य अनुगम
[42]
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आगम
(०२)
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (निर्युक्तिः+चूर्णिः)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [ १ ], उद्देशक [१], निर्युक्तिः [१-३५], मूलं [गाथा १-२७] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र -[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
प्रत
त्रकूसूत्रांक वूर्णिः ॥१-२७|| |!• ॥
दीप
अनुक्रम [१-२७]
यारो प्रस्तुतः, स च त्रिविधः, तद्यथा - स्वः परः तदुभयच समय स्वभावे इतिकृत्वा तेषां स्वभावं युद्ध्येत के तु सम्यक्प्रतिपन्नाः ? के मिध्याप्रतिपन्ना इत्येवं सर्वाध्ययनाधिकारं बुध्येत, अथवा बंधं बन्धहेतुं वा बुध्येत, अत्राह - अविशिष्टमेवापदिष्टं बुध्येत इति, नेत्यपदिष्टं इति एवं नाम बुध्येत बंधं बंधहेतु वा?, उच्यते, नन्त्रपदिष्टमत्रैव द्वितीयपादेन बंधणं परिजाणिया' इति, तेनानुक्तमपि ज्ञायते यथा बंधं बंधहेतूंच युध्येत तत्र बन्धहेतुः प्रमादः संपरायिकस्य कर्म्मणः रागद्वेपमोहा वा पाणातिवातमाइगाणि वा मिच्छादंसणसपञ्जवसाणाणि आरंभपरिग्गहा वा एवं बंधहेऊ बुज्झेजा, एत एव विवरीता मोक्खहेतवो भवति, तेवि बुझिया भवंति उक्तो बन्धहेतुः, बन्धस्तु प्रकृतिस्थित्यनुभावप्रदेशो वक्तव्यः, तिउट्टिजत्ति त्रोडेज, सा दुविधा- दवोडणा य भावतोडणा य, दब्बे देशे सधे य, देसे एगतंतुणा एगगुणेण वा छिष्णेण दोरो त्रुटो बुज्झति सचेण वि त्रुटो चैव भण्णति, भावतोदृणा भावेणैव भावे त्रोटेयवो, णाणदंसणचरिताणि अत्रोटयत्ता तेहिं चैव करणभूतेहिं अण्णाण अविरती मिच्छाद रिसणाणि त्रोटितवाणि, जघुदिडे वा पमातादिबंधहेतू त्रोडेजा, बंधं च अट्टकम्मणियलाणि त्रोडेज, उच्यते-बंधणं परिजाणिया, बंधस्तद्धेतवश्वोक्ताः, ताणि जाणण परिण्णाए णाऊण पञ्चक्खाण परिण्णाए तिउद्दिज्ज, एतद्वंधानुलोम्यात् सूत्रं गतं, इयरहा हि वुज्झेजति वा परिजााणेजेति वा एकट्टमितिकातुं तेन सुद्धः सन् बंधनं परिज्ञाय त्रोडेज, अथवा बुज्झेजति जाणणापरिण्णा गहिता, बंधणं परिजाणेजति पच्चक्खापरिणा, किमाहु बंधणं धीरो, किमिति परिप्रश्ने, आहुरिति एकान्तपरोक्षे, भगवति सिद्धिं गते जंबूस्वामी अजसुधम्मं पुच्छति, किमाहु बंधणं धीरे, तत्थ बंधो अट्टुष्पगारं कम्मं, चउद्द्विो बंधहेतू, अत्राह-इह सूत्रे नोक्ता बंधहेतवो न चानुक्तमुक्तं स्यात् एवमुक्तमपि अनुक्तमस्तु, उच्यते, यंधने उक्ते बंधी बंधहेतुश्व अपदिष्टो भवति, धीरो इति बुद्ध्यादीन् गुणान् दधाती धीरः, पुनराह किं वा
श्रुतस्कन्ध-१, अध्ययन-१, उद्देश १ सूत्र आरभ्यते
[43]
वोपरिज्ञाने
॥ ३० ॥
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आगम
(०२)
“सूत्र" - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१], उद्देशक [१], नियुक्ति: [१-३५], मूलं [गाथा १-२७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत' जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
परिग्रहा
प्रत
श्रीन ||१-२७॥ ताङ्गचूर्णिः
॥३१॥
सूत्रांक |
दीप अनुक्रम [१-२७]
जाणं तिउति ?, उच्यते, आघातः इहैव व्याकरणे तमेव बंधबंधहेतू य जाणणापरिणाए णातु पञ्चक्खाणपरिणाए पडिसेहेतु पच्छा।। तिउट्टतित्ति तिउति-बंधणाई तोडेइ, सो वा बंधणेहिं भिन्नो त्रुटति, अहवा पुवढेण उद्देसो पच्छद्रेण पुच्छा वितियसिलोगेण वागरणं, तेन कारणे कार्यवदुपचारं कृत्वा बंधनमपदिश्यते-चित्तमन्तमचित्तं वा सिलोगो॥२।। उक्तं हि आरंभपरिग्गहो बंधहेतू , येऽपि | च रागादयः तेपि नारंभपरिग्गहा च अंतरेण भवंतीति तेन तावेव वागराहियं सन्वितिकृत्वा सूत्रेणैवोपनिबद्धो, तत्रापि परिग्गहनिमित्र आरंभाः क्रियते इतिकृत्वा स एव गरीयस्त्वात् पूर्वमपदिश्यते, पंचण्हं वा पाणातिपातादिआसवाणं परिग्गहो गुरुत्तरोत्तिकाउं तेण पुर्व परिग्गडो चुच्चति, तत्थ चित्तमंतं तिविधं-दुपयं, चउप्पदं अपदं, अचित्तमंतं हिरण्णसुवण्णादि, वा विभापायां, मिश्रं चेति, परिगिझ किसामवि किसामवीति कृशं-तनुः तुच्छमित्यनर्थान्तरं तृणतुषमात्रमपि,अथवा कसायमपीति इच्छामात्र, प्रार्थना कपायतः, असत्यपि विभवे कषायतः परिगृह्यमानानि वसपात्राणि परिग्गहो भवति, तमेव नो सयं परिगिण्हइ नो अण्णेण | परिगिण्हावेति परिगृह्यतं चति सुत्तेण चेव भणियं अण्णं नाणुजाणति, सूचनामात्रं सूत्रं इतिकृत्वा स्वयंकरणकारवणानि अणुमतीए गिहिताई, णवगोवा वेदो, एव दुक्खा ण मुञ्चति, एवं सो णवएण भेदेण परिग्गहे वहमाणो दुक्खाओ न मुञ्चति, तत्र दुक्खं कर्म तद्विपाकश्य, एवं बुज्झेज-सपरिग्गहस्स णियमा पाणाइवायादयो भवंति, तेण पुव्वं परिग्गहो भणिओ, मेथुणं परिग्गहे चेव पडति, | समजिणणणासे य परिग्गहदोसा भाणियव्वा,उक्तं हि-"परिग्रहेष्वप्राप्तनष्टेषु कांक्षामोहौ प्राप्तेषु च रक्षणं उपभोगे चातृप्तिः"। इदाणी|मारंभो,सोय परिग्गहमेव, तत्थ सिलोगो-सयं तिवातए पाणे(३)सयमिति खतः अतिवायए नेति,आयुर्बलशरीरप्राणेभ्यो त्रिभ्यः | पातयतीति त्रिपातयति, त्रिभ्यो वा मनोवाकाययोगेभ्यः पातयति, करणभूतैर्वा मनोवाकाययोगैः पातयतीति त्रिपातयति, अति
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आगम
(०२)
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१], उद्देशक [१], नियुक्ति: [१-३५], मूलं [गाथा १-२७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत' जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
ममता
प्रत
श्रीसूत्रकसूत्रांक |
पातयतीति वा वक्तव्यं, अकारलोपं कृत्वाऽपदिश्यते तिपातयति, अदुवा अण्णेहिं घातथे अदुवा अन्यैर्घातयति तया राजादयः, ताइचूर्णिः
। हणतं वा अणुजाणति जहा उदिडभोयिणो पासंडा, अस्मिँस्त्रितये कश्चित स्वयं त्रिविधेऽपि करणे वर्चते कश्चिद् द्विविधे कश्चिदेकविधे, ||१-२७|| ॥३२॥
सर्वथापि वर्चमानो वेरं वद्दति अप्पणो विरञ्जते येन तद्वेरं मुणगपथितिपरंपरे वहमाणे महासंगामे हवेज्जा, किमंग पुण, पुरिसवधे
गोणादियधेवा,एत्थोदाहरणं बारत्तएणं महुबिंदुमि पसंगो,अथवा वेरमिति अट्ठपगारं कम्म,उक्तं हि-१ पावे वेरे वजेत्ति,ता वेरं प्राणादीप
तिपाताधैरारंभैर्वर्द्धयन्ति मृपावादादत्तादाने अपि आरंभाय गीत एव, एवं बुज्सेजा । तत्किमर्थमारभते प्रतिगृहाती वा ?,उच्यते-जंसि
कुलेसु उप्पन्नो सिलोगो (४)परिग्गहविशेषमेचाभिधीयते जंसि कुले समुप्पन्ने, यस्मिन्निति अनिर्दिष्टे कुलइति मातापितृपक्षे जेहिं अनुक्रम
10 वा संबसे णरे भज्जासुसरसहवासमित्तातिएहि ममाई लुप्पए बालो ममाती मम ममैते बांधवा इति ममीकारदोसेण ये लुप्पति [१-२७]
उवत्तेति,उदूई धम्माओत्ति,द्वाभ्यामाकलितो बालः,अण्णमण्णेहि मुच्छितेति तेसु पुत्वसंथुतेसुवा,एत्थ चउभंगो-सो तेसु मुच्छितो ण ते तत्थ मुच्छिता, णासो तेसु ४, सूत्राभिहितस्तु अण्णमष्णेहिं मुच्छितेति सोऽपि तेसु तेऽपि तमि, चतुर्थः शून्यः, एवं बुज्झेज, किंचान्यत्-न केवलं स्वजनमूच्छितालुप्यन्ते,अन्यत्रापि मूच्छिता लुप्यते,तंजहा-वित्तं सोदरिया चेव सिलोगो(५)अथवा जं वुत्तं अण्णामण्णेहि मुच्छितेति एपा मूर्छा न त्राणाय भवतीत्यपदिश्यते वित्तं-सोदरिया चेब, वित्तं तिविधं सचित्तादी, सचित्तं त्रिविधं दुपयादि, अचि हिरण्णादि, मीसं तिविधं तदेव दुपयादी वक्तव्यं, सोदरिया णाम भाता भगिणी णालबद्धा वा समाणोदरिका सहोदरिका मनुष्यजातयो गृह्यन्ते, तेऽत्रापि न त्रा०, अपरे च अत्रातारः संतो कथं त्रोटयंति, इहापि ताव भवेक्षा तयोः परिग्रहश्च न त्राणाय, किमंग पुण प्रेत्येति, पालकवादच्छेदोदाहरणं वक्तव्यं, किंच-यन्निमित्चमसौ परिग्रहः परिगृह्यते तदप्यसंजतानां संघात
RamaratiaudioLAENTERTER
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आगम
(०२)
भाग-2 “सूत्रकृत" - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१], उद्देशक [१], नियुक्ति: [१-३५], मूलं [गाथा १-२७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत' जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
श्रीसूत्रक
प्रत सूत्रांक ||१-२७||
पंचमहाभूतिकाः
ताङ्गचूर्णिः
दीप
अनुक्रम [१-२७]
जीवितं चेव समस्तं घाति संधाति मरणाय धावति, जीवितकामभोगापि हि अग्गिचोरादि विनाशाय वधंति, एवं जीवितं काम- भोगाश्चानित्यात्मकं जानीहि, मृच्छतामस्य कर्माणि बध्यते, तेभ्यः स्वयं तिउदेज्ज, ताणिवि तोडेज्ज, अथवा न केवलं मनसा कर्माणि घोडेज्जा, इतरथापि हि कर्माणि चेव त्रोडिज्जंति, पठ्यते च संखाय जीवितं चेव कम्मणाओ तिउद्धृति' संखाएचि सात्वा जाणणसंखाए णचा अणिचं जीवितंति, तेण कम्माई कम्महेऊ यत्रोडेज, एते गंधे विउकम्म सिलोगो॥६॥ तत्रारंभग्रहणेन तिष्णि आसवा पाणातिवातादयो गहिता, परिग्गहगहणेण मेहुणपरिग्गहा गहिता भवंति, अथवा समयः प्रस्तुतः, ते सामयिकाः एते गंथे विउक्कम्म एते इति ये प्रागुद्दिष्टाः चित्तमंतअचित्तमंत अथवा वित्तं सौदरिया आरंभपरिग्गहो वा, अध्यते येन स ग्रन्थः ग्रन्थमात्रं वा ग्रन्थः तं ग्रन्थं ग्रन्थहेतूंच विविधमुत्क्रान्ना विउक्कंता, अथवा विविधैः प्रकार उक्कामंति विउक्कमिता, पुणरवि तेसु चेव बटुंति, यथा शाक्यादयो, एगेति नास्मच्छमणाः, शाक्यादयो परिव्राजकादयः, अयाणंता वियोसिया अयाणता विरतिअविरतिदोसे य, विविध उसिता बद्धा इत्यर्थः, बीभत्सं वा उत्सृता विउस्सिता, कामाः शब्दादयः, मनोरपत्यानि मानवाः, अथवा एभत्सा (बीभत्सा) चित्तादीन् ग्रन्थानतिक्रम्य अस्मन्मतका अपि एके, न सर्वे, समणा लिंगत्था माहणा-समणोवासगा, तत्पुरुषो वा समासः, श्रमणा एव माहणा श्रमणमाहणाः, नैश्वयिकनयं प्रतीत्य ते हि अणयाणका एव, ये ये बानोपदेशे न तिष्ठति पासस्थादयो तेऽवि परतिस्थिया इव अपारगा, किमंग पुण कामभोगपविता गृहस्था अप्पसस्थिच्छा, कामेसु-इच्छाकामेसु मयणकामेमु वा सत्ता, वुत्ता ओहतो मसमयपरिक्खा । इदाणिं विभागेण परतिस्थियाण तिष्णि तिसट्ठाणि पावादियसयाणि परिक्खिअंति, तत्थ पुषमेव पंचमहसूनवादियो भवंति, उद्देमत्थाधिकारे य भणितं-महपंचभूत एकप्पया अ तज्जीवतस्सरीरा य, तत्थ पंचमहाभूतियाण
11३11
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आगम
(०२)
भाग-2 “सूत्रकृत" - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१], उद्देशक [१], नियुक्ति: [१-३५], मूलं [गाथा १-२७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सूत्रकृत' जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
प्रत
पंचमहाभूर्तिकाः
सूत्रांक |
श्रीसूत्रक
||१-२७||
ama NIA
दीप
अनुक्रम [१-२७]
समयं परूवेति भगवं-संति पंच महन्भूता सिलोगो(७)संतीति विधते पंच महद्गहणं तन्मात्रज्ञापनार्थः, भूतानि-पृथिव्यापस्तेज़ो ताइचूर्णिः
वायुराकाशभिति,'इहेति इह मनुष्यलोके, एगेसि, ण सन्वेसिं, जे पंचमहद्भूतवाइया तेसिं, एवं आहिता-आख्याता, तत्र यो हासिन् शरीरे कठीनभावो सो पुढवी यावकिचि द्रवतं आउभूतं उसिणस्वभावो कायाग्निश्च तेउभूतो चलस्वभावोच्छासनिःश्वासच बातभूत वादनादिश्च स्थिरस्वभावमाकाशं । एते पंचमहद्भूता सिलोगो(८)एते इति ये उद्दिष्टाः,तेभ्यः एक आत्मा भवति,पिष्टकिण्वोदनिमित्तयोः सुराया मदवत्, अथवा तेम्पो एगोनि सिस्सामंत्रणं एवमारव्याति भो ! ति, कोऽयं लोकः, चेतनमवेतनद्रव्यं सर्व भौतिक, अथैतेसिं संयोगो अथेत्यव्ययं निपातः, तेपामिति तेषां भूतमयानां प्राणिनां विगतः संयोगो२ विणासो(दे)हिचि देहिणं,विनासो नाम पंचस्वेव गमनं, पृथिवी पृथिवीमेव गच्छति, एवं शेषाणामपि गच्छंति, उक्तं हि "जह मजंगेसु मओ वीसुमदिट्ठोऽवि समुदये होउं । कालंतरे विणस्सति तह भूतगणमि चेतण्ण।।१।।अस्योत्तरं-पत्तेयमभावातो ण रेणु तेल्लं व समुदए चेता। मजंगेसुंतु मदोवीसुपि
णसव्वसो णत्थिा।शाभमिधाणिवितण्हयादी पत्तेयंपिहु जहा मदंगेसु। तह जइ भूतेसु भवे ता तेसि समुदये होजा।।२।।जइ वा सव्वाभावे नवीसुं तो किं तदंगणियमोऽयं ?। तस्समुदयणियमो वा अण्णेसुवि ते हविजाहि ॥३शातस्स गोमयादिषु भूताणं पत्तेयंपि चेतणो अस्थि,
समुदयद रिमणाओ, जह मजंगेसु मयोत्ति हेऊ णासिद्धोऽयं, खान्मतिः-साधूक्तं यथा पृथगपि मद्याझेषु मदसामर्थ्यमस्ति, एतदेव हि व्यस्तभूतचेतनायामुदाहरणं-इह व्यस्तेष्वपि भूतेसु चैतन्यमस्ति तत्समुदये दर्शनात् मदवत्,यथा मद्याङ्गेषु मदः पृथगसचान्नास्ति स्पष्टः,तत्समुदये तु व्यक्तिमेति, तथा पृथग्भूतेष्वणीयसी चेतना भवतीति,उच्यते,यथाऽऽस्थ त्वं भूतसमुदयगुणाभिप्रायतो चेतनाया: तत्समुदये दर्शनादित्यसमसिद्धः, न हि भूतसमुदयस्येयं चेतना, यदि भूतसमुदयस्येयं भवेत् व्यस्तभूतचैतन्यमपि प्रतिपद्येमहि,
३४॥
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आगम
(०२)
प्रत
सूत्रांक
॥१-२७॥
दीप
अनुक्रम
[१-२७]
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (निर्युक्तिः+चूर्णिः)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [ १ ], उद्देशक [१], निर्युक्तिः [१-३५], मूलं [गाथा १-२७]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र -[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
श्रीसूत्रकृ ताङ्गचूर्णिः
।। ३५ ।।
आह- ननु प्रत्यक्षविरुद्धमिदं यत्समुदयोपलभ्य चेतनानुमानमस्ति भवत एव हि प्रत्यक्षमिदं भूतचैतन्यं प्रति ज्ञानं मनोभावाद, भूतविशिष्टमात्रे पुद्गलानामेव तदात्मकानामविप्रतिपतेः, आह-न भृतसमुदयस्य चैतन्यमिति, किमनुमानमुच्यते १ - भूतेंद्रियाति| रिक्तः संचेतयिता तदुपलब्धार्थानुस्मरणात्, यो हि यैरुपलब्धानर्थानेकोऽनुस्मरति स तेभ्योऽन्यो दृष्टः, यथा गवाक्षैरुपलन्धानननुस्मरन तेभ्यो देवदत्तः, यश्च यतो नान्यो नासावेको नेकोपलब्धानामर्थानामनुस्मर्त्ता यथा ततो विज्ञानं, इतथेन्द्रियातिरिक्तो विज्ञाता तदुपलब्धार्थानुस्मरणात्, यो हि यदुपलब्धानामर्थानामनुस्मर्त्ता स तेभ्योऽन्यो दृष्टः, यथा गवाक्षोपलब्धानामर्थानामिवाक्ष| परमेऽपि देवदत्तः, अनुस्मरति चायमात्मा अंधवधिरादिकाले पंचेद्रियोपलब्धानर्थान्, ततः स तेभ्योऽर्थान्तरमिति, व्यतिरेकः पूर्ववत्, इतवेंद्रियातिरिक्तो विज्ञाता, तद्व्यापारेऽप्यनुपलभतो, यो हि यद्व्यापारेऽपि यदुपलब्धानर्थान्नोपलभते स तेभ्योऽतिरिक्त एव दृष्टः, | यथोपविष्ठगवाक्षोऽपि न दर्शनानुपयुक्तस्तेभ्यो देवदत्तः, इमं पुण णिज्जुतीए उत्तरं भण्णति-पंचण्डं संयोगे अण्णगुणाणं च चेयणादिगुणो। पंचिंदियठाण णं ण अण्णमुणियं मुणति अण्णो ॥ ३३ ॥ असंख्या ईश्वरकारणिका वैदिका वैशेषिका अनमि| गृहीता मिध्यादृष्टय गृहस्थाः सर्वेऽपि भौतिकं शरीरं वर्ण यंति, तेषां पुनर्भूतव्यतिरिक्त आत्मा नास्ति तत् जुत्ता पंचमहद्भूतिया, अयमन्यो मिथ्यादर्शन विकल्पः ये तत्र केचिदेकात्मकं जगदिच्छंति, तत्र केपांचिद्विष्णुः कर्त्ता केपांचिन्महेश्वरः, स हि तत् कृत्वा जगत् पुनः संक्षिपति, ते पुर्यनदा परैश्रोद्यते कथमेकात्मकं विलक्षणं च जगदिति? इति चोदिता बने जहा यं पुढवी भूते (धूभे) सिलोगो | ||९|| यथेति येन प्रकारेण पृथिव्येव स्तूपो तत्पुरुषसमासः स एक एव स्तूपो नानात्वेन दृश्यते, तद्यथा - निनोन्नतसरित्समुद्रोदशर्करासितागुहाद रिप्रभृतिभिर्विशेपैर्विशिष्टोऽपि पृथिवीत्वेन व्यतिरिक्तो दृश्यते, अथवा एको मृत्पिंडकारोपितः शिवकस्तूपच्छन्न
[48]
AND CID
पंचमहा
भूतिकाः
॥ ३५
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आगम
(०२)
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (निर्युक्तिः+चूर्णिः)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [ १ ], उद्देशक [१], निर्युक्तिः [१-३५], मूलं [गाथा १-२७] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र -[०२] अंग सूत्र [०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि :
प्रत
श्रीसूत्रकृ सूत्रांक अङ्गपूर्णिः ||१-२७॥ | ।। ३६ ।।
दीप
अनुक्रम
[१-२७]
अस्तलघटादिभिर्विशेषैरुत्पद्यते, तथा चोक्तं - एक एव हि भूतात्मा भूते भूते व्यवस्थितः। एकधा बहुधा चैव दृश्यते जलचन्द्रवत् ॥ १ ॥ एवं भो ! कसिणे लोए० कसिणग्गहणं नानीश्वरात्मकं किंचिदस्ति, विष्णूरिति विद्वान् विष्णुर्वा, नानार्थान्तरत्वेनेव मनुष्यजाविकमिपिपीलिका वृक्ष गुल्मलतावितान वीरुथादिभिर्विशेषैर्दृश्यते । एवमेगेत्ति जंपंति सिलोगो ॥ १० ॥ एवम् अनेन प्रकारेण योऽयमुक्तः 'एगो'त्ति एक एव पुरुषः, एके प्रभापंते, मंदा नाम मंदबुद्धयः आरंभे नियतं आश्रिता आरंभ निश्रिताः तेषामुत्तरं यदि विष्णुमयं सर्व्वं तदा एगो किया सयं पावं यदीश्वरः कर्त्ता येन यदेकस्य सुखं दुःखं वा तत्सर्वपामस्तु, एकात्मकत्वे हि सति एकः कृत्वा स्वयं पापं कथमस्य नु वेदको वेदयते ?, नान्ये वेदयंत इति, यस्माच्च य एव पापं करोति स एव वेदयति, नान्यः, तत एकात्मकत्वं न भवति, तेन निचं नियच्छतित्ति य एव कर्त्ता स एव त्रिः प्रकारं कायिकादि कर्म णियच्छति, वेदयतीत्यर्थः, अथवा त्रिभिस्तापयतीति त्रिप्रं (तपं) किंच तत् ?, कर्म्म, किंचान्यत् - एकात्मकत्वे हि सति पितृपुत्रारिमित्रता न घटते, अथवा एकत्वे हि खल्वात्मनः न सुखादयः संघटते सर्वगतत्वात् इह यत्सर्व्वगतं न तत् सुखादिगुणं यथाकाशं, एवं न वध्यते सर्वगतत्वात् इह यत्सर्व्वगतं न तद्वध्यते यथाकाशं यच्च बध्यते न तत्सर्वगतं यथा देवदत्तः, एवं न मुच्यते न कर्त्ता न भोक्ता न संसारीत्यादि, नैकात्मकत्वे सुखी बहुतरोपघातीवा, इह यो बहुतरोपघातो नासौ सुखी यथा सर्वरोगावृत्तो अंगुल्येकदेशेऽरोगः, यत्र सुखी नासौ बहुतरोपघातो यथेष्टविकल्पविषयसंपदुपेतो देवदत्तः, न चासौ मुक्तो बहुतरोपनिबंधनात्, इह यो बहुतरोपनिबन्धनः नासौ मुक्त इति व्यपदिश्यते, न च मुक्तत्वसुखमश्रुते यथा सर्वाङ्गकीलितो विमुक्ताङ्गुल्येकदेशः पुमान्, यश्च मुक्तो नासौ बहुतरोपनिबन्धनो, न च स्वल्पनिबंधनो यथा कीलितः पुमान्, स्वपर्यन्त
[49]
एकात्मवा दिनः
।। ३६ ।।
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आगम
(०२)
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१], उद्देशक [१], नियुक्ति: [१-३५], मूलं [गाथा १-२७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] “सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
NEL
प्रत सूत्रांक ||१-२७||
तज्जीवतच्छरीराः
श्रीसूत्र
नाहचूर्णिः
॥३७॥
दीप
अनुक्रम [१-२७]
मात्रशरीरच्यापी जीवः तत्रैव तदुणोपलंभात् , इह यस्य यत्र गुणोपलंभः स तन्मात्रो दृष्टः, यश्च यत्रासन् न तस्य तत्र गुणोपलब्धिः यथाऽग्नेरभसि, उक्ता एकात्मवादिकाः। इदाणि तज्जीवतस्सरीरवादी, ते भणंति-पत्तेयं कसिणे आया०सिलोगो॥११॥ पत्तेयं नाम पृथक् पृथक् एकैकं शरीरं प्रति एक एवात्मा भवति, न हि सर्व एकात्मकं, कसिणो णाम शरीरमात्र, नतु शरीराद् व्यतिरिच्यते, याला नाम मंदबुद्धयः पंडिता बुद्धिसंपन्ना अथवा पंडिता जे एतं दरिसणं पवण्णा तेषां प्रत्येकम् एकैक आत्मा | तेषां तु 'संति पचा ण ते संति' संतीति संत्यात्मानः, केवलं तु सरीरं आत्मा भूत्वेह प्रेत्य न ते यांति, प्रेत्य नाम परभवो,कथं न हि सत्ता उबबातिका विद्यते, यतश्चैवं तेण"णस्थि पुण्णे व पाये वासिलोगों"|१२शन हि किंचि तपोदानशीलैः अपि आचर्यमाणैः | पुण्यं बध्यते, हिंसाधैर्वा पापं,णस्थि लोगेइतो परति न वास्त्यन्यो लोकः यत्र पुण्यपापे उक्तरूपे स्यातां,कमात्-सरीरस्स विणा
सेणं विणासो होति देहिणो, स्यादेतत्-यदि पुण्यपापे न भवतः तेनायमीश्वरः अनीश्वरो वा न विद्यते, नन्वेकस्मादेव पाषाणात | रुद्रादिप्रतिमा क्रियते पादप्रक्षालनशिला च, न चानयोः पुण्यपापे भूः, एवं स्वभावादेव ईश्वरो भवत्यनीश्वरो वा, उक्तं च-"कंटकस्स |च तीक्ष्णत्वं, मयूरस्य च चित्रता। पर्णानां नीलता स्वच्छा, स्वभावेन भवंति हि ॥१॥ तेषामुत्तरं-विद्यमानकर्तृकमिदं शरीरं आदिमत्प्रतिनियताकारत्वात् , इह यदादिमत् प्रतिनियताकारं च तद्विद्यमानकर्तृकं दृष्टं यथा घटः, यच्च न विद्यमानकर्तृकं न हि तदादिमत् प्रतिनियताकारं च यथाकाशं, यत्कर्तृकं चेदं शरीरं स जीवः, तस्मादन्य इति, शादिमद्विशेषणं जंबूद्वीपादिलोकस्थस्थितिनिषेधार्थ, विद्यमानाधिष्ठातृकानींद्रियाणिं करणत्वात् , इह यद्यत् करणं तद्विद्यमाणाधिष्ठातृकं दृष्टं यथा दंडादयः कुलालाधिष्ठिताः, यच्चाविद्यमानाधिष्ठातृकं न तत्करणं यथाऽऽकाशं, यश्चैपामधिष्ठाता स जीवस्तेभ्योऽर्थान्तरमिति, विद्यमानादातृकमिदं इंद्रियविषयकदम्बकं
NEELAMIDIARRAI
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आगम
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भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (निर्युक्तिः+चूर्णिः)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [ १ ], उद्देशक [१], निर्युक्तिः [१-३५], मूलं [गाथा १-२७] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र -[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
प्रत
सूत्रांक
सूत्रकृ
चूर्णिः
॥१-२७|| | ३८ ॥
दीप
अनुक्रम [१-२७]
आदानादेयभावात् इह यत्रादानादेयभावस्तत्र विद्यमानादादकत्वं दृष्टं यथा संदेशायः पिंडयोरयस्कारादातुकता, यच्चाविद्यमानादाढकं न तत्रादानादेयभावः यथाऽऽकाशे, यश्च विषयाणामिन्द्रियैरादाता स तेभ्योऽर्थान्तरमात्मेति, विद्यमानस्वामिकमिदं शरीरं इंद्रियादिभोग्यत्वात् इह योग्यं तद्विद्यमानभोक्तृकं दृष्टं यथाऽऽहारवस्त्रादि, यच्चाविद्यमानभोक्तृकं न तद्भोग्यं यथा खरविषाणं,
शरीरादीनां भोक्ता स तेभ्योऽर्थान्तरमात्मेति, विद्यमानस्वामिकमिदं इन्द्रियादि संघातत्वात्, यत्संघातात्मकं तत् विद्य मनस्वामिकं दृष्टं यथा गृहं यच्चाविद्यमानस्वामिकं तदसंघातात्मकं यथा खरविपाणं, यश्चैषां शरीरादीनां स्वामी स तेम्योऽर्धान्तरमात्मेति यथाऽयं कर्ता अधिष्ठाता दाता भोक्ताऽर्थी चोक्तः शरीरादन्यो जीवः तथा चैवोदाहृतं स्यात्-कुलालादीनां मूर्तिमचसंघातानित्यत्वादिदर्शनादात्मनामपि तद्धर्मता सा तैर्विरुद्धा प्रायः तच्च न, संसारिणः खल्वदोषात्, संसार्यवस्थायामेवायं साध्यते, न मुक्तावस्थायां, अयं चानादिकर्मसंतानोऽपि निबंधनत्वात् द्रव्यपर्यायार्थिकनयाभिप्रायाच्च तद्धर्मापीत्यदोषः, किंच-योऽयं जातिरमरः सः अविनष्टः, इहार्थतः तदनुभूतानुस्मरणात्, योऽन्यदेशकालानुभूतमर्थमनुस्मरति सोऽविनष्टशे दृष्टः यथा बाल्यका लेऽनुभूतानां यज्ञदसः अथ मन्यसे - जन्मान्तरविनष्टोऽप्यनुस्मरति विज्ञानसंतानावस्थानात् उच्यते, एवमपि भवान्तरसद्भावः, सर्व शरीरेभ्यश्चाविज्ञातसंतानार्थान्तरता सिद्धा, अविच्छिन्नविज्ञान संतानात्मकश्चेत्यात्मेति शरीरादर्थान्तरमेव सिद्ध। तथा च विष्णाणंतर बालण्णाणमिह णाणभावाओ । जह चालणाणपुत्रं जुवणाणं तंच देहहियं ॥ १॥ पढमो थणामिलासो पुवं आहार मिलसमास। जह संपदाभिलासो स पुण्वकालाऽणुभूतीतो ||२|| सो य भिण्णो सो य देहहितो, उक्ता हि तज्जीवतच्छारीरवादी । इदाणिं अकारकवादिणो भण्णंति - तेपामयं पक्षः, कुषं च कारवं चेव० सिलोगो ॥१३॥ करोतीति कर्त्ता, स'स्वतंत्रः कर्ते' तिकृत्वा न विद्यते,
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तज्जीवतच्छरीरा:
॥ ३८ ॥
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भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१], उद्देशक [१], नियुक्ति: [१-३५], मूलं [गाथा १-२७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-०२] "सूत्रकृत' जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
अकारकास्मषष्ठो
प्रत सूत्रांक ||१-२७||
श्रीसूत्रकृ-
वाणिः 1॥३९॥
दीप
अनुक्रम [१-२७]
कारवं चेवत्ति न चैतमन्यः कारयति विष्णुरीश्वरो वा, सम्वं कुवंण विज्जतित्ति सर्व सर्वथा सर्वत्र सर्वकालं चेति, अथवा यदपि च किंचित्कगेति तथापि सर्वकर्ता न भवतीतिकृत्वा अकर्ता एव भवति, एवं अकारओ अप्पा, एवम्-अनेन प्रकारेण योऽयमुतः,एगे णाम सांख्यादयः,जे ते तुवादिणो एवं०सिलोगो।।१४॥जे तेत्ति णिसोतु विसेसणे अकर्तृवादिनो लोक्यत्वात् सम्यक्त्वलोगो ज्ञानसंयमलोको वा, अथवा योऽभिप्रेतलोकः परोऽन्यो वा स तेषां नास्ति, तेन पुनरनभिप्रेतलोकमेव तमातो ते तमं जन्ति तम इति मिथ्यादर्शनं अज्ञान या तस्मात् तमसः तम एव यांति, तमो हि द्वेधा-द्रव्ये भावे च, द्रव्ये नरका तमस्कायः कृष्णराजयक्ष, भावे मिथ्यादर्शनं एफेन्द्रिया वा, मंदा उक्ताः, आरंभे द्रव्ये भावे च, द्रव्ये षट्कायवधः भावे हिंसादिपरिणामात् अशुभसंकप्पा, अथवा मोहेण पाउडा मोहो-अज्ञानं तेन प्रावृताः-समाच्छन्नाः, उक्ता: अकारकवादिनः। इदाणि आयच्छट्टाफलवादी ।।१५।। न संति-विद्यत इति तन्मात्रग्रहणं महताः इतिपृथिव्यादयः,इधचि इह कुपाखंडिलोके,एगेसिति, ण सम्वेसि,आहिता-व्याख्याताः, ते तु अचछट्ठा पुण एगे आहु-पंचमहद्भूतियं मरीरं मरीरी छट्ठो, म च आत्मा लोकश्च शाश्वतः, लोको नाम प्रधानः, सम्यक्त्वं वेति दुहतो तेण विणस्संति सिलोगो॥१६॥ दुहतो णाम उभयतो, आत्मा प्रधानं चाक्षुषमचाक्षुष वा ऐहिकामुष्मिको बालोकः दुहि तेण विणस्संतित्ति 'स एवं आत्मा न जायते न म्रियते कदाचित, नायं भूत्वा भविता न भूयः, अभिज्झो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो, न हन्यते इन्यमाने शरीरे, 'नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि, नैनं दहति पावकः । न चैनं क्लेदयन्त्यापो, न शोषयति मारुतः | ॥१॥ अच्छेद्योऽयमभेद्योऽयमविकार्योऽयमुच्यते । नित्यः सततगः स्थाणुरचलोऽयं सनातनः॥२॥ न चोत्पद्यते असदिति असत्कार्यपरिग्रहः, मरिपडे हि विद्यते घटः, सव्वेवि मथा भावाः,सब्वे महतादयो विकाराः, नियति म प्रधान, तामागताः,सा कथं फलवती
॥ ३९ ॥
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भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१], उद्देशक [१], नियुक्ति: [१-३५], मूलं [गाथा १-२७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
प्रत सूत्रांक ||१-२७||
स्कन्धवादिनः
दीप
BRETARIANSIDHATATS INDEPARATTISPATHungam umes,
अनुक्रम [१-२७]
भवतीति, यत्करोति न तस्य लभते फलं आत्मा, न फलवति प्रकृतिः, न फलतीत्यर्थः। पंच खंधे वदंतेगे सिलोगो॥१७॥ तह खंधा इमे-रूपं वेदना विज्ञानं संज्ञा संस्काराः,रूपणतो रूपं,वेयतीति वेदना,विजानातीति विज्ञानं,संजानातीति संज्ञा, शुभाशुभं कर्म संस्कुर्वन्तीति संस्काराः, ते पुण खणजोइणोक्षणमात्रं युज्जत इति परस्परतः,न चैतेभ्य आत्माऽन्तर्गतो भिन्नो वा विद्यते संवेद्यस्मरणाप्रसंगादित्यादि, तेपामुत्तरं-अण्णो अणण्णो णेवाहु, केचिदन्यं शरीरादिच्छंति केचिदनन्य,शाक्यास्तु केचिन्न वाच्य,तथा स्कन्धमातृका हेतुमात्रमात्मानमिच्छन्ति बीजांकुरवत् , अहेतुकं शून्यवादिकाः हेतुप्रत्ययसामग्री पृथग्भावेष्वसंभवात् , तेन तेनाभिलप्यो हि भावः, सर्वे स्वभावतः लोके यावत्संज्ञासामग्र्यमेव दृश्यते यस्मात्तस्मात् संति भावा:-भावाः संति, नास्ति सामग्री, एवं जगदपि | केचिद्वेतुमत् केचिदहेतुमदिति, अथवा हेतुमदिति विष्णुरीश्वरो वा सो उत्पादहेतुरिति,अहेतुमनाम येषां स्वभावत एव उत्पद्यते, तथा लोकायतिकानां-"क: कंटकानां प्रकरोति तैक्ष्ण्यं० । अन्ये त्रुबते-पुढवी आऊ वाऊय सिलोगो॥१८॥ केचिद् ध्रुवते-चत्तारि घातुणो रूवं, एतेसिं उत्तरं णिज्जुत्तीए पंचमहतवादिणो आरम्भ कर्थ अफलवतित्ति। आगारमावसंतोसिलोगो।।१९।।यथास्वं एतानि दर्शनानि प्रपन्नाः, ते पुनरगारत्वे वा वसंति अरण्ये वा तापसादयः, पव्वगा नाम वणरत्तादगसोयरियादयो ते सव्वेवि एतं दरिसणमावण्णा सव्वदुक्खा विमुञ्चति, तब्बणियाणं उबासगावि सिझंति आरोपगावि अणागमणधम्मिणो य देवा, ततो चैव णिव्यंति, सांख्यानामपि गृहस्थाः अपवर्गमाप्नुवंति, एयं दरिसणमिति एवं सकदरिसणं वा जाणि य मोक्खवादिदरिसणाणि बुत्ताई ताई पवण्णो सव्वदुक्खाण मुच्चइत्ति बुत्तं, तच्च ण भवति, कथं ते दशकुशलात्मके कर्मपक्षे स्थिता न निव्वंति, यमनियमात्म के वा सांख्यादयः, तेपामर्थन एवोत्तरंअनेनेव श्लोकेन-आगारमावसंना तु, आरण्णा वावि पब्वगा । एयं दरिसणमावण्णा,
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भाग-2 “सूत्रकृत" - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१], उद्देशक [१], नियुक्ति: [१-३५], मूलं [गाथा १-२७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] “सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
प्रत सूत्रांक ||१-२७||
दीप
अनुक्रम [१-२७]
श्रीसूत्र
HO सम्वदुक्खाण मुंचति ॥१॥ किं चान्यत-तेणावि संधि नचाणं सिलोगो॥२०॥तणत्ति उपासकानामाख्याज्ञानेन त्रिपिटकज्ञानेन| नियतिवाद: तानचूर्णिः ते धर्मचिदूरविद्वांसो भवंति, जायते इति जनाः, ये ते तु वादिगो एवं ये यथाऽऽदिष्टाः एते च यान् वक्ष्यामः, सर्वे न ते ओई॥४१॥ तराऽऽहिता, ओहो द्रव्ये भावे च, द्रव्योधः ममुद्रः, भावौषस्तु अष्टप्रकारं कर्म यतः संसारो भवति, न ते तस्य उत्पादकावा
आहिता-आख्याताः, संसारे चेव संसरन् मोहमुपचिनोति, तस्याप्यपारकः, ततो गर्भजन्मदुःखमाराणि संसारचकवालंमि. | सिलोगो।।२६।। एवमस्मिन् संसारचकवाले भ्रमन्तवकवद् भ्रममाणा उबावयं णियच्छंता उचाई-उत्कृष्टानि अवयाई-नीचानि | मज्झि याणि दुक्खाई ताई अहिगच्छति, अहवा उच्चावचमनेकप्रकारं, संसारश्चानेकप्रकारः, तं नियच्छता गम्भमेसतर्णतसो गम्भोतिरिक्खजोणियमणुस्सेसु गम्भाओ जम्मं एए मार्गजणा तं गभं एसंति अणंतसोत्ति-अणंतखुत्तो, अथवा उच्चावयमिति नाना| प्रकार कम्मं तं णियच्छता ते दुपया गर्भजन्ममरणानि दुःखान्यनुभवंति, तानि तु न एकशः, अनंतशः, अनादीयं अनवदग्गं दीह
मद्धं चाउरन्तसंसारकतारं अणुपरियति, इति परिसमाप्ती, बेमित्ति भगवंतादेशाद् प्रवीमि, न स्वेच्या इति । समयस्स पढमो | उसो सम्मत्तो।।
वितियउद्देसयामिसंबंधो स एव सूत्तकडसुत्तकडअवियोगेऽनुवर्तते स एव च समयपरूवणाधियारो बढ़ए, ते परसमया | यथा स्वं स्वं पक्षं संक्षेपतः प्ररूप्य प्रत्युत्सृष्टाः तदास्तापायाश्च उक्ताः, जहा गम्भमेसतर्णतसोसि, णाणाविधाभिग्गहमिच्छादिट्ठीसु वाणिजमाणेसु अयमवि अभिग्गहितमिच्छादिडिविकप्पो वणिज्जति. तस्स इमे चत्तारि अत्याधिकारा, तंजहा-वितिए णियतिवात अत्याधियारो १ अण्णाणवादी २ णाणवादी ३ मिक्खुसमयाहियारो जेसि चउब्धिधं कम्मं चयं ण गच्छतित्ति, एतेहिं चउहि
अस्य पृष्ठे प्रथम अध्ययनस्य दवितीय उद्देशकस्य आरम्भ:
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भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१], उद्देशक [२], नियुक्ति: [१-३५], मूलं [गाथा २८-५९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
प्रत
नियतिवाद:
सूत्रांक
पत्रकचूर्णिः ४२॥
।
||२८
५९||
दीप अनुक्रम [२८-५९]
MILARIHASAHISHESH ARELIERail
संसिया गन्भमेसंतणंतसोति तदादीणि य दुक्खाणि पावंति, इत्यतस्तं नाश्रयीत, तत्थ तावणियतीवादसमयपरूवणस्थमिदमपदि- श्यते । आघायं पुण एगेसिं० सिलोगो॥२८॥ आघातं णाम आख्यातं, पुनर्विशेषणे, किं विसेसेति ?, पूर्वसमयेभ्यो विशेषयति नियतिवादमपि, इति अस्मिल्लोके समयधिकारे वा एकेषां, न सर्वेषां, उपपन्नास्तासु मतिसु 'पृथक् इति पृथक् पृथक् न त्वेकात्मकत्वं जीवोत्ति वा एगहुँ, वेदयंता गाणाविधेसु ठाणेसु पृथक् णाणाविधाणि सुहृदुक्खाणि अणुभवंति, ते च तेभ्यो नानाविधेभ्यो दुःखस्थानेभ्यश्च लुप्यते अनुभवंत इत्यर्थः, येन च ते दुक्खेन लुप्यते तन्नेयं । णतं सयंकडं दुव०सिलोगो॥२९॥येन नियतिः करोति तेण तापण्ण तं सयंकडं दुक्खं, न पुरुपकारकृतमित्यर्थः, यत् स्वयंकृतं न भवति इत्यतो ण अण्णकडं च णं, अन्येन कृतं अण्णकडं, च पूरणे, अन्यनामापुरुषस्तदुभयकृतमपि न भवति, न वाऽकृतं तत्कथं १, उच्यते-सुहं वा यदिवा दुई अनुग्रहोपघातलक्षणे सुखदुक्खे सेद्धसिद्धिः-निर्वाणमित्यर्थः, इतश्च जीवाश्रया सर्वे नियतीकृताः, न वीर्य पुरुषकारोऽस्ति सर्वमहेनुतः प्रवर्तत इति, एपाणियतिवादिदिट्ठी, अकंमिकाणं च कालवादीणं च दिट्ठी ण सयंकडं ण अण्णेहि सिलोगो॥३०॥णिय तीसभावमेत्तमेवेदं संगयं तहा तेसिं संगतियं णाम सहगतं संयुक्तमित्यर्थः, अथवाऽस्यात्मनः नित्यं संगताणि इति, संगतेरिदं संगतियं भवंति, संगतेयं हितं संगतिकं भवति, तहा तेसिंति जेण जहा भवितव्यं ण तं भवति अण्णहा, इहेति इह लोके नियतिवाददर्शने वा, एगेसिं, ण सब्वेसि, आहितमाख्यातं, न तु नियतिवादियो, एवमेताई जंपंता सिलोगो।।३शाएवमवधारणे, कानि?, एतानि कुदर्शनानि तानि सद्दहंता, नियइवायं अकर्मादि आकर्मिमका अहवा परूवेइ निययवाददर्शनं वा पंडिवादिणो वालास्तेषां पंडितवादिणो अपंडिताः पंडितप्रतिज्ञाः, ते हि णियताणियतं संतं जे जहा कडा कम्मा ते तहा चेव णियमेण वेदिअंतित्ति एवं
HAPAISE
॥४२॥
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भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१], उद्देशक [२], नियुक्ति : [१-३५], मूलं [गाथा २८-५९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] “सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
प्रत सूत्रांक ॥२८५९||
श्रीसूत्रकताङ्गचूर्णिः ॥४३॥
दीप
अनुक्रम [२८-५९]
नियतिवादः | नियतं, तंजहा णिरुवकमाय देवणेरतियचि, अणियतं सोवकमायुति, एतं णियतापियतं संत सद्भुतं अयाणमाणा अबुद्धि० अबुद्धिका: 100 मंदमेधस इत्यर्थः, ते अमेधस एवमेतं अयाणता, एवमेगे तु पासत्था सिलोगो॥३२॥ एवमवधारणे, न जाणता अजाणता | विप्रगज्झिता ते नैव स्वयं विकल्पितमिथ्यादर्शनामिनिवेशे आसज्ज ताईवा सकर्ममिस्तन्धीभूता लजनीयेनापि न लज्जते इत्यर्थः, एवं पुवुट्टिता एवं नाम यद्यप्यभिगृह्य तानि नानाविधानि बालतपांसि स्वे स्वे दर्शने यथोक्तमुपास्थिता गुर्वादिविनययुक्ताः सर्वप्रकारेण यथोक्तज्ञानान्मतितो विसीदति तथाप्यात्मानं न संसाराद्विमोचयंति, उक्तंच-मिथ्याष्टिरवृत्तस्थः०, स्वात-कथं तेन संसारपारगा भवंति ?, मिथ्यादर्शनेनोपहतत्वात् , दृष्टान्तः, जविणो मिगा जहा. सिलोगो॥३३श।जब एषां विद्यत इति जविनः, केच ते ?-मृगा परिगृह्यन्ते, संतग्रहणा णिरुपहतशरीरावस्थाः अक्षीणपराक्रमाः, परितन्यत इति परितानः वागुरेत्यर्थः, तजिजता वारिता, ग्रहता इत्यर्थः, न शक्यमेतत् परितानं-निस्सतु, सा च एगतो वागुराः एकतो हस्त्यश्वपदातियती यथा हि भयतो से नश्यति | एकतः पाशकूटोपगा यथा विभागशः नित्यत्रस्ताः, तत्र ते मृगाः स्वजात्यादिभिः परित्रुट्यमाना मरणभयोद्विग्ना अशंकिताई संकंति, स्यात्-किं शङ्कनीय किं नेति, उच्यते-परिताणियाणि संकेता सिलोगो ॥३४॥ सर्वतः परितनितानि यानि वा तानि पुनः वज्झपोतरज्जुमयानि, तान्यशङ्कनीयाः परिशक्षिताः, त एवं वराकाः अण्णाणभयसंविग्गा अज्ञानभयचा, तत एवं न जानते-यथैमा वागुरा | दुर्लधा न अधः शक्यतेति कर्तुं, ते ततस्ते ज्ञानाभावेन संबिम्गा तहिं तर्हि संपलिन्ति अणुकूडिलेहि अण्णपासेहिं अण्णपासेहि, अथवा एकतः पाशहस्ताः व्याधाः एगतो वागुरा तन्मध्ये संप्रलीयंतो प्रमन्तो इत्यर्थः, यावद्द्धा मारिता वा, सतेपामज्ञानदोपः, ते पुण अवतं पवेज्ज बेझं बंधेज पदपासतो, पदं पासयतीति पदपाश:-कूडः उपको या, पठ्यते च-मुनेज पदपासाओ, बंधघात- 11४३॥
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भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
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प्रत सूत्रांक ॥२८
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| मारणानि, तं च मंदे ण पेहती(ति)स भावमन्दः न प्रेक्षति तं स एवं चराकः, अप्पाऽहितपणाणो सिलोगो॥३६॥विसमं णाम | कूटैः पाशोपगैः आकीर्ण तं द्वारं तं विसमं समंवा तेण गतः उपागतः से बद्धे पयपासेहिं 'सेति स मृगः वध्यते स वध्यः पदं पाशयतीति पदपाशः स च कूट: उपगो वा, तत्थेति तेहिं पासादिएहि बद्धे, घंत घातकः घातक एवांतष्पंतः यातनामेव स करोतीति घंतः नियतमधिकं वा घेतं गच्छति नियच्छति । एवं तु समणा एगे सिलोगो॥३७॥एवमवधारणे तुविशेषणे निग्रन्थत्वातिरिक्ता एके न सर्वे, के च ते?, नियतिवादिनः, जे य अण्णे णाणाविधदिहिणो,मिच्छादिवित्ति विपरीतग्राहिणाः अणारियति णाणदंसणचरित्तअणारिया ते असंकणिज्जाई संकेता, गाणदसणचरित्ताई असंकणिज्जाई ताई अन्ये जीवबहुत्वादिभिः पदैर्नात्र शक्यते अहिंसा निष्पादयितुमिति संकंति-ण सद्दहंति, संकिताई कुदंसणाई ताई असंकिणो सहति पत्तियंति, स्यात्कि शंकनीयं कि नेति ? उच्यते-धम्मपण्णवणा जा तु० सिलोगो॥३८यावान् कश्चिन ज्ञेयधर्मः समवेन प्रज्ञाप्यते सा धर्मप्रज्ञापना, अहवा दुविधो धम्मो-सुतधम्मो चरित्तधम्मो य, दसविधो च समणधम्मो आगारमणागारिओधम्मो, सजेण पण्णविजइस धम्मपण्णवणा एती, सेसं कंठय, वज्झत्ति दुक्खं कजति, अहवा ण सद्दहति, अहया किमेवं ण वत्ति वा संकंति, पृथिव्यादिजीवत्वं शंकितं, मूढा अज्ञानेन-दर्शनमोहेन आरंभाय ण संकंति, दवारंभे भावारंभे य वदंति कुपासंडिणो, तमेव आरंभं बहु मन्नति, अवियत्ता णाम अव्यक्ताः, णारंभादिसु दोसेसु विसेसितबुद्धयः, अकोविता अविपश्चित इत्यर्थः, मिच्छ त्तकडदोसेण सन्भूतं णिग्गंधं पदयं ण संकेति-ण बुझंति, स्याद् बुद्धिःयथा मृगाः पाशत्रद्धाः प्रचुरतणोदकात् वनवाससुखा व्यवंते एवं मिथ्यादृष्टयः, कुतः च्यवन्ते ?, उच्यते-सबप्पगं विउक्कस्स० सिलोगो॥३९।। सर्वत्रात्मा यस्य स भवति सर्वात्मका, अथवा जे भावकसायदोसा तेऽवि सच्चे लोमे संभवंतीति सबप्पगं, उक्तं च
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॥४४॥
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[ २८-५९]
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र - २ (निर्युक्तिः+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [ १ ], उद्देशक [ २ ], निर्युक्ति: [ १-३५ ], मूलं [गाथा २८-५९ ] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र - [०२] अंग सूत्र [०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि :
श्रीसूत्रक ताङ्गचूर्णि
।। ४५ ।।
"लोभो सब्बविणासओ० "विविधं जात्यादिभिर्मदस्थानैरात्मानं उकस्सत्ति, नूमं गहनमित्यर्थः, दन्त्रणूमं दुग्गं अप्पमासं वा भाजणू मं माया, एए तिण्णिवि कसाया, विविधैः प्रकारै घुणिय विधुणिय, किंच अप्पत्तियं णाम रुसियब्वं तदपि अप्पत्तियं, अकम्प्रेसे साधौ अम्मंसे, एमिः सर्वैर्विघृणितै अकम्मंसो भवति, न वाऽस्य बालबुद्धिणो अप्पत्तियं-अकर्मत्वं भवति, सिद्धत्वमित्यर्थः, अहवा अप्पत्तियं कोहो, तेण जझ्या अक्रम्मंसे भवति, अंसग्रहणं तिष्णि २ कसाये सेसे काऊण खवेति, एवं सेमाणिवि कम्माणि खवेत्ता जीवो अकम्मंसो भवति, तं पुण सम्मदंसणचरिताओ विणएहि खर्वेति ण मिच्छादंसण अन्नाणऽविरती हिं, एतमहं मिए चुतेति जो मियदितो भणितो यथा मृगः पाशं प्रत्यभिसर्पन् प्रचुरतृणोदकगोचरात् स्वैरप्रचारात वनसुखाद् भ्रष्टः मृत्युमुखमेति एवं ते वि णियतिवादिणो जे ते तं (एनं) णाभिजाणंति० सिलोगो ॥४०॥ कंठथो, णियतिवादो गतो । इदाणि अण्णानियवादिदरिसणंअण्णाणकतो कम्मोचयो भवति तत्प्रतिषेधार्थमपदिश्यते माहणा समणा एगे सिलोगो ॥ ४१ ॥ माहणा नाम धीयारा, समणा समणा एव, एंगे णाम णं सब्वे, जो अष्णाणियवादी, अहवा अम्हंतणए मोतॄण ते सव्वेवि अप्पणो सपक्खं पसंसंता मणंति, सबलोगंसि जे पाणा ण ते जाणंति कंचणं अस्मान्मुक्त्वा सर्वलोकेऽपि वादिनः सर्वप्राणभृतो वा बेऽस्मद्दर्शनव्यतिरिक्ता ण ते जाणंति संसारं मोक्खं वा, ते हि मिच्छादिट्टिणो सद्भावयुद्ध्यापि यथा स्वान् २ कुसमयान् प्ररूपर्यंतः ते तत्र सद्भावं वदंति दृष्टान्तः- मिल| क्खू अमिलक्खुस्स० सिलोगो ॥ ४२ ॥ यथा कश्विन्म्लेच्छयुवा केनचिद् विद्वद्वर्गेणाचार्येण पथि गृहे वाऽपदीष्टः पुत्र ! कुतः आगस्यते ?,ण हेतुं से वियाणातित्ति दूवचोऽभिहितं दृष्टिमुखप्रसादादिभिराकारैः परिशुद्धाकारं ज्ञात्वा किंतु तमेव भाषितं प्रत्यनुभाषते, अथवा | पृष्टः किंचित पृच्छतां सोऽपि तथैवाह, आर्यकुमारको वा पित्रापदिष्टः-मण पुत्र ! सिद्धं, एष दृष्टान्तः, एवमण्णाणिया नाणं
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अज्ञानिका
॥ ४५ ॥
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अनुक्रम [ २८-५९]
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र - २ (निर्युक्तिः+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [ १ ], उद्देशक [२], निर्युक्तिः [१-३५], मूलं [ गाथा २८-५९ ]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र -[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
सूत्रकृ
कपूणिः
४६ ॥
सिलोगो ॥४३॥ एवमवधारणे, निश्रयार्थों नाम यथा भावोऽवस्थितः तह आत्मादिपदार्थान् दर्शयतोऽप्यन्येषां अचित्रकलाभिज्ञा इव न सद्भावात्तावदिति, तदेवोदाहरणं मिलक्खुब्ब अबो धिए, अबोधिरज्ञानमित्यर्थः, स एवं तेषां अण्णाणियाण वीमंसा० किलोगो' ||४४ ॥ संशयः संदेहो वितर्कः ओह वीमंसेत्यनर्थान्तरं तेषां हि असर्वज्ञत्वाद सौ वीमंसा प्रत्यक्षेष्वपि न चेत् पृथिव्यादिषु संदिह्यते किं पुनरात्मादिषु अप्रत्यक्षेषु ?, तदेवं सा वीमंसा, इह निश्चयज्ञानेन नियच्छति न युञ्जते न घटत इत्यर्थः, स एवं संदिग्धमतिस्तावदात्मानमपि न शक्नोति प्रत्यययितुं कुतस्तर्हि परं १, संसारतो वा समुद्धर्तुं १, एवं ते मिच्छादिडिगो तदुपदिष्टं वा मिच्छादंसणं पंडिवञ्जति, उदाहरणं-वणे मूढो जहा जंतू॰ सिलोगो ||४५|| जहा कोइ महति वणे दिसामूढेण भण्णति-भ्रातः ! कतरस्यां दिशि पाटलिपुत्र मिति, तेनापदश्यते-अहं तत्र नयामीति, ततो सो तेण सह पट्टितो, तौ हि मूढानुगामिनौ दुहतो वि अकोविता, दुहतो णाम तावेव द्वौ अथवा उभयाविण याणंति कुतो गम्यते आगम्यते वा ? किं वा गतमवशिष्टं वा १, अकोविया णाम अयाणगा, तिब्बं सोयं णियच्छंति, तीव्रं नाम अत्यर्थं पर्वतास्मसरित्कंदरावृक्षगुल्मलतादिना गहनं, स्रवंति तेनेति श्रोतं भयद्वारमित्यर्थः, नियत्तमनियत्तं वा गच्छति नियच्छंति, अथवा खंधावारेण महासत्थवाहेण कोइ अग्गिमदेसओ गहितो, सो य दिसामूढताए अण्णतो गेड़, तत्थ ते मज्झिमपच्छिमा ते जाणंति, अग्गिमगा ण जाणंति पंथमिति, तेऽवि मूढा सुगाया, दुहतो दिसामूढदितो । इदाणिं अंधदितो भण्णतिअंधे अंध पहं णेति० सिलोगो ॥ ४६ ॥ जहा कोई अंधो अद्धाणड्डाणे च कंचि अंधं मत्तं वा समेत्य नीति-अहं ते अभिरूचितं गामं नगरं वा मित्ति तेण सह पट्टितो गच्छति दूरमद्वाणंति, नासौ जाणाति, यत्र वस्तव्यं यातव्यं वा इत्यत्र तस्य तदपरिमाणमेव अध्वानमित्यतो दूराध्वानं, अडवा जओ अंध जंतो स एवं पथेणं पत्थितोचि क्षणान्तरं पादस्पर्शेन गत्वा उत्पथमापद्यते यत्र विनाशं
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अज्ञानिकाः
॥ ४६ ॥
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आगम
(०२)
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१], उद्देशक [२], नियुक्ति : [१-३५], मूलं [गाथा २८-५९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-०२] "सूत्रकृत' जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
जागचूर्णिः
प्रत | सूत्रांक
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श्रीमत्रका प्राप्नुते प्रपातकंटकादिश्वापदादिभ्यः, अथवा यदृच्छया पंथानमेवानुपतति, अथवा अचलएहिं बहुगे हि दिटुंतो-बुग्गाहेतूण अच्च
अज्ञानिका लया पब्वयं परीयंचावेऊण अग्गिलं पच्छिल्लयस्स लाउं मुत्तो, तेऽवि इच्छितव्यं वयं भूमि वच्चामोत्ति तत्थेव भमंति, स सतं चैव ॥४७॥ आवजे उप्प, जंतूघुणाक्षरवत् ,एते दिट्ठता दवदिसामूढेण वुत्ता अणिययवृत्ती,तस्समवतार:-एवमेगेणियायहोसिलोगो॥४७॥
| एवमवधारणे, एगे ण सव्वे, भावदिसामूदा भववायसाः, नियतो नाम मोक्षः, नियतो नित्य इत्यर्थः, वयमेव धाराधकाः नान्ये,
ते एवंप्रतिज्ञा अपि धम्ममावजेऽपिः संभावने, मूलपाठस्तु अधम्ममावजे, अदुवा णाम स्मरणार्थमेव, अप्येवं अधर्ममापद्यते, | यथा शाक्या आरंभप्रवृत्ताः धर्मायोस्थिता अधर्ममेव आपद्यते, येऽपि च कष्टतपःप्रवृत्ताः आजीविकादयः तेऽपि धर्म अधर्मा| नुवन्धनं प्राप्य पुनरपि गोशालवत्संसाराच भवंति, ण ते सव्वुज्जुर्ग वए, सव्वुज्जुगो णाम संजमो सर्वतो ऋजुः अकुटिलः निरुVा पधः न कस्यांचिदवस्थायां अकल्पानुज्ञानमलिनो भवतीति, पुनरपि विशेषोपलंभात् स एवार्थः उपसंहियते-एवमेगे वितकाहिं। | सिलोगो॥४८॥ उक्तो हि सिलोगो,उक्तं हि-"पुच्चभपितं तुजं भष्णती तत्थ कारणं अस्थि । पडिसेहमणुष्णाकरणहेउविसेसोवलंभोवा | ॥१॥ अथवा द्वौ दृष्टान्तावृक्ती,उपसंहारावपि द्वावेव,एवमवधारणे,एते इति ये उक्ताः,परं तत्र तीर्थकरा वितर्का मीमांसेत्यनान्तरं, एवं स्वादिति, ते तु नान्यं पर्युपासितवन्तः, अन्ये नाम ये छद्मस्थलोकादुत्तीर्णाः सर्वज्ञाः सर्वदर्शिनः तानुपास्य अपणो य वितकाहिं चशब्दादन्यमतेच,यथा ब्यासः-अमुकेन ऋषिणा एवमुक्तमिति,हासमानयंति, यथा कणादोऽपि महेश्वरं किंचिद् आराध्य तत्प्रसादपूतमनाः वैशेपिकमकरोत् , एतैरात्मवितकः परोपदेशश्च यथाखं अयमसिन्मार्गः ऋजुः, अरिजुना शेषाः प्रदुष्टमतयो दुर्मतयः।। एवं तकाए सार्धेता सिलोगो॥ ४९ ।। एवमवधारणे खमतिवितर्कामिः, साधयंतो योजयन्तः कल्पयन्त इत्यर्थः, धर्मों
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[ २८-५९]
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र - २ (निर्युक्तिः+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [ १ ], उद्देशक [ २ ], निर्युक्ति: [ १-३५ ], मूलं [गाथा २८-५९ ] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र -[०२] अंग सूत्र [०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि :
श्रीसूत्रचूर्णि
॥ ४८ ॥
बौद्धखंडर्न
नाम यथा द्रव्य पर्याय वस्तुभावावस्थानं, विपरीतोऽधर्म्म इति, अथवा कारणे कार्यवदुपचारं कृत्वापदिश्यते- संसारदुःखकारणमधर्मः) तत्र कोविदा धर्माधर्मको विदा असंबुद्धा इत्यर्थः, दुःखं गेति दुःखं संसारो तं नातिवर्त्तते न उत्तरतीत्यर्थः, अथवा कारणे कार्यवदुपचारं कृत्वाऽपदिश्यते संसारदुःखकारणमधर्म्मः दितो सउणिपंजरं, यथा शुकको किलामदनशलाका द्रव्यपंजरं नातिवर्त्तते, एवमिमे परतित्थिया दुक्खविमोक्खकारणं भावपंजरं नातिवर्त्तते, चिउट्टंति त्रोटयंति अतिवर्तन्ते वा त एवं परतंत्राः - सयं सयं |पसंसंता० सिलोगो ॥ ५० ॥ खं खं नामात्मीयं २ प्रशंसंतः स्तुवंतः ख्यापयन्तः इदमेवैकं सत्यमिति, नान्यं, न तानि गर्दन्ति, परेषां वचनानि प्रकटीकुर्वति, एवं ते परस्परविरुद्धदर्शनाः कुसमय तीर्थकराः मुमुक्षवोऽपि न संसारपंजरमतिवर्त्तते, येऽप्यन्ये ततोऽश्रितास्तेऽपि, यथा जे उ तत्थ विउस्संति, विसेषेण उस्संति- इदमेवैकं तच्चमिति विशेषेण उद्घोषयंति गव्येण उस्संतीति, ते संसारतो विउस्संति । अण्णाणिया वादी परिसमत्ता । इदाणीं यत्कर्म्म चतुर्विधं चयं ण गच्छतित्तिणिज्जुत्तीए बुत्तं शाक्यानां तत्प्ररूपणार्थमपदिश्यते अथावरं परिक्वाय० सिलोगो ॥ ५१ ॥ अथेत्ययं निपातः पूर्वप्रकृतापेक्षस्तेभ्यः समयेभ्यः प्रकृतेभ्यः अथ इदमपरं पूर्वमाख्यातं उक्खायं, त एवं ब्रवते गंगा वालुकासमा हि बुद्धाः, तैः पूर्वमेवेदमाख्यातं, अथवा पुराख्यातमिति पूर्वेषु मिथ्यादर्शनप्रकृतेष्वा ख्यातं, | अथवा प्रख्यातं क्रिया कर्मेत्यनर्थान्तरं, कर्म्मवादिदर्शनमित्यर्थः, धिगतं वीभत्सं वा दर्शनमशोभनमित्यर्थः, कम्मचिन्ता णाम यथा येन यस्य येषु च हेतुषु प्रवर्त्तमानस्य कर्म्म बध्यते ततो कर्म्मचिंतावः प्रनष्टः, अथवा अतिकम्मभीरुत्वात्तैः कम्मश्रवाः केचिदिदं अबन्धत्वायापदिष्टास्तत्तेषां कुदर्शनं दुःखखंधविवर्द्धनं कर्म्मसमूहवर्द्धनमित्यर्थः तेषां हि अविज्ञानोपचितं ईर्यापथं स्वप्रांतिकं च कर्म्म चयं न यातीत्यतस्ते कर्म्मचिंतापणा, स्यात् कथं पुनरुपचीयते ?, उच्यते, यदि सभ्यश्च भवति सत्रसंज्ञा च संचित्य जीवितात् ॥ ४८ ॥
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सूत्रांक
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दीप अनुक्रम [ २८-५९]
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र -२ (निर्युक्तिः+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [ १ ], उद्देशक [२], निर्युक्ति: [१-३५], मूलं [गाथा २८-५९ ] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र -[०२] अंग सूत्र [०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि :
| पूतिदोषाः
श्रीसूत्रकताङ्गचूर्णिः
॥ ४९ ॥
व्यपरोपणं प्राणातिपातः, अत्र भङ्गाश्रत्वारः जीवो जीवसण्णा य, प्रथमे भङ्गे बंधः, त्रिष्वबन्धः, अथवा सच्चश्च भवति १ ससंज्ञा वार | संचित्य संचित्य ३ जीविताद् व्यपरोपणं४, चतुसु पदेसु सोलस भंगा, पढमे बंधो सेसेसु अबंधो, अथवा जाणं कारणऽणा उहिं० सिलोगो ॥ ५२ ॥ जानानः सच्वं यदि कायेण णाउदृति, काउट्टणं नाम जिघांसिका उत्थानं हत्थपदादिव्यापारो, स एत्रमणाउट्टमाणो जचि हिंसति तहावि अबंधगो, अहो जंच हिंसतित्ति माता प्रसुप्ता पुत्रं मारयति, स्वनेन मुखमावृत्यान्यतरेण वा गात्रेण, अथवा स एव अहो बालको यदा पिपीलिकादीन् सच्चान् घातयति, मातापितरौ किंचिदवचनं ब्रवीति, न चास्य कम्मोंश्चयो भवति, यद्यपि च कश्चिद्भवति स तद्यथाऽस्माकमीर्यापथं तथा पुट्ठो वेदेति परं पुट्ठो णाम स्पृष्टमात्र एवं तं कर्म वेदति, मुंचतीत्यर्थः, अव्यक्तं नाम सूक्ष्म तंतुबंधनवत् शीघ्रमेव छिद्यते, सह अवधेन सावद्यं, अथवा जानंतित्ति षडभिज्ञस्य बुद्धस्य हिंसतोऽपि यत् बध्यते, कारण णं आउहतित्ति स्वमान्ते घातयन्नपि सच्चं न कायेन आउछति, न समारभते इत्यर्थः, अबुडो नाम अल्पबुद्धीन्द्रियो बालः, सो हिंसादिकर्म्मसु वर्त्तमानोऽपि अबंधक एव, अथवा अबुद्धो बालः अज्ञश्च पथि वर्त्तते, न च पथ्युषयुक्तः, असावपि अवुध्यमानो यानि सच्चानि व्यापादयति, नानयोः पापोचयो भवति, पुट्ठो वेदेति परं, एतानि चउरो वर्जयित्वा योऽन्यः स स्पृष्टः कर्मणा भवति, वध्येत इत्यर्थः, तं णियमा वेदयति, चतुभ्य बन्धहेतुभ्यः परत इत्यर्थः तचाव्यक्तं सावद्यं, अमूर्त्तमित्यर्थः, अथवा व्यक्तं तेषां त्रिकोटी शुद्धं मांसमपि भक्ष्यं अन्यथा त्वभक्ष्यमित्यतो व्यक्तं स्यात्, कथं पापं मध्यते १, उच्यते-संतिमे तयो आदाणा० सिलोगो ॥५३॥ संतीति विद्यते, आदानं प्रसूतिराश्रयो वा यैः क्रियते पापं कर्म्म, तं च अमिकम्माय पेसाया, अभिमुखं क्रम्य अभिक्रम्य स्वयं घातयत्वेत्यर्थः प्रेष्यनाम अन्यः कारयित्वा इतं हन्यमानं या मनसाऽनुजानंति । एते तु ततो आदाना० सिलोगो ॥५४॥
[62]
।। ४९ ।।
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भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१], उद्देशक [२], नियुक्ति: [१-३५], मूलं [गाथा २८-५९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
पूतिदोषाः
प्रत सूत्रांक ॥२८
श्रीस्त्रकताङ्गचूर्णिः ॥५०॥
Parineeti
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पुन्बद्धं कंठयं, एवं भावणासुद्धीए, भावयति तां भाव्यते वाऽनयेति भावना, शुद्धिर्नाम नात्र विचिकित्सामुत्पादयंति, किंच-एवं तस्य भावनाशुद्धात्मनः त्रिकोटीशुद्धभोजिनः यद्यपि कश्चित् पुत्तं पिता समारम्भ सिलोगो॥५५|| अपि पदार्थसंभवने हि,उक्तं हिप्राणिनः प्रियतराः पुत्राः, तेन पुत्रमपि तावत्समारभ्य, समारंभो नाम विक्रीयायामारब्धत्वात् , मांसेन वा द्रव्येण वा, किमंग परपुत्रं शूकरं वा छगलं वा?,आहारार्थ कुर्याद्भक्तं भिक्खूणं, असंजतोणाम भिक्खुव्यतिरिक्तः, स पुनरुपासकोऽन्यो वा, तं च भिक्षुः त्रिकोदिशुद्धं भुंजानो यो मेधावी कम्मुणा णोवलिप्पति, तत्रोदाहरणं-उपासिकायाः भिक्षुः पाहुणओगतो, ताए लावगो मारेऊण उवक्खडिता तस्स दियो, घरसामिपुच्छा अहो णिविखणि(किव)त्ति, ताहे तेण भिवखुणा कृतकश्च कृतः, मा, कप्परेण हस्ताभ्यां गृहीत्वा स्वेदय इमेगारानिति, त्वमेव दासे, नाहं, एवं मत्कृते घातक एव वध्यते, नाहं,एपामुचरं-मणसाजे पउस्संति सिलोगो॥५६॥ पूर्व हि सन्वेषु निघृणतोत्पद्यते पश्चादपदिश्यते-यः परः जीववहं करोति न तत्र दोषोऽस्तीति, ते हि पुण्यकामकाः मातुरपि स्तनं छिचा तेभ्यो ददति, अप्रदुष्टा अपि मनसा दुष्टाः एव मन्तव्याः, य उद्देशककृतं भुंजते, एवं ते संघभक्तादिषु, मत्स्यायितेषु च मूछितानां ग्रामादिव्यापारेषु च नित्याभिनिविष्टानां कुशलचित्तं न विद्यते, अशोभनं चित्तं व्याकुलं वा, तदचित्तमेव यथा अशीलवति, लोकेऽपि दृष्टं व्याकुलचित्ताणं भवति अविचित्तत्तं, एवं तेषां सावद्ययोगेषु वर्तमानानां अणवजं-अनयं(ह)तेसिन,न ईत्यतीत्यनहं मास्तीत्यर्थः, का तहिं भावना?, न तेषामनवद्ययोगोऽस्ति, नित्यमेव हि ते असंवुडचारिणो बंधहेतुपु वर्त्तते, असंवृतत्वात् , ते हि तत्प्रदोपनिसवमात्सर्यादिष्वाश्रवद्वारेषु यथास्वं वर्तमानाः तदनुरूपमेव च यथापरिणामं कम्मं चंधति, दन्वसंवुडा पावसियालचौरादयः, भावसंवुडा साधवः, संवृतचारिणो नाम संवतः संयमोपक्रमः, तच्चरणशीलः संवृतचारी । इचेताहि दिहीहि सिलोगो ॥५७॥ इति
अनुक्रम [२८-५९]
EPTEASERAHISHTRATES
॥५०॥
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आगम
(०२)
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१], उद्देशक [२], नियुक्ति : [१-३५], मूलं [गाथा २८-५९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[२] “सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
प्रत सूत्रांक ॥२८
५९||
arumiliTATANT
श्रीसूत्रकथा | उपप्रदर्शने, एताहिति इहाध्याये या अपदिष्टा नियतिकाद्याः, सातागारवो नाम शरीरसुखं तत्र निःसृताः, अझोपवण्णा इत्यर्थः,
मापूतिदोषाः ताङ्गचूर्णिः
| हियंति मण्णमाणो-एवमस्माकं हितं भविष्यतीति सुखानि एव-अहितमेव सेवते, अथवा अस्मिन्नर्थेऽयं दृष्टान्तः-जहा आसाविणिं ॥५१॥ | णावं सिलोगो ।।५८|| आश्रवतीत्याश्रविणी अकतकट्टा पुषणकोट्ठा वा, जात्यन्धग्रहणं नासौ नावो मुखं पृष्ठं वा जानाति, यो
| वा अबकपत्रादेरुपकरणस्य यथोपयोगः, स एवमिच्छन्नपि पारं समुद्रपारं वा, अंतरा विषीदति, सब च एव हिवते, निमज्जते वा,
सोहणिछिद्दपि ण सकेइ वजिउं तेषु, किमंग पुण सयछिदं, एस दितो, उपसंहारो एसो-एवं तु समणा एगे सिलोगो॥५९|| | एवम्-अनेन प्रकारेण, तुर्विशेषणे, अस्मान मुक्या मिच्छादिट्ठी अणारिया णाम चरिताणारिया अणारियाणि वा कम्माणि कुर्वति ते | संसारपारमिच्छति संसारे च अणुपरियति,अविणाम सो जातिअंधो देवतापभावेण वा अण्णेण वा केइ उत्तारिज्जेज,ण य मिच्छादिट्ठी संसारादुत्तरंति । बितिओ उद्देसिओ सम्मत्ती १-२॥ समयाधिकारोऽनुवर्तत एव,तत्र प्रथमे द्वितीये च कुदृष्टिदोषा अभिहिताः, तृतीये तेषामेवाचारदोषा अभिधीयते, अथ द्वितीयावसाने सूत्रं-'पुत्तं पिता समारम्भ आहारदुमसंजते' आचारदोप उक्तः, इहापि स एयाचारदोषोऽभिधीयते,दृष्टिदोषाश्च तेषामेव तेरासिगवत्वं च भणिहित्ति,इत्यतोऽपदिश्यते-जं किंचि उ पूतीकडं०सिलोगो॥६॥ यदिति अणिदिहिस्स णिदेसो, किंचिदिति यदाहारिमं उवधिजातं वा, पूतिग्रहणादाधाकापि गृहीतं, आधार्मिक एव हि पूर्ति, | यदपि च तदवयवोऽपि, न वर्तते कथं तर्हि आधाकर्म ?, तद्ग्रहणाच सर्वा अविशोधिकोटि गृहीता 'एगग्रहणे गहणंतिकाउं तजाति| याण सव्वेसिं' तिणि विसोहिकोटीवि गहिता, श्रद्धा अस्यास्तीति श्राद्धी, आगच्छंतीत्यागंतुकाः, तैः श्राद्धैरागंतुकाननुप्रेक्ष्य-। प्रतीत्य उपक्खडियं, अथवा सडित्ति जे एगनो वसंति ते उद्दिश्य कृतं, तत् पूर्वपश्चिमानां आगंतुकोऽपि यदि सहस्संतरकडं भुंजे, ॥५१॥
दीप अनुक्रम [२८-५९]
अस्य पृष्ठे प्रथम अध्ययनस्य तृतीय उद्देशकस्य आरम्भ:
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आगम
भाग-2 “सूत्रकृत" - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१], उद्देशक [३], नियुक्ति: [१-३५], मूलं [गाथा ६०-७५]
(०२)
पूतिदोषाः
श्रीमत्रताङ्गचूर्णिः ॥५२॥
प्रत सूत्रांक ॥६०
EM
७५||
ATERIAL
दुपक्खं णाम पक्षौ द्वौ सेवते, तद्यथा-गृहित्वं प्रव्रज्यांच, अम्हंतणोवि जो असुद्धं भुंजति सोवि दुपक्खं सेवति, कथं ?, दब्बो लिंग भात्रओ असंजतो, एवं ते प्रत्रजिता अपि भूत्वा आधाकादिभोजने गृहस्था एव संपद्यते। तमेव अविजाणतोसिलोगो ॥६॥ तमिति णिद्देशे, यथोद्दिष्ट मेव तदर्थं, एवमनेन प्रकारेणा मूलगुणे उत्तरगुणे तदुपघातं च अयाणता, अविशुद्धभोगदोसेग जहा 'आहाकम्मण्णा भंते ! भुजमाणे किं पकरेति किं चिणाति०, विसमा णाम बंधमोक्खा कम्मबंधोवि विसमो, एकेक कंममणेगपगारं अणेगेहिं च पगारेहिं बज्झते अतो विसमंति, अकोविका असंबुद्धा इत्यर्थः, ते अयाणगा प्रत्युत्पन्नगृद्धाः अनागतदोषदार्शनात् आधाकादिमिदोपैः कर्मबद्धा संसारे दुःखमाप्नुवंति,मच्छा वेसालिया चेव विशालः समुद्रः विशाले भवाः वैशालिका:बृहत्प्रमाणाः अथवा विशालकाः वैशालिकाः, पठ्यते च 'मच्छे वेयालिए चेव' वैताली कूलमिष्यते, लोके सिद्धमेव तदभिधानं, यथा पूर्वा वैताली दक्षिणाऽपरोरेति सामुद्रकूलोद्भवो, स वैशालिको वैतालीकूलो वा मत्स्यः सामुद्रकैर्वा विप्रहारैर्मत्स्यैश्वान्यैर्वृहद्भिनं चाध्यते स कथंचि देवतातो निरुपसर्गानिष्कंटकात्समुद्रवेलया निसृष्टकायः यतो, रूढ इव पुमान् परप्रयोगेन अनूद्यमानः सुदूरमन पहृताः उदगस्स अभिआगमेत्ति उदगस्य अभ्यागमो नाम समुद्रान्निस्सरणं, केचित्तु पुनः प्रवेशः, स एवं शरीरसुखाय अज्ञानात् , सूत्रापायात् । उदगस्सप्पभावेन सिलोगो।। ६२ ।। अप्पभावो नाम उदगस्स अल्पभावः, प्रत्यावृत्ते उदगे शुष्का एव वालुका संवृत्ताः पंको वा, अथवा अप्पस्वभावः अप्पभाव, स्तोक इत्यर्थः, स च महाकायत्वात् न तत्र शक्रोति, न परिवर्तमानो वा नदीमुखे लग्यते, एवं अप्पकाओ विघातयती घनघातेन वा, घातं करोतीति घंतः, अकर्म च कर्मकतेतिकृत्वाऽपदिश्यते-खयमेव असौ घातार एति प्रामोतीत्यर्थः, अथवा घेतो णाम मच्चू तं मच्चुमेति, कैः?, उच्यते-ढंकेहि य कंकेहि य०सिलोगो॥६२॥ पच्छद्धं, एते चान्ये
दीप
MACHAR
अनुक्रम [६०-७५]
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आगम
(०२)
प्रत
सूत्रांक
||६०
७५||
दीप
अनुक्रम
[६०-७५]
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र - २ (निर्युक्तिः+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [ १ ], उद्देशक [३], निर्युक्ति: [१-३५], मूलं [गाथा ६०-७५ ] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र -[०२] अंग सूत्र [०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि :
AMA
श्रीसूत्रकृ ताङ्गचूर्णिः
॥ ५३ ॥
आमिपाशिनः शृगालिपक्षिमनुष्यमार्जारादयः कप्पंति तत्रैव यदृच्छयावि, केचित्पुनः वीचमासाद्य वर्द्धमाने चोदके समुद्रमेव | विशंति, दुहिति तैस्तीक्ष्णतुण्डैः पिशिताशिभिरस्यमानास्तीवं दुःखमनुभवतो अह (इ) दुहसहा मरंति, एस दिडंतो, एवं तु समणा एगे० सिलोगो ॥ ६३॥ एवमनेन प्रकारेण वर्त्तमानमेव जिह्वासुखमिच्छंति, अष्णउत्थिया पासत्यादयो वा एगे, समुद्रमुत्तरितुं, अविसुद्धाणि आहारादीणि गवेसंतो जहा मच्छा एगभवियं मरणं पावेंति एवमणेगाणि जाइतन्त्रमरितन्त्राणि पार्वति, एवं पासत्थादयोवि जोएयन्वा, इष्णमणं तु अष्णानं० सिलोगो ॥ ६४ ॥ इदमिति जं भणिहामि जहा लोको उप्पजति विणस्सति य, इहेति इहलोगे, एगेसिं, ण सच्चेसिं, अथवा एगे थाम न ज्ञानमहा, एवं कहं १, देवउत्ते अर्थ लोगे० सिलोगो ।। ६५।। के भणति देवेहि अयं लोगो कओ, उप्पइति बीजवत् वपितः आदिसर्गे पश्चादंकुरवत् निसर्धमानः क्रमशो विस्तरं गतः, देवगुत्तो देवैः पालित इत्यर्थः, देवपुत्तो या देवैर्जनित इत्यर्थः एवं बंभउत्तेवि तिष्णि विकप्पा भाणितन्त्रा, बंभउत्तः बंभपुत्त इति वा । इस्सरेण कते लोगे० सिलोगो ||६६ ॥ ईश ऐश्वर्ये, ईश्वरः प्रभुः, स महेश्वरोऽन्यो वाऽभिप्रेतः, तथा प्रधानादन्य इच्छंति, प्रधानमव्यक्त इत्यर्थः, जीवाश्राजीवा जीवाजीवास्तैः जीवाजीर्वैः संयुक्तः, सुखं च दुक्खं च सुखदुःखे स एकीभावेन अन्वितः सुखदुःखसमन्वितः, अनुगत इत्यर्थः, तथा| ऽन्ये इच्छंति सयंभुणा कते लोगे ० सिलोगो ॥६७॥ खयं भवतीति स्वयंभूः, स तु विष्णु रीश्वरो वा ब्रह्मा वा इति, वृत्तंति, इतितिइतिरिति उपप्रदर्शनार्थः, उक्तं कथितमित्यर्थः, महऋषिनाम स एव ब्रह्मा अथवा व्यासादयो महर्षयः, यो वा यस्याभिप्रेतः सतं ब्रवीति महर्षिमिति एवं यो यस्याभिप्रेतः स स तं तं लोककर्तारमिति । केचित्पुनस्त्रयाणामपि साधारणं कर्तृकत्वमिच्छंति, तद्यथा'एका मूर्तिस्त्रिधा जाता, ब्रह्मा विष्णु, कारणिका ब्रुवते विष्णुः स्वर्लोकादेकांशेनावतीर्य इमान् लोकानसृजत् स एव मारयतीति कृत्वा
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S
कर्तृबादनिरास:
॥ ५३
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आगम
(०२)
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१], उद्देशक [३], नियुक्ति: [१-३५], मूलं [गाथा ६०-७५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता....आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-[२] “सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
कतवाद
श्रीसूत्रकताङ्गचूर्णिः ॥ ५४॥
निरास:
प्रत सूत्रांक ॥६०७५||
दीप अनुक्रम [६०-७५]
मारोऽपदिश्यते, ततस्तेन मारेण मारणे संसृना माया, एके अवते-यदा विष्णुणा सृष्टा लोका तदा अजरामरणत्वात् तैः सर्वा एवेयं मही। निरंतरमाकीर्णा, पश्चादसावतीवतरां क्रान्ता मही प्रजापतिः (म् )उपस्थिता, नागार्जुनीयास्तु पठंति-अनिविट्टिय जीवाणं मही वण्णयते प ' ततो से मायांसजुत्तकारलोगस्स भीत्वा ततस्तेन परिभीय स्वयं मह्या विज्ञप्तेन मा भूल्लोकाः सर्व एव प्रलयं यास्यंतीति भूमेरभावात् , तां च भयविह्वलांगी अणुकंपता व्याधिपुरस्सरो मृत्युः सृष्टः, ततस्ते धर्मभूयिष्टाः प्रकृत्याः जीवयुक्ताः मनुष्याः सर्व एव देवेधूपपद्यते स, ततः स्वगोंऽपि अतिगुरुतरो क्रान्तः प्रजापतिमुपतस्थौ, ततस्तेन मारेण संस्तुता माया, मारो णाम मृत्युः, संस्तयो नाम सांगत्यं, उक्तं हि-मातृपुव्वसंथवः, मृत्युसहगता इत्यर्थः, ततस्तेन मायावहुला मनुष्याः केचिदेके मृत्युधर्ममनुभूय नरकादिषु यथा क्रमते-उपपद्यते स्म, उक्तं च-'जानतः सर्वशास्त्राणि, छिन्दतः सर्वसंशयान् । न ते ह्यपकरिष्यति, गच्छ स्वर्ग न ते भयं ॥१॥" येन वा मारेण संस्तुता माया वितिया तेण लोए असासते । अत्र-माहणा समणा एगे सिलोगो ॥६८।। माहणा धियारा,समणा सांख्यादयः, एगे, ण सव्वे, अंडात् कृतं ब्रह्मा किलाण्डमसृजत् , ततो भिद्यमानात शकुनवल्लोकाः प्रादुर्भूताः, एवमेते सर्वेऽपि लोकोप्तवादवादिनः खं खं पक्ष प्रशंसंतो ब्रुवते-असौ तत्तमकासी य,अयाणंता मुसंवदे,असाविति असावेकः योऽसदभिप्रेतः विष्णुरीश्वरो वा, तवं नाम असावेव, नान्यो, लोकमकार्षीत् , शेपास्तु लोकोतवादमजाणतो मुसंवदे, अथवा वयं ब्रूमः-ते वराका लोकखभावं अयाणंता मुसं वदे, कथं ?, ते वदंति देवा मणुस्सा तिरिक्खा णारगा सुहिता दुक्खिता राजा युवराजादि सुहाणि वा विग्गहाणि वा सुभिक्खाणि वा दुभिक्खाणि वा सब्यमेतत् विष्णुकृतं, ये वाऽन्ये ते सर्व अयागंता मुसं वदे, किंच-जं ते. सपण परियारण, लोयं चूया कडे सिलोगो॥३९॥ विधिः-वपर्यायो नाम आत्माभिप्रायः अप्पणिो गमकः, य एवं स्वेन
IMPANDHE
॥५४॥
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आगम
(०२)
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१], उद्देशक [३], नियुक्ति : [१-३५], मूलं [गाथा ६०-७५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] “सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
कर्तवादनिरास:
प्रत सूत्रांक ॥६०
श्रीसूत्रक- तागचूर्णिः ॥५५॥
७५||
दीप
पर्यायेन ब्रुवते लोगस्स कह विधी, विधिविधान प्रकार इत्यर्थः, तेषामुत्तरं-तत्तं ते णवि जाणंति, तस्य भावस्तचं लोकमद्भाव इत्यर्थः, यथा उत्पद्यते पलीयते च स्वकर्मभिः तच न जाणंतीति, उक्तं हि-अणंता जीवघणा उप्पञ्जिचा णिलिअंति, एवं परित्ताचि इत्यर्थः, कर्मभिरुत्पद्यमानः प्रलीयमानश्च, संततीः प्राप्य नायं नासीत् कदाचिदपि, नित्यः दबट्ठयार सासओ, पज्जबडयाए असासओ, अथवा सव्व एवायं उत्तरसिलोगो, तेषां कडवादीनां विप्रसृतानि निशम्य सएण परियारण चूया लोककड़े विहिंति अप्पणियाएणं परियाओ णाम वीतरागागमवक्तव्यता, वूया लोए कडे वा णवित्ति, ते उ सब्वे कुवादिणो, तत्तं ते णवि जाणंति-णायं णासि कयाइवि, तवं यथा भगवद्भिरुपदिष्टं ?, किमुपदिष्टं, किमिदं भंते ! लोकेत्ति पवुच्चति ?, पंच अस्थिकाया, तत्थ दबओ णं लोगेण कयाइ णासि | जाव णिचे' एवं ३ भावओ जे जहा भावा-पजवा उप्पञ्जति विणस्संति च ते पडुच्च अणियो, पठ्यते च-लोकं बूया कडेति च, चशब्दा| दकडेत्ति था, नित्य इत्यर्थः, भावं पडुच्च कडे, किं चान्यत्-ते ह्यसर्वज्ञा नैवं दुक्खं जाणंति ण च दुकाबुप्पायं नैव तंनिरोध, कथं | तहिं लोकोत्पादं ज्ञास्यंति?, कथं-अमनुषणसमुप्पायं सिलोगो ॥७०।। अमणुण्णो णाम असंजमो, न हि कस्यवि संजमत्वं परिपामिन्यात्मनि क्रियमाणमिष्टं इत्यतः असौ दुष्टासीविषवत् सर्वस्यैवावमन्यः असंजमा, तेषां च यत्पूर्व नासीत् पश्चाद् ज्ञानं तत्सर्व दुक्खं, जंपि किंचि सुखसण्णितं तंपि दुक्खमेव, चंकमितं दुक्खं पवट्टति आसितं सयं दुक्खं दुधावि वातगत्तणंपि दुक्खं एत्रमादीणि, पुव्वं णासी पश्चाजायंत इति दुक्खानि, तानि चेश्वरकृतानि नामाभिरिति, त एवं तस्स दुःखस्स समुत्पादमयाणंता किह गाहिति नं बराका, तर्हि भावना-तद्विधैरात्मा, नैव पूर्व कृतं, पश्चाद् द्वैतं, ततः तेष्वपि एक, तद्यथा नाम कृष्यादीनि कर्माणि स्वयं कृत्या | नत्फलमुप जाना यते यदस्मत्सु किंचित् कर्म विपच्यते तत्सर्वमीश्वरकृतमिति, एवं तस्स दुक्खस्स समुत्पादमयाणंना कह
अनुक्रम [६०-७५]
॥ ५५
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आगम
(०२)
प्रत
सूत्रांक
|६०
७५||
दीप अनुक्रम
[६०-७५]
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र - २ (निर्युक्तिः+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [ १ ], उद्देशक [ ३ ], निर्युक्ति: [ १-३५ ], मूलं [गाथा ६० - ७५ ] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र-[०२] “सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
श्रीसूत्रक्रताङ्गचूर्णिः
॥ ५६ ॥
मणिपुणा संसारगता यासर्व ज्ञास्यंति है, संसारदुक्खणीस्मरणोवायं च कहं णाहिन्ति संवरं, भणिया कडवादिणो, तेरासिइया इदाणिं, तेवि कडवादिणो चैत्र, तेरासिया णाम जेसिं ताई एकवीससुचाई तेरासियासुत्त परिवाडीए, ते भति-सुद्धे अपावए आया० सिलोगो ॥ ७१ ॥ तेषां हि यथोक्तधर्म्मविशेषेण घटमानोऽयमात्मा इह सुद्धाचारो भूत्वा मोक्खो, अप्पा एको भवति, अकर्म्मा इत्यर्थः, 'इहे 'ति इह लोके मिथ्यादर्शनसमूहे वा स - मोक्षप्राप्तोऽपि भूत्वा कीलावणप्पदोसेण रजसा अवतरति, तस्य हि स्वशासनं पूज्यमानं दृष्ट्रा अन्यशासनान्य पूज्यमानानि च क्रीडा भवति, मानसः प्रमोद इत्यर्थः, अपूज्यमाने वा प्रदोषः, ततोऽपि सूक्ष्मे रागे द्वेषे वाऽनुगतान्तरात्मा शनैः शनैः निर्मलपट इव उपभुंजमानः कृष्णाणि कर्माणि पयुज्य स गौरवा तेन रजसाऽवतार्यते, ततः पुनरपि | इह संवुडो (इह संबुडे मुग्णी जाया) भवित्ताणं सुद्धे सिद्धीऍ चिट्ठति इहेति इह आगत्य मानुष्ये च यः प्राप्य प्रव्रज्यामभ्युपेत्य संवृतात्मा भूत्या, जानको नाम जानक एव आत्मा, न तस्य तज्ज्ञानं प्रतिपतति, यतः चैतत् शासनं ज्वलति, तत एवं प्रज्वाल्य किंचि| स्त्कालं संसारेच स्थित्वा प्रेत्य पुनरपापको भवति, मुक्त इत्यर्थः, एवं पुनरनन्तेनानन्तेन कालेन स्वशासनं पूज्यमानं वा अपूज्यमानं | वा दृष्ट्वा तत्थ से अवरज्झति - अवराधो णाम रागं दोसं वा, ततः सापराधत्वात् चोरवत् रागद्वेषोत्थैः कर्मभिर्ब्रध्यते, ततः कर्मगुरुत्वात् पुनरवतार्यते, तेनैव क्रमेण शासनं प्रज्वाल्य निर्वाति च, उक्तंच दग्धनः पुनरुपैति भवं प्रमथ्य, निर्वाणमप्यनवधा|रितभीरुनिष्ठम् । मुक्तः स्वयं कृतभवश्च परार्थशूरस्त्वच्छासनप्रतिहतेष्विह मोहराज्यं ॥ १ ॥ यतत्रैवं - एतानुबीपि मेधावी० सिलोगो ॥ ७२ ॥ एवं त्रैराशिकमते चान्ये प्रागुक्ताः कुवादिनः तैव गच्छति स्वच्छंदबुद्धि विकल्पैः पूर्वापराधिष्ठितः मती, न तु चित्य, ज्ञात्वेत्यर्थः नैते निर्वाणायेति द्रव्यब्रह्मचेरं 'न तं बसे' वसेति ण तं रोएजा आयरेज वा ण. वा तेहिं समं बसेआ, संसरिंग वा कुर्यात्
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त्रैराशिकाः
।। ५६ ।।
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भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१], उद्देशक [३], नियुक्ति: [१-३५], मूलं [गाथा ६०-७५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
कृस्योप
गत्वं
प्रत सूत्रांक ॥६०
श्रीसूत्रकताङ्गचूर्णिः ॥५७॥
७५||
ते होहिंति, मा भूत् सेहमति, बुग्गाहेजा उक्तं हि-"शंका कांक्षा जुगुप्सा च०" सब्वेवि एते पुढो पावादिया सव्वे अक्खातारो सयं, पुढो | णाम पृथक्, यथामति विकल्पशो वा स्वं स्वमिति स्वं स्वं सिद्धान्तं प्रशंसंति परसिद्धान्तं च निन्दंति सएसए उवट्ठाणे०सिलोगो | 11७३।। स्वे स्वे आत्मीये उपतिष्ठंति तस्मिन्निति उपस्थान, सिद्धिरिति निर्वाणं, एवमवधारणे, नान्यथेति नान्येन प्रकारेण, मुच्यन्ते सर्वा, अन्येषां तु स्वाख्यातं चरणधर्मावशेषादिहैवाष्टगुणैश्वर्यप्राप्तो भवति, तद्यथा-अणिमानं लघिमानमित्यादि, अहवा अबोधि | होति च वसति, अबोहिनाम अबोधिज्ञानः, वशवर्ती नाम वशे तस्येन्द्रियाणि वर्तते नासाविन्द्रियवशकः, सधकामसमप्पियो णाम | सर्वे कामाः समर्पिताः तस्य यथेच्छातः उपनमंते इत्यर्थः, तस्य सर्वकामा अपिताः, सर्वकामानां वा समपितः।। सिद्रा य ते | अरोगा य' सिलोगो॥७४।। ते हि रिद्धिमंतः शरीरिणोऽपि भूत्वा सिद्धा एव भवंति, निरोगाथ, नीरोगा णाम यातादिरोगरागंतुकैश्च न पीब्यन्ते, ततः स्वेच्छातः शरीराणि हित्वा निर्वाति, एवं 'सिद्धिमेव पुरो काउं सएहिं गढिता गरा' सिद्धिं पुरस्कृत स्यैते सिद्धा एष वयं, अनेन धाऽऽचारेण सिद्धिं यास्यामः पूजापुरस्कारकारणात , हिंसादिषु गढिता णाम मूञ्छिता, संसक्तभावात् , तत एवं 'सिद्धाः' सिद्धवादिनः ये वान्ये आथवगडिता वादिनः ते "असंबुडासिलोगो"||७५।। अणादीयं भमिहिंति पुणो पुणो, एतत्कंठर्थ, 'कप्पकालुवयअंति ठाणा असुरकिचिसा' कल्पपरिमाणः कालः कप्पकाल: कप्प एव वा कालः तिष्ठत्यस्मिन्निति। स्थानं, आसुरेषूपपद्यन्ते किल्विपिकेषु च, ततो उवढा अणंतं कालं हिंडंति संसारे । इच्चेते कुसमये घुज्झेज तिउद्देज ।। ततिओ उद्देसोसम्मत्तो१-३॥ उद्देसामिसंबंधो 'किच्चुत्रमा य चउत्थे णिज्जुत्तीए उत्तं, किचेहि-कृत्यैरुपमीयते इत्यतः कृत्युपमा, सूत्रस्य सूत्रेण सह संबंधने मोक्षार्थमुपस्थितः आत्मनोऽपि ताव- सरणं नो भवति जेण कप्पकालुववजंता, किमंग पुनरन्येषां ?,
दीप
अनुक्रम [६०-७५]
अस्य पृष्ठे प्रथम अध्ययनस्य चतुर्थ उद्देशकस्य आरम्भ:
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आगम
(०२)
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१], उद्देशक [४], नियुक्ति: [१-३५], मूलं [गाथा ७६-८८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सूत्रकृत' जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
श्रीवकवाजवाणा ॥५८॥
कृत्योप
गत्वं
सूत्रांक ७६
८८||
दीप
इत्यतोऽपदिश्यते 'एते जिता भो सरणं' सिलोगो ।। ७६ ॥ एते' इति य उद्दिष्टाः, श्रयंति तमिति शरणं, 'भो'! इति शिष्यामंत्रणं, जिता नाम विषयकषायैस्ते जिता, न भवंति शरणाय, दुर्बला इत्यर्थः, अथवा एते भो असरणं, परीपहजितत्वात् , अत्तणो य परेसिं च, स्यात्-कथं अशरणाय भवंति ?, उच्यते, येन 'बाला पंडियमाणिणो, अथवा पयणपयावणादिआरंभविहारधणधण्णगोमहिससयणासणादिपरिच्छंदा, गाणाविधेहि दुक्खेहिं अभिभूता आत्मनः सरणं मण्णंते ते कथं अण्णेसिं सरणं भविस्संति ?, ते असरणे सरणबुद्धिया बाला पंडितमाणियो, संजमो य भावसरणं, अत्तणो य ताव परेसिं च तं प्रति जिता, जहिता पुव्वं संयोग, के ते?, कुतित्था लिंगत्था य, पुबसंयोगो णाम स्वजनधन इत्यादि, तं च हित्वा 'सिता किचोवगा' सिताबद्धा इत्यर्थः, सितानां कृत्यानि सितकृत्यानि, तद्यथा-पचनपाचनारंभपरीग्रहादीनि, उपगा नाम योग्याः, अथवा 'सितकृत्योपगा' इति सितागृहस्थाः नित्यमेवारंभोपजीवित्वात् असुभाध्यवसिताः पापोपगा भयंति, ततश्च नरकोपका इति, एत्थ दिटुंतो सुबादिवोदेणं, अंतरदीवे एकस्स भिण्णवाहणियस्स पुवपविट्ठस्त उच्छुखाइयस्स समुद्रकूलावस्करस्थाने मुकं स गुलमट्टियंतिकाऊण भक्षयति, इतरदर्शनं, सम्भावे कथिते णस्थि किंचि सुइत्ति सगिहं चेव हव्यमागते, यतश्चैवं तेण 'तं च भिक्खू परिषणाय०' सिलोगो ।।७७ ॥ तदिति तेपां आरंभादि सितकृत्योपगत्वं चशब्दात्कुदर्शनग्रहणं अन्यच छउमत्थं चउपञ्जवं जाणणापरिणाए परिजाणिया (पचकखाणपरिणाए) पञ्चक्खातुं तदाचारस्य विजं नाम विद्वान् संस्कृतापभ्रंशः न मूर्छा तेषु कुर्यात् , यथा एतेवि णिव्याणाय, अथवा यथेषां परैः क्रियते ण तत्थ मुच्छए, अमूर्छमान एव च 'अणुकसाए अणुवलीणे' अणुकसायो नाम तणुकसाओ, यथाऽणुत्वात्परमाणु नोपलभ्यते एवमस्यापि यद्यप्यक्षीणाः कषायाः तथाप्यणुत्वानोपलभ्यते, निगृहीत्वानोदीयंत इत्यर्थः,
अनुक्रम [७६-८८]
NOPATINATDANER
[71]
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आगम
(02)
प्रत सूत्रांक
॥७६
८८||
दीप अनुक्रम [७६-८८]
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र - २ (निर्युक्तिः+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [ १ ], उद्देशक [ ४ ], निर्युक्ति: [ १-३५ ], मूलं [गाथा ७६-८८ ]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र [०२], अंग सूत्र -[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णिः
श्रीसूत्रक्रताम्रचूर्णि:
।। ५९ ।।
| पठ्यते चान्यथा सद्भिः अणुकोसे अणुवलीणे, तत्राणुकोसो नाम न जात्यादिभिर्मदस्थानैरुत्कर्षं गच्छति, अपलीयते स्म अपलीनः, यो हि जात्यादिरहितः पूर्व्वमासीत् स नापलीयेत, न गृहयेदात्मानमित्यर्थः, तत आत्मोत्कर्षत्वापलीनत्वे वर्जयित्वा मज्झिमेण मुणि जावए, ण-नोत्कृष्येत् लज्येत इत्यर्थः अथवा रागद्वेषौ हित्वा तयोर्मध्येन मुनिर्यापयेत्, अरक्तदुष्ट इत्यर्थः, अथवा मध्यमिति 'सपरिग्गहा य सारंभा य० ' सिलोगों ॥ ७८ ॥ परिग्रहारंभायुक्तौ प्रथमोदेशके, 'इहे'ति इहलोके, एके न सर्वे, आहितं -आख्यातं यदेषामारंभपरिग्रहौ व्याख्यातौ निर्वाणाय तच्वं साधवस्तद्विपरीतास्तन्मध्ये अपरिग्रहे अणारंभे ज्ञानवान् ज्ञानी भिक्षुः पूर्वोक्तः समंताद् व्रजेत् परिव्रजेत् स्यादेतत्- अनारंभापरिग्रहवतो अपरिचयस्य च भिक्षोः कथं शरीर| यापनाप्रक्रिया स्यादिति १, नैवाशरीरो धम्मो भवति, ततः उच्यते-'कडेसु घास मेसेजा' सिलोगो ॥७९॥ अथवा जावएत्ति बुतं, सा चेयं यापना- कडेसु घासमेसेजा, तैरेवारंभपरिग्रहवद्भिः पचमानकैः अर्थाय कृतेषु प्रासुकीकृतेष्वित्यर्थः, ग्रस्यत इति ग्रासः तेषु कृतवत्सु स भिक्षुर्याचेत, यदुक्तमेषणीयं चरेत्, चर गतिभक्षणयोः, भुंजीतेत्यर्थः एवमाहारउवधिसेजाओचि, तदपि भुंजानाः अगिद्धे विष्पमुक्के य, अगिद्धो अरक्त इत्यर्थः, बायाली सदोसविप्यमुक्कं, एसणं चरेदिति गवेसणा गणेसणा य गहिताओ, अगिद्धेति घासेसणा, विष्पमुवेत्ति न तेष्वाहारादिषु ममीकारः कर्त्तव्यः, यत्र वा इष्टो आहारो लभ्यते तत्रापि कुले ग्रामे वा न संगः कार्य इत्यतो विष्पमुत्को य, 'उम्माणं परिवजिए'ति सपक्खपरपक्व उम्माण पेल्लियं च खेत्तं वज्जेतव्यं मा भूत् एवं दोषाः स्यु रिति, उबहिसेजाहिवि जोइज्जा आदिग्गहणा, किच्चुवमाहिकारो गतो, समयाधिकारोऽनुवर्त्तत एव, लोकस्य च - पाखण्ड| लोकस्य च तदधिकारेऽनुवर्त्तमाने इदमपदिश्यते लोगावायं णिसामेज्ज० ' सिलोगो ||८०|| लोका नाम पापंडा गृहिणच, लोकस्य
[72]
कल्पोपगत्वं
॥ ५९ ॥
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आगम
(०२)
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१], उद्देशक [४], नियुक्ति: [१-३५], मूलं [गाथा ७६-८८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-०२] “सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
MAIN
श्रीसूत्रकताङ्गचूणि:
लोक विचार:
प्रत सूत्रांक
७६८८||
दीप
लोकयो वादः लोकवादस्तान् 'अनपत्यस्य लोका न संति, गावान्ता नरकाः, तथा गोमिहतस्य गोषस्य नास्ति लोका, तथा जेसि सुणया जक्खा, विप्पा देवा, पितामहा काया, न लोगदुब्बियडो दुक्खमोक्खा वियोधितुं, तथा पुरुषः पुरुष एव, सी स्त्रीत्येव, तथा पापंडलोकस्यापि पृथक तयोखि प्रवृत्ताः, केपांचित्सर्वगतः असर्वगतः नित्योऽनित्यः अस्ति नास्ति चात्मा, तथा केचित्सुखेन धर्ममिच्छति, केचिदुःखेन, केचित् तानेन, केचिदाभ्युदयिका धर्मपरा: नैव भोक्षमिच्छति, 'इहेति इहलोके आहितंआख्यातं, पठ्यते च 'लोकावादं णिसामेत्ता' णिसामेना-जाणित्ता यण सद्दहेज, लोकस्वभावो नाम अज्ञानित्वाद्यत्किचिद्भाषिता, उक्तं च-"एवं स्वभावः खलु एष लोका, न स्वार्थहानिः पुरुषेण कार्या।"अथ कस्मान श्रद्धेया परसमया इति ?, यस्मात्ते 'विपरीयपण्णसंभूया' प्रयाणामपि ज्ञानानां विपरीतया प्रज्ञया संभृताः, उक्तं हि-'मतिश्रुतविभंगा विपर्ययश्च' (तच्या० अ०१सू०) विपरीतप्रज्ञा संजाता येषां ते विपरीतपण्णसंभूताः, अन्योऽन्यस्य बुइतं अणुगच्छंतीति अण्णोण्णबुइताणुगा, तत्कथं ?, व्यासोऽपि हि इतिहास्यमानो यत् अन्यस्य वचः प्रमाणीकरोति, तद्यथा-अमुकेन ऋपिणा एवं दृष्टमन्येनैवमिति नान्योऽन्यस्य वचनमतिवर्तते, प्रायेण हि वार्तानुवात्तिको लोकः, तथा चोक्तं-"गतानुगतको लोकः," अस्यामेव लोकचिन्तायां केचित्पापंडा तच्छावकाथैवं प्रतिपन्ना:-'अणंते णियते लोए.' सिलोगो॥८॥ अनन्तो नाम नास्ति परिमाणमस्य क्षेत्रतः कालतोऽपीति, णितिये नित्य इत्यर्थः, ननु के ?, सांख्याः , तेषां सर्वगतः क्षेत्रज्ञः, कूटस्थग्रहणं यथा वैशेषिकाणां, प्रतिपन्नाः परमाणवः, शाश्वतत्वेऽपि सति णवि सासएति, न तेषां कश्चिद्भावो विनस्यत्युत्पद्यते वा, अन्ये तु ब्रुवते 'अणंते च णितिए लोए' यथा पौराणिकानां सप्त द्वीपाः सप्त समुद्राः क्षेत्रलोकपरिमाण, कालतस्तु नित्यः, केपांचिदन्तवान्नित्यश्च, एवमेवधारणे, वीरो जांवकः, अधिकम्-अन्येभ्यः, सर्वे
अनुक्रम [७६-८८]
[73]
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आगम
(०२)
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१], उद्देशक [४], नियुक्ति: [१-३५], मूलं [गाथा ७६-८८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] “सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
श्रीसूत्रकताझ्चूर्णिः
प्रत सूत्रांक
७६८८||
दीप
भ्योऽन्यतीर्थकरेभ्यो वा पश्यत्यधिपश्यति, किंचान्यत्-'अमितं जाणति वीरें ॥८२।। न मितं अमितं, का तर्हि भावना ?-10 अमित | केपांचित्सर्वज्ञवादिनां अनंत ज्ञानं सर्वत्राप्रतिहतमिति, अथवा लोकमेव अमितं जाणंति, अमितो नाम अपरिमाणो लोका, तच्च |
ज्ञानादि सर्वज्ञो वीरः तथैव जानाति, अन्ये पुनः सव्वत्थ सपरिमाणं इति, वीरोत्ति,'सर्वत्रे ति तिर्यगूमधश्चेति क्षेत्रतः, कालतः केषांचिद् दिव्यं वर्षसहस्रं केषांचिदन्यथा, इति उपप्रदर्शनार्थः वीर उक्तः, अधिकं पश्यतीति, एवं यस्य परिमाणमिष्टं स तेनार्थाभिप्रेतेन परिमाणेन, नानन्तलोकमिच्छन्ति, तत्र ये त्रुवते 'अणते णितिए लोए' त एवं ब्रुवते यो हि यथा भावः स तथैवात्यन्तम विकल्पो भवति, तद्यथा-यखसखस एव स्थावर: स्थावर एव सर्वकालं, न सत्वं जहाति न स्थावरत्वं जहाति, एवं देवा देवा एव, मनुष्येषु स्त्रीपुनपुंसका इति, अथवा यदुक्तं 'लोकावादं णिसामेज' ते च लोकवादा उक्ताः, अथवा खी खी एव, एवं प्रसस्त्रस एव, स्थावरः स्थावर एव, भट्टारगो भणति-मिच्छा एयं, जो जहा सो तहेव, अव्वत भण्णति, अयं तु खभावो-'जे केइवि तसा पाणा'सिलोगो | ॥८३॥'जे'ति अणिद्दिढे णिदेसे, केचिदिति न सर्वे, वसा न स्थावराः, तत्र त्रसतीति प्रसाः तिईतीति स्थावराः, परियाए अस्थि से जायं' पर्यायो नाम पर्यायः प्रकार इत्यर्थः, अथ कोऽर्थः, अस्त्यसौ कश्चित् प्रकारः येन ते वसा भवन्ति स्थावरा वा, तत्र तावत् ।
सनिर्वकानि काण्युपचित्य असा भवंति, एवं स्थावरा अपि, नागार्जुनीयास्तु पठन्ति-प्रसनामउदयेण त्रसं न तु स्थावरोदयनामेन, उक्तं च-'अणिथमावासमुर्विति जंतवो, परलो० सोच समेच इतयं तथा चोक्तं 'ठाणी विविधा ठाणा' अन्यचोक्तं 'अशाश्वतानि स्थानानि', यो हि यथाका स तथा भवतीति, तद्यथा-नारगो तिर्यग्मनुष्यो देवो वा, तथा स्त्री पुं नपुंसकं वा, न तु जातिमनुष्योऽस्ति जातिस्त्री वेत्यादि, यतश्चैवं तेनायपन्यः पर्यायो भवतीति वाक्यशेपः, येन ते त्रसा भवन्तीति
अनुक्रम [७६-८८]
॥६१।
[74]
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आगम
(०२)
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१], उद्देशक [४], नियुक्ति: [१-३५], मूलं [गाथा ७६-८८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-[२] “सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
प्रत
श्रीसत्रक- ताइचर्णिः
पयायपरावत:
सूत्रांक ||७६८८||
दीप
स्थावरा वा, किं चान्यत-हैव तावदासो भूत्वा राजा भवति राजा भूत्वा द्रमकः, तथा बालकौमारयौवनमध्यमस्थाविर्याण्यन्योपमर्दैन प्रामोति, गतिस्थाननयनासनस्खमबोधादयोऽन्येऽपि विशेषा वक्तव्या इति, किंचान्यत्-प्रत्यक्षेण परोक्षं साध्यते, तच्चामी सत्त्वा 'उरालं जगतो जोगं' सिलोगो ।। ८४ ॥ ओरालं प्रागडं स्थूलं जगतो योगो, तद्यथा--गर्भबालकौमारयौवनमध्यमस्थाविर्याण्योरालाणि प्रागडानि जुञ्जति विजुअंति, तथा च तस्मिन्नेव वयसि कश्चिदासो भूत्वा राजा भवति, ईश्वरश्च भूत्वा निर्द्धनो भवति, 'अस भुवि विपरीततामेवैति विपर्यासः, विपर्यासेन प्रलीयन्ते, अन्यथाभावगमणेनेत्यर्थः, चशब्दान सर्वथा प्रलीयंते, द्रव्यतो हि अवस्थिता एव, अनेन प्रत्यक्षदृष्टेन सामान्येनानुमानेनैव साध्यन्ते, यह जातिसारणाद्वा बहवो विशेषा दृश्यन्ते एवं भवान्तरगतस्य अप्रत्यक्षाः, गतिकायेन्द्रियलिंगत्रसस्थावरराजयुवराजईश्वरादिदासभृतकद्रमकादयश्चोत्तमाद्याः विपर्यासाः, भवान्तरेष्वपि प्रत्येतव्याः, एते तु प्रत्यक्षपरोक्षाः ताँस्तान् पर्यायविशेषान् परिणमंतः 'सव्वे अकंतदुक्खा य' सर्वे इत्यपरिशेषाः कान्तः प्रिय इत्यर्थः न कान्तमकान्तं दुक्खं अनिझैं अकाम अप्पियं जाव अमणाम दुक्खं, अनुकूलमपि चैतत् ज्ञायते, तथा सब्वे इट्ठा सुभा कंता सुभा जाव मणामा सुभा 'अत' इति अमात्कारणात् अहिंसगाः, एवं ज्ञात्वा सर्वसच्चान्यस्य साधोरहिंसनीयानि, किं कारणं , तदुच्यते-'एवं खु णाणिणो सारं सिलोगो ।। ८५ ॥ एतदिति यदुक्तमुच्यते वा सारं विद्धीति वाक्यशेषः, यरिक ?, उच्यते, जे ण हिंसति किंचणं, किंचिदिति वसं स्थावरं वा, अहिंसा हि ज्ञानगतस्य फलं, तथा चाह-'योऽधीत्य शास्त्रमखिलं०' एवं खु णाणिणो सारं जं ण भासे अलियपयं, एवं अदत्तं, मेहुणं, परिग्गहं च, जं च रागादि अज्झत्थदोसे विवञ्जेति तदप्युच्यते एवं खु गाणिणो सारं, स्यात्कि कारणं सच्चा न हिंसनीया?, उच्यते-'अहिंसा समयं चेव' अहिंसासमयो नाम
अनुक्रम [७६-८८]
[75]
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आगम
(०२)
प्रत
सूत्रांक
॥७६
८८||
दीप
अनुक्रम
[७६-८८]
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र - २ (निर्युक्तिः+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [ १ ], उद्देशक [ ४ ], निर्युक्ति: [ १-३५ ], मूलं [गाथा ७६-८८ ] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र-[०२] “सूत्रकृत” जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
श्रीसूत्र कुताङ्गचूर्णिः
॥ ६३ ॥
तुल्यता, यथा मम दुक्खमप्रियं एवं सव्वसच्चानां एतां अहिंसां समतामात्मनः सर्वजीवैः एतावन्तं वियाणिया न हिंसति कंचनमिति वर्त्तते, एतावांच ज्ञानविषयः यदुत सर्वत्र समया भाव्येति, तथा मृषाऽदत्तादानादिष्वपि आश्रवेषु यथासंभवमायोज्यमिति, उक्ता मूलगुणाः, उत्तरगुणसिद्धये व्यपदिश्यते 'वुसिए य विगतगेही आयाणं सिलोगो ||८६|| बुसिते' त्ति स्थितः, कस्मिन् ?, धर्मे, विगता गृद्धिरिति अलुद्धः, 'आदिरंत्येन सहिति'चि अक्रुद्धः अमानः अमायावी, पठ्यते अकसायी, सदाधिगतबोधी, कपायाः क्रोधाद्याः, गृद्धिलोंभः, एगरगहणे गहणमिति 'आदिरन्त्येन सहितेति' वा गृद्धिग्रहणात्सर्वे आकृष्टाः, 'आदाणं सारक्लए'चि आत्मानं सारक्खति असंजमाओ, आदीयत इत्यादानं ज्ञानादि, तं सारक्खति मोक्खहेतुं किं ?- 'चरियासणसेज्जासु भत्तपाणे य अन्तसो' सारक्खति इति वर्त्तते, चरियत्ति इरियासमिति गहिता, चरियाए पडिवक्खो आसणसयणे, एत्थ आदाणं सारक्खति, अथवा चरियागहणेण समिईओ गहिताओ, आसणसयणगहणेण कायगुत्ती, एकग्गहणेणं गहणंतिकाऊण मणवड़गुत्तीओवि गहिताओ, भत्तपाणग्गहणेण एसणासमिई, एवं आदाणपरिडावणीयाई सूइयाओ, 'अन्तस' इति जाब जीवितान्तः । 'एतेहिं तिहिं ठाणेहिं' सिलोगो ॥ ८७ ॥ 'एतानी'ति यान्युक्तानि इरिया एगं ठाणं आसणसयणंति विश्यं भत्तपाणेति तईयं, अहवा एतेसु चैव इरियाइगेसु मणोवयणकाएणं, अदवा इरियं मोत्तूण सेसेसु उग्गमउप्पायणेसणासु संजमेज सया मुणी, सदा| सर्वकालं । इयाणिं एतेसु संजमंतो इमानन्यानध्यात्मदोषान् परिहरेत्, तद्यथा- 'उक्कोसं जलणं णूमं' सिलोगो ॥ ८८ ॥ उक्क| स्यतेऽनेनेति उक्कोसोमानः, ज्वलत्यनेनेति ज्वलनः - क्रोधः, नूमं णाम अप्रकाशं माया, अज्झत्थो णाम अभिप्रेतः, स च लोभः, | स एवं परसमयाः, न सद्भाव इति मत्वा सम्यग्दृष्टिज्ञानवान् यथोक्तेषु मूलोत्तरगुणेषु यतमानः 'समिते तु सदा साधू' सिलोगो
[76]
समतांदि
॥ ६३ ॥
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आगम
(०२)
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१], उद्देशक [४], नियुक्ति: [१-३५], मूलं [गाथा ७६-८८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] “सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
समतादि
ताजत्यूणिप्राणातिपार
प्रत सूत्रांक
७६८८||
दीप
श्रीसत्रक-10॥ ८८॥ समिते तु तेपामेवोत्तरगुणामां पूर्वोक्तानां परिसमाननं क्रियते सदा-नित्यं, तुर्विशेपणे, साधयतीति साधुः, पंचासंवराः
। प्राणातिपाताद्याः तत्संवृतत्वान्न पापमादत्ते इति, स एवं संवृतत्वात् सितेहिं असिते भिक्खू, सिता बद्धा इत्यर्थः, गृहिकुपाषंडा॥६४॥
दिभिहकलत्रमित्रादिभिः संगैः सिताः तेषु सितेष्वसितः, अवद्ध इत्यर्थः, तैर्याच्यमानः तानाश्रितो वा अणसितः, एवं कथं?, उक्तं हि 'जणमज्झेवि वसंतो एगंतो' आङ् मर्यादाभिविध्योः परि समंतात आदिमध्यावसानेपु यावन्न मुच्यसे ताव आमोक्खाए परिवएजासित्ति बेमि शिष्योपदेशो । गतः सूत्राणुगमो, इदाणिं णया-'गायम्मि गिहिअव्वे० गाथा ॥ ॥ 'सव्वेसिपि णयाणं.' | गाथा ॥ ॥ इति श्री सूचकृतांगे समयाख्यं प्रथमाध्ययनं समाप्तं ।।
अज्झयणाभिसंबंधो ससमयगुणे गाऊण परसमयदोसे य ससमए जयमाणो कम्मं विदालेमासित्ति वेयालियज्झयणमागतं, | तस्सुवकमादि चत्वारि अणुयोगद्दारा, अज्झयणत्याधिकारो कम्मं वियालियव्यंति, उद्देसत्थाधिकारो पुण "पढमे संबोधि अणिचया य" गाहा ॥ ४०॥ पढमे उद्देसए हिताहिता संयुज्झितव्यं अणिचताय 'डहरे बुड़े य पासधा एवमादि, वितिए उद्देसए 'माणवजणता' माणो बजेयब्बो,'जे यावि अणायए सिदा' एवमादि,"उद्देसम्मिततिए"गाहा।।४शाततिए मिच्छत्तादिचि| तस्स कम्मरस अवचयो 'संवुडकम्मस्स भिक्खुणों एवमादि, णामणिप्फण्यो णिक्खेवे क्यालियति तत्थ गाथा ।। वेयालियंमि पेयालगो य वेयालयं वियालणियं । तिण्णिवि चउकागाइं वियालगो एत्थ पुण जीवो ॥३६।। तत्थ वेतालिगो णामादि चतुर्विधो, णामठवणाओ तहेव, दब्बयालगो जो हि जं दवं वेयालियंति रथकारादिः, भावे गोआगमतो भाववियालगो साधुः, जीवो कम्मं विदालयति कम्मं वा जीवं, विदालणंपि णामादि चतुर्विध, तत्थ गाथा “दवं च परसुमादी" गाथा ॥३७॥ विदा
अनुक्रम [७६-८८]
६४॥
अस्य पृष्ठे द्वितिय अध्ययनस्य आरभ्यते
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आगम
(०२)
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [२], उद्देशक [१], नियुक्ति : [३६-४२], मूलं [गाथा ८९-११०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] “सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
विदारणादि
प्रत
सूत्रांक
||८९११०||
AA
श्रीमत्रक
6 लणमिति करणभूतं, तत्र द्रव्ये परश्वादि, ज्ञानाद्यात्मकेन भावेन भाव एव मिथ्यात्वादिरूपो विदार्यते, भावे विदारणं णाणदसण- नाङ्गचूर्णिः
| चरिचाणि, विदालणियपि नामादि चतुर्विधं, णामठवणाओ तहेव, दयविदालणियं दारुर्ग, भावे अट्ठविहं कम्म विदारिजति, ॥६५॥17 वेयालियस्स गाथाए णिरुत्तं भण्णति-"वेयालियं इहं देसियंति वेयालियं नतो होति। एतदेव करणभूतं वेयालियकमध्ययनं,
किं विदारयति ?,तदेव कर्म,आह-यद्येवं सर्वाणि कर्मविदालणानि,विशेषो वा वक्तव्यः,उच्यते,अयं विशेपो-"वेयालियं इहं वित्तमत्थि तेणेव य णिवद्धं"॥३८॥ वेतालियं नाम वृत्तजाति तयावा बद्धत्वात् वैतालियं । अस्योपोद्घातः"कामं तु सासतमिणं कथितं अट्ठावयम्मि उसमेण । अट्ठाणउतिसुताणं सोऊण य तेऽवि पन्चाइया ।। ३९॥ भरहेण भरहवासं णिजिऊण अट्ठाणऊतीवि भायरो भणिता-ममं ओलग्गय रजाणि वा मुयधति, अट्ठावए भगवन् उसमसामी पुच्छितो, एवं भरहो भणति, किमेत्थ अम्हेहिं करणीयति ?, ततो भगवता तेसिं अंगारदाहगदिद्रुतं भणिऊण इदमध्ययनं कथितं, यद्यपि चेदमध्ययनं शास्वतं तथापि तेन भगवता पुत्राः संबोधिताः इतिकृत्या स एव विशेषस्तीर्थकरैरप्यस्य उपोदघातेऽनुवर्तते स्म इति । एवं उपग्धातणिज्जुत्तीए 'उद्देसे निदेसे य |णिग्गमे चि अक्खाणगं समोतारेयच्वं, स भगवान् तान् तत्संसारविमुमुक्षुराह-भो! 'संबुज्झह किग्ण चुज्झह' वुत्तं, (८९) | सम्यक् संगतं समस्तं वा बुध्यत संबुज्झइ, स्यात् कहिं बुध्यते ?, धर्मे, किमिति परिप्रश्ने, स्याम्कि कारणं बुध्यते?, संबोधी खलु पेच दुल्लमा, संबोधिस्विविधा-णाणदंसणचरित्ताणि, खलु विशेषणे, चारित्रसंबोधिरधित्रियते मनुष्यत्वे, न शेषगतिविति, अथवा
बुज्झह, कि रोहिं विसएहि कलचेहिं वा करेस्सह, प्रसुप्तस्य संबोधिर्भवतीत्यत: सुप्ता एवं वक्तव्याः , एत्थ णिज्जुत्तीगाथा-दवे Aणिदावेए दरिसणणाणतवसंजमा भावो। अधिकारो पुण भणितोणाणे तह दसणचरित्ते॥४२॥सुत्तो दुविहो-दवसुचो
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॥६५॥
अस्य पृष्ठे द्वितिय अध्ययनस्य प्रथम उद्देशक: आरभ्यते
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भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र - २ (निर्युक्तिः+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [२], उद्देशक [१], निर्युक्तिः [ ३६-४२], मूलं [गाथा ८९-११०] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र -[०२ ], अंग सूत्र [०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि
श्रीसूत्रक्र
साङ्गचूर्णिः ॥ ६६ ॥
भावतोय, तत्थ दुव्वसुतो दुविहो- उवचारसुत्तो विद्दासुत्तो य, उपचारसुप्तः पतित ओदकः, निद्रासुत्तो नाम निद्रावेदोदयाविष्टः स्वपिती, पञ्चानामपि विषयाणां तत्कालमावन्नो, भावसुप्तस्तु ज्ञानादिविरहितः अज्ञानी मिथ्यादृष्टिरचारित्री च, जो दव्वसुतो सो भावविभतिओ, एवं जागरिओवि, द्रव्यजागरिता भावसुप्तेन चाधिकारः । स्यात् कथं संबोधि दुल्लभा १, उच्यते, 'माणुस्स देसकुलकाला ' गाथा || इतश्च संबोद्धव्यं धर्मे यस्मात् 'णो हूवणमंति रातिओ णो सुलभं पुणरावि जीवियं,' नयतिक्रान्तरात्रयः पुनरुपनमंते, कथं १, न हि वालरात्रयो यौवनरात्रयो वाऽतिक्रम्य पुनरुपनमंते, का तर्हि भावना है, न वृद्धो भूत्वा पुनरुचानशायी क्षीराहारो वालको भवति, नवा शिल्पककलाग्रहणसमर्थः कुमारको रक्तगंडमंसु भवति, नवामिनवश्मश्रुभूषिताधरोष्ठकपोलः कामभोगोल्वणमना युवा भवति, अत्रोदाहरणं लौकिकं, नन्दः किल मृत्युदूतैराकृष्ट आह- कोटीमहं दद्यां यद्येकां जीवेत्, तथापि न लब्धवान् इत्यतः णो मुलभं पुणरावि जीवितं, जहणेणं अंतोमुहुचाऊहि उकोसेणं पुन्त्रकोडी आयुगेहि अहियारे ऊहिए एत्थंतरे कस्स उपकमो होज, तं पुण जिष्णं ण सकति पुणो बढावेतुं, सदोपक्रमोऽनियतो, तद्यथा “डहरा वुड्डा य पासा गन्भत्थाय चयंती माणवा" (९०) मनोरपत्यानि मानवाः, मानव ग्रहणेन मनुष्याणां कथ्यते, अथवा सर्व एव मानवाः अपदिश्यते, 'सेणे जह बढ्यं हरे' 'यथे'ति येन प्रकारेण, बट्टगा नाम तित्तिरजातित ईपदधिकप्रमाणा उक्ता वार्तकाः, एवमवधारणायां आयुषः क्षयः आयुःक्षयः, स तु उपक्रमादन्यथा वा 'तुइ'ति त्रुव्यते जीवः शरीरात् वा शरीरं जीवात् अथ मनुष्यजीवितातुय्यति स्वजनादिभिर्वा, योऽपि नाम कश्चित्स्वजनप्रमतो न युध्यते यथा मातापितरौ मे वृद्धौ, ताभ्यां मृताभ्यां धर्मं करिष्यामीति, एतदप्यकारणं, कथं ?, तर्हि उच्यते- 'माताहि पियाहि लुप्प' वृत्तं (९१) मातृभ्य इति सर्वमातृग्रामो
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भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र - २ (निर्युक्तिः+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [२], उद्देशक [१], निर्युक्तिः [ ३६-४२], मूलं [गाथा ८९-११०] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र -[०२] अंग सूत्र [०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि :
श्रीसूत्रकवाङ्गचूर्णिः
॥ ६७ ॥
गृह्यते, पितृभ्य इति पितृग्रामः लुप्यत इति छिद्यते तेषु जीवात्, स्वयं कदाचित् पूण्यतरं म्रियते, न च सैंव माताऽन्यत्रापि भवति पिता वा, अथैकेन्द्रियादिषु प्रक्षिप्तः नैव मातापित्संबंधं लभते, न वा सुगतिः प्रेत्य सुलभा भवति, सुगतिर्नाम सुकुलं, प्रेत्य योनिस्थितिरेव, नागार्जुनीयास्तु पति 'माता पितरो य भायरो विलमेजसु केण पञ्चए' नारकदेवै केन्द्रियासंज्ञिषु च यतश्चैवं | तेण एताणि भयाणि वेहिया एतानि यान्युक्तानि - णो हूवणमंति राइओ, पेक्खिया- देहिया पस्सिया, आरंभो नाम असंयमः अनुक्तमपि ज्ञायते, परिग्रहाथ, कथं १, आरंभपूर्वको परीग्रहः, स च निरारंभस्य न भवती ततः आरंभग्रहणं, स्यादारं भादनिवृत्तस्य को दोपः १, उच्यते, 'जमिणं जगति पुढो जगा' वृत्तं ॥ ९२ ॥ 'यदि'ति यस्मात्कारणात् अस्मिन् जगति, पुढो नाम पृथक, | कम्मेहिंति यथाकर्म्मभिः लुप्यंति नरकादिषु विविधैर्दुःखैर्लुप्यते, सर्वसुखस्थानेभ्यश्यवंते, किंच- 'सयमेव कडे मि (व) गाहतु' ण | इसरादिकर्त एव, येन यथा कर्म कृतं असंबंधिदोषाद अष्टप्रकारं आत्मनि अवगाहति, आत्मा कर्म्मसुवा, अकारलोपं कृच्चा तमेक अवगाहति 'णो तेण मुच्चेञ्ज अट्ठवं' नासौ तेण कर्म्मणा मुच्यतेऽस्पृष्टमस्यास्तीति, आह हि 'पावाणं च भो ! कडाणं कम्मा' किंच-न केवल मिहानित्यता भवति, अन्यत्रापि एषा भवत्येव, तथा 'देवा गंधवरकूस्वसा असुरा' वृत्तं (९३) अथवा मा भूत्कश्चिदेवसुखेषु संग करिष्यतीत्यतस्तदनित्यताज्ञापनार्थं अपदिश्यते 'देवा गंधव्यरक्खसा' देवरगहणात् वाणमंतरभेदो, असुराणां प्रतिपक्षः, सुरा वैमानिकाः, भूमिगता असुरा एव, अथवा भूमिगता भूमिजीवा एव, अथवा भूमिगताः सरिसृपा गृह्यन्ते, इहापि च 'राया पर सेड्डि माइणा' राजानः-चक्रवर्त्त्याद्याः नरा-पृथग्जनाः सेडिगो-णेगमाद्या, अधिपास्तु अधिकं पांतीत्यधिपाः, ते तु मंत्रिमहामंत्रिगणकदौवारिकादयः, माहनग्रहणात् जातिभेदः, त एते सर्व्वे एव स्वस्थानेभ्यश्यर्वते, दुःखिता नाम, नवा स्यात्कस्यचिन्मरणमिष्टं, उक्तं
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कर्मव्यथा
॥ ६७ ॥
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भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [२], उद्देशक [१], नियुक्ति : [३६-४२], मूलं गाथा ८९-११०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-०२] “सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
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वादि
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श्रीसूत्रक
Pच 'मरणमिति महद्भय'तदपि च कालवशेन किं ?, येऽपि कामनिमित्तेनोधर्मते तान् प्रत्युपदेशः, 'कामेहि य संथवेहि य वृत्तं(९४) वाङ्गचूर्णिः
एत्थ इच्छाकामा अप्पसथिच्छाकामा मयणकामा य,अविशिष्टा वा शब्दादयः,कामोपग्रहाश्च स्ख्यादयः संस्तुता वन्ते,अथवा संस्तुता ॥६८॥
इति पूर्वापरसंस्तवो गृह्यते, स एवं तेभ्यः कामेभ्यः संस्तवेभ्यश्च 'कम्मसहि'त्ति कर्मभिः सह तुव्यतीति, कोऽर्थः ?, न ते कामाः संस्तुतानं गच्छंतमनुयास्यंति, 'कालेनेति सोपक्रमेणान्यतरेण वा, जायंत इति जन्तवः, 'ताले जह पंधणच्चुतो' ताले जातं तालं, तालं हि गुरुत्वाद् दूरपाताच शीघ्र पततीत्यतस्तद्रहणं, तालस्यापि द्विधा पात:-उपक्रमात कालेन च, एवं आउक्खएवि तुकृति जीवोऽपि सोपक्रमेणान्यथा वा, किंच-न केवलं कामेषु संस्तुतेषु च सवा गृहिणस्तावत् पढंति, अन्येऽपि हि तथैव, तंजहा
'जे याचि भवे बहुस्सुता धम्भिय माहण भिक्खुए ॥८५।। बहुस्सुया धर्मे नियुक्तो धार्मिकः, बृहन्मना ब्रामणः, मिक्खसणसीलो भिक्खू, सुचिरिति यथावत्खधर्मव्यवस्थिता, परित्राजको वा, अभिनूमकरेहि मुच्छिया नूमं नाम कर्म मायावा, अमि
मुर्ख नूमीकुर्वन्तीति अभिनूमकरा-विपयास्तेषु मूच्छिता-गृद्धा, लोभो गृहीतः, एगग्गहणे गहणंति सेसकसायावि गहिता, कथं तं नेच्छंति ?, पत्थंति पत्थिर्जति , अण्णेहि तेहिं आहारादिसु कामेसु सचाः, इह च परत्र च तीवमेव तदुपचितैः कर्मभिः कृत्यते कामजनितरित्यर्थः, स्यात्-कथं ते कर्मभिरेव कृत्यन्ते न निर्वान्त ?, उच्यते, 'अथ पास विवेगमुहिते' वृत्तं ॥ ९६ ॥ 'अथेति प्रकृतिअपेक्षं, अथवा कर्मविवागो यत्र, किं न पश्यसि विवेगमुट्ठिते', विवेगो नाम स्वजनगृहादिभ्यः प्रवज्यास्थानमन्यतरं, अथवा कर्मविवागो यत्र स्थिताः कर्मनिर्वाणायेत्यर्थः, विविधं तीर्णा वितीर्णा न वितीर्णा अवितीर्णा न कामभोगाभावतीर्णा, 'इह' अमिलोके, अथवा इहेति पूरणार्थः, धुतं णाम येण कर्माणि विधूयन्ते, वैराग्य इत्यर्थः, चारित्रमपि, केचिदणंति-
॥६८॥
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भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र - २ (निर्युक्तिः+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [२], उद्देशक [१], निर्युक्ति: [ ३६-४२ ], मूलं [गाथा ८९-११०] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र -[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
श्रीसूत्रकृ ताङ्गचूर्णिः
॥ ६९ ॥
वयं स्वतः विरता, विरताः अपापकर्माणः, अथवा अपि संभावने, तीर्गा अपि गृहादिसंग्रंथं केवलं भाषते, न तु कुर्वन्ति, स एवं भाषमाणः पाखंडी पाखंडगणो वा अणेगेसु च एकादेशो भवत्येव 'णाहिसि आरं कतो परं ज्ञास्यति आरं गृहस्थत्वं परं - प्रव्रज्या, किमुक्तं भवति न त्वं जानीषे, कैः किम्र्म्मभिः गृही भवति प्रव्रजितो वा, अजानन् कथं कुशलानि वेत्स्यसि ?, अथवा आरमित्ययं लोकः परस्तु परलोकः, अयं सौत्रोऽर्थः - आरः संसारः परो मोक्षः, तदिति आरं पारं वा न ज्ञास्यति, कुतः ? - कुमार्गाश्रयात्, अथवा 'ण णाहिसि' त्ति न जानिष्यसि मोक्षमात्मानं परं वा, तत्रात्मा आरं परं पर एव, अथवा गाहिसि गिद्दी ण पव्त्रइओ, आरो पव्यइओ, आरो गृही परः प्रव्रजितः, वेदासं नाम अंतरालं, न गृहित्वे नापि श्रामण्ये, अंतराले वर्त्तते, ते हि आहारादिषु सक्ता इह परत्र च तीव्रमेव तदुपचितैः कर्मभिः कृत्यन्ते, कामजनितैरित्यर्थः, आह-एते तावदवितीर्णत्वात् मा भवन्निर्वाणाय, अथ ये इमे उइंडिकाः चूर्णिकादयश्च एते कथ न तन्निर्वाणाय १, उच्यते, "जइवि णिगिणे किसे चरे" वृत्तं ॥९७॥ यदित्यभ्युपगमे णिगिणो नाम नग्नः कृशस्तपोभिर्निष्टप्तत्वाद् आतापनादिभिः, मासो संख्यातप्रतिभाग इतिकृत्वा मासस्य अंते सक्रमुक्त इति मासान्तशः 'चउत्थछट्टहमदस मदुवालसमे हिं' स एवं निष्टतशरीरोवि 'जे इह माचादि मिज्जति' अणिद्दिणिदेसा माया आदिर्येषां कपायाणां, आदीयत इत्यादिः, माङ् माने, कथं १, मीयते, पूर्यत इत्यर्थः, मायादीनां कषायाणां योजनं, अथवा मीयत इति यथा धान्यस्य कुडो मीयते एवं मायादिभिः कपायैः स मीयंते, पूर्यत इत्यर्थः स एवं कपायाणामाकंठं मितः मरणमितो 'आगंता गन्मादणंतसो' आगमिष्यतीति आगंता, गर्भः आदिर्यस्य संसारक्रमस्य भवति स गर्भादिः, तद्यथागर्भप्रसवचाल्यं कौमारयौवनमध्यमस्थाविर्यमरणनरकदुःखान्त इति, उत्तीर्णस्य च नरकात् स एव ध्रुवः पुनः स एव क्रम इति,
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आरपारादि
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भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [२], उद्देशक [१], नियुक्ति : [३६-४२], मूलं गाथा ८९-११०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] “सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
श्रीमत्रक- वाङ्गाणि
॥ ७० ॥
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यतश्चैवं मिथ्यादर्शनोपहतं तपोपि न दुर्गतिनिवारकमित्यतो मद्दर्शितमार्गमास्थाय “पुरुसोरम पावकामुणा" वृत्तं ॥९८॥ पुरि शयनात पुरुषः, हे पुरुष! पुरुषा वा उपेत्य उवरम-उपरम पावानि-प्राणातिपातादीनि मिच्छादसणसल्लंताणि अट्ठारस ठाणाणि, स्यात् कामभोगजीवितनिमित्तं नोपरमसि इत्यतोऽपदिश्यते 'पलियतं मणुयाण जीवित परि-समंतात् आदियति जीवितस्य परं वर्षशतं, अथवा प्रलीयं-कर्म यावदायुनिवर्ति तत्परिक्षयान्तं, अथवा यस्यान्तोऽस्ति तत्प्राप्तमेव वेदितव्यमिति, आह हि दूरस्थमपि भावित्वात् आगतमेव, तथा उदधीन्यपि दिव्युषितो, जे पुण असंजमजीवितेण कलत्रादीपंकायसन्ना 'इह' मनुष्यलोके शब्दादिविषयेषु 'मुच्छिता' अध्युपपन्ना 'मोहं जंति नरा असंखुडा' मोहो नाम कर्म तं जंति, मोहतच गर्भजन्ममरणादिः स एव संसारक्रमः, असंवुडा हिंसादिएहिं इंदिएहिं वा, यतश्चैवं तेन 'जयतं विहराहि जोगवं' वृत्तं ॥९९ ।। जययं नाम गामे एगराईयं नगरे पंचराइयं यत्नतः, योगो नाम संयम एव. योगो यस्यास्तीति स भवति योगवान् , जोगा वा जस्स बसे बटुंति स भवति योगवान , णाणादीया, अथवा योगवानिति समितिगुप्तिधु नित्योपयुक्तः, स्वाधीनयोग इत्यर्थः, यो हि अन्यत् करोति अन्यत्र चोपयुक्तः स हि तत्प्रवृत्तयोग प्रति अयोगवानेव भवति, लोगेऽपि च वक्तारो भवंति-विमना अहं, तेन मया नोपलक्षितमित्यतः स्वाधीनयोग एव योगवान् , स्यात्-किमर्थं नित्योपयोगः, उच्यते,'अणुपाणा पंथा दुरुत्तरा'अणवः प्राणा येषु ते इमे भवंति अणुपाणा-सूक्ष्माः, यदुक्तं भवति तानविराधयद्भिः, दुःखेन उत्तीर्यन्त इति दुरुत्तराः, अतः अणुपत्थि पाणा अणुपस्थि बीयहरितादि, अणुसासणमेव परकमे' अनुशास्यतेऽनेनेत्यनुशासनं-सूत्रं तद्यथा सूत्रोपदेशेनानुशास्यते यच्चाचायस्तदन्तरा अननुशासनमेव पराकमेः-भृशं क्रमे, स्यात्केनेदमनुशासनं ?, उच्यते, 'वीरेहिं सम्मं पवेदितं नित्यमात्मनि-गुरु
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भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [२], उद्देशक [१], नियुक्ति : [३६-४२], मूलं गाथा ८९-११०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] “सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
वीरत्वादि
प्रत
श्रीसूत्रक
ताजचूर्णिः ।। ७१॥
सूत्रांक ||८९११०||
पुरुषेषु च बहुवचनं, तेन वीरेहि, सम्मं पवेदितं, अथवा सर्व एवाईन्तो वीरास्तै प्रवेदितं, स्यादेतत् , के वीरा इति ?, उच्यते, 'वीरा विरता हु पावका' वृत्तं ॥१०॥ यो विरतः स वीरः, कुतो?, पापात् , अथवा विराजमानाः विदालयंतीति वा वीरा:सम्यगुत्थिताः संजमसमुदाणेणं, स्यात्कि पापकं यतस्ते विरताः, उच्यते, 'कोधकातरियादीपीसणा' कातरिया णाम माया, क्रोधग्गहणान्मानोऽपि गृहीतः, कातरियाग्रहणाल्लोभः, पीपणा णाम क्रोधकातरिकादयः कपायाः किं पीपयंति ? ज्ञानदर्शनचारित्राणि, अथवा त एव वीराः पीपणा, पीसणा दग्वे भावे य, दब्वे कुंकुमादि पसत्थदब्बपीसणा, वप्पादि अप्पसत्थपीसणा, भावे | पसत्थभावपीसणा य अपसत्थभावपीसणा य, अपसत्थभावपीसणेहिं अहिकारो, त एवं पीसणा 'पाणे ण हणंति सब्वसों सव्वसो नाम सबप्पकारेण योगत्रिककरणत्रिकेण, पापं नाम कर्म, येन च हिंसादिकर्मणा तत्पापं बध्यते तस्मिन् कारणे कार्योपचारं कृत्वाऽपदीश्यते 'पापाओ विरताभिणिव्युडा' अभिमुखं णिव्वुडा अभिणिब्बुडा अभिप्रसन्नाः, यथोष्णमुदकं सीतं भूतं | | णिबुडमित्यपदिश्यते एवं, अथवा कपायोपशमाच्छीतीभूना अभिनिन्बुडा बुचंति, स्यात् तस्याभिनिवृत्तात्मनः साधोः परीषहो| पसर्गाः प्रादुर्भवेयुः, ततस्तेन इदमालंबनं कृत्वा अहियासेतव्यं 'णविता अहमेव लुप्पए' वृत्ते ॥ १.१॥ नाहमेक एव
शीतोष्णदंशमशकादिभिः परीषहोपसग्गैलुप्पेत्ति, अन्नेऽवि असंयता पुत्रदारभरणादिभिः क्लेशैलुप्यन्ते, तथा च चौरपारदारिकादयः पराधीना लुप्यन्ते, अनपराधिनोऽपि कर्षकादयः करभरविष्ट्यादिमिरुपक्लेशैलृप्यन्ते, 'एवं सहिते' एवम्-अनेन प्रकारेण, सहिते णाणादीहिं, आत्मनो वा हितः सहितः, अधिकं पृथग्जनान् पश्यति अधिपश्यति, अनिहो नाम परीपहोपसगर्न निहन्यते, तवसंजमेसु वा संतपरकर्भ ण णिहेति, 'से' इति णिद्देशे स एव भिक्षुः, कथंचित्परीपहोपसर्गः स्पृश्यते ततः सो पुट्ठोऽधिया
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भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [२], उद्देशक [१], नियुक्ति : [३६-४२], मूलं गाथा ८९-११०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-०२] “सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
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|सए, अकारलोपो द्रव्यः, स एवं परीपहसहिष्णुः “धुणिया कुलियं च लेववं" वृत्तं ॥१०२।। धुणिया णाम धुणेजा कम्म, कर्मधुतादि कथं ?, जहा करणकुडं उभयोपासे लित्तं चिरेण कालेण जुण्णलेवं, सततं लिप्पंते व जोगं वा लेईम, उपमाने वति, कसएति कृशं कुर्यात् , दिह्यत इति देहः यथा कुई लकुटादिभिः प्रहारैः लेपापगमात् कृशीभवति एवं साधुरनशनादिभिः तपोविशेषैः कृशं देहं ।। कुणंति, देहे च सम्यक्तपोभिरेवं कृश्यमाणे कर्मदेहोऽप्यपकृश्यते एव, द्रव्यकर्षणा कुडे शरीरे वा, भावकर्षणा रागद्वेषौ कर्षयति, त एवं अनशनादितपोयुक्ताः रागद्वेषापकृष्टाः "अविहिंसामेव पव्यएन विहिंसा २ अतस्तामविहिंसां पव्वए, कथमहि| सकः स्यादिति, अनुधर्मों अनु पश्चाद्भावे यथाऽन्यैस्तीर्थकरैस्तथा वर्द्धमानेनापि मुनिना प्रवेदितं, अनुधर्मः-सूक्ष्मो वा धर्मः, | पुष्पवत् वृत्तं, अप्पसत्थभावधुणणं, तंमि विधुए कम्मरयो विधुत एव भवति, स्यात्-कथं धूयते , 'सउणी उ जह पंसुगुडिता' वृत्तं ॥१०३ ।। सउणि-काउल्ली, धूलीए वा लेट्टितुं तद्रजः पक्षातो धुब्बति-ध्वंसयति सितं-बद्धं, रंजयतीति रजः, एपो दृष्टान्तः 'एवं दविओवधाणचं दविओ रागदोसरहितो, द्रव्यमात्रमेव, उव. उपदधातीति उपधानं तदस्यास्तीत्युपधानवान् , | कर्म क्षपति, 'तवस्सि माहणो' समणेत्ति वा माहणेत्ति वा, अथ तं कश्चित् "उद्वितमणगारमेसणं" वृत्तं ॥१०४|| उद्वितो | णाम धर्म प्रवज्यायां, नास्यागारं विद्यते अनगारः, अनगारत्वमेषति, अथवा मोक्षमेच एपति, समणाणं ठाणे ठितं चरिते णाणा-7 इसु वा, तपःस्थितं तपस्सियं, बारसविहे तवे, तमेवं धम्मे दृढप्रतिझं "डहरा वुड्डा य पत्थए" डहरित्ति पुत्तनत्तुआदयः, तेसु विसेसतो पोहो भवति, कालुपियं कारतेसु वडमाइपितिमातुलपितृव्यादयः 'पत्थए ति उप्पव्यातुं इच्छति, ते आजम्मएण ठिता | वहाए छुहाए य अवि सुस्से ण तं लभेऊण, अवि मरेज णवि उप्पच्यावेतुं सकेंति, जनानामधर्मव्यवस्थितचाजनयत्स तान् पश्यति, ॥७२॥
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आगम
(०२)
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [२], उद्देशक [१], नियुक्ति: [३६-४२], मूलं गाथा ८९-११०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
कारुण्यका
दीनिः
श्रीसूत्रकबागचूर्णिः ।।७३ ॥
प्रत सूत्रांक ||८९११०||
न तु खजनवत् , "जह कालुणियाई से कए" वृत्तं ॥१०५|| कालुणिया णाम 'गाह ! पिय! कंत! सामिय! उसण णिप्पगत भुवर्णमि । सन्चं सुण्णं पणइणि पुत्ता ते पितु वियोगवेलप्पा ॥१॥' सण्णा गामो गोट्ठी गणो व तं जत्थ होसि सष्णिहितो। दिप्पति सिरीए सुपुरिस ! किं पुण णियगं घरहार ? ॥२॥ पुत्रकारणाद् एकमविताव कुलतंतुवर्द्धनं पितृपिंडदं धनगोतारं च जनयस्व पुत्रं, ततो यास्यसि, एवं कलुणाणि रुदंता 'दवियं'ति दविओ-रागदोपरहिओ, मिक्खणशीलो, भिक्खू, सम्यगुत्थितं. समुद्रुितं संजमुट्टाणेण समुट्ठितं'णो लम्भति गंति ण सकेति 'सण्णवेत्तएति आणेतुं 'जइणं कामेहि भा(ला)विया वृसं॥१०६।। यदीत्यभ्युपगमे, कामा-सद्दादि धणाइ वा 'लाविय'ति णिमंतणा, जइ कामेहिं धणेण वा बहुप्पगारं उवणिमंतेज, बंचित्ता वा घर आणज 'तं जीवितणावकविण' तमिति-तं साधु जीवितं असंजमजीवितं नावकांक्षति नावकांक्षिणं 'णो लम्भंति ण सण-- वित्तए' नोकारः प्रतिषेधे. लम्भतित्ति ण ते लभंते सणवेत्तए, किंच-'सेहंति अणं ममाइणो'वृत्तं ॥१०७।। असंजमं ममा'यतिनि ममायिनः ते मातिपितिविपतिभायारो 'सेहते'त्ति से हावेन्ति, कथं सेहावेंति ?--'पोसाहिण पासओतुम तुम अतीव: पासो जं अतीव पस्ससि, भोगनिरिक्खितो भवान् , जतो एक एवात्मा. पायमीरु पासएति प्रवचनवयणेणं, कहं अम्हेहिं दुक्खिताणि णा पासतित्ति, यदि त्वं एवं दीर्घदशी परलोगपि जहाहि उत्तमंति, इमो ताव विमो लोगो जदो, अम्हेहि य तुम निमि-- ण अद्धितीए किलिस्ममाणेहिं अम्ह य बुद्धत्तणे सुस्सुसाए अकीरमाणीए पुत्तदारे य अभरिञ्जमाणे य परलोगोवि ते ण भकि
सति, उक्तं च-'या गतिः क्लेशदग्धानां, गृहेषु गृहमेधिनाम् । पुत्रदारं भरतानां, तां गतिं बज पुत्रक! ॥१॥ उत्तमो नाम | तब एव मातापित्सुथूपया उत्तमो लोको भविष्यति, अन्यथा त्वधमः, एवं तैरुपसगैः क्रियमाणः किंचिदेवं धर्मकातरः 'अण्णे
दीप अनुक्रम [८९११०]
A
७३.।
N
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आगम
(०२)
प्रत
सूत्रांक ||८९
११०||
दीप
अनुक्रम
[८९
११०]
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र - २ (निर्युक्तिः+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [२], उद्देशक [१], निर्युक्तिः [ ३६-४२], मूलं [गाथा ८९-११०]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र -[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
श्रीसूत्रकृ ताङ्गचूर्णिः
॥ ७४ ॥
we are
अण्णेहिं मुच्छिता' वृत्तं ॥ १०८ ॥ अन्योऽन्येषु मूर्च्छिताः, तद्यथा - कश्चिद्भार्यायां कवित्पुत्रे कश्चिन्मातरि पितरि वा 'मोहं जंति णग असंबुडा' मुयते येन स मोहः कर्म्म अज्ञानं वा तत्कृतो वा नानायोनिगहनः संसारः, अथवा खजनस्नेहमोहिताः कृत्याकृत्ये न जानंति, न संवृताः असंवृताः इन्द्रियनोइन्द्रियतः संवररहिता 'विसमं विसमेहि गाहिया' विसमो णाम असंजमो तमसंजम असंयतैरेव ग्राहिता, 'ते पावेहि पुणी व गन्भिता पापानि - छेदन मेदन विशसनमारणादीनि प्राणिवधादीनि वा तेषु पापेषु वर्त्तमाना पुनरवि गन्भीभूया उन्मार्गमाचरंतो न लज्जते, पुराणश्मशानचिंतक मांसखादनपिशाचहस्तावसारणं, अहं संमारस्य णवी भेमि कुतस्तर्हि ?, तव यतश्चैवं 'दविएव समिक्ख पंडिते' वृत्तं ।। १०९ ।। दविक उक्तः एवम् अनेन प्रकारेण योsयमुक्तः सम्यक् ईक्ष्य समीक्ष्य पापं हिंसादि, अन्यथा पाठस्तु 'तम्हा दविइक्व पंडिते' तस्मादेवं ज्ञात्वा विरताणं अविताणं च गुणदोसे पावाओ विरता अट्ठारसडाणाओ सयणाओ व विरतो भवाहि, 'अभिणिबुडो' असंजम उपदाओ सीतीभूतो 'पणता वीरा महाविधि' भृशं नेताः प्रणताः प्रणतार इत्यर्थः, कतरं १, जो हेडा संबोधणमग्गो भणितो, वीराः उक्ताः, वीही नाम मार्गों चक्रववित् महती वीही महावीही, अथवा भाववीही एव महावीधी, तत्र द्रव्यवीधी नगरगामादिपंथाः भाववीधी तु सिद्धिपथाः 'आउ' शिवं, पाठविशेषस्तु 'प्रणता वीधीमेतमणुत्तरं,' एतदिति भाववीधीं जं भणिहामि अणुत्तरं - असरिसं अणुत्तरं वा ठाणणाणादि, सेहनं मिद्धिः पद्यत इति पंथाः, नयतीति नैयायिकः, शिवं निरोगं, धुवं वा धुवो सासओ स एवं प्रणतः 'बेयाforeseerat g ॥ ११० ॥ वैतालिकमुक्तं, अथवा विदालयतीति चैदालिकः-भगवानेत्र- चैतालिकस्य मार्गः वैतालिकमार्गः तं आगतः प्राप्त इत्यर्थः, 'मणसा वयसा कारण संयुडे'त्ति गुत्तो 'चिचा वित्तं च जातयो' चिच्चा णाम त्यक्त्वा वित्तं बाह्यमभितरं
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भार्या
मूर्च्छादि
।। ७४ ।।
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आगम
(०२)
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [२], उद्देशक [२], नियुक्ति: [४३-४४], मूलं [गाथा १११-१४२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-[२] "सूत्रकृत' जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
श्रीसूत्रक
प्रत सूत्रांक ||११११४२||
तानचूर्णिः २अध्य० २ उद्देशः
॥७५॥
मानवर्जच, बाय गोमहिण्यादि अम्भितरं हिरण्णासुवण्णादि, अथवा अभ्यन्तरं विद्याधुद्धिकौशल्यादि, शेपं वाद्यं, 'णातयति पुवावरसं
नादि स्तुता, आरंभस्तु पचनछेदनादि प्राणातिपातो वा चशब्दात् शेषा अवयवा अपि, चिचा अपि वर्तते, संकुडे इंदिएदि, चरेदिति अनु-10 | मतार्थे, अथवा परिव्वदासित्तिवेमि ॥ वेयालिए पढमो उद्देसओ सम्मत्तो २-१॥
उद्देसत्थाहिगारो माणो बजेतन्यो, तत्थ गाथा-नवसंजमणाणेसुवि जइ माणो वजिओ महेसीहिं । अत्तसमुकसणट्टा किं पुण हीलामणु अण्णेसिं॥४३॥ महातवस्सिणा-संजमे अतीव अप्पमत्तेणं अतीव बहुस्सुतेण जइ ताव माणो वजिओ तेन तप-|| खित्वे अप्रमत्तत्वे बहुश्रुतत्वे वा गव्वं न याति, किमंग पुण नातिकृत्स्नतपोयुक्तेन प्रमादवता अल्पश्रुतेन वा गच्चो कायब्यो ? परोवा | हीलेनब्बो ?,किंचान्यत्-'जइ ताव णिज्जरमतो पडिसिद्धो अट्ठमाणमहणेहिं । अवसेस मयट्टाणा परिहरिया पयत्तेणं ॥४४॥ भणिओ य उद्देमत्थाहियारो, सुत्ताभिसंबंधो पुण उक्तं प्रथमस्यान्ते-चिचा विच णातयो, एवं वित्तं स्वजनारंभ विहाय तपसि स्थितत्वात् 'तयसं व जहाड से रवृत्तं ॥१११|| तया णाम कंचुओ, खमित्यात्मीयां, उपमाने वति उरगवत् , 'स' इति स पूर्वविवक्षितः साधुः, रज्यत इति रजः, तत्केन जहाति ?-अकषायत्वेनेति वाक्यशेषः,अपायस्य हि सर्पत्वगिव च हीयति रजा, 'इति संखाय मुणी ण मकाए' इति-उपप्रदर्शने 'एवं संखाए'त्ति एवं परिगणेत्ता, एवं ज्ञात्वेत्यर्थः, 'ण मज्जए'ति न मर्द | कुर्यात् , तत्केन मञ्जते ? 'गोयण्णयरेण जे विए' गोत्रं नाम जातिः कुलं च गृह्यने, अन्यतरग्रहणात् क्षत्रियः ब्राह्मणः इत्यादि, अथवा अन्यतरग्रहणात् शेषाण्यपि मदस्थानानि गृहीतानि भवंति, इखिणी णाम खिमणा णिदणा हीलगा, अन्ये बुबते रिक्तता, अथवा गोतण्णतरेण माहणे-साधू, अहिंसगो सुन्दरो अण्यो असोभणा, स्यात् य एषा मदानां एकेन नेकैर्वा मदस्थानमत्तः परं परिभवति ॥ ७५ ।।
ANNAPANE
दीप अनुक्रम [११११४२]
अस्य पृष्ठे द्वितिय अध्ययनस्य द्वितिय उद्देशक: आरभ्यते
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(०२)
भाग-2 “सूत्रकृत" - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [२], उद्देशक [२], नियुक्ति: [४३-४४], मूलं [गाथा १११-१४२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] “सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
मानयजे
नादि
प्रत सूत्रांक ॥११११४२||
श्रीसूत्रक- नाङ्गचूर्णिः ।। ७६ ॥
दीप अनुक्रम [११११४२]
तस्य को दोषः १, उच्यते--'जो परिभवति पर जनं' वृत्तं ॥११२॥ परो नाम आत्मव्यतिरिक्तः सपक्षः परपक्षो वा, अथवा पर:-अस्वजनः, परिभवो नाम जात्यादिश्रेष्ठस्त्वं हीनजातिरिति, एवं कुलादिषु, नान्यत्रापि, सो अणादीए यपज्जते अणवदग्गे संसारे परिवति चिरं' सर्वतो वर्तते परिवर्तते, 'चिर' मिति अणंतकालं, विसेसेण कुत्थिता सुकुत्थिता तासु जातिसु एगिदियवेईदियादिसु, यतश्चैवं तेन 'अदु इंखिणिया तु पाविया' अदु इति यदुक्तकारणात इंखिणिका प्रागुक्ता पातयतीति पातिका, वानरपिटिका इह सुघरीदृष्टान्तः, परलोके कोकिलकश्च परिभट्ठउ सङ्कसुणओ जाओ, इति उपप्रदर्शनार्थ, 'एवं संखाएं एवं परिगण्य मुणी 'ण मज्जए' मदं न कुर्यात् , 'जे यावि अणातए सिया' वृत्तं ॥११३॥ जेत्ति अणिदिवणिद्देसे नान्यो नायकोऽस्यास्तीत्यनायकः-चक्रवर्तिबलदेवो महामंडलिओ वा, वासुदेवो ण पच्चयति, निदानकृतत्वात् ; तेन नाधिकारः, पेसगपेसगो णाम तेसिं चेब- चक्रिमादीण जो पढिगावाहगो प्रबजितः स्यात् , असावपि तं चक्रवर्ति प्रबजितः पूर्व दासदासं चारसावत्तेण चंदणेषण वंदति, वंदणमाणोऽपि वा 'इदं मोणपदमुवटिए'त्ति इदमिति आरुहतं मुनेः पदं मौनं पञ्जतेऽनेनेति पदं-मोक्षं गम्यता इत्यर्थः, उपेत्य स्थितः उवहितो, न तेन पूर्वस्वामिना लज्जा कर्त्तव्या जहाऽहं पुथ्वदासदासं बंदाविज्जामि, इतरेणापि न गर्ने, ) अहं सामिगसामिणा पूइज्जामि, 'समतं ति अरागद्वेपवानित्यर्थः, 'सदा सर्वकालं चरेदित्यनुमतार्थः, स्यात-कथं ताभ्यां लजामदौ न कर्तव्याविति ?. उच्यते. 'समयण्णयरम्मि संयमे वृत्तं ॥११४॥ ते हि.सयं तचं प्रति समा चेव, अथवाऽयमपि।। छेदोपस्थानीय, एवं परिहारविशुद्धिकादिषु शेषेधपीति, अरिस्स मि० वृत्तं, तौ हि संयमत्वं प्रति समावेय, अथ समेत्ति एकस्मिन्नेव तो संयमस्थाने वर्तयेतो, अण्णयरे वत्ति विममे वा छट्ठाणपडितस्स, नेसु. सम्यक्त्वादिष्वसंजम इतिकृत्वा अन्यतरे अधिके वर्तमानः ।।
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(०२)
प्रत
सूत्रांक ||१११
१४२ ||
दीप
अनुक्रम
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भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र - २ (निर्युक्तिः+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [ २ ], उद्देशक [२], निर्युक्तिः [४३-४४], मूलं [गाथा १११-१४२ ] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र - [०२ ], अंग सूत्र [०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णिः young
श्रीसूत्रकृ ताङ्गचूर्णिः
॥ ७७ ॥
पूज्यः संयतत्वादेव, अथवा जे यावि भवे अणायगे, जेबिय पेसगस्स पेसएत्ति, एगिगो माणेऽई उक्तः, इह तु 'समअण्णतरंमि वा सुते समेsवि सुरणमिमं परिचिततरंतिकाउं स माणो ण कायन्यो, लहुं वा मे अधीतंति, अण्णयरं तु एगो गणी एगो वायगो, पूर्वगतं वाचितं येन स वाचकः, न च वाचकेन मानः कार्यः, संशुद्धो स एव, संयमः शुद्धः यत्रासौ वर्तते, अथवा स एवं लज्जामददोसा दिएहिं संसुद्धो 'समणे'ति सम्यक् मणे समणे वा समणो, परि समंता सव्वातियारसुद्धो सन्बओ वा परिवए परिव्वर, स्यात्कियचिरं कालं ?, उच्यते 'जा आवकथा समाहिते' यावदस्य कथा प्रवर्त्तते देवदत्तो यज्ञदत्तो वा, दव्विओं णाम रोगदोसरहिओ, स्यान्मृतस्यापि कथा प्रवर्त्तते तत उच्यते 'कालमकासि पंडिते' यावत्कालं न करोति तावन्मानादिदोषरहितेन भवितव्यं, स्यात्किल किमालंबनं कृत्वेति यतितव्यं ?, उच्यते 'दूरं अणुपस्सिया' वृत्तं ॥ ११५ ॥ दूरं नाम दीर्घ अनुपश्यति तं धम्ममणागतं तथा धर्म्मः स्वमाय इत्यर्थः वर्त्तमानो धम्र्मो हि कालानादित्वाद् दूरः, स तु अविरतत्वान्मानादिमदमत्तस्य दुक्खभूयिष्टोप्रतिक्रान्तः, कि च इमेण खलु जीवेण अतीतद्धाए उच्चणीयमज्झिमासु गतिसु असतिं उच्चगोते असतिं णीयगोते होत्था, तथा च | अतीतकाले प्राप्तानि सर्वदुःखान्यनेकशः एवमनागतधर्म्ममपि, अथवा दूरमणुपस्मिअत्ति दढं पस्सिय, अथवा मोक्षं दूरं पस्सिय दुर्लभबोधितां पस्सिय जात्यादिमदमत्तस्य च दूरतः श्रेयः एवमणुपस्सिय इत्येवमादि अतीतानागतान् धर्मान् अनुपस्सिता 'अड्डे फरुसेहि माहणे' फरुसा नाम स्नेहवियुक्तः वाचिकाः कायिका चोपसर्गा क्रियन्ते, तत्र वाचिकाः आक्रोशहीलनाद्याः कायिकास्तु वधबंधनताडनाङ्कनच्छेदनमारणांताः, अथवा प्रतिलोमा फरुसा, तैरुदीर्णैः 'अवि य हण्णू' अपि हन्यमानाः अविहष्णू यथा वन्धकशिष्याः, न तु खन्दकः, 'समयंसि यत्ति 'त्ति यथा समयेऽतिदिष्टं तथा रीयते प्रसन्न इत्यर्थः, पठ्यते च 'अविहण्णू
[90]
वाचकादि
॥ ७७ ॥
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आगम
(०२)
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [२], उद्देशक [२], नियुक्ति: [४३-४४], मूलं [गाथा १११-१४२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] “सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
भीसूत्रकताअचूर्णिः ॥ ७८॥
|प्रश्नसमा
तादि
प्रत सूत्रांक ॥११११४२||
दीप अनुक्रम [११११४२]
समयाधियासए अस्यार्थ अविहष्णू-अविहन्यमानः सम्यक् अहियासए,अथवा अविहण्णू इति हन्यमानो न हन्यात किंचित्, अथवा धर्ममयोपदिशेत् स कीटकधर्मकथिक उच्यते, 'पण्णसमत्ते सया जए' वृत्तं ॥११३|| प्रच्छंति तमिति प्रश्नः यावत्प्रश्नान् परः पृच्छेत् तं व्याकर्तुं समर्थः, पठ्यते च-'पण्हसमत्ते सदाजए' समाप्तप्रश्न इत्यर्थः, सदाजएत्ति ज्ञानवान् अप्रमत्तथ, अयतस्य हि क्षीरं परिचिकित्सिकस्येव न वचः प्रमाणं भवति, उक्तं हि-"अद्वितो ण ठवेति परं" समिता णाम सम्मं धम्मं उदाहरेज, जहा पुण्णस्स कत्थति तथा तुच्छस्स कत्थति, 'सुहमे हु सया अलूसए' सुहुमो नाम स हि सुहुमेणवि अतिचारेण लूसिअति, कथयतो या सूक्ष्मेणापि आत्मोत्कर्पण परहीलया वा लूसिजति, पूयागारवसकारहेउं या कथयतो लूसेति, अहवा सुहुमेति सूक्ष्मवुद्धिः कथयेत् , अलूपकस्तु स एवमनाशंसी, न च मार्गविराधना करोति, अपरियच्छंते य परेण कुप्पेजा, योव कथणलद्धीसंपण्णतार माणी माहणो होजा, अथवा कथयतो ण परं कोवये-अन्यतरं कषायं गमयेत् , स एवं 'बहुजणणमणमि संखुडे.' वृत्ते ॥११७।। बहुजनं नामयतीति बहुजननामने, अहवा नभ्यते-स्तूयत इत्यर्थः, स धर्म एव, सर्चलोको हि धर्ममेव प्रणतः, न हि कश्चित्परमाधार्मिकोऽपि ब्रवीति--अधर्म करेमि, तत्रोदाहरणं-सेणिओ राया, तस्स अस्थाणीए धर्मजिज्ञासायां के धम्मिया इति, ततो परिसदेहि भण्णति-दुल्लमा धम्मिया, पार्य अधम्मिओ लोओ, अभयो भण्णति-लोगस्स भावपारण एम पदण्णा जहा वयं धम्मिया इति, परिसाए अमद्दहतीए अभओ भण्णति-परिक्खामो, ततो रायाणुनाए सितासिताणि दुवे भवणाणि कारवेति, पउरजणवया भणिया-जे तुम्हें धम्मिया ते धवलं गिहं पविसंतु, अधम्मिया असियमिति, ततो ते मव्वे पउरजणा धवलगृहमगुपचिट्ठा, अधिगारिगेहि पुच्छिता-किं भयंतो धम्म करहिंति ?, तत्थेगो भणति-अर्थ करिस्सगो, तत्थ मे अणेगेहिं मउणसहस्सेहिं
७८॥
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आगम
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भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [२], उद्देशक [२], नियुक्ति: [४३-४४], मूलं [गाथा १११-१४२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] “सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
प्रत
भीभूत्रक
ताङ्गचूर्णिः
।। ७९॥
सूत्रांक ||११११४२||
दीप अनुक्रम [११११४२]
धणं उवजीनिअति, अण्णो भणति-अहं चणिज्जो, कलोपजीवि भणो मे णिचगंभुंजतित्ति, अण्णो भणति-अहं कुटुंबभरणपविचो बहुजननकिलेसभागी, किं बहुणा, सोयरियादयोऽवि कुलधर्मानुवर्तित्वाद्वयमपि धम्मिया, एवं धवलगिहमणुपविट्ठा, उक्तं च-"सोत
मनादि सुतघोररणमुह०" अथ तत्थ दुवे मावगा सकृत्मद्यपाननिवृत्तिकृतभा असितभवणमणुपचिट्ठा पुच्छिता भणन्ति-सुसाहुणो सुमावगा य धम्मिया जे सया अपमत्ता, अम्हे पुण पमादिको स्वकृतमद्यपाननिवृत्तिकृतभंगा ण धवलगिहारुहा, अतो असित. भवणमणुपविट्ठा इत्येवं बहुजननमितो धर्म इति, तस्मिन् बहुजननमिते संवृतात्मा भवेदिति वाक्यशेषः, अन्ये त्वाः-बहुजननमनो-लोभः, सर्वो हि लोकस्तस्मिन् प्रणतः, असंयतास्तावत् सर्वे शब्दादिविषयप्रणताः, प्रमत्तसंयता अपि तेनैव केचित्प्रणताः, बीतकपायास्त्वप्रणताः, जे य जयणा अप्पमत्ता इति तेऽपि न प्रणताः, उक्तं च-'कोधस्स उदयणिरोधा वा उदयपत्तस्स या कोहस्स विहलीकरणं' एवं योगेन्द्रियाणामपि वक्तव्य, संयतो नाम विरतः निवृत्त इत्यर्थः, 'सबढेसु सदा अणिस्सिते ति सव्वेसु इंदियत्थेसु यावतो या असंयमार्थाः अथवा ऐहिकामुष्मिकेषु अणिस्मितो नाम नाकांक्षति 'हरदे व तुमे अणाइलो' हरदेत्ति, | महासमुद्रः, स हि तनादिमिः महामत्स्यैः स्फुरद्भिपि नाकुलजलो भवति, न क्षुब्धजल इत्यर्थः, पद्ममहापमादयो वा इदाः स्वच्छ| प्रसन्नगंभीरजला: गंभीरत्वादनाकुलाः, एवमसावपि पूर्वापरज्ञेयपरिशुद्धस्वच्छज्ञानवान प्रसन्नवाङ्मनाः न च परप्रवादिभिः शक्यते । विक्षोभयितु इत्यनाकुलः, क्रोधादीहि वा अणाइलो, अथवा अणाइल इति निरुद्धाश्रवः अनातुरो-न ग्लायति धर्म कथयन् , IIM 'धर्म पादुरकासबत्ति प्रादुः प्रकाशने स भगवान् आर्यमुधर्मः अण्णतरो वा गणधरो द इवानाकुलः धर्म प्रादुरकार्षीत् , IICE एवमन्येऽपि स्थविराः प्रादुरकाीन प्रादुष्कुर्वन्ति करिष्यति च, कस्यपश्यार्य काश्यपः, स एवं लक्षणकं धर्म कथयति, तं च वा||७९ ॥
Dise
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आगम
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भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [२], उद्देशक [२], नियुक्ति: [४३-४४], मूलं [गाथा १११-१४२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[२] “सूत्रकृत' जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
सुखप्रियस्वादि
प्रत सूत्रांक ॥११११४२||
श्रीसूत्रक- बहवो पाणा पुढो सिया' वृत्त ।। ११८ ॥ अथवोपदेश एवायं, वहवो प्राणा पुढो सिता, बहव इत्यनन्ताः, पृथक् पृथक् सिता वाशाणा पुढोसिता, तंजहा-पदविकाइयत्ताए०. तेषां तु प्रत्येकानन्तानामप्येको धर्मः समान एव, सुखप्रियत्वं 'समियं उवेहाए'ति ॥८ ॥
। समिता णाम समता, प्रत्येकाश्रयेऽपि सति अभीष्टसुखता दुःखोद्वेगता च समानमेतत् , अथवा समिया इति समं उवेहिताः जे मोणपदं उपढिए, मुनेरिदं मौनं, चिरमणं विरतिः तेषामतिपातादीनां अकासित्ति करिष्यसि, पापाड्डीनः पंडितः, का मावना ?, यथा तबैते इष्टानिष्टे सुखदुःखे एवं पाणाणमवि इत्येवं मत्वा विरतिं तेषामकासि पंडिते, स एव विरतात्मा धम्मस्स य पारए
मुणी ' वृत्तं ॥११९|| धम्मो दुविहो-सुतधम्मो चरित्तधम्मो य, तयोः पारं गच्छतीति पारगः, श्रुतज्ञानपारंगतः चोदसपुन्बी, पारं को वा कांक्षति, एवं पारं गतः कांक्षति वा अकषायः, तस्य च चारित्रमधिकृत्यापदिश्यते, आरंभो नाम जीवकायसमारंभस्तस्यांते व्यवस्थितो, नारभत इत्यर्थः, जे य पुण आरंभपरिग्गहे वटुंति ममायति वा ते तं परिग्गहं णट्ठविणहूँ 'सोयंति य णं ममायणो' अलभ्यमाणमपि यथेष्टपरिग्गहं सोयंति णं ममाइणो, उक्तं हि-"परिग्गहेष्वप्राप्तनष्टेषु काङ्काशोको, प्राप्तेषु च रक्षणमुपभोगे वाsवृत्तिः" णो लब्मति णियं परिग्गहंति अग्गिसामण्णत्ताए चोरसामण्णताए णितओ ण भवति, अयमपरकल्पः तमिव, धम्मस्स य पारए मुणी, आरंभस्स य अन्तिअद्वितं सोयंति यणं ममाइणो अम्हे सुहिता, तुम्हं संतविभवोऽवि अतिदुकरं तवचरणं करेसि, जेणं ममायते तेषां ममायणो-मातापुत्रादयो णो लभंति परिग्गहंति, स तेषां नित्यं वशकः आसीदिति नित्यं परिग्रहः परः, ततस्तत्प्रत्ययिकंगोलभति णितिय परिग्गह,अमुमेवार्थ नागार्जुनीया विकल्पयंति-सोऊण तयं उवहितं केयि गिही विग्घेण उहिता। धम्मंमि इह अणुत्तरे, तंपि जिणेज इमेण पंडिते'इह लोग दुहावहं विदा परलोगे य दुहंदुहावह' ॥१२०॥ कृषिभृत
RamRNAL
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॥
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दुःखा
प्रत
सूत्रांक ||११११४२||
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [२], उद्देशक [२], नियुक्ति: [४३-४४], मूलं [गाथा १११-१४२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] “सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
JAN श्रीसूत्रकचौरादीनां इहलोगे एव दुहावहं धणं, उक्तं हि--अममा जनयंति कांक्षिता, निहिता मानसचौरज भयम् । विम॒ति जना हि०" पर
वहादि ताइन्चूर्णिः | लोकेऽपि च दुहं असाधनोपार्जनदुःखात् सुमहत्तरं दुःखं समावहतीत्यतो दुहादुद्दावहा, अथवा दुहादुहा वा पुनरनन्ते संसारे पर्य||८१।। टन्तः शरीरादिदुःखं समावहंति 'विद्धंसणधम्ममेव या' अग्गिचौराद्युपद्वैः कालपरिणामतश्च विदंपणधम्ममेव या इत्येवं
विद्वान् मत्वा को नाम आगारमावसे?, किंचान्यत्-पब्वइतेणवि न सत्कारवंदणणमसणाउ बहु मागितब्बा, उक्तं च तत्थ-'महता पलिगोह जाणिया०' वृत्तं ॥१२१॥ परिगोहो णाम परिवंगा, दब्वे परिगोहो पंको भावे अमिलापो बाह्याभ्यन्तरवस्तुपु, परस्परतः साधूनां जाबि बंदणणममणा सावि ताव परिगोहो भवति, किमंग पुण सद्दादिविसयासेवणं, अथवा प्रबजितस्यापि पूजासत्कारः क्रियते, किमंग पुणरायादिविभवासंसा ?,'सुहमे सल्ले दुरुद्धरे' सूचनीयं सूक्ष्म, कथं ?, शक्यमाक्रोशताडनादि तिति| क्षितुं, दुःखतरं तु वन्द्यमाने पूज्यमान वा विपयैर्वा विलोभ्यमाने निःसंगतां भावयितुं, इत्येवं सूक्ष्म भावशल्यं दुःखमुद्धर्तु. हृदयादिति वाक्यशेषः, इत्येवं मत्वा विद्वान् पयहेज संथ' सम्यक् स्तवः सतो वा स्तवः संथयो, नागार्जुनीयास्तु पठति-पलिमंथ महं विजाणिया जाविय बंदणपूयणा मह । सुहुम सल्लं दुरुद्धरं तंपि जिणे एएण पंडिए"एगे चरे ठाण आसगे' वृत्तं
॥१२२।। द्रब्ने एगल्लविहारवान् भावे रागद्वेषरहितो वीतरागः, ठाणं-काउस्सम्मो आसण-पीढफलगं भूमिपरिग्गहो वा सयणंति Fणुवण्णो, एगो रागद्वेषदोमरहितो, सव्यस्थ पवादणिवादसमविसमेसु ठाणणिसीयणमयणेसु एगभावेण भवितव्य, णाणादिसमाहितो.
चरेदित्यणुमतार्थे, भिक्खू 'उवहाणवीरिए' उपधानवीर्यवानिति तपोवीर्यवान् , 'वइगुत्तेति चयगुत्तिगहिता 'अझप्पसंचुडे'ति | मणोगुत्ती गहिता, पूर्वार्द्धन तु कायगुप्तिः । इदाणि जो सो एगल्लविहारी तं दुचघरे य णिकारणेण भण्णति-'णोपीहेण याव
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अनुक्रम [११११४२]
॥८
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प्रत
सूत्रांक
||१११
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दीप अनुक्रम
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भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र - २ (निर्युक्तिः+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [ २ ], उद्देशक [२], निर्युक्तिः [४३-४४], मूलं [गाथा १११-१४२ ] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र -[०२] अंग सूत्र [०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि :
श्रीसूत्रकताङ्गचूर्णिः
॥ ८२ ॥
वंगुणे वृत्तं ॥ १२३ ॥ पिहितं णाम ढकियं अवगुचदुवारिए सुण्णवरे वा मित्रघरे वा, शूनां हितं शून्यं, शून्यं वा यत्रान्यो न भवति, पुट्ठो ण उदाहरे वयिं चत्तारि भाषाओ सोसून उदाहरति वयिं, अवस्सं संबुज्झितुकामस्स वा एगनाये एगवागरणं वा जाव चत्तारि जिसीयणड्डाणे मोत्तूण सेसं वसधिं 'ण संमुच्छति'त्ति ण पमजति, 'णो संथडे तणे' त्तिणवा तणाई संथरेति, किमंग पुण कित्ति पोत्ति वा १, स एवं सरीरोक्स्सयादिसु अप्रतिबद्धः अणियतवासित्वात् 'जत्थत्थमिते अणाइले वृत्तं ॥ १२४ ॥ जत्थ से अत्थमिति खरो जले थले वा तत्थ वसति, अणाइलो णाम परीपहोपसगैः नः समुद्रवत् नाकुलीक्रियते, समविसमाई ठाणसयणासणाई मुणीऽधियासए, न रागद्वेषौ गच्छेत्, तत्थ से अच्छमाणस्स 'चरगा अहवावि भैरवा' चरंतीति चरकापिपीलिकामत्कुणघृतपायिकादयः भैरवा-पिशाचश्वापदादयः सरीसृपा-अहिमूषिकादयः सब्वे अहियासएत्ति, एवमन्येऽपि 'तिरिया मणुसा य दिविया' वृत्तं ॥ १२५ ॥ तिरिया चतुर्विधा उवसग्गा तिविहाधि सेविया नामासेवित्वा अणुभूय 'लोमादीयंपि ण हारिसे' लूयत इति लोमा लोमहरिसो दुधा भवति - प्रतिलोमैर्भयात् अनुलोमै प्रहर्षण हासतः, आदिग्रहणात् दृष्टिमुखप्रमादो दैन्यं था, 'सुन्नागारगते महामुनी' स तैर्भेरवैरप्युपस गैरुदीर्णैश्छिद्यमानो मार्यमाणो वा 'णो तात्र मिकं व जीविनं' वृत्तं ।। १२६ ।। अनुलोमैर्वा उदीर्णैः असंजमजीवितं ण वा पूयासकारं पत्थेअ, तेनैवं जीवितमनाकांक्षता पूजामत्कारौ च भयानके बाssवसथे वसता 'अभत्थमुवति भैरवा' अभ्यस्ता नाम आसेविता असकृद् असकृत्सहानेन जाता उदिता आसेविता अभ्यस्ता इत्यतः उपेन्ति-उपयान्ति भयानकाः, पठ्यते च- 'अप्पुत्थं उयेति भैरबा' अल्पा न बहवः पिशाचश्वापदव्यालादयः जीवितान्तयिका उवेंति, शीतोष्णदंशमशकादयस्तु उदीर्णा अपि शक्याऽधिपोदुमिति, अभ्यस्तस्त्रान्निराजितवारणस्येव भैरवा एव भवति,
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अपिधानादि
॥ ८२ ॥
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अनुक्रम
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भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र - २ (निर्युक्तिः+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [ २ ], उद्देशक [२], निर्युक्तिः [४३-४४], मूलं [गाथा १११-१४२ ]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र [०२], अंग सूत्र [०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णिः
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलि
श्रीसूत्रक ताङ्गचूर्णिः ।। ८३ ।।
AMIL CUT PANAUD
तस्यैवं 'उवनीनतरस्स ताइणो०' वृत्तं ॥ १२७ ॥ भिक्षोः धर्म्ममुपनीतः परीपहजयं वा, अयं चोपनीतः २ अयमनयोरुपनीततर: ज्ञानदर्शनचारित्रेषु यस्यात्मा उपनीततरः स भवत्युपनीततरः, त्रायतीति त्राता, स च त्रिविधः - आत्म० पर० उभयत्राता -जिनकल्पिकाई इच्छवासिनः 'भयमानम्म विवित्तमासनं' इत्थीपसुपंडगविरहितं विवितं आसनग्रहणादुपाश्रयोऽपि गृहीतः 'सामाइयमाहु तस्स तं समभावः मामाइये आहुः तस्य तं समभाषं सामाइयं तस्सेवंगुणजातियस्स सामायिक, कतरं १, चारित्तसामाइयं, आहु-उक्तवानिति तित्थकरो अञ्जसुहम्मो वा सिस्साण कथेति, तस्य चारित्रधः, किं करोति १, यः आत्मानं भये न दर्शयति, न क्षुभ्यत इत्यर्थः किंचान्यत्- 'उसिणोदकतत्तभोगणो०' वृत्तं ।। १२८ ।। उमिणग्रहणात् फागोदगं सोचीरग उन्होदगादीणि गहिताणि, तप्तग्गहणात् स्वाभाविकस्यातपोदकादेः प्रतिषेधार्थः, धर्मेण यस्यार्थः स भवति धम्मड्डी, ही लज्जायां, असंयमं प्रति हीर्यस्यास्ति स हीमान् तस्य ह्रीमतः, स हि लोके शीतोदकं पिधन लज्जते, हीयत इत्यर्थः, तस्येवमप्रमत्तस्य आसतः संमग्गि असाधु 'रायिहि' राजादिभिस्तस्यासाध्वी, कथं १, रिद्धिं दृष्ट्वा तं मा भून्मूर्च्छा कुर्यात्, मूर्च्छतथ असमाधी भवति तथागतस्म वि'त्ति वैराग्यगतस्यापि, अथवा यथाऽन्यं, यथा जिनादयो गता वीतरागं तथा सोऽचि अप्रमादं प्रति गतः, इदानि प्रमत्ता उच्यन्ते'अधिकरणकरस्म भिक्खुणो०' वृत्तं || १२९|| अधिकरणं करोतीति अधिकरणकरः, 'प्रसह्ये'ति आक्रम्य परपरिभवात् संबंध स्नेहसंतति दारयति ततः दारुणं, 'अड्डे परिहायते ध्रुवं' अर्थो नामा मोक्षार्थः तत्कारणादीनि च ज्ञानादीनि परिहायंति, "जं अज्जियं समीख एहिं तवणियम समइएहिं । मा हु तयं छड्डेहिय बहुतरयं सागपतेहिं ॥ १ ॥ एतेण कारणेणं अधिकारणं पण करेञ्ज संजते स्वपक्षपरपक्षाभ्यामितिवाक्यशेषः, तस्यैव अधिकरण मुकुर्वाणस्य 'मीनोदगपरिदुगुछिणो वृत्तं ॥ १३० ॥ सीतोदगं णाम अवि
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उपनीततरादि
॥ ८३ ॥
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सूत्रांक
||१११
१४२ ||
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अनुक्रम
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भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र - २ (निर्युक्तिः+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [ २ ], उद्देशक [२], निर्युक्तिः [४३-४४], मूलं [गाथा १११-१४२ ] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र -[०२] अंग सूत्र [०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि :
श्रीसूत्रकताङ्गचूर्णिः
॥ ८४ ॥
गतजीचं अफासुगं प्रती, प्रतिदुर्गुछति णाम ण पिवति, यो हि यन्न सेवति स तत् जुगुप्सत्येव, जहा धीयारा गोमांसमधलसुनपलं दुगुंछंति, न केवलं धीयारा गोमांसं दुगुंछंति, तदाशिनोऽपि जुगुप्संति, अप्पडिष्णो णाम अप्रतिज्ञः, नास्य प्रतिज्ञा भवति यथा मम अनेन तपसा इत्थं णाम भविष्यतीति, तंजद्दा-णो इहलोगडताए तवं करोति० जहा धम्मिवयं भदन्ता, आलयाहारउवधिपूयाणिमित्तं वा अप्रतिज्ञः, लवं कर्म्म येन तत्कर्म भवति ततः आश्रवात् स्तोकादप्यवसक्कति, तस्यैवंविधस्य 'सामायिकमाहु तरस' जं तदेवास्य सामायिकं चरित्रसामायिकं, यत्कि १, न करोति, जं गिहिमचे असणं ण भक्खति, मा भूत् पच्छाकम्मदोसो, भविस्सति णट्टे हिते वीसरिते, स एव सीतोदगवधः स्यादिति । किं च 'ण य संखतमाहु जीवितं वृत्तं ।। १३.१ ।। नहि छिन्नतंतुवत् इदं जीवितं पुनः शक्यते संस्कतु, 'तथे'ति तेन प्रकारेण, वालजणो णाम असंयतजनः, प्रगल्भीभवति प्राणातिपातादिषु प्रवर्त्तमानो घृष्टो भवतीत्यर्थः, स एव वालः पापेषु कर्मसु प्रगल्भीभवन् तैरेव वाले पावेहि मजति हिंसादीहिं, तज्जणिएण वा कर्म्मणा मानभंडमिव मीयते पूर्यत इत्यर्थः, मार्यते वा संसारे, 'इति संखाय मुणी ण मज्जति' इति संस्कार्यते, एवं परि| गणय्य ण मज्जतिति-न यदं कुर्यात् न कुप्येत, मानाधिकार एव अस्मिन्नुदेशके वर्ण्यते, तेण इति संखाए मुणीण मञ्जति, क्रोधो | माने (मदो ) ऽपि गृहीतो, लोभस्तु 'छंदेश पलेति मायया' वृत्तं ॥ १३२ ॥ छंदो णाम लोभः इच्छा प्रार्थना, तेण छंदेण प्रलीयते यं प्रजाः वासु तासु गतिषु भृशं लीयते गच्छति, पव्वत च 'छपणेण पलेति मायया' छंदेणेति डंभेगोवहिणा कूटतुलकूटमानादिभिः तथा हिंसादिषु कर्मसु प्रवर्त्तते दंभेणव, पलायितुमिच्छति कर्म्मबन्धात्, यथा मारतोऽवि य देवस्सुवरिं छुमति, महर्षिप्रणीतोऽयं मार्गः, तथा चित्तं न दूषयितव्यं इति, पापंडिनोऽपि शाक्यादयः छणेण पलायितुमिच्छेति कर्म्मबन्धात्, तद्यथा-संघ
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प्रतिजुगुसादि
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भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [२], उद्देशक [२], नियुक्ति: [४३-४४], मूलं [गाथा १११-१४२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] “सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
कुकुटकादि
प्रत सूत्रांक ||११११४२||
श्रीसूत्रक
HO संतगा प्रामाः, दासीदासहिरण्यादि च ते उपासगसंता बा, भागवता त्रुवते-सव्यं देवो करेति, यथा छण्योण तथा लोभादिभिरपि वाणि: । 'बहुमायेति उत्कंचणादि, पार्षडिनोऽपि मायाबहुला कुकडेहिं लोअं उवचरंति, उक्तं हि-कुकुडसाध्यो लोको नाकुक्कुटतः
अवर्तते किंचित् । तसात् लोकस्यार्थे पितरं (अवि) सकुकुटं कुर्यात् ॥१॥ चित्तप्रामाण्यं वर्णयन्ति, मोहो नामाझानं तेन प्रावृता छादिता इत्यर्थः, शासनाश्रितास्तु 'वियडेण पलेति माहणे भावेनेति वाक्यशेपः, तेनाकुडिलेनावि अविकुत्थितेनाजिम्हेन, कुतः | पलीयते ?, संसारात्, न केवलमात्मा शुद्ध्या पलीयते, बाह्येनापि पलीयते, तद्यथा--'सीउण्हं वयसाऽधियासए' सीते अप्राकृतः
उष्णे आतापयति, अथवा सीता अनुलोमाः उष्णाः प्रतिलोमाः, वयसेति वाचा, यथा वयसा तथा मनसावि, एवं सेसिदियदनोवि, किंच-जं बहुपसणं तं गेहाहि चिट्ठते, 'कुजए अपराजिए जहा०' वृत्तं ॥१३३।। कुच्छितो जयः कुजयः घूतेण थोवं विढप्पति, यद्यपि अपराजितो अक्खेहि देवताप्रसादेन वा अक्खहितत्तेण वा अपराजितो तथापि कुत्थित एव जयः, अक्खापासगादिषु क्रीडाव्यवहाराः, अक्षदर्दीव्यति दिव्य, दिव्यं चास्यास्तीति दिव्यवान्-क्रीडावान् , जह सो दिव्यं च कडमेव गहाय, णो कलिं णो त्रेत णो चेव दावरं, उपसंहारः 'एवं लोगसि ताइणो' वृत्तं ।। १३४ ।। एवम्-अनेन प्रकारेण असिंहलोके पापंडलोगे वा 'ताइणो'त्ति आत्मपरोभवत्रायिणो-जिनतीर्थकरस्थविराः 'बुइते' उक्तः 'अयंति इमो जइधम्मो सुतचरित्तधम्मा य अनुत्तरे' बहुफले, अतुल्ये इत्यर्थः, 'तं गेण्ह हेतंति उत्तम तमिति तं धर्म गेण्हाहि इहलोए परलोए य हितं, इहलोए आमोसहिलद्धीओ परलोए सिद्धी देवलोगसुकुलपञ्चायादि, 'ते' इति तस्य आहे, कस्य निर्देशः?, उत्तमः-प्रधानः, धर्म इति वर्तते, कडमिव द्यूतकरवत् सेसा तिणि आता, पासत्था अण्णतिस्थिया गिहित्था य, अबहाय-छोत्ता, को भवति ?, उच्यते, पंडितो भवति, कि
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भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [२], उद्देशक [२], नियुक्ति: [४३-४४], मूलं [गाथा १११-१४२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] “सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
श्रीसूत्रकताङ्गचूर्णिः
प्रत सूत्रांक ॥११११४२||
दीप अनुक्रम [११११४२]
च-एपा हि शब्दादीनां त्वम्परीपह एवं गरीयान् अत एवोच्यते 'उत्तरमणुयाण आहिता' वृत्तं ॥ १३५।। उत्तरा णाम शेष
स्पर्शाना
मुचमता विषयेभ्यः ग्रामधा एच गरीयांसः, यथा मयाऽनुश्रुतं स्थविरेभ्यस्तैः पूर्व श्रुतं पश्चात्तेभ्यो मया श्रुतं, उक्तं हि-"सुखस्यातिरस: स्वर्गः, स्वर्गस्यातिरसः खियः। गवामतिरसः क्षीरं, क्षीरस्यातिरसो घृतं ॥१॥ सर्व एव वा विषयग्रामधर्मः, अथवा उत्तराःशब्दादयो ग्रामधा मनुष्याणां चक्रवर्तिबलदेववासुदेवमंडलिकानां तेसु उत्तरेसुवि 'जंसि विरता समुहिता' जासु इत्थिगासु सम्यक् उद्विता समुत्थिताः, 'कासवस्स अनुधम्मचरिणो' काश्यपो-वर्द्धमानस्वामी काश्यपचीर्णानुचरणशीलाः कासवस्स अणुधम्मचारिणो, अथवा पभ एव काश्यपः तेन चीर्णमनुचरंति यथोद्दिष्ट 'जे एत चरेंति आहितं' वृत्तं ।।१३६।। जे इति । अणुदिवाणिदेसे, जे अणुधम्मचरित्तं कुर्वन्ति, आहितं-आख्यातं, केण?, 'णाएण महता' ज्ञातकुलीयेन महता इति, ज्ञातृत्वेऽपि सति राजमनुना केवलज्ञानवता च, महाँश्चासौ ऋषिश्च महर्षिः, अथवा मोक्षेसिणा, ते उद्विता, उत्थिता नाम मोक्षाय, सम्यगुत्थिताः । समुत्थिताः, न जमालियत, शाक्यादयोऽपि हि मोक्षार्थमभ्युत्थिताः, 'अन्योऽन्यं च सीदंतं सारेति धर्मत' इति धम्म सीदंतं, अथवा धम्मियाए पडिचोयणाए, अथवा धर्म सालितं स्खलंतं वा धम्मियाए पडिचोयणाए धम्मिएणं, पडोआरेणं, धर्मे सम्यगवस्थितश्च भत्वा'मा पेह पुरापणामए वृत्तं ॥१३७ ।। अमानोनाः प्रतिपेधे, मा प्रेक्षस्व, पुरा नाम पूर्वकालिए पुज्वरतपुचकीलितादि, प्रणामयंतीति प्रणामकाः दुग्गति संसारं वा प्रति धर्मे स्थितं, संक्षेपार्थस्तु पुबकीलितं ा सुमरेजा, धर्म वा प्रति प्रणामयेदात्मानं, उवधिं दब्वे हिरण्णादि भावोवधि अट्ठविधं कम, अभिमुखं कंखेजासित्ति अभिकंखे उवधिं धुणित्तए, मानाधिकारेऽनुवर्तमाने 'जे वणतेहि णो णता' जे इति अणिदिवणि इसे दुष्टं प्रणताः पनताः शाक्यादयः, ते हि मोक्षाय प्रवृत्ता अपि
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आगम
(०२)
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [२], उद्देशक [२], नियुक्ति: [४३-४४], मूलं [गाथा १११-१४२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सूत्रकृत' जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
प्रत
सूत्रांक
श्रीसूत्रकताङ्गचूर्णिः ।। ८७॥
||११११४२||
दीप अनुक्रम [११११४२]
विषयेषु प्रणता रसादिषु, नेति प्रतिषेधे, आरंभपरिग्रहेषु ये न नता ते जानंति समाहितं, त एव ज्ञानवन्तः ये सम्यमार्गाश्रिताः, काथिकाथ
भाव: न तु अज्ञानिनो, न वा समाधि जाणंति, समाधिर्नाम रागद्वेषपरित्यागः, स एवं समाधिमार्गावस्थित, 'णो काधिएँ होजा संजते'वृत्तं ॥१३८|| कथयतीति कथकाः अक्खाणगाणि गोयरग्गगतो उबस्सयगतो वा अप्रतिमानानि कथयति कधिकः, पासणीओणाम गिहीणं व्यवहारेषु पणियगादिसु वा प्राश्निको, न भवति, अपाया तत्थ जो जिवति तस्स अप्पियं भवति, संपसारको नाम संप्रसारकः, तद्यथा | इमं वरिसं किं देवो वासिस्सति णवत्ति, किं भंडं अग्घिहिति वान चा?, उभयथापि दोपः, अधिकरणसंभवात् , अग्घिहिति - वत्ति, 'नचा धम्म अणुत्तरं' एवं विधेन न भाव्य, कतकिरिओ णाम कृतं परैः कर्म पुट्ठो अपुट्ठो वा भणति शोभनमशोभनं वा एवं कर्तव्यमासीत् नवेति वा, मामको णाम ममीकारं करोति देशे गामे कुले बा एगपुरिसे बा, किंच-अयं चान्यः कर्म विदा-14 |लनोपायः, तद्यथा-'छण्णं च पसंस णो करे' वृत्तं ॥१३९।। द्रव्यच्छन्नं निधानादि भावच्छन्नं-माया, भृशं पसंसा-प्रार्थना लोमः | उकोसो-मानः प्रकाश:-क्रोधः, स हि अन्तर्गतोऽपि नेत्रवादिभिर्विकाररुपलक्ष्यते, उक्तं हि-"कुद्धस्स खरा दिट्ठी" य एवं कषायनिग्रहोद्यताः तेसि सुविवेकः गृहदारादिभ्यो विवेको बाह्योऽभ्यन्तरस्तु कपायविवेकः, आहितं-आख्यानं, सुविवेगोत्ति वा | सुणिक्खंत वा सुपच्वजत्ति या एगहुँ, भृशं नता प्रणताः, कुत्र नता, धर्मे वा 'सुज्योसितंति जुपी प्रीतिसेवनयोः, धूयतेऽने| नेति धृतं-ज्ञानादि संयमो वा येषां सुज्झो सितं-वभ्यस्त तेसिं सुविवेगमाहिते। स एवं विदालनामार्गमाश्रितः 'अणिहे स|हिते सुसंवुडे' वृत्तं ॥ १४० ॥ अनिहो नाम अनिहतः परीपदस्तपःकर्मसु वा नात्मानं विंधयति, ज्ञानादिषु सम्यमाहितः गाणादीहि ३ आत्मनि वा हितः स्वहिता, अथवा यस्त्रिगुप्तः स समाहितो, धर्मेण यस्यार्थः स भवति धम्मट्ठी तबोवधाणवीरीय
८७॥
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आगम
(०२)
भाग-2 “सूत्रकृत" - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [२], उद्देशक [२], नियुक्ति: [४३-४४], मूलं [गाथा १११-१४२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] “सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
प्रत
श्रीसूत्रकतानचूर्णिः ॥८८॥
आत्महितादि
सूत्रांक ||११११४२||
दीप अनुक्रम [११११४२]
संयुक्तः तवे वारसविधे, स एवं गुणजुत्तो 'विहरेज समाहितेंदिए' अनियतवासित्वं गृह्यते, समाहितो, निगृहीतेन्द्रियत्वं च, उक्तं हि-"सद्देसु य भद्दयपावएसु, सोतचिसय उवगतेसु । तुटेण व स्टेण व समणेण सया ण होयव्यं ॥१॥" एवं सेसिन्दियविसएसुवि, स्यात्-किमर्थं एवंविधः प्रयत्नः क्रियते अतिदुःखश्च ?, उच्यते, 'आतहितं दुक्खेण लभते' तंजहा-'माणुस्सखेत जाती' गाथा ।। स्यात्-कथं अनादिमति संसारे अयमात्मा न पूर्वमेवानेन पथा प्रयात इति ?, उच्यते 'णहि गूण पुरा अणुस्सुतं.' वृत्तं ॥१४१॥ नेति प्रतिषेधे, हि पादपूरणे, नूनमनुमाने, पुरा इति क्रमात् अतिक्रान्तकालग्रहणं, अनुगतं श्रुतं अनुश्रुतं, किंच तत् ?, उच्यते, वक्ष्यते हि-मुणिणा सामाइयं पदं, अथवा मुणेत्तावि अवितह णो अधिद्वितं, अवितहं णाम यथावत् , अधिहितं णाम करणे, तदिदं मुनिना सामाइयं पदं आख्यात इत्यर्थः, समता सामाइय, तच्च अनेकप्रकार, कतरेण मुनिना तदाख्यातं ?, 'णातएण जगसव्वदंसिणा'जगे सच्वं पस्सति जगसव्वदंसी, एवं माता(मत्ता)महन्तरं०'वृत्तं ॥१४२॥ एवमधारणे, महन्तरं मत्वाज्ञात्वा, तत् कस्य कयोः केप वा ?, उच्यते, सुत्तस्स य असुत्तस्स य, विरतीए अविरतीए, मोक्खसुहस्स संसारसुहस्स य सच्छासननयस्य मिथ्यादर्शनानां च, अथवा इमं धम्मं महत्तरं मत्वा कुप्रवचनेभ्यः, सहिता नाम ज्ञानादिभिः, बहवो जना इति अणंतातीतकाले सिद्धाः संपदं च, 'गुरुणो छंदाणुवत्तगा' गुरवा-तीर्थकरादयः छंद:-अभिप्रायः विरता भूत्वा विषयकपायेभ्यः तीर्णा भवौषं तरंति च, द्रव्योषः समुद्रः भावौयस्तु संसारः, आहितमाख्यातं कथितमित्येकोऽर्थः इति वैतालीये द्वितीयोद्देशकः२-२॥
सूयणाधिकारे प्रस्तुते विदारणाधिकारोऽनुवर्तते. उक्तं हि-'उद्देसर्गमिततिए अण्णाणचियस्स अवचयो होहि । स च सुहसातस्स ण भवति, परीपहसहिष्णोर्भवति, स कथं ?, उच्यते 'संवुडकम्मस्स भिक्रतुणो' वृत्तं ॥१४३।। संवृतानि यस्य प्राणव
॥८८॥
अस्य पृष्ठे द्वितिय अध्ययनस्य तृतिय उद्देशक: आरभ्यते
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भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [२], उद्देशक [३], नियुक्ति: [४३-४४], मूलं [गाथा १४३-१६४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[२] “सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
असंवृतादि
प्रत
श्रीमत्रतागचूर्णिः ॥८९॥
सूत्रांक ॥१४३१६४||
धादीनि कर्माणि स भवति संवुडकम्मा, इन्द्रियाणि वा यस्य संवृतानि स भवति संवृत्तः, निरुद्धानीत्यर्थः, यस्य वा यत्नवतः चंकमणादीनि कम्माणि संवृतानि, अथवा मिथ्यादर्शनाविरतिप्रमादकपाययोगा यस्य संवृता भवति स संवृतका, मिक्खणसीलो मिक्खू, जमिति अणिद्दिवस्स णिदेसे, दुक्समिति कम्म, पुढ णाम बद्धपुट्ठणिधचणिकाइतं, अबोधिए णाम अण्णाणेण धम्म | अबुज्झमाणेणं, यावन्न तात्र सुयुध्यते स तं संजमतो विवाति, तं पंचणालिविहाडिततडागदृष्टान्तेन, निरुद्धेसु च नालिकामुखेषु चातातापेनापि शुष्यते, ओसिचमाणं च सिग्धतरं सुक्खति, एवं संयमेण निरुद्धाश्रवस्य पूर्वोपचितं कर्म धीयते, आह-तपः अभ्य-| न्तरं, एवं उक्तः, दशप्रकारेन्द्रियादिसलीणता उक्ताः इंद्रियपडिसंलीनता जोगपडिसंलीणता कसायपडिसंलीणता, संवृनात्मकस्तु अनशनावमौदर्यादितपोयुक्तस्य उत्सिच्यमानमिवोदकं क्षिप्रं कापचीयते, सेलेसिं पडिवण्णो उकोसो संयुडो, मणुस्ससंतिय 'मरण हेच वयंति पंडिता' मोक्ख, अथवा म्रियते येन तन्मरणं, तच्च कर्म संसारो वा, तं हित्वा ब्रजति मोक्षं तेनैव भव| गहणेण ब्रजति तान् प्रतीत्यादिश्यते-'जे विष्णवणाहिं झूसिता' वृत्तं ॥१४४।। विज्ञापयति रतिकामा विज्ञाप्यन्ते वा मोहातुरैविज्ञापना:-स्त्रियः, जुपी प्रीतिसेवनयोः, अजुषिता नाम अनाद्रियमाणा इत्यर्थः, विज्ञापनासु हि पंचापि विषयाः स्वाधीना शब्दादयः, उक्तं हि-'पुष्फफलाणं च रसं सुराएँ मंसस्स महिलियाणं च । जाणता जे विरता ते दुकरकारए वंदे ॥१॥" संस्पृष्टा वा ताभिः, कौमारब्रह्मचारिणः ते 'संतिण्णेहि समं वियाहिता सम्यक्तीर्णाः संवृतात्मानो भूत्वा संसारौयं तीर्णाः मोक्षं जिग| मिषयोऽपि हि अतीर्णा अपि तीर्णा इव प्रत्यक्सेयाः, विविधं आहिता वियाहिता 'तम्हा उइंति पासध' तम्हादिति तस्मात्का| रणात् यस्माद्विज्ञापनासु अजुपिता संतिण्णा हि संमें वियाहिया, तीर्णमबन्धकत्वं च प्रति समाः, ऊर्द्धमिति मोक्षः तत्सुखं वा, तं
दीप अनुक्रम [१४३१६४]
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आगम
(02)
प्रत
सूत्रांक
||१४३
१६४॥
दीप अनुक्रम
[१९४३
१६४]
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र - २ (निर्युक्तिः+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [ २ ], उद्देशक [३], निर्युक्तिः [४३-४४], मूलं [गाथा १४३-१६४ ] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र -[०२] अंग सूत्र [०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि :
श्रीसूत्रतावचूर्णिः ॥ ९० ॥
CREATED STATE
दृष्ट्वा कामभोगा द्रष्टव्या, एकार्बुदपरिश्रावणवत् व्रणालेपनबद्वा, पठ्यते च - 'उडूं तिरियं अथे तथा उडुं दिव्या कामा अधे भवणवासिणं तिरियं तिरिक्खमणुस्सजोणिवाणमंतरा, ते तिविधेवि य दृष्ट्वा कामाणि रोगवत् अधिकं अत्यर्थं वा, यथा रोगा दुक्खावा एवं कामा अपि, अदुविधकम्मरोगापत्तेः, सो भवति एवं, सेसावि आसवदाराणि जोएयव्वाणि, एवं संबुडत्तणं विरदं च कहं तरेज ?, दितो 'अग्गं वणिएहि आणियं वृत्तं ॥ १४५ ॥ यदुत्तमं किंचित्तदग्गं तद्यथा वर्णतः प्रकाशतः प्रभावतश्रेत्यादि, तब रत्नादि, तत्तु द्रव्यं वणिग्भिरानीतं राजानो धारयति तत्प्रतिमा वा तत्तु वखमाभरणादि वा तथैव चावो हस्ती स्त्री पुरुषो वा, यो वा यस्मिन् क्षेत्रे प्रधानं द्रव्यं धारयति, शब्दादिविषयोपगतः परिभुंक्त इत्यर्थः, राजस्थानीया जीवाः, जेहिं मिच्छत्तादि दोसे खवित्ता खयोव सममाणिता वा वारसविधा वा कसाया ते परमाणि महव्यतरयणाणि राईभोयणवेरमणछट्टाणि राजान इवाग्राणि रत्नानि वणिग्भिरानीतानि धारयंतीति अयं प्राधान्यं पूर्वदिशिवासिनामाचार्याणामयमर्थः, अपरदिनिवासिनस्त्वेवं कथयति - ते जे विष्णवणाहिं अजोसिता संतिष्णेहि समं विहायिता तेन सर्व्व एवायं लोकः महाव्रतानि प्रतिपद्यते, उच्यते, 'अग्गं वणियेहि आहितं', अम्गाणि चराणि रयणाति वणिग्भिरानीतानि धारयति शतसाहस्राण्यनर्थ्याणि वा राजान एव धारयति, तत्तुल्या तत्प्रतिमा वा कियन्तो लोकेऽस्ति वणिजः क्रायिका वा, एवं परमाणि महन्वयाणि रत्नभूतान्यतिदुर्द्धराणि तेषामल्पा एवोपदेष्टारो धारयितारथ, 'जे इह सायाणुगा णरा' वृत्तं ॥ १४६ ॥ जे इति अणिद्दिदुस्स गिद्देसे सायं अणुगच्छंतीति सायाणुगा - इहलोगपरलोग निरवेक्खा, एवं इडिरससायागारवेसु 'अज्ओववण्णा' अधिकं उपपण्णाः अज्झोचवण्णा तस्मिन्नेव सोविंदयादिए इच्छामदणकामेसु वा मुच्छिता-गिद्धा गढिता अज्झोववष्णा, 'किमणेण समं पगन्भिता' ते हि अइयारेसु पसजमाणा यदा
[103]
अग्रधारणादि
॥ ९० ॥
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आगम
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प्रत
सूत्रांक
||१४३
१६४॥
दीप अनुक्रम
[१४३
१६४]
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र - २ (निर्युक्तिः+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [ २ ], उद्देशक [३], निर्युक्तिः [४३-४४], मूलं [गाथा १४३-१६४ ] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि
श्रीसूत्रकताङ्गचूर्णि:
॥ ९१ ॥
परैश्चोद्यते तदा ब्रुवते किमनेन स्वल्पेण दोषेण भविष्यति १, वितथं वा दुप्पडिले हितदुब्भासित अणाउत्तगमणादि, एवं थोवे थोवं पावमायरंता पदे पदे विसीदमाणा सुबहून्यपि पापान्याचरति, उक्तं च- 'करोत्यादौ तावत्सवृणहृदयः किंचिदशुभं ० ' दिट्टंतो जहा एगस्स सुद्धे वत्थे पंको लग्गो, सो चिंतेति किमेत्तियं करिस्सतित्ति, तत्थेवाज्झवसितं एवं वितियं मसिखेल सिंघाण गसिणेहादीहि सव्यं मइलीभूतं, अथवा मणिकोट्टिमे चेडरूवेण सण्णा चोसिरिता, सा तत्थेव घट्टा, एवं खेलसिंघाणादीणिवि कताणि, किं करिस्संतित्ति तत्थव तस्थेव घट्टाणि जाव तं मणिकोडिमं सव्यं लेक्खादीहि श्लेष्मादिभिः मलिनिभूतं दुग्गंधिगं च जातं, भदगमहिसोचि एत्थ दितो भाणितव्बो, आचलक्खी राया दितोय, एवं पदे पदे विसीदंतो किमणेण दुब्भासितेण वा स्तोकत्वादस्य चरित्तपस्स मलिणीभविस्मति जात्र सव्वो चरिचपडो महलितो, अचिरेण कालेण चरितमणिकोट्टिमं वा 'णवि जाणंति समाहिमाहितं ते हि णिच्छयणयतो अण्णाणिणो चेव लब्भंति, पदे पदे विसीदत्तणा जया साघम्मिएहिं परेहिं वा चोहता भवंति तदा 'वाहेण जहा व विच्छते' वृत्तं ॥ १४७ ॥ वाहो नाम लुद्धगो तेण सरेण तालितो मृगोऽन्यो वा स तेण ताव परद्धो यावत् श्रान्तयत्वारिवि पादे विन्यस्य व्यवस्थितः ततो मरणं चाप्तः, अयं तु सौत्रो दृष्टान्तः, वाहेण जहा वच्छते, वाहतीति वाह:शाकटिकोऽन्यो वा 'यथे'ति येन प्रकारेण तेन वाहेन विषमतीर्थश्रान्तो वा अवहन् प्रतोदेन विविधं क्षतः, अबलो नाम क्षीणवलः, भरोद्वहनं श्रान्तो वा गच्छतीति गौः भृशं चोदितः चोद्यमानोऽपि न शक्नोत्युद्वोढुं, जेण तस्य तहिं अप्पथामता 'तस्ये 'ति तस्य गोः तस्मिन्निति पांशुनिकरे विषमे चा, अप्पथामया णाम जेण अवहंतो तांत्तगप्पहारे सहति, जइ थामत्रं होन्तो तो ण तुत्तगप्पहारे सहतो, सच्चत्थायचयंतो खलु से तीक्ष्णैः प्रतोदाग्रैः तुद्यमानो अवसीदति, अथवा से 'अन्तर' अन्त्यायामव्यवस्थायां अन्तशः
[104]
मलिनीभावादि
॥ ९१ ॥
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आगम
(०२)
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [२], उद्देशक [३], नियुक्ति: [४३-४४], मूलं [गाथा १४३-१६४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-०२] “सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
कामैषणादि
प्रत
भीसूत्रकतागचूर्णिः ॥९२॥
सूत्रांक ॥१४३१६४||
दीप अनुक्रम [१४३१६४]
'णातिचए' ण सकेति, अवसो विसीदति, एवं सोवि संयमादिनिरुद्यमः 'एवं कामेसणा बिदू' वृत्तं ॥१४८॥ एवमवधारणे, उक्ता 'कामैपणा' कामकाममार्गणा, विदुरिति विद्वान् , कामविपाक विदनिह परत्र च कामपिशाचपीब्यमानश्चिन्तयति 'अज सुए पयहामि संधर्व' संथवो नाम पुष्यावरसंबंधोते संथवं अद्य श्वः परश्वो वा प्रहास्यामि, स हि तं संथवं उत्सिसृक्षुरपि मुमुक्षुरपि कुटुम्बभरणादिदुःखैरेव हि विवक्षतो गौरिव न शक्नोति उत्सृष्टुं, अथवोपदेश एवायं-'एवं कामेसणं विद्' वृत्रं, एवमनेन प्रकारेण काम्यन्त इति कामाः, एपणा मार्गणैव, विदुरिति विद्वान् , नाविद्वान् , कुटुम्बभरणे दुस्त्यजान् मत्वा तत्र वा शक्नोति गौरिवावहन् तुट्यते कृषिपशुपाल्यादिषु च कर्मसु वर्तमानो बाध्यते, एवं बहुपायान् कामान् मत्वा अज वा सुते वा संथवं श्रुत्वा च संथवं 'कामी कामे ण कामए' कमणीयाः काम्यते वा कामाः इन्भेसुवि जहा पण्डुमधुरुत्तरमधुराइ भाया संयोगविष्पयोगा, णिमंतिजमाणो वा जहा-कण्णाए य धणेण य णिमंतियो जोव्वर्णमि गहवतिणा। णेच्छति विणीतविणयो तं वइररिसिं णमंसामि ॥१॥ अलद्धे-असंते पत्थेति उवजिणिता भुंजीहामि 'कण्हुईत्ति क्वचित् ग्रामे वा पुरे वा, अथवा हीणोत्तममध्यमे उपदेशः क्रियते तेसु तेसु पमत्तस्स 'मा पच्छ असाधुता भवें' वृत्तं ॥१४९।। मा सेति इयं असाधुता, लप्स्यते नाम हिंसादिकर्मप्रवृत्तिः मरणकाले तप्स्यते, परत्र वा, उक्तं हि-"जहा सागडिओ जाणं, सम्म हेचा महापहं । विसमं मग्गमोतिण्णे, अक्खे भग्गमि सोयते ॥१॥ सोयए चेव बहुं, अपत्थं आमकं भोचा, राया रअं तु हारए।" एवं ज्ञात्वा 'अचेही अणुसास अप्पगं' अतीव अतीहि-अत्यन्तं क्रम इत्यर्थः, कुतः?-प्रमादात , आत्मानमेवात्मना अनुशास्ति, किंच 'अधियं च असाधु सोयती' जधा असाधुता तहा तहाऽधिगं सोयति, इहापि तात्र चोराती असाधूणि कम्माणि काउं गहिता सोयंति, किम परत्र ?, सूतंति च शरीरादिभिर्दुःखैर्वाध्यमानाः, शोचनं
॥ ९२॥
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आगम
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भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [२], उद्देशक [३], नियुक्ति: [४३-४४], मूलं [गाथा १४३-१६४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] “सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
श्रीसूत्रक
जीविताल्पAL
त्वादि
प्रत
सूत्रांक ||१४३१६४||
| मानसस्तापः, निस्तननं तु वाचिकं किंचि, कायिकं च, सर्वतम्तप्यते परितस्तप्यते बहिरंतश्च, कायवाङ्मनोमिर्धा पहुंति-अपरिमाणं बाङ्गचूर्णिः | पंकोसण्णनागवत् , किं च 'इह जीवितमेव पस्सधा' वृत्तं ॥९५०॥ 'इहे'ति इह मानुष्ये जीवति येन तत् जीवितं, एवमव॥९३॥
धारणे, तरुणगो णाम असंपूर्णवया वा अन्यो वा कश्चित् , पठ्यते च दुर्यले वा, वाससयं परमायुः ततो 'तिउद्दति छिद्यते प्रत्यपायबहुलात , वक्ष्यति हि-गब्भयमितिअतित्ति गन्भया, 'इत्तरवासं च बुज्झथा' इत्तरमिति-अल्पकालमित्यर्थः, तं चुध्यत
अवगच्छत, एवमल्पेऽप्यायुपि बज्झपाये वा, तथापि नाम गृद्धा नरा कामेसु चिप्पित आक्रान्ता, न पुनरुत्तिष्ठति तदुल्लंघनाय, किंAlच 'जे इह आरंभणिस्सिता' वृत्तं ।। १५१ ॥ जे इति अणिदिट्टणिसे, इहेति इह मनुष्यलोके, पापंडिनोऽपी भूत्वा शाक्याMदयः आरंभे हिंसादि तष्णिस्सिता परदंडप्रवृत्ता आत्मानमपि दंडयंति, अथवा ण तेसिं इमो लोगो न परलोगो, तेनात्मानं दण्ड
| यति, 'एगंतलूसगा' एगन्तहिंसगा इत्यर्थः, येऽपि खयं न घातयन्ति तेऽपि उद्दिश्यकृतभोजित्याद्वधनमनुमन्यन्ते, एवंविधा 'गंता ME ते पावलोगयं' गंतारो नाम गमिष्यन्ति, पापानि पापो वा लोगः नरकः, 'चिरकालं'ति बहूणि पलिओवगसागरोवमाणि, आसु
रिका दम्वे भावे य, आमरियाणि न तत्थ मरो विद्यते, अथवा एगिदियाणं पास्थि जाव तेइदिया असूरा वा भवंति, दिसन्ति दिश्यत इति दिग् दिग्गहणादष्टादशप्रकारा भावदिक, एवं गिहिणो विव इत्थं आरंभणिस्सिता आवदंडा एगंतलूसगाते, न खंतिया, 'ण य संखयमाहु जीवितं' वृत्तं ॥१५२।। असंस्करणीयं असंस्कृतं, उक्तं हि-'दंडकलितं करेन्ता यचंति हु राइणो य दिवसा य। आयु संवेल्लेन्ता गता यण पुणो णियत्तिन्ति ॥ १॥ तहवि य णाम बालजणो हिंसादिषु पापकर्मसु प्रवर्तमानः प्रगल्भीभवति धृष्टीभवतीत्यर्थः, यदापि च पापकर्माण्याचरन् परेणोच्यते-किं परलोगस्स ण वीभेसि?, ततो भणति-पच्चुप्पण्णेण का
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॥९३॥
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(०२)
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [२], उद्देशक [३], नियुक्ति: [४३-४४], मूलं [गाथा १४३-१६४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
अदक्षदर्शनादि
श्रीसूत्रक
चूर्णिः ॥१४॥
प्रत सूत्रांक ॥१४३१६४||
दीप
रितं, को दटुं परलोगमागते ?' प्रत्युत्पन्नेनैव सौख्येन कार्य, को हि दृष्ट्वा स्वर्ग मोक्षं वा तत्सुखं वा परलोकादायातः ?, कथं वा । साक्षाददृश्यमानः परलोकोऽस्तीत्यध्यबसेयः, उच्यते-'अदक्खुब दक्खु आहितं' वृत्त ।। १५३ ।। न पश्यतीति अदक्खु अदक्खुणा तुल्यं अदक्खुवत् , दक्खू णाम द्रष्टा, दक्खूणा व्याहृतं दक्षुवाहितं श्रद्दधस्य, हे अदक्खुदंसणो!, योऽपि कार्याकार्यानभिज्ञो सोऽपि अंध एव, न दक्खुदर्शनी, 'हन्हि हि खु निरुद्धदसणे' हंदीति संप्रेपणे, हि पादपूरणे, दृश्यते येन तदर्शनं, निरुद्धं दर्शनं यस्य स भवति निरुद्धदर्शनः, तत्केन ?, मोहनीयेन कर्मणा निरुद्धं, मिच्छादिट्ठी, एवं चारित्रनिरोधेन चरिचे अचरित्ते वा भावना, निरुद्धं तब ज्ञान-सन्निकृष्ट, केन ज्ञास्यसि परलोकं ?, अथवा निरुद्धमिति ज्ञानं तं, न चक्षुर्दर्शनं, तत्कथं परलोकं द्रक्ष्यतीति, आत्मादीनि वाऽचाक्षुषाणि, 'दुक्खी मोहो पुणो पुणों' वृत्तं ।। १५४ ॥ दुःखमस्यास्तीति दुःखी तैस्तैर्दुःखैः पीज्यमानः | पुनः मोहमुपार्जयति, मुज्झति जेण मोहिअति वा स मोहः कर्मेत्यर्थः, संसारमनुपरीति, यतश्चैवं ततो निविंदेज सिलोगपूयणं' सिलोगो नाम इलावा यशःकामता, पूजा आहारादिभिः, दोण्णिवि णिविन्देज-गरहेज, सकारपुरकारौ न प्रार्थयेदयमर्थः, एवं सहिते धिपासिया' एवमनेन प्रकारेण, सहितो णाम ज्ञानादिभिः, अधियं पस्तिया आयतुले पाणेहि भविज्जसित्ति, यदास्मनो नेच्छसि तत्परेषामिति, योऽपि तावत् 'गारंपिअ आवसे णरे' वृत्तं ॥ १५५ ।। आगारत्वं, अपिशब्दार्थः सम्भावने, किमुतानगारत्वं, आवसतीत्यावसे, अनुपूर्व नाम पूर्व श्रवणं ततो ज्ञानविज्ञाने संयमासंयमश्च, इह तु संयमासंयमो अधिकृतः दुवालसविधं सावगधम्म फासितो 'समया सवत्थ सुबते' समभावः समता तां समतां सव्वस्थ भावसमता, कडसामाइए हि सपथ समतां भावयति, तदनु चाकृतसामायिका, शोभनवतः सुव्रतः, 'देवाणं गच्छे सलोगतां' समानलोगत सलोगतं,
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१६४॥
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अनुक्रम
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भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र - २ (निर्युक्तिः+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [ २ ], उद्देशक [३], निर्युक्तिः [४३-४४], मूलं [गाथा १४३-१६४ ] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र-[०२] “सूत्रकृत” जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
श्रीसूत्रताम्रचूर्णिः
॥ ९५ ॥
विविकतयबंभचेरदेवाणं सलोगतं, किं पुण जो महव्ययाई फासेति १, यतश्चैवं श्रावका अपि देवलोकं गच्छंति जिनेन्द्रवचनानुशास्ताः, तेण 'सोचा भगवानुशासनं' वृत्तं ॥ १५६ ॥ अनुशास्यते येन तदनुशासनं श्रुतज्ञानमित्यर्थः, अथवा अनुशासनस्यआवकधर्मस्य फले 'सचे तत्थ करे उबकमं' सत्ये- अवितथे सद्भयो वा हितं सत्यं सत्यवचनं नानृतं संयमो वा, तत्र कुर्या दुपक्रम, उपक्रमो नाम यथोपदेशः, अथवा सत्यमिति सत्यं तत्थ करेज उयकमंति, न वितथं, 'सव्वत्थ विणीतमच्छरे' | सर्वत्रेति सर्वार्थेषु वेन विनीतो मत्सरः स भवति विनीतमत्सरः, मत्थरो नामाभिमानपुरस्सरी रोपः, स चतुर्द्धा भवति, तंजहा| खेतं पचवत्युं पडुथ उवधिं पहुंच सरीरं पडुच, एतेसु सच्चे उपपत्तिकारणेसु विनीतमत्सरेण भवितव्वं, तत्थ जातिलाभतपोविज्ञानादिसंपत्रे च परे न मत्सरः कार्यः यथाऽयमेभिर्गुणैर्युक्तोऽहं नेति, तद्गुणसमाने च दन्छ उक्खलखलगादि भावुछ अज्ञातचर्या, विशुद्धं नाम उग्गममादीहि कल्पितं 'आहरे' आदद्यात् एवं 'सव्वं णचा अट्ठिए धम्मं' वृत्तं ॥ १५७ ॥ सर्व ज्ञेयं यावत् शक्तिर्विद्यते तावद्ध्येयं ज्ञात्वा च अकृत्यं न कर्त्तव्यं कृत्यमाचरितव्यमिति, उक्तं हि "ज्ञानागमस्य हि फलं० "अधिहुए धम्मं णाणादीणि वा, धम्मेण जस्स अत्थो स भवति धम्मट्ठी, तपोपधानवीर्यवान्, 'गुत्ते जुत्ते सदाजते 'चि त्रिगुप्तः, जुत्तो णाम णाणादीहिं तवसंजमेसु वा सदा नित्यकालं जतेत यत्नवात् स्यात् कुत्र यतेत १, तदिदमात्मपरे, आत्मनि परे च आतपरे, णो अत्ताणं अतिवातेज णो परं अतिवातेजिति, आत्मनः परं आत्मेसु वा परं किं तं १, आयतार्थिकत्वं अत्थो णाम णाणादि, आयतो णाम इढग्राहः, आयतविहारकमित्यर्थः, 'वित्तं पसवो य णातयो' वृत्तं ।। १५८ ।। वित्तं हिरण्णादि पसवोगोमहिसाजाविगादि गातयो - मातापितासंबंधिणो, बालजणो सरणंति मण्णती, एतान् घालजनः शरणं मन्यते एते हि मां दुःखा
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श्रावक
देवत्वादि
॥ ९५ ॥
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भाग-2 “सूत्रकृत" - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [२], उद्देशक [३], नियुक्ति: [४३-४४], मूलं [गाथा १४३-१६४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[२] “सूत्रकृत' जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
अत्राणादि
प्रत सूत्रांक ||१४३१६४||
RADITIES
श्रीसूत्रक- परित्रास्यति इह परत्र च, तं च न भवति, कथं ?, इह तावत्-सयणस्सवि मज्झगतो रोगामिहओ किलिस्सए एगो । सयणोवि ताङ्गाणाय से रोग ण विरिचिति णेव मासेति ।।१।। सब्बणयहेतुसिद्धं अप्पाणं जाण णिच्छएणेक' यथा ते मम न त्राणाय तथाऽहमपि न ॥९६॥
तेषां त्राणाय शरणं च, इतश्च न भवति शरणं, यतः 'अम्भागमियंसि वा दुहे' वृत्तं ॥१५९।। अभिमुखं आगामिक अभ्यागमिग-व्याधिविकारः, स तु धातुक्षोभादागंतुको बा, उपक्रमाजातमित्युपक्रमिक, अनानुपूा इत्यर्थः, निरुपक्रमायुः करणं,
भवंतो नाम भवान्ते मरणमेव, का भावना ?, तद्धि यद्वालमरणं न भवति, जराकामायुपक्रमतो वा फलप्रपातवत् , तस्यैवंविधमृतस्य भाएगस्स गती च आगती' एकस्येति पशुज्ञातिहीनस्य, एवं विदुः मत्वा न तां वित्तपशुनातिं च शरणं मन्यते,'सब्वे सयक|म्मकप्पिया' वृत्तं ॥१६॥ सर्वे इत्यपरिशेषाः, स्वैः कर्मभिः कल्पिताः प्रविभक्तविशेषा इत्यर्थः, तद्यथा-पृथिविकायिकत्वेन०, कृती च्छेदने, न विकृतं अच्छिन्नमित्यर्थः, अवियत्तेन वा अधिगच्छंतेनेत्यर्थः, 'दुहिणे ति दुःखिनः प्राणिनो जीवा 'हिंडंति भयाकुला सढा' भयैः आकुल्ला भयाकुला, भयानि सप्त, भयानि वा दुःखं, तेणाकुलाः, सढा नाम तपश्चरणे निरुद्यमाः शठीभूतावा, पापक
नेमिः ओतप्रोता इत्यर्थः, 'वाहिजरामरणेहि भिदुता'नारकतिर्यग्मनुष्येषु व्याधिः जरा तिर्यड्मनुष्येषु मरणं चतसृष्वपि गतिषु, 'इणमो खणं वियाणिया वृत्तं ॥१६१॥'इणमोत्ति इदं क्षीयत इति क्षणः, सतु सम्मत्तसामाइयादिचतुर्विधस्यापि, एकेकः । | स चतुर्विधो खणो भवति, तंजहा-खेत्तखणो कालखणो कम्मखणो रिक्खखणो, एते चत्वारिवि जहा लोगविजए पढमे उद्देसए 'खणं जाणाहि पंडिएति सुत्ने भणिता तथा भणितब्वा, विविधं जाणिया विजाणिया, णो सुलभं योधी य आहितं' बोधी णाणाति तिविधो आहितमारव्यातं,उक्तं च-"लद्धेल्लियं व बोधि अकरतोऽणागयं च पत्थंतो। अण्णं दाई बोधि लम्भिसि कयरेण मोल्लेणं ॥१॥"
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PAWANI
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भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र - २ (निर्युक्तिः+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [ २ ], उद्देशक [३], निर्युक्तिः [४३-४४], मूलं [गाथा १४३-१६४ ] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र -[०२] अंग सूत्र [०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि :
श्रीसूत्रकताङ्गचूर्णिः
॥ ९७ ॥
विराहितसामण्णस्स हि दुल्लभा बोधी भवति, अब पोग्गल परियहं उकोसेणं हिंडति, एवं सहितेहि पस्सिया' एवं मत्वेति चाक्यशेषः, णाणातीसहितो अधिया (बा) सए परीसहे, पठ्यते च 'एवं सहिते अधिया (बा)सए' अधिया वासए अधिवासए, यदुक्तमेवमेतत् क एवमाह - 'आह जिणे इणमेव सेसगा' रिसभसामी भगवं अट्ठावर पुत्त संचोहणत्थं एवमाह इदमेव, जे वाऽजिताद्याः शेषका जिनाः ते प्राहुः किमतिक्रान्ता अनागताश्चैव जिनाः कथितवन्तः कथयिष्यति च, ओमित्युच्यते 'अभविंसु पुरापि भिक्खवो' वृक्षं ।। १६२ ।। अभविष्यन्नतिकान्ताः भिक्षव इति आमन्त्रणं, 'आएसावि भविंसु सुता' आदेशा इति आगमेस्सा 'एताइं गुणाई आहिते' एते ये उक्ता इदाध्ययने अप्रमादादिगुणा सिद्धिगमणसफला काश्यपो उसभस्वामी वद्धमाणस्वामी वा अनुगतो अनुकूलो वा अनुलोमो वा अनुरूपो वा धर्म्मः अनुधर्म्मः काश्यपस्यानुचरणशीलाः, द्विधा समासः क्रियते कासवो जं अणुधम्मं चरति जो वा कासवस्त अणुधम्मं चरंति ते च गुणा उक्ताः, पुणरपि चोच्यन्ते- 'तिविधेणवि पाण मा हगा' वृत्तं ||| १६२ || त्रिविधेन योगत्रय करणत्रयेण प्राणाः आयुः बलेन्द्रियाः प्राणाः ते मा हण आत्मनोऽहितं, अणिदाणो ण दिव्यमाणुस्सएसु कामभोगेषु आसंसापयोगं करेति, इंद्रियणोइन्द्रियसु संबुडो, 'एवं सिद्धा अनंतगा' एवं मग्गं अणुपालिता अतीतकाले अनंता सिद्धा, संपन संखेजा सिज्यंति, अणागते अनंता सिज्झिस्संति, अवरे नाम ये वर्त्तमाना आगमिष्याचेति, 'एवं से उआहु अणुत्तरणाणी अणुत्तरदंसी ॥ १६४ ॥ एवमवधारणे 'स' इति सो उसभसामी अड्डाणउतीए सुताणं 'आह' कथितवान्, अणुत्तरणाणी अणुतरंसी अणुचरणाणदंसणधरी, एतेण एकत्वं णाणदंसणाणं ख्यापितं भवति, 'अरहा णायपुत्ते' पूजादीनईतीत्यन् नास्य रहस्यं विद्यते वा अरहा ज्ञातस्य पुत्रः, णातकुलपते सिद्धत्थखचियसुते भगवान-ऐश्वर्यादियुक्तः, 'वैसाली -
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ज्ञानादिस हितत्वादि
॥ ९७ ॥
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||१४३
१६४॥
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[१४३
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भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र - २ (निर्युक्तिः+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [ २ ], उद्देशक [३], निर्युक्ति: [ ४३ ४४], मूलं [गाथा १४३-१६४ ] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र -[०२] अंग सूत्र [०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि :
श्रीसूत्रताङ्गचूर्णि:
उप० १
॥ ९८ ॥
Te huur aan kau lu
ए'चि गुणा अस्य विशाला इति वैशालीयः, विशालं शासनं वा इक्ष्वाकुवंशे भवो वैशालीयः, 'विशाला जननी यस्य, विशालं कुलमेव वा । विशालं [] वचनं चास्य, तेन वैशालिको जिनः ॥ १ ॥ 'विवाहितो' व्याख्यातः, इति एवं जंबूस्वामिनः वृद्धभगधानार्यसुधर्मा कथयति एवं से उदाहु जाब वियाहितो, 'इति' परिसमाप्तौ अथवा एत्रमर्थः, एवं इति वेमि, सुधम्मसामिस्स वयणमिदं भगवता सर्वविदा उबदि अहमवि बेमि, नयाः पूर्ववत् ॥ इति बैतालीयाख्यं द्वितीयमध्ययनं समाप्तं ॥
इदानीं उवसग्गपरिणत्ति अज्झयणं, तस्सवि चत्तारि अणुयोगद्वारा परूवेयच्या, अधियारो दुविधो-अज्झयणत्थाहियारो उद्देसत्था धियारो य, अज्झयणन्थाधियारो सच्चे उवसग्गा जाणित्ता सम्म अधिया सेतव्या, उद्देसत्थाधियारो' पढमंमि य पडिलोमा० ' गाथा ॥ ४९ ॥ पढमे उदेस पडिलोमा जहा पुढे दंसमसएहिं तणफासमचइता आयपरतदुभयसमत्था उवसग्गा भण्णंति, वितिए तु मायादि अणुलोमा उवसग्गा अण्णे य रायमादी पाएण अणुलोमे उवसग्गे उप्पायंति, ततिए उद्देसए अज्झत्थवि से सोवदंसणं भहित के जाति विवातं ? इत्थीओ उदयाओ वा, परवादी वयणं संबुद्धा समकप्पाओ अण्णमण्णेहि मुच्छिता परसमयिका परतित्थियभाविता य उवसग्गा उप्पाएन्ति, 'हेउसरिसेहिं' गाथा ॥ ५० ॥ चउत्थुद्देसए हेतुसरिसा अहेतू भण्णिहिति, अहा मंथचई णाम सीलक्खलितकुतित्थिया एवं परुविन्ति हेत्वाभासादि, अहेतवो भूत्वा हेतुमिवात्मानमाभासयंति हेत्वाभासस्य 'समयपडितेहिं' ससमयजोगेहिं, जो तेसिं समया जुज्जमाणया णिउणा भणिता, अथ आयरिओ मसमयपडितेहिं णिउणेहिं दितेहिं तेसिं सीलखलियताणं अण्णउत्थियाणं पण्णवणं करेति चउत्थे, एवं दुविधोऽवि अत्थाहियारो भणितो । इदाणिं णामणिफण्णो णिक्खेवो. तत्थ गाथा 'उवसग्गंमि य छक्कं० गाथा ॥ ४५ ॥ णामठवणाओ तहेव, बइरित्तो दुव्योवसग्गो दुविधो-चेतनदब्बोवसग्गो य
अस्य पृष्ठे तृतिय् अध्ययनस्य आरभ्यते
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उद्देशार्थाधिकारः
॥ ९८ ॥
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भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [३], उद्देशक [१], नियुक्ति: [४५-५५], मूलं [गाथा १६५-१८१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सूत्रकृत' जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
उपसर्गभेदादि
श्रीमूत्रकतानचूर्णिः ॥ ९९॥
प्रत सूत्रांक ||१६५१८१||
| अचेतनदबोवसग्गो चेतनदविगंज तिरक्खमणुआ णियगसरीरावयवेण आहणंति, अचेतणदधिगं तं व लउडादीहिं, अथवा [ अभिघातो तडिमादि उपरि पडति, अथवा उपसग्गो दुविधो-आगंतुगो पीलाकरो य, आगंतुगो चउप्पदलउडादीहि, वातियपेत्ति| यादि, खेत्तोवसग्गो 'जं खेत्तं बहु ओघभवं' गाथा ।।४६। ओघो बहुगं उप्पणं बहूपसग्गो, जहा बहुउपसग्गो लादाविसयो, जहिं भट्टारगो पविहो आसि छउमस्थकाले सुणगादीहि तत्थ णिद्धम्मा खवेति, ओहभयं भवति जहा भरहवासे, कालोवसग्गो एगंतदूसमा, सीतकाले वा सीतपरीसहोवा णिदाघउसिसिणकाले उणपरीसहोवा,एवमादि कालोबसग्गो भवति, भावोवसग्गो कम्मोदयो, सो पुण दुविधो-ओहतो उवकमतो वा, ओहतो जहा णाणावरणं दसणमोहणीयं असुभणाम णियागोतं अन्तरायिक | कम्मोदयितं, उवक्कमियं जं वेदणिशं कम्म उदिज्जति । 'दंडकससत्थरज्जू गाथा 'उपकमिए संजमविग्धकारए.' गाथा
॥४७॥ जे संजमा उबक्कामेन्ति उवसग्गा तेहि अहिगारो, जेण वा दम्वेहि वा तं कम्मं उदीरिजति, जेण संजमाओ उवकमाविजति | तेणवि अधियारो, ते चउम्बिधा-दिव्या तिरिक्खजोणिया माणुस्सा आयसंवेतणिया, दिव्वा चउबिधा-हासा पदोसा वीमंसा पुढोवेमाता, मणुस्सावि चउबिधा-हासा पदोसा बीमंपा कुसीलपडिसेवणता, तिरिया चउविधा-भया पदोसा आहारा अवच्चलेणसारक्खणता, आयसंवेतनीया चउन्धिधा-पट्टणता लेसणता थंभणता पवडणता, अथरा वातिता पेनिया संमिया सन्निवाइया, एवं 'एकेको चउधिहो' गाथा ॥४८॥ अट्ठविहो कई होति !, एकेको अणुलोमो पडिलोमो य, अथवा सव्वेऽवि सोलसविधा | उवसन्गा, चत्तारि चउकगा सोलस भवनि, एवं उपसग्गा जाणितच्या जाणणापरिणाए, पचक्खाणपरिणाए अधिआसेतन्या. परिहरंतेण तहा तहा घडितव्यं परकमियव्यं जहा परीसहा णिज्जेजति । गतो णामणिष्फण्णो । सुत्ताणुगमे सुतमुच्चारेयव्यं, 'सूरं
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अस्य पृष्ठे तृतिय अध्ययनस्य प्रथम उद्देशकः आरभ्यते
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भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [३], उद्देशक [१], नियुक्ति: [४५-५५], मूलं [गाथा १६५-१८१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
शिशुपालवृत्तादि
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चूर्णिः ॥१०॥
प्रत सूत्रांक ||१६५१८१||
मण्णति अप्पाणं 'सिलोगो ॥१६५।। कश्चित्संग्रामे उपस्थितो स्वाभिप्रायेण सूरमित्यात्मानं मन्यमानो वाग्भिविस्फूर्जन्नुपति- प्रति जाव जेयं ण पस्सति, जियति जिनाति वा, गर्जते कलभस्तावद् , घनमाश्रित्य निर्भयः। गुहान्तरविनिष्क्रान्तं, यावरिसह न पश्यति ॥११॥ ताबद्गजः प्रश्रुतदानगंडा, करोत्यकालांवुदगर्जितानि । यावन्न सिंहस्य गुहास्थलीषु, लागूलविस्फोटरव शृणोति |॥२॥ णिदरिसणं 'जुझंतं रदं धनुर्यस्य स भवति दधन्वा तं 'सिसुपालो व महारधं' मधारथो-केसवो शिशुपालेन तुल्यं शिशुपालवत् , स किल माद्रीसुतः चतुर्भुजो जातः, भीतया पश्चात् तया नैमत्ती पृष्टः-किमिदं रूवं, तेनापदिश्यते-महाद्भुतमेतत् , यं दृष्ट्वाऽस्य एतौ द्वौ भुजौ स्वाभाविको भविष्यतः ततोऽस्य मृत्युरिति, ततः सा माद्री दारकजन्मवर्द्धापकानामागतानां त | दारकं दर्शयति स्म, यथा च पादेवपातयत् , वासुदेवस्य चागतस्य तमालोक्य तौ भुजौ नष्टौ, पश्चात्तस्य मात्रा वासुदेवोऽभयं याचितः, तेनापदिश्यते-अपराधशतमस्य क्षमयिष्यामि, ततोऽसौ प्रवृद्धं वासुदेवं समक्षं परोक्षं वा गोपालवत्सपालादिभिराक्रोशैराष्टवान् , आज्ञाप्रतिषेधादीचाँपराधान् कृतवान् , ततोऽपराधशते पूर्ण क्वचिदेव अभिमुखमापतंतं आक्रोशंतं मत्पथोऽसर्पस्व इति, नाहमपथा गच्छामि, अल्पेनैवायासेन चक्रधुक् सुदर्शन चक्रधारातिपातेन शिरश्छिन्नं कृतवानिति परोक्षो रष्टान्तः, अयं तु प्रत्यक्षः 'पयाता सूरा रणसीसे वृत्तं ।।१६६ ।। भृशं याताः प्रयाताः, शयति शय्यते वा शूरः, महत उकिडिसीहणातचोलकलक| लसद्देणं प्रयाताः, रणसीसं णाम अग्गाणीकं, समस्तं ग्रास्यते ग्रस्यन्ते वा तस्मिन्निति संग्रामः, उपस्थितो णाम अन्योऽन्यवलेपु संग्रा|मायोपस्थितेषु, माता पुतं ण याणाति, अमातापुत्री यदा संग्रामो भवति, का भावना', तस्यामवस्थायां माता पुत्र मुक्तं उत्तानशयं क्षीरहारमजंगमं भयोप्रान्तलोचना अचादण्णा ण याणाति-नापेक्षते, न त्राणायोधमते, इस्तात्कटीतो वा भ्रस्यमानं भ्रष्टं वा
दीप
अनुक्रम [१६५१८१]
॥१०॥
[113]
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आगम
(०२)
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [३], उद्देशक [१], नियुक्ति: [४५-५५], मूलं [गाथा १६५-१८१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[२] “सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
अपुष्ट
धर्मादि
प्रत
श्रीसूत्रक
ताङ्गचूणिः 11१०१॥
सूत्रांक ||१६५१८१||
वा न जानीते 'जेतेण परिविच्छिते' जयतीति जेता अतस्तेन जेत्रा, तेण जयएण, परि सव्वतो भावे समता वाणादिभिरायु-01 धेस्तैः कृतः परिविच्छिते, सव्वतो छिण्णमित्यर्थः, एवं सेहेवि अप्पुढे' सिलोगो ॥१६७।। अपुट्ठो णाम अप्पुट्ठधम्मो, अस्पृष्टो वा परीपहै:, अदृष्टधर्मा इत्यर्थः, मिक्खूर्ण चरिया भिक्खुचरिया, कोविदो विपश्चित् न कोविदो अकोविदो, न तावत्परिपहो| पसर्गः विकोविदः, सो पव्ययंतो चिंतेइ भणति य-किं पयजाए दुकर काउंति ?, किं णिच्छ्यिस्स दुकरं ?, णणु सीहवग्घेहिवि
समं जज्झिाति, संगामे य पविसिञ्जति, अग्गिपडणं च कीरइ, एवं अदिट्ठपरीसहो सूर मण्णति अप्पाणं तपःशूर, जहा दन्य-10 A संगामे कुंतासिवाणगहणेसु, युद्धे उपट्टिते केई परबलसई सोऊण चेव णस्संति, केइ प्रवृते प्रहताः अप्रहता वा, केइ मारिअंति, AV एवं भावसंग्रामेऽवि सूर मण्णति अप्पाणं जाव लूहं ण सेवएत्ति, रूक्षः-मंजम एव, रूक्षत्वात् तत्र कर्माणि न श्लिष्यति, रूक्ष
पटे रजोवत् , तत्र केचित् दृष्टैच साधून जल्लादीहिं लिप्ताङ्गान् केचिदर्द्धकृते लोचे केचित्परिसमाप्ते केशान् उत्स्रष्टुं गतास्तत एव यांति, उक्ता ओध उपसर्गाः । इदाणि विभागशः उपदिश्यन्ते, तत्थोवसग्गा परीसहा य एगं चेव काउं उवदिस्संति 'जदा हेमंतमासम्मि' सिलोगो ॥१६८ ॥ यत्रातीव शीतं भवति वर्षवईलादयो वा तीब्रवाता भवंति, वातग्रहणात् सीधवग्धविरालोपा| ख्यान, यथा पोसे वा.माहे वा 'तत्थ मंदा विसीदति' तस्मिन् काले तत्र मंदा उक्ताः, विविधं सीदंति विसीदति, अहो इमा सुदुक्करा पब्बआ, वहयो परीसहोवसग्गा विसधितब्बा, ते एवं चिंतेता सीयाभिभूया रट्टहीणा व खत्तिया' जहा परबलेण उच्छा| दिते रहे हितसारे य परवलकने विलुप्यमाने वा, खत्तिओ णाम राया, सो जहा सोयति, एवं सेहोऽवि गिरग्गिगे रण्णे गुत्ताव| गुत्तावसधीसु मीतामिहुतो विचिंतेति-किमेवंविधाए पयजाए गहियाए, भणितो सीतपरीसहो, एष एवोपसर्गः, तत्पुरुषोऽयं
दीप अनुक्रम [१६५१८१]
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आगम
(02)
प्रत
सूत्राक
||१६५
१८९ ॥
दीप अनुक्रम
[१६५
१८१]
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र - २ (निर्युक्तिः+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [ ३ ], उद्देशक [१], निर्युक्ति: [ ४५-५५ ], मूलं [ गाथा १६५-१८१] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र -[०२] अंग सूत्र [०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि :
श्री मूत्रकृताङ्गचूर्णिः
॥१०२॥
समासः । तदिदाणीं उण्हपरीसहोऽपदिस्सति 'पुट्ठो गिम्हाभितावेणं' सिलोगो ।। १६९ ।। अभिमुखं तापयतीति अभितापः, अशोभनमनाः विमनाः कर्पूरवासितोदगं कंधराघरादि वा चिंतेंतो, अथवा तपं प्रति विगतं मनोऽस्य स भवति विगतमनाः, पातुमिच्छा पिपासा, सुछु पित्रासितो 'मच्छा अप्पोदर जहां' तदल्पत्वादतीय तप्यन्ते बहिरुदकतापेन अंतथ मनस्तापेन तप्यमानाः यथा सीदन्ति एवनसावपि जलमलखेदक्लिन्नगात्रो वहिरुष्णाभितप्तः शीतलान् जलाश्रयाद्यान् धारागृहाणि चन्दनादीश्रोणप्रतीकारान् अनुसरन् भृशं अनुशोचते व्याकुलचेता भवति, बुत्तो उष्णपरीसहो । इदाणिं जातणापरीस हो- 'सदा दत्तेसणा दुक्खं' सिलोगो ॥ १७० ॥ सदेति सव्वकालमविश्रामेन दत्तग्रहणात् जातितं दत्तं च, जाइयदत्तमध्येसणीयं च दुक्खं खुधातिसाभिभूतेहिं तं परिहरितुं, दुक्खं च पडिसेहिजति अणेमणिअं साम्प्रतसुखाभिलाषी पड़प्पण्णभारिओ जीवो दितगा य रूस्संति 'जायणा दुप्पणोलिया' दुःखं प्रणुद्यते जायणा बलदेववत् वत्तारो य भवति-कम्मत्ता दुब्भगा चैव० कृषी पशुपाल्यादिभिः | कर्मान्तरैरार्त्ता अभिभूता इत्यर्थः, स्त्रीमित्रज्ञातिखामिनां दुब्भगा इति, आहुः पृथक् पृथक् जनो विस्तरा वा जनाः पृथग्जनाः, 'एते सद्दे अचाअंता' सिलोगो ॥ १७१ ॥ शब्दयते अनेनेति शब्दः, अचाएंता णाम अशक्नुवन्तः सोढुं, कोदीर्यन्ते १, उच्यते, 'गामेसु नगरेसु व।' वा खेडविकल्पे कब्बडादीसुवि, 'तत्थ मंदा विसीदंति संगामंमि व भीरुणो' भीरुवो हि संग्रामे प्राप्ते मरणभयाद्विषीदंति, ऊरू खंभाइजंति, खिन्नचित्ता भवंति, 'अप्पेगे खुज्झि (ग्भिते) भिक्खू' सिलोगो ॥ १७२॥ अपि एके, न सव्वे, खुज्झितो णाम क्षुधितः पिपासुर्या, तं क्षुत्तृष्णाप्रतियोगार्थमटतं 'सुणी दंसती'ति सुणी लूपयतीति लूपकः भक्षक इत्यर्थः, 'तत्थ मंदा विसीदंति' संयमोद्यमं प्रति सीदंति, दिद्रुतो 'तेऊपुट्टा व पाणिणो तेजोनाम अग्निस्तेन दवाग्निना
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अमितापादि
॥१०२॥
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आगम
(०२)
भाग-2 “सूत्रकृत" - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [३], उद्देशक [१], नियुक्ति: [४५-५५], मूलं [गाथा १६५-१८१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[२] “सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
प्रतिपन्धिकादि
सूत्रांक
प्रत | श्रीसूत्रक
ME अन्यतमेन वा तेजसा शशमूषकमार्जारकोलवृकक्षुपकलतावितानवृक्षादयो दह्यमानाः संकुचंति, प्राणिनोऽपि दहमाना विसीदति । साङ्गचूर्णिः
JN 'अप्पेगे पडिभासंति' सिलोगो ॥१७३।। समन्ताद्भापन्ते परिभाषन्ते, पथ्यतेऽनेनेति पंथाः पन्धान प्रति योऽन्यः पन्थाः स ॥१०॥
प्रतिपथः प्रतिपन्था वा तेन गच्छतीति प्रातिपथिक तं, गामानुगाम रीयंत केइ पाडिपंथगाः पडिभासंति, अथवा यो यस्य विलो॥१६५
मकः स तस्य प्रातिपथिको भवति, ते, न तु सर्वे एव, कुतीर्था-सन्मार्गविलोपकाः, कथं ?, अणुसोयपट्ठिए बहुजणमि, साधवो हि १८१||
प्रतिश्रोतसा मोक्षमभि प्रस्थिताः, कुतीर्थास्त्वनुश्रोतसा, कि भापते-'पडियारगया एते' करणं कृतिर्वा कारः कारं प्रति योऽन्यः || कारः प्रतिकारस्तं गताः पडियारगताः, पडियाई कम्माई वेदंति, एते हि अण्णाए जातीए पंथा उच्छवा तेण णिइणा हिंडति, ण य दत्ताई दाणाई तेन न लभंति, लद्धेऽपि य ण गेहंति, ण चोदगाणि दत्ताणि तेण ताणि ण पिवंति, 'जे एते एव जीविणों'त्ति 1
जे एतेवं जीवणसीला, तंजहा कंजिगउसिणोदगादीहिं अन्ताहारेण जीवंति, पठ्यते च-'तदारवेयणिज्जे ते' जेहि येव दारेहिं अनुक्रम
|| कितं तेहिं चेव वेदिअतित्ति तद्दारवेदणिजं, जहा अदत्तदाणा तेण ण लभंति, सेसं तहेव । 'अप्पेगे वई जुजन्ति ॥ १७४॥ [१६५
| अप्येके, न सर्व, वार्च जुजंति वाचमुदीरयन्तीत्यर्थः, अहो एते 'चरगा पिंडोलगा' पिंडेसु दीयमानेसु उल्लेति पिंडोलगा,
| अधमजातयः ब्राह्मणा उत्तमाः क्षत्रियाः वेशा मध्यमाः शूद्रा अधमाः, ब्राह्मणस्य किल भिक्षा इष्टा क्षत्रिये कृषी, अवशेषास्तु १८१]
अवलगन्ति-क्केशं कुर्वन्ति तेन तत् पिण्डोलगाः, मुण्डेत्यशिष्टाः, खेदमलमत्कुणादिभिः खाद्यमाना अङ्गुलीनखशुक्तिशलाकादीनां | कण्डइतमंगैः विणटुंगा 'उबजलंति' उवचितजल्ला मलसकटाच्छादिताङ्गत्वात् , उज्जायति वा, पठ्यते च-उजाओ मृगो, नष्ट इत्यर्थः, | उजातमृगसमाः 'असमाहितंति अशोभना विवृताङ्गत्वात् अथवा असमाहिता-दुःखिता 'एवं विपडिवपणेगे' ॥ १७५ ।।
दीप
१०311
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आगम
(०२)
भाग-2 “सूत्रकृत" - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [३], उद्देशक [१], नियुक्ति: [४५-५५], मूलं [गाथा १६५-१८१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
प्रत सूत्रांक ||१६५१८१||
दीप
श्रीसूत्रक| सिलोगो, एवमनेनप्रकारेण न सम्यक् प्रतिपन्नाः विप्रतिपन्ना एगे मिथ्यादृष्टयः, स्वयमजानकाः न च ज्ञानवतां शृण्वन्ति, अज्ञानं
हितमोऽन्त
रादि गचूर्णिः तनो, ते ततो अण्णाणतमातो तमन्तरं वा याइ, उक्कोसकद्वितीयं मोहणिजं कम्मं बंधंति, एवं णाणावरणिजं दसणावरणिज, एगि॥१०॥
| दियाइयाइसु वा एगंततमासु जोणीसु उबवजंति, णिचंधकारेसु वा णरएसु, बुद्धीए मंदा मोहो-अण्णाणं पाउता-छण्णा, अथवा
मतिमंदा इत्थिगाओ य, मंदविण्णाओ स्त्रीमोहेण, उक्ताः शब्दाः। इदाणिं फासा 'पुट्ठोय दसमसएहि' सिलोगो॥१७६।। सिंधु| तामलितिगादिसु विसएसु अतीव दंसगा भवंति, अप्रावृतास्तैः भृशं वाध्यमानाः शीतेन च अत्थरणपाउरणहुताए तणाई सेवमाणा" | तेहिं विज्झति, अचाइया अधियासितुमिनि वाक्यशेषः, इदं च दुःखमधिसह्यते यदि नाम परः लोकः स्यात् , स च 'न मे दिढे PAL परे लोए, किं परं मरणं सिया' न हि मयाऽन्येन वा साक्षात्परलोको दृष्टः यनिमित्तं क्लेशः सह्यते, क्लेशान् सहमानस्य हि" | परं मरणं सिया, तदप्यनिष्टं, मरणमिहेच्छेत् यद्यसौ परलोकः स्यादिति, संदिग्धे तु परलोके किं दुःखेन तपसा कृतेनेत्ययमदर्श
नपरीपहोपसर्गः, किंच 'संतत्ता केसलोएणं' सिलोगो ॥१७८।। समस्तं तप्ताः ल्लिश्यन्त एभिराकष्टा इति क्लेशाः, दुःखमीरवो | हि कचित् केसलोयपराजिता विप्पडिबज्जति तेषां स एवोपसर्गः, 'बंभचेरं' इस्थिपरीसहो तेण पराइता-उपसम्गिता अणुवसग्गिता वा 'तत्थ मंदा विसीदति मच्छा पविट्ठा व केयणे' केयणं णाम कडबल्लसंठितं, मच्छा पाणिए पडिणियत्ते उचारिज्जंति इत्यर्थः, खुड्डमादी, तत्थ ते पविट्ठा वरागा सोयंति विसीदति-परिघोलंति जया व पाणियं णिधुलितं । आयदंडसमायारा' सिलोगो ॥१७८॥ आत्मानं दंडयितुं शीलं येषां ते भवंति आत्मदंडसमाचाराः, मिच्छत्तसंठिता भावणा जेसिं ते भवंति मिच्छासंठितभावणा, ते तु कथमात्मानं दंडयंति ?, उच्यते, ते साधून दृष्टा हात्प्रदोपाद्वाऽपि पिट्टेति जहा सो पुरोहितपुत्रः, केयित्ति ॥१०४॥
अनुक्रम [१६५१८१]
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आगम
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प्रत सूत्रांक
||१६५
१८९ ॥
दीप
अनुक्रम
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१८१]
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र - २ (निर्युक्तिः+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [ ३ ], उद्देशक [१], निर्युक्तिः [ ४५-५५], मूलं [गाथा १६५-१८१]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र - [०२], अंग सूत्र-[०२] “सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: दीपरत्नसागरेण संकि
श्रीसूत्रताङ्गचूर्णिः
॥ १०५ ॥
ण सब्बे, लूयति अक्कोसंति पिट्टेति य अनार्या दसणादीहिं। 'अप्पेगे पलियंतंमि' सिलोगो ।।१७९ ॥ वा अपि एके, न सर्वे, 'पडियेनं समंतादतं परियन्तं कस्य १, देशस्य तस्मिन् २ देशपर्यन्ते केचिद्भापते-चारिकोऽयं चारयतीति चारकः, येषां परस्परवि| रोधः ते चारिकमित्येनं संवदंते, चोर वा तं 'सुवयंपि' संगतं - शोभनं व्रतं. संकिता वा णिस्संकिया वा भूत्वा बंधन्ति भिक्षुयं बालाः, जहा गोसालो बद्धो आसीत्, 'कसायवसणेहि य'ति तत्पुरुषः समासः द्वन्द्वो वाऽयं सभावत एव केचित्साधून दृष्ट्वा कमाइअंति, बसणं केसिंचि भवति, कप्पडिंगा पासंडिया वा होंति, णचाचेति चा, तेष्वेव पर्यन्तेषु मध्यदेशेषु वा कंचि रियमानं कविद्वालो 'तत्थ दंडेण संवीते' सिलोगो ॥ १८० ॥ दंडो णाम खीलो दंडप्पहारोवा, मुट्ठी मुट्ठीरेब, फलं-चवेडाप्रहारः संगीत :- संग्रहत इत्यर्थः, 'णातीणं सरती वालो' जड़ णाम णातयो कंपि एत्थ होत्था भातिमित्तादयो नाहमेवंविधां आवर्ति | पावेंतो 'इत्थी वा कुद्धगामिणी' जधा सा अर्थकारितभट्टा, कुद्धा गच्छतीति कुद्धगामिणी जहा सा 'एते भो फरुसा | फासा' सिलोगो ॥ १८१ ॥ फरुमा नाम स्नेहवियुक्तैरुदीरिता, दुक्खं अधियासिअंति दुरधियासमा अप्पसतेहिं, ते अणधियासे| माणा हत्थी वा सरसंवीतः शम्प्रहारैरित्यर्थः, यथा रौद्रसङ्ग्रामे हस्तिनः शरसंवीता नश्यन्ति, एवं भावसंग्रामादपि परीसहपरायिता क्लीवा, 'बराका' नाम परीप वराकाः पुनरपि गृहं गच्छति गमिष्यंति च, पठ्यते च 'तिवसढगा गता गि' ति बेमि, तीव्रं | शढाः तीयशदा तीचैव शठाः तीव्रशढाः, तीबैः परीपः प्रतिहता । इति तृतीयस्योपसर्गाध्ययनस्य उद्देशः प्रथमः ||३-१॥
म एव उपसर्गाधियारो अणुवत्तत एव 'अथेमे सुहुमा संगा' सिलोगो ।। १८२ ॥ 'अथे' त्यानन्तर्ये पडिलोमोबसम्मा गता, इदाणि अणुलोमा, उक्तं हि पदमम्मिय पडिलोमा णाती अणुलोमगा वितीयमि' । सुहुमा णाम निउणा, न प्राणव्यपरो
अस्य पृष्ठे तृतिय् अध्ययनस्य द्वितिय उद्देशक: आरभ्यते
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909665
पर्यन्तोप
द्रवाः
॥१०५॥
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आगम
(०२)
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सूत्राक
||१८२
२०३ ||
दीप
अनुक्रम
[१८२
२०३]
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र - २ (निर्युक्तिः+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [ ३ ], उद्देशक [२], निर्युक्तिः [ ४५-५५], मूलं [गाथा १८२-२०३ ] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र -[०२] अंग सूत्र [०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि :
श्रीसूत्रकृ ताङ्गचूर्णिः ॥ १०६ ॥
पणवत् स्थूरमूर्त्तयः, उपायेन धर्माच्यावयंति, उक्तं हि शक्यं जीवितविनकरैरप्युपसर्गैरुदीर्णैः माध्यस्थ्यं भावयितुं, अणुलोमा पुण पूजासकारादयः भिक्खूणं दुरुत्तरा भवंति, वक्ष्यति हि 'पातालवदुरुत्तरा' सजते यत्र स सङ्गः, संगोत्ति वा विग्घोत्ति वा वक्खोडित्ति वा एगट्ठा, अल्पसच्चानां दुस्तरा, नतु सच्चवतां, 'जत्थ मंदा विसीदति' मंदा उक्ता, विसेसेण सीयंति च, चएताणाम अस किंता जवइस एत्ति वा लाढित्तएत्ति वा एगट्ठा, 'अप्पेगे जातयो दिस्स' सिलोगो ॥ १८३॥ अपिः पदार्थसंभावने, एके, न सर्वे, ज्ञातयो - मातापित्रादि पञ्चतं पुण्यपव्वदतं वा दठूण रुयंति, किध ?, कवणकरुणाणि, 'नाथपियकंतसामिय० ' परिवारिया दव्वतो भावतो य, वयं वृद्धा कर्मासहिष्णवः तदिदानीं पोसाहि णे, आवाल्यात् पुट्ठो मदादिभिः, 'पिता ते थेरओ तात "सिलोगो ॥ १८४॥ ततइत्यामन्त्रणं, उक्तं हि "पिता ते स्थविरो तात !, वयं च गतयौवनाः । न च तत्कर्म जानामि, यजानात्यपरो जनः ||१||" त्वां हि मुक्त्वा (गतः ) अस्यां दशायां कोऽन्यः पोपविष्यति ?, तं तु सद्भावतो ब्रूते कौतुकाद्वा, अन्येष्वपि पुत्रेषु विद्यमानेषु ब्रवीति - पोसणे तात ! पुट्ठो सि, कस्स णाम तुमं अम्हे अणाहाई परिचयसि, किंच-कविद् जनैः सुहृद्भिर्वा निष्काममेवमुपदिइयते - 'पिता ते येतो तात!' थेगो दंडधरितग्गहत्थो अत्यन्तदशां प्राप्तः, युक्तं त्वयि जीवमाने मलपिंडमडतो ?, कथं च तब धर्मः स्यात् अस्मिन्विलवमाने १, खसा नाम ते भगिनी, साय खुड्डलिया भद्रं, बृहत्तमा कन्या वा, कोऽस्या निर्वहणं करिष्यति, एवमादीणि कार्यसहस्राणि संताणि असंताणि वा उद्दीरंति, 'भायरो त सगातात!' श्रयंतीति श्रवा आणाउववायवयणणिसे
चिति, समानोदराः सोदराः, सोदरग्रहणात् अन्येऽपि तात्र एक पित्रादयो छड्डिति सुई, न तु सोदराः । 'मातरं पितरं ' सिलोगो ॥ १८५ ॥ मातापितरौ हि सुश्रूषाविताविदानीं पुष्णाहि, एवं लोको भविष्यतीत्ययं परथ, अस्मिँस्तावद्यशः कीर्तिथ
[119]
अनुलोमोपसर्गाः
॥१०६॥
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आगम
(०२)
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [३], उद्देशक [२], नियुक्ति: [४५-५५], मूलं [गाथा १८२-२०३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सूत्रकृत' जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
मातृशुश्रूपादि
ताङ्गचूर्णिः
लोकश्चम
प्रत यात्रा सूत्रांक |
॥१०७॥ ||१८२२०३||
भयति मङ्गलं च, उक्तं हि-'गुरवो यत्र पूज्यन्ते, यत्र धान्यं सुसंभृतम् । अदन्तकलहो यत्र, तत्र शक ! बसाम्यहम् ।।१।।' पर-10 | लोकश्च भवति गुरुशुश्रूषया, एते हि पदीवत्थिया समणगा भवंति जे मायापितरं सुसुस्संति, तेण तेसिं गुरुपडिणियाणं कतो लोगो धम्मो वा भविस्सति ? ।। किं चान्यत्-'उत्तरा मुहुरुल्लाया'सिलोगो॥१८६|| उत्तरा नाम प्रतिवर्षमुत्तरोत्तरजातकाः समघटच्छिअगाः, पठ्यते 'इतरा मधुरोल्लावा' इतरा णाम खुड्डल्लगा अव्यक्तमहुरोल्लावकाः 'पुत्ता ते तात!खुडगा' तात इत्यामंत्रणं, खुडगत्ति अप्राप्तवयसः अकर्मयोग्या या "भारिया ते णवा तात!' भरणीया भार्या, नवा नाम नववधूः अप्रसूता गर्भिणी वा. मा सा अण्णं जणं गमेज, उभामए वा करेज, जीवंतए तुमंमि अण्णं पतिं गेण्हेजा, ततो तुज्झ अद्धीतीया भविस्मति, अम्हवि य जणे छायाघातो अवण्णओ जणे भविस्सतीति, किंच-जो जहा पुखमासी तस्म हि म एव उवमग्गो पायो भवति, येनान्यथा ब्रवीति, तद्यथा-या कृष्यादिकर्मपराजितः तं दृष्ट्वा युवते 'एहि ताव घरं जामों सिलोगो ॥१८७॥ जाणामो जहा तुमं अति| कम्मा भीतो पब्बड़तो, इदाणि वयं कम्मसमत्था, कम्मसहायगा य कम्मसमत्था, कम्मसहायगा य कम्मसहायकत्वं प्रति भवतः, | तदिदानी कुमारः प्रति भण्णइ-ण चंप गोणिवि, हत्थेण मा छिया, णित्तेण वा उक्खिवाहित्ति, दूरगतं च णं दण भणति-आसणं
वा गृहमागच्छ, 'बितियंपि तात! पासामो जामो ताव सयं गिह वितियपि तात! पासामो स्वे गृहे तिष्ठन्तमिति वाक्य| शेषः, वितियपि ताव पेच्छामु सब्याई णियल्लगाई। गंतुं तात पुणो गच्छे' सिलोगो ॥ १८८ ।। गत्वा स्वजनपक्षं दृष्ट्वा पुन
रागमिष्यसि, न हि त्वं तेनाश्रमणो भविष्यसि, यस्त्वं स्वजनमवलोकयित्वा पुनरायाखसि 'अकामं ते परक्कम' को नाम अ[णिच्छिओ 'परकमत'ति परिजायंतं अथवा यदा त्वं परं प्राप्य निष्णातो भविष्यसि भुक्तभोगत्वात् तदा अकामकं पराक्रमंतं
दीप
अनुक्रम [१८२२०३]
॥१०७||
[120]
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आगम
(०२)
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [३], उद्देशक [२], नियुक्ति: [४५-५५], मूलं [गाथा १८२-२०३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-[२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
श्री श्रीसूत्रक ताङ्गचूर्णिः ॥१०८॥
मानशु. श्रूपादि
प्रत सूत्रांक ||१८२२०३||
दीप अनुक्रम [१८२२०३]
'को तं वास्तुमरिहति' धरेतुं कं वा । पच्वइयगं भणंति-जं किंचि अणगं तात! तंपि सबं समीकतं' उत्तारियंति वा विमोक्खितं वा एगहुँ, हिरण्यं ववहाराओ, जो वा णियगो खीणभंडमुल्लो पन्यइओ तं भणंति-हिरण्यं ते कताकतं दासामो, आदिग्रहणात् सुवणं वा भंडमुलं वा दासामो जेणेव ववहरिस्ससि, व्यवहारार्थ व्यवहाराय, अपि पदार्थादिषु तच्च ते दासामो, अन्यच्च यद्वक्ष्यसि, 'इचेवं णं सुसिक्वंतं'सिलोगो ॥१८९।। साधुक्रिया सुट्ठ सिक्खंतं सुसिक्वंतं पाठान्तरं सुसेहिंति वा-उस्सिक्खावेतीत्यर्थः, 'कालुणतो उवहितं ति कलुणाणि कंदंता य रुयंता य णिरिक्खंता य तं उबसग्गेति, समुट्ठिता उप्पब्यावेतुं, स च तेहिं णाणाविधेहिं 'वियरो णातिसंगेहि, ततो गारं पहावती'गारं नाम अगारत्वं, भृशं वा धावति पधावति । किंचान्यत् 'वणे जातं जहा रुक्वं' सिलोगो ॥१९०॥ कंठर्य, एवं परिचिट्ठ(वेद)ति द्रव्यतो भावतश्च परिवेढणं असमाधीएत्ति, तं तं भणति करेंति य येनास्यासमाधिर्भवति, अथवा अमाधुताते द्रव्यतो भावतश्च स तैः करुणादिभिः 'विचढे णातिसंगेहि हत्थी वावि णयग्गहो।।१८२।। कंचित्काल कासारोच्छुखंडादिभिरनुवृत्त्य पश्चात् आहारप्रहारैर्वाध्यते, तेऽप्येनं पुनर्जातमिव मन्यमानाः तस्यामिनवानीतस्य पिट्ठतो परिसप्पंति, को दृष्टान्तः ?,'सूतिगोव्व अदूरतों' यथा तदिनमतिकागृष्टिवत्सकस्य पीतक्षीरस्य इतश्चेतश्च परिधावतो ईपदुन्नबालधिः सन्नतग्रीवा रंभायमाणा पृएतोऽनुपप्पति, स्थितं चैनं उल्लिखति, अदूरतोऽस्यारस्थिता स्निग्यदृष्ट्या निरीक्षते, एवं बंधवा अप्यस्स उदकसमीपं चान्यत्र वा गच्छंत मा णासिस्सिहित्ति पिट्ठतो परिसपते, चेडरूवं वदे, मग्गतो देन्ति शयनमासीनं चैनं स्नेहमिवोदिरंत्या दृष्ट्या अदरतो निरीक्षमाणा अवतिटुंते । 'एते संगा मणुस्साणं' सिलोगो ॥१९३।। एते इति ये उद्दिष्टाः, सञ्जते येन स संगः, मनुष्याधिकार एव वर्चते तेन मनुष्यग्रहणं, पाताला नाम बलयामुखाद्याः, सामयिकोऽयं
॥१०॥
[121]
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आगम
(०२)
प्रत
सूत्रांक
॥ १८२
२०३ ||
दीप
अनुक्रम [१८२
२०३]
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र - २ (निर्युक्तिः+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [ ३ ], उद्देशक [२], निर्युक्तिः [ ४५-५५], मूलं [गाथा १८२-२०३ ] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र -[०२] अंग सूत्र [०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि :
श्रीसूत्रक ताङ्गचूर्णिः
५१०९ ॥
दृष्टान्तः, उभयाविरुद्धस्तु पातालः समुद्र इत्यपदिश्यते, न तारिमा अतारिमा न शक्यते बाहुभ्यां तर्तुमिति, 'कीवा' कातरा जत्थ 'विसण्णेसी विसरणं एसतीति विषण्णेसी 'णातिसंगेहि मुच्छिता' विसण्णा वा आसंति, विसण्णेसिं गातिसंगेहि मुच्छिता, अथवा कीवा जत्थावकीसंति, अपक्रुध्यन्ते मोक्षगुणातो धम्मातो वा, किंणिमित्तं गातिसंगेहि मुच्छिता १, 'तं च भिक्खू परिकृष्णाय सबै संगा महासवा' सिलोगो ॥ १९४ ॥ तदिति यदेतदुक्तं अथवा तमुपसर्गगणं दुविधाएं परिण्णाए परिणाय, सव्वे इत्यपरिशेषाः, संगा एव महांति कर्माण्याश्रयंतीति । 'अहिमे संति आवट्टा' सिलोगो ॥ १९५ ॥ अहो दैन्यविस्मयामंत्रणेषु, अथवा इमे संति आवट्टा, अथेत्यानन्तर्ये, इमे वक्ष्यमाणाः, संतीति विद्यन्ते, द्रव्यावर्त्ता नदीपूरो, भावावर्त्ता यैः प्रकारैरावर्तन्ते संयमभीरवः, कासवेण पवेइता - प्रदर्शिता इत्यर्थः, 'बुद्धा जत्थावसप्पत्ति' बुद्धा दुविधा - दव्वे भावे य, दब्बे णिद्दाबुद्धा भावे गाणातिबुद्धा, अवसर्पन्ति नाम अवगच्छंति, 'सीदंति अवुधा जहिं ॥ किंच यः कश्चित्संयतः कस्सति रण्णो पुत्तो वा अरायचं| सिओवि कोऽवि रूपसंपण्णो विज्जामंतकलागुणसंपण्णो चा, तंजहा- 'रायाणो रायमचा य' सिलोगो ॥ १९६ ॥ रायाणो चकवट्टिमादी, तत्थ बंभदत्तेण चित्तो निमंतिओ, रायमच्चा - इस्सरतलबरमाडं विगादि माहणा-भट्टा खत्तिया नाम गणपालगा गणभुत्तीए वा भ्रष्टराज्या, जे वा अरायाणो अरायवंसिया णिमंतयंति भोगेहिं 'भिक्खुयं साधुजीविणं'ति साधुविडीए फासु | एण पडोआरेण जीवतित्ति साधुजीवी, अथवा साध्विति प्रशंसायां शोभनेन जीवनेन जीवतीति, संयमजीवितेनेत्यर्थः के च ते भोगा ?, इमे, 'हत्थस्सरहजाणे हिं' सिलोगो ॥ १९७ ।। हत्थि अस्सरहादीणि पसिद्धाणि, जाणाणि सीदासन्दमाणिगादीणि, तं पुण जले थले य, जले णावादि, थले सीतासंदमाणिगादी, विहारगमणा इति उजाणियागमणाई, चशब्दादन्यैश्च श्रोत्रादिभिः
[122]
ज्ञातिसंगादि
॥१०९॥
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आगम
(०२)
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [३], उद्देशक [२], नियुक्ति: [४५-५५], मूलं [गाथा १८२-२०३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] “सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
श्रीसूत्रक
वखादि प्रलोभन
ताङ्गचूर्णि: ॥११०||
प्रत सूत्रांक ||१८२२०३||
दीप अनुक्रम [१८२२०३]
इन्द्रियक्षमैविषयैर्यथेष्टतः 'भुंजाहिमाई भोगाई इमानीति विद्यमानानि प्रत्यक्षाणि या महरिसित्ति, एवमपि असावस्माभिरन्यैर्वा पूजनीयश्च, किंचान्यत्-तमेवं णिमंतयंति 'वत्थगंधमलंकार' सिलोगो । १९८ ॥ वत्थाणि-अयिणगादीणि गंधा-कुष्छादयः अलंकारा-हारादयः, स्त्रियः अहं ते धूतं भगिणीं वा देमि, अण्णं वाजं इच्छसि, सयणाई अत्युतपच्चुत्थुताणि, चशब्दात् लोहीलोहकडाहकडच्छुगादीणि सब्बो घरोवक्खरो, सहीणे जारिसो चेव मम परिच्छतो तारिसं चेव दलयामि, तेनोपचितो भुंजाहिमाई भोगाई मया विधीयमानानि, आउसो! पूजयामि ते, साम्प्रतमेभिर्वस्त्रादिभिः पूजयामि, पूजयीष्यामच त्वं, सर्वसच्चवशयिता भविष्यसि, किं चान्यत्-न च तवामाभिरभ्यर्थ्यमानस्य कृततपःप्रणाशो भविष्यति, कथं ?, 'जो तुमेणियमो चिण्णो सिलोगो ॥ १९९ ।। इंदियणोईदिएहि चीणों-कृतः भिक्खुभावंमि उत्तमो, भिक्खुभावो णाम पवजा. उत्तमो असरिसो, अगारमावसंतस्स सव्वसो चिट्ठती, तथा संविञ्जते वा, न विनश्यतीत्यर्थः, लोकसिद्धमेव ससुक्यस्स विपुलत्ता। किंचान्यत्-'चिरं दृइज्जमाणस्स' सिलोगो ॥२००॥ चिरं तुमे धम्मो कतो, दूइज्जता य णागापगारा देसा दिट्ठा, तनोवणाणि तित्थाणि य, 'दोप इदानीं कुतस्तव? किं त्वया चौरत्वं कृतं पारिदारिकत्वं वा?, अथवा दोसो पावं अधर्म इत्यर्थः स कुतस्तव ?, क्षपितस्त्वया, कृतं सुमहत्तपःपण य ते उप्पव्ययंतस्स वयणिजं भविस्सति, किं भवं चोरो परदारिगो चा?, ननु तीर्थयात्रा अपि कृत्वा पुनरपि गृहमागम्यते, एवमादिभिः हस्त्यश्वस्थवखादिभिः निमन्त्रणेच ते अणियल्लगा वाइवेवणं णिमंतेति णोयारेण व सूयरं' णीयारो पाम कुंडगादिया, स तेण णीयारेण हितो घरे सूयरगो अडविं ण वञ्चति मारिजति य एवं सोऽपि असारेहि णिमंतितो तो भोतुं मरणणरगादियाई दुक्खाई पावेंति । 'चोदिना भिक्खुचरियाए' सिलोगो ।। २०१॥ चोदिता नाम वेधिता तजिया बाधिता
॥११०॥
[123]
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आगम
(०२)
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [३], उद्देशक [२], नियुक्ति: [४५-५५], मूलं [गाथा १८२-२०३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] “सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
मंदविहादः
प्रत
तासचूर्णिः
सूत्रांक ||१८२२०३||
दीप
श्रीसूत्रक-| इत्यर्थः, चरणं चर्या-चक्वालसामायारी, जवइत्तएसिवा लाढेत्तिएत्ति वा एगहुँ, 'तत्य मंदा विसीदति उज्जाणंसि व दुबला'
| केइ आयसमुत्थेहिं केई परमसमुत्थेहि केई उभयसमुत्थेईि, ऊर्द्ध यानं उद्यान, तच्च नदी तीर्थस्थलं गिरिपम्भारोवा, तत्थ पुंगवावि य| Mआरुभंता सातिअंति, किमंग पुण दुबला दुप्पदा चतुप्पदावा ?, एवं केपि पव्ययंता चेत्र भावदुबला सीयंति, किं च-'अचयंता
य लूहेणं' सिलोगो ॥२०२॥ अचएता-अशक्नुवन्तः, लूहं दब्बे य भावे य, दब्ये आहारादि, भावलूहं संयम एव, तवोवधाणेण तञ्जिता अबहत्थिता, तत्थ मंदा विसीदति, पंके जीर्णगौः जरद्ववत् 'एयं णिमंतंणं लडु'सिलोगो ॥२०३॥ एतं णिमंतणंति जं हेढा भणिय, लधु-प्राप्तुं मुच्छिता विसएसु, गिद्धा इत्थिगासु, अज्झोववण्णा कामेसु, कामा-इच्छामदणकामाः, चोइजंता णाम णिन्मस्थिअंता परिस्सहेहि, णिमंतिजमाणा वा, गिहगयत्ति बेमि, पुनर्गृहं गत्वा पुनर्गृहस्थाभूत्वा इत्यर्थः, णिज्जुत्तीए वुत्तो || दुविधा उवसग्गा ओहे ओवकमे य, अज्झत्थविसीयणा य, स च बालपव्वहतो तरुणीभूतश्चिन्तयति-चिरकालं प्रव्रज्या दुष्करा कर्तुमित्यतो विसीदंति, दृष्टान्तः 'जहा संगामकालंमि' सिलोगो ॥२०४॥ येन प्रकारेण यथा, सखामकालो नाम सममि-1 चारितं युद्धं, तत्थ कोइ बञ्चंतो भीरु पच्छतो उवेहति 'वलयं गहणं णूम' वलयं णाम एकदुवारा गडा, परिक्खो वा वलयसंट्ठितो वलयं भण्णति, गृह्यते यत्तद्गहनं-वृक्षगहनं लतागुल्मवितानादि च, नूमं नामाप्रकाशं, जत्थ णूमेति अप्पाणं गड्डाए दरिए वा, 'को जाणेति पराजय'त्ति देवायचो हि पराजयो, 'मुहुत्ताणं मुहुत्तस्स' सिलोगो । २०५।। मीयतेऽनेनेति मुहर्तः, बहूनां हि मुहूर्तानां एकः मुहूत्तों भवति यत्र विजयो भवति पराजयो भवति वा, जयश्चेत् इत्यतः शोभनं, पराजयश्चेदित्यतो वरं पराजयतो अवसर्पिष्यामः, अवसापितो इति भीरू उबेहती, एस दिटुंतो, अयमर्थोपणयो-'एवं तु समणा एगे' सिलोगो॥२०६।।
अनुक्रम [१८२२०३]
॥११॥
अस्य पृष्ठे तृतिय अध्ययनस्य तृतिय उद्देशकः आरभ्यते
[124]
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आगम
(०२)
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [३], उद्देशक [३], नियुक्ति: [४५-५५], मूलं [गाथा २०४-२२४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] “सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
प्रत ।
अनागतभयादि
श्रीसूत्रकतानचूर्णिः ॥११२॥
सूत्रांक
॥२०४२२४||
| एवमनेन प्रकारेण 'तु' पूरणे, एगे, ण सव्वे, संजमे तैस्तैः प्रकारैः अवलं ज्ञात्वा अप्पगं 'अणागयं भयं दिस्स' अणागतं णाम अप्पत्तं, मा णाम एवं होजत्ति, ततः 'अबकप्पंतिम सुतं' अब च रक्षणादि, अवकल्पयंति अधीयंत इत्यर्थः,'इमानी'ति अर्थोपाजनसमर्थानि गणियणिमित्तजोइमवायसद्दसत्थाणि, 'को जाणति वियोवायं' सिलोगो ॥२०७॥ विउवातो णाम व्युपातः, सो उण इत्थीपरीसहातो भवति, पहाणपियणादिणिमिचं उदगाओ वा, वा पिकप्पे, जो वा जस्स पलिओवमादि, परिसहजिता अमुकेण लिंगेण कोंटलवेंटलादीहिं कजेहि अवृज्झाणेण चोदिअंता य वक्खामो, चोदिजंता-पुच्छिजंता, प्रायशः कुण्टलट्ठीओ लोगो समणे पुच्छति, तत्थ चरेस्सामो, विजामंते य पउंजिस्सामो 'णो ण अस्थि पकप्पियंति ण किंचि अम्हेहिं पुब्बोवजितं धणं पेइयं वा, एवं णचा पावसुतपसंग करेंति, 'इचेवं पडिलेहति ॥२०८॥ इति एवं इचेवं, पडिलेहंति णाम समीक्षते-संग्रहारेंति, भावम्गहणं भावणूमाई पडिलेहंति, "वितिगिंछासमावण'ति, किं संजमगुणे सकेस्सामो ण सकेस्सामोति, उक्तं हि-"लुक्खमगुण्डमणियतं कालाइकंतभोयणं विरसं।" दिटुंतो पंथाणं व अकोवितो, जहा देसिटो विगलपथे चितेंतो अच्छति-किमयं पंथो इच्छितं भूमि जाति ?, एगचोवि ण णिव्यहति, अकोविया अयाणगा, उक्ताः अप्पसत्था, इदाणिं पसत्था-'जे तु संगामकालंमि' सिलोगो ॥२०९॥ जेत्ति अणिदिडणिसे, तु विसेमणे, ज्ञाता णाम प्रत्यभिज्ञाता नामतः कुलतः शौर्यतः शिक्षातः, तद्यथाचक्रवपिलदेवा वासुदेवमाण्डलीकादयः, प्राकृनाथ वीरपट्टगेहिं बद्धगेहि सण्णबद्धवम्मियकवयउष्पीलियसरासणपट्टिया गहियाउधपथरणा समूसियधयग्या सूरा एवं चक्रवर्यादीनां पुरतो गच्छंति, सुरपुरंगमा न ते बलयादीणि पडिलेहन्ति, ते तु संपहारेंति "तरितव्वा च पइणिया मरियम वा समरे ममत्थएणं । असरिसजणउल्लावया ण हु महितब्बा कुले पसूयएणं ।।१।। परबलं जेतव्यं ।
KatihanmailmiREME
दीप अनुक्रम [२०४२२४]
॥११२॥
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आगम
(०२)
प्रत
सूत्रांक
॥२०४
२२४||
दीप अनुक्रम
[२०४
२२४]
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र - २ (निर्युक्तिः+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [ ३ ], उद्देशक [३], निर्युक्ति: [ ४५-५५], मूलं [गाथा २०४-२२४] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र -[०२] अंग सूत्र [०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि :
श्रीसूत्रकृ ताङ्गचूर्णिः
॥११३॥
मरियन्वं वा, व उ पिट्ठतो पेहंति, अपने जुद्धे जुद्धमाणे वा किं परं मरणं भवेत् ?, मरणादप्यनिष्टतमं अश्लाघ्यत्वं मरणादपि विशिष्यते भग्रप्रतिज्ञजीवितं, उक्तः प्रशस्तदृष्टान्तः, तदुपसंहारः प्रशस्त एव । 'एवं समुद्धतं भिक्खु' सिलोगो ॥ २१० ॥ सम्यग् उत्थितं समुत्थितं दव्वसमुत्थाणेण भावसमुत्थाणेण य, आगारबंधणं छिच्या अज्झत्थो, अव सीतयाणं 'आरंभं तिरियं कटु' ति दव्वे भावे वाऽऽरंभः, तिरियं णामादि, तिरिच्छं बोलेंति, अनुलोमेहिं दुक्खमतिक्राम्यंते नदी श्रोनोचत् परीसोपसर्गा, णिउणो व्वाणरजकखी, अत्तताए - आत्महिताय सर्वतो संबजेत्, सिद्धिगमनोद्यतेन मनसा, अथवा आतो-मोक्षो संजमो वा अस्यार्थः, आतत्थाए, अथवा आप्तस्यात्मा आप्तात्मा आप्तात्मैव आत्मा यस्य स भवति अप्पात्मा इष्टो वीतराग इव व्रजेदित्यर्थः, अज्झत्थविसीदणत्ति गतं । इदाणिं परवादवयणं, तं अतट्टाए परिव्ययंतं 'तमेगे पडिभासंति' सिलोगो ।। २११ ।। तमिति तं अतट्टयाए संबुर्ड रीयमाणं, एगे ण मच्चे, समंता भाति परिभासंति, आजीवप्रायाः अन्यतीर्थिका, सुत्तं अणागतोभासियं च काऊण बोडिगा, 'साधुजीवणं' ति णाम साधुवृत्तिः अपापजीवनमित्यर्थः, जे ते एवं भाति 'अंतर ते समाहिते' अंतर नामानाभ्यन्तरतः - दूरतस्ते समाधिए, णाणादिमोक्खो परसमाधी, अत्यन्ते असमाधौ वर्त्तन्ते, असमाहिए अकारलोपं कृत्वा, संसारे इत्यर्थः, किं प्रभाषन्ते ? 'संबद्धसमकपाओ' सिलोगो ॥२१२|| समस्तं बद्धाः संबद्धा-पुत्रदारादिभिर्ग्रन्थैर्गृहस्थाः संबद्धैः समकल्पाः तुल्याः इत्यर्थः, जहा गिहत्था माता मे पिता मेचि एवमादिभिः संगैर्बद्धा, अण्णमण्णसमुत्थिता णाम माता पुत्ते मुच्छिता पुतोवि मातरि एवं भक्तोऽपि शिष्याचार्यादिभिः परस्परसंबद्धाः, अन्यथेदं कुर्वता 'पिंडवातं गिलाणस्स, जं सारेध दलाव य' पिंडस्य पातः पिंडपातः भिक्षं, एवं पिडावायं गिलाणस्स आणेत्ता दधुं यच परस्परतः सारेध वारेध पडिचोदेध सेजातो
[126]
समुत्था
नादि
॥११३॥
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आगम
भाग-2 “सूत्रकृत" - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) (०२)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [३], उद्देशक [३], नियुक्ति: [४५-५५], मूलं [गाथा २०४-२२४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२] , अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत' जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
अनुवश
प्रत सूत्रांक ||२०४२२४||
श्रीसूत्रकताङ्गचूर्णिः ॥११४॥
स्वादि
दीप अनुक्रम [२०४२२४]
उहवेहनि, जं च गिलाणस्स आयरियबुड्डुमामाएसु आहारउवधिवसधिमादिएहि य उवग्गहं करेह एवं तुम्भे सरागत्या अण्णामपणमणुवसा' सिलोगो ।। २१३ ।। रागत्थिता सरागत्था सदोसमोहा, अन्योऽन्यस्य अनुगवा वर्श अणुब्बसा 'भट्ठसप्प-। धसभावा' शोभन: पंथा सत्पन्थाः ज्ञानादि, सतो वा भावः सद्भावः, सत्पथसम्भावो नाम यथार्थोपलंभः,'संसारस्स अपारगा' पारं गच्छंतीति पारगा न पारगा अपारगाः। एवं भासमाणेसु 'अह ते पडिमासेजा ॥ २१४ ।। अथेत्यानन्तर्ये तान् प्रतिभाषते 'भिक्खू मोक्खविसारदो' विसाग्दो नाम सिद्धान्तविनायकः, स किं पडिभासति !, एवं तुज्झेऽवभासंता दुवक्खं चेव सेवधा, दुपक्खो णाम संपराईयं कम भण्णति गृहस्थत्वं च, किंच 'तुम्मे भुंजह वाएसु' सिलोगो॥२१५।। तुब्भे जेहिं मिक्खाभायणेहिं भिक्खं गेहध तेहि आसंग करेह, आजीविका परातकेसु कंमपादेसु मुंजंति, आधारोवकरणसज्झायज्झाणेसु य
मुच्छं करेह, गिलाणस्स पिंडयातपडियाए गंतुमसमत्थस्स भत्तमंतेहिं कुलगेण वा अण्णतरेण वा मत्तेहिं अमिहर्ड भुंजेह, एवं " तुम्भेहिं पादपरिभोगेहिं बंधोऽणुण्णाओ भवति, अन्तग य कायवधो, सो य तुब्भ णिमित्तं आणतो भत्तिमंतोऽवि कम्मबंधेण" लिप्पति, पाणिपायपि ण कायव्वं जति पादे दोसो, स च किं तुब्भ देतो णट्ठसप्पधसब्भाव उदाहु सप्पधि वट्टति ?, अविण्णाणा य मिगसरिसा तुम्भे जेण असंकिताई संकथ संकितट्ठाणाई ण संकथत्ति,'तंच वीओदगं भोत्त'त्ति कन्दमूलानि ताव सर्य भुंजह, सीतोदगं पिबध, एवं पुढवितेउवाउवधे वट्टह, जं च छकायवधेण णिक उद्देसियं तं भुंजह, तुम्मे चेव गिहत्थसरिसा, पावतरा वा निहत्थेहि, येन ते गृहस्था अनभिगृहीतमिथ्यादृष्टयोऽपि भवंति, न तु भवंतः, जेण अभिग्गहितमिच्छदिट्ठिणो साधुपरिवायं च करेह, दवं खितं कालं सामत्थं च पुणो वियाणित्ता कीनकडच्छेजादिसुवि दोसा भाणितव्या, ते एवं असंजतेहितोऽवि पावतरा 1
॥११॥
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प्रत
सूत्रांक
||२०४
२२४||
दीप
अनुक्रम
[२०४
२२४]
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र - २ (निर्युक्तिः+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [ ३ ], उद्देशक [३], निर्युक्ति: [ ४५-५५], मूलं [गाथा २०४-२२४] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र [०२], अंग सूत्र -[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णिः
श्रीसूत्रताङ्गचूर्णिः
॥ ११५ ॥
कता समाणा महता अपत्तिए 'लित्ता तिब्बाभितावेणं सिलोगो ॥ २१६ ॥ तिव्याभितावो णाम तीव्रोऽमर्षः दंसणमोहणिञ्जकम्मोदएणं कोधमाणकसायोदएण य लित्ता, उज्झिता णाम शून्या, एतदेव व्याचष्टे अण्णा, पाणदंसणचरितेहिं असमाहिता, तैरेव विहीणा, 'णाइकंडुइयं साधु'ति जहा कंडुइयं साधुति तं अरुकस्स अवरज्झति पच्चुय पीडा हेतुत्वात् एवं साधुहीलणावि अपसस्था, अथवा 'लिता तिव्बाभितावेणं'ति तेण मिच्छादंमणावलेवेण लित्ता गुणेहिं शून्या बुद्ध्यादीहिं असमाहिता आतुरीभूता भणंति-जुत्तं णाम तुम्भेहिं अम्हे गिहत्थसरिसा काउं पापतरा वा, तेन त उच्यन्ते 'णातिकंडूइतं साधु' साधु णाम सुदट्ट, अरुअं | हि रुज्झमाणं खज्जड़, तं जति ण सुद्ध कंजड़ ततो गातिकंडुणो माधु अवरुज्झति अरुगस्स अरु अगतस्स वा, अर्थात् प्राप्तं अतिकंडुइति भृशमपराध्यते, नातिरूढवणस्य, एवं यद्यहं त्वया णातिनिष्ठुरं उक्तो भविष्यति ततोऽहमपि नातिनिष्ठुरमेवापदिश्यात् त्वया वाऽहं यत्किंचनप्रलापिनाऽसंबंधसमकल्पो व्यपदिष्टः, न चाहं तैर्गुणैर्युक्तो भवन्तस्तु कन्दमूलोदकभोजिनः उद्दिश्यकृतभोजिनश्च सच्छासनप्रत्यनीकाश्च तेन न कथं गृहस्थैः पापतरा इत्येवं 'तत्तेण अणुसट्टा ते ' सिलोगो ॥ २१७ ॥ तच तथ्यं सद्भूतं नानृतमित्यर्थः, अणुसट्टा णाम अणुसासिता, ते इति आजीविकाः वोडियादयो ये चोद्दिश्य भोजिनः पाखण्डा, 'अपडिण्णेणं'ति विसयकसायणियत्तेण जागरण एवं वृत्ता भमंति-'ण य एस णितिए मग्गे' णितिओ णाम नित्यः अव्याहतः एपः 'असमीक्ष्य वति किती ' कृतिर्नाम कुशलमतिः पौर्वापर्यसम्बन्धसम्भावार्थोपलम्भस्तु सर्वज्ञज्ञानात् युक्तः, अथवोपदेश एवायं तत्तेण अणुसङ्काए अपडिण्णेण जाणएचि, कमणुसङ्काए ?, ण एस णितिर मग्गे, न एव भगवतां नीतिको मार्गो, नीतिको नाम नित्यः, एष हि असमीक्ष्य भवद्भिरेव वाचा चटकरसा (भ्रात्रा वा कृतिः कृतः। किंचान्यत् 'एरिसा जावई एसा' सिलोगो || २१८ ||
[128]
तीम्रामितापादि
।।११५ ।।
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आगम
(०२)
भाग-2 “सूत्रकृत" - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [३], उद्देशक [३], नियुक्ति: [४५-५५], मूलं [गाथा २०४-२२४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत' जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
संबद्धसम
त्वादि
श्रीसूत्रकतानचूर्णिः ॥११६॥
प्रत सूत्रांक ||२०४२२४||
दीप अनुक्रम [२०४२२४]
एरिसा णाम येयमुक्ता तुम्भे संबद्धसमकप्पा वयं नेति, एपा निर्वाहिका, कथं ?,'अग्गिवेलुब करिसिता' वेल्लो हि मूले स्थिरः | अग्गे कर्षितः, एवमियं वाक् भवतां संकल्पस्थूला-निश्चयकृता न हि भवति, न संबद्धकल्पा, तथा चोक्तं, कंदमूलादि, उद्दिश्य| भोजित्वाच, यतश्चैवं तेन नैप भवतां वानिश्चयः सुन्दरः, अथवा एरिसा जा वई एसा अग्गे वेलुब्ध करिसितित्ति जहा धम्मी, कडिल्ले बंसो मूलच्छिण्णो न शक्यते अन्योऽन्यासंबंधत्वात् न शक्यतेऽधस्तात् उपरिष्टाद्वा कर्पित, अथासौ वंसो न णिब्धिहति,
एवं भवतामपि इयं वाक् न निर्वाहिका, तत्र अनिर्वाहिका गिहिणो अभिहिताः, शेपं भवतो हि सम्प्रतिपन्ना निर्मुक्तत्वात्संसारान्त । करिष्यामः, तन्न निर्वहति, कथं ?, यद्भवतां ग्लायतामग्लायतां गृहस्थः कन्दादीनां मात्रेणानयित्वा ददाति, तत्किल भोक्तुं श्रेयः,
न तु यद्भिक्षुणाऽऽनीतमिति, एपा हि वाड् भवतां न निर्वाहिका, कथं गृहस्था ईर्याति शोधयंति, आगच्छतो चास्य कश्चिद् व्यापादः स्यात् , कश्चानुक्त एवं चूयात् यथा 'गृहीणं अभिहई सेयं, मुंजितुं ण तु भिक्खुणो' किं च-'धम्मपण्णवणा एसा' सिलोगो ॥२१९ ॥ धम्मस्स पण्णवणा एसा साहिया, इदाणि धम्मपण्णवणा गिहत्थाणीय सेयं ण पबइताणीतमिति 'सारंभाण विसो. थिया' सारमा णाम निहत्था तेषां पापविशोधिका, न हि भवद्भयो ददतो विशद्धयन्ते, न तु प्रवजिताः दाणधम्मेण संयुज्यंते, | यसादानयंति ते गृहीभूत्वा यतयः पापेन संबद्ध्यन्ते, 'ण तु एताहिं दिहीहिं' नेति प्रतिपेधे, दृष्टिर्नाम ग्रहो, ण भवद्भिरेता| मिदृष्टिभिः पूर्वप्रकल्पितमासीत् , प्रकल्पितं प्रदर्शितमित्यर्थः, का दृष्टयः?, यादृशं किल गृहस्थानां तादृशमसाकमपि अन्योऽन्य किल सारयित्वा स्थेयं, न चानुकंपतामनुभवन्तोऽपि ग्लानकृत्यं गृहस्थैः कारयन्ति, अत्र तावदावयोः साम्य, येन भवन्तो गृहस्थैः | कारयन्ति प्रागुक्तं ग्लानस्य तत्कार्य, मा भूत् संबंधसाम्यकल्पा, न स्युरिति अभिविष्यत् , इदानीं स एव ग्लानो गृहस्थैः कारयन्
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भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [३], उद्देशक [३], नियुक्ति: [४५-५५], मूलं [गाथा २०४-२२४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] “सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
प्रत
श्रीसूत्रक
दयः
सूत्रांक
मागचूर्णिः
॥११७॥
||२०४२२४||
दीप अनुक्रम [२०४२२४]
तस्कृतमनुजानन्तः भवंतश्च तत्कारिणः तद्वेषिणश्च एतां दृष्टिं भावयन्तः कथं सम्बन्धसमकल्पा न स्युरिति, किं चातः?, एवं 'सबाहि॥ अणुजुत्तीहिं' सिलोगो ॥२२०॥ योजनं युक्तिः अनुयुञ्जत इति अनुयुक्तिः अनुगता अनुयुक्ता वा युक्तिः सर्वैः हेतुयुक्तिमिःतर्कयुक्तिभिर्या, अत एव अचयंता अशक्नुवन्तः 'जवित्तए'त्ति णिजट्टमित्यनर्थान्तरं, कथं ण चएति ?, यथा कश्चिद्भलीवई भग्नं वा उवमए, स च तं विचिक्रीपुः परेणोच्यते-उत्थाप्यतां तावदयं गौः, ततो यदि शक्ष्यति तत एव ग्रहीप्यामि, स जनो नेप शक्ष्यतीति | ब्रवीति-यदि ते रोचते एवमयं गृह्यता, नन्वेषोऽव्यंगशरीरो निरुपहतवपुर्व दृश्यते?, एवं सामयिक आह परूको वा, समय इति | परैरुच्यते, येन परीक्षामहे ततो ते किमत्र परीक्षया?, प्रत्यक्ष एवायं दृश्यते बहुजनपरिगृहीतः, ईश्वरस्वामिनं प्रतिपन्नाः, यदि
नवं तचं स्यात् नैवात्र बहुजनोऽतिप्रसञ्जते, लोकिका अपि त्रुबते-'आज्ञासिद्धानि चत्तार न हन्तव्यानि हेतुभिः। भारता | मानवा धर्माः, सांगो वेदचिकित्सितं ॥१।। एपामुत्तर:-एरंडकट्ठगसी जहेह गोसीसचंदणपलस्स । मोल्लेण होञ्ज सरिसे कत्तिय
मेत्तो गणिअंतो?॥१॥ तहवि णिगरातिरेगो सो रासी जह ण चंदणसरित्थो । तह णिविण्णाणमहाजणोऽवि सोज्झे विसंवदति ||॥२॥ एको सचक्खुगो जह अंधलयाणं सएहिं बहुएहिं । होति पहे गहिया वा बहुगावि ण ते अपेच्छंता ।। ३ ।। एवं बहुगावि
मूढा ण पमाणं जे गतिं न याणंति । संसारगमणगुविलं पिउणस्स य बंधमोक्खस्स ॥४॥"'ततो वादं णिराकिचा' ततः इति ततः कारणात् , वादो णाम छलजातिनिग्गहस्थानबर्जितः, निराकिच्चा णाम पृष्ठतः, वादं निराकृत्या, ते इति ते आजीविकाद्याः साम। यिकाः मस्कराश्च विविधाः प्रगम्भिता धृष्टीभूता इत्यर्थः, 'रागदोसाभिभूतप्पा' सिलोगो ॥२२१।। रज्यते येन आत्मपक्षेस रागः परपक्षे द्वेषः, अभिभूताः पराजिता इत्यर्थः, रागद्वेषाभ्यामभिभूतो येषामात्माते, मरुगा दोसामिभूयप्पा, मिच्छत्तेण अभि
॥११७॥
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भाग-2 “सूत्रकृत" - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [३], उद्देशक [३], नियुक्ति: [४५-५५], मूलं [गाथा २०४-२२४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] “सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
आक्रोश
प्रत
श्रीसूत्रक- ताङ्गचूर्णिः ॥११८॥
HTHEggami sang
शरणादि
सूत्रांक
||२०४२२४||
दीप अनुक्रम [२०४२२४]
या' अमिभूया इत्यर्थः, त एवं उक्ताः रोषानललोहिताक्षाः भृशममर्पोद्गमप्रस्पंदिताधरोष्ठाः जिता अवदातहेतुभिनिर्ग्रन्थपुत्रैः पराजिताः 'अकोसे सरणं जंति' प्रायेण दुर्बलस्य रोपो उत्तरं भवति आक्रोशश्च, रुदितोत्तरा हि खियः बालकाच, क्षात्युत्तराः साधयो, दृष्टान्तः 'टंकणा इव पव्वतं' टंकणा णाम म्लेच्छजातयः पार्वतेयाः, ते हि पर्वतमाश्रित्य सुमहन्तमवि हस्थिवलं वा अस्सवलं वा आगलिन्ति, पराजितास्तु शीघं पर्वतमाश्रयंति, कुतीर्थाः पराजिताः आक्रोशयंति यष्टिमुष्टिभिश्वोत्तिष्ठन्ति, न ते प्रत्याक्रोष्टव्याः इदमालंचनं कृत्वा-"अकोसहणणमारणधम्मभंसाण घालसुलभाणं । लाभ मण्णति धीरोजधुत्तराणं अलाभंमि ॥१॥ बहुगुणप्पकप्पाइ. सिलोगो ॥२२२॥ गुणा पकप्पिजति जेहिं ताई गुणप्पकप्पाइं, गुणप्पकप्पो णाम येनात्मपक्षः प्रसाध्यते, परपक्षश्चोभासीयते, अथवा सर्वपरीक्षकाविरुद्धो दृष्टान्तोऽबाध्यो हेतुर्वा, उक्तंहि-"लौकिकपरीक्षकाणां यसिन्नर्थे बुद्धिसाम्यं स दृष्टान्तः, हेतुप्रतिज्ञादयः, आतसमाहितो वत्तए, आत्मसमाधिर्नाम दबं खित्तं कालं समत्थं चप्पणो वियाणित्ता इति, अथवा के अयं पुरुषे कं च णतेत्ति, एवं तथा यथाऽत्मनो समाधिर्भवति, उक्तं हि-"पडिपक्खो णायव्वो०" अथवा आत्मसमाधिर्नाम यथा परतो घातो न भवति बाधा वा, किंच-'जेणऽण्णे ण विरुद्धज्ज' येन चोक्तेन अण्णस्स उवघातो ण भवति, तथा प्रतिज्ञादयो वक्तव्याः यथा च सिद्धान्तविरुद्धा न भवंति, कथं विरुध्यते ?, यो व्यान् त एव हि कृतोद्दिश्यभोजित्वाद् गृहितुल्याः, साधवस्तु मूलोत्तरगुणोद्यता: शरीरे चानपेक्षाः, ततश्चातिप्रसक्तस लक्षणस्य निवृत्तये त्वपदिश्यते 'इमं च धम्ममायाय' सिलोगो ।।२२३।। अथवा तैः परतन्त्रैरपदिष्टं-ध्यानकृत्यं हि न कर्त्तव्यं, मा भूत् संबद्धसमकल्पः, तदेनमपदिश्यते 'इमं च धम्म' न यथा भवतां निरनुकंपो धर्मः, अस्माकं हि इमं च धम्ममादाए कासवेण पवेइयं, अथवा ये ते उक्ता उपसर्गा एते हि अग्लायता सोढव्याः, ग्लायतो हि
a PANILIPINSTITCHIMSHERE
॥११८॥
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आगम
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भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [३], उद्देशक [३], नियुक्ति: [४५-५५], मूलं [गाथा २०४-२२४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] “सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
श्रीयत्रक- ताङ्गचूर्णिः । ॥११९॥
प्रत सूत्रांक ॥२०४२२४||
द्रव्यपरीपहा भवंति, न ग्लायमानस्य न कर्त्तव्यं, कथं-'इम इदं च धम्ममादाय इति यद्वक्ष्यामः। तं धर्ममादाय-गृहीत्वा 'कास- धर्मादावेण पवेदिदं' कासवग्रहणातीर्थकरणैवेदं प्रवेदितं, न तु स्थविरैः, किंचान्यत् 'कुर्यात् भिक्खू गिलाणस्स' ग्लायते रोगेणा-16 न्यतरेण वा प्रथमद्वितीयादिपरीपहादिना, अगिलाणेण-अनाहितेन अव्यथितेन राजाभियोगवत् 'समाधिए'त्ति आत्मनः समाचिहेतोः कर्त्तव्यं, ग्लानस्य वा अथवा समाधीए कायब्वं, ण मणोदुक्कडेण, किंच-न केवलं उबसग्गा एव अहियासेयव्या ज्ञात्वा | सोढव्याः 'संखाय पेसलं धम्म' सिलोगो ॥२२४॥ संखा अट्ठविधा, तंजहा-णामसंखा ठवणसंखा दबसंखा उवम्मसंखा परिणामसंखा गणणासंखा जाणणासंखा भावसंखा, तत्थ जाणणासंखाए अधियारो, संख्याय-ज्ञात्वा, पेसलं दच्चे भावे य, दवे । दव्वं पीतिमुत्पादेति आहारादि, भावपेसलस्तु सर्ववचनी यदोषापेतो भव्यानां धर्म एव, सो धर्मों दुविधो-सुतधम्मो चरित्तधम्मो य, कस्य तौ प्रीतिमुत्पादयेयातां ?, दृष्टिमानिति दृष्टिमतः, सम्यग्दृष्टिः परिनिर्वृत्तः सीतीभूत इत्यर्थः, उबसग्गे अधियासेयब्वे उपसर्गा ये उक्ताः ये च वक्ष्यमाणाः तान् सर्वानिधियासयन् सहन्नित्यर्थः, आमोक्षाय परिसमाप्तेः समन्ता 'वयेजासि' परिवयेजासि, मोक्षो द्विविधः-भवमोक्षो सम्बकम्ममोक्खो य, उभयहेतोरपि आमोक्षाय परिव्रजेदिति त्रीमि । उपसर्गपरिज्ञायां तृतीयोद्देशकः ४-३॥
वृत्तं निज्जुत्तीए हेतुसरिसेहिं अहेउएहि, हेत्वाभासरित्यर्थः, कथमहेतवो हेतुसदृशाः ?, वक्ष्यति हि सुहेण सुहमजेमो० वणिजयत् , तथा च 'जहा गंडं पिलागं वा' एवं सीलक्खलिया अण्णउत्थिया तब्भावुकाश्च 'आहंसुरिति ॥२२५॥ आहुः, के ते?| महापुरिसाः पहाणा पुरिसा, राजानो भूत्वा वनवासं गत्वा पच्छा णिव्वाणं गताः, 'पुत्विं तत्ततवोधणा' पुन्यमित्यतीते काले ॥२१९॥
दीप
अनुक्रम [२०४२२४]
अस्य पृष्ठे तृतिय अध्ययनस्य चतुर्थ उद्देशकः आरभ्यते
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भाग-2 “सूत्रकृत" - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [३], उद्देशक [४], नियुक्ति: [४५-५५], मूलं [गाथा २२५-२४६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-०२] “सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
नम्यादयः
प्रत | श्रीसूत्रक
ताङ्गचूर्णिः सूत्रांक ||२२५- ॥१२०॥ २४६||
४ उद्देशः
दीप
कचित्रेतायां द्वापरे च, तप एव धनं तपोधनं, तप्तं तपोधनं यैः त इमे तत्ततवोधणा, पंचाग्नितापादि लोइयाणं ते ते महापुरिसा, आस्माकं तु यदा सामन्नं प्रतिपन्नाः तदा महापुरिसा, भोचा सीतोदकं सिद्धा' सीतोदगंणाम अपरिणतं, तेण सोयं आयरंता पहाणपाणहत्थादीणि अमिक्खणं सोएता तथाऽन्तर्जले वसंतः सिद्धि प्राप्ताः सिद्धाः, एवं परंपरश्रुतिं श्रुत्वा अस्नानादिपरीषहजिताः 'तत्थ मंदे विसीदति तत्रेति तस्मिन्नस्नातकवते फासुगोदयपाणे वत्ति,तथिमे अभुंजिया णमी वेदेही एमाउत्ते य भुजिया। बाहुए उदयं भोचा तहानारायणे रिसी।।२२५|| आसिले देविले चेव, दीवायणमहारिसी। पारासरा दगं भोचा, वीताणि हरिताणि य ॥२२६॥' 'एते पुर्वि महापुरिसा' ॥२२७॥ प्रधानाः पुरिपाः महापुरिषाः आहिता-आख्याता, इह संमत'ति इहापि ते इसिभासितेसु पढिजंति, णमी ताव णमिपञ्चजाए सेसा सन्चे अण्णे इसिभासितेसु, असिले देविले चेवत्ति बंधाणुलोमेण गतं, इतरथा हि देवल आसिल इति वक्तव्यं, एतेसिं पत्तेयबुद्धाणं वणवासे चेय वसंताणं वीयाणि हरिताणि य भुंजंताणं ज्ञानान्युत्पन्नानि, यथा भरतस्य आदंसगिहे णाणमुप्पणं, तं तु तस्स भावलिंग पडिवण्णस्स खीणचउकम्मस्स गिहवासे उप्पण्णमिति, ते तु कुतित्था ण जाणंति कस्मिन् वर्तमानस्य ज्ञानमुत्पाद्यते कतरेण वा संघतणेण सिज्झति ?, अजानानास्तु ब्रुवते. ते नमी आद्या महर्षयः भोचा सीतोदगं सिद्धाः, भोचेति भुंजाना एव, सीतोदगं कन्दमूलाणि वा, जोई च समारंभंता, जहमेतमणुस्सुतं'ति भारहपुराणादिसु एवं एताहि कुसुतीउत्रसग्गेहिं उबसग्गिजमाणे, ण केवलं सरीरा एव उवसग्गा, माणसा अपि उपसर्गा विद्युते, यां श्रुतिं श्रुत्वा मनसा विनिपातमापद्यते, कथं ?, उच्यते 'तत्थ मंदा विसीदति ॥२२८ ।। तस्मिनिति कुश्रुतिउपसगोंदये मंदा-अयुद्धयः विसीतंति-फासुएसणिजे छक्काएसु अपरिहरितव्वेसु, दिलुतो 'वाहच्छिण्णा व गहभा'।
अनुक्रम [२२५२४६]
॥१२॥
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प्रत सूत्रांक
||२२५
२४६||
दीप
अनुक्रम
[२२५
२४६]
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र - २ (निर्युक्तिः+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [ ३ ], उद्देशक [४], निर्युक्ति: [ ४५-५५], मूलं [गाथा २२५-२४६ ] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र -[०२] अंग सूत्र [०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि :
श्रीसूत्रक वाहूचूर्णिः ॥१२१॥
मारेणेत्यर्थः, खंधेन पृष्ठेन वा, एवं ते परसामयिका कर्मगुरुगा उक्खमणुण्डमणियतं एरिसेण लहेण अजवेत्ता अस्नानादि ताव संजमगुणे य गुरुए अचइत्ता वोढुं स्वरितमोक्षाध्वगानां साधूनां लघुभूतानां पीडाभ्यां परिसर्पतीति पीडसप्पी, संभ्रमति तस्मि विति संभ्रमः, जनस्यान्यस्य त्वरितमग्गिभयात् पस्सितुकामो किल पीढसप्पी दूरातोज्झितोऽपि जणं वा वचतं पितोऽणुवयति एवं तेऽवि किल संसारभीरखो मोक्षप्रस्थिताः सीतोदगादिसंगात् संसार एवं पति । इदानीं शाक्याः परामृश्यन्ते - इहमेगे तु | मण्णंते सातं सातेण विनती ||२३०|| सायं णाम सुखं श्रोतादि तं सातं सातेणेव लभ्यते, सुखं सुखेन लभ्यत इत्यर्थः, वयं सुखेन मोक्षसुखं गच्छामः, दृष्टांतो वणिजः, तुम्भे पुण परमदुक्खितत्वात् 'जितत्थ आयरियं मग्गं' जिता नाम दुःखप्रत्रज्यां कुर्वाणा अपि न मोक्षं गच्छत, वयं सुखेनैव मोक्खसुक्खं गच्छामः इत्यतो भवंतो जिता, तेनास्मदीयार्यमार्गेण 'परमं 'ति समाधित्ति मनः समाधिः परमा, असमाधीए शारीरादिना दुःखेनेत्यर्थः । 'मा एतं अवमण्णंतो' सिलोगो ॥ २२९ ॥ अमाणोणाप्रतिषेधे, अथ तदुद्धप्रणीतं सुखात्मकं मार्गमत्रमन्यमानाः आत्मानमात्मना पंचयंते इत्यर्थः, दूरं दूरेण सुखातो, लुंह छिन्दध, दितो 'एतस्स अमोक्खाए अयहारीब जूरंथ' त एवं वदंतः प्रत्यंगिरादोपमापद्यंते, कथं १, 'इहमेगे तु मण्णता सातं साते ण विजते,' इहेति इह निर्बंधशासने, सातं साते न विद्यते, का भावना १- नहि सुखं सुखेन लभ्यते, यदि चैवमेवं तेनेह राजादिनामपि सुखिनां परत्र सुखिना भाव्यं, नारकाणां तु दुःखितानां पुनर्नर केनैव भाव्यं तेन साया सोक्खस्संगे न; 'जिता नाम शिरस्तुण्डमुण्डनमपि कृत्वा सम्यगमार्गमास्थाय मोक्षं गच्छंति, परमं च समाधि ता मोक्खसमाधि, इह वा जाडसंगसमाधि, उक्तं हि"नैवास्ति राजराजस्य तत्सुखं नैव देवराजस्य । यत्सुखमिहैव साधोलोकव्यापाररहितस्य ॥ १ ॥ " " मा एयं अव मण्णता' अमानोनाः
[134]
सातहेतुसातादि
॥ १२१ ॥
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आगम
(०२)
भाग-2 “सूत्रकृत" - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [३], उद्देशक [४], नियुक्ति: [४५-५५], मूलं [गाथा २२५-२४६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सूत्रकृत' जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
श्रीसत्रक-
झुरणादि
वाचूर्णि:
॥१२२॥
प्रत सूत्रांक ||२२५२४६||
दीप
प्रतिषेधे, 'एतंति' एतं आरुहंत मग्गं अवमणता आत्मानमात्मना बहुं परिभविजह-लुपह बहुं, को दृष्टान्तः ?,'एचस्स अमोक्खाए अयहारिव जूरथ' कथं ?, जेण तुम्मे वा 'पाणातिवादे वर्दृता' सिलोगो ॥२३२|| स्यात्-कथं प्राणातिपाते वर्तामहे ?, येन पचनानि पाचनानि चानुज्ञातानि, उक्तंहि-पचंति दीक्षिता यत्र, पाचयंत्यथवा परैः। औद्दशिकं च भुजंति, न स धर्मः सनातनः ॥१॥" मुसावादेवि असंजता संजतंति अप्पाणं भणध, अदत्तादाणे च जेसि जीवाणं सरीराई आहारैति तेहिं अदत्ताई आएह, धेनूनों वत्सवृद्ध्यै नियुजितुं मेथुनेऽपि प्रेष्यगोपशुवर्गाणां, परिगहेऽपि धनधान्यग्रामादिपरिग्रहः, एवं कोधमाण जाव मिच्छादंसणसल्ले इति, एवं ताव शाक्याः अन्ये च तद्विधाः कुतीर्थाः, 'एवमेगे तु पासस्था' सिलोगो ॥२३।। एवमवधारणे 'एते' इति शाक्याः अन्ये च तद्विधाः, पार्वे तिष्ठन्तीति पार्श्वस्थाः, केषां ?-अहिंसादीनां गुणानां णाणादीण च सम्मईसणस्स चा, किं ?पण्णवेंति विसयणिग्याते सुहेण सुई, अथवा इमं पण्णवेति दगसोयरियादयो, सुखलिन्भवो अजितेन्द्रिया 'इत्थीवसगता याला जिणसासणपरम्मुहा' किं पण्णावेंति-विसयणिग्यातणे तु कजमाणे णस्थि अधम्मो अप्पणो परस्स वा सुखमुत्पादयतः, अप्पेवं धर्मो भवति, नत्वधर्मः, को दृष्टान्तः १, 'जधा गंड पिलागं वा' सिलोगो॥२३४।। जहा कोई अप्पणो परस्स वा गंडं पिलागं णिप्पीलेत्ता पुव्वं पूर्व सोणितं वा णिस्सावेतित्ति को अधम्मो ?,एवं जो कोई इस्थिशरीरे शुक्रविषयनिर्घात कुर्यात् तत्र को दोषः स्यात् , 'एवं विपणवणीत्थीसु' एवमनेन प्रकारेण विज्ञापना नाम परिभोगः, एकाथिकानि आसेवना, दोपः तत्र कुतः स्यात् , किंच 'जहा मन्धातइए णाम' सिलोगो ।।२३५।। मंधातई णाम मेसो, सो जहा उदगं अकलुसेन्तो य जण्णुएहि णिसीदितु गोप्पएवि जलं अणदुआलंतोवि पियति, एवमरागो चित्तं अकलुसेन्तो जइ इस्थि विष्णवेति को तत्थ दोसो', उक्तं च-"प्राप्तानामु
अनुक्रम
[२२५
२४६]
॥१२२॥
[135]
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आगम
(०२)
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [३], उद्देशक [४], नियुक्ति: [४५-५५], मूलं [गाथा २२५-२४६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] “सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
श्रीमत्रकवाचूर्णिः ॥१२३||
प्रत सूत्रांक ||२२५२४६||
पभोगः शब्दस्पर्शरूपरसगन्धानाम्" किंच 'जहा विहंगमा पिंगा' सिलोगो ॥२३६॥ विहायसा गच्छंतीति विहंगमा, पिंगासीविक्षपना | पक्खिणी, आगासेण चरंती, उदगे अनिलीयमाना अविक्खोमयंती तं जलं चंचूए पिचति एवं विष्णवणिस्थीसु, एवमरजमाणो यदि संप्राप्तान् भोगान् भुंजीत अत्र को दोषः १, उत्तरदाणं-णणु तेसिं आसेवणा चेव संगकरणं, मेधुणभावं आसेवामित्ति, 'जह णाम मंडलग्गेण सीसं छेत्तूण कस्सई पुरिसो। अच्छेज पराहत्तो किंणाम तत्तो ण घेप्पेज॥१॥ अथवा विसगंहसं कोई | घेतूण णाम उण्डिको । अण्णेण अदीसंतो किं नाम ततो णवि मरेजा ।।२।। जद्द वावि सिरिघरातो कोई रयणाणि णाम घेत्तूर्ण ।
अच्छेज पराहुत्तो किं णाम ततो ण घेप्पेज ॥३॥"एवं तु समणा एगें सिलोगो ॥२३७।। एवमनेन प्रकारेण, तु विसेसणे; | नासदीया, परे, एकेत्ति परेपामपि न सर्वे, एके, मिथ्यादृष्टयः अनार्या मिच्छाद्दिवीअणारिया, अथवा मिथ्याष्टित्वेऽपि कर्ममि| रनार्याः, अझोववष्णा कामेदि, दुविहेहिवि कामेहिं, दिट्ठतो 'पूअणा इव तपणए' पूयणा णाम उरणीया, तस्या अतीव तण्णगे | छावके स्नेहः, ततो जिज्ञासुभिः कतरस्यां २ जातौ प्रियतराणि स्तन्यकानि?, सर्वजनानां छावकानि अनुदके कूपे प्रक्षिप्तानि, ताश्च सर्वाः पशुजातयः कूपतटे स्थित्वा सच्छावकानां शब्दं श्रुत्वा रंभायमाणास्तिष्ठति, नात्मानं कूपे मुंचति, तत्रैकया पूतनया आत्मा मुक्तः, त एवं पूतना इव तरुणे(ष्णए)मुचिता गिद्धा कामेसु 'अणागतमपासंता सिलोगो।।२३८।। अनागतकाले किपाकफलाहास्वत् विषयदोपानपश्यन्तः 'पच्चुप्पण्णविसयगवेसणा' णाणाविहेहिं उवाएहिं विसयसुहं उप्पार्यता ते पच्छा अणुसोयंति' ते इति अण्णउत्थिया परलोकं प्राप्ता अनुशोचंते देवदुर्गतौ यत्र वाऽन्यत्रोपपद्यते, दृष्टान्तः 'खीणे आऊमि जोषणे' यथातिक्रान्तवयसः क्षीणेंद्रियशरीरबुद्धिवलपराक्रमाः नानाविधैः क्रीडाविशेषैः तरुणान् , वयमप्येवं क्रीडितवन्तः, तीवमनुशोचयन्ति, ॥१२३॥
दीप अनुक्रम [२२५२४६]
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आगम
(०२)
भाग-2 “सूत्रकृत" - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [३], उद्देशक [४], नियुक्ति: [४५-५५], मूलं [गाथा २२५-२४६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-०२] "सूत्रकृत' जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
PASHAINDE
प्रत
श्रीसूत्रताङ्गचूणि ॥१२४॥
सूत्रांक
||२२५२४६||
दीप अनुक्रम [२२५
एवं तेऽपि परलोकं प्राप्यानुशोचन्ति, इह च मरणकाले, न अस्माभिजितेन्द्रिय भावितं वैराग्यं वा, उक्तं हि-'हतं मुष्टिभिराकाशं, कालपरा
क्रमादि तुषाणां कुटनं कृतम् । यन्मया प्राप्य मामुष्य, सदर्थे नादरः कृतः॥१॥ उक्तं बहु चरित्रंच, स्वार्थचन प्रहावितः। ते चैवमन्वशोचन्त, | यथा के ?, उच्यते, 'जेहिं काले घेरिकांत' सिलोगो ॥ २३९॥ जे इतिणा अणिदिणिदेसे, कालो नाम तारुण्यं मध्यम वयः, यो वा यस्य कालो ध्यानस्याध्ययनस्य तपसो वा, तेपामेकेषां सुकृतं नाम श्रामण्यं, त एव च श्रमणाः त एव मोक्षाकांक्षिणस्त। एव साधवो सार्मिका या 'ते धीरा बंधणुम्मुक्का त ऐव धीरा त एव बंधविमुक्का,-बंधनं कलत्रादि कर्म वा, ये किं कुर्वन्ति ?, 'जे णावखंति जीवितं' पुब्धतरपुव्यकीलितादि अर्सेजमजीवितं न-बांछति । 'जहा णदी घेयरणी' सिलोगो. ॥२४०॥ | 'यथेति येन प्रकारेण वेगेन तस्यां तरंतीति वेतरणी नाम परोक्षाः अवादिषुः सा हि तीक्ष्णश्रोतस्त्वात् विपमतटत्वाच, दुःख| मुत्तीर्यते इति दुस्तरी, सर्वलोकप्रतीत एवासौ, पाखण्डिनां च केपांचित् , 'इहे'ति इह प्रवचने, वक्ष्यमाणमपि च 'जह तं शादी |वेतरणी'-दुत्तरा एवं लोगंसि नारीओवि दुत्तराओ, एवमनेन प्रकारेण सर्वोपसर्गेभ्योऽनुलोमेभ्यः प्रतिलोमेभ्यश्च दुस्तरतरा नार्यः, | ता हि नानाविधैविभाषविलासरुत्तितीपूनभिभवंति, वैतरण्यामिव तत्रैव तत्रैव निमजापयंति, ता हि दुक्खं द्रव्यभावतः परिहियंते, 'अमतीमय'ति न मतिमान् अमतिमान् तेनामतिमता, 'जेहिं ते णारिसंजोगा' सिलोगो ॥ २४१॥जे इत्य निर्दिष्ट निर्देशः, " त्रिविधा नार्यः, नारीभिः संयोगा नारीसंयोगाः मैथुनसंसर्गा इत्यर्थः, 'पूयणा -पिट्टतो कत'त्ति पूयणा नाम बखानपानादिभिः । स्नानाङ्गरागादिभिश्व शरीरपूजनात् , उक्तं हि-"णो सायांसोक्खपडिबद्धे भवेजा", अथवा त एव नारीयोगाः पूतना पातयति धर्मात्, पातयंति वा चारित्रमिति पूतनाः, पूतीकुर्वन्नित्यर्थः, पृष्ठतो कृता नाम उज्झिता, 'सबमेवं णिराक्रिचा' सर्वमिति येऽन्ये उपसर्गाः । ॥१२४॥
२४६]
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आगम
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भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [३], उद्देशक [४], नियुक्ति: [४५-५५], मूलं [गाथा २२५-२४६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-०२] "सूत्रकृत' जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
श्रीसूत्रका
ओघतरणादि
प्रत सूत्रांक ||२२५२४६||
क्षुत्पिपासासीतोष्णादयः निरा नाम पृष्ठे कृत्वा, अथवाऽनुलोमाः प्रतिलोमाश्व, सोभणाए समाहिए ण उबसग्गेहि खोहिजति, किं तानाचूर्णिःच 'एते ओहं तरिस्संति' सिलोगो ॥२४२।। एते णाम जेहिं एते इस्थिपरीसहादयः उपसर्गा जिताः, द्रव्यौधः समुद्रः भावौ॥१२५।। घस्तु संसारः, तरिस्संति ते, नान्ये, न पा भावेन, दृष्टान्ते 'समुदं ववहारिणो' समुदतुल्यं समुद्रवत् , व्यवहरंतीति व्यवहारिणो
वणिजः पोतैस्तरंति, 'जत्थ पाणा विसण्णेसी' यमिन्-यत्र एते पापण्डाः गृहस्थवभावं गताः विषयजिता विपण्णा आसंते |
गृहिणव, इह परत्र च "किचंती सह कम्मुणा' कृत्यन्ते विपद्यंत इत्यर्थः, 'नं च भिक्खू परिणाय' सिलोगो।। २४३ ॥ ADI दुविहाए परिणाए परिज्ञाय जाणणापरिणाए उनसग्गपरीसहे जाणिता पचक्खाणपरिणाए उहितो ते अहियासेमाणु 'सुबते। | समिते चरे' समितिग्रहणात् उत्तरगुणा गृहीताः, मूलगुणा पुण इसे 'मुसावादं विवजेज' कस्मान्मृपावादः पूर्वमुपदिष्टः? न प्राणातिपात इति, उच्यते, सत्यवतयतो हि व्रतानि भवति, नासत्यवतो, अनृतिको हि प्रतिज्ञालोपमपि कुर्यात् , प्रतिज्ञालोपे च सति किं व्रताणामवशिष्ट ?, तं मुसाबादं विसेसेण वजए विवञ्जए, अदिण्णादि च बोसिरे, अदिण्णमादि यस्थाश्रवगणस्य मोऽयं अदिण्णाद्याश्रवगणः तं अदिनादि विवजए, संजहा-पाणादिवादादि जाव परिग्रह, प्राणातिपातप्रसिद्धये वपदिश्यते 'उड़े अहे तिरिय वा' सिलोगो ॥२४४॥ ऊर्ध्वमधस्तिर्यगिति क्षेत्रमाणातिपातो गृहीतः,जे केई तसथावरा इति द्रव्यप्राणातिपातः"सर्वन्ने'ति प्राणातिपातभावश्च सर्वावस्थासु 'विज विद्वान् सर्वत्र विरतिं विद्वान कुर्यात् इति वाक्यशेपः, विरति एव हि 'संति णिचाणमाहितं | विरतीउ वा विरतस्स वा संति णिवाणमाहितं, शान्तिरेव निर्वाणमाख्यातं संति व्याणमाहितं, अहवा संतित्ति वा णिव्वाणति वा मोक्खोति वा कम्मखयोति या एगट्ठा, तेनापदिश्यते संति णिबाणमाहितं, उक्ता उपसर्गाः, ते च सर्व एव सोढव्याः, आत्म
दीप
अनुक्रम [२२५२४६]
॥१२५॥
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आगम
(०२)
भाग-2 “सूत्रकृत" - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [३], उद्देशक [४], नियुक्ति: [४५-५५], मूलं [गाथा २२५-२४६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] “सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
श्रीसूत्रक
प्रत सूत्रांक ||२२५२४६||
ताङ्गन्चूर्णिः स्त्रीप० अ०४ ॥१२६॥
दीप
संचेतनीयोपसर्गापवादस्तु नोऽशरीरो धर्मों भवतीतिकस्वा 'इमं च धम्ममायाय, कासवेण पवेदितं । कुजा भिक्खू गि- निक्षेपाः लाणस्स, अगिलाए समाहिए ॥२४५।। संवाय पेसलं धम्म, दिहिमं परिणिब्बुडे। उवसग्गे णिराकिचा, आमोक्खाए परिवएजासि ॥२४६॥ त्तिवेमि उपसर्गाध्ययनं समा ३।। (ग्रन्थाग्रं ३०००)
इदाणि इस्थिपरिणत्ति अज्झयणं, उवकमादि चत्तारि अणुयोगदारे परूवेऊणं अत्याधियारो, सो दुविधो-अज्झयणस्थाधियारो उद्देसत्याधियारो य, अज्झयणस्थाहियारो जाणणापरिणाए तिविधाउवि इथिगाउ जाणियव्यत्ति, पचक्खाणपरिणाए । ताओ परिहरितव्याओ, उद्देसत्याधियारे इमा गाहा 'पढमे संथवसंलावाइएहि' गाहा (५६) पढमे उद्देसए यथा-येन प्रकारेण संवाससंथवेण संबद्धवसधिमादीहि य दोसेहिं गमणागमणमादि पुच्छाहि य उल्लावसंलावभिण्णकथाहि य इत्थीहि सद्धिं सीलक्खलणं भवति, पढमुद्देसे विलंवणा उ लभति चोदिज्जते, वितिए उद्देसए खलितो समणधम्माउ विलंबणा पाविज्जति लिंगत्थो होन्तो, स वा लिंगाओ अपं वा लिंग वा सपक्खपरपक्खातो य हीलणं पावति । णामणिप्फण्यो णिक्खेवे इथि परिण्णा य दुपदं णाम, तत्थित्थीए 'दवाभिलावचिंधेगाथा ॥५४॥ जाणगसरीर० भवियसरीर०, वतिरित्ता दुविधा-मूलगुणणिवत्तणाणिव्यत्तिया य उत्तरगुणनिवत्तणानिवित्तिया य, मूलगुणे इत्थिसरीरगं जदं जीवेणं, उत्तरगुणे कट्ठकम्मादिसु, अथवा दवित्थी तिविधा-एगभविया बद्धाऊ अभिमुहपामगोचा, अभिलावत्थी जहा साला माला वेला सिद्धी इत्यादि, वेदि(विधि)त्थी अवगतवेतं इस्थिशरीरगं, तं पुण छउमस्थस्स केवलिस्स वा, वेदित्थी इस्थिवेदं वेयमाणी, भावित्थी आगमतोणोआगमतोय, आगमतो इस्थिवेदजाणओ तदुवउत्तो, (णोआगमतो) इथिवेदणामगोताई कम्माई वेयमाणो जीवो, इथि भणिया । इदाणि परिणा, सा जहा ॥१२६॥
अनुक्रम [२२५२४६]
H
अस्य पृष्ठे चतुर्थ अध्ययनं आरभ्यते
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आगम
(०२)
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [४], उद्देशक [१], नियुक्ति: [५६-६१], मूलं [गाथा २४७-२७७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
प्रत
सूत्रांक ||२४७२७७||
श्रीसूत्रक- HD| सत्थपरिणाए, जहा संजताणं इत्थिपरिण्णा तथा संजतीर्ण पुरिसपडिण्णा, इत्थीपडिपक्लो पुरिसो, तेण तस्स वि णिक्खेवो भाणि-10 निक्षेपाः साङ्गचूर्णिः | तब्यो 'णामं ठवणा दविए'गाथा ॥५५।। णामे जहा घडो पडो कलसो, ठवणापुरिसो कट्टकम्मादिकता जिणपडिमा वासुदेव-1 ॥१२७॥ | पडिमा एवमादि, दब्वे जाणगसरीरादि जहा इत्थी तथा भणियवं, खेत्ते जो जत्थ खेत्ते पुरिसो, जहा सोरहोसावगो मागधो
वा एवमादि, यस्य वा यत् क्षेत्र प्राप्य पुंस्त्वं भवति, अन्यत्र न भवति, कालपुरुषोऽपि यावंतं कालं पुरुषो भवति, जहा "पुरिसे गं भदंते ! पुरिसोति कालो केवइ चिरं होति ?, जहणोणं एगं समयं उकोसेणं सागरोवमसयपुहुतं" यो वा यस्मिन् काले पुरुषो भवति(जहा कोइ एगमि पक्खे पुरिसो)एगम्मि पक्खे णपुंसगो, प्रजन्यते अनेनेति प्रजननं तद्यस्यास्ति, केवलमस्ति न पुंस्त्वं स प्रजननपुरुषः, कम्मपुरुसो नाम यो हि अतिपौरुषाणि कम्माणि करोति यथा वासुदेवः स कर्मपुरुषः, भोगपुरिसो चक्कचट्टी, गुणपुरिसो णाम यस्य पुरुषगुणा विद्यते इमे, तद्यथा-व्यायामो विक्रमो वीर्य, सत्वं च पौरुषा गुणाः। कान्तित्वं च मुदुत्वं वि(च)विधक(च)त्वं च योषितां ॥१|| भावपुरिसो आगमतोपोआगमतो य,आगमतो पुरिसो पुरिसजाणगो तदुवउत्तो, णोआगमतो पुरिसणाम| गोताई कम्माई वेदयंतो, दस एते पुरिसणिक्खेवा इति । 'पढमे संथव' गाथा ।। जेऽभिहिता पढमे संथवसंलावादिगेहिं पुन्बुत्तं । 'सूरा मो मण्णंता'गाथा ॥५७।। सूरा मो मण्णता इथिहि अपडिविरतित्ति वाक्यशेषः, कैतवं नाम माया कैतवयुक्ताः कैतविकाः, उवधी नाम अन्येषां वशीकरणं,अधिका कृतिः निकृतिः नियट्टी तत्प्रयोगात् गहिता तु अभयपज्जोतकूआधारा(कूलवाला)दिणो [सरो पञ्जोतो केतवयारो तवस्सी] एवमादिणो जीवा इस्थिदोसेण इह परभवे य णाणाविधाई दुक्खाई पायंति हत्थपायछेदादीणि, 'तम्हाण उ वीसंभो गंतबो णिचमेव इत्थीणं । पढमुद्देसे भणिताजे दोसा ते गणंतेणं ॥५८॥ सुसमत्वाविऽसम- ॥१२७॥
दीप अनुक्रम [२४७२७७]
अस्य पृष्ठे चतुर्थ अध्ययनस्य प्रथम उद्देशक: आरभ्यते
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आगम
(०२)
भाग-2 “सूत्रकृत" - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [४], उद्देशक [१], नियुक्ति: [५६-६१], मूलं [गाथा २४७-२७७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[२] “सूत्रकृत' जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
शूरविचार:
श्रीसूत्रकप्रत ।
ताङ्गचूर्णिः सूत्रांक ॥१२८॥ ||२४७२७७||
जत्था कीरति अप्पसत्तिया पुरिसा। धन्म प्रत्यसमों, अपसलिया नाम परीसहभीरुणो, 'दिस्संति सूरवादी णारीवसगा
ण ते सूरा ॥५९।। रणसुरवादिणोऽवि णारीवसगा दीसंति जहा ते पचोदादयो, को पुण सूरो?, उच्यते-धम्ममि जो दढमई सो सरोसत्तिओ य वीरो याण हु धम्मिणिरुच्छाहो पुरिसो सूरो सुबलिओवि ॥६०॥ जो धम्ममि दढो सूरो सत्तिगोय,ण उ। जो धम्मणिरुत्थाहो धर्म प्रति सूरो भवति, यद्यपि बलवानसौ सरीरेण तथाप्यसौ दुर्बल एव, एते चेव य दोसा पुरिसपमादेवि इत्थिगाणंपि । तम्हा उ अप्पमादो विरग्गमगंमितासिपि ॥६१॥ पुरिसोत्तरिओ धम्मोत्तिकाउं तेण इत्थीपरिष्णा बुत्ता, इत्थीणवि एसा चेव विचरीता पुरिसपरिण्णा, गयो णामणिप्फण्णो । सुत्ताणुगमे सुत्तमुच्चरियव्वं अखलितादि जाव पंचधा वित्तिलक्षण| मिति, सुत्तस्स सुत्तेण संबंधो-'आमोस्खाय परिव्यएजासि'त्ति पडिलोमे उपसग्गे अधियासेन्तो 'इमे इत्यन्ये अनुलोमाः, उपोद्घात
एव तसोपदिश्यते-पूर्व प्रव्रजति पश्चादुपसर्गान् सहतीतोऽपदिश्यते 'ये मातरं च पितरं च वृत्तं ॥२४७॥ 'ये' इति अणिहिट्ठ| णिद्देसो चशब्दोऽधिकवचनादिपु, भ्रातरं भगिनीत्यादि, विविधं प्रधाय विप्रधाय तृणमिय पटांतलग्नं, पूर्वसंयोगो गृहसंयोगः, अथवा । जातः सन् यैः पश्चात्सह संयुञ्जते स संयोगः, स तु भार्याश्च पुत्रदुहित्रादि, अथवा सर्व एवं पूर्वापरसहसंबंधः पूर्वसंयोगो भवति, अथवा द्रव्यभावतः पूर्वसंयोगो, द्रव्ये खजनसंथवो नोखजनसंस्तवश्व, स्वजने पूर्वापरसंम्तवः, नोखजनसंस्तवखिविधः-सचित्तादि, | सचिते दुपदचतुप्पदापदं,द्विपदे दासीदासभृत्यमित्रवर्गादि, चतुष्पदे हस्तिअश्वगोमहिप्यादि, अपदे आरामोद्यानपुष्पपालादि,अचित्ते | हिरण्णादि मिथे साधारणालंकारप्रहरणहस्त्यश्वादि, भावे मिच्छत्ताविरतिअण्णाणा 'एगे सहिते चरिस्सामि' एगो णाम राग| दोसरहितो, सहितो णाणादीहि, आत्मनो वा हितः स्वहितः, चरति-गच्छति वर्तयतेत्ति एकोऽर्थः, विविक्तान्येपतीति विवित्तेसी
दीप अनुक्रम [२४७२७७]
॥१२८|
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आगम
(०२)
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [४], उद्देशक [१], नियुक्ति: [५६-६१], मूलं [गाथा २४७-२७७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
विविक्तैषि
प्रत
तादि
श्रीसूत्रवाङ्गचूर्णिः ॥१२९॥
सूत्रांक ||२४७२७७||
मार्गयतीत्यर्थः विविक्तानां साधूनां मार्गमेपतीति विविक्तपी, आरतमेहुणो नाम उपरतमैथुनः, कतर आरतः ? 'विवित्तेसी विवित्तं द्रव्ये शून्याकार स्त्रीपशुवर्जितं भावे तत्संकल्पवर्जनता, अथवा कर्मविवित्तो मोक्खो तमेवमेषतीति विवित्तमेसी, सुहुमेणं तं परकम्म' वृत्तं ॥२४८॥ सुहुमेनेति-निपुणेन, उच्यते येनेति वाक्यशेषः, परकम्म'त्ति पराक्रम्य अभ्यासमेत्य वंदणपूर्वकेन सूक्ष्मेनोपायेन 'छन्नपदेनेति अन्यापदेशेन, पुत्तकिडगा य णत्तुयभातीकिडगा य पीतकिडगा य । एते जोव्यणकीडगा पच्छनपती महिलियाणं ।।१।। अथवा 'छन्नपदेने ति छन्नतरैरभिधानैराकारैश्चमं अभिसर्पति, तद्यथा 'काले प्रसुप्तस्य जनाईनस्य, मेहां| धकारासु च सर्वरीषु । मिथ्या न भाषामि विशालनेत्रे!, ते प्रत्यया ये प्रथमाक्षरेषु ॥१।। जाणंति ता उवायं च, उपायो नाम विविक्तविश्रंभरसोहि कामः, स तु एको आत्मद्वितीयो या, गच्छगतस किं करिष्यति ?, तस्यैव देशकालं छ(4)च 'जह लिस्संति'चि येन प्रकारेण लिश्यन्ते संबध्यंत इत्यर्थः, एके, न सर्वे, अन्ये हि स्त्रीजनालिङ्गिताः अपि न ताभिः संबध्यते, पवनयलसमीरिता वहिज्याला इस चैनां मन्यन्ते, ते तूपाया इमे-यथा यथा ह्यग्निः सन्निकृष्टो भवति तथा तथा दहति, इत्येवं मत्वा 'पासे भिसं णिसीयंति' वृत्तं ॥२४९।। भृशं नाम अत्यर्थे, प्रकर्पण उरुणा ऊरूं अकमिया, दूरगता हि नातिस्नेहमुत्पादयन्ति | विधभदा, तेण अद्धासणे णिसीदंति, सनिकृष्टा वा परि जमाणा पुसा पुष्यन्तेऽनेनेति पोषक तबिमित्तं वा कामिभिर्वखानपानादिभिः पुष्यत इति पोपकं-पोसं, वत्थं णाम णिवसणं, तमभीक्ष्णं अभीक्ष्यमायासबद्धमपि शिथिलीकृत्वा परिहिति, णिविट्ठा उद्वित्ताउ य आसजगताउ य होइऊण 'कायं अधिविदंसेन्ति' जंघा दुन्निवि हुद्धक्खणे वा जणणेण द्विता वा संती णिवेयंति गुह्यमिति | प्रकाश्य पुनलिमवेति, बाहु उद्दु नाम उत्सृज्य कक्षा परामृशति, एवमादीनि अन्यान्यपि भ्रूकटाक्षविक्षेपादीनाकारान् करोति,
दीप
अनुक्रम [२४७२७७]
२९॥
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भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [४], उद्देशक [१], नियुक्ति: [५६-६१], मूलं [गाथा २४७-२७७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[२] “सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
प्रत सूत्रांक ||२४७२७७||
दीप
किं च-'सयणासणेहि जोगे वृत्तं ॥५०॥ तमेकाकिन व्याकुलसखायं वा मत्वा सयणे णिमंतेति, सयणं णाम उवस्सयो, सीतं ।
Si इदाणिं, साहु अंतो, अतीवगिम्हे वा मत्वा सयणे णिमंतेति, धूलि वा कतवरं वा उबसग्गाउ णी0ति, अण्णतरं वा समजणवरिसी॥१३०॥
यणाति उवसग्गपरक्कम करेति, 'आसणेणं ति पीढएण वा कट्ठमएण वा आसंदएण णिमितेति, 'योग्य'मिति यस्मिन् काले हितं निवातं प्रवातं वा स्यात् , किमासां भिक्षुणा प्रयोजनं ? नन्वासामन्ये कामतंत्रविदः तत्प्रयोजनिनश्च गृहस्था विद्यन्ते, उच्यते हि कुयोपितो विधवा विप्रवसितधवाः, तासां हि विरूपोऽपि तावद्वयोस्थोऽतिकाम्यो भवति, दुर्मुखोऽप्यघार्थिकोऽपि एकान्तरुचिरपि, किमु यः सरल सुरूपो विचक्षणः, उक्तं हि-"माधुर्य प्रमदाजने च ललितं०" ता हि सन्निरुद्धाः सधवा विधवा वा, आसनगतो हि निरुद्धाभिः कुब्जोऽन्योऽपि च काम्यते, किमु यो स कोविदः, उक्त हि-"अंबं वा निवं वा अभ्यासगुणेण आरुभति वल्लीं।" दूरस्थं चैनं मत्वा ब्रूयात्-अम्हे हि ण सकेमो सकम्मा दिणओ वंदितुं णमंसितुं वा, इमाणि अम्ह सयणाणि वा, अथवा योग्यग्रहणात् उच्चारपासवणचंकमणत्थाणज्झाणओयणभूभीओ घेप्पंति, सा जइ कदाइ सड्डी भवेजा जाणइ जाई साधुजोगाई 'इत्थी
एगता णिमंतेति' एकमिन् काले एकदा, यदा यदा स एकाकी भवति व्याकुलसखायो चा, अथवा वरिसारचादिसु जत्थ सयसणासणोपयोगो भवति, सयणमिति संथारगो घेप्पति, उबस्सओबि, एताणि चेव से जाणे पासा उ विरूवरूवाई' एतानीति
यान्युपदिष्टानि शयनासननिमन्त्रणानि स भिक्षुः पासयंतीति पासा त एव हि पासा दुच्छेद्याः, न केवलं हावभावभ्रूविभ्रमेंगितादयः, न हि शक्यमुल्लंघयितुं, न तु ये दानमानसत्काराः शक्यन्ते छेतु, उक्तं हि-"जं इच्छसि घेतुं जे पुचि ते आमिसेण गिहाहि । आमिसपासणिबद्धो काही कजं अकजंपि ॥शा" 'विविधरूवाई ताई पुण पासाणि विरूवरूवाणि, संबधनउपगृहनआलिंगना
अनुक्रम [२४७२७७]
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भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [४], उद्देशक [१], नियुक्ति: [५६-६१], मूलं [गाथा २४७-२७७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] “सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
श्रीसूत्रकवाङ्गचूर्णिः ॥१३॥
प्रत सूत्रांक ||२४७२७७||
दीणि, जहा ताणि परिहरणीयाणि तथा तब्भयादेव सयणासणणिमंतणादीणि परिहरितवाणि, ताणि पुण कह परिहरितव्वाणि ', दृष्टिपरिहा| उच्यते 'णो तासि चक्खु संधेजा' सिलोगो ॥२५१|| चक्षुसंधणं णाम दिट्ठिए दिहिसमागमो, अकुट्ठउ विकटुओवि य तासुन | णिचं भवेजा, कार्येऽपि सति अस्निग्धया दृष्ट्या अस्थिरया अवज्ञया चैता ईपनिरीक्षते, 'साहसमिति परदारगमनं, नासाह| सिकस्तत्करोति, संग्रामावतरणवत् , तत्र हि सद्यो मरणमपि, स्यात् हस्तादिछेदबंधघातो वा, स्वदारमपि तावद्दीक्षितस्य साहसं, | किमु परदारगमनं ?, अथवा साहसं-मरणं, प्राणान्तिकेऽपि न कुर्यात् , अथवा यदसौ स्त्री चापल्यात् साहसं कुर्यात्तदस्या न सम. | नुजानीयात् , उक्तं हि-"पुरुषे विद्यते सच"मिति, 'न सज्झियंपि विहरेजा नेति प्रतिषेधे,'सज्झिय'ति ताहिं सह, गामाणु| गाम ण विहरेज, जत्थ वा ताओ ठाणे अच्छति तत्थ ण चिट्टितचं, कयाइ पुन्धि ठितस्स झत्ति एजा ततो णिग्गंतव्वं, क्षणमात्र
मपि न संवस्याः, 'एचमप्पा रखित्त सेउत्ति आत्मेति सरीरमात्मा च, स इह परेच लोके अतिरक्षितो भवति, ये इह मैथुना| नाचारदोषास्तस्य न भविष्यतीत्यतो निरीक्षितो भवति, पुनरिदानी पाशाः 'आमंतिय ओसवियं वा घृत्तं ॥२५२।। काचित् सन्निकृष्टगृहवासीनी सेजायरी प्रातिवेशिकी वा अहनि विरहाचलंभात् ब्रूयाद्-अहं निश्यागमिष्यामि, नास्ति मेऽद्वनि क्षणो विरहो वा, तद् अस्या न समनुजाणीयात् , धर्म श्रोतुमितरप्रयोगेन वा, यदि चेत् मम भर्तुः शंकसे तत एनमहं आमन्व्य नाम पुच्छिउँ | तत्प्रयोजना बसि तं स्थापयित्वा, अथवा ब्रूयात्-असावहनि कृप्यादि कर्मपरिश्रान्तः भुक्तः सन् निपन्नमात्र एव मृतवच्छेते, भद्रक | एवासौ, न मम रुस्सिहितित्ति, जइवि में परपुरिसेण सह गच्छमाणि पेच्छति तहावि नवि रूसेजा, अथवा संकेतेत, ननु ते भान | विरूप्येत ?, सा ब्रवीति-आमंतिय ओसवियाणं, आमंतिथ ओसविया च तमहमागता, तुन्भे वीसत्था होह, विविक्तविश्रंभरसो हि ॥१३१॥
दीप
अनुक्रम [२४७२७७]
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भाग-2 “सूत्रकृत" - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [४], उद्देशक [१], नियुक्ति: [५६-६१], मूलं [गाथा २४७-२७७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] “सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
शरीराप
णादि
प्रत | श्रीमत्रक
वाचूर्णिः
॥१३२॥ ॥२४७२७७||
सूत्रांक
दीप अनुक्रम [२४७२७७]
कामः, यच पृच्छसि किमागताऽसि-अकाले इति ? तं धर्म श्रोतुं, त्याद्वा ममाऽऽणत्तियं देह यन्मया कर्त्तव्यमिति, शुश्रूषापादशौचम्रक्षणादि, यद्वा किंचिदसद्गृहेऽस्ति तत्सर्वमहं च भवत्संतकं 'आयसा' नाम आत्मसा, अप्पएणवि णिमंतेति तुभं चयं इम शरीरगं, अहं ते चलणोवधानकारिया, एवं भिन्नकहादीहि.सम्बन्धः, सम्बधनालिङ्गानउपगूहनकंठवलंबणादीणि चा कुर्वती निवा| रिता ब्रूयात-'कुत्र वा ममान्यत्रोक्योगो, एतानि चेव से जाणि सदाणि' एतानीति यान्युद्दिष्टानि 'से' इति स भिक्षुः, शब्दा नाम | ये शब्दादिविषयाः कथिता, न केवलं गीतातो शब्दा वर्जा, आत्मनिमन्त्रणादयो हि सुदुस्तराः शब्दाः, अथवा यानि सीत्कारा| दीनि सद्दाणि कजति तान्येवैतानि विद्धि निमन्त्रणादीणि शब्दानि, पढंति च-'सदाणि विरूवरूवानि तासु हि पंचलक्खणा विसया | संति विभासियब्वा, विविधं विसिटुं वा रूवं, विरूवाणि रूवाणि जेसिं ताणिमाणि विरूवरूवाणि-'गाह पिय कंत सामिय दइत वसुल होलगोल ! गुणलेहि । जेणं जियामि तुम्भं पभवसि तं मे सरीरस्स ॥१॥ इमानि चान्यानि शब्दानि 'मणबंधणेहिणे'वृत्तं | ॥२५३॥ मनसो. बंधनानि मनोवंधनानि, तानि तु गतयश्च निरन्तरा रूवमंदा यस्मिन् करुणमाकारतो वाक्यतश्च, विनीतवत् वन्दन| पूजन पादादिसंचाधनं 'उपकत्ता' अल्लिइत्ता 'अदु मंजुलाई भासंति' मणसि लीयते मनोऽनुकूलं वा मंजुलं, मदनीयं वा मंजुलं, |मितमधुररिहितजंपुल्लएहि ईसी कडक्खहसितेहिं । सविकारेहि विरागं हितयं पिहितं मयच्छीए ॥१॥ भेदकरी कथा भिण्णकहा, |तंजहा-तुमंसि किंवत्तवीवाहो पब्वइतो ण वत्ति, वृत्तवीवाह इति चेत् कथं सा जीवति त्वया विनैवंविधरूपेनेति, कुमार इति चेत्,
अनपत्यस्य लोकान संति, किं ते तरुणगस्स पन्चजाए ?, दारिका परिजसु, मया वासह मुंज भोए, स्यात्कथं वैराग्यं वा? काम| भोगपरंपराज्ञः, भुक्तभोगः कुमारगो वा तत्प्रयोजनात्यन्तपरोक्षः आनम्यते, कथं ? 'सीहं जहा व कुणिमेणं' वृत्तं ॥२५४॥
atma
atha
॥१३२।।--
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(०२)
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [४], उद्देशक [१], नियुक्ति: [५६-६१], मूलं [गाथा २४७-२७७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सूत्रकृत' जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
एकवारि
श्रीसूत्रक
Dयेन प्रकारेण यथा सहस्रिकोऽपि स्कन्धावारः सिंहेनैकेन भजते, क्वचिच पन्थाः सिंहेन दुर्गाश्रयेण निःसंचरः कृतः, स च तद्भप्रत | साचूर्णिः हणोपायविद्भिः पुरुपैः छगलकं मारयित्वा तद्गोचरे निक्षिप्य पाशं च दद्यात् , तेन कुणिमकेन बध्यते, एकचारी नाम एक एवासौ सूत्रांक ॥१३३।। चरति, न तस्य सहायकृत्यमस्ति, उक्तं हि-'न सिंहवृन्दं भुवि दृष्टपूर्व"एवेत्थिया बंधंति' भावबंधेन, द्रव्यसंवुत्तो हि समुद्र
कूर्मों, पिहिता आश्रवा यस्य भावतः, स तु संवृत्तः भावकचरः, द्रव्यतो भाज्याः, पाशाः कूटादयः, भावपाशास्त्विमे-गतिविभ्रमे||२४७
|गिताकारहास्पादयः, यैर्भायो पाश्यते, संवृतोऽपि तावद्वध्यते, किन्नु योऽल्पवृत्तिरिति, अह तत्य पुणो नमयंतिसिलोगो।।२५५॥ २७७||
तस्मिन्निति तत्र, मूच्छित इति वाक्यशेपः, असंजमनतं पुनरने कैरुपायैर्नमयन्ति यद्यदिच्छंति तत्कारयन्ति, यथा रथकारः नेमिकाष्ठं तक्षन क्रमशो, यदि स एवं नतः 'यद्धे मिए व पासेण' यथाऽसौ मृगः पाशेन बद्धः मुमुक्षुः स्पन्दमानोऽपि न मुच्यते एवमसावपि विपयदानद्धः कुकुटुम्बकृतचीहिं व्याप्रियमाणोऽपि पुनर्विजिहीपुरपि न शक्रोत्यवसपितुं क्रव्यगृद्ध इव सिंहा, भावगाय,
| कुकुटुम्बव्यापारः कृष्यादिभिः व्याप्तः, कर्मभच्छिताः 'अह सऽनुतप्पती पच्छा' वृत्तं ॥ २५६ ॥ यथा कथिजनो जानन् । अनुक्रम
अजानन् वा विपमिश्रं पायसं भुक्त्वा तत्परिणामे वेदनोदये भृशमनुशोचते, एवं विवागमणिस्सा एवमिति योऽयमुक्तः विवागो [२४७
दारभरणादिपरिकेशः, विवेग इति चेत् भवति विवेच्यते येन भवः कर्म वा स विवेगः-संयमः एवं विवेगमानात, स्त्रीभिः संगमो
न कार्यः, काष्ठकर्मादिस्खीभिरपि तावत्संबासो न कल्पते, किमु सचेतनामिः १, दविओ नाम रागदोसरहितो, एगतो वासः संवास: २७७]
तदासणे वा संवसतो संथवसंलावादि, दोसा असुभभावदर्शनं भिन्नकथा वा स्यात् , उक्त हि-तदिन्द्रियालोचनसक्तद्रव्या:०"तम्हा उ बजए इत्थी' वृत्तं ॥२५७।। तसात्कारणात् इन्थी तिविधा, कथं वजए ? 'विस लित्तं कण्टगं णचा' विषेण दिग्धो विष
दीप
PASANAMEDIAS
॥१३३॥
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आगम
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भाग-2 “सूत्रकृत" - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [४], उद्देशक [१], नियुक्ति: [५६-६१], मूलं [गाथा २४७-२७७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[२] “सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
यशवत्ति
प्रत
।
सूत्रांक
||२४७२७७||
दीप अनुक्रम [२४७२७७]
श्रीसूत्रक- दिग्धः आगंतुना सहजेन वा, अविपदग्धोऽपि तावत् परिहियते, किं पुनः सविप इति, सतु मरणभयात परिहियते, खियस्त संय- ताङ्गचूर्णिः
ममरणभयात् , किंच-'ओये कुलाणि वसवत्ति' ओयो णाम रागदोसरहितो, वसे वर्चत इति वशवतीति, पूर्वाध्युषित्वात् यदु॥१३४॥
च्यते तत्कुर्वन्ति ददति वा, स्त्रियो वा येषां वशे वर्तन्ते, किं पुनः खैरस्त्रीजनेपु, वश्येन्द्रियो वा यः स वशवर्ती, गुरूणां वा वशे वर्त्तते इति वशवर्ती, आघाति नाम आख्याति गत्वा २ धर्म निष्केवलानां स्त्रीणां असहितानां पुंसां, असावपि तावन्न निर्ग्रन्थो भवति, किमु यस्ता मिनकथं कथयति ?, यदा पुनर्बद्धा सहागता पुरुपमिश्रा वा वृन्देन वा गच्छेयुः तदा स्त्रीनिन्दा विपयजुगुप्सां अन्यतरं वा वैराग्यकथं कथयति, कदाचिद् अयात-यदिवा गृहमागंतुं न कथयसि तो भिक्खपाणगादिकारणेणं एजह, दृष्टिविश्रामनामपि तावच्चां दृष्ट्वा करिष्यामः, अपश्यत्या हि मे त्वां शून्यमेव हृदयं भवति, एवमुक्त्वा वा 'जे एवं इच्छं अणुगिद्धा'
वृत्तं ।।२५८॥ जे इति अणिदिणिद्देसो, एतदिति यदुक्तं गिहिणिसेजे, जे वा एवंविधाणि इच्छंति गवसंतेत्यर्थः, अणुप्रयायते, इम एतदपि तावद्भवतु यदि रहो नास्ति समागमो बा, 'अग्णयरा उ ते कुसीलाणं' पासत्थादीणं कुत्सितसीला कुशीला पासत्था
दयः पंच माव वा, पंचति स पासत्थउमण्णाकुसीलसंसत्तअहछंदा, णवत्ति एते य पंच इमे य चत्तारि-काथिका मामकः प्राश्निका संप्रासारिका, स्वीसमागमाद्वा को दोपः?, उच्यते, 'सुतवस्सिएवि भिक्खू अथवा अन्यतरो वा भवति कुशीलानां सुष्ठु तपस्सिनः सुतपस्सिनः योऽपि ताव तपोनिष्टप्तविग्रहः स्यात् मासोपवासी वा द्विमासोपवासी वा अथवा श्रुतमाभृतः सुतमहिज्जतो गणी वायगो वा, नो प्रतिषेधः, विहारो नाम नक्तं दिवा वा शून्यागारादि पइरिकजणे वा खगृहे 'सहणं'ति देसीभासा सहेत्यर्थः, एवं ज्ञात्वा स्त्रीसंबद्धा वसधी वर्मा, कूटचारो दृष्टान्तः, कतरा स्त्रियो वर्जा ?, उच्यते, असंकनीया अपि तावदर्जाः, किमु शङ्क
॥१३४॥
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भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [४], उद्देशक [१], नियुक्ति: [५६-६१], मूलं [गाथा २४७-२७७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] “सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
प्रत सूत्रांक ||२४७२७७||
दीप अनुक्रम [२४७२७७]
श्रीसूत्रक
| नीयाः, तथथा-'अवि धूअराहिं सुण्हाहिं' सिलोगो॥२५९॥ अवि विसेसणे धूयरो पुत्तिया ताहिं, पुत्तवहुणो मुण्डा, जइएकान्ततानचूर्णिः नाम सुण्हा, धीयत इति धाती, दासीग्रहणं व्यापारक्लेशोवतप्ताः दास्योऽपि वाः
विषमता
, किमुत स्वतत्रा खैरसुखोवेता, महल्लीहि वा ॥१३५।। कुमारीहिं' महल्ली वयोऽतिक्रान्ताः वृद्धाः, कुमारी हि अप्राप्तवयसा भद्रकन्यकाः, संथवो उल्लावसमुल्लावहास्यकन्दपंक्रीडादि।
मातृभिर्भगिणीभिश्व, नरस्यासंभवो भवेत् । बलवानिन्द्रियग्रामः, पण्डितोऽप्यत्र मुह्यति ॥१॥ स्याकिमत्र', 'अउ णातीणं |च सुहीणं च'वृत्तं ॥२६०॥ अदुरिति अथवा णातीणं वा णातयो णाम कुलघरे वसंतीए पितृभ्रात्रादयः, अथवा स्त्री येषां दीयते | त एव तस्याः सगोत्रा भवन्ति ज्ञातकाच, सुहिणो णाम जे सन्नायका मित्राः, तेपामप्रियं भवति, यद्यपि प्रतिषेधयंति 'एकदा'
कदाचित , उभ्रामिकेयं उक्ता वा यात्-एप पुत्रमस्तको यथा, नैतत्सत्यं, सा च तस्मिन्नर एवातिमून्छिता यात्-मा मे पुन।। रेवं वक्ष्यसि, गिद्धत्ति पासत्ति वा मुच्छिएत्ति वा एगट्ठा, बयादिति वाक्यशेपः, त्यात् अहो इमीसे वयं रक्खपोसणे करेमो, इमो
पुण सेसमणुओ मणुस्सकजं करेइ, भणिज वा-हे खमण ! इमीसे रक्षणपोसणं करेहि, त्वमेवास्या मनुष्यः इति, एस तुमे सद्धि | दिवस उल्लाविंती अच्छइ, अयमपरः कल्पः-हे खमण ! रक्खणपोसणे मणुस्सो भवति, न कहाहिं, किंच-अन्येनाप्युदरे कृते | दंडायाः सोऽपदिश्यते-तत्वमेवास्या रक्षणपोषणं कुरु, मनुष्योऽसि, राउले च ते कडामो, अथवा भणेज-हे साधु ! एसा अम्हचिया गिद्धा सत्ता तुमंसि अम्हे णो आढाति णो परिजाणति, नरकस्त्वं, एनां रक्षणेन पोपणस्त्वमेणां, पोपणेन मनुष्यस्त्वमस्याः, किंच-समणंपि दटुदासीणं' वृत्तं ।। २६१ ।। कदाचिदसौ तस्मिन् रूपयति साधौ गृद्धा स्वरसौष्ठयोपेते वा गृद्धा तश्चित्ता शवम्मणा अच्छेज, अभिक्खणं वा अमिक्खणं तम्मि तेण दीसेज पडिचोदिजंति वा अच्छीयमाणी, तथैवाह-सयणं दद्रुदासीणं, ॥१३५॥
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सूत्रांक
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भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र - २ (निर्युक्तिः+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [ ४ ], उद्देशक [१], निर्युक्तिः [५६ - ६१], मूलं [गाथा २४७-२७७] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र -[०२] अंग सूत्र [०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि :
श्रीसूत्रकृ ताङ्गचूर्णिः
॥१३६॥
B
तमपि तथैव तचितं तम्मणं स्वाध्याय ध्यानप्रत्युपेक्षणादिसंयम करणोदासीणं तिष्ठन्तं दृष्ट्वा जानानाश्च यथैपोऽस्याः निमित्तेन संयमकरणोदासीणो चिट्ठति, तत्थवि ताव एगे कुप्पंति, भणति वा किमेवं अज लक्खसि ?; अन्यथा च पय्यते 'समपि दद्धुदासीणि उदासीणी णाम येषामप्यसौ भार्या न भवति, बान्धवीया अपि पदार्थादिषु तां च पोषितुं, किमु यस्यासौ भार्या बान्धवी वा तामगणयंती, अथवा 'उदासीन' मिति उदासीनमपि भावात् श्रमणं दृष्ट्वा स्त्रीसहगतं एके कुप्यंते, किंमु सविकारप्रायमिति, 'अदु भोयणेहिं णत्थेहिं' न्यस्तानि - उपनीतानि उपेत्य नीतानीत्यर्थः, न गृहिणो, तस्स हत्थाओ- वा, सो य धणगसमणगो गिहिणीसेजवाही वा भिक्खाए आगतो, अथवा न्यस्तमिति तद्गतमनसं द कूरो दत्तो न तावद् व्यञ्जनं, सवागतः स तत्रातिसंभ्रमेणातुरीभृता सावातकस्यान्यस्य वा दातव्यं तं न प्रयच्छति, अन्यस्मिँश्च दातव्ये कर्त्तव्ये वा अन्यत्प्रयच्छति करोति वा, निदर्शनं जहा - कहिंचि गामे पदोसे गड्ढे गट्टेण तालिते मद्दले काइ वधू ससुरादीए परिवेशंती भायणेसु दिण्णेसु कुरमानेति, ताय तण्डुला इतिकाऊण राइआउ अवस्सीयाउ, ततो जाए करोतिकाउं ससुरस्स उक्किण्णाउ, सो य आणक्खेतुं तुसिणीओ, महत्थिया संचिति, पतिणा से अस्सादेतुं पिट्टिता, एवं तंपि साधुणिमित्तं संभंतं दद्रूण गृहिपु आत्मसु वा नादृतां तस्याः भोतकाद्या इत्थदोससंकिणो भवति, इत्थीदोसो णाम व्यभिचारिणी, स्यादेवंविधाः अपि दोषाः कस्यचित् दृष्टा अभूवन् भवन्ति वा?, ओमित्युच्यते, 'कुव्वंति संघवं नाहिं' वृत्तं ॥ २६२॥ संथवो णाम गमणागमणदाणसंप्रयोगप्रेपणादिपरिचयः, 'ताभि'रिति तामिः खीभिः, भड्डा णाम णाणदंमणचरिचजोगेहिं, जओ एते दोसा 'तम्हा समणा उ जहाहि' तस्मात् कारणात् श्रमण इत्यामन्त्रणं अथवा श्रमणस्त्वं किं तत्रैवंविधैर्व्यापारः १, एते गार्हस्थानामेव युजंते, तुर्विशेषणे, जहाहि, पठ्यते च 'तम्हा
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औदासीन्यादि
॥१३६॥
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भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [४], उद्देशक [१], नियुक्ति: [५६-६१], मूलं [गाथा २४७-२७७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] “सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
मिश्रीभावादि
प्रत सूत्रांक ||२४७२७७||
श्रीमत्र कु समणा ण समिन्ति आतहिओ' न इति प्रतिषेधे, समिति समन्तात् , न समग्रमित्यर्थः, अथवा ण' समेन्ति-ण समुपाताङ्गचूर्णिः | गच्छंति, आत्मने हितं आत्महितं आत्मनि वा हितं आत्महितं, तासिपि अविरतियाणं तं हितं इह परलोगे य, मष्णिसे जा णाम ॥१३७॥ | गिहिसेज्जा संथवसंकथाओ य, स्थात् प्रव्रज्यामुपेत्यापि एवं कुर्यात् ?, ओमित्युच्यते, बहवे गिहाणि अवहटु' वृत्तं ।।२६.३।।
प्रभूताः अपहत्यापहत्य उत्सृज्येत्यर्थः, दयलिंगेण समणावि 'मिस्सीभावपण्हया' मिश्रीभावो नाम द्रव्य लिङ्गमिति, न तु भावः, ॥ अथवा पबजाए गिहवासेऽवि पाहता णाम गौरिख प्रस्नुता एवमेषां, कर्मभयाद्वा मिश्रीभावः, प्रियतच्चे कतरः पक्षः, विसय
सायासोक्खपडिबंघेणं भर्णति-लिंगछेयणमेर, अवधाणं चिरं, पण्डोमित्ताचि कखामोहणिजफम्मदोसेण कयाइ अधेसत्तमीओ अ PA बंधेज इति, अण्णे पुण अट्टदुहवसट्टा असमाधिगतात एवं पंडितत्तणेण धुवमग्गमेव भासिंसु, धुवमग्गो णाम संजमो वेग्ग्गमग्गो
वा, तंजहा-बहुमोहेनि णं पुव्वं विहरित्ता अह पच्छा मंबुडे कालं करेजा आराधए भवति, तं तेसिं वायाचीरियमेव, केवलं' ढक्करिपुचर्ण, न तु करणवीरियं, उक्त हि-'जो जत्थ होति भयो ओवासं 'गाथा, वायावीरियं णाम जो भणति ण य करेति भिलंगगनवत् , अथवेदं वायानीरियं 'शुद्धं रवति परिसा,' वृत्तं ॥२६४॥ सुद्धमिति वेरम्ग, अथवा शुद्धमिति शुद्धमात्मानं, ततः पूजागत्कारहेतो: परिपदि रौति-सापत इत्यर्थः, 'अथ रहस्समि दुकाई करेंति'ति एवमुक्यो रहस्संमि दुकई करेइत्ति, दुकर्ड णाम पावं, अथवा दुक्खं तल्लिङ्गस्थैः क्रियत इति दुकडं, किंच 'जाणंति य णं तथावेना' सहि जाणीने-न मां. कथित् | जानानि, अथ चैन नथाचेता जाणंति, तथा वेद यंतीति तथावेदाः, कामतंत्रचिद इत्यर्थः, ते हि कामयमान आकारविकारैनिंति, | उक्त हि-"अकामिना कामविपांडगणि, जननि गात्राणि च कामुकाणां । नखदशनच्छेद नै मूल्यन्ते यथैतेऽकृत्यकारिणः, यथा-11॥१७॥
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भाग-2 “सूत्रकृत" - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [४], उद्देशक [१], नियुक्ति: [५६-६१], मूलं [गाथा २४७-२७७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
दुष्कृता
प्रत सूत्रांक ||२४७२७७||
दीप अनुक्रम [२४७२७७]
श्रीसूत्रक
ऽध उच्चारायुत्सृजन दृश्यमानोऽपि परैर्मन्यते न मां कश्चित्पश्यति एवमसावपि रागद्वेषान्धो जानीते न मां कश्चित्पश्यति, ज्ञायते च । ताङ्गचूर्णिः ।
- परीवजन् , जलभृतवत् , अथवा यो यथावस्थितो भावतः तं तथावेदा:-प्रत्यक्षज्ञानिनः, ते हि आवीकम्म रहोकम्मं सव्वं जाणंति, ॥१३८॥
ये पुनस्ते तद्विधाः ते ब्रुवते-अहो इमो माइक्लो महासढो जो णाम इच्छति अम्हेवि पत्तियावेत्तुं, णवि लोणं लोणिजति ण य तोपिअइ घयं च तेल्लं बा। किह सका पंचेतुं अत्ता अणुहयकल्लाणी? ||१|| 'सयदुक्करं अवदते' वृत्तं ॥२६५।। एवं तावदसौ स्वयं दुक्कडकारिणं आत्मानं न वदति यथाऽहं दुकडकारीति, जोऽपि य गूढायारं प्रवचनवात्सल्यात् तद्धितमिच्छन्वा चोदयति तत्थवि
णिण्हवति, आक्रुष्टो नाम चोदितः आघ्रातः अभिशास्तो वा, कत्थ श्लाघायां, भृशं कत्थयति श्लाघत्यात्मानमित्यर्थः, अहं नाम 7 अमुगकुलपसतो अमुगो वा होतओ एवं करेस्सामि, येन मया कनकलता इव बातेरिता मदनविसविकंपमाना भार्या परित्यक्ता । सोऽहं पुनरेवं करिष्यामि ?, "यदि संभाव्यपापोऽहमपापेनापि किं मया ? । निर्विपस्यापि सर्पस्य, भृशमुद्विजते जनः ॥१॥" अपापे ब्रूयाद्वा-को ब्रवीति ? यथाऽहमेयंकारीति, स भावेन च ह्येवंक्षारी, उक्तं हि-"खेनानुमानेन परं मनुष्याः०" राउले वा णं कट्टामि, वेदाणुवीयी कामासि' वेदः वेद इब वेदः तस्यानुवीचिः-अनुलोमगमनं मैथुनगमनमित्यर्थः, तस्यानुलोमं मा कापीः प्रतिलोमं कुरु, एवं चोदितो माणुकडताए सम्मचिट्ठोऽवि च किलामिअति, ग्लै हर्पक्षये, दैन्यमायातीत्यर्थः, किमेप मामेवं चोदयतीत्यर्थः, उसिताचि इत्थिपोसेहिं वृत्तं ॥२६६।। उसिता नाम वसिता, पोपयतीति पोपा:-भगं त्रियो वा पुष्णंतीति पोषकाःभुक्तभोगिनः, इस्थिवेदो हि फुफुमअग्गिसमाणो अवितृप्तो, नाग्निस्तृप्यति काष्ठानां, नायगानां महोदधिःनांतकृत्सर्वभूतानां, न पुंसां वामलोचनाः ।।१।। खियो वा येन वेद्यन्ते स खीवेदो भवति, वैशिकतोऽप्युक्तं "एता हसति च रुदंति च अर्थहेतोः, विश्वा
BHATTARAT
॥१३८॥
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आगम
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भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [४], उद्देशक [१], नियुक्ति: [५६-६१], मूलं [गाथा २४७-२७७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[२] “सूत्रकृत' जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
प्रत सूत्रांक ||२४७२७७||
श्रीसूत्रकतारचूर्णिः ॥१३९॥
सयंति च नरं न च विश्वसंति। स्त्रियः कृतार्थाः पुरुषं निरर्थकं, निष्पीलितालतकवत् त्यति ॥१॥"तथा अण्णे भणंति-पुरतो अण्णं
खीखभावाः पासे (अण्णं पिढे) णिवजमाणीओ। अण्णं च तास हिअए जंच खमं तं करेंति महिलाओ ॥१॥" प्रज्ञया समन्विताः लोकलोकोत्तरशास्त्रविदः उत्पत्यादिबुद्धियुक्ता, एके, न सर्वे, णारीण वसं उवणमिति, दृष्टान्तो वैशिकपाठकः, एगो किल जुाणो वेसिय
अहिजणणिमित्तं गिहातो णिग्गतो, पाडलिपुत्तं गच्छंतो अन्तरा एगमि गामे एगाए इत्थीए भण्णति-सुकुमालसरीरो तुमं कत्थ । स वचसि , तेण भण्णति-वेसियसत्थं सिखगो वच्चामि, ताए भण्णइ-अधिञ्जितुं मज्झेण एआधि, सो तं अधिजिउं तीए समीव-101 | मागतो, सा य संभमेण उद्विता, तन्प्रयोजनार्थीनि चाकाराणि दर्शयति, अभंगुन्बलणण्हागाणि उच्चरगे काउं जहिट्ठपाणभोयर्ण | भुंजावेन्ती ते आगारे करेति, तेण में इच्छतितिकाउ हत्थे गहिता, तीए धाहा कतो, जणो पुच्छितो, गताउलो, गलंतिउदगं तस्सुवरि पक्सिविऊण भण्णति-एस गले लग्गएणं मरणं ण गतो, पच्छा जणे गते भणति-किं ते अधीतं, को इत्थीणं भावं जाणितुं समत्योति विसजितो गतो, 'अदु हत्थपादछे जाई' वृत्तं ॥ २६७ ।। अथेत्यानन्तर्ये परदारप्रसक्ता हि नरा नार्यश्च अपि तच्छेद 'अदुवा बद्धमंस'ति पृष्ठी वाणिवत्कृत्यन्ते मांसानि चोत्कृत्य काकिणीमांसानि खाधिअंति, अउ तेयसाभितवणाई तेजः
अग्निः तेनामितप्यते, तच्छेनं वासीए सत्थएण वा खारेण उस्सिचंति कलकलेण व 'अउ कपणच्छेज वृत्तं ।। २६८ ॥ कण्णा |छिज्जति णासाउ छिज्जति कंठे छिज्जतिति गलच्छेदः, तितिक्खंति पुरुपो वा तावा खियः सहंत इत्यर्थः, एवं विलविज्जतोवि, 'इति एत्थ पावसंतत्ता' अस्मिन् पापे संतप्ता, पापं मैथुनं परदारं वा,'ण यति पुणो ण करिस्सामो' का तर्हि भावना :| अपि मरणमप्युपगच्छंति न च ततः पापाद्विनिवर्तते, अपरः कल्पः-यदाऽसौ खी केनचि उक्ता भवति त्वमेवं अकार्षीरिति पश्चा- ॥१३९॥
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भाग-2 “सूत्रकृत" - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [४], उद्देशक [१], नियुक्ति: [५६-६१], मूलं [गाथा २४७-२७७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
विपाका
प्रत सूत्रांक ||२४७२७७||
दीप अनुक्रम [२४७२७७]
श्रीसूत्रक दसौ ब्रवीति-अउ हत्थपादछाई इमे मे पादे छिदाहि, जीवितस्यापि, मा च मे तं वयणं बेहि, पट्ठिवद्वाणि व मे उताहि, नागर्णिः
कागणिभंसाणि च मे खावेहि, मा य मे असभा भणाहि, अउत यसा ता तिवणहि कडरिंगणा च मे डहाहि उम्मुएण वा मे डंभेहि, ॥१४॥ HAI कुंभियाएण मे पयाहि, तच्छेऊण वा मे गाताई खारेण सिंचाहि, कण्णं णासं कंठं या मे छिंदाहि, मा एतं वितिय भणाहि एनोवि
मे बियंगणाओ वेदणाओ वा खलियतरं अन्भाइक्खणं, तृतीयो विकल्प:-अभिशप्ता वाऽसौ यात्-हस्तौ वा मे पादौ वा मे छिंदाहि पृष्ठोबाणि वा में उत्कृत काकीणिमांसाणि वा मे खावय बा, अउतेयसाभितवणाई, तेयसा वामां तृणैरावेष्ट्य अमि| तावय, शस्त्रेणान्यतरेण वा मे गात्राणि तक्षित्वा खारेण सिंच अउ कौँ छेद कणोष्ठौ वा नामां वा छिन्द कणं वा छिन्द इति, । 'एत्य पावसंसत्ता' पापं नदेव परदारगमनं तत्राऽऽसताः, खियः, ण य वेन्ति पुणो न काहंति, अतीव हि ममासौ मनोऽनु| कूलः, तस्य बाह, नाहं तेण विना क्षत्रमात्रमपि जीवितुमुत्सहे, तं पुण मे वसयंसि जं जाणसि तं करेहि, एमेव पुरुषा अपि कामसंतप्ताः निवार्यमाणा मते 'सुयमेवमेगेमि' वृत्तं ॥२६९|| श्रूयते स्म श्रुतं, श्रुतमिति विज्ञान, लोकश्रुतिप्वपि तत् श्रूयते यथा खियञ्चलम्बभावा दुभगः संचया अदीपक्षियों लहुसिकाः गर्विताः, एवं लोके आख्यायिकासु आख्यानकेषु च श्रूयते, इस्थि| दो नाम वैगिकं, तत्राप्युपदिष्ट-'दुनिज्ञेयो हि भावः प्रमदाना मिति, "दुर्गाय हृदयं यथैव बढनं यदर्पणान्तर्गतं, भावः पर्वत
मागदुर्गविषम: म्रीणां न विनायते । चितं पृष्फरपत्रतोयचपलं नकत्र संतिष्ठने, नायों नाम विपाहुरैखि लतादोपैः समं वर्द्धिनाः ||१||" अपि च-"सुटुबि जियागु सुवि पियासु सट्ठवि पलद्धपमरासु । अडईगु महिलामु य वीसंभो भेण कायब्यो।॥१॥ हक्युबउ अगुलि ना पुरिमा सब्यमि जीवलोमि । कामेन्तएण लोए जेण ण पत्तं तु वेमणसं ।।२।। अह एताणं पगतिया सच्चस्रा
॥१४॥
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भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र - २ (निर्युक्तिः+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [ ४ ], उद्देशक [१], निर्युक्तिः [५६ - ६१], मूलं [गाथा २४७-२७७] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र -[०२ ], अंग सूत्र [०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि
श्रीसूत्रकृ ताङ्गचूर्णिः
॥ १४१ ॥
CO
| करेति वेमणस्साई तस्स ण करेज मंतुअ जस्स अलं चैव कामेणं ||३|| एवंपि तावदित्ताणं यदा तु प्रस्थिता निवारिया भवति मैवं | कार्षीः तदा न तु भूयः करिष्यामीति 'एवंपि तावदित्ताणं अह पुण कम्मुणा अवकरेति' अपकृतं नाम यथा प्रतिपन्नं प्रतिज्ञातं वा न कुर्वन्ति, तामां हि अयमेव स्वभावः, 'अण्णं मणेण चिन्तेंति' वृत्तं ॥ २७० ॥ कथं १, क्षणरागत्वात् तद्यथा - 'आचार्या मर्कटा बालाः खियो राजकुलानि च । मूर्खा भंडाव निवा (विप्रा)श्व, विज्ञेयाः क्षिप्ररागिणः ॥ १ ॥ ' यतश्चैवं तम्हा णो सदहेयचं, यदि नाम हावभावादीनाकारान् कुर्यात्, वायाए वा पत्तियावे, एवमादि तासां विज्ञाप्यं श्रद्धेयं, दत्तो वैशिकः किल एकया गणिकया | तैस्तैः प्रकारैर्निमश्रीयमाणोऽपि नेष्टवान् तदाऽसायुक्तवती त्वत्कृतेऽग्निं प्रविशामीति, तदाऽसौ यद्यत्तयोच्यते तत्र तत्रोत्तरमाह-एतदप्यस्ति वैशिके, तदाऽसौ पूर्वं सुरंग मुखे काष्ठसमूहं कृत्वा तं प्रज्वाल्य तत्रानुप्रवेश्य सुरुंगया स्वगृहमागता, दत्तकोऽपि च एतदप्यस्ति वैशिके, एवं विलपन्नपि घृतैर्वार्तिकैश्चितकायां प्रक्षिप्त एव, तम्हा तु णो सद्दहियन्वं 'जुवती समणं वूया'वृत्तं ॥ २७२ ॥ चित्राणि अन्यतरवर्णोज्ज्वलानि अनेकवर्णानि वा, सा हि वस्त्राद्यङ्कारविभूषिता श्रमणसमीपमागत्य 'बिरता चरिस्सऽहं हं णिचिणाऽहं समणा घरवासेणं, भर्त्ता मे न प्रशक्तः, तस्य चाहमनिष्टा, स च ममेति, तेन विरता भूत्वा चरिष्याम्यहं लूहं लूहो नाम संयमः, तं धम्मं तायदाचक्षस्वेति भयावायतीति भयंतारः, एवं संभाषमाणा प्रीतिविश्रंभानुत्पादयति, 'अदु साविया पवादेण' वृत्तं | ॥ २७२ ॥ श्राविकासु विक्रम उत्पद्यन्ते, नीषिचिकयाऽनुप्रविश्य वंदित्वा विश्रामणालक्ष्येण संबाधनादि कूलवारकवत्, काइ तु | लिंगत्थिगा सिद्धपुत्ती वा भणति अधं साधम्मिणी तुम्भंति, स एवासन्नवर्त्तीनिभिः लिप्यते ॥ २७३ ॥ दृष्टान्तो जतुकुम्भः, जतुमयः कुम्भः, जतुकुम्भः, जतुलित्तो वा ज्योतिषः समीपे उपजोति गुलतीति वाक्यशेषः, एवं संवासेण विदुरपि सीदति, किं
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क्षण
रागत्वादि
॥ १४१ ॥
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भाग-2 “सूत्रकृत" - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [४], उद्देशक [१], नियुक्ति: [५६-६१], मूलं [गाथा २४७-२७७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-०२] "सूत्रकृत' जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
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जतुकुंभदृष्टान्तादि
सूत्रांक ॥२४७२७७||
दीप अनुक्रम [२४७२७७]
श्रीसूत्रक
पुनरविद्वानिति ?, उक्तं हि-तज्ज्ञानं तच विज्ञानं, सतत )तपः स च निश्रयः। सर्वमेकपदे नष्टं, सर्वथा किमपि स्त्रियः॥१॥" एवं ताङ्गचूर्णिः
तावदासन्नेभ्यः प्रतिवेश्मकस्त्रीभ्यो दोपः, एकतस्तु संवासे शीघ्रमेव विनाशः, जहा जतुकुम्भो जोति उपगूढः अग्नावाहितः अग्नि॥१४२॥
मध्यमितो वा समंततो भस्वामिः प्रज्वलितेनासु अतितप्तो नाशमुपयाति, 'एवित्थिगाहिं अणगारा' आत्मपरोभयदोषैः आसु
चारित्रतो विनश्यति, किंच-कुवंति पावकम्म' ॥ २७४ ॥ पापमिति मैथुनं परदारं वा, एगपुरिसे ण, संघसमितीए वा आईमस्युरिति आख्यान्ति-णाहं करेमि पावंति, एपा हि मम दुहिता भगिणी नत्ता चा, अंके सेत इति अंकशायिनी, पूर्वाभ्यासादेवैपा
ममांक शेते निवार्यमाणा पर्यकेन, 'बालस्स मंदयं वितियं' वृत्तं ॥२७५॥ द्वाभ्यामाकलितो बालो, मंदो दवे य भावे य, दव्वे शरीरेण उपचयावचए, भावमंदो मंदबुद्धी अल्पबुद्धिरित्यर्थः, मंदता नाम बालतैव. कोऽर्थः-तस्य वालस्य वितिया बालता यदसौ कृत्वाऽवजानाति-नाहमेवं कारीति, ण वा एवं जाणामि, दुगुणं करेति से पावं, मेथुणं पावं, वितिय पुणो पूयासकारणिमित्तं, अविय अबलमिति सकारणिमितं, मा मे परोपरा भविस्सति, विसणो-असंजमो तमेसति विसण्णेसी 'संलोकणिजमणगार' वृत्तं ॥२७६।। संलोकणिो णाम द्रव्यो दर्शनीयो वा, तत्थ कोइ मुच्छिता आतगतं णाम अप्पाणएणं णिमंतेति, अथवा आत्मगतः तस्या अशुभो भावः, संबंधामि ताव णं, ततो काहति वयणं-आईसुत्ति आहु 'वत्थं च ताति पातं वा त्रायतीति ताती अण्णं वा पाणं वा यच्चान्यदिच्छसि तत्तदहं सदैव दास्यामि इत्येवं संबद्धोण तरिति उब्वरितुं,भगवान् भणति-णीयारमेव वुज्झेज' वृत्तं ॥२७७।। निकरणं निकार्यते या निकरः, यदुक्तं भवति-निकीर्यते गोरिव चारी, जहा या सूकरस्स धण्णकुडर्ग कूडादि णिगिरिजति, पुट्ठो य वहिजति, गलो वा मत्स्यस्य यथा क्रियते एवमसावपि मनुष्यसूकरका वखादिनिकरणेन णिमंतिजति पच्छा संय
Pritam
॥१४२॥
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आगम
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भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [४], उद्देशक [१], नियुक्ति: [५६-६१], मूलं [गाथा २४७-२७७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-०२] "सूत्रकृत' जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
A
आगारावत्तादि
प्रत सूत्रांक ॥२४७२७७||
दीप अनुक्रम [२४७२७७]
श्रीसूत्रक
| मजीवियाओ ववरोइअति, वक्ष्यमाणान्यपि च नानाविधानि अकृत्यानि कारयंति, यतश्चैवं तेण संसारबद्धं संसारपासं च भावनिकतासचूर्णिः रमेतत् बुद्ध्वा दूरतः तद्राम णगरं वा जत्थ णिमंतिञ्जति तं परिहरंतो 'णोइच्छेजा अगारमागंतुं' इति अगारत्वं अथवा आगा॥१४३॥ | रमावत्तं आगारमेवावर्तः आगारमावर्तः कारणे कार्यवद् उपचारात् संसारावर्तः, यः पुनरत्र संबध्यते, संबंधो क्सियदामेहि, महि४खी० समयूरादीणं वध्रादीनि दामकानि या, नरसूकराणं तु विसयदामगाणि, दाम्यन्ते एभिरिति दामकानि, बन्धनानीत्यर्थः, तैः बद्धः, २ उद्देश:
|'मोहमावजति पुणो मंदो' मोहः-संसारस्तमेवागच्छतीति, अथवाऽनुकम्पया मन्दः स वराको मन्दो विषयपराजितः प्राप्यापि || प्रवज्यां पुनरपि मोहमागच्छतीति चतुर्थे इति प्रथम उद्देशः।।
स एवाधिकारोऽनुवर्तते, प्रथमोद्देशकोक्तैराकारैराकष्टा इहैव स्खलितधर्माणो णाणाविधाई खलीकरणाई पाविजंति, वक्ष्यमाणमपि | सुहिरीमणावि ते संता, संबंधो हि द्विविधः, तद्यथा-अनन्तरसूत्रसम्बन्धः परम्परसूत्रसम्बन्धश्च, णीयारमन्तं बुज्झेजा, बुद्धः ओयाभूतो भविजासित्ति, ओजो-विषमः यदा बद्धस्तु भोगकामी पुणो विरजेज, परंपरसूत्रसम्बन्धस्तु संलोकणिजमणगारं कदाचिन्निमत्रयति, तत्र यः ओजः स सदान रजेजा, अनोज इतरस्तु कदाचित् रज्जेज, द्रव्यभावसम्बन्धस्य तु इहैव वाहनताडणादयो विलंबनाप्रकारा भवन्ति, तासस्य वा बन्धनादयो दोषाः कर्मबन्धाच्च नरकादिविपाकः, एवं विपाकं मत्वा 'ओए सदा ण रजेज' वृत्तं ।।२७८॥ | द्रव्योजो हि असहायत्वात् परमाणुः, भावोजो रागदोसरहितो, स एवमोजः रागदोसरहितः पूर्वापरसंस्तवं जहाय ण तेसु अण्णत्थ वा पुणो रज्जेज, भोगकामी पुणो विरज्जेज्ज-गिज्झेज्जा, अथवा यद्यपि भोगकामी स्यात् तथापि पुणो विरज्जेज्ज, मा भूत् अत्य
न्तरागवान् स्यात् , ते य 'भोगे सपणाण सुणेह' भोगा न किलैपां ते निश्चयेन, गृहिणामपि भोगा पिलबना, किमु लिंगिनां ?, अस्य पृष्ठे चतुर्थ अध्ययनस्य द्वितिय उद्देशक: आरभ्यते
im
॥१४३॥
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आगम
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भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [४], उद्देशक [२], नियुक्ति: [५६-६१], मूलं [गाथा २७८-२९९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[२] “सूत्रकृत' जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
लिंगभेदादि
प्रत
श्रीसूत्रक- ताङ्गपूर्णिः ॥१४४॥
सूत्रांक ||२७८२९९||
दीप अनुक्रम [२७८२९९]
ते य सुणेह, एगे न सव्वे, एगे किल जहा भुंजते, केइ आउकायरियसायासोक्खपडिबंधेणं लिंगगच्छत्तणं करेंति, ण तु मोहदो- सेणं । 'अथ तं तु भेदमावणं'वृतं ॥२७९।। अधेत्यानन्तये, तु विशेषणे, भावभेद-चरित्रभेदमावणं, ण तु जीवितभेदं शरीरभेदं लिंगभेदं वा, मुच्छियं कामेसु दयभिक्खु, कामेसु अतिअट्ट-कामेसु अतिगतं कामेसु अनिवत्तमाणं पलिभिन्दियाण-पडिसारेऊण मए तुज्झ अप्पा दिण्णो सर्वस्वं जनश्वावमानितः, ण इमो लोगो जातो ण परलोगो, तुमंपि णवरं खीलगघातो, मज्जायं जाति वा ण सारेति, अप्पयं ताव अप्पएण जाणाहि, कस्स अण्णस्स मए मोतूण तु कर्ज कतं?, लुत्तसिरेण जल्लमइलितंगणं दुग्गघेणं पिंडोलएणं कक्षावक्षोवस्तिम्यानयकावसथेन, स एवं पडिभिण्णो तीसे चलणेसु पडति, ताहे सा पडतं मा मे अल्लियसुत्ति में वामपादेणं मुद्वाणे पणहति, अणोचिंधणोऽवि तार तसिन्काले हन्यते, किं पुण उचिंधणो ?, उक्तं च-"व्याभिन्नकेसरबृहच्छिरसश्च सिंहा, नागाश्च दानमदराजिकशैः कपोलैः। मेधाविनश्च पुरुषाः समरे च शूराः, स्त्रीसन्निधौ वचन कापुरुपा भवंति ॥१२॥ कयाइ सा आगारी भणेश पुच्चभजा व से अण्णा वा कायि 'जइ केसियाए मए भिक्खू' वृत्तं ।। २८० ।। केशाः अस्याः सन्तीति केशिका, जइ मए केसइत्तीए हे भिक्खूणो विहरेज 'सहणं'ति सह मया, कोऽर्थो ?-जइ मए सवालिआए लजसि ततो 'केसेवि अहं लुचिस्स' तत्थ त्वं मए सह विहरेखासित्ति, मा पुणो इमं छड्डेऊण अण्णस्थ विहरेजासित्ति, एवमसौ ताव एव बद्धो तदनुरक्तः तीसे णिदेसे चिट्ठति, ततोऽसौ 'अथ णं से होति उवलद्धे'वृत्तं ।।२८१।। उवलद्धो नाम यथैपो मामनुरक्तो णिच्छुभंतोऽवि ण णस्सइत्ति 'ततो णं देसेति तहारूवेहिं तहारूवाई णाम जाई लिंगत्थाणुरूवाई, न तु कृष्यादिकर्माणि गृहस्थानुरूपाणि, अलाउच्छेदं णाम पिप्पलगादि, जेण भिक्खाभायणस्म मुक्खं छिज्जति, जेण वा णिमोइज्ज बाहिरा वा तया अवणि
॥१४॥
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प्रत सूत्रांक ||२७८२९९||
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [४], उद्देशक [२], नियुक्ति: [५६-६१], मूलं [गाथा २०८-२९९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] “सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
AN श्रीसूत्रक- ज्जति, बग्गुफलाणित्ति बग्गुणाम वाचा तस्याः फलाणि वग्गुफलाणि, धर्मकथाफलानीत्यर्थः, तुमं दिवसं लोगस्स बोल्लेण गलएण | दारुयाचताहाचूर्णिः | धम्म कहेसि, जेसिं च कहेसि ते ण तरसि मग्गिऊणं, अथवा जोइस्कोटलवागरणफलाणि वा 'दारुगाणि अण्णपाणा या' All नादि ॥१४५॥ | वृत्तं ।। २८२ ।। दारुगाणि आणय, आनीत्य विक्रीणीहि, अण्णपाणाय पढममालिया वा उवक्खडिज्जइत्ति, दोचगं वा परिता
विज्जिहिति सीतलीभूतं, तेहिं 'पज्जोतो वा भविस्मति रातो' भृशमुद्योतः, दीवतेल्लंपि णस्थि तेहिं उज्जोए सुह अच्छिद्दामो, वियावेहामो वा, पानाणि य मे स्यावेहि, का मम अणिअल्यिाए इहं पाताणि ते, तेण तुम चेव आलत्तगं आणेहि, अथवा पाया| इति भायणाई, लेबो छादगो, एवं कस्सइ प्रेमि सयं छाणतरंगेहि लिंपावेहि ठाणं, एहि अतो मे पट्टि उम्माहे, पुरिल्लं कार्य अहं | सकेमि उबहेतुं, पिढे पुण ण तरामि, 'वत्थाणि य मे पडिलेहे' वृत्तं ॥ २८३ ॥ इमाणि वत्थाणि पेच्छ सुत्तदरिद्दयं गयाणि |णिग्गियाहं जाया, अहवा किण्ण पस्ससि मइलीभूताणि तेण धोवेमि रयगरस वा णं णेहि य, अबा वत्थाणि मे पेहाहित्ति जओ
लभेज, अहबा एयाई वत्थाई वेंटियाए पडिलेहेहि, मा से उगारियाई खजेज, तहा रूवगवातएण वा भणेज-मम वत्थाणि पडि| लेहेहि, अण्णपाणं वा मे आहएहि, णाई सकेमि हिडिउं,'गंधं चरयोहरणं च' गंधाणि ताव कोट्ठादीणि आहोहिचुण्णाणि जेण | गायाई भुरुकुंडेत्ता, पठ्यते च 'गंथं च रयोहरणं वा' ग्रन्थ इति ग्रन्थः संघाडी रयहरणं सुन्दरं मे आणेहि, कासवर्ग-हावि| यमाणयाहि, ण तरामि लोयं कारवेत्तए, अउ अंजणिं अलंकारं' वृत्तं ।।२८४॥ अंजणवाणियंमि अंजियं आणेहि, अलंकारे । हारकेशायलङ्कार बा, सकेसियाण कुकुहमो णाम तंबलीणा 'लोद्धं लोद्धकुसुमं च लोधं कपायणिमित्त, लोद्धस्सेव कुसुमं तं तु गंधसंजोए उपयजति, वेलुपलासी णाम वेलुमयी सहिगा कंपिगा, सा दंतेहि य वामहत्थेण घेत्तुणं दाहिणहत्थेण य वीणा इव वाइ- ॥१४५॥
दीप अनुक्रम [२७८२९९]
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भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [४], उद्देशक [२], नियुक्ति: [५६-६१], मूलं [गाथा २७८-२९९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] “सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
प्रत सूत्रांक ||२७८२९९||
श्रीसूत्रकताङ्गचूर्णिः ॥१४६॥
दीप अनुक्रम [२७८२९९]
जइ, पिच्छोला इत्यर्थः, एकता व ओसहगुलिया अत्थगुलिया अगतगुलिया च 'कोर्ट तगरं अगरुंच' वृत्तं ॥२८५॥ हिरिवेर कोष्ठपुरादि णाम उसीरं, सेसाणि कंठाणि, एतानि हि प्रत्येकशः गंधंगाणि भवंति, समं हिरिवेरेणंति संयोगश्च भवति, तेलं मुहभिलंगाय' मुहमक्खणयं तेल्लं आणेहि, मिलंगायत्ति देसीभासाए मक्खणमेव, वेलुफलाइति–वेलुमयी संघलिका संकोपेलिया करंडको वा, सण्णिधाणाएत्ति-तत्थ सण्णिधेस्सामो किंचि पो चा पत्तं वा ॥ २८६ ।। णंदीचुण्णगं नाम जं समोइमं उडमक्खणगं येन तेन चा प्रकारेण भृशं आहराहि, अथवा चुण्णाई वट्टमाणाई, वरिसारत्ते वा गिम्हे वा छत्तगंजाणाहि उवाहणाउ वा, नाणाहित्तिआणेहि, जतो जाणासि ततो, ते किं मए एतमवि जाणेतव्वं जहा णस्थिचि, 'सत्थं च सूवच्छेदाए' सत्थं आसियगादि, सूर्य णाम पत्रशाकं, जेण तं छिजति, आनीलो नाम गुलिआ साथालिया, एतेण साडिगा सुत्तं कंचुगं वा राविहि, णीले रागे वा इमं वत्थं छुहाहि, अथवा कुसुंभगादिरागेण जाणति वत्थाणि रावेतुं तेण अप्पणो वा कजे वत्थरागं मग्गति, जेसि वा रहस्सति मोल्लेणी 'सुफणितं सागपाताए' वृनं ॥२८७।। फणितं णाम पकं रद्धं वा, सुखं फणिज्जति जत्थ सा भवति सुफणी, लाडाणं जहिं कति तं सुफणित्ति वुच्चति, सुफणी वराडओ पत्तुल्लओ थाली पिउडगो वा, तत्थ अप्पेणवि इंधणेणं सुई सीतकुसुणं उष्फणेहामो, सूत्रपागाएचि सूवमादि कुसुणप्पगारा सिज्झिहिन्ति, सुक्खकूरो णाम हिंडंतेहिवि लब्भति, आमलगा सिरोधोवणादी भक्खणार्थ वा, उक्तं हि-"भुक्त्वा फलाणि भक्षयेद् विल्लामलकवर्जानि, दगहरणी णाम कुंडो कलसिगा वा, दगधारणी अलुगा अरंजरगो वा, चशब्दातेल्लघतहरणिं च, तेसिं वा उद्धाइयाण सच्चं णवर्ग संठवणं कायबंति तेण सबस्स घरोवक्खरस्स कारणा तं बड़ेइ, सो य तं सव्वं हतुट्टो करेति, 'तिलकरणिं अंजणि सलार्ग'ति तिलकरणी णाम दंतमइया सुवण्णगादिमइया वा सा रोयणाए ॥१४६॥
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भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [४], उद्देशक [२], नियुक्ति: [५६-६१], मूलं [गाथा २७८-२९९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सूत्रकृत' जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
अंजनादि
प्रत सूत्रांक ||२७८२९९||
श्रीसूत्रकताङ्गचूर्णिः ॥१४७||
दीप अनुक्रम [२७८२९९]
| अण्णतरेण वा जोएणं तिलगो कीइ, तत्थ च्छोढुं भमुगासंगतगस्स उवरि ठविज्जति तत्थ तिलगा उठेति, अथवा रोचनया तिलक: | क्रियते, स एव तिलककरणी भवति, तिला वा जत्थ कीरंति-पिस्संति वा, अंजनि-अंजनमेव श्रोतांजनं जात्यञ्जनं कज्जलं वा,
अंजनसलागा तु जाए अक्खि अंजिज्जंति, 'धिंसुरिति गिम्हासु मम धर्मााया वीजनार्थ विधूवणं जाणाहि, विधूयतेऽसौ विधूयते वा अनेनेति विधूवन:-तालियंटो वीयणको वा, 'संडासगं च फणिगं च सेहलिपासयं च वृत्तं ॥२८८ ॥ संडासओ | कप्परक्खओ कज्जति सोवष्णिओ जस्स वा जारिसो विभवो, अथवा संडासगो जेण णासारोमाणि उक्खणंति, फणिगाए वाला
जमिज्जति उल्लिहिज्जंति जूगाओ वा उद्धरिज्जंति, सीहलिपासगो णाम कंकणं, तं पुण जहाविभवेण सोवण्णिगंपि कीरति, सिहली |णाम सिहंदओ, तस्स पासगो सिहलीपासगो, आतंसगं पयच्छाहि, आयंसर्ग नामेके जणा पारिवेसिगघराउ वा जत्थ अप्पाणं मंडेता। | मुहं पेसामि, पेच्छंती वा सुहं मुहं मंडेहामित्ति, दंतपक्खालणं वा इहेब पवेसेहि, वरं मुहं खाइत्तुं णिगच्छंतीहिं 'पूयाफलतंबोलं
च' वृत्तं ॥२८९।। पूयाफलग्रहणात् पंचसोगन्धिकं गृह्यते, 'सूचिं जाणाहि सुत्तगं' सुत्तगंणाम सिव्वणादोरगं, अप्पणो कंचुगं साडि वा सिवामि, कदाइ सा कंचुगा सीविगा चेव होजा ते परेसि, कोसे णाम मत्तओ, मुच्यत इति मोयं-कायिकी, मिह सेचने.' | मेहं मोचं च अमोयं मोयं मोक्खंत कासकोसं मोयमेहार्थे मोयमेह, सूप्पं णाम सूप्प, उक्खलं मुसलं च, खारं च खारगलणं |च जाणाहि, 'चंदालगं च करगं च ॥ २९० ॥ चंदालको नाम तंवमओ करोडाओ येनार्हदादिदेवतानां अच्चणियं करेहामि सा मधुराए बं(च)दालउ बुच्चति, करकः करक एत्र, सो य करको मघकरको वा चकरिकरको वा, वञ्चघरं पच्छन्नं करेहि कूर्षि चऽत्थक्षणाहि, आउसोचि आमन्त्रणं हे आयुष्मन् !, सरपादगं च जा ताए सरो अनेन पात्यत इति शरपातक, धणुदुल्लक, जायत
१४७।
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भाग-2 “सूत्रकृत" - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [४], उद्देशक [२], नियुक्ति: [५६-६१], मूलं [गाथा २७८-२९९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[२] “सूत्रकृत' जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
गोरथादि
श्रीसूत्रकताङ्गचूर्णिः ॥१४८॥
प्रत सूत्रांक ||२७८२९९||
दीप अनुक्रम [२७८२९९]
इति जात:-पुत्रः जातार्थः, जाताया वरं मे एस पुत्तो धणुदुल्लएण रम, गोरहगो णाम संगाडिला, मेल्लिया पुत्तिगा, श्रामणस्या
पत्यं श्रामणेरः तस्मै श्रामणेराय कुरु, रथे सुद्धं, तत्थ विलग्गो चेडरूवेहि समं रमतो, एवमादिस्थकारकता भवति 'घडिकम्मे हिं "डिडिमएणं ॥२९१।। गडिगा णाम कंटुल्लिगा चेडरूवरमणिका, डिंडिमगो णाम पडिहिका डमरूगोवा, चेलगोलो णाम चेल
मउ गोलओ तन्तुमओ, स तेनाप्यादिश्यते किमेसो रायपुत्तो?, सा भणति-माता हता रायपुत्तस्स, एसो मम देवकुमारभूतो, देवतापसादेण चेवाहं देवकुमारसच्छहं पुतं पसूता, मा हु मे एवं भोज्जासु, वासं इमं समभियावणं' अभिमुखं आपन्न अभिआवण्णं तेण णिवायं णिप्पगलं च आवसहं जाणाहि भत्ता!, जेणं चत्तारि मासा चिक्खिल्लं अच्छंदमाणा सुहं अच्छामो, उक्तं। च-"मासैरष्टभिरहा च, पूर्वेण वयसाऽऽयुपा। तत्कर्त्तव्यं मनुष्येण, यस्यान्ते सुखमेधते ॥१॥" इधई वा इमो आवसहो सडितपडितो एतं संथवेहित्ति । 'आसन्दियं च णवत्तं ॥२९२॥ आसंदिगा णाम वेसमणगं, पावसुत्तगो णवएण सुत्तेण उणट्ठियापट्टेण चम्मेण वा, पाउल्लगा इति कट्ठपाउगाओ, ताहि सुहं चिक्खिल्ले संकमिज्जति, रति विरत्तेसु संकर्म वा करेमि चिक्खल्लस्स उपरि 'अउ पुत्तदोहलहाए' जाहे सा गुग्विणी तईयमासे दोहिलणिगा भवति तो णं दासमिव आणवेति आगलफलाणि च मग्गइति भत्तं ण मे रुचइ अमुगं मे आणेहि, जइ णायोहि ता मरामि, गम्भो वा पडिहित्ति, स चापि दासवत्सर्व करोति आणत्तियं, जेवि इह ण करिअंति तेऽपि संसारे णाणा विधाई दुक्खाई पाविजंति विलंबणाओ य, 'जाते फले समुप्पण्णे'धुत्तं ॥२९३॥ फलंकिल मनुष्यस्य कामभोगाः तेपामपि पुत्रजन्म, उक्तं च-"इदं तु स्नेहसर्वखं, सममाढ्यदरिद्राणाम् । अचंदनमनोशिरं, हृदयसानुलेपनम् ॥१॥ यत्तच्छपनकेल्युक्तं, बालेनाव्यक्तभाषिणा । हित्वा सांख्यं च योगं च, तन्मे मनसि वर्तते ॥२॥ लोके पुत्रमुखं नाम, द्वितीयं
॥१४॥
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भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [४], उद्देशक [२], नियुक्ति: [५६-६१], मूलं [गाथा २७८-२९९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[२] “सूत्रकृत' जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
पुत्रपोषा
श्रीसूत्रकताङ्गचूर्णिः ॥१४९॥
प्रत सूत्रांक ||२७८२९९||
मुखमात्मनः। साऽध जाहे किंचि अणता आवण्णसत्ता भवति ताहे भणति, दारके वा महत्थे तुमं चेव करेहिति णिबंधवा, तस्स
वा, तस्स अणेणं भष्णति-एस ते गेण्हाहि व छ हि वणं, अण्णगत्थ व रोसिता भणति-एस मए णवमासे कुच्छीए धारितओतं दाणिं एस ते गिहाहि व णं छड्डेहि वा णं, एतस्स पेयाल गहिएल्लयं, एवं बुचमाणो एप णिभत्थिनमाणो वाण णासति 'अह पुत्तपोसिणो एगे' पुत्र पोषयतीति पुत्रपोषणः, जाहे गामंतरं कयाइ गच्छति तावदंतारगं उपक्खरं वा वहतो 'भारवाहो भवति उड़ो व लहित्तओं' गामतराओ धणं वा भिक्खं वा वडाहिं करंकाहिं गोरसं वा वहतो लट्ठितगो भारवाहो भवति उड्डो वा, अण्यो पुण | केइ अणंतसंसारिया तं पुरिसं साडेउं उट्ठवेउ वा अप्पसागारियं णिक्खणिउंकामा वा वहंतकामा खंधा भवंति, पूर्व हि प्रतिपालणोक्ता, इदानीं तत्प्रतिक्षभृता अप्रतिपालना, एतं पुण पडिपक्खेण गतं, अह पुण पोसिणो एगेचि, 'राओवि उहिता संता' ॥२९४।। दारगं मण्णावेति, धावड़ वा, यदा सा रतिभरथांता वा प्रसुप्ता भवति, इतरहा या पसुत्तलक्खेण वा अच्छति, वेयेन्तिया वा गब्वेण | लीलाए वा दारगं रूअंतपि न पहाणेति ताहे सो तं दारगं अंधाविविध णाणाविधेहि उल्लावणएहिं परियंदन्तो उ सोवेति, सामिओ मे णगरस्स य णकउरस्स य हत्थवग्धगिरिवट्टणसीहपुरस्स य उण्णतस्स निग्णस्स य कण्णउजआयामुहसोरियपुरस्म य 'सुहिरिमाणावि ते संता' ही लजायां, लजालुगाचि ते भूत्वा कोट्टवातिगामस्पृशिनो वा शौचवादिका गृहवासे प्रव्रज्यायां वा सुट्छवि | आतट्ठिया होऊण एगंतसीला वा सूयगवत्थाणि धोयमाणा वत्थधुवा भवंति, 'हंसो वा' हंसो नाम रजकः, दारुगरूवेण वाउह| णविउहणा संमद्दमाणे धुवमाणो य एतं बहहिं कडपुवं' वृचं ॥२९५।। एतदिति यदुक्तं तीसे णिमित्तेण दारगणिमित्तेण वा | तीसे णिमित्तेण जाव चंदालयं च करगं च सरपादयं च जाताएत्ति दारगणिमित्तं, तथा पुत्तस्स दोहलट्ठाते, जाए फले समुप्पण्यो,
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||१४९॥
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(०२)
प्रत
सूत्रांक
॥२७८
२९९||
दीप अनुक्रम
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२९९]
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र - २ (निर्युक्तिः+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [ ४ ], उद्देशक [२], निर्युक्तिः [५६ ६१], मूलं [गाथा २७८-२९९ ] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र -[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
सूत्रकृ जिचूर्णिः
॥ १५०॥
अह पुरापोसिणो एगे, राओवि उट्टितो संतो, सुहिरीमाणावि, एतं पुत्तणिमित्तं, अहया सव्वंपि तंनिमित्तमेव, 'बहू हिं' ति बहूहिं कृतपूर्वमेतत् तथा कुर्वन्ति करिष्यन्ति च ते तु के ?, जे 'भोगत्थाए इत्थियामि आवण्णा' अभिमुखं आवण्णा, सो पुण जो तासु अभितावण्णो सो तेस 'दासे मिए व परसेवा' दासबहुज्ञ्जते, मृगवच भवति, यथा मृगो वशमानीतः पाठ्यते मार्यते वा मुच्यते वा प्रेष्यते णाणाविधेसु कम्मे, पसूभृता इति पशुवत् बाह्यते, न च मदांधत्वात् कृत्याभिज्ञो भवति, पशुभृतत्वान्मृगभूतत्वाच 'न वा केयि'त्ति एभ्योऽप्यसौ पापीयान् संवृत्तः यस्य न केनचिच्छक्यते औपम्यं कर्तु अथवा 'ण वा केति'त्ति नासौ प्रव्रजितो न वा गृहस्थो जातः, नापि इहलोके नापि परलोके, 'एवं (यं)खु तासि वेणद्धं (तासि वेणप्पं ) ' वृत्तं । । २९६ ॥ एतदिति एतान् ज्ञात्वा इहलोगपरलोगिए दोसे तेण संघवं संवासं चत्ता हि भवेज, संथवो णाम उल्लासमुल्लावादाणग्गणसंपयोगादी, संवासो एगगिहे तदासने वा एतदेव तासि वेणप्पं जो ताहिं संथवो संवासो वा, संथवसंवासेहिं चैव इतरावि विष्णत्ती भवति, 'तजाइया इमे कामा' तज्जातिया णाम तन्विधजातिया, चतुर्विधा कामा, तंजहा- सिंगारा कलुणा रोहा बीभत्था, तिरिक्खजोणियाणं च, पासंडीणं च, एतदुक्तं भवति - बीभत्सं सेवेमानानां तेषां वीभत्था एव कामा, अकारी हि विगमं तं चेव, अथवा तदेव जनयन्तीति तज्जातिया मैथुनं ह्यासेवते, तदिच्छाए च पुनर्जायन्ते, उक्तं हि "आलसं मैथुनं निद्रा, सेवमानस्य वर्द्धते । 'वज्जकरि'ति वज्जमिति कम्मं वज्र्जति वा पार्वति वा चोष्णंति वा, तत्कुर्वन्तीति वजकरा, एवमाख्यातः तीर्थकरैः 'एवं भयण्ण सेयाए' वृत्तं ॥ २९७॥ इहलोकेऽपि तावद् भयमेतत् कुतस्तर्हि परलोके १, यत एव च भयंकरा इत्यतो श्रेयसे न भवति, तेन श्रेयः कामेभ्यः अप्पाणं निरंभित्ता, इहलोकेऽपि तावद् णिरुद्धकामेच्छस्स श्रेयो भवति, कुतस्तर्हि परलोकः ?, उक्तं हि " नैवास्ति
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स्त्रयमिप्राप्तिः
॥ १५०॥
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आगम
(०२)
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [४], उद्देशक [२], नियुक्ति: [५६-६१], मूलं [गाथा २०८-२९९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] “सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
प्रत
सूत्रांक
||२७८२९९||
दीप अनुक्रम [२७८२९९]
श्रीसूत्रक- राजरानस्य तत्सुखं नैव देवराजस्य । यत्सुखमिहैव साधोलोकव्यापाररहितस्य ॥१॥ तणसंथारणिवण्योऽवि मुणिवरो भग्गराग-01 भयादि ताङ्गचूर्णिः | मयदोसो। जं पावति मुचिसुहं ण चकाट्टोचि तं लभति ॥ २ ॥ स तु कयं निरुध्यते आत्मकामेभ्यः', उच्यते, 'णो इत्थिणो ॥१५१॥ पसू भिक्खू' इत्थी-मणुस्सी, पत्ति सव्वा एवं तिरिक्खजोणीओ, 'णो सयं पाणिणो णिलेज्जेजति हत्थकम्मं न कुर्यात् ,
विलंबनं नाम करणं, अथवा खेन पाणिना तं प्रदशमपि न लीयते, जहा पाणिसंहरिसोवि न स्यादिति, कुतस्तहिं करणं ?,'सुविसुद्धलेस्स'वृत्तं ॥२९८।। सुविसुद्धे लेसे सुविसुद्धलेसे, सुविसुद्धलेसे नाम सुकलेसो, परिकिरिया नाम नो इत्थियाए आमजेज वा
चा पपज्जेज वा संवाहणत्ति जाव छत्तमउडंति, चशब्दादात्मकियां च वर्जयेत् , सिया से इत्थी पाये आमज्जेज वा पमज्जेज वा Pa| तहाविदोसो 'मणसा बयसा कायेणं'ति ओरालिए कामभोए मणमा ण गच्छति ण गन्छावेति गच्छंतं णाणुजाणइ एवं वायाए | कारणवि, एवं दिव्येवि, एते अट्ठारस भेदा, एवं जहा इस्थिफासं मणमा वयसा काएणंति बज्जेति एवमन्येऽपि फासे सीतोसिणदसणमसगादि अघियासेजासि 'इञ्चेवमाहु से वीरे'वृत्तं ।।२९९।। इति एवं इचेवं, एवमाहुः स भगवान् वीरस स्त्र्यादिषु रागवस्तुपु धूतमेवे(रए)ति धूतरागमार्गमेवाहु, सोमणो भिक्खू सभिक्खू , अथवा भिक्खम्गहणे असावपि भगवान् , न तु यथा पंडरंगाणं महे| वरः सराग आसीत् सभार्यश्च, ते किल निरताः, उक्तं च-"क्षितौ वासः सुरेवाज्ञा" यतश्चैवं 'तम्हा सज्झत्थविशद्धे'
अज्झत्थं णाम संकप्पतो विशुद्धं संकप्पविशुद्धं-रागद्वेषविमुक्तं समो मानावमानेषु समं दुःखसुखे पश्यति आत्मानं परं च मन्यते तुल्यं, तथा चोक्तम्-कस्य माता पिता चैत्र, स्वजनो चा कस्य जायते । न तेन कल्पयिष्यामि, ततो मे न भविष्यसि ॥१|आमोक्खाए परिवएजासित्ति बेमि यावन्मोक्षं न प्रामोपि ताव विहरेज्जासित्ति बेमि ।। स्त्रीपरिज्ञाध्ययनं समाप्तं ४ ॥
niprde
॥१५१॥
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(०२)
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सूत्रांक
||३००
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दीप अनुक्रम
[३००
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भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र - २ (निर्युक्तिः+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [ ५ ], उद्देशक [१], निर्युक्तिः [६२-८२ ], मूलं [गाथा ३००-३२६ ] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र -[०२] अंग सूत्र [०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि :
श्रीसूत्रताम्रचूर्णिः ॥१५२॥
रियविभत्तिए अज्झयणस्स चचारि अणुयोगदारा, ते परूवेऊन अज्झयणत्थाहिगारो परगावास जाणितब्बो मेरइया य जो णरगाणं णिश्यागमणं, स वा उद्देसत्थाधिगारो दोमुवि उद्देसएस णेरइयाणां णाणाविधाओ वेदणाओ, णामणिफण्णो णिक्खेवो परगस्स छको, तथा चाह-'णिरए छक्कं गाथा (६२) दव्यणिरओ तु इहेब जो तिरियमणुए असुद्धठाणा चारगादिखडाकडिल्लमटंगावंसक डिल्लादीणि असुभाई ठाणाई, जाओ य णरगपडिसूचियाओ वियणाओ दीसंति, जहा कालसोअयरिओ चारगादि मरितुकामो वेदणासमण्णाओ अडारसकम्मकरणाओ वा वाधिरोगपरपीलणाओ वा एवमादि, अथवा कम्मदव्यणरगो णोकम्म० वा, तत्थ कम्मदव्यणरगो रगवेदणिज्जं कम्मं बद्धं ण ताव उदिज्जति तं पुण एगभविय बद्धाउओ य अभिमुहणामगोयं, णोकम्मदव्वणरगो य, तत्थ णोकम्म० णाम जे असुभा इहेब सद्दफरिसरसरूवगंधा, खेत्तणरगो परगावासा चउरासीति णरयावाससतसहस्सा, कालणरगा वा जस्स जेचिरं रगेस द्विती, भावणरगो जे जीवा गरगाउयं वेदंति णरगपयोगं वा जं कम्मं उदिष्णं, अथवा ससत्तसहस्सा काण, गरगा वा वरसगंधफासा इव कम्मुदयो णेरइयपायोग्गो जहा काल सोयरियस्स इह भवे चैव ताई कम्माई नेरइयभावभवितारं भावनरकः, सोऊण णिरयदुक्खं तवचरणे होइ जइयां, उक्ता नरकाः। इदाणीं विभत्ती, सा णामादि छन्निधा, तंजाणामविभत्ती ठेवणाविभत्ती ० णामविभासा कंठ्या । ठवणविभत्तिम्मि भासावतव्यता, दव्यविभत्ती दुविधा- जीवविभत्ती अजीवविभत्ती य, जीवविभी दुविहा जहा संसारत्थजीव विभत्ती असंसारत्य जीव विभक्ती य, असंसारत्थजीववि० दुविधा, दव्वे काले, दव्यतो य तिन्थसिद्धादि पंचद (स) भेदा कालओवि पढमसमय सिद्धादि, संसारत्थ जीव विभत्ती तिविधा, तंजहा इंदिय विभत्ती काय० भवतो विभत्ती, सासमासतो एगिंदिविभत्ती पुढविकायियादि, भवतो रइयभवादि। अजीवविभत्ती दुविधा-रूवयाजीवयविभत्ती अरुविया० य,
अस्य पृष्ठे पंचम अध्ययनं आरभ्यते
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नरकादिनिक्षेपाः
॥१५२॥
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आगम
(०२)
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [५], उद्देशक [१], नियुक्ति: [६२-८२], मूलं [गाथा ३००-३२६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] “सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
श्रीसूत्रकताङ्गचूर्णिः ॥१५॥
प्रत सूत्रांक ||३००३२६||
INE
रूपियाजीवविभत्ती चउविधा, तंजहा-खंधा खंधदेसा खंधपएसा परमाणुपोग्गला, अरूवियजीवधिभत्ती धम्मस्थिकायस्स धम्मस्थिकाए देसो पदेसा एवं अधम्म आगास अद्धासमये दसविधा, खेतविभत्ती चउचिहा-ठाणाओ दिसओदबओ सामित्तओ, ठाण-1 | ओनि लोगविभत्ती विमाणिदगणिरइंदजंबुद्दीवसमुद्दकरणादिविभासा, दिसओ पूर्वस्यां दिशि०, क्षेत्रं चतुर्विधं, दव्यओ सालिखेत्तादि, | सामितो देवदत्तस्य क्षेत्रं यज्ञदत्तस्य चेति, अथवा क्षेत्र-आयरियं अणारियं च, अणारियं सगजवणादि, आयरिय अद्धछब्बीसतिविधं रायगिहमगहादि, कालविभत्ती तीताणागतवर्तमानसुसमसुसमादिओ दिवसरति युगपदयुगपत् क्षिप्रमक्षिप्रमित्यादि, अथवा | समयादि वा, समयस्स परूवणा तुण्णागदारगादि, भावविभत्ती दुविधा-जीवभावधिभत्तीय अजीवभावविभत्ती य, जीवभावविभत्ती उदयगादि, तत्थोदइओ गतिकसायलिंगमिच्छादसणाऽण्णाणऽसंजआसिद्धलेसाओ जहासंखेण चतुचतुतिण्णिएकेकेकेकछमेदा, गती || णारगादि चतुर्विधा, कसाया कोहादओ, लिंगभेदा थीपुरिसणपुंसगा, लेस्सा कण्हलेस्सादि ६, सेसा एगभेदा, सो एकवीसइ-12 भेदो उदइओ भावो, उवसमिओ दुविहो-उपसमिओ य उवसमणिप्फण्णो य, उपशमश्रेण्यादयः, ज्ञानाज्ञानदर्शनदानलब्ध्यादयश्चतुत्रितिपंचभेदाः सम्यक्त्वचारित्रे संयमासंयमश्च, णाणं चउन्विहं मतिसुतावधिमणणाणाणि, अण्णाणं तिविह-मतिसुतिअण्णाणविभंगाणि, सणं त्रिभेद-चक्षुःअचक्खुओहिंदसणाणि, लद्धी पंचभेदा-दानलाभभोगोपभोगवीरियलब्धिरिति, संमत्तं चारित्तं संयमासंयम इति, एस अट्ठारसविधो खओवसमिओ भावो, जीवभव्याभव्यत्वादीनि, जीवत्वं अभव्यत्वं भव्यत्वं चेत्येते प्रयः पारिणामिका भावा भवन्ति, आदिग्रहणेण अस्तित्वं अन्यत्वं च कर्तृत्वं च भोक्तृत्वं गुणवत्वं च असर्वगत्वं च अनादिकर्मसंतानबद्धत्वमसंख्यप्रदेशकत्यं अरूपित्वं नित्यत्वं एवमादयोऽप्यनादिपारिणामिका जीवस्य भावा भवन्ति, संनिवातिको दुसंयोगादिओ, गता
दीप अनुक्रम [३००३२६]
॥१५३॥
अस्य पृष्ठे पंचम अध्ययनस्य प्रथम उद्देशक: आरभ्यते
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आगम
(02)
प्रत
सूत्रांक
||३००
३२६||
दीप अनुक्रम
[३००
३२६]
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र - २ (निर्युक्तिः+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [ ५ ], उद्देशक [१], निर्युक्तिः [६२-८२ ], मूलं [गाथा ३००-३२६ ] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र -[०२] अंग सूत्र [०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि :
श्री सूत्रक्रताङ्गपूर्णिः
॥१५४॥
जीवभावविभत्ती, अजीवाणं मुसाणं वण्णादि ४, अमुत्ताणं गतिठितिअवगाहादि एताए एव छविधाए विभचीए जं जत्थ जुजति तं तत्थ जोड़तव्यं । केरिसं तत्थ वेदणं वेदेति ?, उच्यते 'पुढविकासं अण्णष्णकक्कसं' गाथा ||३७|| केरिसं पुण पुढविकासं ?, से जहा णामए असि० विभासा, तीसु पुढविसु परइया उसिणपुढविकासं वेदेति, अण्णष्णुत्रकमो णाम मोग्गरमुसुंडिकरकय०, अथवा लोहितकुंथुरूवाणि छट्ठीसत्तमीसु पुढवीसु विउव्वंति, णिरयपाला णाम अंबे अम्बरिसी चेव०, ते पुण नाव तच्चा पुढवी, सेसासु पुण अणुभाववेदणा चैव वेदेति, अणुभावो नाम 'इमीसे स्यणप्पभाए पुढवीए णारया केरिसयं फासं पचणुब्भवमाणा विहरंति ?, से जहाणामए - असिपचेति वा, से जहाणामए अहिमडेति वा गोमडेइ वा, वण्णा काला कालोभासा, एवं उस्सासे, अणुभावे सन्वासु पुढवी, णिरयवालबंधणंति बुतं, ते इमे पण्णरस परमाधम्मिया णिरयपाला, तं०-अंबे अंबरिसी चेव, सोमे सबलेत्ति यावरे । रुद्दोवरुद्दो काले य, महाकालेत्ति यावरे ॥६८॥ असिपत्ते घणु कुंभे, बालू वैतरणीति या । खरस्सरे महाघोसे, एता पण्णरसाहिते ||६९|| जो जारिसवेदणकारी सो तेण अभिधाणेण अभिधीयते, 'अंबरादीणं'ति तत्थ अंबरं- आगासं विति, तत्थ र 'धाडेन्ति' गाथा ॥ ७० ॥ विधंति णस्समाणे य सरेहिं णिसुंभंतित्ति, आघ दूरपतिट्ठाणे अच (न्ध)तमसे, केइ पुण साभाविगे चेव आगासे अंबरतले वा सत्तट्ठतलप्पमाणमेत्ताई उब्बिहित्ता पाडिन्ति अंबरिसाओ, हत उवहते यहिते० गाथा ॥ ७१ ॥ उपेत्य हता- ताडिता, णिस्सण्णा नाम मूर्च्छावशान्निःसंज्ञीभूताः भावे णिच्चेयणे चैव भूमितलगते कप्पणीहिं मंसमिह कप्पेन्ति सागरिका वा रथकारा वा जहा कुहाडेहिं तच्छंति, विदलको नाम विदलं जहा फोडेंति दिग्बचउगच्छेएण कर्डेति । 'साइणपाडणतोडण गाथा ||७२|| ते अंगोवंगाई साडेन्ति, संधीओ त्रोडंति, तुत्तएण तुदंति, सूईहिं विन्झ
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विभक्तिः
॥ १५४॥
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आगम
(०२)
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [५], उद्देशक [१], नियुक्ति: [६२-८२], मूलं [गाथा ३००-३२६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] “सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
| विभक्ति:
प्रत
सूत्रांक
||३००३२६||
दीप
श्रीसूत्रक
DD गीहि य विंधति, रजेहिं बंधति, ताडेन्ति लत्ताहि लउडेहि या, करतलकोप्परपहारेहि य संभग्गमहिए करेइ, सबला पुण सबलगुणरूवाई ताङ्गचूर्णिः
| विउचिऊण, विउम्वेद वा परइए।'अंतगयफिफ्फिसाणि य०'गाथा ।।७३|| कंठ्या, रुद्दा णाम असिसत्तिकोंततोमरसूलति॥१५॥ सूलसूईसु हली (चियगा)सु । पोएंति कंदमाणे णेरइए (रुद्दकम्मा उ नरयपाला) तहिं तहिं रुद्दा ।।७४।। उवरुद्दा णाम
भंजंति अंगमंगे उरुबाहु सिराणि तय करचरणे । कप्पंति कप्पणीसु(हिं) उवरुद्दा पावकम्मरया ।।७५।। सुंठीसु मिरा ॥७६।। पुण कालं कालो कालोभासं अग्गि विउव्वित्ता सुंठएसु य कंइसु य पयणगेसु य पयंति कुंभीसु य लोहीसु य पयंति काला उ णेरइए खीलगेण णिखि विचा णेरइए मीरासु पयति । महाकाला पुण 'कप्पेंति कागिणीमंसगा' छिदंति सीसपु| च्याणि । खावेंति य णेरइए महाकाला पावकम्मरता ॥७७॥ महल्ले तवगे चुल्लीसु य दहंति, अच्छिण्णे अभिण्णे य णेरइए तत्थारुभेचा | महदवग्गाविव दुधिगेव पउल्लेत्ता पच्छा कप्पणीहिं कप्पेऊण कारा(गा) णि भंसाणि खावेंति, कागिणिमंसा णाम कागिणिमेतं | मंसं छेत्तुं पउलेउ खावेंति । असी णाम 'हत्थपादे उरू'गाथा ॥७८॥ ते असी विउव्वेत्ता तेसिं गैरइयाण हत्थपादमादीणि छिदंति, असिपत्ता णाम 'कण्णोट्टणास'गाथा ॥ ७९ ॥ ते असिपत्तवर्ण विउवित्ता तओ तत्थ छायावुद्धीए पविसंति, पच्छा वातं विउमंति, पच्छा वातकंपितेहिं असिपत्ते छिजंति, ण केवलं तत्थ असिसरिसाणि चेव पत्ताणि, अण्णाणिवि खुरूप्पपरसुकरुसमादिसरिसाई, तेसि कन्नणासउट्ठि(ओट्टे)छिन्दंति, उक्तं हि-'छिन्नपादभुजस्कन्धाः, छिन्नकोष्ठनासिकाः। भिन्नतालुशिरोमेदाः, भिन्नाक्षिहृदयोदराः ॥११॥' कुंभी णाम 'कुंभीसु पयणेसु लोहीसु य०'गाथा ||८०॥ ते कुंभकारोविच णाणाविहाई कुंभिलोहिमाई भायणाणि विउवित्ता कीलगरतओ अपुन्नेसु नेरइए पक्खिवंति। वालुगा णाम 'तडतडतडस्स भन्नं ति०' गाथा ॥ ८१।। ते
अनुक्रम [३००३२६]
॥१५॥
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भाग-2 “सूत्रकृत" - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [५], उद्देशक [१], नियुक्ति: [६२-८२], मूलं [गाथा ३००-३२६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-०२] “सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
प्रत
सूत्रांक
अं.सूत्रतागचूर्णिः ॥१५६॥
||३००३२६||
दीप अनुक्रम [३००३२६]
केवल च बालुगं विउति, केवलं च वालुगा णाम कलंबगपुप्फमिव उठ्ठसिताओ, सो जहा पुष्फरुहं सिंगा मुम्मुरभूता, तत्थ घोसाए प्रश्नोत्तराणि दुक्खं खुप्पंति वाउडताए य अंगमंगेसु णिवयमाणेसु मुंमुरेण व अंगमंगाई डझंति, पाडेऊणं च तत्थेव लोलाविअंति। वेतरणी णाम पूयरुहिरकेसट्टि गाथा ॥८२॥ वेगेण तरंति तामिति वेतरणी, ते अणोरपार गंभीरतरं दि विउव्यंति, तीसे पुण पावियं पूर्वअरुहिरं। खरसरा णाम कप्पंति करकएहिं० गाथा ॥८३॥ ते जंतेऊणं व कटुं जहा फाडेंति कप्पति करकएहिंति परोप्परं । च जुज्झाउँति, सिंखलिंग विउव्वित्ता तत्थारुभिऊणं कटुंति, अंछमाणेसु य खरं रसंतो, महाघोसा णाम भीते पलायमाणे समंततो० ॥८४|| गोवालेवि य गाविओ णियत्तेति य एकतो खुत्ते य कडेति चारो य पक्खिवंति, णामणिप्फण्णो गतो। इदाणिं सुत्ताणुगमे सुतमुचारेयव्यंति 'पुच्छिसुतं केवलियं महेसिं' वृत्तं ॥३००॥ सुधम्मसामी किल जंबुसामिणा णरगे पृच्छितो, केरिसा परगा? केरिसएहिं वा कम्मेहिं गम्मइ ? केरिसाओ व तत्थ वेदणाओ?,ततो भण्णते-पुच्छिसुहं पृष्टवानहं भगवंतं यथैव भवन्तो मां पृच्छंति, केवलमेवैकं तस्य ज्ञानमित्यतः केवली अथवा कृत्स्नः प्रतिपूर्ण केवलमित्यर्थः, संपूर्ण ज्ञानी केवली, महरिसी तित्थगरो, कथमिति परिप्रश्ने अभिमुखं भृशं वा तापयन्तीति अलोपात , भीता वा, नीयंते तमिन् पापे कर्मो इति न रमति वा तस्सिनिति नरका, पुरस्तादिति इह पापकर्तुस्ते परस्ताद्भवन्ति भावनरकान् पृच्छति, द्रव्यनरकास्तु इहैव दृश्यन्ते, अविजाणतो मे मुणी ब्रूहि, हे ज्ञानिन् ! नाहं जाने-कैः कर्ममिः कथं वा नरकेधूपपद्यन्ते तद्यैः कर्मभिर्यथा चोपपद्यन्ते तमजानतो ममोच्यता एवं मया पुट्टो महाणुभागे' वृत्तं ॥३०१।। एवमनेन प्रकारेण, पुट्ठोणाम पुच्छितो, महानस्यानुभागः, द्रव्याणुभागो हि आदित्यस्य प्रकाशः, तदनुभागाद्धि चक्षुष्मतः अहिकंटकाः अग्निपातादीनि च परिहरंति, मोक्षसुखं च अनुभवंति, अनुभवनमनुभावः, महांति या ज्ञानादीनि ॥१५६॥
Earland
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आगम
(०२)
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [५], उद्देशक [१], नियुक्ति: [६२-८२], मूलं [गाथा ३००-३२६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] “सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
(UNI७.......
ला
दुखार्थ
दुगादि
प्रत सूत्रांक ||३००३२६||
श्रीसूत्रक
( भजति सेवत इत्यर्थः, इदमब्रवीत् , यद्वक्ष्यमाणः काश्यपगोत्रो भगवान् , असौ पुण्णेति न पुच्छितो चिंतेति, आसु एव प्रजानीते तानचूर्णिः प्रज्ञ एवं पृष्टो मया-पवेदइस्सं दुहम दुग्गं साधु वेदयिध्ये प्रवेदयिष्ये, प्रदर्शयिष्यामीति इत्यर्थः, दुःखस्यार्थ दुःखमेवार्थः दुःख॥१५७. IFA प्रयोजने या दुक्कडकारिणं दुःखनिमिचो वा अर्थः दुहमहूं, तस्य दुःखस्य कोऽर्थः?, वेदना, शरीरादिसुखार्था हि देवलोकाः, दुःखार्था
नरकाः, दुर्ग नाम विपर्म, आदीनिक अथवा आदीनं नाम पापं दुक्कडकारिणं दुःखोत्पादकानां, पुरस्तादिति अग्रतः, अथवा आदिनिकं दुकडिणं पुरत्थेति तेसि आदीणिगपापकम्मदुकडकारिणं पुरस्तात्पूर्वभवदुकडकारिणामित्यर्थः, दुक्कडंति महारंभादीहिं । जे केइ वाला इह जीवितही' वृत्तं (३-२)'जे'त्ति अणिद्दिवणिद्देसो, द्वाभ्यामाकालितो बालः, ये केचन वाला, इहेति तिरियमणुएसु असंजम जीवतही तत्प्रयोगजीवतार्थी च, कूराई कम्माई करेंति रोदा कूराई हिंसादीणि रौद्राध्यवसायाः रौद्राकाराश्च रौद्राः ते | घोररूवे तमसंधयारे कुंभी वेतरणी यत्र हण छिन्द मिन्द इत्यादिमिर्भयानकैर्धाररूपो घोररूपा चा ते नरका जस्थ सो उचयजति, तमसंधकारो नाम जत्थ घोरविरूविर्ण पस्संति, जं किंचि ओहिणो पेक्खंति तंपि कागदसणियामणिया सरिसं पेच्छति तैमिरिका चा, कण्हलेसे णं भंते ! पोरइए कण्हलेस्सं णेरइयं पणिधाय ओहिणा सबओ समंता समभिलोएमाणा केवतियं खेत जाणति ? केवइयं खेतं पासंति ?, गोयमा ! णो बहुतरयं खेत्तं जाणइ णो बहुतरयं खेतं पासति, तिरियमेव खेत्तं पासति जह लेसुदेसए तिब्वाणुभावेति अनुभवनमनुभावः तीववेदनानुभावात् , कथमुपैति से जहा णामए पवगे परमाणे ते तु कैः कर्मभिर्यान्ति 'तिबंति से पाणिणो धावरे य' वृत्तं ॥३०३।। तीत्राध्यावसिता जे तसथावरे पाणा हिंसंति न चानुतप्यन्ते, ये तु मन्दाध्यवसायाः त्रसस्थावरान् प्राणा हिंसंति ते त्रिपु नरकेधूपपद्यन्ते, अथवा तीत्रमिति तीवाध्यवसायाः तीब्रमिथ्यादर्शनिनश्च तीब्रमिथ्याध्यवसिता संसारमोचका
HTHANIPAPACLE
दीप
अनुक्रम [३००३२६]
॥१५७॥
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आगम
(02)
प्रत
सूत्रांक
||३००
३२६ ||
दीप अनुक्रम
[ ३००
३२६]
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र - २ (निर्युक्तिः+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [ ५ ], उद्देशक [१], निर्युक्तिः [६२-८२ ], मूलं [गाथा ३००-३२६ ] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र -[०२] अंग सूत्र [०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि :
श्रीसूत्र क्रचूर्णि
॥ १५८॥
याज्ञिकादयश्च, धावरे पुरदाहगादिः, आत्मसुस्वार्थं आत्मसुखं पहुंच, यदपि हि परार्थं हिंसति हि तत्रापि तेषां मनः सुखमेवोत्पद्यते पुत्रदारे सुखिन अप्यत्र वा, जे लूसए होंति अदत्तहारी लुसको नाम हिंसक एव, जो वा अंगं पञ्चंगं भिन्दति भंजति वा, अदत्तं हरतीति अदत्तहारी, सोय विगयसंजमः, सिक्खा गहणसिक्खा आसेवणासिक्खा वा न किंचिदपि आसेवते संयमठाणं तस्स एग पाणाएव दंडेण णिक्खित्तो 'पगभिपाणे बहुति' वृत्तं ॥ ३०४|| तस्य तं कर्तुकामस्य कृत्वा वा किंचन मार्द्दवमुत्पद्यन्ते यथा सिंहस्य कृष्णसर्पस्य वा बहूणं वेदेति मत्स्यबन्धाद्याः स्वयंभुरमणमत्स्या वा येषां वाऽन्या वृत्तिरेव नास्ति वग्घसिंहनागादीनां त्रिभ्यः पातयती त्रिभिर्वा पातयति मनोवाक्काययो गैरित्यर्थः, एवं परिग्रहोऽपि वक्तव्यः अणिव्बुडे अणुवसंते आसवदारेहिं स एव दाहिणगासि गामि अधम्मा पक्खएसु बहुं पावकम्मं कलिकलुस समञ्जिणित्ता 'से जहा णामए अयगोलेति वा' इत्तो चुए घातगतिं उवेंति घातगामिनामिव गतिर्वेदनागतिरित्यर्थः, घातकानां वा गतिः घतगतिं गच्छति, अंतकालो नाम जीवितान्त कालः निधौ गति रधोगतिः अधो भवद्भिः शिरोभिर्न्यग्भवद्भिः शिरोभिः, तओ तं अप्रकाशं अधो गच्छदन्धकार मित्यर्थः, अन्तकालो नाम जीवितान्तकालः अधोशिरा इति उक्तं हि जयतु वसुमती नृपैः समग्रा, व्यपगत चौरभयानुदेव ! शोभा। जगति विधुरवादिनः कृतान्तः (ग्रन्थाग्रं (३४००) नरकमवाङ्गिरसः पतंतु शाक्याः || १|| दूरोत्पतने हि शिरसो गुरुत्वात् अवाशिरसः पतंति स एव विचारः इहानुगम्यते, तेषां तस्यामवस्थायां शिरो विद्यत एव इति, एकसम चिकदुसमयिकगतितिगसमएण वा विग्गण उपवअंति, अंतोमुहुत्तेण अशुभ कर्मोदयात् शरीराण्युत्पादयति, निर्लुनांडजसन्निभानि निजपर्याप्तिभावमागताच शब्दान् शृण्वंति 'हण छिन्दध दिह णं दहह'वृत्तं ॥२०५॥ कण्ठथं, ततस्तान् शब्दानाकर्ण्य मुखात् भैरवान् श्रुत्वा तद्भयात्पलायमानाः 'इंगालरासिं जलितं सजोतिं
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लूषकादि
।। १५८।।
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आगम
(०२)
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [५], उद्देशक [[], नियुक्ति: [६२-८२], मूलं [गाथा ३००-३२६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] “सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
अंगार
राइयादि
प्रत सूत्रांक ||३००३२६||
दीप
श्रीसूत्रक-10 पृत्तं ॥३०६।। जहा इंगालरासी जलितो धणधणेति एवं ते णरकाः स्वभावोष्णा एव, ण पुण तत्थ वादरो अग्गी अस्थि, विग्गहताङ्गचूणिः गतिसमायण्णएहि, ते पुण उसिणपरिणता पोग्गलगा जंतवाडचुल्लीओवि उसिणतरा, ततोवमं भूमि अणोकमन्ता तत्रायसक॥१५९॥ IPE वल्लतल्लं ते डज्झमाणा कलुणं थणति, कलुणं दीणं, स्तनितं नाम प्रततश्वासमीपकूजितं यल्लाडानां निस्तनितं, अरहस्सराणाम |
| अरहतस्वराः अनुबद्धस्सरा इत्यर्थः, चिरं तेसु चिटुंतीति चिरद्वितीया, जहण्णेणं दस वाससहस्साई उकोसेणं तेत्तीसं सागरोयमाई, त एवं प्रतिपद्यमाना न द्यां पश्यति 'जइ ते सुता वेतरणीतिदुग्गा वृत्तं ॥३०७॥ यद् त्वया श्रुतपूर्वा वैतरणी नाम नदी, लोकेऽपि | ोपा प्रतीता, वेगेन तस्यां तरतीति वैतरणी, अभिमुखं भृशं वा दुर्गाऽतिदुर्गा गम्भीरतया परमाधामिकैः कृता, केचिद् ब्रुवते-स्वाभा| विकैवेति, खुरो जहा णिसिओ यथा क्षुरो निशातश्छिनत्ति एवमसावपि, जइ अंगुली चुंभेज ततः सा तीक्ष्णश्रोताभिः छियते,तीक्ष्णता
वा गृह्यते यथा क्षुरधारा तीक्ष्णवेगा, ततस्ते तृष्णादिना प्रतप्ताङ्कारभूतां भूमिं विहाय खिन्नासवः पिपासवश्च तत्रावतरन्तीति, अवतीर्य | चैना मार्गातिदुर्गा प्रतरन्ति नरकपालैरसिभिः शक्तिभिश्च पृष्तः प्रणुद्यमाना उत्तितीर्षवश्च ततः शक्तिमिः कुन्तैश्च तत्रैव क्षिप्यन्ते 'कीलेहि विज्झंति असाधुकम्मा'वृत्तं ॥३०८।। ततो परमाधम्मिएहिं णावाउवि विउविताओ लोहखीलगसंकुलाओ ते ताओ अल्लियंता पुयाविलग्गेहि णिरयपालेहि विझंति, कोलं नाम गहुँ, उक्तं हि-कोलेनानुगतं बिलं, भुजंगबदसाधूनि कर्माणि येषां ते इमे असाधुकाणः, णावं उवेति उपल्लियति तेसिं तेण पाणिएण कलकलभूतेण सव्वसोवाणुपवेसणा सत्ति पूर्वमेव नष्टा, पुनः कोलेबिद्धानां भृशतरं नश्यति, भिन्नति सूलाहित्ति मूलयाहिं त्रिशूलिकाभिर्दीर्वाभिः अहे हेटतो जलस्म अधो मुखे वा, ततः | कथंचिदेव चिरा उत्तीर्णाः सन्ता नरकपालैविकुर्वितां नरकभूमिमुपयन्ति, कतरियं ?'आसूरियं णाम'वृत्तं ।।३१०॥ यत्र शूरो नास्ति
अनुक्रम [३००३२६]
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आगम
(०२)
भाग-2 “सूत्रकृत" - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [५], उद्देशक [१], नियुक्ति: [६२-८२], मूलं [गाथा ३००-३२६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-०२] “सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
प्रत सूत्रांक ||३००३२६||
श्रीसूत्रकनाङ्गचूणिः ॥१६॥
महातापादि
दीप
अथवा सर्व एव नरकाः अमरिकाः महन्ततावं णाम कुंभीपाकसदृशं महानतितापो यस्मिनीध तमोभूतं यथा जात्यन्धस्य अहनि रात्रौ च सर्वकालमेव तमः एवं तत्रापि, स तु आगाधगुहासदृशा दुःखं तत्थ पावेयुरिति दुखन्तरं, महान्त इति विस्तीर्णा, उ९ अहे। य तिरिय दिसासु ऊर्ध्वमिति उबरिल्ले तले अधे भूमीए तिरियं कुड्डेसु, तत्थ कालोभासी अचेयणो अगणिकायो समाहितो सम्यक् आहितो समाहित एकीभूतो निरन्तरमित्यर्थः, पठ्यते च-समूसिते जत्थ अगणी झियाति समूसितो नाम उच्छृतः सो | पुण जं भट्ठीचुल्लीतो उसिणतरो जंसि 'जंसि गुहा जलणातियट्टे'वृत्ते ॥३१।। गुहाए गतो दारा विउब्धिता, किण्हा गणणा ऊऊयमाणी ऊऊयमाणी चिट्ठति, जलणं अति अतो जलणतियट्टे, अविजाणतो डज्झति लुत्तपण्णे अविजाणतो णाम नासौ तस्यां । विजाणाति कुतो द्वारमिति, अथवाऽसौ जानाति अवमे उसिणपरित्ताणं भविष्यति, इह वाऽसौ अविज्ञायक आसीत , यस्तु द्विधानि | कर्माण्यकरोत् लुप्ता प्रज्ञा यस्य स भवति लुत्तपण्णा-न जानाति कुतो निर्गन्तव्यमिति, प्रहासौ वा वेदनाभिर्वाऽस्य प्रज्ञा मर्वाहता, अथवा अहिते हि पण्णाणे इदमन्यद्वेदनास्थान-सदा कलुणं पुण धम्मट्ठाणं सदेति नित्यं, न कदाचिदपि तस्मिन् हर्षः ग्रहासो वा, धर्मणः स्थानं धर्मस्थानं, सर्व एव हि उष्णवेदना नरकाः धर्मस्थानि, विशेषतस्तु विकुर्वितानि स्थानानानि दुक्खनिष्क्रमणप्रवेशानि | गातं उण्डं दुःखोवणितं गाढ़ा दुर्मोक्षणीयैः कर्मभिन्तत्रोपनीता स वा तेपामुपनीतः अथवा गाढमिति निरन्तरमित्यर्थः, गाढ-IM चेदणं अतिदुक्खधम्मंति, धर्मः स्वभाव इत्यर्थः, स्वभावग्रतप्तेषु तेषु तत्थवि 'चत्तारि अगणिओ समारभित्ता'वृत्तं ॥३१२।। अथवा इदमेव तत् धर्मस्थानं यदुत चत्तारि अगणीओ समारभित्ता चउदिसं अगणि, समारमिता णाम समुद्दीवेत्ता, जहिति यत्र क्रूराणि कर्माणि यैः पूर्व कृतानि क्रूरकर्माण: नारकाः, अथवा ते क्रूरकर्माणोऽपि णरयपाला जे णरयग्गिततेवि तपति तापयंति
अनुक्रम [३००३२६]
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आगम
(०२)
प्रत
सूत्रांक
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दीप
अनुक्रम [३००
३२६]
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र - २ (निर्युक्तिः+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [ ५ ], उद्देशक [१], निर्युक्तिः [६२-८२ ], मूलं [गाथा ३००-३२६ ] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र -[०२ ] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि :
श्रीसूत्रकताङ्गचूर्णिः ॥१६१।।
Ka
यत एव हि मंदा नरकपाला मंदबुद्धय इत्यर्थः, नरकप्रायोग्यान्येव कर्माण्युपचितवंत इति, भृशं तप्यमाना अतितप्यमाना, जीवंति | मे जीवं, स एव ज्योतिषः समीपे गओ य जोतिपत्ता समीपगता भिन्ना पवने मत्स्यास्तप्यन्ते, किमंग पुण तत्ते, त एव च्छुढा अयोकत्रये वा सीतयोनित्वाद्धि मत्स्यानां उष्णदुःखानभिज्ञत्वाच अतीवाद्यौ दुःखमुत्पद्यते इत्यतो मत्स्यग्रहणं । किंचान्यत्-संत|च्छणं णाम ||३१३|| समस्तं तच्छणं णाम जत्थ चिउच्चिताणि वासिपरसुमादियाणि तं बलिओ जहा खयरकटुं तच्छेति एवं तेवि वासीहिं तच्छिअंति, अन्ने कुहाडएहिं कट्टमिव तच्छिअंति, महन्ति तावं णाम महंताणिवि तत्ताणि तच्छणाणि भूमीवि तत्ता, असाधूणि कम्माणि जेसिं ते असाधुकम्मी हत्थेहि य पादेहि य बंधिऊणं, रज्जूहि य जियलेहि य अउआहि य कडिकडगावंघेणं बंधिऊणं मा पलाइस्संति उहंसेन्ति या तथा पुरकवालफलग इव कुहाडहत्था तच्छेति, ते एवं संतच्छिता 'रुहिरे' वृक्षं ॥ ३१४ || रुहिरे पुणो चैव समृसितं, गोरुधिरं जंते छिअंताणं परिगलति, पुण्यं च तेषां वर्चस्फुटितान्यंगानि ते वर्चसा आलितांगाः कुहाउपहारएहिं, भण्णंति-भंगे अपकवले, तम्मि चैत्र थियए रुधिरे उब्बतेमाणा परियमाणा य पर्यति, ण णेरइए फुरंते उकारिगा च, धूवं च जहा सिलिसिलेमाणा पुरुफुरुते य, सज्जो मच्छे व अयोकचल्लेसु पयंति सज्जो मच्छेति जीवंते, अथवा सज्जो कमच्छे सञ्जो हते, अध विजिगाए चैत्र वसाए, अयोकबहीणीत्ति अयोमयाणि पात्राणि, एवमपि ते छिन्नगात्रा स्ताड्यमाणाः पाट्यमानाश्थ 'ते तत्थ मसीभवंति 'वृक्षं ॥३१५॥ छारीभवंति वा, न म्रियंते, तिब्बा अतीव वेदनानुबन्ध्धा न लोमं देवं गतं, इतरहा तु अतितिव्यवेदणा इति, पठ्यते - क्रम्माणुभागं सीतं उसिणाणुभागं वेदेति, भूयो २ वेदेती भूअणूवेदयंति, तेण दुक्खेणं दुक्खंति, सोयंति जूरंति इह दुकडेहिं अड्डारसहिं डाणेहिं 'तेहिंपि ते लोलुअसंपगाढा' वृत्तं ||३१६ || तस्मिन्नपि ते पुनर्लोलुगसंपगादे अणं
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| उपज्योति
रादि
॥ १६१ ॥
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आगम
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भाग-2 “सूत्रकृत" - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [५], उद्देशक [१], नियुक्ति: [६२-८२], मूलं [गाथा ३००-३२६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता....आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-[२] “सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
लोलनादि
श्रीसत्रकताङ्गचूर्णिः ॥१६२॥
प्रत सूत्रांक ||३००३२६||
दीप अनुक्रम [३००३२६]
पगाढतरं सुतं तं विउव्विपलयं अगणिं गाद द्वाणं वयंति, लोलंति येन दुक्खेन तल्लोलगं, भृशं गाढं प्रगाढ निरन्तरमित्यर्थः, गाढतरं सुठुतरं गाद सुतत्तं, ततो विसाला विगतो णरगउसिणगाओ अधिकतरं, अथवा सा अगणिणा तत्तं सीतवेदणिजावि लोलुगा तेसुवि णेरइया सीएण हिमकडअउणपक्खित्ताई च भुजंगा ललकारेण सीतेणं लोलाविअंति, अण्णोसिं पुण णरगाणं वा, लोलुअग्गिति णाम, जहा लोलुए महालोलुए, तत्थ सादं लभंतीति दुग्गे निस्यपालो महत्तरेणापि तावत् ण तत्थ सायं लभति, उक्तं हि-'अच्छिणिमीलियमेत्तं णस्थि सुहं किंचि कालमणुब ०' अतिदुग्गे वा, भृशं दुर्गे वा, ण चेव तत्थ कासइ समा भूमी अस्थि, अरिहिता अभिभावः तस्मिन्नपि अरिहते अमितावो तहावि तं विजंति अयोकवल्लादिसु तेषां नरकाणां गण्डस्योपरि पिटका इब जाताः ते ते स्वाभाविकेन नरकदुक्खेण विशेषतश्च नरकपालोदीरितेन पुनः पुनः समाहता हन्यमानाः स्वयं वेदनासमुद्घातैरिव कालं गमयंति, तत्र पुनर्महाघोपनरकपालोदीरितस्तेषां च परस्परतो हनछिन्दभिंदमारयातिकूपितस्तनितशब्दैश्च से सुब्बती गामवघे व सद्दे०'वृत्तं ॥३१७॥ से जहा नामए अयघाते वा णरघाए वा सर्वस्वहारे च बन्दिग्रहे वा महाणगरडाहे या उकिरिजंतेसु वा णगरेसु गामेसु वा समंता हाहाकारा रवा अमानुपुत्राः श्रूयते, एवं तेष्वपि उदिण्णकम्माए पयायति णरगपा(लाव)याए णरगलोगस्स महाभैरवसद्दो सुब्बते, उदिण्णकम्माण तेसिं असातावेदणिजादिगाओसणं असुभाओ कम्मपयडीओ उदिण्णाओ, असुरकुमाराणवि तेसिं मिच्छत्तहासरतीओ उदिष्णाओ इत्यवस्थे उद्दिष्णकम्मा, पोरइयाणं शरीराणीति वाक्यशेषः, उदीर्णकर्माणोऽसुराः, पुनः पुनरिति अनेकशः,संघातमारणाणि सह हरिसेण सहरिसं दुक्खापयंति दुहंति विहंसंति वा, पठ्यते 'पाणेहि णं पाव विजोजयंति'वृत्तं ॥३१८॥ प्राणाः शरीरेन्द्रियबलप्राणाः ते पापास्तैस्तै.दनाप्रकारैः बलभेदप्रकारैश्च वियोजयंति विश्लेपयन्तीत्यर्थः, साकिमर्थं तेषां वेदनामुदीरयति ? कीदृशी
॥१६२।।
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आगम
(०२)
प्रत
सूत्रांक
||३००
३२६||
दीप
अनुक्रम
[३००
३२६]
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र - २ (निर्युक्तिः+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [ ५ ], उद्देशक [१], निर्युक्तिः [६२-८२ ], मूलं [गाथा ३००-३२६ ] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता
श्रीमूत्र ताङ्गचू
श्रीसूत्रक।। १६९ ताङ्गचूर्णिः
॥ १६३॥
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र-(०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि
वा?, उच्यते 'भेदं पवक्खामि जहातहति जहित्ति इहं येन प्रकारेण पावाई कम्माई ते तर्हि तहेव वेयणाओं पाविअंति, का तर्हि भावना १, तीव्रोपचितैस्तीत्रवेदना भवंति मन्दैर्मन्दा मध्यैर्मध्या नरकविशेषतः स्थितिविशेतथ, अथवा जहा तदत्ति राजन्वे वा राजामात्यत्वे चार कपालत्वे लुब्धकत्वे वा सौकरिकमत्स्यबन्धत्वे वा वधघातमांसापरोधपारदारिकयाज्ञिकसंसारमोचकमहापरिग्रहेत्येवमा| दयो दण्डा यैर्यथा कृतास्तान् तत्थेव दंडे तत्थ सास्यंति-वोलंति, ते च यथाक्रतैर्दण्डैः स्मारयन्ति याच्यमानाः, सरयंतित्ति स्मारयति, न तथा छिद्यन्ते एव, मार्यन्ते वध्यन्ते सह्यते, एवं यावंतो यथा दण्डप्रकाराः कृतास्तावद्भिस्तथा च स्मारयति 'ते हम्ममाणा णरगं उवेंतिवृत्तं ॥३१९॥ त एवं बालाः हन्यमाना इतश्वेतश्च पलायमाणा णिलुकणपथं मग्गंता नरकमेवान्यं भीमतरवेदनं प्रविशंति, | जहा उह चारेहिं चोरा चारिअंति, कडिहमणुप्रविशंति, तत्रापि सिंहव्याघ्राजगरादिभिः खाद्यंते, एवं ते ते बाला पलायमाणा नरकपालभयात् नरकं पतंति अण्णं पुण्णं उरुअस्स, उरूअं णाम उच्चारपामवणकदमो से जहा णामए अहिमडित्ति वा मतकुहितविडुकिमीएणं, तदपि उरूअं तसं महत्ति, ताव तत्थ चिट्ठति उरूबभक्खी, उरुवं भक्षयन्तीति उरुवभक्खी, ते णिरयपालेहि उरुवं खाविअंति, तुद्यत इति तुद्यमानाः कर्मभिः, कर्मावशा णाम कर्म्मयोग्या कर्मवशगा वा, तत्थ दूरे चैव विट्ठाक्रमिसंस्थाणा विउचिया किमिगा तेहि खजमाणा चिट्ठति, गुणमारगाय तत्थ किच्छाहिं गच्छति, परिसंता य तत्थेव लोलमाणा किमगेर्हि खजंति, छदुसत्तमासु णं पृढवीसु णेरड्या मत्तमहन्ताई लोहितकुंथुरुबाई विउव्वित्ता अष्णमण्णस्स कार्य समतुरंतेमाणाअणुखायमाणा चिट्ठेति । किंचान्यत्- 'सदा कसिणं पुण घम्मद्वाणं०' वृत्तं ॥ ३२०|| सदेति नित्यं कसिणं णाम संपूर्ण, तत्तोष्णं कुंभीपागअनंतगुणाधियं, जोवि तत्थ वातो सोऽवि लोहारघमणी वा अनंतगुणउसिणाधिको, गाढेहिं कम्मेहिं तचेपामुपनीतं, ते वा तत्व गीता अवा
[176]
यिथ
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आगम
(०२)
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र - २ (निर्युक्तिः+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [ ५ ], उद्देशक [१], निर्युक्तिः [६२-८२ ], मूलं [गाथा ३००-३२६ ] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र -[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
इष्टापाकादि
प्रत श्रीसूत्रकसूत्रांक ङ्गचूर्णि ॥१६४॥
||३००
३२६||
दीप
अनुक्रम
[ ३००
३२६]
यानीह गाढान्युपणस्थानानि इष्टपाकादीनि तैस्तदुपमीयते, उपनीयतेति वा उवपद रिसतेत्ति वा एग, अतिदुःखखभावं अतीदुःखधर्म, तथावि अतिदुक्खधम्मे आगंम परिकप्पयंति, वालिं हत्थं कसं पक्खिविऊण चिह्नणंति, विहिणित्ता खीलगेहिं चम्ममिव ततो वितडितसरीराणं वेधेहिं विवंति सिराणि तेसिं वध्यस्थानानि येषु वेधेषु ते वेधाः, तद्यथा अक्षिकर्णनासामुखानि, अदान्तेन्द्रियाणां पूर्वत एव एतानि पूर्वमदान्तान्यभूवन्, सांप्रतं दामन्यते, अथवा सीसावेढेण तावेन्ति-सीसं दुक्खावैति, किंचान्यत्-तत्रासिपत्रा नाम नरकपाला 'छिंदंति वालरस खुरेण णकं, उद्वेवि छिंदंति दुवैवि कष्णे' वृत्तं ॥ ३२९ ॥ एतानि हि पूर्वमच्छिनदोपान्य| भूवन् अच्छिन्नतृष्णानि वाऽऽसन्, तत्साम्प्रतं स्वयमेव छिद्यन्ते, जिन्भं विणिकिस्स विहत्थिमेतं, एषा हि पूर्वं नसारिचनी अलीकभाषिणी चासीत्, परस्परं चिकुव्वितेहिं छिन्दंति, बालस्स खुरेण णकं तिक्खाहिं मुलाहिंति, लोहखीलगाः, ते च कार्यं यावत् क्रकाटिकातो निर्गता, निपातयतित्ति विधेति त एवंविद्वा तो 'ते तिप्यमाणा तलसंड (च) च्चा' वृत्तं ॥ ३२२ ॥ विनितप्यमानाः तिप्पमाणाः पीड्यमाना हेरिकादिषु तलसंपुलिता णाम अयतबंधा हस्तयोः कृता, यथैषां करतलं चैकत्र मिलति, एवं पादयोरपि, अथवा करतलेन किंचि जोड्यमानाः, एवं तेषां च घडगेहिं जंतेहि य तलसंपुडियचा, अच्चा सरीरं भण्णति, रातिंदियं तत्थ धणंति मंदा रात्रिंदिनप्रमाणमात्रं कालं णिच्छते अच्छंति, मंदा नाम मंदबुद्धयः, लीना वा समीरिता, सर्वतो रुधिरं गालाविता इत्यर्थः सर्वतश्च मांसैरकृष्टैः अनायभूमीय थरथरायंतो अण्णावकथलं बंगाई देहोऽचि खंडखंडाई केसिंचि काउं पजोविततो, सम्बओ पली वित्ता वेढेऊण के खारेण पतच्छिन्नंगा वासीमादीहिं तच्छेतुं खारेण सिंचति, किं च जइ ते सुन लोहितपागपायी, तैयगुणा परेणं यदि त्वया कदाचित् श्रुता, लोकेऽपि होपा श्रुतिः प्रतीता, तत्र कुंभीओ विजंति, लोहितया पाकः लोहित
[177]
॥१६४॥
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आगम
(02)
प्रत
सूत्रांक ||३००
३२६ ||
दीप अनुक्रम [ ३००
३२६]
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र - २ (निर्युक्तिः+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [ ५ ], उद्देशक [१], निर्युक्तिः [६२-८२ ], मूलं [गाथा ३००-३२६ ] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र -[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
श्रीसूत्रचूर्णिः
|| १६५||
पाकः पच्यते यस्यां सोऽयं लोहितपाकपायी, वाह्यवलस्य हानेः अधिकस्तापो भवति, परिशुष्केन तस्याभिनवप्रज्वलितस्य, स हि अधिकं दीप्यते दह्यति च, तेयगुणा एचोवि परं अनंतगुणा, उन्हो― अग्गी, कुंभी महती कुंभप्रमाणाधिकप्रमाणा कुंभो भवति, जाहेवि चउसुवि पासेसु प्रज्वालितेनाग्निना तप्तलोहिका तेसु, ताम्रपूर्णो दुरासयो, एवं ताओवि कुंभिकेहिं णिरयपालेहिं विउन्विताओ कुंभीओ महंति, महंतीओ पुरुषप्रमाणानीति अधियपोरुसीओ, यथाऽस्यां प्रक्षिप्तो न नारकः पश्यतीति, ण वा चकेइ कण्णेसु अवलंचिउं उत्तरित्तए, अद्दहिता-लोहितपूय मादीणं असुभाणं सरीरावयवाणं पुण्णा, अथवा कुंभी उट्टिगा, अधिया पोरिसेसु वा ऊणा कीरंति तत्थ विच्छोभणा भवति, 'पक्खिप्प तासु' वृतं ॥ ३२४ ॥ अट्टस्तरेति आर्त्तखरमिति, आत्तों हि यावत्प्रमाणं रसति, नासौ लज्जां धैर्य वा तस्मिन्काले गणयति ॥ 'अप्पेण अप्पं इह चइत्ता' वृत्तं ॥ ३२५॥ अप्यं णाम आत्मानं इहेती इह मनुष्यलोके वंचइत्ता कूडतुलादीहिं, अथवा अप्पानं, परोवघातसुद्देण अप्पाणं वंचइत्ता भवाधमो भवाथमो णामाधर्मः अतस्तस्मिन् भवाधमेअधमें पुसते सहस्सेति जाब तेत्तीस सागरोवमाई, चिह्नंति तत्था बहुकरकम्मा। जहाकडं कम्म तहासिभारे बहूणि कुराणि कम्माणि येषां ते बहुक्रूरकर्मा, कम्मा जे य पअंति, जे य पचति सब्वे ते बहूतरकम्मा, जहाकडे कम्मेति यथा चैपां कृताणि कर्माणि तथैवैषां भारो वोढव्यः इत्यर्थः, विभत्ती विज्जते नासौ भारः, का तर्हि भावना ? - यादृशेनाध्यवसायेन कर्माण्युपचिनोति तथैवैषां वेदनाभारो भवति, उत्कृष्टस्थितिर्वा मध्यमा जघन्या वा, ठितिअ अगुरूवा चैव वेदना भवति, अथवा यादृशानीह कर्मायुपचिनोति तथा तत्रापि वेदनोदीर्यते तेषां स्वयं वा परतो वा उभयतो वा, उभयकरणेण तद्यथा-मांसादा स्वमांसान्येवाग्रियर्णानि भक्ष्यन्ते, रस कपायिनः पूयरुधिरं कलकलीकृतं तउतंवाणी य द्रवीकृतानि, व्याघघात सौकरिकादस्तु तथैव विध्यन्ते मार्यं ते
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लोहित
पाकादि
॥१६५॥
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आगम
(०२)
भाग-2 “सूत्रकृत" - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [५], उद्देशक [१], नियुक्ति: [६२-८२], मूलं [गाथा ३००-३२६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत' जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
प्रत
क्रूरकमा
JohnALIHEROCEANSISTARTHIAN
१६६॥
सूत्रांक ||३००३२६||
MiDETTER HIMELINE
दीप
T
च, चारकपाला अष्टादशकर्मकारिणः कार्यते च, आनृतिकानि जिह्वा नक्ष्यंते त्रुट्यन्ते च, चोराणां अंगोपांगान्यपहियंति, पिण्डीकृत्य चैनां ग्रामघातेषिव वधयंति, पारदारिकाणां वृपणा छिद्यन्ते अग्गिवर्णाश्च लोहमय्यस्ते स्त्रियः अवगाहाविजंति, महापरिग्रहारम्भश्च येन येन प्रकारेण जीवा दुःखापिताः सन्निरुद्धा जोतीता अभियुक्ताश्च तहा तहा वेयणाओ पाविजंति, क्रोधनशीलानां तक्रियते येन येन क्रोध उत्पद्यते, तेणं एवं रुसिजति, इदानी वा किं तत् क्रुध्यसे? किं वा क्रुद्धः करिष्यसि , माणिणो हि लजंति, मायिणो असिपत्तमादीहिं सीतलच्छायासरिसेहि य तउतंवरहिं प्रवचिजंति, लोमे जहा परिग्गहे, एवमन्येष्वपि आश्रवेवयोग्यमित्यतः साधूक्तं जहा कडे कम्मे तहा से भारयति । 'समजिणित्ता कलुसं अणजा' वृत्तं ॥३२६॥ जहा अधम्मपक्खे बुचिहिन्ति अधम्मिए अधम्माणुएत्ति हण छिंद भिंद वयंतएत्ति जाव णरगतलपतिद्वाणे भवति, कलुपमिति कम्मैव, चिरस्य हि तत्प्रसीदेति, हिंसादि अणारिया कम्मा अणारिया, इष्टा शब्दादयः, कमनीयाः कान्ताः, त एव विषयाः, अथवा कान्ताबंधे वा, तैर्विप्रहीणाः, अहवा णेत्तिआ, इइ हि इट्ठाणि य कांताणि य पियाणि य तेहिं विप्पहीणा, तओ रसगंध उरुतकदमे य पूगवसारुहिरकदमे या, 'से जहा णामए अहिमडेति वा कसिणे-संपुन्ने असुभभावेण स्पृशंतीति स्पर्शाः, चशब्दात् सद्दे रूवे रसे गंधे फासेत्ति, रयणप्पभाए अणिट्ठा फासादयो, सेसासु कमेसु अणिहतरा, कर्मयोग्याः कर्मपयोगाः, जारिसा कम्मा कया, तिविह तिब्वा, सकुणिमेचि न कश्चित् तत्र मेध्यो देशः, सब्वे चेव मेदव्वसामसरुहिरपुव्वाणुलेवणतलाओ, स्थितिपरिसमाते: वसंतीत्यावसंत इति प्रथमोदेशकः॥
स एव भावनरकाधिकारः, यानि दुःखानि प्रथमे उक्तानि द्वितीयेऽपि तादृशान्येवोक्तानि, नरकपालकृतैस्तु परस्परकृतैश्च विशेष अस्य पृष्ठे पंचम अध्ययनस्य द्वितिय उद्देशकः आरभ्यते
अनुक्रम [३००३२६]
THAN
ERNATOPARAN
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आगम
(०२)
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [५], उद्देशक [२], नियुक्ति: [६२-८२], मूलं [गाथा ३२७-३५१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] “सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
दुःखखभावादि
प्रत सूत्रांक ||३२७३५१||
श्रीसमक- ताङ्गचूर्णिः २ उद्देशः ॥१६७॥
उच्यते 'अहावरं सासतदुग्वधम्म' वृत्तं ॥३२७॥ अथेत्यानन्तर्ये, अपर इत्यतो विकल्पः, शास्वतमिति नित्यकालं यावदायुः। 'अच्छिणिमीलितमेत्तं' गाथा, दुःखखभावं दुःखधम्मा । तं ते पचक्खामि भृशं विविध प्रकारैर्वा वक्ष्यामि पवक्खामि, अथवा | | आदितः इदानीं वक्ष्यामि प्रवाचयिष्यामि, यथेति येन प्रकारेण, सर्वशो हि यथैवावस्थितो भावः तथैवनं पश्यति, तथा तेनैव, वक्ति, याला यथा दुक्कडकम्मकारी येन प्रकारेण यथा, कुत्सितं कर्म दुकडं, दुकडाई कम्माई करेंति दुकडकम्मकारिणः, हिंसादीनि महारंभादीणि च, वेदेतित्ति-अणुभवंति, पुरेकडाईति यन्मनुष्यत्वे त्रिविधकरणेनापि निकाचितानि, तानि तु स्वयं वेदयंति निरयपालैश्च वेदाविजंति, 'हत्थेहिं पादेहि य बंधिऊणं'वृत्तं ॥३२८|| जहा इह राया रायपुरिसा वा अवकारिणो खंधे बंधित्वा सरेहिं विधति एवं तेचि परयपाला खंधेसु बद्धवाणं पाडिताणं वा हत्थपादं तडयित्वाणं उदराई फोडेंति खुरेहिं तेसिं, खुरेहिं वासेहि वा, असिता-णिसिता तिव्हा, अथवा णिसिता मुंडा इत्यर्थः, कृष्णा वा, तेहिं मुंडेहिं दुःखाविजंति मारिजंति च, त्वया उदरनिमित्तं | हतानि सत्त्वानि, अथवा खुरासिगेहिं खुरेहिं असिगएहि य अण्णे पुण गेण्हित्तु बालस्स विहण्ण देहं गृहीत्वेति णस्समाणं वा वशमानयित्वा, विहण्णेति-विहिणित्ता खीलएहिं बज्झं पिट्टतो उद्धरंति स्थिरा नाम अत्रोडयन्तः, पृष्ठतो नाम पण्हिगाओ आरद्धं जाव कुगालिकातो उद्धरंति-उप्पाडेंति, एवं पार्वतोऽपि, किंचान्यत् बाहू य कत्तंति य मूलतो से'वृत्तं ॥३२९|| बाधयति | तेनेति बाहू, मूलतो नाम उद्गमादारभ्य उपकच्छगमूलतो प्रारभ्य, लोहकीलएणं चतुरंगुलप्रमाणाधिकेणं थूलं मुहं विगसावेऊणं,
थूलमिति महत , मा संखुड़ेहिंति या रडिहिन्ति, आरसतोऽपि न तस्य परित्राणमस्ति, तथाप्यातुरत्वादारसंति आडहंतिचि बुचंति, किंच-रहंसि जुत्तं सरयंति बालं सरयंतित्ति गच्छेति वाहतीत्यर्थः, पापकर्माणि च स्मारयन्ति, त एव च बालास्तत्र युक्ता ये
दीप
अनुक्रम [३२७३५१]
॥१६७||
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गम
(०२)
भाग-2 “सूत्रकृत" - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [५], उद्देशक [२], नियुक्ति: [६२-८२], मूलं [गाथा ३२७-३५१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-०२] "सूत्रकृत' जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
भूमितापादि
प्रत
सूत्रकगचूर्णिः १६८॥
सूत्रांक ||३२७३५१||
दीप
चैनां वायति त्रिविधकरणेनापि ते यस्य रूविणो, रथे सगडे वा, गुरुगं विउधितं रथं, अवधता य तत्रारखि आसज्ज वींधति, आरुहा विधति, तुदंतीति तुदा-तुत्रका गलिबलीबर्दवत्पृष्ठे, सा च भूमी 'अयं व तत्तं'वृत्तं ॥३३०|| तप्तं हि किंचिदयः कृष्णमेव भवति, सा तु भूमी ज्वलितलोहभूता सज्योतिषा सबज्वलितेन ज्योतिषा तप्ता, न तु केवलमेपोष्णा, तज्ज्योतिपापि अणंतगुणेहिं उष्णा सा, तदस्सा औपम्यं तदोपमा, अणुकमंतो णाम गच्छंता, ते डज्झमाणा कलुणंति ते य इंगालतुल्लं भूमिं पुणो
ख़ुदाविजंति, आगतगताणि कारविजंता य अतिभारोकता डज्झमाणा कलुणाणि रसंति, इषुभिस्तुत्रकैश्च प्रदीप्तमुखैचोदिता तप्तेषु । योगेषु युक्ता, तप्तानि वा युगानि येषां स्थानां त इमे तप्तयुगाः, अतस्तेषु तप्तयुगेषु युक्ताः, त एवं 'याला बला भूमिमणो
कमंता'वृत्तं ॥३३।। बाला मंदा, बलादिति बलादनुकमंतो, बलात्कारेण, अथवा चला घोरवला इत्यर्थः, विविधेन प्रज्वलानामपि स्थूलेण पूयसोणिएण अणुलित्ता तला, विगतं बलं विज्वलं जलेज, विजलाविष्टनेन जलेण एव सोयपूयसोणितेणं, लोहमयः पथः लोहपथः, यथा लोहमयपथः तप्तः तथा सोऽपि, जंसीऽभिदुग्गे बहुकूरकम्मा अभिदुग्गं-भृशं दुर्ग वा, दंडलउडमादीहिं हत्या हत्वा, पुनः पुनः प्रेष्यन्त इति प्रेस्या-दासा भृत्या च, पुरतः कुर्वन्तीति अग्रतः कृत्वा बाह्यते गोणा इव अणिच्छन्ता पिट्टिजंति तुधन्ते च, किं च-'ते संपगादमि पवजमाणा' वृत्तं ॥३३२।। नानामिदनामिभृशं गाद संप्रगाढं निरन्तरवेदनमिति, अथवा संबंधः पथः संप्रगाढा, ते अतिभारभराक्रान्ता शर्करापापाणपथं प्रपद्यमाणाः 'सिलाहिं हंमति नितापिया(निपातिणी)हिं' शिलाभिविस्तीर्णाभिर्विक्रियादिभिरभिमुखं पतंतीति अभिपात्यमाना, नान्यत्र पतन्तीत्यर्थः, किंच 'संतावणी नाम चिरद्वितीया' सर्व एव नरकाः संतापयन्ति, विशेषेण तु वैक्रियाग्निसंताविता चिरं तिष्ठति, ते हि चिरद्वितीया जहण्णेण दस
अनुक्रम [३२७३५१]
॥१६८॥
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आगम
(०२)
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [५], उद्देशक [२], नियुक्ति: [६२-८२], मूलं [गाथा ३२७-३५१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] “सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
कंडूपच
प्रत |
श्रीसूत्रक- सूत्रांक । ताहचूर्णिः ||३२७
॥१६९|| ३५१||
TRANS
दीप अनुक्रम [३२७३५१]
वाससहस्साई उक्कोसेणं तेनीससागरोवमाणि संतप्पते शरीरेण मणसा च, अमाधूणि कर्माणि येषां ते इमे असाधुकर्मा, तम्हि चेच संतावणीसंज्ञके नरके 'कंडसु पक्विप पयंति बालं'वृत्तं ॥३३३।। अयाकोट्टपिट्ठपयणगमणादीसु पयणगेसु पक्खिप्प बाला, ते च यतो भुजिया इव डज्ममाणा उफ्फिर्डति, णेरइया पुणो पत्तोवद्दवं, पंचेव जोअणसयाई, ते उड़काएहिं विलुप्पमाणा उड़काया णाम द्रोणिकाः, ते उफिडेन्तावि सन्तो उडुकाएहि विविधेहिं अयोमुहेहिं खअंति, खजमाणा भक्खितसेसा भूमि संपत्ता अबरेहिं खअंति सणफतेहिं न शक्यते धारयितुमित्यर्थः, सिंहब्याघ्रमृगशृगालादयः विविधाः 'समूसितं णाम विधूमठाणं'तत्थ ते णेरइया समृसियाविजंति, ऊसवितं ऊसवितं विनाशितमित्यर्थः, विधूमोऽग्निस्थान, विधूमो नामाग्निरेव, विधूमग्रहणात् निरिंधनोऽमिः स्वयं प्रज्वलितः, सेन्धनस्य ह्यनेरवस्यमेव धूमो भवति, अथवा विधूमानां हि अंगाराणामतीव तापो भवति, यदि त्वापततु तं वा, यसिन् विकृत्यमानाश्च कलुणं थणंति, कलुणमित्यपरित्राणं निराक्रन्दमित्यर्थः, सपरित्राणा हि यद्यपि स्तनति कूजति वा तथापि तन्नातिकरुणं, अथवा यत्र उवियंता वुसमाना इत्यर्थः, अथवा जेसिं उबकिता विविघमनेकप्रकारेण उत्क्रान्ता विउकंता, अधोसिरं कटु विगंतिऊण अधोसिरं काउं केइ बिगिचंति, केइ विगत्तिऊणं पच्छा अधोसिरं बंधंति, अयो छगलगो, अयेन तुल्यं अयवत् , यथा अय इव कप्पणीकुहाडीहिं केइ कुत्सितं कथंचि चंकम्ममागं फुरुफुरतं वा कप्पणिकुहाडीहिं हत्थेहिं समूसवेंति-छिदंति, एवं कुसितं कुत्सितं वा छिदंति, अथवा अयमिति लोहं, जहा लोहं तनेल्लयं छि अंति एवं वा। किंच 'समूसिता तत्थ विसूणितंगा' वृत्तं ॥ ३३५ ॥ समृसिता नाम खंभेसु उड़ा बद्धा, तत्थ विमणिताणि अंगाणि जेसिं तेमे | विमाणितवेदना, त एवं सरसविसूणिनंगा काकवृद्धादिभिर्भक्षयंति, संजीविणी णाम चिरद्वितीया एवं यथोपदिष्टर्वेदनाप्रकार
MINSUINDIA
॥१६९॥
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आगम
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भाग-2 “सूत्रकृत" - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [9], उद्देशक [२], नियुक्ति: [६२-८२], मूलं [गाथा ३२७-३५१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत' जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
श्रीसूत्रकृत गचूर्णिः
संजीवनादि
॥१७॥
प्रत सूत्रांक ||३२७३५१||
दीप
भक्ष्यमाणाथ स्वाभाविकैनिस्यपालकृतैर्वा पक्ष्यादिभिः छिन्नाः कथिता वा मच्छिता वा संतो वेदनासमुद्घातेन समोहता संतो मृतवदवतिष्ठति, यथेह मूञ्छिता उदकेन सिक्ताः पुनरुज्जीविता इत्यपदिश्यन्ते एवं ते मूञ्छिताः सन्तः पुनः पुनः संजीवंतीति संजीविनः, सर्व एव नरका संजीवनाः, चिरद्वितीया णाम जहण्योण दसवाससहस्साणि उकोसेणं तेतीसं सागरोवमाणि, अथवा चिरं मृता हिंड(चिट्ठ)तीति चिरद्वितीया, नरकानुभावात्कर्मानुभावाच यद्यपि पिष्यन्ते सहस्रशः क्रिय(मार्य)न्ते तथापि पुनः संहन्यते, इच्छंतोऽपि मूर्ति तथापि न म्रियन्ते, पापचितत्ति पूर्व पापचेता आसीत् , सा प्रजा सांप्रतमपि न तत्र किंचित्कुशलचेता उत्पद्यते येनापापचेता सा प्रजा खादिति, अयं वा परो यातनाप्रकार: 'तिक्खाहिं मूलाहिं वधेति बाला'वृत्तं ।। ३३६ ॥ लोहमयः मूलैत्रिशूलैश्च यथा नामनिष्पन्ने निक्षेपे वधयतीति विंधति, वशं उपगता वशोपगा, शौकरिका इव पशोपगं महिषं व वधयंति, पठ्यते च-वशोपगं सावरिया(सावययं)व लधु, सवरा-शबरा म्लेच्छजातयः, ते यथा कंदोत्कृकाटिकमादि विधति, गलगमादि वा, एवं तेवितं नेरइयं छिदंति भिंदंति, अत्र तु सौकरिकग्रहणं, ते हि तत्कर्म नित्यसेवित्वात् निया भवन्तीत्यतः, ते शूलविद्धा कलुणं थणंति कलुणं नाम दीणं, थणंति नाम कंदंति, एकतेनैव दुक्खं, दुहतित्ति अंतो बहिं च, जमकाइएहिं नेरइएहिं च, न तत्र समाश्वासो अस्ति, नित्यग्लाना इति, महाज्वराभिभूता इव निष्प्राणा निर्बला नित्यमेव च नारका दमविधं वेदणं वेदेति, इदं चान्यत-अमातं-दुक्खं धर्म 'सदाजलं णाम णिहं महंतं'वृत्तं ॥३३७|| सदा चलतीति सदाज्वलं अधिकं तस्य (तत्र नि) हन्यत इति, ज्वरो उपानवस्थितं महदिति गंभीरं विस्तीर्ण च, यस्मिन्निति यत्र, विना काष्ठैरकाष्ठो, विक्रियकालभावा अग्रयः अघट्टिता पातालस्था अधःस्था, चिट्ठति तत्था बहुकूरकम्मा नरकपाले प्रक्षिप्ता, बहुणि कूराणि कम्माणि जेसिं ते बहुकूरकम्मा,
अनुक्रम [३२७३५१]
॥१७॥
[183]
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आगम
(०२)
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [५], उद्देशक [२], नियुक्ति: [६२-८२], मूलं [गाथा ३२७-३५१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] “सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
महञ्चितादि
प्रत सूत्रांक ||३२७३५१||
श्रीसूत्रक- कूर णाम निरनुकोश हिंसादि कर्म यत्कृत्वा, कृते च नानुतप्यते, अरहितः स्वरो येषां कूजता उत्तारयति, अन्यैश्च बहुमिबिलापैताङ्गचूर्णिः|| विलपंतो अरहितस्वराः, चिरं तिष्ठन्तीति चिरद्वितीया, विविधेन सन्निरुद्धा वेदनादिताः ताहिं ताहि चिरविति, किंच 'चिया ॥१७१।। IMमहंतीउ समारभित्ता' वृत्तं ॥३३८॥ चीयंत इति चितकाः, महंतीओनाम नारकशरीरप्रामाणाधिकमात्राः यत्र चानेकनारका
| मायन्ते, समारभंतित्ति तिविधेणवि डझंति, सत्य एव प्रक्षिप्ताः आवद्वृति तत्थ असाधुकम्र्मा, असाधूणि कम्माणि जेसि पुर | | आसीत् ते असाधुका, सप्पंति-सीयतां, यथा सपिः व्यूढः जोतिम्मि, णिचूमए खइरिंगालाणं खड्डाए भरिताए अग्गिवण्णे वा । अयोकवल्लेणं चणंतीव, सपिंग्रहणं तु इतरोऽपि सच्चो गृह्यते मत्स्यो वा, अयमपरो यातनाकल्पः 'सदा कसिणं पुण धम्मट्टाणं'
वृत्तं ॥३३९।। सम्पूर्णदुःखस्वभावेन गाहैः कर्मभिस्तत्रोपनीताः, तद्वा तेपाप्नुपनीतं अतिदुःखस्वभावं, हत्थेहिं पादेहि य विधिऊणं चउरकप्पादं बद्धा सन्कुमिव निर्दयं हन्यते, वशीकृतः यथा न जीवतीति न वा सुम्रियते, मा भूद्वेदनां न प्राप्स्यतीति, समारभंतित्ति पिट्टेति, तं एवं हनंतो णिस्यपाला "भंजंति बालस्स वधेण पहि' वृत्तं ॥ ३४० ।। लउडादिधानर्यथा तैरन्यत्र भग्नानि पृष्ठानि एवं तेपामपि भंजंति अयोधणाहें, अपि पदार्थादिषु, पढिपि भंजंति सीसंपि विधति अन्नानवि अंगोवंगाणि संचुपिणतमोडितानि करेंति, ते भिषणदेहा फलगावतही त एव भवाङ्गप्रत्यङ्गाः फलका इव उभयथा प्रकृष्टाः करकयमादीहिं तच्छिता | मोग्गरेहिं पहता शीताभिरुष्णाभिर्वा वेदनामिरमिभूतास्तप्ताभिर्दीर्घाभिराराभिविन्ध्यन्ते, उचिष्ठोत्तिष्ठेति गच्छ गच्छेति, किंच'अभियुजिया रोद्दअसाधुकम्मा' वृत्तं ॥३४१।। अभियुजिता तिविघेणावि रौद्रादीनि कम्माणि असाधूणि येषां ते रोद्दअसा| धुका अभियुंजते रौद्रैः, ते च रौद्राः पूर्वमभवन् , तत्रापि रौद्रा एव परस्परतो वेदना उदीरयन्तः, हस्तितुल्यं वहन्तीति हस्ति
दीप
अनुक्रम [३२७३५१]
७१॥
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आगम
(०२)
भाग-2 “सूत्रकृत" - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [9], उद्देशक [२], नियुक्ति: [६२-८२], मूलं [गाथा ३२७-३५१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत' जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
प्रत
सूत्रक
हस्तिवाहनादि
चूर्णिः
सूत्रांक
1१७२॥
||३२७३५१||
दीप
वत् , हस्तितुल्यं भारं वहंतीत्यर्थः, हस्तिरूपं या कृत्वा बाध्यन्ते, अश्वोष्ट्रखरादिरूपं वा, यैर्यथा वाहिताः। किंच एवं उरूहित्तु उवेतयो वा हस्त्यादिरूपं विकुर्वितं वा एवं वराकं अन्यो वा, गुरुत्वादबहतश्च गलिबलिबानिव यातारो आरुह्य किं न बहसीति कि काणत्तो सित्ति कुकाटिकाए वेंधंति । किंच-बाला बला भूमि अणोकमंता, वृत्तं ॥ ३४२॥ चालाः इत्यजानकाः, चला इति न स्ववशा, बलादनुक्रम्यते भूमि पूयवसाशोणितप्रविचलं, लोहकंटकचिता, महंतीत्यनोरपारा०, न तत्रान्या भूमिर्चिद्यते या एवंविधाया न स्यादिति । विवद्ध नप्पेहिं अन्ये पुनरगाढेपूदकेषु प्रगाहिताः पश्चाद्विपच्यन्ते ।पकेषु, त्रेप्यका नदीमुखेसु विदलकवंशफलीमया पिंडिगासंठिता कजंति, ताव ओसरते उदगे ठविजंते हेटाउत्ता, पच्छा मच्छगा जे तेहिं अता ते गलिते उदगे संयुजिता घेप्पंति, एवं तेऽपि बहवः अस्यते, ततः निष्ठिते उदके समीरिता नाम पिजं कुट्टित्वा कल्पनीमिः खण्डशो बलिं क्रियन्ते, अथवा कोट्टं पागरं वुचति, णगरबली विक्रियन्ते, किं चान्यद् ॥३४५।। अन्तरिक्षः छिन्नमूल इत्यर्थः, आकाशस्फाटिकं वा न दृश्यते, अन्तकारत्वाद्वा न दृश्यते, किंच--आरुभणमार्गो न दृश्यते, हत्थपरिमोसक्काए एव, ततस्ते नारुभंति, आरुबहपथेण विलग्गाश्चेत्सर्वपर्वतः संहन्यते, अन्ये पुनः ब्रुवते-दृश्यत एवासौ, भूमिबद्ध एव चोपलक्ष्यते, न च संबद्धः, ततस्तेन संहतीभूतेन 'हमति तत्था बहुकूरकम्मा बहूनि क्रूराणि हिंसादीनि कर्माणि जेसि, परं सहस्राणीत्यर्थः, मुहूर्तस्य हन्यन्ते पुनः पुनः संहन्यमानेऽनेन वियुञ्जमाने च, ते एवं ते संहन्यमानाः 'संयाधिता दुकडिणो थणंति' वृत्तं ॥३४६॥ संयाधिता नाम स्पृष्टा, अहश्च रात्रौ च विरहो नास्ति वेदणाए, त्रिभिस्तप्यमानाः परितप्यमाना, एगंतकूडे णरए महंते, अथवा अदीणियं दुकडिणो थणंति अत्यर्थं दीनं २, आदीनं दुष्कृतानि येषां सन्तीति ते इमे० दुक्कडिणो, अरहितस्वरं चिरं तिष्ट्रतीति, तत्थ य
अनुक्रम [३२७
३५१]
॥१७२॥
[185]
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आगम
(०२)
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [५], उद्देशक [२], नियुक्ति: [६२-८२], मूलं [गाथा ३२७-३५१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] “सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
एकान्तकूटादि
TAKA
प्रत सूत्रांक ||३२७३५१||
श्रीसूत्रतानचूर्णिः ॥१७३||
दीप अनुक्रम [३२७३५१]
|चिट्ठति चिरं सहाविता, किंच-एर्गतकूडे णरए महंते एगंतकूडो णाम एकान्तविपमो, न तत्र काचित् समा भूमिर्विद्यते यत्र |ते गच्छंतो न स्खलेयुरिति, न प्रपतेयुर्वा, महदिति क्षेत्रतः कालतच, खेत्ततो जहण्णेणं जंबूदीवपमाणमेत्तं उक्कोसेणं असंखिाई | जोअणाई, कालओ जहण्णेणं दसवाससहस्साई उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाणि, तथावि तंमि निरयो कूडो तत्थ २ देसे २, सउत्तारेता, |णिग्गमपवेसेसु य अदृश्यानि कूटानि यत्र ते पाटधते, मृगा इवासकृद्ध्यन्ते, तत इतरेण कप्पणिकुहाडिहत्थगता मृतानिवतान् कल्प
यन्ति, ये इह व्याघ्रादयो आसीरन् , विषमः स एव नरकः, यत्र वा तानि कूडानि, रयितापि उत्तारोणे(त)रे पथनिर्गमणपथे वाहता | इति ता। किंच-'अणासिया णाम महासिलाया'वृत्तं ॥ ३४६ ॥ तान् हि कूडैद्धान् चद्धान् न असितः अनसितः क्षुधित इत्यर्थः यथा इह क्षुधिताः शृगालाः किंचित्सिहादिशेष मृगादिरूपं भक्षयन्ति लकलकाहिं एवं तेऽपि, महानिति अतिमहच्छरीरा, पगन्मिता इति प्रधृष्टा, रौद्ररूपा निर्भयं सदैभिर्भक्षयित्वा न तृप्ता भवन्ति, सदा वा अबकोपा, अनिवार्या अग्नतिषेच्या इत्यर्थः, कपिणो अकोप्य इत्यपदिश्यते, अथवा अकोप्यन्ते कुष्पितुं इत्युक्तं भवति, खायंति तत्था बहुकरकम्मा बहुकूरकम्मा इत्यु-। भयावधारणार्थ, ये च खादयन्ति ये च खाद्यते, लोहसंकलाबद्धा खादंति केवि खैरा प्रधावतोऽनुधावतो, अनुधावितुं पाटयित्वा खादंति, महाघोषा छिच्छीकरंति, अण्णे सलक्खगंधारेंति । किंच-'सया जला' वृत्तं ॥३४७॥ सयजला णाम णदीभिदुग्गा सदा जलतीति सदावला, अभिमुखं भृशं दुर्गा वा अभिदुर्गा, प्रविसृतजला पविजला, विस्तीर्णजला उत्चानजलेत्यर्थः, न तु यथा वैतरणी गंभीरजला वेगवती च, सा हि उत्तानजला, लोहविलीनसदृशोदका, लोहानि पंचकाललोहादीनि जंसी दुग्गं पवजमाणा अभिमुखं दुग्गा भृशं दुग्गा वा अभिदुग्गा, प्रपद्यमाना गच्छंत इत्यर्थः, एकतिका असहा इत्युक्तं, अल्पसहाया इत्यर्थः,
॥१७॥
[186]
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आगम
(०२)
भाग-2 “सूत्रकृत" - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [५], उद्देशक [२], नियुक्ति: [६२-८२], मूलं [गाथा ३२७-३५१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत' जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
स्पर्शादि
प्रत
श्रीसूत्रकताङ्गचूर्णिः
॥१७॥
सूत्रांक ||३२७३५१||
दीप
अनुक्रमंतीत्यनुक्रमणं । एतानि फोसाणि फुसंति० वृत्तं ॥३४८॥ एतानीति यान्युद्दिष्टानि द्वयोरप्युद्देसकयोः, फुसंतीति फासाणि, एगगहणे गहणं, सदाणि विरूवरसगंधफासाणीति, स्पर्शग्रहणं तु ते त्रोटकाः दुःखतमाश्च निरन्तरमिति 'अच्छिणिमीलियमेत्तं णस्थि सुहं णिचमेव अनुबद्धं । णरए णेरइयाणं अहोणिसं पच्चमाणाणं ॥१॥'चिरहितीति उक्ताः,ण हम्ममाणस्स | तु अस्थि ताणं न तत्र हन्यमानस्य पिट्टमाणस्स वा किंचित् त्राणमस्ति, प्रत्युत भणंति-हण छिन्द भिन्द धत्ति मार तेपिथ पठवेहत्ति, एवं यां यां कारणां कश्चित्कारयति तां तामनुहयंति बुझ(सुस्मृति च, एगासयं पचणुहोति दुक्खं एक एवासौ स्वयं अशुभकर्मफलमनुभवति, अनु पश्चाद्भावे, पूर्व तनिमित्तं तदन्येषु भवति पश्चादसावनंतगुणं तदनुभवति, तं पूर्व कृतं प्रत्यनुभवति, 'जं जारिसं' वृत्तं ॥३४९ ।। जं जारिसं पुवमकासि कम्मं जारिसाणि तिब्वमंदमज्झिमअज्झवसाएहिं जहण्णमज्झिमुकिट्ठठितीयाणि कम्माणि कयाणि तं तहा अणुभवंति, संपरागो णाम संसारः, संपरीत्यस्मिन्निति संपरायः, कर्मफलोदयेन वा नरगं संपरागिजतीति संपरागततः कर्मावशेषात् तिर्यन्मनुष्येष्वपि एगंतदुक्खं भवमजिणित्ता, कतरं'भवं, णरगभवो, पच्छा सो वेदेति ?, गोयमा! अणंतकालं प्रभूतं, तम्हा 'एतानि सोचा णरगाणि धीरों' वृत्तं ॥ ३५०॥ एतानीति यान्युद्दिष्टानि, दधातीति धीरः श्रुत्वोपदेशात् तद्भयाच णो हिंसए कंचण सबलोए किंचिदिति सव्यं, हिंसका हि नरकं गच्छन्तीत्यतः, सबलोकेत्ति छज्जीवणिकायलोके णवएण भेदेण प्राणवधं न कुर्यात् , एगंतदिही अपरिग्गहे य, एकान्तदृष्टिरिति इदमेव णिग्गंथं पावयणं, अपरिग्गहेत्ति पंचमहब्धयग्रहणं तद्हणात् मध्यमान्यपि गृहीतानि, बुज्झेजत्ति अधिजेज, अधीतं च सुणेज, से न बुज्झेज, लोभस्स वसं ण गच्छे जति कसायणिग्गहो गहितो, सेसाणवि कोहादीणं वसं ण गच्छेज, अट्ठारसवि पावट्ठाणाई, एताई
अनुक्रम [३२७३५१]
॥१७४॥
[187]
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आगम
(०२)
प्रत
सूत्रांक
॥३२७
३५१||
दीप
अनुक्रम
[३२७
३५१]
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र - २ (निर्युक्तिः+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [ ५ ], उद्देशक [ २ ], निर्युक्तिः [६२-८२ ], मूलं [गाथा ३२७-३५१] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र -[०२] अंग सूत्र [०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि :
श्रीसूत्रक्रताङ्गचूर्णिः ६ अध्य०
॥ १७५ ॥
सोचा परगाई धीरे दुक्खाई मणुस्सेसुवि देवेसुवि 'एवं तिरिक्खेसुवि' वृत्तं ॥ ३५१ ॥ चतुरंते अनंतकालं तदणुव्वियगं कर्मणां स सबमेवं इह वेदइत्ता 'स' इति स साधुः जो पुत्रं वृत्तो बुज्झेज तिउद्वेजत्ति, सर्वमिति यैः कर्मभिः नरके गम्यते संसारो वा याच तत्र वेदनाः, सावशेषकर्मोद्वर्त्तनया वा पुनरपि हिंसादिप्रसंगान्नरको वेदनाथ, एवमिदं सव्वं वेदयित्वा ज्ञात्वेत्यर्थः, अथवा वेदयित्वेति क्षपयित्वा नरकप्रायोग्यं कर्म कंखेज्ज कालं धुवमायरेजत्ति वेमि, सर्व कर्मक्षयकालं, यो वाड्यो पण्डितमरणकालः, धूयतेऽनेनेति, कर्मधुता चारित्रमित्युक्तं, आचार इति क्रियायोगं आचरन् आचरंते वेति कर्मचरणमिति । नरकविभक्त्यध्ययनं पंचमं समाप्तं ॥
इदाणी महावीरत्थवोत्ति अज्झयणं, तस्स चचारि अणुयोगदाराणि, एगसरंति काउं अज्झयणत्थाहिगारो, उद्देसत्थाहिगारो गत्थि, अज्झयणत्थाहिगारो तु महावीरवद्धमाणगुणत्थयेणेति णामणिष्कण्णे महावीरत्थयो, महा णिक्खिवितव्यो वीरो णिक्खि| वियच्यो थवो निक्खिवियन्यो। 'पाहणे महसद्दो' गाथा ।। ८३ ।। महदिति प्राधान्ये बहुत्वे च प्राधान्येनाधिकारो, तस्स नामादि छन्विहो णिक्खेवो, णामठवणाओ गयाओ, दव्वे वइरित्तो तिविहो- सचित्तादि ३, सचित्तो तिविहो, दुबदेसु तित्थगरचक्किचलदेववासुदेवा, चतुष्पदेषु सीहो हत्थिरयणं अस्सरयणं, अपदेसु परोक्खेसु रुक्खेसु जाता अदुक्कडसामली, प्रत्यक्षे इहैव ये वर्णगन्धरसस्पर्शेरुत्कृष्टाः, वर्णे तावत्पौण्डरीकं, वक्ष्यमाणमपि च, पुप्फेसु य अरविंदं वदंति त एव च गंधतो, गोशीर्षचन्दनानि च रसतः पणसादि, स्पर्शतः बालः कुमुदपत्रशरीषकुसुमादि, अचेतणेसु वेरुलियादयो मणिप्रकाराः, वनस्पतिद्रव्याणि च अचेतनानि वर्णगन्धरसस्पर्शेरायोज्यानि, मीसगाणं संयोगेण भवति, अथवा अलंकितविभूसितो तित्थगरो, खेत्तओ सिद्धखेतं, धम्म
अस्य पृष्ठे षष्ठं अध्ययनं आरभ्यते
[188]
तिर्यतचादि महन्तिक्षेयश्व
1120411
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आगम
(०२)
प्रत
सूत्रांक
||३५२
३८०||
दीप
अनुक्रम
[३५२
३८०]
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र -२ (निर्युक्तिः+चूर्णि:)
-
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [ ६ ], उद्देशक [-], निर्युक्ति: [ ८३-८५], मूलं [गाथा ३५२-३८० ]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र -[०२] अंग सूत्र [०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि :
श्रीसूत्रकृवाङ्गचूर्णिः ॥१७६॥
चरणं वा प्रति महाविदेहं स्वतन्त्रसौख्यं च प्रति मनुष्येषु देवकुर्यादौ भवति, काले सुसमादि, जहिं वा काले धम्मचरणं पत्रतति, भावमहं खाइगो भावः, औदयिक भावमपि तीर्थंकरादिशरीराद्यौदयिकभावः, भावमहताऽधिकारः क्षायिकेनौदयिकेन च । वीरः वीर्यमस्यास्तीति वीर्यवान्, वीरस्स पुण णिक्खेवो चतुर्विधो, वतिरित्तो दव्बवीरो यद्यस्य द्रव्यस्य वीर्यं सचेतनस्याचेतनस्य वा, मिश्रस्य द्विपदस्य, यथा तीर्थकरस्यैव असद्भावस्थापनातः, स हि तिन्दुकमिव लोकं अलोके प्रक्षिपेत्, मन्दरं वा दंडं कृत्वा रत्नप्रभां पृथिवीं छत्रकवद्धारयेत्, चक्कवट्टिस्स-दो सोला बत्तीसा सव्ववलेणं तु संकलिणिवद्धं । अंछंति चक्कवट्टि अगडवर्डमि य ठितं संतं ॥ १ ॥ घेण संकलं सो वामगहत्थेण अंछमाणाणं । भुंजेज व लिंपेज व चकहरं ते ण चाएन्ति ||२|| सोलस रायसहस्सा सब्वचलेणं तु संकलनिबद्धं । अंछंति वासुदेवं अगडतडंतिय ठितं संतं ||३|| घेतून संकलं सो० गाथा ॥ ४ ॥ जं केसवस्स उचलं तं दुगुणं होइ चक्कवट्टिस्स । तत्तो चला चलवगा अपरिमितबला जिणवरिंदा ||५|| संगमएणवि भगवतो कालचकं मुकं, तंपि भगवता शारीरखीरियेणं चेव सोढं, चउप्पदव्य वीरियं यथा सिंहसरभाणं, अपदाणं पसत्थं अपसत्थं च, अपसत्थं विसमादीणं, पसत्थं संजीवणिओसधिमादीणं, अचित्तं खीरदधिघृताहारविसादीण य, संजोइमं अगदादीणं, एवमादि जस्स वीरियं अत्थि स द्रव्यवीरो भवति, खेत्तवीरो यथा यत्र स एव वीरो अवतिष्ठति वर्ण्यते वा यद्वा यस्य क्षेत्रमासाद्य वीर्यं भवति, एवं कालेवि तिष्णि पगारा, भाववीरस्तु क्षायिकवीर्यवान्, भाववीरः असौ, भावः क्षायिकः परीपहैरुपसर्गैव शक्यते नान्यथा कर्तु अथवा दव्वादि चतुर्विधो वीरो, दब्बे वतिरित्तो एगभवियादि, खेत्तं जत्थ वणिजति तिष्ठति वा, काले यस्मिन् काले यचिरं वा कालं, भाववीरो दुविधो-आगमतो णोआगमतो य, आगमओ जाणए उपयुत्तो, णोआगमतो भाववीरो वीरणामगुत्लाई कम्माई वेदयंतो, तेण अहि
[189]
GEN
वीरनिक्षेपः
1120411
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आगम
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [६], उद्देशक -1, नियुक्ति: [८३-८५], मूलं [गाथा ३५२-३८०]
(०२)
स्तवनिक्षेपाः
श्रीसूत्रका
प्रत
AL
सूत्रांक
||३५२३८०||
यारो, स तु भगवानेव । थयो णामादिचतुर्विधो-आगंतुअभूसणेहिं केसालंकारादीहि, अथवा सचित्ताचित्तमीसो, सचित्ते * तागाचूर्णिः पुष्पादि, अचिने हाराहारादि, मिश्री स्रग्दामादि, भावे सद्भूतकित्तणाए, भावेण अहियारो 'पुच्छिसु जवुणामो अज्जसु॥१७७॥ धम्मो ततो कहेसीय । एव महप्पा वीरो जतमाह तहा जतेज्वाह ।। ८५।। णामणिप्फण्णो गतो। सुत्ताणुगमे सुत्त
मुच्चारेयर्व जाव 'पुच्छिसु णं समणा माहणा य' वृत्तं ॥३५३।। एतान्नरकान् श्रुत्वा भगवदार्यसुधर्मसकाशात्तदुःखोद्विग्नमानसाः कथमेतान्न गच्छेयाम इति ते पार्पदा भगवन्तमार्यसुधर्माणं 'पुन्छिसु णं समगा माइणा य' अनेनाभिसम्बन्धेन,पदच्छे
दविग्रहसमासान् कृत्वा अयमर्थः-पुच्छिसु णंति-पृष्टवन्तः, पुच्छिसुत्ति वत्तव्वे नकारः पूरणे देसीभापतो वा, समणा जंबुणामाFall दयः, जेसि भगवं ण दिहो, दिट्टो व ण पुच्छितो, न य ते गुणा यथार्थतः उपलब्धाः, माहणा:-श्रावका ब्राह्मणजातीया वा, | अकारिणस्तु क्षत्रियविशद्राः, परतीर्थकाश्चरकादयः, चग्गहणाद्देवाश्च, से के इमं णितियं (णेगंतहिय) (हितयं) धम्ममाहु स इति सः परोक्षनिर्दसे, कोऽसाविमं धर्ममारुयातवान् , इममिति योऽयं भगवद्भिः कथितः यत्र च भगवान् अवस्थित इति, नितिक-नित्यं सनातनमित्यर्थः, हितगं च पठ्यते, धारयतीति धर्मः, आहुरिति एके अनेकादेशात् आत्मनि गुरुषु बहुवचनं वन्धानुलोमाद्वा, अथवा किमेक आहुः, एकारो यदि बहुत्वे भवति यथा के ते, एकत्वेऽपि यथा के सो, 'अनेलिसमिति स्वरा
क्षरं विपर्यस्य न एलिसं अनेलिसं, अतुल्यमित्यर्थः, धर्म इति वर्तते, साधु प्रशंसायां, सम्यक् ईक्षित्वा समीक्षि(क्ष्य)केवलज्ञानेन, | परिसदाए दरिसति-सुखसमीक्ष्यदेशकः साधुसमीक्ष्यदेशका उत(अंतजः)आत्मागमादेवेदं कथयसि ?, आह-नन्वागमात्कथयामि, आप्तागमात् , आप्तो-भगवान् श्रीवर्द्धमानखामी तेन भापितं अनुभापयामि, ततन्ते जम्बुनामाद्याः श्रोतारः पुनरूचुः-परोक्षे नः स
दीप
अनुक्रम [३५२३८०]
॥१७७॥
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
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आगम
(०२)
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [६], उद्देशक [-], नियुक्ति: [८३-८५], मूलं [गाथा ३५२-३८०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत' जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
सूत्रकृचूर्णिः
भगवद्गुणप्रश्नः
१७८॥
प्रत सूत्रांक ||३५२३८०||
भगवान् , तद्गुणांस्तावत्कथयस्व, कथं च णाणं कथ दसणं से'वृत्तं ॥३५३।। कथं परिप्रश्ने, कथमसौ ज्ञातवान् , एवं दर्शनेऽपि कथं दर्श(दृष्ट)वानिति, शीलमिति चरित्रमेतान् यथोद्दिष्टान् जाणासि णं भिक्खु जहा तहा णं हे भिक्षो! त्वया घसौ दृष्टश्वाभापितश्च इत्यतो यथा तद्गुणा बभूवुः तथा त्वं जानीपे, जानानस्तान् अहासुतं ब्रूहि जहा णिसंतं यथा निशान्तं च, निशान्तमित्यवधारितं, किंचित् श्रूयते न चोपधीयते इत्यतः अहासुतं ब्रूहि जहा णिसन्तं तद्यथा भवता निश्रुत्वा निशमितं तथाऽपदिश्यतां, इति भगवान् पृष्टः भव्यपुण्डरीकानामुत्सृज्य सन्मुखीभूतानां कथितवान् , स हि भगवान् ‘खेत्तपणे कुसले आसुपण्णे वृत्तं ॥ ३५४ ॥ क्षेत्रं जानातीति क्षेत्रज्ञः, कुशलो द्रव्ये भावे, द्रव्ये कुशान् लुणातीति द्रव्यकुशलाः एवं भावेवि, भावकुशास्तु कर्म, अथवा कुत्सितं शलांति कुत्सिताद्वा शलांति कुशला, केवलज्ञानित्वात् आशुप्रज्ञो आसु एव जानीते, न चिन्तयित्वा इत्यर्थः, महेसी अनन्तज्ञानीति केवलज्ञानी अनन्तदर्शनीति केवलदर्शनी जसंसिणो चक्खुपहेहितस्स यशः अस्थास्तीति यशस्वी सदेवमणुासुरे लोगे जसो, पश्यतेऽनेनेति चक्खु सर्वस्यासौ जगतश्चक्षुःपथि स्थितः, चक्षुर्भूत इत्यर्थः, यथा तमसि वर्तमाना घटादयः प्रदीपेनाभिव्यक्ता दृश्यन्ते, न तु तदभावे, एवं भगवता प्रदर्शितानर्थान् भव्याः पश्यन्ति, यच्च असौ न स्यात्तेन जगतो जात्यन्धस्य सतो अन्धकार स्वात् , तेनादित्यवदसौ जगतो भावचक्षुःपथे स्थितः, स्यादटुक्तमपि जानीहि जानस्व, किंच यो धर्मः धृतिः प्रेक्षा वा अचिन्त्यानीत्यर्थः, क्षायिको घितिवनकुडसमापेक्खा केवलणाणं, अथवा किंचित्सूत्रमतिकान्तं निकाचयतीतिकृत्वा ते पुव्यका भवंति, अजसुहम्मं भगवं तुम तस्स जसंसिणो चक्खुपथेस्थितस्स जाणाहि धम्मं घिति प्रेक्षां च, पथं जारिसो तस्स सबलोगचक्खुभूतस्स, उक्तं च "अभयदए मग्गदए" इत्यतः चक्षुर्भूतः, तस्स जारिसो धम्मो वा घिती वा पेहा ।।
PARINEETAILSHESHAN
दीप
अनुक्रम [३५२३८०]
॥१७८।।
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आगम
(०२)
प्रत
सूत्रांक ||३५२
३८० ॥
दीप अनुक्रम
[३५२
३८०]
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र - २ (निर्युक्तिः+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [ ६ ], उद्देशक [-], निर्युक्तिः [८३-८५], मूलं [गाथा ३५२-३८० ] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र -[०२ ], अंग सूत्र [०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि
श्रीसूत्रक्रताङ्गचूर्णिः
॥ १७९॥
ANA SA
वा तं तुमं अवित जाणाहि, जाणमाणो कहेोहेति णं वाक्यशेषः, स च कथयत्येवं 'उड़े अहे वा तिरियं दिसासु' वृत्तं |||३५५॥ येषामूर्ध्वलोके स्थानं यतः प्रभृति वोध्वों भवति एवमधः तिर्यगिति चतस्रो दिशस्तासु, दीवसमुद्रा इति अस्मिन् त्रिलो केsपि ये स्थावराः त्रिप्रकारैर्ये च त्रास्त्रिप्रकारा एव, से णिक्षणिचे य समिक्स्खपण्णे स इति भगवान्, नित्यानित्य इति भावा अपि हि केनचित् प्रकारेण नित्याः केनचिदनित्याः, कथमिति चेत् द्रव्यतो नित्या भावतोऽनित्याः, द्रव्यं प्रति नित्यानित्याः एवमन्यान्यपि द्रव्याणि यथा नित्यान्यनित्यानि च तथा सम्यक् ईक्ष्य प्रज्ञया, तथा आहेति वक्ष्यमाणान्, दीवसमो दीवभूतः, दीनो दुविधो- आसासदीवो पगासदीवो य, उभयथापि जगतः आसासदीवो ताणं सरणं गतिप्रकाशकरो आदित्यः सव्वत्थ | सम्मं पगासयति चण्डालादिसुवि, एवं भगवान् दीवेण समो, समियाएत्ति सम्यकू, ण पूयासकारगारवहेतुं, 'जहा पुष्णस्स | कत्थति तहा तुच्छस्स कत्थति, 'से सव्वदंसी अभिभूयणाणी' वृत्तं ॥ ३५६ ॥ सव्वं पासतीति सव्वदंसी, केवलदर्शनीत्युक्तं भवति, चत्तारि ज्ञानानि त्रीणि दर्शनानि भास्कर इव सर्वतेजांस्यमिभूय केवलदर्शनेन जगत्प्रकाशयति ज्ञानीति, एवं केवलज्ञानेनापि अभिभूय इति वर्त्तते, उभाभ्यामपि कृत्स्नं लोकालोकमव भासते, अथवा लौकिकानि अज्ञानान्यभिभूय केवलज्ञानदर्शनाभ्यां खद्योतकानिवादित्यः एकः प्रकाशते 'णिरागमगंधे धितिमं ठितप्पा' निरामोऽसौ निर्गन्धन, आम इति उद्गमकोटिः, धृतिरस्यास्तीति संयमे धृतिः, संयम एव यस्य स्थित आत्मा, धर्मे वा सोधितव्याः 'अणुत्तरं सवजगंसि विजं' नास्योत्तरं सर्वलोके यः कविद्विद्वानित्यतः सर्वलोकं स विद्वान् विजं, न मायाविद्वान्, ग्रन्थादतीतेति गंथातीते, दव्वगंथो सचित्तादि भावे कोहादि, द्विधा अप्यतीतः निर्ग्रन्थ इत्यर्थः, अथवा ग्रन्थनं ग्रन्थः स्वाध्याय इत्यर्थः तमतीतः कोऽर्थः ? नासौ श्रुतज्ञानेन जानीत
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भगवद्गुणाः
॥ १७९॥
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आगम
(०२)
प्रत
सूत्राक
||३५२
३८० ॥
दीप अनुक्रम
[ ३५२
३८०]
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (निर्युक्तिः+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [ ६ ], उद्देशक [-], निर्युक्तिः [८३-८५], मूलं [गाथा ३५२-३८० ] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र -[०२] अंग सूत्र [०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि :
श्रीसूत्रचूर्णि
॥१८०॥
| इत्यर्थः, अभय इति अभयं करोत्यन्येषां न च स्वयं विभेति, अनायुरिति नोऽस्यागमिष्यं जन्म विद्यते आगमिष्यायुष्कबंधी या, 'से भूतिपण्णे अणिएतचारी' वृत्तं ॥ ३५७ ॥ भूतिर्हि वृद्धौ मङ्गले रक्षायां च भवति, वृद्धौ तावत्प्रवृद्धप्रज्ञः अनन्तज्ञानवानित्यर्थः, रक्षायां रक्षाभूतस्य सर्वसच्चानां वा, मङ्गलेऽपि सर्वमंगलोत्तमोत्तमाऽस्य प्रज्ञा, अनियतं चरतीति अनियतचारी, ओघो द्रव्योषः समुद्रो भावौघः संसारः तं तरतीति ओघंतरः, घिया राजतीति धीरः, अनंतचक्षुरिति अनंतं केवलदर्शनं तदस्य चक्षुर्भूतः, | अणुत्तरं तवइति सूर एव न हि सूर्यादन्यः कश्चित्प्रकाशाधिकः, एवं भड्डारकादपि नान्यः कश्चिद् ज्ञानाधिकः, णाणेण चेत्र ओभासति तवति भासेति, अथवा सेसं च कर्म्म तवति, आदित्य इव सरांसि तपति औषधयो वा, वैरोयणेंदो वा रूवदित्तो विविधं रुचतीति वैरुचनः अग्निः स हि सर्वदीप्तिवतां द्रव्याणामिन्द्रभूत इत्यतो वेरोचजेंद्रः, स यथा आज्यामिक्तः सन् तमः प्रकाशयति एवं भगवानप्यज्ञानतमांसि प्रकाशयति । 'अणुत्तरं धम्ममिणं जिणाणं' वृत्तं || ३५८ || नास्योत्तरा अन्ये कुधर्मा इत्यनुत्तरं, जिनानामिति अन्येषामपि जिनानां अयमेव धर्मः अतीतानामागमिष्यतां च एप भगवतां धर्मः, अयमेव भगवान्नयतीति नेता, कोऽर्थः १, जहा ते भगवन्तो नीतवन्तः तथा अयमपि नयति, काश्यपगोत्रः काश्यपमुनिः केवलज्ञानित्वात् आसुप्रज्ञः आसुरेव प्रजानीते, न चिन्तयित्वेत्यर्थः, इंदेव देवाण महानुभागे इंद्रेण तुल्यं इंदवत्, अनुभवनमनुभावः, सौख्यं वीर्यं माहात्म्यं चानुभावाः सहस्रमस्य नेत्राणां सहस्सनेता, अनेकानां वा सहस्राणां नेता नायक इत्यर्थः दिवि भवा दिविनः सर्वेभ्यो दिविभ्यः स्थानरिद्धिस्थितिद्युतिकान्त्यादिभिर्विशिष्यते इति विशिष्टः, किमुतान्येभ्यः १, किंच- 'से पण्णसा (या) अक्खयसागरे वा वृत्तं ॥ ३५९ ॥ ज्ञायतेऽनेनेति प्रज्ञा ज्ञानसंपत्, न तस्य ज्ञातव्येऽत्यर्थे तुष्टिः परिक्षीयते प्रतिहन्यते वा सादी अपजवसितो कालतो,
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भगवद्गुण
प्रश्नः
॥१८०॥
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आगम
(०२)
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [६], उद्देशक [-], नियुक्ति: [८३-८५], मूलं [गाथा ३५२-३८०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-०२] “सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
प्रत सूत्रांक ||३५२३८०||
दीप अनुक्रम [३५२३८०]
श्रीसूत्रक
H दग्बखेतमावेहिं अणंते, दृष्टांतः स्वयम्भुरमणसागरः, एकदेशेन हि औपम्यं क्रियते, यथाऽसौ विस्तीर्णगंभीरजलो अक्षोभ्य एव-19 श्रीमहावीरतामणिःमस्यानन्तगुणा प्रज्ञा विशाला गंभीरा अक्षोभ्या च अणाइले से अकसाए य भिक्खू परीपहोपसर्गोद येऽप्यनातुरः, अकसाय ||AI गुणाः ॥१८॥ इति क्षीणकषाय एच, न उपशान्तकपायः, निरुत्साहवत् , इह कश्चित् सत्यपि वले निरुद्यमत्वात उपचारेण निरुत्साहो भवति, IN
अन्यस्तु क्षीणविक्रमत्वान्निरुत्साहा, एवमसौ क्षीणकपायनान्निरुत्साहः, सत्यप्यसौ क्षीणान्तरायिकत्वे सर्वलोकपूज्यत्वे च भिक्षामात्रोपजीवित्वाद्भिक्षुरेव, नाक्षीणमहानसिकादिसर्वलन्धिसम्पन्नोऽपि सन् तामुपजीवतीत्यतो भिक्षुः, सक्केव देवाधिपती जुतीमंति द्युतिमानित्यर्थः, स हि तुल्यः स्थित्यापि सामानिकबायस्त्रिंशकेभ्यः इन्द्रनामगोत्रस्य कर्मण उदयात् स्थानविशेषाद्वाऽधिकं!
दृश्यते 'से वीरिएणं पडिपुन्नवीरिए'वृत्तं ।।३६०11 वीर औरस्यं धृतिः ज्ञानं वीर्यः, क्षायोपशमिकानि हि वीर्याणि अप्रतिपूर्णानि, PA क्षायिकत्वादनन्तत्वाच प्रतिपूर्ण, सुदंसणे वा णगसबसिडे शोभनमस्थ दर्शन मिति सुदर्शनो-मेरुः सुदर्शन इत्यपदिश्यते,
यथा असौ सुदर्शनः सर्वपर्वतेभ्यो विशिष्यते तथा भगवानपि वीर्येण सर्ववीर्येभ्यो विशिष्यते, इदानीं सर्व एव सुदर्शनो वर्ण्यते, सुरालए वावि मुदाकरेस सुराणां आलयः, मुद हर्षे, सुरालयः-स्वर्गः स यथा शब्दादिविषयसुखः एवमसावपि स्वर्गतुल्यः शब्दादिभिर्विषयैरुपपेतः, देवा अपि हि देवलोकं मुक्त्वा तत्र कीडति, न हि तत्र किंचिच्छब्दादिविषयज्ञानं यदिन्द्रियवतां न मुदं कुर्यात् इति, विविधं राजते अनेकैर्वर्णगाधरसस्पर्शप्रभाकान्तिद्युतिप्रमाणादिमिर्गुणैरुपपेतः सर्वरक्त(मुदा)करः, तस्य हि प्रभाचेण गाथा भवति-'सुंदरजणसंसग्गी सीलदरिपि कुणइ सीलहूं । जह मेरुगिरिविबूढ तर्णपि कणयत्तणमुवेति ॥१॥ तस्य तु प्रमाणं 'सतं सहस्साण तु जोअणाणं'वृत्तं ॥३६॥ त्रिः काण्डान्यस्य संतीति त्रिकंडी, तंजहा-मोमे बजे कंडे जंबूणए कंडे वेरुलिए
॥१८॥
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आगम
(०२)
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [६], उद्देशक [-], नियुक्ति: [८३-८५], मूलं [गाथा ३५२-३८०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] “सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
श्रीसूत्रकप्रत |
तानचूर्णिः सूत्रांक ॥१८२॥ ||३५२३८०||
दीप
कंडे, पंडगविजयन्ते पंडगवणेण शिखरेण चान्यपर्वतान् वनानि च विजयत इति पण्डकविजयंता, से जोयणे णवणउति श्रीमहावीर
गुणाः सहस्से ऊर्व उत्सृवा उडसिते, पठ्यते च-उई थिरे, तिष्ठतीति स्थिरः, शाश्वतत्वं गृह्यते निश्चलत्वं च, अथे सहस्सावगाढो, 'पुढेण ते भे चिट्ठति' वृत्तं ।।३६२॥ भूमीए द्विए उड़लोगं च फुसति अहोलोगं च, एवं तिष्णिवि लोगे फुसति, जं सूरिया अणुपरियट्टयंति, से हेमवण्णे हेममिति प्रधानं सुवर्ण निष्टप्लजंबूनंदीरुचि इत्युक्तं भवति, बहून्यत्राभिनन्दनजनकानि शब्दादिविपयजावानि बहूनां वा सत्त्वानां नन्दिजनकः, महान्तो इन्द्रा महेन्द्रा:-शक्रेशानाद्याः, ते हि स्वविमानानि मुच्वा तत्र रमन्ते
से पचते सद्दमहप्पगासे' वृत्तं ॥३६३॥ मन्दरो मेरुः पर्वतराजेत्यादिभिः शब्दैः प्रकाश:-सर्वलोकप्रतीतिः सुरालयः तस्स सद्दा सव्वलोए परिभमंति विरायते कंचणमट्ठवपणे मद्वेति 'अढे सण्हे लण्हे जाव पडिरूवे' णो णाफसफासो विसमो वा इत्यर्थः, अणुत्तरे गिरिसु य पव्वदुग्गे सर्वपर्वतेभ्योऽनुत्तरः, दुःखं गम्यत इति दुर्ग:-अनतिशयवद्भिर्न शक्यते तं आरोहूं 'गिरीवरे से जलिते व भोम्मे से जहा णामए खइलिंगाराणं रति पञ्जलिताणं अथवा जहा पासओ पजलितो केवि पव्यते वा उड़रते 'महीय मज्झम्मि ठिते णगिंदे' वृत्तं ॥३६॥ रयणप्पभाए महीए मज्झे ठिते, प्रज्ञायते नाम ज्ञायते सर्वलोकेन, अधसूरीयलेस्सभूतेत्ति ज्ञायते, अचिरुग्गयहेमंति सूरियालेस्सभूतो, यदिवा मध्याहुकालस्य भूतोऽभविष्यत् देवदुरासओऽभविप्यत् , एवं सिरीए उ स भूतिपण्णे कायाश्रितया पर्वतश्रिया, भूतिवर्ण इत्यर्थः, मणोरमे मणंसि, अत्र मनश्चित्त रमत । इति मणोरमे भवति अचीसहस्समालिणी एस दस दिसो द्योतयति, एस दिटुंतो 'सुदंसणस्सेस जसो गिरिस्स' वृत्तं ॥३६५।। यशः प्रतीतः, सर्वलोकप्रकाशः भृशं उच्यते पवुचते, महोतस्स महन्तः एतोवमे समणे णायपुत्तो जात्याः सर्वजा
अनुक्रम [३५२३८०]
॥१८२॥
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आगम
(०२)
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [६], उद्देशक [-], नियुक्ति: [८३-८५], मूलं [गाथा ३५२-३८०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] “सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
प्रत सूत्रांक ||३५२३८०||
श्रीपत्रक- तिभ्यः यशसा सर्वयशस्विभ्यः दर्शनेन सर्वपर्वतेभ्यो मन्दरः श्रेष्ठः अवशेषाणां जाइवन्तं प्रति 'गिरीवरे वा निसढायताणं'
श्रीमहावीरतासचूर्णिः । वृत्तं ॥३६६॥ न कश्चित्तस्मादायततमो वर्षधरोऽन्यः, इह चान्येषु वा द्वीपेपु, वेलायायताणं उरूगपब्बतोस हि, स अस्सासदीवस्स
गुणाः ॥१८॥ बहुमज्झदेसभागे माणुसुत्तर इव बढे वलयागारसंठिते असंखेन्जाई जोपणाई परिक्खेवेणं, ततोवमे से जगभूतिपण्णे ताम्यां
| निषधरुचकाभ्यां औपम्यं क्रियते ततोवमे, स इति स भगवान् , जायत इति जगत् , भूता प्रज्ञा यस्य जगत्यसावेको भूतप्रज्ञः, || नान्ये कुतीर्थाः, आवेदयन्ति तेनेत्यावेदः यावद्वेषं तावद्वेदयतीत्यावेदः श्रुतज्ञानमित्यर्थः, तं उदाहु मुणीण आवेदं उदाहु, "पण्णे प्रगतो ज्ञः प्रज्ञः 'अणुत्तरं धर्ममुदीरइत्ता'वृत्तं ॥३६७|| नास्योत्तरा ये अन्ये कुधर्माः उदीरयित्वा-कथयित्वा प्रकाशयित्वा अणुत्तरं ज्ञानवरं झियाति उत्पन्नज्ञानो हि भगवान् । ध्याने ध्यायितवान् , यावत्सयोगी तावत्सुहुमकिरियं अणियहि, रुद्धयोगी तु स समुच्छिन्न किरियं अप्पडियादि, तत्र वर्णतः एवं प्रकारं सुसुकसुकं अप्पगंडसुकं सुट्ठ सुकं सुसुकं, | यथा किं सुकं स्यात् ?, यथा अप्पगंडं, अप्पं गंडं अप्पगंडं उदकफेनवदित्यर्थः, शरनदीप्रपातोत्थं, अप्पेव, संखेन्दु एकांतेन | अवदातसुकं संखेंदुव एगंतावदातसुकं, अवदातं अतिपण्डुरं स्निग्धं वा निर्मलं च, पठ्यते च 'संखेंदुवेगंतावदातसुकं' इव | औपम्ये, संखेंदुव एगंतऽवदातसुकं तदेव ध्यान, एवंविधं झाणवरं झियातिता, अणुत्तरग्गं परमं महेसी'वृत्तं ॥३६८॥ णाणेण | सीलेण य ईसणेणं अणुत्तरं च तत् अन्गं च अणुत्तरग्ग-सर्वसुखानामय्यभूतं सर्वस्थानानां वा अणुत्तरं, अग्रे च लोकाग्रे, महॉश्चासौ
ऋषिश्च महत्रापिश्च, तत् केन गतः, शीलेन गाणेण य दंसपोणं, अथवा अणुचरं अग्गाणं-परमसुखानां सिद्धिमिति, असेसं णिर| वसेसं कम्मं स इति भगवान् , अथवा अट्ठविहं कम्मं खवगसेढीए, विसोधइत्ता णाम खवइत्ता, सिद्धिं गतिं साइयर्णत पत्तो LA१८॥
दीप अनुक्रम [३५२३८०]
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आगम
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भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [६], उद्देशक -1, नियुक्ति: [८३-८५], मूलं [गाथा ३५२-३८०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-०२] "सूत्रकृत' जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
प्रत सूत्रांक ||३५२३८०||
दीप
शिवकुसेधनं सिद्धिः सिद्धेगतिः सिद्धिगतिः अतस्तं, सादि अणंतपत्ते-सादि अपजवसितं प्राप्तः, केण? णाणेण शीलेन य दसणेणं श्रीमहावीर गणिः । चशब्दात् शीलं दुविहं तवो संजमो य, णाणदसणे णिन्भेदे । 'रुक्खेहि णाता महकूडसामली' वृत्तं ॥३६९॥ ज्ञायत इति
गुणाः ११८४||
Ail सर्ववृक्षेभ्योऽधिको लोकेनापि ज्ञातं, अहवा णातं आहरणंति य एगहुँ, सर्ववृक्षाणां असौ दृष्टान्तभूतः, अहो अयं शोभनो वृक्षः ज्ञायते
सुदर्शना जंबू कूडसामली वेति, कूडभूताऽसौ शाल्मली च, यस्यां रति चेदयन्तीति, शोभनानि वर्णानि एषां सुवर्णानां, पर्णमिति पिच्चस्याख्या, एवं ताव लोकसिद्धा, अस्माकं तु शोभनवर्णा सुवर्णा, तत्थ वेणुदेवो वेणुदाली पवसंति, तयोहि तत् क्रीडास्थानं,
'वाणेसु या णन्दणमाहु सिद्ध(ह) नन्दति तत्रेति नन्दनं, सर्ववनानां हि नंदनं विशिष्यते प्रमाणतः पत्रोपगाहमुपभोगतच, तथा | भगवानपि शीलेनानुत्तरज्ञानेन तु भूतिप्रज्ञः 'थणितं च वासाण अणुत्तरे उ' वृत्तं ॥३७०॥ थणंतीति थणिताः, प्रावृद्काले हि | सजलानां धनानां स्निग्धं गर्जितं भवति, अभिनवशरद्घनानां च, उक्तं च-'सारतधणथणितगंभीरघोसि' चंदे व ताराण महा- HA
णुभागे' कंठणं, चंदणं तु गोसीसचंदणं मलयोद्भवं, सेहो मुणीणं अप्पडिपणमाहु श्रेष्ठो मुनीनां तु अप्रतिज्ञा नास्येह लोकं - परलोकं वा प्रति प्रतिज्ञा विद्यत इति अप्रतिज्ञः 'जहा सयंभू उदधीण सेट्टे'वृत्तं ॥३७१।। उदधिः न तस्मादन्योऽधिकःणागेसु
चा धरणमाहुः न तेषां किंचिजल थलं वा अगम्यमिति नाम, 'खातोदए रसतो वेजयंते' खातोदगंणाम उच्छुरसो, दगस्य। समुद्रस्य, अथवा इक्षुरसो मधुर एव, सब्वे रसे माधुर्येण विजयत इति वेजयन्तः, तथेति तेन प्रकारेण, उपदधातीत्युपधान, तपोपधानेन हि भगवान् सर्वतबोवधानतो, विजयन्त इत्यतः वेजयन्तः, तपःसंयमोपधानं जं कुणति मुनिरिति भगवानेव विजयन्तो जयन्त इत्यर्थः । 'हत्थीसु एरावणमाहु णाए' वृत्तं ॥३७२।। सर्वहस्तिभ्यो हि एरावणः प्रज्ञायतेऽधिका तेन चान्येषामुपमानं ॥१८॥
अनुक्रम [३५२३८०]
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आगम
(०२)
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [६], उद्देशक [-], नियुक्ति: [८३-८५], मूलं [गाथा ३५२-३८०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] “सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
प्रत
श्रीपत्रक वाझ्चूर्णिः ॥१८५॥
सूत्रांक ||३५२३८०||
क्रियते, सिंहस्तु मृगेभ्योऽधिको ज्ञायते, सलिलाभ्यो गंगा, सलिलबद्यः सलिला, गाढं गता गछंति वा गंगा, पक्खी सु आ श्रीमहावीरगुरुले वेणुदेवे लोकरूढोऽयं शब्दः, विनताया अपत्यं वैनतेयः, णिवाणवादीणिह णातपुत्ते श्रेष्ठ इति वर्चते, 'जोधेसु गुणस्तुतिः णाते जह वीससेणे' वृत्तं ॥३७३।। युध्यत इति योधः विश्वा-अनेकप्रकारा सेना यस्य स भवति विश्वसेनः, हस्त्यश्वरहप-11 | दात्याला विस्तीर्णा, स तु चक्रवत्ति, अहवा विश्वकसेनः वासुदेवः, पुष्पेस वा अरविंदमिति पमं सहस्रपत्रं सतसहस्रपत्रं चा। | तद्धि वर्णगन्धादिभिः पुष्पगुणैरुपेतं न तथाऽन्यानि, खत्तीण सेहो क्षतात् वायत इति क्षत्रियः दम्यते यस्य वाक्येन शत्रवःस | भवति दान्तवाक्यः, अनृतपिशुनपारुपकल्पादिभिः वाक्यदोषः संयुञ्जते, उक्तं हि-'मितमुजलपलावहसित जाव सञ्चायणा'इसीण | सिढे तध घद्धमाणे । दाणाण सेट्ट अभयप्पदाणं' वृत्तं ।। ३७४ ॥ दीयत इति दान, 'जो देज मरतस्ता धणकोडिं | गाथा, रायावि मरणभीतो० गाथा, अत्र वध्यचोरदृष्टान्तः, जहा कोई राया चउहिं पत्तीहिं परिवतो पासादावलोअणे णगरमवलोचयंतो अच्छति, एगो य चोरो रतं एगसाडगं पडिहितो रत्तचंदणाणुलिसमतो रत्तकणवीरकण्ठेगुणो वजंतवज्झपडहे बहजणपरिकरितो अवउड्डुबंधेण बद्धो गयपुरिसेहिं पिउवणं जओ णिजति, ततो ताहिं राया भणिओ-को एसत्ति ?, रायणा भणियंएस चोरो, वहणाय पीणिजति, तत्थेगा भणति-महाय ! तुम्भेहिं मम पुवं वरो दत्तो तं देह, रण्णा आमंत्ति पडिस्सुतं, ततो ताए। सो चोरो चतुर्विघेणावि गहाणादिअलंकारेण अलंकितो, वितियाए सव्वकामगुणभोयर्ण भोयावितो,ततियाए स बहुधणादिणा भरितो, | भणितो य-जस्स ते रोयति तस्स देहिति, चउत्था तूसिणीता अच्छति, राइणा भणिता-तुमंपि वरं बरेहि, जं एतस्स दादव्यंति, सा भणति-णस्थि मे विभवो, जेण सि पियं करेहामित्ति, राइणा भणिता-णणु ने सव्यं रजं अहं च आयत्तोत्ति, तंज ते रोयति तमेव AT||१८५॥
दीप
अनुक्रम [३५२३८०]
[198]
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आगम
(०२)
भाग-2 “सूत्रकृत" - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [६], उद्देशक [-], नियुक्ति: [८३-८५], मूलं [गाथा ३५२-३८०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत' जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
प्रत
श्रीमहावीरगुणस्तुतिः
सूत्रांक ||३५२३८०||
दीप
श्रीसूत्रक
तस्स देहित्ति, ताए अभयो तस्स दत्तो, पितिपितुणाम सादेतुं तासिं चउण्हवि कलहो जातो, एकेका भणति-एस चेव पुच्छिअतु, ताङ्गचूर्णिः
ततो सो पुच्छितो भणति-ण याणामि केणवि मे किंचि दत्तं, मुक्को यथा मे अभयो दत्तः, इत्यतो दाणाण सेढे अभयप्पदाणमिति ॥१८६॥
'सच्चेसु आ अणवलं वदंति' अनवद्यमिति यद्यन्येषामनुपरोधकृतं, सावा हिंसेत्यपि, गरहितं, कौशिकरिषिवत् , लोगेऽवि पयरती सुती-जह किर सच्चेण कोसिओत्ति रिसी णिरए णिरभिगमो पडितो वधसंपयुत्तेणं, अण्णं च 'तहेव काणं काणेत्ति, पंडगं पंडगति वा । वाहियं वा विरोगित्ति, तेणं चोरोति णो वए ॥१॥' इत्यादि, सत्यमपि गर्हितं, किमेवंविधेण सत्येनापि यत्परेषां
परितापनं 'तवेसु आ उत्तम बंभचेरं' येन तपो निष्टतो, देहस्यापि मोहनीयं भवति, तेन सर्वतपसा उत्तमं ब्रह्मचर्य, अन्ये If वेवं सम्प्रतिपद्यते-एकरात्रोपितस्यापि, या गतिब्रह्मचारिणः०' तथा सर्वलोकोत्तमो भगवान् ‘ठितीण सिद्धा लवसत्तमा
वा' वृत्तं ॥३७५॥ जे हि उक्कोसिए ठितीए वट्टति अणुत्तरोपपातिका ते लवसत्तमा इत्यपदिश्यन्ते, जइ णं तेसिं देवाणं एवतियं कालं आउए पहुप्पंतो ता केवलं पाविऊण सिझंता, पंचण्हपि सभाणं सभा सुधम्मा विसिट्ठा, सा हि नित्यकालमेवोपभुञ्जते, तत्थ माणवगमहिंदज्झयपहरणकोसचोपालगा, न तथा इतरासु नित्यकालोपभोगः, "णिवाणसिट्टा जह सबधम्मा' निव्वाणश्रेष्ठा हि सर्वे धाः, निर्वाणफला निर्वाणप्रयोजना इत्यर्थः, कुप्रावचनिका अपि हि निर्वाणमेव कांक्षते इति, ण णातपुत्ता परमस्थि णाणी जहा वा एते सर्वे लोका श्रेष्ठा अणुत्तराः एवं ज्ञातपुत्रान्न परोऽस्ति कश्चित् ज्ञानी, स एव सर्वज्ञानिभ्योऽधिकः, स एव भगवान् सर्वलोकेऽपि भूत्वा 'पुढोवमे धुणतीति विगयगेधी' वृत्तं ॥३७६।। जहा पुढवी सव्वफाससहा तहा सोऽवि धुणीति अष्टप्रकार कर्मेति वाक्यशेषः, बाह्यभ्यन्तरेषु वस्तुपु विगता यस्य गृद्धी स भवति विगतगृद्धी, सन्निधानं सन्निधिः द्रव्ये
अनुक्रम [३५२३८०]
[199]
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आगम
(०२)
प्रत
सूत्रांक ||३५२
३८० ॥
दीप
अनुक्रम
[३५२
३८०]
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र -२ (निर्युक्तिः+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [ ६ ], उद्देशक [-], निर्युक्तिः [८३-८५], मूलं [गाथा ३५२-३८० ]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र-[०२] “सूत्रकृत” जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
श्रीसूत्रवावचूर्णिः
॥ १८७॥
आहारादीनां भावे क्रोधादीनां कर्म वा सन्निधिः, यत्साम्परायिकं बनातीत्यर्थः, तरित्ता समुदं व महाभवोधं यथा तीत्व | समुद्रं कश्चिन्निर्भयो भवति एवं स भगवान् कर्मसमुद्रमिति, अभयं करोतीति अभयङ्करः, केषां १, सच्चानां विराजयति विदालयतीति वा वीरः अनंतचक्षुरिति अनन्तदर्शनवान्, 'कोहं च माणं च तहेव मायं वृत्तं ||३७७|| आध्यात्मिका होते दोषाः, बाह्या गृहादयः, एतानि वन्ता अरहा महेसी एते जे उद्दिड्डा, बन्ता णाम उज्झित्वा क्षपयित्वेत्यर्थः, अर्हतीत्यर्हा, महांश्चासौ रिपिः, न स्वयं पापं हिंसादि संपरायिकं वा करोति कारयति इति । किंच 'किरिया किरियं वेणगाणुवातं वृत्तं ॥ ३७८ ॥ | एतेषां वादिनामुपरिष्टात्कां विद्विशेषान् वक्ष्यामः, दुवालसँगं गणिपिडगं वादो सेसाणि तिष्णि तिसिद्धाणि अणुवादो, थोवं वा अणुबादो, से सच्चवादं इति वेदइत्ता स इति स भगवान्, सर्वे वादाः सर्ववादा, इहासिँल्लोके, वेदयित्वा ज्ञात्वेत्यर्थः, उवहिते सम्मस (संजम ) दोहरायं उपस्थितो मोक्षाय सम्यगुपस्थितः, न तु यथाऽन्ये, उक्तं हि - 'यथा परे सं(पां) कथिका विदग्धाः, | शास्त्राणि कृत्वा लघुतामुपेताः । शिष्यैरनुज्ञाम लिनोपचारैर्वक्तृत्वदोषास्त्वयि ते न संति ॥ १ ॥' दीहरातं गाम जावजीवाए, 'से वारिया इत्थि सराइभत्तं' वृत्तं ॥ ३७९ ॥ वारिया णाम वारयित्वा प्रतिपेध्यते च, इत्थिग्रहणे तु मैथुनं गृह्यते, सरादभचेति वारयित्वेति वर्त्तते, एतच्चात्मनि वारयित्वा न ह्यस्थितः स्थापयतीति कृत्वा, पश्चात् शिक्षां धारितवान्, अद्वितो न ठावते परं, उपधानवानिति न केवलं निरुद्धाश्रवः, पूर्वकर्मक्षयार्थं तपोपधानवानप्यसौ अतः स्यात् किं निमित्तं तवोवधानवानासीत् ?, उच्यतेदुक्खक्खयत्थं, लोगं विदित्ता अपरं परं च अपरो लोको मनुष्यलोकः परस्तु नरकतिर्यग्देव लोको, यत्स्वभावावेतौ लोकौ यैश्व कर्मभिः प्राप्येते इति, सवं पभू वारिय प्रभवतीति प्रभुः, वशयित्वेत्यर्थः, अथवा सव्धं पाणाइवादादीनि दव्चओ, प्रभुः
[200]
श्रीमहावीर| गुणस्तुतिः
॥ १८७॥
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आगम
(०२)
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [६], उद्देशक [-], नियुक्ति: [८३-८५], मूलं [गाथा ३५२-३८०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
श्रीसूत्र
शीलनिक्षेपाः
प्रत सूत्रांक ||३५२३८०||
| ज्ञेयं प्रति, प्रधानत्याच बारितवान् शिष्यान् हिंसानृतस्तेयपरिगृहेभ्य इति, मैथुनरात्रिभक्ते तु पूर्वोक्ते, सर्वसादकृत्यात् आत्मानं ताङ्गचूर्णिः
| शिष्यांश्च वारितवानिति, सर्ववारी सर्ववारणशील इत्यर्थः, इदानीं सुधर्मा तीर्थकरगुणान् कथयित्वा श्रोतृनाह-सोचा धम्म ৩ ০
| अरहंतभासियं' वृत्तं ॥३८०॥ श्रुत्वेति निशम्य, इमं धममिति योऽयं कथितः अर्थतो वा भाषितः गणधराणामित्यर्थः, सम्यक ॥१८८॥
| आहित समाहितः सम्यगाख्यात इत्यर्थः, अर्थवन्ति पदानि, अथवाऽथैश्च पदैश्च उपेत्यशुद्धं, तं सद्दहंता य तमिति योऽयमुप| दिष्टः श्रुत्वा श्रद्धानपूर्वकमादाय, आदाय नाम गृहीत्वा च, जना नाम बहवो जनाः अनायुपः संवृत्ता इति वाक्यशेषः, सिज्झन्तीत्यर्थः, जे तुण सिझंति ते इंदा भवंति देवाधिपतयः, आगमिष्येनेति आगमिस्सेण भवेण सुकुलुप्पत्तीए सिज्झिस्संति ॥ महावीरस्तवाध्ययनं पष्ठं समाप्तम् ।।
इदानी कुशीलपरिभासितंति जत्थ कुसीला सुसीला य परिभासिजंति, कुसीला गिहत्था अण्णउत्थिया य पासत्यादिणो य, DAI तेषां कुत्सितानि शीलानि अनुमतकारितादीणि परिभासिर्जति जहा य संसारं परिभमंति, तस्स इमानि चत्तारि अनुयोगदाराणि, | पुवाणुपुवीए सत्तम, अत्थाहिगारो सीलाणं कुसीलाणं च सम्भावं जाणिता कुत्सिता कुत्सितसीलाई असीलाई च बजेयधाई, जे य तेसु वटुंति ते वजेतच्या, णामणिफण्णे सीलंति एगपदं णामति, तत्थ गाथा 'शीले चउक दब्वे पाउरणाभरणभोयणादीसु भावे तु ओघसीलं अमिक्ख आसेवणा चेव ||७४|| सील णामादि चउबिह, णाभठवणाओ गयाओ, दवे वतिरित्तं, दव्यसीलो यथा प्रावरणसीलो देवदत्तः, प्रलंबप्रावरणशीलो वा, तथा नित्यभूपणशीला नित्यं मण्डनशीला ते भार्या, अपिच चोद्यते' शीलवती वा, तथा नित्यभोजनसीलोऽसि तथा मृष्टभोजनशीलो न चोपार्जनशीलोसि, यो वा यस्य द्रव्यस्य
दीप
अनुक्रम [३५२३८०]
॥१८८॥
Ah
अस्य पृष्ठे सप्तम अध्ययनं आरभ्यते
[201]
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आगम
(०२)
171
प्रत
M
सूत्रांक ||३८१४१०||
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [७], उद्देशक [-], नियुक्ति: [८६-९०], मूलं [गाथा ३८१-४१०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सूत्रकृत' जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
श्रीस्त्रक- खभावः तद्रव्यं च तच्छीलं भवति, यथा मदनशीला मदिरा, मेध्यं घृतं सुकुमारं वेत्यादि, भावशीलं दुविधं तं०-ओहशीलं शीलनि तागचूर्णिः अभिक्खासेवणसीलं च, तत्थ 'ओहे सीलं' गाथा ।।८७|| ओहो णाम अविसेसो जहा सब्यसावजजोगविस्तो विरताविरतोवि,। ॥१८९|| | एवं ता पसत्थं ओहसील, अप्पसत्थओहसीलं तु तद्विधर्मिमणी अविरतिः सर्वसावधप्रवृत्तिरिति, अथवा भावसील दुविहं-पसत्थं
अपसत्थं च, एककं दुविहं-ओहसील अभिक्खासेवणसीलं च, प्रशस्तौषशीलो धर्मशीलो, अभिक्खासेवणाए णाणशीलो तवशीलो, पाणे पंचविधे सज्झाए उपयुक्तो, अमिक्खणं २ गहणवत्तणाए अप्पाणं भावेति एम णाणसीलो, तवेसु आतावणअणसणाअणहिकरणसीलो, एवं दुविधो वित्थरेणं, जोएतव्यमिति, अप्पसत्थ भावओ ओहसीलो पावसीलो उड्डसीलो एवमादि, अप्पसत्थे अभिक्खआसेवणाभावसीलो कोहसीलो एवं जाव लोभसीलो चोरणसीलो पियणसीलो पिसुणसीलो परावतावणसीलो कलहसीलो इत्यादि, अथ कस्मात् कुसीलपरिभापितमित्यपदिश्यते ?, उच्यते, जेण एत्थ 'परिभासिता कुसीला' गाथा ।। ८९ ॥ येनेह सपक्खे परपक्खे य कुसीला परिभासिता, सपक्खे पासत्यादि परपक्खे अण्णउत्थिया जावंति अविरताकेयित्ति, सव्वे गिहत्था असीला एव, सुत्ति पसंसा सुरिति प्रशंसायां निपात इति यः शुद्धशील इत्यपदिश्यते, दुः कुत्सायां अशुद्धशील इत्यपदिश्यते, कथं कुसीला ? 'अप्कासुयपडिसेवी य ८९|| जे अफासुयं कयकारियं अणुमतं वा भुजति ते यद्यपि ऊर्ध्वपादा अधोमुखं धूमं | पिवंति मासान्तश्च मुंजते तहावि कुसीला एच, जे अफासुगाई आहारोवधिमादीणि पडिसेवंति असंयता असंयमत्ता अणगारवा. दिणो पुढविहिंसगा णिग्गुणा अगारिसमा, णिद्दोसत्ति य मइला, साधुपदोसेण मइलतरा, फासुं वदंति सीलं, जे. संजमाणुवरोघेण अफासुयं परिहरंता ते फासुभोअणसीला इत्यपदिश्यते, जे पुण ते अफासुयगभोई असीला कुसीला य ते इमे जह णाम गोत
दीप अनुक्रम [३८१४१०]
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आगम
(०२)
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [७], उद्देशक -1, नियुक्ति : [८६-९०], मूलं [गाथा ३८१-४१०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-०२] "सूत्रकृत' जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
जीवभेदाः
प्रत सूत्रांक ||३८१४१०||
त्रक- चूर्णिः १९०॥
PRITINIS
TIAIS
दीप
मारादेवता' गाथा ॥१०॥ गोतमा णाम पासंडिणो मसगराजातीया, ते हि गोणं णाणाविधेहि उवाएहिं दमिऊण गोतपोतगेण सह गिहे गिहे धणं ओहारेंता हिंडंति, गोवतिगाविधीयारप्राया एव, ते च गोणा णस्थितेल्लूगा रंभायमाणा गिहे गिहे सु(गो)घेहि गहितेहिं धणं उहारेमाणा विहरति, अवरे चंडदेवगा चरकपाया, वारिभद्रगा प्रायेण जलसकारहत्थपादपक्खालरता पहार्यता य आयमंता य संक्रांतिसु तिहिसु य य जलणिबुड्डा अच्छंति परिवायगादि, अण्णे अग्गिहोमवादी तावसा धीयारा, धीयारा अग्गिहोतेण सग्गं इच्छंति, जलसोय केइ इच्छंति, भागवता दगसोयरियादि तिणि तिसट्ठा पावादिगसता, जे य सलिंगपडिवण्णा कुसीला अफासुयगपडिसेवी । गतो णामणिप्फण्णो णिक्खेवो, सुत्ताणुगमे सुत्तमुच्चारेयवं जाव 'पंचहा विद्धि लक्खणं'ति, इदं सूत्रं 'पुढवी य आऊ अगणी य वाऊ तणरुक्खवीया य तसा य पाणा'||३८१|| तणरुक्खत्रीयत्ति वणस्सइकायमेदो गहितो, एकेको द्विविधो, अवीजा वीजाद्वा प्रसूतिः, पच्छाणुपुची वा गहिया, जहा वणस्सतिकाइयाणं भेदा तहा पुढ विमादीणवि भेदो भाणियव्यो, तंजहा-'पुढवी सक्करा वालुगा य०'एवं सेसाणवि भेदाभाणियव्वा, तसकाइयाणं तु इमो भेदो सुत्ताभिहित एव, तं०-जे अंडया जे य जरायु पाणा अंडेभ्यो जाता अण्डजा:-पक्ष्यादयः, जरायुजा णाम जरावेढिया जायते गोमहिष्याजाविकामनुष्यादयः, संखेदजाः गोकरीपादिषु कृमिमक्षिकादयो जायन्ते जलूगामंकुणलिक्खादयो य, रसजा दधिसोवीरकमजा(तक्रा)दिपु, रसजा इत्यभिधानत्वं जेसि रसजा इत्यभिधानं वा, 'एताई कायाई पवेइताई वृत्तं ॥३८२।। एतानि यान्वुद्दिष्टानि कायविधानानि, प्रवेदितानीति प्रदर्शितानि अहंप्रभृतीनां, 'एतेसु जाण' एतेत्ति ये उक्ताः, जानन्तीति जानकाः प्रत्युपेक्ष्य सातं सुखमित्यर्थः, कथं ? पडिलेहेति, जध मम न पियं दुक्खं सुहं चेहूं एवमेषां पडिलेहित्ता दुःखमेषां न कार्य णवएण भेदेण, जे पुण एतेसु काएसु य
अनुक्रम [३८१
a lpiparama
A
४१०]
TTATA TIRIT
SAIGAHESHANIH
॥१९०।
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आगम
(०२)
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [७], उद्देशक [-], नियुक्ति: [८६-९०], मूलं [गाथा ३८१-४१०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[२] “सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
विपासादि
प्रत सूत्रांक ||३८१४१०||
श्रीसूत्रकवाङ्गचूर्णिः ॥१९॥
दीप
आतदण्डे कुशीलः अशीलो वा एप कायानां आताओ दंडेइ, अथवा स एवात्मानं दंडयति य एषां दंडे णिसरति स आत्म| दंडा, एतेष्वेव पुनः विप्परियासुविन्ति विपर्यासो नाम जन्ममरणे, संसारो विपर्यासो भवति, अथवा सुखार्थी तानारभ्य ताने| वानुप्रविश्य तानि तानि दुःखान्यवामोति सुखविपर्यासभूतं दुःखमवामोति, विवरीतो भावो विपर्यासः, धर्मार्थी तानारभमाणः संसारमामोति, एवं सो अविरतो लोगो अवतलोकः कुशीललोकात् मनुष्यलोकात् प्रच्युतः तानेय कायान् प्राप्य 'जाईवहं अणु
परियडमाणे वृत्तं ॥३८३।। जातिश्च वधश्च जातिवधौ-जन्ममरणे इत्युक्तं भवति, समन्ताद्वर्तते अनुपरिवर्तते, ते पुण छवि काया | समासओ दुविहा भवंति, तंजहा-तसा थावरा य, थावहा तिविहा-पुढवी आऊवणस्सई, तसा तिविहा-तेउ वाऊ ओराला य तसा, | तेसु तसत्थावरेसु विणिग्यातमिति अधिको णियतो वा घातः निघात विविधो वा घातः शरीरमानसदुःखोदयो अट्ठपगारकम्मफलविवागो वा 'से जातिं जाति परियट्टमाणे से इति स कुसीललोकः जाति जातीति वीप्सार्थः, तासु तासु जातिसुत्ति तस| थावरजातिसु अणिसं निरंतरं कूराणि हिंसादीणि कम्माणि बहून्यस्य क्रूरकर्मेति बहु आरंभो विविधभंगा यद्यदकरोत्तेन कर्मणा मीयते, मी हिंसायां वा, मार्यत इत्यर्थः, नियंत इत्यर्थः, मञ्जते वा निमजत इत्यर्थः, भावमन्दस्तु कुशीललोको गहितो गिही पासंडी वा यत्पापं करोति तत्किमिह वेद्यते ?, अनेकान्तः, 'अस्सि च लोगे अदुवा परत्थ' वृत्तं ।।३८४।। कथं ?, इहलोगे दुचिष्णा | कम्मा०, इहलोगो असुभफलविवागो, इहलोए दुच्चिष्णा कम्मा परलोए असुभफलविवागा, परलोके दुचिण्णा कम्मा परलोए असुभफलविवागा, कथं ?, उच्यते-केनचित् कस्यचित् इहलोगे शिरश्छिन्नं तस्यापत्येन छिन्नं एवं इहलोगे, कथं इहलोगे न फलति', परगाइसु उवण्णस्स, परलोए कर्त इहलोगे फलति, जहा दुहविवागेतु मियापुत्तस्स, परलोए फलति, दीहकालद्वितीय कम्म
अनुक्रम [३८१४१०]
॥१९॥
PALIDITA
[204]
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आगम
(०२)
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [७], उद्देशक -1, नियुक्ति : [८६-९०], मूलं [गाथा ३८१-४१०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
प्रत
चूर्णिः सूत्रांक | ॥१९॥ ||३८१४१०||
दीप
| अण्णाम्मि भवे उदिअति, अथवा इहलोक इव चारकवन्धः अनेकर्यातनाविशेपैः तद्वेदयति, तदन्यथा वेदितं कस्यचित्परलोके, तेन । इह पर
लोकवेदनं वा प्रकारेण अन्येन वा प्रकारेण विपाको भवति, तथा विपाकस्तथैवास्य शिरश्छिद्यते तत् पुनरनन्तशः सहस्रशोवा, अथवा असकतथा सकृदन्यथा, अथवा शतशश्छिद्यते अन्यथेति सहस्से वा, अथवा शिरश्छिन्वानः शिरश्छेदमवानोति हस्तच्छिदं वा अन्यतराङ्गछेदं वा प्राप्नोति, सारीरमाणसेण वा दुक्खेण वेद्यते, एवं यादृशं दुःखमात्र परस्योत्पादयति तत्र मात्रतः शतशो मात्राधिगं तं | प्रामोति अन्यथा बा, त एवं कुशीला संसारमावण्णा परंपरेण संसारसागरगता इत्यर्थः, परंपरेणेति परमवे, ततश्च परतरभवे, | एवं जाव अणंतेसु भवेसु बध्नति वेदेति य दुषिणताई दुष्ठु नीतानि दुनितानि कुत्सितानि वा नीतानि कर्माणीत्यर्थः, एवं ताव | ओघतः उक्ताः कुशीला गृहिणश्चेति, इदानीं पापंडलोककुशीलाः परामृश्यन्ते, तद्यथा-'जे मातरं च पितरं च हेचा' वृत्तं | ॥ ३८५ ॥ 'जे' इति अणिदिवणिदेसो, एते हि करुणानि कुर्वाणा दुस्त्यजा इत्येतद्हणं, शेषा हि भातृभार्यापुत्रादयः सम्बन्धात् | पथाद्भवन्ति न भवंति वा इत्यतो मातापितग्रहणं, चग्रहणात् भ्रातृभगिनी जाव सयणसंगंथसंथवो थावरजंगम रजं च जाव दाणं दाइयाणं परिभाएत्ता, तेसु च जं ममत्तं तं हेचा, हेचा नाम हित्वा, श्रमणप्रतिनः श्रमण इति वा वदंति अग्निं चारभंते, नत्वेकस्यान्यतमेन अन्यतमाभ्यां अन्यतमैर्वा, अथाह स लोगो अणन्यधम्मे, अथ प्रश्नानन्तर्यादिपु, आहेति उक्तवान् , स इति भगवान , लोकः कथं समारभंते पंचाग्नितापादिभिः प्रकारैः पाकनिमित्तं च 'भूयाई वृत्त, भूताई जे हिंसति आतसाते भूतानीति अग्निभूतानि चान्यानि अग्निना वध्यंते, आत्मसातनिमित्तं आत्मसातं तद्यथा तपनवितापनप्रकाशहेतुं उज्जालिया पाणइवातयंति | णिवाविय अगणि निपातरजा उञ्जालयन्तस्ते पृथिव्यादीन् प्राणान् त्रिपातयन्ति, त्रिभ्यः मनोवाकायेभ्यः पातयन्ति त्रिपात- ॥१९२॥
अनुक्रम [३८१४१०]
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आगम
(०२)
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [७], उद्देशक [-], नियुक्ति: [८६-९०], मूलं [गाथा ३८१-४१०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] “सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
कुशीलाः
श्रीसूत्रक
तिचूर्णिः
प्रत सूत्रांक ||३८१४१०||
॥१९३॥
दीप
DI यन्ति, आयुर्वलेन्द्रियप्राणेभ्यो वा पातयंति तिपातयंति, उक्तं च-तणकट्टगोमयस्सिता०, णिवाविया अगणिमेव निपातयंति, उक्तं
हि-"दो भंते ! पुरिसा अष्णमण्णेण सद्धि अगणिकार्य समारभंति तत्थ णं एगे पुरिसे अगणिकार्य उालेति एगे पुरिसे अगणिकार्य णिव्यवेइ, तेसि णं भंते ! पुरिसाणं कयरे २ पुरिसे महाकम्मतरए पण्णते?, तत्थ णं जे से पुरिसे अगणिकार्य णिव्ववेह | से पुरिसे अप्पकम्मतराए, से केणद्वेणं ?, (भंते! एवं बुचइ) गोयमा! तत्थ णं जे से पुरिसे अगणिकार्य उजालेइ से णं पुरिसे | बहुतराग पुढविकार्य वायु आउ० वणस्सइकार्य तसकार्य० अप्पतगगं अगणिकायं समारभति, तत्थ णं जे से पुरिसे अगणिकायं णिव्य| वेति से णं पुरिसे अप्पतरागं पुढविकायं समारभति जाव अप्पतरागं तसकार्य समारभति बहुतरागं अगणिकार्य समारभति, से | तेणद्वेणं गोयमा! एवं बुचति", अपि चोक्तं-भृताणमेस आघातो, हव्यवाहो ण संसयो" यस्माचैवं 'तम्हा उ' वृत्तं तम्हा उ मेधावी समिक्ख धम्म ण पंडिए अगणि समारभेजा, कंठय, तु विसेसणे, अहिंसाधम्म समीक्ष्य, समारंभो हि तपनविपातनप्रकाशहेतुर्वा स्यात् , कतरान् जीवानाधानयंति ?, अस्यारम्भप्रवृत्ताः कुसीला उच्यन्ते, 'पुढवीवि जीवा आऊवि जीवा' ॥३८७॥ अपि पदार्थसंभावने, पुढवी जीवसंज्ञिता, ये च तदाथिताः वनस्पतित्रसादयः, एवमाऊवि तदाश्रिताः प्राणाथ, संपतन्तीति सम्पातिन:-शलभवाय्वादयः, कट्ठस्म संस्सिता य, संस्वेदजाः, करीपादिष्विन्धनेषु धुणपिपीलीकाण्डादयः, एते दहें अग|णि समारभंता एवं तावदग्रिहोत्राद्यारंभा तापसायाः अपदिष्टाः, एके निवृत्ताच शाक्यादयः, इदानीं ते चान्ये च वणस्सइसमारंभान्विताः परामृश्यन्ते, 'हरितानि भूतानि विलंबगाणि' वृत्तं ॥३८८॥ हरितग्रहणात् सर्व एव वनस्पतिकाया गृह्यरते, नीला हरिताभा आर्द्रा इत्यर्थः, हरितादयो वा वनस्पतयः, भूतानि जंगमाणि, विलंबयंतीति विलम्बकानि भूतस्वभावं भूताकृति
अनुक्रम [३८१४१०]
॥१९३॥
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आगम
(०२)
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [७], उद्देशक [-], नियुक्ति: [८६-९०], मूलं [गाथा ३८१-४१०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-०२] "सूत्रकृत' जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
.
श्रीमत्रक- गणिः ॥१९४॥
कुशीला
प्रत सूत्रांक ||३८१४१०||
दीप
दर्शयन्तीत्यर्थः, तद्यथा-मनुष्ये निपेककललावुर्दपेशिन्यहगर्भप्रसवबालकौमारयौवनमध्यमस्थाविर्यान्तो मनुष्यो भवति, एवं हरितान्यपि शाल्यादीनि, जातानि-अभिनवानि सस्यानीत्यपदिश्यन्ते, संजातरसाणि यौवनवंति, परिपकानि-जीर्णानि, परिशुष्कानि मृतानीति, तथा वृक्षः अहुरावस्थो जान इत्यपदिश्यते, ततश्च मूलस्कन्धशाखादिभिर्विशेषैः परिवर्द्धमानः पोतक इत्यपदिश्यते, ततो युवा मध्यमो जीर्णो मृतश्चान्ते, स इति एवंभूतं विलंवितं कुर्वति, कारणेन कार्यवदुपचारात् आहारमया हि देहादेहिनां, अन्नं वै प्राणा, आहाराभावे हि वृक्षा हीयन्ते म्लायंते शुष्यते च मंदफला हीनफलाश्च भयंति, पुढो सिताणि पृथक् २थितानि, न तु य एव मूले त एव स्कन्धे, केषांचिदेकजीवो वृक्षः तद्वयुदासार्थं पुढोसिताई, तान्येवं-संखेजजीविताणि असंखिजजीविताणि अणंतजीविताणि वा, जो छिदति आतसातं पडुच्च, आत्मपरोभयसुहदुःखहेतुं वा आहारसयणासणादिउवभोगत्वं, प्रागलिभप्राज्ञो नाम निरनुक्रोशमतिः, उपकरणद्रव्याण्येवानि, बहुणंति एगमपि छिंदन बहून् जीवान्निपातयति, एगपुढबीए अणेगा जीवा, किंच-'जाई च बुडिं च विणासयंते' वृत्तं ।। ३८९ ।। बातिरिति बीजं, तं मुशलोदुखलास्पन्दि(स्यादि)भिविनाशयन्ति यत्रकैश्च, जातिविनाशे हि अंकुरादिविद्धिर्हता एव, जात्यभावे कुतो वृद्धिी, अथवा जातीपि विनासेति वीजं, सुट्टुं विणासेइ अंकुरादि, बीजादीति बीजांकुरादिक्रमो दर्शितः, पच्छाणुपुची च दशविधाणं, स एवं असंयतः आत्मानं दण्डयति परं वा अधाहु से लोए अणजधम्मे अत्यानन्तर्य आहुस्तीर्थकराः, स इति स पाखण्डी, अनार्यों धर्मो यस्य स भवति अणजधम्मो, जहावादी तहाकारी न भवति, जो हि वीजादि हिंसति आत्मसातनिमित्तं, इत्येवं तान् प्राप्तवयसो वा वृक्षादीन् हत्वा ते कुशीलाः मानुप्यात् प्रच्युताः प्राप्य 'गम्भायि मिजंति पुवच्छ (घुया बु)याणा'वृत्तं ॥३९०॥ गर्भानिति वक्तव्ये गर्भादि इति यदपदिश्यते ।
अनुक्रम [३८१४१०]
॥१९४॥
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आगम
(०२)
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [७], उद्देशक [-], नियुक्ति: [८६-९०], मूलं [गाथा ३८१-४१०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] “सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
कुशीला
स्त्रक
गचूर्णिः
प्रत सूत्रांक ||३८१४१०||
१९५॥
| तद्गर्भावस्थानिमित्तं, तद्यथा-निषेककललार्बुदपेशित० स हि मासं गर्भाद्यवस्थानिमित्तं, तस्यामन्यतमस्यां कश्चित् म्रियते, अथवा मासिकादि, गर्भावस्थासु नवमासन्ते तेनान्यतरस्यां म्रियते, गतगर्भा विगर्भा, ते तु ब्रुवाणाश्च, ग्रन्थानुलोम्यात् पूर्व(पूत )कुर्वाणाः, इतरथाऽनुपूर्व वाण ब्रुवाणा इतियावत् , न मातापित्रादि व्यक्तया गिराऽभिधत्ते, ततः परं त्रुवाणा, पंचशिखो नाम पंचसूडः कुमारः, अथवा पंचेन्द्रियाणि शिखाभूतानि बुद्धिसमर्थानि खे खे विषये तसात् पश्चशिखो, तस्मिन्नपि कदाचित् म्रियते, युवाणगा मज्झिमा थेरगा य कंठयं चयंति साततो भवतो वा, यः पश्चात्प्रलीयते, यैर्यथाऽऽयुनिर्वतितं यैश्च यथा जीवोपघातादिभिरल्पान्यायूंपि निर्वतितानि सोपक्रमाणि निरुपक्रमाणि च, भणितं च-'तीहिं ठाणेहिं जीवा अप्पाउअत्ताए कम्मं पकरेंति एवं पंचेंदियतिरिएसुवि, गम्भादि मिजंति उ अबुयाणा, व्याधिभिरागंतुकैवेदनाप्रकारैनियन्ते, एगिदिएसुवि तहाणुरूवं भाणितवं, 'वुज्झाहि जंतो इह माणवेसु' वृत्तं ॥ ३९१ ॥ किं बोद्धव्यं ?, न हि कुशीलपाखंडलोकः त्राणाय, धम्मं च बुझह, तं च बोधि बुज्झा | | जहा-माणुस्सखेत्तजाती कुलरूवारोग्गमाउज बुद्धी । समणोगह सद्धा दरिसणं च लोगम्मि दुलभाई ॥१॥ जंतोरिति हे जन्तो, | इहेति इह माणवेहिं दृष्ट्वा भयानि इतश्च तस्य जातिजरामरणादीनि नरकादिदुःखानि च, तेण टुं भयं बालिएणं अलं भे बालभावो हि बालकं कुशीलत्वमित्यर्थः, नयते कुशील अग्रतः, एगंतदुक्खे जरिए उ लोगेति णिच्छणयं संपडुच्च एर्गतदुक्खो संसारः, तंजहा-'जम्मं दुक्खं जरा दुक्खं, रोगा य मरणाणि य । अहो दुक्खो हु संसारो, जत्थ किसति जंतवो॥१॥ तहा तण्हाति, तत्तपाणं करोति तस्स जरितेत्ति 'आलिते णं भंते ! लोए जराए मरणेण य' अथवा जेण सयं संतत्तं जरितमिव जगं कलह गलेति, जरित इब ज्वलितः, सारीरमाणसे हि दुःखादी, मणुस्से हि कषायैश्च नित्यप्रज्वलितवान् , ज्वरितः सकम्मुणा
दीप अनुक्रम [३८१४१०]
॥१९५॥
[208]
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आगम
(०२)
भाग-2 “सूत्रकृत" - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [७], उद्देशक [-], नियुक्ति: [८६-९०], मूलं [गाथा ३८१-४१०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
IMES
कुशीला
सूित्रक
T
चूर्णिः
१९६॥
प्रत सूत्रांक ||३८१४१०||
DAHARINirhRADESHTRA
दीप
विप्परियासुतित्ति खकृतेन कर्मणा, नेश्वरादिकृतेन, विप्परियासेण गरादिनानाविधैः प्रकारैविपरीतमायाति, तदपि चोक्तं, उक्तः कुशीलविपाकः, पुनरपि कुशीलदर्शनान्येवाभिधीयते, 'इहेग मूढा पवदंति मोक्खं वृत्तं ।। ३९२ ॥ इहेति पाखण्डिलोके मनुध्यलोकेऽपि, एके न सर्वे मूढा-अयाणगा खयं मूढोः परैश्च मोहिताः भृशं वदन्ति, आहियते आहारयति च तमित्याहारः, वुद्ध्यायुर्वलादिविशेषान् आनयति-आहारयतीत्याहारः, आहारसंपञ्जणेण रसाद्याहारसंपदं जनयन्तीति आहारसंपञ्जणं च तल्लवर्ण, अथवा आहारेणं समं पंचगं, आहारेण हि सह पंच लवणाणि, तंजहा-सैंधवं सोवञ्चल विडं रोमं समुद्र इति, लवणं हि सर्वरसान् दीपयति, उक्तं हि-'लवणविहणा य रसा, चक्खुविहणा य इंदियग्गामा। तथा चोक्त-'लवणं रसानां तैलं स्नेहानां घृतं मेध्याना'मित्यादि, केइ अठ्ठप्प लोणं ण परिहरंति, केचित्तदपि, अथवा आहारपंचगं, तद्यथा-'मजं लसुणं पललं खीरं करभंतधेव गोमस', वारिभद्दगा तु एगे य सीतोदगसेवणेण स्नानपानहस्तपादधावनेन सीतोदगसेवणं, तत्र च निवासः, सीतमिति अधिगत
जीवं, अंगुष्ठाभितप्तं वा, परिवाभागवतादयोऽपि शीतोदकं सेवंति, हुतेण एगे तापसादयो हि इटैः समिघृताभिहव्यैः, हुता॥ शनं तर्पयन्तो मोक्षमिच्छन्ति, तत्र कुंथ्वादीन् सचान गणयन्ति ये तत्र दद्यन्ते, मोक्षो बविशिष्टः सर्वविमोक्षो वा दरिद्रादि
दुःखविमोक्षो वा, ये कुलस्वर्गादिफलमनाशंस्य जुअति ते मोक्षाय, शेषास्तु अभ्युदयाय, तेषामुत्तरं 'पायोसिणाणादिसु णत्थि मोक्खों' वृत्तं ॥३९३।। प्रात इति प्रत्युषः, आदिग्रहणात् हस्तपादप्रक्षालनजलशयनानि, येन तदुदकं सचित्रं तदसिन् ये वहवे पाणा हम्मंति, किंच-'स्नानं मददर्पकर, कामांगं प्रथम स्मृतम्' खारो णाम अठ्ठप्पं तदादीन्यन्यानि पंच लवणाणि तेषामनशनेन मोक्षो भवति, ते मज मंसं लवणं च भोचा ते इति कुसीला, मांसमिति गोमांस, चग्रहणात् पल्यंडु कारभं एतान्यभोचा
अनुक्रम [३८१४१०]
HTA
[209]
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आगम
(०२)
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [७], उद्देशक [-], नियुक्ति: [८६-९०], मूलं [गाथा ३८१-४१०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] “सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
सूत्रक
'चूर्णिः
१९७॥
प्रत सूत्रांक ||३८१४१०||
| कथमिहान्यत्रवासं परिकल्पयन्ति मूर्खाः, अन्यत्रबासो नाम मोक्षवासः, अथवा अन्यत्रवासो नाम यत्रेच्छति यदीप्सितं 10 कुशीला वा न तत्र वासं परिकल्पयन्ति, अत्रैव संसारे चेव, परिकल्पयंति नाम कुर्वन्ति, विशेपोत्तरं 'उदएण जे सिद्धिमुदाहरंति' वृत्तं ॥३९४॥ सायंति रात्रौ, पायंति पच्चूसे, सेसं कंठयं । किंच-यदुदकेन सिद्धिः स्यात् तेन 'मच्छा य कुम्माय सिरीसिवा य' वृत्तं ॥ ३९५ ॥ मच्छा एव कुम्मा-कच्छभा, सीरीसवति इह सिरीसिवा मगरा सुंसुमारा य, चतुष्पादत्वात् सिरीसृपा, मंगू णाम कामजगा, उट्टा णाम मजारपमाणा महानदीपु दश्यन्ते, उम्मजणिमज्जियं करेमाणा, दगरक्खसा मनुष्याकृतयो नदीपु समुनेषु च भवंति, एवमादयोऽन्येऽपि च जलचराः मत्स्यबन्धादयश्च यद्यद्भिर्मोक्षः स्याचेन सर्वे मोक्षमवाप्नुवन्तु, न चेदाप्नुवंतिण, | अट्ठाणमेयं कुसला वदंति अस्थानमिति अनायतनं अनादेशः अभ्युदयनिःश्रेयसयोः कुशलास्तीर्थकरास्त एवं वदंति अस्था
नमेतत् यदुदकेन शुद्धिर्भवति, 'उदकं जति कम्ममलं हरेज'वृत्तं ॥३९६॥ एवं पुण्यपि, चन्दनकर्दमलिप्तं वा, नोचेत् ततस्ते il इच्छामात्रमिदं, त एवं वराका जात्यन्धतुल्याः अंधं व णेतारमणुस्सरंता अन्धेन तुल्यं अन्धवत् यथा जात्यन्धो जात्यन्धं णेतारमणुस्सरंतो, अणुस्सरंतो णाम अणुगच्छंतो, उन्मार्ग प्राप्य विषमप्रपातादिकण्टकव्यालाग्निउपद्रवानासादयति क्लेशमिच्छन्ति न चेष्टां भूमिमयामोति, एवं ते कुसीला अहिंसादिगुणजात्यन्धा इच्छंतोऽपि मोक्षार्थ अहिंसादीन् गुणानप्राप्नुवन्तः, स्वयं प्राणिनो | विहेडयंति 'हट्ट विवाधने बाधन्त इत्यर्थः, ये चान्ये जीवा अनाप्यास्तानाश्रयन्ति तेऽपि तथैव प्राणिनो विहेडयित्वा अनिष्टानि | स्थानानि अवाप्नुवंति, किंच-पावाई कम्माई पकुवतो हि' वृत्तं ॥ ३९७ ॥ कंठयं 'हुतेण जे मोक्खमुदाहरंति' वृत्तं ॥३९८॥ ये मोक्खं उदाहरति नाम भासंति, सायं च पायं च अगणिं फुसंति सायं रात्रौ, पायं प्रत्युषि, अग्निं स्पृशन्ति | ॥१९७॥
दीप
अनुक्रम [३८१४१०]
[210]
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आगम
(०२)
प्रत
सूत्रांक
||३८१
४१० ||
दीप
अनुक्रम
[३८१
४१०]
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र - २ (निर्युक्तिः+चूर्णि:)
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श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [ ७ ], उद्देशक [-], निर्युक्तिः [८६ ९० ], मूलं [गाथा ३८१-४१०] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र [०२] “सूत्रकृत” जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
श्रीसूत्रकृ ताङ्गचूर्णिः ॥१९८॥
इति यथैव्यैस्तत्पर्यंतैः यदि तेषामेव सिद्धिर्भवति एवं सिया सिद्धि हवेज कतरेषां ! अगणि फुसन्ताण कुकम्मिपि कुकर्मणो मृक्ष्यकारा कूटकारा वणदाहा वल्सरदाहकः उक्तानि पृथकुशीलदर्शनाणि, एषां तु सर्वेषामेव अयं सामान्योपालम्भ:अपरिक्ख दिहं ण हु एवं सिद्धि, एहिन्ति ते घातमबुज्झमाणा । अपरिच्छेति अपरीक्ष्य, दृष्टिरिति दर्शनं, अपरीक्षितदर्शनानामित्यर्थः नैवं सिद्धिर्भवतीति वाक्यशेषः, किंतु एहिंति ते घातमबुज्झमाणाः, अपरिच्छेति अपरीक्ष्य, दृष्टिरिति दर्शनी, तैस्तैर्दुःखविशेषैर्घातयतीति घातः संसारः, धम्ममबुज्झमाणाः, तत्प्रतिपक्षभूताः सम्यग्दृष्टयः, ते तु भूतेहिं जाणं पडिलेह सातं भूतानि एकेन्द्रियादीनि जानीत इति जानकः स जानको अत्तोवम्मेण भूते सातं पडिलेहेति 'जह मम ण पियं दुक्खं, जाणिय एवमेव सव्वसत्ताणं' एवं मत्वा यदात्मनो न प्रियं तद्भूतानां न करोति, एवं संमं पडिलेहणा भवति, विज्जं नाम विद्वान्, गहायत्ति एवं गृहीत्वा अत्तोवमेण इच्छितं सातासात एवं गृहीत्वा नवकेन भेदेन तसथावराण पीडं, अथवा विजं, विजा णाम ज्ञानं हाय, जोए तस्थावरा णचंति, उक्तं च- 'पढमं गाणं तओ दया, एवं चिट्ठति सव्त्रसंजए। अण्णाणी किं काहिति ?, किंवा ाहिति पावगं ? ॥१॥' ये पुनः हिंसादिषु प्रवर्त्तन्ते अशीलाः कुशीलाश्च ते संसारे धणंति लुप्पंति वृत्तं ॥ ४०० ॥ परगादिगती सारीरमाणसेहिं दुःखेहिं पीड्यमाना स्तनन्ति, लुप्यन्त इति छिद्यन्ते, हन्यन्ते च तसन्तीति नानाविधेभ्यो दुःखेभ्य उद्विजते, कर्माण्येषां संतीति कर्मिणः, यतथैवं तेण पुढो जगाई पुढो नाम पृथक् अथवा पृथु विस्तारो, सब्बजगाई पुढो पडिसंखाएति परिसंखाय परिगण्येत्यर्थः 'भिक्षु' रिति सुसीलभिक्षुः तम्हा विदू विरते आतगुत्ते तसादिति यस्मान्निः शीलाः कुशीला संसारे परिवर्तमाना स्तनन्ति लुप्पंति त्रसंति च तम्हा विदुः विरतिं कुर्यात् पंचप्रकारां अहिंसादी, आतगुत्तो णाम आत्मसु
[211]
the
आत्मारंभाः
१९८
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आगम
(०२)
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [७], उद्देशक [-], नियुक्ति: [८६-९०], मूलं [गाथा ३८१-४१०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] “सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
प्रत सूत्रांक ||३८१४१०||
श्रीयत्रक-10 गुप्तः खयं वा गुप्तः कायवाङ्मनस्वात्मोपचारं कृत्वा अपदिश्यते आतगुप्तेति, दर्छ तसे य पडिसाहरेजा चशब्दात स्थावरेऽपि, 1011 सुशीला: ताङ्गचूर्णिः पडिसाहरेजचि इरियासमिति गहिता, अतिकम्मे संकुचए पसारए, इदानीं स्वलिंगकुशीला परामृश्यंते, तद्यथा-'जे धम्मलद्धं च ॥१९९॥
[णिधाय भुजे' वृत्तं ।। ४०१ ॥ जेत्ति अणिदिवणिद्देसे, लद्धं, नान्येपामुपरोधं कृत्वा लब्धमित्यर्थः, वेतालीसदोसपरिसुद्ध, चा विभाषाविकल्पादिपु, असुद्धं की लड़े असणादि निधायेति सन्निधिं कृत्वा तं पुण अभत्तत्थं, दुचरितं भत्तसेसं वा अब्भत्तट्ठो वा मे अज, एवमादीहि कारणेहिं सन्निधि काउं भुजति, विगतेण य साहटुं विगतमिति विगतजीवं तेनापि च साइटुरिति साहरिग, फासुगे देसे जंतुवजिते संहत्य यः स्नाति-प्रयत्नेनापि देशस्नान वा सर्वस्नानं वा करोति, किं पुण अहिकडेण?, जो धावती लूसयतीव वत्थं धावयति विभूसावडिताए, लूमयति णाम जो छिंदति, छिंदित्तु वा पुणो संधेति वा, पठ्यते च-लीसएजावि वत्थं लीसए नाम सेवते, अथवा सइठाणाई कारेति, अप्पणो वा परस्स वा तमेव कुथाणं, भट्टारगो भणति-अधाह से णाअणियस्स दूरे नग्नभावो हि णागणिगं ततो दूरे वर्तते, निर्ग्रन्थत्वस्येत्युक्तं भवति, उक्ताः पासत्यकुसीला । इदाणि सुसीला, 'कम्मं परिणाय दगंसि धीरे' वृत्तं ॥४०२॥ व्हाणपियणादिसु कलेसु तिविधेन तु उदगसमारंभे य कम्मबंधो भवति तमेवं।
ज्ञात्वा संसारगीतो दुविधपरिणाए परिजाणेज धीरो-जानको, यथा वा यैः प्रकारैः कर्म बध्यते तान् कर्मवन्धाश्रवान् छिदित्वा Vallन कुर्यादिति, एवं ज्ञात्वा वियडेण जे जीवति आतिमोक्खं विगतजीवं वियर्ड-तंदुलोदगादि यच्चान्यदपि भोजनजातं
विगतजीवं संयमजीवितानुपरोधकत् तेन जीवेयुः, केचिरं कालमिति जाव आदिमोक्खो, आदिरिति संसार: स यावन मुक्का, ततो वा मुक्तः, यावद्वा शरीरं त्रियते तावत् , किंच-पासुकोदकमोजित्वेऽपि सति ते बीजकन्दादि अभुंजमाणा, आदिग्रहणान्मू
दीप अनुक्रम [३८१४१०]
[212]
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आगम
(०२)
प्रत
सूत्रांक
||३८१
४१० ||
दीप
अनुक्रम [३८१
४१०]
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र -२ (निर्युक्तिः+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [ ७ ], उद्देशक [-], निर्युक्तिः [८६ ९० ], मूलं [गाथा ३८१-४१०] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र -[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
श्रीसूत्रकताङ्गचूर्णिः
॥२००॥
लपत्रफलादीणि गृह्यन्ते, विरता सिणाणा अउ इत्थिगाओ विरता अभ्यंगोद्वर्त्तनादिषु शरीर कर्मसु निव्हति कर्मशरीरा, सुक्खा लक्खा णिप्पडिकम्मसरीरा जाव अचम्मावणद्धा एवं तावदहिंसा गृहीता, इरिथग्रहणतो अन्येऽपि अवागृहांते रात्रिभक्तं च ततोऽप विरता, ये चैवं विरतास्तपसि चोद्यता ते संसारे न धणंति, ण वा तत्र परिभ्रमन्ति, ण वा कुपीलदोसेहिं जुजंति, पुणरवि पासत्था कुसीला परानुस्संति- 'जे मातरं च पितरं च हेच ' वृत्तं ॥ ४०३|| गारं नाम घृहं पुत्रादि, पसवो हस्तश्वगोमहिष्यादयः एवं कृताकृतं एतं संतं असतं वा विहाय प्रब्रजितत्वात् आघाति धम्मं उदाराणु गिद्धो, हिंडतो वा उपेत्य अकारणे वा गत्वा तनिधे कुलेसु दाणभद्दयादिसु अक्खातित्ति आख्याति, धर्म्मा, उदारानुगृद्धो नाम औदारिकः उदरहेतुं धर्म्म कहेति, उधाहु से सामणितं श्रमणभावो सामणियं तस्स दूरे वट्टति, कुलाई जे धावति सादुगाई० वृत्तं ॥ ४०४|| एवंविधाई कुलाई पुच्वसंधुताई पच्छासंधुताणि वा जो गच्छति सादुगाई, स्वादनीयं स्वादु स्वादु ददातीति स्वादुदानि, स्वदंति वा स्वादुकानि अक्खाइयाओ अक्खाइ, धम्मकथाओ वा, जाहिं वा कहाहिं रखते, उदाराओ गिद्धो पुन्नो, अथवा उदरग्रथिना आख्या ण वट्टर कार्ड, इतरहा तु करेअवि कुले जाणित्ता, से आयरियाणं गुणाणं सतंसे आयरिया चरितारिया तेसिं सहस्सभाए सो बद्धति सहस्सगुणपरिहीणो ततो व हेद्वतरेण, जे लावए 'लप व्यक्तायां वाचि' लपतीति ब्रवीति जोवि ताव असणादिहेतुं, अण्णेण के लवावेति अहं एरिसो वा, सोचि आयरियाण सहस्सभागे ण वट्टर, किमंग पुण जो सयमेव लवइ ?; एवं वत्थपत्त पूयाहेतुमवि । किंच णिकम्मदीपणे परिभोगणी० वृत्तं ||४०५॥ जो अप्पं वा बहुं वा उवधिं च छड्डित्ता शिक्खतोऽसौ सीलमास्थितः रूक्षानपानतर्जितः अलाभगपरीसहेण वा दीनवां प्राप्य जिम्मिदिवसट्टो पंचविधस्स आजीवस्स अन्यतमेन आहारमुत्पादयति, सर्वोऽपि हि मोहत्थपर
[213]
सुशीलाः
॥२००॥
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आगम
(०२)
प्रत
सूत्रांक
||३८१
४१०||
दीप
अनुक्रम [३८१
४१०]
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र - २ (निर्युक्तिः+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [ ७ ], उद्देशक [-], निर्युक्तिः [८६ ९० ], मूलं [गाथा ३८१-४१०] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र -[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
श्रीसूत्रकृ ताङ्गचूर्णिः
॥२०१॥३
प्रणयदीनो भवति, उक्तं हि कण्ठत्रिस्वरता दैन्यं, मुखे वैवर्ण्यवेपथू । यान्येव म्रियमाणस्य तानि लिङ्गानि याचिते ॥ १॥ आउदृणाहेतुं च मुहमंगलियाओ करेति मखवत्, एरिसो वा तुमं दसदिसिपगासो तचणिगो व जहा कंपति, उदरे हितं उदरिकं अन्नपानमित्यर्थः, भृशं गृद्धः प्रगृद्धः णीयारगिद्वेव महावराहे णीयारो णाम कणकुंडकमुग्गमासोदणाण विनिकीर्यत इति | नीकारः, वरा दारतीति वराहः, वरा भूमी, स उद्घृतविषाणोऽपि भूत्वा अन्यानुरतोऽपि हि हन्यमानान् दृष्ट्वा तत्र नीकारे गृद्धन् पश्यति, ततः कचिदेव प्रकृता वा, अदूरेति वा अचिरात्कालस्य प्राप्तजरो व एवति घातमेव, मरणमित्यर्थः, अथवा निकारो नाम यस्यानिराल करालक मुद्द्रमाषादीनि स आरण्यवराहः, तेषु प्रगृह्यमाण औपगेषु पतति कर्षकेभ्यो यद् एसति घ्रातमेव, एवमसौ कुशील आहारगृद्धः असंयममरणमासाद्य परगति रिक्खजोणिओ पाविऊण अदूरमासु निघातमेव स एवं कुसीलो 'अण्णस्स पाणस्स इधलोइअस्स' वृतं ||४०६ || इहलौकिकानि हि अन्नपाणानि हि न मोक्खाय, तेषां ऐहिकानां अन्नपानानां हेतुरिति वाक्यशेषः, अनुप्रियाणि भाषते, एस दारिका कीस ण दीआइ १, गोणे किंण दम्मए १, एवमादि वणीमगत्तगं करेति, सेवमान इति | वायाए सेवति, आगमणगमणादीहि य, स एवंविधं पासत्थयं चैव कुशीलतं च चशब्दात् ओसन्नतं संसत्ततं च प्राप्येति वाक्यशेषः, केवलं लिङ्गावशेषः चारित्रगुणवंचितः णिस्सारए होइ जहा पुलाए जहा घण्णं कीडएहिं णिष्फालितं निस्सारं भवति, केवलं तुषमात्रावशेषं, एवमसौ चारित्रगुण निस्सारः पुलकधान्यवत् इहैव बहूणं समणाणं समगीणं हीलणिजे ० परलोगे य आगच्छति हत्थछिंदणादीणि, उक्ताः कुशीलाः, तत्प्रतिपक्षे भूतं मूलोत्तरगुणेषु आयतत्वं, सो शीलं प्रतिपद्यते, तत्रोत्तरगुणानधिकृत्यापदिश्यते, 'अण्णा यपिंडेणऽधियासएज' वृत्तं ॥ ४०७ || ण सयं वणीमगादीहिं, अण्णातउ एसति, अधियासणाण
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वीर्यनिरू पण
॥२०॥
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आगम
(०२)
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [७], उद्देशक -1, नियुक्ति : [८६-९०], मूलं [गाथा ३८१-४१०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-०२] “सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
वीर्यनिरू
पण
प्रत
सूत्रांक ||३८१४१०||
दीप
श्रीवत्रक
अलंभमाणा, ण पूयणं तवसा अ, बहू जणे पूयासकारणिमित्तं तपः कुर्यादिति, निवहेज्ज वा, जो पूसकारनिमित्तं तवं करेंति ताङ्गणितेण सो तच्चाणि वाहितो भवति, तम्हा ण णिव्वहेज्जा, स एवं अण्णे य पाणे य अगाणुगिद्धो, जो हि अण्णायपिंडं एसए सो २०२॥
णियमा अण्णे य पाणे य अणाणुगिद्धो, अथवा अणु-पश्चाद्भाव इति, ण पुरभुत्ते अण्णपाणेसु अणुगिज्झेज्झा, एगग्गहणे गहणंति जहा रसेसु णियतत्ति तहेव सब्बेसु कामेसु णियतिं कुर्यात् , सद्दरूवादिसु असजमाणे ण राग दोसं वा गन्छे, कथं ?, 'सद्देसु य भयपावएस, सोतगहणमुवगतेसु । तुटेण व रुटेण व समणेण सदा ण होयव्यं ।।१।। एवं सेमिंदिएसु, अहवा अपसत्थइच्छाकामेसु मदणकामेसु य, यथैव इन्द्रियजयं करोति तहेव 'सवाणि संगाणि अधि(इ)च धीरो'वृत्तं ॥४०८|| संगाः प्राणिवधादयः जाव मिच्छादसणंति ताणि अणिच्छिऊण सव्वाई परीसहोवसग्गाई दुक्खाई खममाणे-सहमाणे, अखिलो णाम अखिलेसु गुणेसु वर्तितव्यं, अथवा खिलमिति पत्र किंचिदपि न प्रमते ऊखरमित्यर्थः, नैवं खिलभूतेन भवितव्यं, यत्र कश्चिदपि गुणो न प्रस्ते, गुणा णाणादी, अगृद्धे आहारादिसु, ण सिलोयकामी परिवएजा, सिलोको नाम श्लाघा, सर्वतो वएज, स्वात्तदज्ञातपिंडं किनिमित्तमाहारयति ?, उच्यते-'भारस्स जाता मुणी भुंजमाणे वृत्तं ॥४०९॥ भारो नाम संयमभारो, जाताएत्ति संयम
जाताएत्ति, संयमजाता मत्तो-णिमित्तं, संजमभारवहणट्ठताए 'सो हु तवो कायव्यो जेण मणो दुकडं ण उप्पजेज', कंखेजा य | उद्यानक्रीडातुल्यं तपो मन्यमानः कंखेजा य पावविवेगं नाम भिक्खू , पावं नाम कर्म, विवेगो विनाश इत्यर्थः, सर्वविवेको मोक्षः, सेसो देसविवेगो, अथवा पापमिति शरीरं, कृतघ्नत्वादशुचित्वाच तद्विवेकमाकांक्षमाणः दुःखेण पुढे धुतमातिएज यदि । पुनरसौ संयम कुर्वाणः शारीरमाणसैः परीपहोपसर्गदुःखैरभिभूयते ततस्तैरभिभूतः धुतमादिएज, धुअं-वैराग्यं चारित्रं उपशमो वा
अनुक्रम [३८१४१०]
॥२०२॥
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आगम
(०२)
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [७], उद्देशक [-], नियुक्ति: [८६-९०], मूलं [गाथा ३८१-४१०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
वीर्यनिरू
प्रत सूत्रांक ||३८१४१०||
श्रीसूत्रकताङ्गचूर्णिः ||२०३॥
दीप अनुक्रम [३८१४१०]
| संजमो णाणादि वा, आदीएज्जचि तमादद्यात् , तेन तेषां जयं कुर्यादित्यर्थः, यथा भहारक एव, दमदन्तो वा संगामसीसे यथा
दमितः बरो-योधः संगामशिरस्यपरान् दमयति, अभिहतीत्यर्थः, एवं अट्ठविहं कम्म जिणिचा परीसहे अघियासेहि, किंचान्यत्| "अवि हम्ममाणे फलगावतट्ठी'वृत्तं ॥४१०॥ यद्यप्यसौ परासहेर्हन्येत अर्जुनकवत्, अथवा फलकादवकटः क्षारेंण लिप्येत | सिच्येत वा तथापि अग्रदुष्टः अणिहम्ममाणो वा समागमं कंखति अंतगरस सम्यक् आगमः समागमः, अन्तको नाम मोक्षः,
अथवा अन्तं करोतीति अन्तकः, यथा 'नाग्निस्तृप्यति काष्ठानां, नापगानां महोदधिः। नान्तकृत्सर्वभूतानां, न पुसा वामलोचनाः ||१|| स एवं निघृय कर्म-अंतकर्ममासाद्य निश्चितं निरवशेपं वा धृत्वा विध्य, कि ? अष्टप्रकार कर्म, नेति प्रतिपेधे, भृशं प्रपंचं | प्रबंचं जातिजरामरणदुःखदौर्मनस्यादि नटवदनेकप्रकारः प्रपंचको दृष्टान्तः, अक्खक्खए व अश्नोतीत्यक्षः, अथवा न क्षयं जातीत्यक्षः, जहा अक्खक्खए सगडं समविपमदुर्गप्रपातोद्यानादिपु तेपु पुनः संखोभमिन्ति एवं स, एवं निघृय कर्म अचलं निर्वाणसुखं | प्राप्य न पुनः संसारप्रपञ्चमामोति । नयास्तथैव ।। कुसील परिभाषितं सप्तममध्ययनं समाप्त ।।
वीरियंति अज्झयणं, तस्स चचारि अणुयोगदारा, अहियारो-तिविधं पीरियं वियाणित्ता पंडियवीरिए जतितब्ब, गाथा। 'वीरिए छकं' गाथा ॥११॥ चीरियं णामादि छबिह, णामंठवणाओ गयाओ, वतिरित्तं दबबीरिय सचित्तादि तिविधं, सचित्र | दव्यबीरियं तिविधं-दुपद चउप्पद अपदं, दुपदाण वीरियं अरिहंतचकट्टिवलदेववासुदेवाणं इत्थिरयणस्म य, एवमादीण वीरियंजं जस्स जारिसं सामत्थं, चतुष्पदाणं तु अस्सरयणाईणं सीहवग्धवराहसरमादीण, सरभो किल हस्तिनमपि वृक इव औरणकं उक्खिविऊण अ बज्झति, एवमादि यस्य यच चतुष्पदस्य बोद्धव्यं वा सामर्थ्य, अपदाणं गोसीसचंदणस्स उपहकाले डाहं णासेति
॥२०३॥
अस्य पृष्ठे अष्टमं अध्ययनं आरभ्यते
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आगम
(०२)
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [८], उद्देशक [-], नियुक्ति: [९१-९८], मूलं [गाथा ४११-४३६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-०२] "सूत्रकृत' जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
0
8.
प्रत
श्रीमत्रक- तागचूर्णिः ॥२०४॥
सूत्रांक ॥४११४३६||
दीप अनुक्रम [४११४३६]
तहा कंवलरयणस्स सीयकाले सीतं उण्हकाले उहं णासेति, तहा चकवहिस्स गम्भगिह सीते उण्ई उण्हे सीतं, एवं पुढीमादीणं जस्स जारिस संजोइमाणं असंजोइमाण य गदागदविसेसाण य 'अचित्तं पुण वीरियं' गाथा ॥ ९२ ॥ अचिचं दव्यबीरियं " आहारादीणं स्नेहभक्ष्यभोज्यादीनां, उक्तं हि-'सद्यः प्राणकर तोयं०' आवरणाणं च वम्ममादि गुडादीणं च चकरयणमादीणं ।
अन्येषां च प्रासशक्तिकणकादीणां, किंचान्यत्-जह ओसहाण भणियं वीरियं, विवागे ते विसल्लीकरणी पादलेबो, मेधाकरणीउ य ओसधीओ, विसघातीणि य दव्याणि गंधालेवआस्वादमात्रात् विपं णासेन्ति, सरिसित्रमेत्ताओ वा गुलियाओ वा लोसुक्खे
णामेत्ते खेचे विपंगदो वा भवति, अन्यं द्रव्यमाहारितं मासेगापि कल(वपि क्षुधा न करोति, न च यलग्नानिर्भवति, किचकेषाश्चिद्रव्यतो संयोगेण वची आलिचा उदकेनापि दीप्यते, कमीरादिपु च कांजिफेनापि दीपको दीप्यते, योनिप्राभृतादिपु वा विभा सियव्वं । खेतवीरियं देवकुबातीसु सर्वाण्यत्र द्रव्याणि वीर्यवन्ति भवन्ति, यस वा क्षेत्र प्राप्य वलं भवति, यत्र वा क्षेत्रे वीर्य वर्ण्यते, एस चेच अत्थो णिज्जुचीगाथाए गहितो, 'आवरणे कवयादी चमादीयं च पहरणे होति । खेत्तम्मि जम्मि खेत्ते काले जो जंमि कालंमि ॥९४|| कालचीरियं सुसमसुसमादिसु, यस्य वा यत्र काले बलमुत्पद्यते, तद्यथा-वर्षासु लवण- । ममृतं शरदि जलं गोपयश्च हेमन्ते। शिशिरे चामलकरसो घृतं वसंते गुडो वसन्तस्यान्ते ॥१॥'भावे जीवस्स वीरियस्स' गाहा ॥९३।। भाववीरियं जीवस्स सीरियस्स लद्धीओ अणेगविधाओ, तंजहा- उरस्सवलं इंदियवलं अन्झप्पवलं, औरसि भयं
औरस्यं, शारीरमित्यर्थः, तं पुण अणेगविध, तंजहा-'मणवयणकाय'गाथा ।। ९५ ॥ मणे तार उरस्सवीरियं जारिसं मणपोग्गलगहणसामत्थं वयरोसभसंघातणादीणं जारिसे पढमसंवतणे मणपोग्गले गेहति, तं पुण दुविधं-संभवे य संभब्वे य, तित्थ-
॥२०४॥
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आगम
(०२)
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [८], उद्देशक [-], नियुक्ति: [९१-९८], मूलं [गाथा ४११-४३६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
वी
चूर्णिः
प्रत सूत्रांक ॥४११४३६||
श्रीस्त्रक
गरस्स अणुत्तरोवाइयाणं च अतीपट्टणि मणोदवाणि, संभावणीयं तु यो हि यमर्थ पटुमतिना प्रोच्यमानं न शक्नोति साम्प्रतं | कर्माकर्म
परिणामयितुं, संभाव्यते तु एष परिकर्ममाणं शक्ष्यत्यमुमर्थ परिणामयितुं, तंजहा-तवे तणुतए दुचले, विग्णाणणाण इत्यादि । ॥२०५॥
WI संभाव्यं, वायावीरियमवि विध-संभवे य संभब्वे य, तत्थ संभवे य तित्थगरस्स जोअणनीहारिणी वाणी सबभासाणुगामिणी
एतत्संभवति वाचावीर्य तित्थकरे, येषां चान्येपां क्षीराश्रवादिवाग्विषयः, तथा हंसकोकिलादीनां सम्भनति स्वरसेन माधुर्यवीर्य, सम्भाव्ये तु श्यामा स्त्री गाइतव्ये, तंजहा-'सामा गायति मधुरं काली गायति खरंच रुक्खं च एवमादि, तथा संभावयाम | एनं श्रावकदारकं अकृतमुखमप्यक्षरेषु यथावदभिलप्तव्येषु, तथा संभावयामः शुकमदनशलाका मनुष्यवक्तव्येन त्वे मासे सम्भाव्यते, कायबीरियं णाम औरस्यं यद्यस्य बलं, तदपि द्विविध-सम्भवे सम्भाव्ये च, संभवे यदिवा चक्रवर्तिबलदेववासुदेवाणं यद्वाहुवलादि कायबलं, जहा कोडिसिला तिविठ्ठणा उक्खित्ता, अथवा 'सोलस रायसहस्सा एवं जाव अपरिमितवला जिमवरिंदा | संभवेयुः, सम्भाव्यते तीर्थकरा लोकं अलोके प्रक्षेप्तुं, तथा मेरु दंडमिव गृहीत्वा छत्रपद्धत, तहा पभु अण्णतरो इंदो जंबुदीवंतु || वामहत्थेण छ जहा धरेज करयलतो मंदरं घेतं, तथा संम्भाव्यते आर्यदारका परिसर्द्धमानः शिलामेनामुदत, अनेन मल्लेन सहा| योद्धमित्यादि, इंदियवलं पंचविधं सोइंदियादि, एकेकं संभवे सम्भाव्ये च, संभवे यथा श्रोतस बारस जोयणाणि विसओ, एवं | | सेसाणवि जस्स जो, संभाव्येऽपि यस्यानुपहतमिन्द्रियं श्रान्तस्य वा पिपासितस्य वा परिग्लानस्प वा साम्प्रतमग्रहणसमर्थ, यथो-IN
| दिष्टानामुपद्रवानां उपशमे सम्भाव्यते विषयग्रहणायेति, उक्तं इन्द्रियवीयं । इदानीं आध्यात्मिकं, तमनेकविधं 'उजमधितिधीरत्तं, A ॥९६॥ उज्जमो गाम परीसहोवसग्गाणं जये, सोंडीरो णाम त्यागसंपन्नः अविसादिता, अहवा सोंडीर ज्ञाने-अध्येतव्ये तथैव वा ॥२०५॥
दीप
अनुक्रम [४११४३६]
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आगम
(०२)
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [८], उद्देशक -1, नियुक्ति: [९१-९८], मूलं [गाथा ४११-४३६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] “सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
प्रत
कर्माकर्मवीर्ये
श्रीया तामणि ॥२०६॥
सूत्रांक ॥४११४३६||
दीप अनुक्रम [४११४३६]
कर्तव्ये, न पराभियोग इव करोति, हायमाणः, अवश्यं मया एतत्कर्त्तव्यं, न विषीदन्ति चलयंति वा, क्षमावी आकुश्यमानोवि नक्षुभ्यति, गंभीरो नाम परीपहेर्न क्षुभ्यते, दाउं वा काउं वा णो तुच्छो भवति, उक्तं च-'युल्लुबुलेति जं होइ ऊणयं रिचय कणकणेइ । भरियाई ण खुन्भंती सुपुरिसविण्णाणभंडाई ॥१।' उवयोगः सागारअणामारुवयोगपीरियं, सागारोवयोगवीरियं अट्ठविह पंच ज्ञानानि वीण्यज्ञानानि, अणागारोवयोगवीरियं चतुर्विधं, येन स्वविपये उपयुक्तः यो यमर्थ जानीते द्रष्टव्यं च पश्यति, एकेकस्स
मत्युपयोगादेः चतुर्विधो भेदो दव्यादि, एवं उपयोगवीरिए जाणति, जोगवीरियं तिविहं, मण्णमझप्पीरियं अकुशलमणणिरोधो । वा कुशलमणउदीरणं वा मणस्स एगतीभावकरणं वा, मणवीरिएणय पियंठसंयता वद्धमाणअवहितपरिणामगा य भवन्ति, वइवी1 रिए भासमाणा अपुणरुतं निरवशेष च भापते वागविषयात्मोपयुक्तः, काये वीर्य सुसमाहितपसन्नादनः सुसहरितपादः कूर्मवद
वतिष्ठते, कथं निश्चलोऽहं स्यां इत्यध्यवसितः, उक्तं हि-काएविहु अज्झप्पं ते तपोवीर्य द्वादशप्रकारं यस्तदध्यवसितः करोति, । एवं सप्तदशविधे संयमेऽपि, एकत्वाध्यवसितस्य संयमवीर्य भवति, कथमहमतिचारं न प्राप्नुयामिति, एवमादि अध्यात्मवीय, एव
मादि भाववीर्य वीरियपुग्वे वणिजति विकल्पसः, उक्तं च-"सन्धणदीणं जा होज बालुगा गणणमागता संती। तचो बहुतसे उ अस्थो एक्कस्स पुव्यस्स ॥१॥ सव्वसमुदाण जलं जति पस्थिमितं हवेज संकलणं । तत्तो बहुतरो उ अत्थो एगस्स पुषस्स ॥२॥ सर्वपि तयं तिविहं पंडियं बालं च वालपंडितं होइ, तत्थ बालयं तथा पंडितं च, मीसितं च, अथवा दुविधं, तं०-अगाखीरियं अणगास्वीरियं, तत्थ पंडितवीरियं अणगाराणं, आगाराणं तु दुविहं-बालं च बालपंडितं चेति, तत्थ पंडितवीरियंपि सादीयं सपजवसितं च, चालचीरियं जहा असंजतस्त, विविधो तिठाणा, तंजहा-अणादीणं अपञ्जवसितं १ अगाइयं सपञ्जवसियं
॥२०६॥
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भाग-2 “सूत्रकृत" - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [८], उद्देशक -1, नियुक्ति: [९१-९८], मूलं [गाथा ४११-४३६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] “सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
वीय
प्रत सूत्रांक ॥४११४३६||
कर्माकर्मश्रीसूत्रक
ID|| २ सादीयं सपअवसितं ३, णो चेव णं सादीयं अपञ्जवसितं, अथवा स तु वीरियं तिविहं-खडयं उपसमियं खओवसनियंति, तामणिःखइयं वीणकसायाणं, उपसमियं उवसंतकसायाणं, सेसाणं तु खोवसमिय, जत्थ सुतं-सस्थमेगे सुसिक्वंति, तत्थ गाथा || ॥२०७॥
'सत्थं तु असियगादि',गाथा, सत्यं विद्याकृतं मत्रकृतं च, तत्थ विजा इत्थी भंतो पुरिसो, अथवा विद्या ससाथगा मंतो असाहणो, ri एकेक पंचविहं-पार्थिवं वारुणं आग्नेयं वायव्यं मिश्रमिति, तत्थ मीसं जं दुपतिण्ह वा देवतागं, अथवा विजाए मंतेण य, एताणि अधिदेवगाणि, गतो णामणिप्फण्णो, सुत्ताणुगमे सुत्तमुबारेयवं-तं चिमं सुत्तं-'दुहावेतं समक्खातं' सिलोगो ॥ ४११ ।। दुधावि एतं, द्विप्रकारं-द्विभेदं बालं पंडितं च, चः पूरणे, एतदिति यदमिप्रेत, या इहाध्याये अधिकृतं वक्ष्यमाणं, जंवा मिक्खेवणिज्जुत्तीवुतं, सम्यक आख्यातं समाख्यातं तित्थगरेहिं गणहरेहिं च, विराजते येन तं वीरियं, विकमो वा वीरियं, पकरिसेण बुचइ पचुनइ, भृशं सावादितो वा बुचति, किण्णु वीरस्स वीरत्तं केन वीरोत्ति वुचति, किमिति परिप्रश्ने, नु वितर्के, वीर्यमस्खास्तीति वीरा, किं तत् वीरस्स वीर्य ?, केण वा वीरेत्ति वुच्चति, किणा वा कारणेन वीर इत्यभिधीयते ?, पृच्छामः, तत्थ वा करणं वीरियं जं पुच्छितं तदिदमपदिश्यते-कम्ममेव परिण्णाय' सिलोगो ॥ ४१२ ।। क्रिया कमत्यनान्तरं, क्रिया हि | चीय, एवं परिणाए एवं परिजानीहि, तस्सेगट्ठिया ओट्ठाणंति वा कम्मति वा बलंति वा बीरियंति वा एगहुँ, पठ्यते च-कम्ममेव पभासंति एवं प्रभापन्ति कर्मभीर्य, अथवा यदिदमष्टप्रकार कर्म तत् औदयिकभावनिष्पनं कर्मेत्यपदिश्यते, औदयिकोऽपि च भावः कर्मोदयनिष्पन्न एव, बालवीरियं बुचति, वितियं अकम्मं वावि सुवता अकर्मनीयं तत् , तद्धि क्षयनिष्पन्नं, न वा कर्म बध्यते, न च कर्मणि हेतुभूतं भवति, सुव्रताः-तीर्थकराः, प्रभात इति वर्तते, परिजानंत इति च वर्तते, तत्तु पंडितवीर्यमपदि-। IMA२०७॥
दीप अनुक्रम [४११४३६]
[220]
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आगम
(०२)
प्रत
सूत्रांक
||४११
४३६||
दीप
अनुक्रम
[ ४११
४३६]
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र -२ (निर्युक्तिः+चूर्णि:)
-
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [ ८ ], उद्देशक [-], निर्युक्ति: [ ९१-९८ ], मूलं [गाथा ४११-४३६ ] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र -[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
श्रीवत्रकवामपूर्णिः
॥२०८॥
श्यते एव एते द्वे स्थाने, तं कम्मचीरियं च अकम्मवीरियं च तत्र प्रमादात् कर्म बध्यते अप्रमादान्न बध्यते, अथवा द्वाविति बालं | पंडितं च, बालं असंयताणं पंडितं संजयाणं, तत्र तावत् बालवीरियं अपदिश्यते, अथवा जम्म आदिश्यते वट्टमाणा भविया मणुस्सा, तत्कथं १, उच्यते--पमादं कम्ममासु सिलोगो || ४१३|| प्रमादात् कर्म भवति एवं वक्तव्यः, कारणे कार्योपचारात् प्रमादः कर्मेत्युच्यते स च प्रमादः तहावि संभवे आदिश्ये पंडितं सादिं अपजर्वसितं बालं तिविहं, अनादि अपज्जवसितं अभवियाणं, अणादि | रापज्जवसितं भवियाणं, सादिसपज्नवसितं सम्मदिट्ठीणं, जं तं बालं कथं होज्जा ?, उच्यते 'सत्यमेगे सुसिक्वंति' सिलोगो | ॥४१४ ॥ धनुरुपदिश्यते धनुः शिक्षामित्यर्थः, आलीढ० स्थानविशेषतः, एगे असंजता, न सर्वे, अथवा सर्वकारणा अत्रशास्त्राणि, अधीयते हि भीमासुम कोडिल्लगं धर्मपाठका वैद्यकं बावचरिं वा कलाओ सुद्ध सिक्खति असुभेनाध्यवसायेन अतिवाताय | पाणिणंति एवं पुरुषस्य शिरश्छेत्तव्यं एवं चार्थी प्रत्यर्थी वा दण्डयितव्यो नेत्रादिरागादिभिश्व कारी अकारी च ज्ञातव्यो, अमुकापराधे | वाऽयं दण्डो हस्तच्छेदमारणेत्यादि, किंच के मंते अधिनंति अमु मंते अभिचारुके अथर्वणे हृदयोण्डिकादीनि च अयमेधं | सर्वमेव पुरुषमेधादि च मन्त्रानधीयते, भूतमत्रो धातुवादः विलवादादि, चहूणं पाणाणं भूताणं विहेडणं, विद्याधन इत्यर्थः, उक्तं च- 'पट्शतानि नियुंजते, पशूनां मध्यमेऽहनि । अश्वमेधस्य वचनात् न्यूनानि पशुभिस्त्रिभिः ॥ १ ॥ ते तु अशुभाध्यवसिताः। | किंच-'माणओ काउ मायाओ' सिलोगो || ४१५ || तेण चाणक्कको डिल्लईसत्यादी मायाओ अधिज्जंति जहा परो बंचे| तन्त्रो, तहा वाणियगादिणो य उत्कोचचणादीहिं अत्यं समज्जियंति लोभे तत्थ च उत्तरेति माणोवि एवं मायिणो मायाहि' अत्थं उवज्जिणंति, यथेष्टानि सावद्यकार्याणि साधयन्ति, तत एषां कर्मबंधो भवति, कामभोगान् संमोहरे कारणे कार्यवदुप
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कर्माकर्मवीर्ये
॥२०८॥
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भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [८], उद्देशक [-], नियुक्ति: [९१-९८], मूलं [गाथा ४११-४३६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-०२] "सूत्रकृत' जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
आरंभ
प्रत सूत्रांक ॥४११४३६||
श्रीसत्रकनाचणि ॥२०॥
| चारः, अर्थ एव कामभोगाः तत्समाहरंति इति, पठ्यते च-आरंभाय तिउहद आरंभा त्रिभिः कायवाइमनोमिः आउदृती तिउ
ति, बहवे जीवे एगिदियादि जाव पंचिंदियत्ति वुचति य एवमादि आरभ्यते पापं, तं तु मणसा वयसा कायसा, णवएण भेदेणं जीवे हणतो, बंधन्तो उद्धंसेन्तो आणवेन्तो कुद्देन्तो अर्थोपार्जनपरो निद्दाय हंता गामादि छेत्ता मियपुच्छादि पत्तिया हत्थिदंतादि हत्थादि वा, आतसाता मासा 'कइया वचइ सत्थो। गाथा ॥४१६॥ कायेण किलिस्संतो, पढम मगसा, पच्छा वायाए, अंतकाले कारण, आरतो सयं, परतो, सयं परतो, अण्णण दुहावि, स एवं 'वेराणि कुवंति वेरी' सिलोगो॥४१७|स पैराणि | कुरुते पैरी, ततो अण्णे मारेति अण्णणे बंधति अण्णे दंडेति अण्णे णिविसर आणवेति चोरपारदारियवयचोपगादि पहुजणं वेरेति | जेसु वा थाणेसु रजति सजति मज्जति अज्झोववञ्जति, पठ्यते च-जेहिं वेरेहिं कजति, ततस्ते वैरिणः इहमवे, परभवे च करकया
दीहिं किचंति, छिद्यन्त इत्यर्थः, जाणि वा करेति ताणि से से अहियतराणि पडि करेंति, रामवत्, जहा रामेण खतिया ओच्छा| दिता, 'अपकारसमेन कर्मणा, न नरस्तुष्टिमुपैति शक्तिमान् । अधिकां कुरु वैरयातनां, द्विषतां जातमशेषमुहरन् ॥१|| सुभोमेणावि तिसत्तखुचो णिमणा पूहबी कता, पापोपका य आरम्भाः पापार्हाः पापोपगा:-पापयोग्याः, पापानि वा उपगच्छन्त्यारमिणः, आरंभा हिंसादयः, दुःखस्पर्शा दुहावहाः दुःखोदयकरा इत्यर्थः, अन्ते इत्यर्थः, अन्ते इत्यन्तशः मृतस्य नरकादिपु 'पावाणं खलु भो कडाणं कम्माण दुचिण्णाणं जाव वेदइत्ता भोक्खो, णस्थि अवेदइत्ता, तवसा वा जोसइत्ता' अष्टानामपि प्रकृतीनां यो यादशोऽनुभावः स तथा फलति ॥४१७|| किंच-संपरागः तेसु वा तासु गतिपु संपराणिज्जतीति संपरागः-संसारः, अथवा पर इत्यनभिमुख्येन बध्यमानमेव वेद्यने, निगछति-प्राप्नुवंति, आर्चा नाम विषयकपाया", दुकडकारिणो
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आगम
(०२)
प्रत
सूत्रांक
||४११
४३६||
दीप
अनुक्रम
[४११
४३६]
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र -२ (निर्युक्तिः+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [ ८ ], उद्देशक [-], निर्युक्ति: [ ९१-९८ ], मूलं [गाथा ४११-४३६ ] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र [०२], अंग सूत्र -[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
श्रीसूत्रताङ्गचूर्णि:॥२१०॥
दुकडाणि-हिंसादीणि पाचाणि कुर्वन्तीति दुकडकारिणः, किं निमितं रागदोसस्सिता वाला बालवीर्याः, स एव प्रकृतिः बहुं किर कालं ठितो मोहणीयस्स विभासा, ततस्तैः पापैः कर्मभिः साम्परायमेव णियच्छंति संसारमित्यर्थः, तत्र च नरकादिषु दुःखान्यनुभवन्ति । 'एतं सकम्मवीरियं सिलोगो ॥। ४१९ ।। सकर्मवीरियंति वा बालवीरीयंति वा एगई, इदानीं अकम्मवीरयति वा पंडितवीरियंति वा एगद्वंति, केरिसो पुण पंडितो - 'दविए बंधणुम्मुक्के' सिलोगो ||४२० ॥ रागद्दोसविमुको दविओ, वीतराग इत्यर्थः, अथवा वीतराग इव वीतरागः, बन्धनोऽल्पो मुक्तकल्पः, पंडितवीर्याचरणेभ्यः सचसो छिनबंधणेचि सिद्धस्तेन नाधिकारः, ये पुनः प्रमादादयो हिंसादयः रागादयो वा तेषु कार्यवदुपचारात् उच्यते-सहतो छिण्णबन्धणे, न तेषु वर्त्तत इत्यर्थः कषायअप्पमत्तो वा सः अकर्म्मवीरः एवं चैव अकर्म्मवीरियं चुच्चति, कथं अकर्म्मवीरियं १ यतस्तेन कर्म्म न बध्यते, न च तत्कर्मोदयनिष्पन्नं येन कर्मक्षयं करोति तेन अकर्मवीर्यवान्, पणोल्ल पावयं कम्मं प्रमादादीन् पापकर्म्माश्रवान् तान् प्रणुद्य सलं कत्तेति अप्पणो भावकम्मसलं अट्टप्पगारं तत्कृंतति छिनत्तीत्यर्थः, अन्तसोति यावदन्तोऽस्य, निरवशेषमित्यर्थः, केन कृतन्ति ? किंवा आदाय कृतन्तीति १, उच्यते धम्ममादाय, कीदृशः धर्मः ? पोयाउअं सुअक्खायं सिलोगो ॥४२१ ॥ नयनशीलो नैयायिको, कुत्र नयति ?, मोक्षं, सुष्ठु आख्यातः सुअक्खाय, उपादाय तं गृहीत्वा सम्यक् ईहते समीहते ध्यानेन, किं ध्यायते !, धम्मं सुकं च तदालंबणाणि तु भुजो भुज्जो दुहावासं भूयो भूय इति बीप्सार्थः, अतीतानागतानि अणन्ताई भवग्गहणाई, सकम्मवीरिय दोसेण भूयो भूयो णरगादिसंसारे णाणाविधदुःखावासे सारीरादीणि दुक्खाणि मुञ्जो २ पात्रति, अशुभभावः अशुभतं तहा तहा तेन प्रकारेण यथा कर्म्म तथा तथा शुभं फलति, अथवा अशुभमिति अशुभभावना गृहीता, यथा शुभं
[223]
सकर्म वीर्यादि
॥२१॥
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(०२)
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [८], उद्देशक [-], नियुक्ति: [९१-९८], मूलं [गाथा ४११-४३६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
অহাখাस्वादि
प्रत सूत्रांक ॥४११४३६||
॥२१॥
दीप अनुक्रम [४११४३६]
श्रीसूत्रक
| किं? सह कडेवर०, एवमनित्याद्या, अशुभा अपि, द्वादश भावना गृहीता, तत्रानित्यभावना 'ठाणी विविधठाणाणि' सिलोगो तामणिः। 11४२२ ।। स्थानान्येषां सन्तीति स्थानिनः, देवलोके तावदिन्द्रसामानिकत्रायविंशाया, मनुष्येष्वपि चक्रवर्तिवलदेववासुदेवम
ण्डलिकमहामण्डलिकादि, तिर्यक्त्वेऽपि यानीप्टानिष्टानि, विविधानीति उत्तम मध्यमांधमानि, तेभ्यः स्थानेभ्यः सर्वस्थानिनः चइस्संति, नात्र संशयः उक्तं हि-'अशाश्वतानि स्थानानि, सर्वाणि दिवि चेह च । देवासुरमनुष्याणां, ऋद्धयश्च सुखानि च ॥१'किंच'अणितिए इमे वासे' जीवतोजपि हि अनित्यः संवासो भवति, कैः-ज्ञातिमिः, ज्ञातयो नाम मातापितृसंबंधाः, सुहृदः शेपा मित्रादयः, 'एवमादाय मेधावी' सिलोगो ॥४२३॥ एवमवधारणे, आदाएति एवं युद्ध्या गृहीत्वा, यथा सर्वाणि अशाश्वतानि, पंडितगुणवीर्यगुणांश्च मोक्षे च शाश्वतं स्थान आदाएत्ति, अथवा द्वादशसु भावनासु यदुक्तं तमादाय, उपधारयित्वेत्यर्थः, आत्मनैव आत्मनि गृद्धिमुद्धरेत् ममीकारमित्यर्थः, तं०-हत्था मे पादा मे जीविजामि, जेसुवा कलत्रखजनमित्रादिपु गृद्धिरुत्पद्यते तेभ्य आत्मनैव आत्मनि गृद्धिमुद्धरेत् , किश्च-गिद्धिमुद्धरेमाणो आयरियं उपसंपजेज, स्वाध्यायतपादी उत्तरोत्तरगुणानुपसंपद्यमानः चरिचारियं मन्गं उवसंपजेजा, आयरियाण वा मग्गं उवसंपज्जेज, सर्वे धर्माः कुतीथिकानांण अकोविता, अकोविता नाम ण केहिंवि कोविज्जति, कोवितो णाम पितः, कूटकापणवत्, च्छेदो पुण ण कोविज्जइ, ते कथं उपसंपज्जइ ?, दोहिं ठाणेहि, सहसमु| तिआए णचा' सिलोगो ॥ ४२४ ।। शोभना मतिः सन्मतिः सहजात्ममतिः सहसन्मतिः स्वा वा मतिः सन्मतिः, सह मतीए | सहस्संमतिमं प्रत्येकबुद्धानां निसर्गसम्यग्दर्शने या, पित्तज्वरोपशमनदृष्टान्तसामर्थ्यात् आमिणिवोहियसुर्य उग्घाडेति, जहा इलाइपुत्तेण, धम्मसारं सुणेत्तु वा, यथा तीर्थकरसकाशादन्यतो वा धर्म एन सारः धर्मसारः, धर्मस्य वा सारः धर्मसारः, चारित्रं
SIDHAKitals
॥२१॥
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आगम
(02)
प्रत
सूत्रांक
||४११
४३६||
दीप
अनुक्रम [ ४११
४३६]
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र -२ (निर्युक्तिः+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [ ८ ], उद्देशक [-], निर्युक्ति: [ ९१-९८ ], मूलं [गाथा ४११-४३६ ] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र -[०२] अंग सूत्र [०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि :
उपक्रमादि
श्रीसूत्रक्रताङ्गचूर्णि:
॥२१२॥
तं प्रतिपद्यते, पच्छा उ उत्तरगुणेसु परकमति पंडिवीरिएण पुव्वकम्मक्खयङ्किताए, एवं सो दविओ, हिंसादि वा बन्धण विमुको अकम्पीरिए उवद्वितेय मेहावी पडिधातपाय धम्मे उबट्टिए अकम्मवीरिए वा वट्टमाणपरिणामे मेहया धावतीति मेधावी प्रत्याख्याति हिंसादि अट्ठारस संयतविरतपडित पञ्चकखायपावकम्मे स एवमुत्तरगुणेसु पट्टमाणो 'जं किंचि उवकमं णचा ' सिलोगो || ४२५ ॥ यत्किचिदिति उपक्रमाद्वा अवाएण वा अहवा तिविहो उक्कमो भत्तपरिण्णाईगिणादि, आयुषः क्षेममित्यारोग्यं शरीरस्य च उपद्रवा आत्मन इत्यात्मशरीरस्य तस्सेव अंतरद्धा तस्सेति तस्यायुःक्षेमस्य, अन्तरद्धा इत्यन्तरालं, यावन मृत्युरिति, ये बद्धा मूढा संज्ञाः, सिप्पमिति खिप्पं, संलेहणा विधि शिक्षेत्, सिक्खा दुविहा-आसेवण सिक्खा गहणसिक्खा य, ग्रहणे तावत् यथावन्मरणविधिर्विज्ञेयः आसेवनया ज्ञात्वा आसेवितव्यं यद्यदिच्छति मनसा आसेपणसिक्खा 'जहा कुम्मो सयंगाई ०' सिलोगो ||४२६|| मरणकाले च नित्यमेव यथा कूर्म्मः खान्यङ्गानि पंचस्वेव देहे समाहरति नाम प्रवेशयति, ततः शृगालादिभ्यः पिशिताशिभ्यः अभिगम्यो न भवति, एवं पावेहिं अप्पाणं, पात्राणि हिंसादीनि कोहादीणि च, मरणकाले चाहारोपकरण सेवणव्यापाराच आत्मानं संहृत्य निर्व्यापारः संलेखनां कुर्यात्, आत्मानमधिकृत्य यः प्रवर्तते तदध्यात्मं, ध्यायो वैराग्यं एकाग्रता इत्यादिनाऽध्यारमेन पापात्समाहरेति, तत्र त्रयाणां मरणानामन्यतमं व्यवस्यते, इह तु पाओवगमणमधिकृतं येनापदिश्यते 'संहरे हत्थपादे य' सिलोगो ||४२७|| हस्तपादप्रवीचारं संहृत्य निष्पन्दस्तिष्ठेत् कार्य च संहर उल्लंघनादिभ्यः सर्वेन्द्रियाणि वा स्वे स्वे विषये संहर, रागंद्रेपनिवृत्तिं कुरु, पापगं च परीणामं वृत्तं, णिदाणादि इहलोगासंसपयोगं च संहर इति वर्त्तते, भासादोसं च पावगंति वाम्गुप्तिर्गृह्यते, एवं भचपरिष्णाए इंगिणीएवि अयवरां साहर, जतं गच्छेज्ज जतं चिट्ठेज्जत्ति, दुर्लभं पंडितमरणमासाद्य कर्मक्षयार्थं
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॥२१२ ॥
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आगम
(०२)
प्रत
सूत्रांक
॥४११
४३६||
दीप
अनुक्रम
[ ४११
४३६]
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र -२ (निर्युक्तिः+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [ ८ ], उद्देशक [-], निर्युक्ति: [ ९१-९८ ], मूलं [गाथा ४११-४३६ ] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र -[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
श्रीसूत्रकताङ्गचूर्णिः
॥२१३॥
सदोषयुक्तेन माव्यं, तत्थ णं जद अपदिश्यते 'अणु माणं च मायं च ||४२८ ।। अथवा मरणकाले च सर्वकालमेव अणु माणं च मायं च संपरिण्णाय पंडिते, अणुरिति स्तोकोऽपि मानो न कर्त्तव्यः किमु महान् १, अनुरपि च मायां न कारयेदिति पंडितः, पठ्यते च-अतिमाणं च मायं च तं परिण्णाय पंडिते अतीव मानो यथा सुभोमादि, कोऽर्थः ? - यद्यपि सरागस्य मानोदयः स्यात्तथापि उदयप्राप्तस्य विफलीकरणं कार्य, सुतं मे इहमेगेहिं, एवं वीरस्स वीरियं श्रुतं मया तीर्थकरात् स्थवि - रेभ्यो वा इहेति इहलोके प्रवचने वा, एकेषां न सर्वेषां तद्वीर्यवतो वीरस्य पंडितवीरियं यदुक्तं वीरस्य वीरतं इति, यथा वा स्याद्वयवसानमिति तद् व्याख्यातं स एवं मरणकाले अमरणकाले वा पंडितवीर्यवान् महाव्रतेपृथतः स्यात्, तत्राहिंसा प्रथमं, उड़महे तिरियं दिसासु जे पाणा तमथावरा । सव्यत्य विरतिं कुआ संतिनिष्याणमाहितं, अस्य श्लोकस्य चर्चा उक्ता, किंच- 'पाणे | य णातिवान अदिण्णंपि य णातिए । सातिं ण मुसं वूया, एस धम्मे वसीमयो ॥४२९ ॥ एवं तावत् पाणातिवायं वजेज, ण वा अदिष्णादाणं आदिएजा, सादियं णाम माया, सादिना योगः, सह सांतिमा सातियं, न हि मृपावादो मायामंतरेण भवति, स चोत्कंचणकूडतुलादिसु भवति, सातियोगसहितो मुसावादो भवति, स च प्रतिषिध्यते, अन्यथा तु न मृगान् पश्यामि णय वल्लिकाइयेसु समुद्दिस्सामो एवमादि ब्रूयात्, येनात्र परो वच्यते तत्प्रतिषिध्यते, कोहमाणामायालोभसहितं वचः, धर्मः योऽयं उक्त स्वभावः, खुसिमतां वसूनि ज्ञानादीनि । अयं भारवए णियं भवे भिक्खू कण्ठ्यं, 'अतिकमति वाचाए मणसावि ण पत्थए ||३०|| अतिरिति अतिक्रमणे, येनातिक्रम्यन्ते एतानि पञ्च महाव्रतानि सोऽतिक्रमः, तत्र प्रांणातिपातमधिकृत्यापदिश्यते तिपाद एव त्रिभ्यः पातयतीति तिपातः तन्मनसापि न प्रार्थयेत्, किंनु वचसा कर्मणा वा ?, नवकेन भेदेन, एवं शेषा
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मानवर्जनादि
॥२१३|
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आगम
(०२)
प्रत
सूत्रांक
||४११
४३६||
दीप अनुक्रम
[ ४११
४३६]
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [ ८ ], उद्देशक [-], निर्युक्ति: [ ९१-९८ ], मूलं [गाथा ४११-४३६ ]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र -[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
श्रीसूत्रताङ्गचूर्णिः ॥२२४॥
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र -२ (निर्युक्तिः+चूर्णि:)
-
SALT
णामपि जाव परिग्रहः, एवं तावत्स्वयं न करोति व्रतातिचारं योऽपि तमुद्दिश्यान्यैः प्राणातिपातः कृतः क्रियते वा तत्राप्ययमुपदेशः 'कडं च कीरमाणं च' सिलोगो ॥ ४३१ ॥ अद्वाकम्मादि कई अगेहेमाणो णाणुजाणाति, कीरमाणमवि जं जागति मट्ठाए तं णिवारेति णो खलु मम अड्डाए किंचिवि करणिजं, एवं जोवि आत्मनिमित्तं असंजमस्तैः कृतः तद्यथा-शिशोः शिरछिन्नं छिद्यते वा बध्यो हतो हन्यते वा मांसाद्योपकानि सच्चानि तानि हन्यते वा तमपि कडं च कजमाणं च णाणुजाणाति, आगमिस्सं च पावगंति जहणं कोइ भणिजा-अहं ते आउसंतो समणा ! अमणं वा ४ उवक्खडेमि तंपि णिवारेति णो खलु मम अड्डाए किंचि करणिजं, एवं असंजतोबि जो जं हंतिकामे तंपि आगमिस्तं पावगं सव्वं तं णाणुजाणति, सर्वमिति तंनिमित्तं वाकर्य कजमाणं वा वगेण भेदेण णाणुजाणंति पंडिया, आत्मनि आत्मसु या गुप्ता जितेन्द्रिया जीहादोपणियत्ता, अथवा सर्वमिति आहारोपकरणादि सेजाओऽचि बायालीसदोस परिसुद्धाओ घेप्पंति, एवं ते भगवन्तः संयमवीरियावस्थिता नवकेन भेदेन तदाऽतिचारमकृतवन्तु ये तु तद्विधर्मिण: बालवीर्यावस्थिता अपि गृहेभ्योऽपि निःसृताः सन्तः जे याबुद्धा महाभागा ॥ ४३२ ॥ जे (इति) अणिदिनिद्देसो अबुद्धा वादिणः, अथवा न बुद्धा अबुद्धा, चालवीर्यावस्थिताः सकम्मवी रिए वर्द्धति, तहा पाणं न यतति महाभागाः विजाए बलेण वा, यथा बुद्धः तपश्वि, निमित्तबलेन वा यथा गोशालाः, रायपव्वगा वा बहुजणनेतारः बहुजनेनाश्रियन्ते, पूयासकारणिमित्तं विज्जाओ निमित्तानि य पयुंजभाणा तपांसि च प्रकाशानि प्रकुर्वन्ति तेषां बालानां यत्किंचिदपि पराक्रान्तं तदशुद्धं भावोपहतत्वात्, नवकेनापि भेदेन अज्ञानदीपाञ्च, एवमादिभिर्दोषैरेशुद्धं तेसिं परवन्तं, अशुद्धं नाम यथोक्तैर्दोष:, पराक्रान्तं चरितं वेष्टितमित्यर्थः, कुवैद्यचिकित्सावत्, सफल होति सङ्घसो फलं णाम कम्मबंधो, तत्तत्कर्मबन्धं प्रति सफलं भवति,
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Se vema
कृतादि निषेधादि
॥२१४॥
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आगम
(०२)
प्रत
सूत्रांक
||४११
४३६||
दीप अनुक्रम
[ ४११
४३६]
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र - २ (निर्युक्तिः+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [८], उद्देशक [-], निर्युक्ति: [ ९१-९८ ], मूलं [गाथा ४११-४३६ ] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र -[०२] अंग सूत्र [०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि :
| सफलतादि
श्रीसूत्रकताङ्गचूर्णिः ॥२१५।।
सर्वश इति सर्वाः क्रियास्तेषां कर्म्मबन्धाय भवन्ति, कथं १, सर्व हि कटुकविपाकं सुचरितमपि पुद्गलस्य मिथ्यादृष्टेः, निर्वाणं या प्रत्यसफलं भवति, सर्वशः सर्वाः क्रियान्तद्विपरीताः सच्छासनप्रतिपन्नाः, जे तु बुद्धा महाभागा सिलोगो || ४२३ || स्वयं बुद्धास्तीर्थकरायास्तच्छिष्या वा युद्धबोधिता गणधरादयः, महाभागा इति चउरासीइ उसमेयामिणो सिस्ससहस्त्राणि, उसभसेणस्प बत्तीसं समणसाहस्सीओ गणो आसी, एवं जाव वद्धमाणसामी, तत्संघस्स चतुर्विधस्य परिमाणं भासितव्यं, प्रत्येकबुद्धाः पुनः साम्प्रतं न महाभागाः केचित्तु पूर्वमासीत्, ये चान्ये राजादयः पूर्व महाभागाः आसीत्पश्वाद्वा जातास्ते वीरा इति - अक्रम्मीरिए | वट्टमाणा सरागा वीतरागा वा वीरा, तपसि णाणादीहि वा वीराजतीति वीरा, विदारयन्तीति वा कम्माणि, सम्मं पसंतीति सम्मचदंसिणो, तेसिं भगवंताणं शुद्धं तेसिं परिवतं शुद्धं णाम णिरुवरोधं सल्लगारवकसायादिदोसपरिशुद्धं अनुपरोधकृत् भूतानां तन्विउपासनाविधे संजमे च पराक्रान्तिः अफलं होति सव्वसो फलं णाम कर्मबन्धनं तं प्रत्यफलं कथं १, संजमे अगण्यफले तवे चोदाणफले, उक्तं च-निरासस्साई निस्सुखदुःखं० कल्पनं धर्मसु, वाचा निष्फलं, मोक्षणं वा प्रति सफलं, एवं पूर्व पश्चाद्वा महाजननेतॄणां महाजनविज्ञातानां च तेसिं तु तवो सुद्धो सिलोगो || ४२४|| तेषामिति जे जहुत्तकारिणो, जेति ता णिदिट्ठा, महं प्राधान्ये कुलं ईक्ष्वाकुकुलादि, केचिद्वा ज्ञातकुलीया अपि भूत्वा विद्यया तपसा सौर्याद् विस्तीर्णा भवन्ति नन्दकुलवत्, एत्थ चउ| भंगो, किंचि कुलतोवि महन्तं जणओचि एवं चउभंगो, एतो एगतराओवि णिक्संतो महाकुलतो, महद्वा कुलमेपां महाकुलाः, भगवानेव छउमत्थो, छउमत्थकाले अवमाणते परेणं तु ण सिलोगं वयंति ते सिलोगों नाम श्लाघा, अमुक राजा वा आसी| दिति इभ्यो वा शालिभद्रादि तत्पूजा सत्कारश्लाघादिनिमित्तं कुलं न कीर्त्तयितव्यं कुलादिकार्यनिमित्तं वा न कीर्त्तेत । किं वा
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॥२१५॥
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आगम
(०२)
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [८], उद्देशक [-], नियुक्ति: [९१-९८], मूलं [गाथा ४११-४३६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-०२] "सूत्रकृत' जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
श्रीयक
॥२१६॥
प्रत सूत्रांक ॥४११४३६||
दीप अनुक्रम [४११४३६]
'अप्पपिंडासि पाणासी' सिलोगो ॥४३५।। संयमेऽपीयमेव वर्ण्यते, तेंण अप्पपिंडासि अप्पं पिंडमश्नातीति अप्पपिंडासी, I अल्पपिडाअसंपुण्णं वा, एवं पाणंपि, अट्ठकुकुडिअंडगपमाणमित्ते कवले आहारमाहारेमाणे अप्पाहारे, दुवालस अद्धोमोदरिया, सोलस
श्यादि दुभागपत्तं, चउवीर्स ओमोदरिया, तीसं पमाणपत्ते, बत्तीस कवला संपुण्णाहारो, एत्तो एकेणावि ऊणं जाव एकगासेण एगसित्थेण वा, एवं उवकरणोमोदरिया, अप्पं भासेजत्ति अनर्थदण्डकयों न कुर्यात् , कारिणेऽपि च नोच, भणिता दब्योमोदरिया, भावे। तु 'खंतेऽभिणिबुडे दन्ते' अक्रोधनं क्षान्तिः, अभिणिबुढो नाम निवृत्तीभूतः शीतीभूतो, अर्थशीलो अर्थेषु ज्ञानादिषूद्यतः, दंत इति दंतेन्द्रिया, तवसा य विगते गेहाणि दाणादिसु गेहिविष्पमुके य ण पड्डप्पण्णेसु रजति, ण य कंखामोहं करेइ, 'झाणयोगं समाहर्ट्स' सिलोगो ॥४३६॥ ध्यानेन योगो ध्यानयोगः प्रशस्तध्यानयोगं सम्यक् हृदि आइत्य चोद्धृत्य 'कायं वोसिज सव्वसो' सर्वश इति आहारक्रियामप्यस्य न करोति, स्वेदजल्लमल्लपहरणादीश्च बाह्यक्रिया, तितिक्खं परमं णचा तितिक्षा णाम परीपहोवसर्गाधियासणं, तितिक्षणमेव परं मोक्षणं मोक्षसाधनं चेत्येवं च ज्ञात्वा आमोक्षाय परिवएत्ति आमोक्षायेतियावन्मोक्षगमनं ता परिचएआसित्ति, शरीरमोक्षो वा, परि समंता सचओ वएजासि, भगवानाह-एवमहं ब्रवीमि, न परोपदेशा-
11 |दित्यर्थः। णयास्तथैव । वीर्याख्यमष्टममध्ययनं समाप्तं ॥
धम्मोति अज्झयणस्स चत्वारि अणुयोगदारा, धम्मो अत्याहिकारो, उक्तः उपक्रमः, णामणिफण्णे धम्मो, सो पुण'धम्मो पुब्बुदिहो'।।१९।। धम्मट्टकामाए, तं चेव य इहावि परूवेयब्बो, इह तु भावधम्मेण अहिकारो, एष एव धर्मः, एप एव भावसमाधिः, एप एव च भावमार्गः। तत्थ धम्मस्स णिक्खेवो-णामं ठवणा धम्मो गाथा ॥१०॥ वतिरित्तो दबधम्मो तिविहो ॥२१६॥
अस्य पृष्ठे नवमं अध्ययनं आरभ्यते
[229]
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आगम
(०२)
प्रत
सूत्रांक
||४३७
४७२||
दीप
अनुक्रम
[ ४३७
४७२]
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र - २ (निर्युक्तिः+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [ ९ ], उद्देशक [-], निर्युक्ति: [ ९९-१०२], मूलं [गाथा ४३७-४७२] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र -[०२ ], अंग सूत्र [०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि :
द्रव्यधर्मादि
श्रीसूत्रकवाङ्गचूर्णिः
।।२१७ ॥
सचित्तादि, तत्थ सचित्तस्स जहा चेतना धर्मः, चेतना स्वभाव इत्यर्थः, अचित्ताण जहा धम्मत्थिकायस्स० जा जस्स धम्मता, जहा 'गतिलक्खणो तु धम्मो, अधम्मो ठाणलक्खणो। भाषणं सबदवाणं, भणितं अवगाहलक्खणं ॥१॥' पोरंगलस्थि | कायो गहणलक्खणो, मिस्सगाणं दव्वाणं जा जस्स भावना, यथा क्षीरोदकं सीतलं धातुरक्तवर्द्धकं काशायी यावत्र परिणमत्युदकं तावन्मिश्रं भवति, गृहस्थानां च यः कुलग्रामादिनगरधर्मः, दानधम्मोति यो हि येन दत्तेन धर्मों भवति स तस्मिन् देयद्रव्ये कार्यवदु|पचाराद्दानधर्मो भवति, यथा-अन्नं पानं च वस्त्रं च, आलयः शयनाशनम् । शुश्रूषा वन्दनं तुष्टिः, पुण्यं नवविधं स्मृतं ॥१॥ 'लोइय | लोउत्तरिओ' गाथा ।। १०१ ।। भावधम्मो दुविहो- लोइओ लोउत्तरिओ य, लोइओ दुविहो-गिहत्थाणं कुपासंडीणं च, लोउतरिओ तिविहो-गाणं दंसणं चरितं च णाणे आभिणिवोधिगादिना दंसणे उवसामगादिना, चरिते पंचविहो सामायगादिना पाणिवधवेरमणादिना वा चतुर्विधो वा चाउज्जामो, रातीभोयणवेश्मणछडो वा छन्त्रिहो, पास मात्र धम्मट्टितेहिं पासत्थो, अण्णादीहिं दाणग्रहणं ण कायव्वं, संसग्गी वा तत्थ पासत्थोसष्णकुशीलसंथवो, एत्थ अत्थे गाथा 'पासस्थोसण्णकुसीलसंथवो ण किर वहते काउं। सूयकडे अज्झयणे धम्मम्मि णिकाइयं एयं ।। १०२ ।। णामणिप्फण्णो गतो । सुत्ताणुगमे सुत्तमुञ्चारेयव्वं, 'कतरे धम्मे आघाते' सिलोगो ॥४३७|| कतरे केरिसो वा आघात इत्यारूपातो, माहन इति भगवानेव समणेति | वा माहणेत्ति वा एगई, मन्यते अनयेति मतिः- केवलमिति, मतिरस्यास्तीति मतिमान्, अतस्तेन मतिमता, एवं जंबुगामेण पुच्छिओ | सुधम्मो आह- 'अज्जुषम्मो जहा तहा' अंजुरिति आर्जवयुक्तः, न दंभकन्वादिभिरुपदिश्येत, ते कुशीलाः बालवीर्यवन्तः, ते नार्जवानि ब्रुवते, ब्रुवते वा न वयं परिग्रहवन्तः आरंभिगो वा एतत्सङ्घस्य बुद्धस्य उपासकानां वा इति, भागवतास्तु नारायणः करोति
[230]
॥२१७॥
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आगम
(०२)
भाग-2 “सूत्रकृत" - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [९], उद्देशक [-], नियुक्ति: [९९-१०२], मूलं [गाथा ४३७-४७२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
धर्मादि
प्रत सूत्रांक ||४३७४७२|| दीप अनुक्रम
[४३७
श्रीसूत्रक
हरति ददाति वा, उक्तं हि-यस्य बुद्धिर्न लिप्येत, इत्वा सर्वमिदं जगत् । आकाशमिव पङ्केन, न स पापेन लिप्यते ॥१३॥ नैवं भगवता नाङ्गचूर्णिः
अनार्जक्युक्तो धर्मःप्रणीतः, भगवता तु यो यथावस्थितस्तं तथैव मत्वा निरुपधो धर्मोपदिष्टः, न लोकपक्तिनिमित्तं, ग्लानायुप॥२१८
धिना गा किंचित्सावद्यमान वर्तव्यमित्युपदिष्टं, जिनानामिति पष्ठी, जिनानां संतक तीतानागताना, पठ्यते च 'जणगातं सुणेह में' यथोद्दिष्टधर्मप्रतिपक्षभूतस्त्वधर्मस्तत्र चामी वर्चन्ते । 'माहणा क्षत्रिया वेस्सा' सिलोगो।। ४३८ । माहणा मरुगा सावगा वा, खत्तिया उग्गा भोगा राइण्णा इक्खागा, राजानः तदायिणच, अथवा क्षत्रेण जीवन्त इति क्षत्रियाः, वैश्या सुवर्णकारादयः,ते हि हवनादिमिः क्रियामिधर्ममिच्छन्ति, चण्डाला अपि त्रुवते-वयमपि धर्मावस्थिताः कृष्यादिक्रियां न कुर्मः, बोकसा णाम संजोगजातिः, जहा भणेण सुद्दीए जातो णिसादोत्ति वुचति, बंभणेण वेस्साए जातो अम्बट्ठो बुचति, तत्थ मिसाएगं अंबट्ठीए जातो सो बोकसो बुचति, एसिया वेसिया एपंतीति एपिका-मृगलुब्धका हस्तितापसाश्च मांसहेतोर्मुगान् हस्तिनश्च एपंति, मूलकन्दफलानि च, ये वा परे पाखण्डा नानाविधैरुपायैः भिक्षामेति, यथेष्टानि चान्यानि विपयसाधनानि, अथवैपिका वणिजः, तेऽपि फिल कालोपजीवित्वाम किल कुर्वते, अथवा वैश्या स्त्रियो वैशिकाः, ता अपि किल सर्वा विशेपाद्वैश्यधर्मे वर्तमाना धर्म कुर्वन्ति,
शूद्रा अपि कुटुम्बभरणादीनि कुर्वतो धर्ममेव कुर्वते, उक्तं हि-'या मतिः क्लेशदग्धानां, गृहेषु गृहमेधिनाम् । पुत्रदारं भरताना, PA ताङ्गति ब्रज पुत्रका॥१॥' ये अनुदिष्टा च्छेदनभेदनपचनादि दवे, भावे आरंभे णिस्सिता णियतं सिता णिस्मिता, 'परि
ग्गहे णिविट्ठाणं सिलोगो ॥४३९॥ परिग्गही मचित्तादि ३, दव्वादिचतुर्विधो वा, तेसिं माहणादिकुशीलाणं परिग्गहे णिविट्ठाणंति उपजिणंताणं सारवंताण य णडविणटुं च सोएन्ताणं, तेर्सि पावं पचड़ति, आउअवजाउ सत्त कम्मपगडीओ सिढिलबंधण
४७२]
॥२१८॥
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आगम
(०२)
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [९], उद्देशक [-], नियुक्ति: [९९-१०२], मूलं [गाथा ४३७-४७२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
मला
आरंभ
संभृतादि
प्रत सूत्रांक ॥४३७४७२|| दीप अनुक्रम [४३७४७२]
श्रीसूत्रक
बद्धाओ धणियचंधणबद्धाउ करेति, एतेषां आरंभसंयुचा कामा, हिंसादिआरंभेन संवृत्ता, आरंभसंभुता कामा अथवा समता तामणि: || नाम आरम्भ एपा संमतः, कथं आरंमि णिस्सिया तिष्ठन्ति, सालिसं, उक्तं हि-आरंभारंभकर्माणि, श्रान्तः श्रान्तः पुनः पुनः। तथा ।।२९१॥
न ते प्राणैरपि परिरक्षिता जराज्याध्युदये दुःखोदये वा मृतौ वा प्राप्ते तस्मान्दुरखान्मोचयन्ति, न च नरकादिपु प्राप्तस्य ततो नरकादिपु दुःखाद्विमोचयति । आघातं किचमाघेतुं'सिलोगो॥४४०॥आहन्यतेऽनेनेति आघाएत्ति, मरणमित्यर्थः, आघाते | आघातस्य वा कृत्यं मरणकल्यमित्यर्थः, आधाते शरीरं संस्कारयित्वा दहंति मृतकल्यानि चास्य पितृपिंडादीनि आघाएति तमाध्याय
कुर्वति, महिपच्छागाद्याश्च वध्यन्ते, करकतभक्तानि कुर्वन्ति, उक्तं हि-'अवहत्थेण य पिंडं परिपिंडेऊण पत्थरेंतस्स ।' इत्यादि। | मरणकृत्यं, अथवा आघेतुं-काऊण तं पणिधाय, ये तस्य भ्रातृपुत्रादयो दायादाद्या जीति शब्दादिविषयैपिणो तेन मृतधनेन
वयं भोगान् भोक्ष्यामहे, अज्ञातयोऽपि दासभृत्यमित्रादयः तत् च्युतं धनं तर्कयन्ति, अपुत्राणां च मृतकूटं राजा गृह्णाति, एवं वै | राज्यादिसामन्यं, अपणे हरंति तं वित्तं अन्य इति अन्य एव दायादाद्याः मृत्यराजचोरादयः, हरंति वा विभयंति वा जाति वा एगहुँ, उक्तं च-'ततस्तेनार्जितैर्द्रव्यदीरैश्च परिरक्षितैः । क्रीडन्त्यनेन राजानः (न्ये नरा राजन्) हएतुष्पा ह्यलंकृताः ॥ १॥ कर्म अस्यास्तीति कम्मी, तत्कर्माय स्वकर्मनितितां गतिं प्राप्य, तत्कर्मफलमन्वेपति । 'माता पिता पहुसा भाता' सिलोगो ॥४४१।। उरसि भवा औरसाः औरसा अपि ताच तके न त्राणाय, कि क्षेत्रजातादयः?,'णालं ते मम ताणाए' यथैव मात्रादयो न त्राणाय सम्बन्धेन तथैवारम्भपरिग्रहावपि न त्राणाय, विपयाच णालं भवते मम ताणाए, लुप्यमानस्येति शारीरमानसे| दुःखैदर्मिनस्सु इहभवेऽपि न तावत्राणाय किात परभव इति, कालसोअरिअपुत्तो मुल सो अभयकुमारसखा श्रावक
॥२१९॥
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आगम
(०२)
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [९], उद्देशक [-], नियुक्ति: [९९-१०२], मूलं [गाथा ४३७-४७२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
परमार्थादि
प्रत सूत्रांक ॥४३७४७२|| दीप अनुक्रम [४३७४७२]
श्रीसूचक दारको, थावकथासौ दारका, दृष्टान्त 'एतमलु सपेहाए' सिलोगो ॥४४२॥ अस्थमिति योऽयमुक्तोऽर्थः, न बर्मिकाणामिह বালুচি: परत्र वा लोके शरणमस्तीति, त्राणं घा, सम्म पेहाए, परमः अर्थः परमार्थः मोक्ष इत्यर्थः, तं परमार्थ अनुगच्छन्ति परमट्ठाणुगामी, ॥२२०॥
| यथोदिष्टेषु मात्रादिपु वैराग्यमनुगच्छन्ति, ज्ञानादयो वा परमार्थानुगामिकाः स एवं साधुः 'णिम्ममे णिरहंकारे' नास्य कलत्रमित्रवित्तादिपु बाह्याभ्यन्तरेषु वस्तुपु ममना विद्यते इति निर्ममः, न चाहंकारः पूर्वैश्वर्यजात्यादिपु च मम्प्राप्तेष्वपि च तपःवाध्यायादिपु, घरेदित्यनुमतार्थः, जिणाहितं आख्यातं, मार्गमित्यर्थः, चारित्रं तपो बैगम्यं वा, त एवं मात्रादयो नाम सम्बन्धिनः न ग्राणायेति इत्यतः 'चेचा पुते य मिते य'सिलोगो ॥४४३॥ पुत्रे खधिकः स्नेहः तेनादौ ग्रहणं क्रियते, मिचा तिविहामहनावकादयः, महजातकाः पूर्वापरमम्बन्धिना, परिग्गहो हिरण्यादि, चेचाण अत्तगं मोतं त्यया चेचाण आत्ममि भवं आत्मकं नत्र मित्रज्ञातयः परिग्रहावं बाहिरंग मोतं, मिज्छत् कमाया अण्णाणं अविरती य एतं अनगं सो, श्रोतद्वारभित्यर्थः, पठनते | च-चेचाण अंतगं सोतं अण्णत्ता अगाणागिरती मिच्छत्तपञ्जवा, उभयमवि वा, णिएये कम्बो परिवार औज्जुगं धम्ममणुपालेन्तो न पुत्रदारादीनि पुनरपेक्षते, उक्तं हि-'छलिता अवयक्खन्ता गिरवेक्वा गता मोक्वं' म एवं प्रबजितः स्वरुचिनाऽवस्थितात्मा । अहिंसादिषु अनेषु प्रयतेत, तत्राहिमाप्रमिद्धये जीचा अपदिश्यन्ते-पुढवी उ अगणि बाऊ सिलोगो ॥४४४।। कंठध, सर्वेषां HP भेदो वक्तव्यः, अयथार्थ परिहते इत्यतो भेदः, पतेहि कहि काहिं मिलोगो॥४४५॥ एतेहिंति जे उदिट्ठा छकाया, निजामति
| शिष्यनिर्देशः, विचतित्ति विद्वान , म एव शिष्यो निर्दिश्यते तद्विद्वान् , परिजाणिया परिजाणिउं, परिणगाए दुविधाए, मनसा | काययकेणं णारंगीण परिग्गही एकके काये णनगो भेदो, न च परिग्गहं कुर्यात् , परिगहनिभिगो हि मा भूत्कायारम्भः,
SPHORITHINGHASH
॥२२०॥
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आगम
(०२)
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [९], उद्देशक [-], नियुक्ति: [९९-१०२], मूलं [गाथा ४३७-४७२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
मृपावादादित्यागः
ताङ्गचणिः
प्रत सूत्रांक ॥४३७४७२||
॥२२१॥
दीप
अनुक्रम [४३७४७२]
0 एवं सेसाणिवि वयाणि पालेजा, अण्णाहा 'मुसायातं बहिवं च' सिलोगो ।। ४४६ ।। बहिर्चा मिथुनपरिग्रहो गृह्यते, तत्र वर्त| मानोऽतीय धर्माद्वहिर्भवतीति वहिद, उग्गरं जमजाइयमिति अदचादाणं, एताणि सत्थादाणाणि लोगंसि शस्यते अनेनेति शखं, शस्त्रस्य आदानानि शखादानानि, लूयंत इत्यर्थः, कस्य शस्त्रस्य , असंयमस्य, तदेतद् विद्वत्परीजानीहि, अथवा उपदेशो भवति, तदेतद् विद्वान् परिजानीयात् । इदानीं उत्तरगुणः-पलि उंचणं च भयणं च' मिलोगो॥४४७॥ सर्वतः कुंचन | पलिउंचणं माया, भंजणं भजते वाऽसाविति असंयतैर्भञ्जनः लोभः, स्थण्डिलास्थानीयं करोति, क्रोध एव स्थण्डिलः वपुवादि च, उच्छ्यनमुच्छ्रपः उच्छ्यणादिति, बहुवचनं जात्यादीनि अष्टौ मदस्थानानि 'धुत्तादानानि लोगंसि' धूर्तस्यायतनानि कर्म| पसुतय इत्यर्थः, एवं यद्यदा वर्जयितव्यं तत्सर्वमिह श्रमणधर्मे वर्ण्यमानेऽपदिश्यते, उत्तरगुणाधिकारे च पठ्यते 'धावणं रयणं
चेव' सिलोगो ॥४४८॥ धावणं वस्त्राणां, रयणं तेषामेव दन्तनखादीनां च, वमणं च विरेपणं, मुखवर्णसौरूप्यार्थं च धमनं करोति, | विरेचनमपि घलाग्निवर्णप्रासादार्थ, वस्थिकम्मं सिरोवेधं, तं चिों परिजाणिया, वस्थिकम्म अणुपासणाणि महा वा, तत्थ पलिमंथो | संजमस्स, 'गंधमल्लसिणाणं च'सिलोगो ।।४४९॥ गन्धाचर्णादयो, मल्लं गंधमादी, सिगाणं देसे सव्वे, दंतपक्वालणं दंनधोवर्णः जहा कुंचकुंचावेति, परिग्गडं हत्थकम्मं च, परिग्गडो सचित्तादि, इत्थी तिविहाओ, कम्म हत्याम, स्यात्पूर्व बहिद्धावर्जनमुपदिष्टं | इत्यतः पुनरुक्तं, उच्यते, तद्भेददर्शनान पुनरुक्त, उद्देसियं कीतकडं४५०।। कंठो सिलोगो'आसूणियं ।।४५१।। आस्तनिक णाम इलाघा येन परैः स्तूयमानः सुज्झति यावत्थुगोति यावद्वाऽनुसरति तावत्सुज्झति मानेनेति इत्यास्तूनिकं, अथवा जेण आहारेण आहरितेण सुणी होति, बलवन्तं भवति, व्यायामस्नेहपानरसायनादिभिर्वा अक्षिरागं अंजनं गृद्धिर्बाह्येऽभ्यन्तरे वा वस्तुनि, उपोद्घा-
२२१||
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आगम
(०२)
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [९], उद्देशक [-1, नियुक्ति: [९९-१०२], मूलं [गाथा ४३७-४७२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] “सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
कल्कादि
बजेन
प्रत सूत्रांक ॥४३७४७२||
श्रीमत्रक- ताङ्गचूर्णिः ॥२२॥
दीप
अनुक्रम
तकर्म णाम परोपघातः तच करोतीत्याह, जातितो कर्मणा सीलेण वा परं उवहणति, उच्छोलणं च हत्थपादमुखादीनां, कल्केन अद्दगमादिणा इत्थपादमुपत्थगचाणि उन्धट्टेति तं विद्वान्परिजाणिया 'संपसारी कतकिरिए'सिलोगो॥४५२।। संपसारगो णाम असंजताणं असंजमकजेसु सामत्थं देति उवदेसं वा, कयकिरिओ णाम जो हि असंजयाणं किंचिदारम्भं कृतं प्रशंसति, तथथा-साधु गृहं कृतं, साधुश्चायं सदृशः संयोगः, पासणियो णाम यः प्रश्न छेदति, तद्यथा-व्यवहारेषु मिथ्याशास्त्रगतसंशयिके व्यवहारे तावद्यदेष ब्रवीति तत्प्रमाणं, शास्त्रेष्वपि लौकिकशास्त्राणां व्याख्यानं ब्रवीति, भावछके या साहति सागारियपिंडवत् , विजं परिजाणिया कंठथं । 'अट्ठापदं ण सिक्खेजा'सिलोगो॥४५२।। अट्ठापदं नाम द्यूतक्रीडा, न भवत्यराजपुत्राणं, तमष्टापदं न शिक्षेत , | पूर्वशिक्षितं वा न कुर्यात् , वैधा नाम यूतं तच समृसितंगे, रुधिरं जंतछिज्जति ण, हत्थकम्मं विवाहं च हत्थकर्म हस्तकर्म(बत् 'हस्ते खण्ड' गाथा, विवादो विग्रहः कलह इत्यनान्तरं, स तु स्वपक्षपरपक्षाभ्यां विजं विद्वान् , परिजानीहि ।'उवाहणाउ
छत्तं च'सिलोगो॥४५४|| उपानहो पादुके च वर्जयितव्ये, छत्रमपि आतपप्रकर्षपरित्राणार्थ न धार्य, नालिका नाम नालिकाक्रीडा कुदुकाक्रीडत्ति, परकिरिया अण्णमां च, परकिरिया णाम णो अण्णमण्णस्स पादे आमजेज वा पमजेज वा जहा छ? सत्तिकाते, अण्णमण्णकिरिया णाम इमोवि इमस्स पादे आमजति वा रएइ, इमोवि इमस्स, 'उचारं पासवर्ण' सिलोगो ।। ४५५॥ कंठयं विगडं णाम विगतजीवं, विगतजीवेणापि तावत्तन्दुलोदगादिना न तत्र कल्पते आयमितुं, किमु अनवगतजीवेणं, एवमन्यत्रापि, अथंडिले पडिसिद्धं, साहटुरिति विगतजीवं साहरिऊग ताणि वा हरिताणि साहरितूणं । 'परमत्ते अण्णपाणं तु ॥ ४५६ ॥ परस्य पात्रं गृहिमात्र इत्यर्थः, अथवा पडिग्गहधारिस्स पाणिपात्रं परपात्रं, पाणिपरिग्गहियस्सवि पडिग्गहो परपात्रो भवति, पर
[४३७
४७२]
॥२२२।।
AARO
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आगम
(०२)
प्रत
सूत्रांक
॥४३७
४७२||
दीप
अनुक्रम
[ ४३७
४७२]
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र - २ (निर्युक्तिः+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [ ९ ], उद्देशक [-], निर्युक्ति: [ ९९-१०२], मूलं [गाथा ४३७-४७२] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र -[०२] अंग सूत्र [०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि :
श्रीसूत्रताक्र्चूर्णिः
॥२२३॥
men wh
| वत्थं च अचेलतिएवि परस्य वस्त्रं गृहिवस्त्रमित्यर्थः, तत्तावत्सचेलो वर्जयेन् मा भूत्पश्चात्कर्मदोषः हते दोपच, यद्यप्यचेल कः स्यात्, | एवं तावत्सचेलकस्य यः पुनरचेलकस्यात्मीयमपि वस्त्रं तत् पश्वत्रमेव, न हि तस्य तदनुज्ञातं, स्वयं चोत्सृष्टत्वादित्यतः परव 'आसंदी पलियंकं' सिलोगो ||४५७|| आसंदी त्यासंदिका सर्वा आसनविधिः, अन्यत्र काष्ठपीठ केन, पलियंकेन, पलियं कः पर्यक एव, 'गंभीर विजया एते० ' इत्यादयो दोपाः, गिहंतरे णिसेज्जं ण बाहेज 'अगुती बंभचेरस्स, पाणाणं च बधे वध' इत्यादयो दोषाः, 'संपुच्छणं च सरणं वा' संपुच्छणं णाम किं तत्कृतं न कृतं वा स पुच्छावेति अण्णे, केरिसाणि मम अच्छीणि सोभंते ण वेति एवमादि, ग्लानं वा पुच्छति किं ते वट्टति ? ण वह वा १, सरणं पुव्वरतपुण्यकीलिया में तं विद्वान् परिजानीहि । जसं कित्ति | सिलोगं च ' सिलोगो || ४५७ ।। दानबुद्ध्यादिपूर्वं यशः तपः पूजामत्कारादि पश्चाद्यशः, यशः एव कीर्त्तनं जस किसी, सिलोगो णाम श्लाघा नीतितपोबाहुश्रुत्यादिभिरात्मानं श्लाघेत, चंदनपूयाउचि ण कामए, ण वा कजमाणासु रागं गच्छेजा, सबलोगंसि | जे कामा कामा दुविहा इच्छामदनभेदात् पञ्चविधा वा, किंच- 'जेणेहं विहे भिक्खू' सिलोगो ॥ ४५९॥ जेणेति जेण धम्मकहाए वा संथवेण वा, आजीववणीमगतेण वा, अन्नतरेण वा उवघातणादोसेणं, अण्णहेतुं वा पाणहेतुं वा पर्युजमाणेण इमा ओवम्मा, | णिव्वहति नाम निर्गच्छति, तन्न कुर्यादिति, अथवा जे हिं णिहं णिव्वाहेति येनास्य इहलौकिकं किंचित्कार्य निष्पद्यते मित्रकार्य, प्रति दास्यति वा मे किंचित् परित्रास्यति वा, धरिस्म वा मे किंचित् उवगरणजातं, एवमादिकं किंचिदिहलोकिक कार्य निर्वाहकं साधकमित्यर्थः, तं पडुच अण्णं पाणं वा, सील मंते सुसीलो वा, न पुनः परमार्थेन, शीलवन्तः साधुः तस्स मुधेत्र णिजराए दायचं, नत्विहलौकिकं किंचिन्निर्वाहकं प्रतीत्य दायनं, अथवा शीलवानिति श्रावकः, अशीला नाम मिध्यादृष्टयः तस्मिन् शीलवति वा
[236]
N
परवखादिवर्जनं
॥२२३॥
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आगम
(०२)
प्रत
सूत्रांक
||४३७
४७२ ||
दीप
अनुक्रम
[ ४३७
४७२]
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र - २ (निर्युक्तिः+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [ ९ ], उद्देशक [-], निर्युक्ति: [ ९९-१०२], मूलं [गाथा ४३७-४७२] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र -[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
श्रीसूत्रताङ्गचूर्णिः
॥२२४॥
दाणं विवज्जए। 'एवं उदाहु णिग्गंधे' सिलोगो ॥ ४६० ॥ एवमवधारणे, उदाहृतवान् उदाहुः, नास्य ग्रन्थो विद्यत इति निर्ग्रन्थः महावीरः, स एव च महामुनिः किं महं ? यदसौ मनुते, अनंतं णाणदंसणं च धर्मं देशितवान् श्रुतमिति कम्मंतरं, धम्मं अनेन श्रुतधर्मेण चारित्रधर्मावशेषमेव श्रुतधर्मेणापदिश्यते 'भास माणो ण भासेज 'सिलोगो ॥। ४६१ ।। अथवा तेण भगवता भापासमितेनायं धर्म उद्दिष्टः योऽप्यन्यं कथयति सोऽप्येवमेव कथयतु भासमाणो ण भासेज्ज, यो हि भाषाममितः सो हि भाषामाणोऽप्यभाषक एव लभ्यते, उक्तं च- 'वयणविभत्तीइ कुसलो वयोगतं बहुविधं वियाणंतो। दिवसंपि जपमाणो सोबि है वइगुत्ततं पत्तो ॥ १॥ जहाविवीए परिहरमाणो मचेलोवि अचेल एवापदिश्यते, जहा वा आकंडु अगोय भिगो य, अथवा भागमाणे ण भासेज्ज, ण रातिणियस्स अंतरं भासं करेज्जा, ओमरातिणियस्म वा णो य फेज संमयं वंफेति नाम देसी भाषाए उल्लावो वृच्चति, तदपि च अपार्थकं अश्लिष्टोक्तं बहुधा तं वंफेतिति बुचति, अथवा ण वंफेज्ज मम्मयंति, कथं ?, जातिकुशीलतवेहिं मर्मकृत् भवतीति मर्मकं, मायाठाणं न सेविज माया णाम गूढाचारतो कृत्वाऽपि निह्नवः करिष्यमानव न तथा दर्शयत्यात्मानं, यदा वक्तुकामो भवति तदा पूर्वापरोऽनुचिंत्य बाहरे। किंच, 'संतिमा तभिया भासा' सिलोगो ||४६२|| सन्तीति विद्यन्ते, तघिका नाम सद्भूता इत्यर्थः, भाष्यत इति भाषा, अनेके एकादेशात् जं वदित्ताऽणुतप्पति खयमेव चौरः काणः दामस्तथा राजविरुद्धं वा लोकविरुद्धं वा एप वा इमकासी, अनुपातो हि दोपं प्राप्य वा बन्धवातादि भवति, अप्राप्तस्य परं वा सागसं निरागसं वा दोषं प्रापयित्वा चानुतापो भवति, किंच- 'जं छष्णं तं न वक्तव्यं' छण हिंसायां यद्विहिंसकं तत्र वक्तव्यं तद्यथा-लूयतां केदारः युज्जतां शकटानि गोर्वध्यतां निविश्यन्तां दारका इति, एसा आणा नियंठिया
[237]
निर्ग्रन्थ त्वादि
॥२२४॥
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आगम
(०२)
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [९], उद्देशक [-], नियुक्ति: [९९-१०२], मूलं [गाथा ४३७-४७२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-०२] "सूत्रकृत' जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
श्रीसूत्र
ताङ्गचूर्णिः ||२२५॥
प्रत सूत्रांक |४३७४७२|| दीप अनुक्रम [४३७४७२]
| आज्ञा नाम उपदेशः, णियंठा इति निर्ग्रन्थः, एपा महाणियंठाण वा, एपा आज्ञा उपदिष्टा, किंच॥४६॥ होला इति देसीभापातः, l होलाबाद
निषेधादि समवया आमन्यते यथा 'लायनं कोइ रे हेल्लनि, सहीवादमिति सखेति, सोलवादो प्रियभाप इव, गोत्रावादो वा पठ्यते, || यधा किं भो! ब्राह्मण क्षत्रिय काश्यपगोत्र इत्यादि, तुम तुमति अपडिपणे जो अ तुमंकारभिजे, वृद्धो वा प्रभविष्णुर्वास | न वक्तव्यः, अपडिण्णो णाम साधुरेव, सव्वसो तं ण वचए-सर्वशस्तन्न ब्रूयात् । किंच-यदुक्तं णिज्जुत्तीए-'पासत्थोसष्णकुसीलसंथयो ण किर वदति तदिदं-'अकुशीले सदा भिक्खू सिलोगो ।। ४६४ ।। कुत्सितं शीलं यस्य स भवति कुशीला, स तु | पासत्यादीणं एग, ततो पंचण्हवि, तन्न तावत् स्वयं कुशीलेन भाव्यं, णो य संसग्गियं भये न च तैः संसगी कुर्यात , संस-1
र्जन संसगिः, आगमणदाणग्रहणसंप्रयोगान्मा भूत् 'अंबस्स य णिवस्स यत्ति तं न संसर्गि तैर्भजेत् संसर्गिस्तद्भवं गमयति-कथं :VIसुहरूवा तत्थुवसग्गा सुखरूपा नाम सुखस्पर्शाः, तद्यथा को फासुगपाणीएण पादेहिं पक्वालिजमाणेहि दोसो, तहा दंत|| पक्खालणे, उम्पट्टणे, एवं लोगे अपणो न भवति, अहया सुख इति संयमः, संयमानुरूपा हि तत्रोपसर्गा भवन्ति, मणे वई, त्रिवि
घेनापि करणेन सातिं मनुते, णणु को आहाकम्मे दोसो,ण वा सरीरोऽधम्मो भवति, तेण शरीरसंधारणत्थं उपाहणसन्निधिमादिसु को दोसो ?, उक्तं हि-'अप्पेन बहुमसेजा, एतं पंडितलक्षणं ।' संपयं हि अप्पाई संघयणाई चितिओ य तेण एवमादिसु रूवेसु | उवसग्गेसु पडिबुझेज, तेवि हु पडिबुज्झेज णाम जाणेजा, जाणिचा ण संसम्गि कुजा, यदापि नाम स्यात् पहच्छया तैः संसग्मी | तदापि एवमादि मुहरूवे उवसग्गे पडिबुज्झेज, तेचि हु पडिबुज्झिऊणं ण सदहेज, यथाशक्तितश्च अभिहन्यात् । किंच-मिक्खा-101 दिनिमित्रं च गृहपतिमनुप्रविश्य तत्र 'नन्नत्य अन्तरायण' सिलोगो ।।४६५।। अंतरागं 'जराए अभिपूतोवा, वाहितो तपस्वी'
॥२२५॥
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भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [९], उद्देशक [-1, नियुक्ति: [९९-१०२], मूलं [गाथा ४३७-४७२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
कीटा
श्रीसूत्रक
authentine
वजनादि
॥२२६॥
प्रत सूत्रांक ॥४३७४७२|| दीप अनुक्रम [४३७४७२]
इत्यादि, गामकुमारीय किडं, ग्रामधर्मः क्रीडा, कुमारक्रीडा च गामकुमारीयं, किं तत्र, ग्रामक्रीडा हास्यकन्दर्पहस्तस्पर्शनालिंगनादि ताभिः साई, एवं वा स्त्रीभिः क्रीडते अति, पुभिरिति साई, कुमारकानां क्रीडा कुमारक्रीडा, तब तंदुमआदालिंगादि, तंतु खुद्धगेहिं सार्द्ध गिहत्थकप्पट्टगेहि वा महंतेहिं वा सबकेली न कायव्या, नचातीत्य वेलां हसे मुणी, वेला मेरा सीमा मजायत्ति चा एगहुँ, नातीत्य मार्यादां इसे मुणी, 'जीवे णं भंते ! हसमाणो वा उस्सुयमाणे वा कइ कम्मपगडीओ बंधा', गोयमा! सत्तविहबंधए वा अढविहबंधए वा इह हसतां संपाइमवायुवधो। किंच-'अणुस्सुओ'सिलोगो॥४६६।। अणिस्सि(णुस्सु)ए उरालेहि, उराला नाम उदाराः शोभना इत्यर्थः, तेषु चक्रवादीनां सम्बन्धिषु शब्दादिपु कामभोगेसु अन्यैश्वर्यवत्राभरणगीतगान्धर्वयानवाहनादिपु इह च परलोके वा अनिःसृतो अपमत्तो परिधए, अन्येषु वा आहारादिपु, चरियाए अप्पमत्तो, चरिया भिक्खुचरिया तस्यामप्रमचः स्याद्, यदि नाम तस्यामप्रमत्तः परीपहोपसर्गः स्पृशेत् ततो समाधिमधियासए।'हम्ममाणो न कुप्पेज'सिलोगो ॥ ४६७।। वुच्चमाणो असिलोगो नाम असुस्वस्समाणो निदिजमाणो वा णिब्भत्थिजमाणो वा न संजले, न हि विदितःकोधा मानाभ्यामिन्धनेनेव वाग्निं संजले, तं पुण समणो अहियासेजा, सुमणो नाम रागदोसरहितो, ण य कोलाहलं करे ण उक्कट्टि बोल बा करेज, राजसंपसारियं वा । किंच-'लद्धे कामे ण पत्थेजा' सिलोगो ॥४६८। लद्धा णाम जइ ण कोइ वत्थगंधअलंकारइत्थीसयणासणादीहिं णिमंतेज तत्थ ण गिण्हेज, जओ धावितो, अथवा लद्धे कामे तवोलद्धीओ आगासगमणविभुतादीओ अक्खीणमहाणसिगादीओ य ण दाव उवजीवेज, ण य अणागते इहलौकिके एता एव वत्थगंधादीए, परलोगिगे वा, जहा बंभदत्तो तहा पण पस्थेज, एवं ताव विवेगो आख्यातो भवति, किंच-आयरियाई सेवेज आचरणीयाणि आयरियन्याणि दुषिधा
SAAMANANESHOPPINITIHAATALE
॥२२६॥
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आगम
(०२)
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [९], उद्देशक [-], नियुक्ति: [९९-१०२], मूलं [गाथा ४३७-४७२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
प्रत
सूत्रांक
||४३७४७२|| दीप अनुक्रम [४३७४७२]
सुबुद्धशभीमत्रकएवि सिक्खाए, केसामंतिगं?-सुवुद्धाणं, सुठ्ठ बुद्धा सुबुद्धा गणधराद्याः यथा यदा काले (हा ये यदाकाले)आचार्या भवन्ति।।।
श्रूपादि | किंच-'सुस्सूसुमाणो उबेहेज' सिलोगो ॥ ४६९।। श्रोतुमिन्छा शुश्रूपा, कोऽर्थः १, पूर्वमुक्तं आयरियाई सिक्खेज सुबुद्वाणं, तागचूर्णिः ॥२२७॥ तेषां सकाशादिदानी तदर्थसुथूपा तथैव, उपासित, सु पत्थं शोभनप्रजें, सुप्रज-गीतार्थ प्रज्ञावन्तं, स तवस्सितं सुतवस्सितं, यदि
चेत्संविग्ग इत्यर्थः, तत्र के विधाचार्याः शरणं, बीरा जे अत्तपण्णेसी वीराजन्त इति वीरा, आत्मप्रज्ञमपन्तीति आत्मप्र
पिणः, आत्मज्ञानमित्यर्थः, कथं ?, येनात्मा ज्ञायते येन वाऽस्य निस्सरणोपायः संयमवृतिव्यवस्थित इति, पुरुपादानीयाः सेव्यंत | इत्यर्थः, राजानो राजामात्यादिकाय पंडिता धर्मलिप्सयो वा, पुरुपादानीया यदा संवृता भवन्ति इत्यतः प्रवति, प्रबजितास्तु 'ते बीरा पंधणुम्सुका ॥४७०।। अहवा पूर्व गृहवासे द्विविधमपि भावद्वीपं अदृष्टवन्तःप्रवजामुपेत्य पुरुपादानीयाः यदा संवृता | भवन्ति धर्म लिप्सुभिः पुरुपैरादानीयाः, अथवा ग्राह्याः पुरुपा इत्यादानीयाः, अथवाऽऽदानीय इत्यादानार्थिकः साधुः पुरुपबासौ आदानीयच पुरुपादानीयः, ते धीरा इति आदानीयाः, वीराजन्त इति वीरा, बन्धनानि कालादीनि तेभ्यो मुका बंधणुम्मुका, न तदसंजमजीवितं पुनखकाइते विषयकपायादिजीवितं वा, जं तं कपायादिजीवितं पासत्यादिजीवितं तदिदं । तंजहा'अगिद्धे सदफासेसु' सिलोगो ॥४७१।। मणुण्णेसु सद्देसु फासेसु य अगिद्धेण भवितव्यं, रूवेसु अमुच्छितेण भवितब्ब, एवं
गंधरसेसु, अमणुण्णेसु य सब्बेसु देसो न कायब्यो, णिगमणमिदाणि अपदिश्यते 'सव्यं तं समयातीयं सबमिति यदिदं Hel धर्म प्रति इह मयाऽध्ययनेऽपदिष्ट, समय आरुहत एव, आदियंति भक्षणं, सामाभ्यन्तरकरणमात्र, अद भक्षणे, समयेण अतीतं सम
याभ्यन्तरे ण, समयेनाबद्धमित्यर्थः, अथवा ये वा परे कुसमयास्तान् कुसमयान् तदतीतं, अज्ञानदोपाद्विपयलाभस्वावनतराचर्यत ||२२७॥
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आगम
(०२)
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१], उद्देशक [-1, नियुक्ति: [९९-१०२], मूलं [गाथा ४३७-४७२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत' जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
प्रत
सूत्रांक
अतिमानवर्जनादि
ताचूर्णिः १० समा० ||२२८॥
॥४३७४७२||
दीप अनुक्रम [४३७४७२]
इत्यर्थः, किं तत् ?, यदिदं लवितं बहु, लवितं नाम कथितमित्यर्थः, किंच-उक्तावशेपमिदमपदिश्यते 'अतिमाणं च मायं च' सिलोगो ॥४७२।। अतिरतिक्रमणादिपु, अतिशयेन माने अतिमान, एवं मायामपि, चशब्दात् क्रोधलोभावपि, कोऽर्थः, यदपि च चेत् क्रोधोदयः स्यात्तथापि तस्य निग्रहः कार्यः न तु साफल्यं, एवं शेषाणामपि अज्झवसेया, यद्यपि मानाहेष्वाचार्यादिपु प्रशस्तो । मानः क्रियते सरागत्वात् तथापि तमतीत्य योऽन्यो जात्यादिमानः तं परिणाय-तं दुविधाएवि परिणाए परिणाय परिजाणेज, शेपेष्वपि प्रयोजयितव्यं, गारवाणि य सवाणि इडीगारवादीणि, परिवायेति वर्तते, णिवाणं संधए मुणि णिवाणमिति संयम एवं तं संयग अच्छिण्णसंधणाए ताव संधेहि जान परं संयमट्ठाणं संधितं, अथवा निर्वाणमिति मोक्षः संधित इति ॥ धर्माध्ययनं नवमं समाप्त। ।
समाधित्ति अज्झयणस्स चत्तारि अणुयोगदारा, अहियारो से समाधीए, एसो य जाणितुं फासेतब्बो णामणिप्फण्यो, 'आदाणपदेणाधं गोण्णं णाम गाथा (१०३) यसादादौ व्यपदिश्यते 'आघंति मतिमं अणुवीति धम्म' इतरथा त्वध्ययनस्य समाधिरिति संज्ञा, तेनैवार्थाधिकारः, जहा असंखयस्स आदाणपदेण असंखतंति णाम, तं पुण पमायापमादत्ति अज्झपणं वुचति, जेण तत्थ पमादो अप्पमादो य वणिजति, तहेव लोगसारविजयो अज्झयणं, आदाणपदेणं पुण आवंतिचि बुधति, एवमादीणि अज्झयणाणि आदाणपदेण खुर्चति, गुणणिफण्णेणं पुणाई णामेण तेसिं णिक्खेवो भवति, एयरस पुण गुणणिफणं णाम समाधिः, साच पड्विधा भवति, 'णामं ठवणादविए' गाथा (१०४) तत्थ दव्यसमाधी णं "पंचसुवि य विसएसु' गाथा (१०५) श्रोत्रादीनां पंचानामपि इन्द्रियाणां यथास्वं शब्दादिमिर्मनोपियर्या तुष्टिरुत्पद्यते सा द्रव्यसमाधिः, अथवा दबंजेण तु दवेण
२२८॥
| अस्य पृष्ठे दशम अध्ययनं आरभ्यते
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(०२)
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१०], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१०३-१०६], मूलं [गाथा ४७३-४९६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-०२] "सूत्रकृत' जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
समाधिः
प्रत सूत्रांक ॥४७३४९६|| दीप अनुक्रम [४७३४९६]
श्रीमत्रका
| समाधी, साधितं च ज द सोमणवण्णादि सा दब्बसमाधिः, क्षीरगुडादीणां च समाधि अविरोध इत्यर्थः, दब्वेण समाधिरिति, | तागपूर्णिः
जहा उपजुताणं परिणामिगसमाधिरित्यादि, आहितं विच्यं ददति, जहा तु लोए आहितंति समं भवति, एसा दव्यसमाधिः, खेत्ततो ॥२२९॥
समाहि खेतसमाही, जहा दुभिक्खहताणं सुभिक्खदेसं पाचिऊण समाधी, तथैव चिरप्रवसितानां स्वगृहं प्राप्य, जत्थ वा सेने समाधी वण्णिाजति, कालसमाधी णाम जस्स जत्थ काले समाधी भवति, प्रशस्तावद्धानसंतानां वासु नक्तमूलूकानां अहनि बलिभोजनानां वायमानां शरदि गवां, जस्स चा जचिर कालं समाधी, भावसमाधी चतु०॥१०६।। तंजहा-पाणसमाही दंसणसमाही चरित्तममाही तयममाही, गाणसमाही जहा जहा सुयमधिजति तथा तथाऽस्यातीव समाधिरुत्पद्यते, ज्ञानोपयुक्तो हि आहारमपि न कांबते, न वा दुःखस्योद्विजते, झेयार्थावलंबने चास्यातीव समाधिरुत्पद्यते, दर्शनसमाधिरपि जिनवचननिविष्टवुद्धिरिह निर्वातसरणप्रदीपवन कुमतिमिर्धाम्यते, चारित्रसमाधिरपि विषयसुखनिःसंगत्वात्परां समाधिमामोति, उक्तं च-"नवास्ति राजराजस्य तत् सुखं०"तपःसमाधिरपि नासौतहा भावितत्वात् कायक्केशक्षुत्वृष्यापरीपहेभ्य उद्विजते, तथैवाभ्यन्तरतपोयुक्ता ध्यानाश्रितमना निर्वाणस्य इव न सुखदुःखाभ्यां पाध्यते, गतो णामणिप्फण्णो । सुक्षाणुगमे सुत्तमुचारेयध्वं जाव 'आघं मतिमं अतिवीय धम्म' वृत्तं ॥ ४७३ ।। सम्बन्धः अच्छिन्नं निर्वाण, संधनेति वर्तते, स एवं भगवान् तस्यामच्छिन्न निर्वाणसन्धनायां वर्तमान आघं मतिमं अणुवीयि धम्म आति आख्यातवान् , मतिमानिति केवलज्ञानी, अणुवीयिनि अनुविचित्य कथयति, ग्राहकं ब्रवीति जहा 'णिउणे णिउणं अस्थं धूलत्थं थूलबुद्धिणो कथए' सुणेलूगावि चितेति-मम भावमनुविचिन्त्य कथयन्ति, तिरि| यायवि चिंतयंति-अम्हं भगवान् कथयति, आहाराद्या द्रव्यसमाधयः प्ररूप्य प्रशस्तभावसमाधिः अंजुमिति उज्जुगं न यथा शाक्या
॥२२९॥
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आगम
(०२)
भाग-2 “सूत्रकृत" - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१०], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१०३-१०६], मूलं [गाथा ४७३-४९६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-[०२] “सूत्रकृत' जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
F
प्रत
अनि
श्रीमत्रक
सूत्रांक |
दानादि
||४७३- | ४९६|| दीप अनुक्रम [४७३४९६]
वृक्षं स्वयं न छिदंति, मिनं जानीहि, तं छिदानं ब्रुवते तथा कार्पपणं न स्पृशति, क्रयविक्रय तु कुर्वते, इत्येवमादीभिः अंततो विकताइचूर्णिः ।
पितव्यं, अपडिण्णे भिक्खू स समाधिप्रत्येकः समाधिप्राप्तः योऽप्रतिज्ञः इहपरलोकेपु कामेसु अप्रतिज्ञः अमूछित इत्यर्थः, अद्विष्टो ' ||२३०॥
या, भिक्खू पूर्ववर्णितः तुविशेषणे भावमिक्ख विसेसिजति भावसमाधिरेव प्राप्तनिवन्धने न निदानभूतः, अनिदानभूतो नाम अनाश्रवभूतः सर्वतो ब्रजेत् परिब्बए, अथवा अणिदानभूतेसु परिवएआ अनिदाणभूतानीति निदा बंधने अवन्धभूतानीति अनिदानतुल्यानीति ज्ञानादीनि व्रतानि वा तेसु परिब्बएआ, अथवा निदानं हेतुनिमित्तमित्यनान्तरं, न च कस्यचिदपि दुःखनिदानभूतो, जहा न तहा परिवएजा, काणि गुण णिदाणट्ठाणाणि ?, पावबंधादीणि, तत्थ पाणाइवातो चउबिहो, तंजहा-दयो खिचओ कालो भावओ, तत्र क्षेत्रप्राणातिपातप्रतिपेधे प्रतिपादनार्थमपदिश्यते 'उड्डे अहे या तिरिय दिसासु' वृत्तं ।। ४७४ ।। सब्यो पाणाइवातो कञ्जमाणो पण्णवगादि संपडुच उड़ अहे य तिरियं वा कञ्जति, तत्रोप्रमिति अप्पणो यदू मिति यदधः शिरसः, अधः इति अधः पादतलाभ्यां, शेपं तिर्यक्, तत्रोध संपातिमरजोवर्पोल्काप्रदीप्तगृहादीनि वायुवृक्षपक्षिमक्षिकाः ये वाऽन्ये वृक्षगृहाद्याश्रिताः, एवमधस्तिर्यक् विभाषितव्याः, द्रव्यमाणातिपातस्तु तसा य जे पाणा, भावप्रागातिपातस्तु हत्थेहि पादेहि य असंजमतो, चशब्दात् अपि उच्छासनिश्वासकासितवायुनिसर्गादिपु सर्वत्र संयमति, एवं समाधिर्भवति, एवं मायं माणं च संजमेजा, तथैव अदिणं ण गेण्डितव्यंति ततियं यतं, एवं सेसाणिपि अस्थतो परूवेयवाणि, ज्ञानदर्शनसमाधिप्रसिद्धये त्विदमपदिश्यते 'सुयक्खायधम्मे वितिगिच्छतिण्णे' वृत्तं ॥४७५।। सुष्ठु आख्यातो धर्मः सम्भवति सुअक्खायधम्मे द्विविधो, वितिमिच्छातिण्णोत्ति दर्शनसमाधि गिहिता, निस्संकिय निकंखिय गाथा, जेण केणइ फासुगेणं लाइतीति लाढः सुत्तत्थतदुभवेहिं विचित्तेहिं किसेवि देहे अपरितंते
॥२३०॥
[243]
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आगम
(०२)
प्रत
सूत्रांक श्रीमूत्ररु||४७३- वाचूर्णिः
॥२३१॥
४९६||
दीप
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र- २ (निर्युक्तिः+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१०], उद्देशक [ - ], निर्युक्तिः [१०३-१०६], मूलं [गाथा ४७३-४९६] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र -[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
अनुक्रम
[४७३
४९६]
Wine of
लाढेति, आयतुले पयासुचि प्रजायन्त इति प्रजाः पृथिव्यादयस्तासु यथाऽऽस्मनि तथा प्रयतितव्यं, न हिंसितव्या इत्यर्थः, आत्मतुल्या इति 'जह मम ण पियं दुक्खं०' एवं मुमाबादेऽवि, जहा मम अभाइ क्खि अंतस्स अप्पियं एवमन्नस्यापि, एवमन्येष्वपि आथवद्वारेषु आत्मतुल्यत्वं विभाषितव्यं, आयं ण कुजा इह जीवितट्टी आयो नाम आगमः तमायं न इहलोकजीवितस्यार्थे कुर्यात्, अष्णपाणवस्थस्यणप्यासकारहेउं वा चर्य ण कुजा, चयो णाम सन्निचयं न कुर्याद्, अन्यत्र धर्मोपकरणं, शेषमाहारादि, वस्तुसञ्चयः सर्वः प्रतिषिध्यते, हिरण्यधान्यादिसंचयोऽपि प्रतिषिध्यते, येनानागते काले जीवका स्यादिति, तं प्रतीत्य भावसंचयो भवति, कर्मसंचय इत्यर्थः, तेण चयं ण कुजा सुतबस्सी - भिक्खु । किंच 'सबिंदिया (यामि) णिबुडे पयासु वृत्तं ॥४७६ ॥ मर्चेन्द्रियनिवृत्तो जितेन्द्रिय इत्यर्थः प्रजायत इति प्रजाः खियः, तासु हि पंचलक्खणा विषया विद्यन्ते, शब्दास्तावत्कलानि वाक्यानि विलासिनीनां, रूपेऽपि 'गतानि सव्यं व्यवलोकितानि सितानि वाक्यानि च सुन्दरीणां०'रसा अपि चुंबनादयः, यत्र रसस्तत्र गन्धोऽपि विद्यते, स्पर्शाः सम्बन्धकुचोरुवदनसंसर्गादय इत्यतः सव्वंदिया णिडो पयासु, सन्ओ विप्रमुक्त इति चरेत्, सर्वा-समाधिविप्रमुक्तः सर्ववन्धनविप्रमुक्तः, किंच-स एवं विप्रमुक्तबन्धनः पासाहि पाणे य, पुढो णाम पृथक् २ अथवा पुढोति बहुगे | पाणे विविहेहिं दुक्खेहिं सष्णा विसोहिं, बिसंतो वा विसंतीति प्रविशंति संसारं नगरं परलोगं च, अथवा अयमाजर्वजविभावो ज्ञायत एव अडविहकर्मोदयदुःखेन अट्टेति आतों, अथवा दुक्खडिता, अट्टति आर्चध्यानोपगताः मनोवाक्कायैः परितप्यमानो, 'एतेस वाले तु पक्षमाणे ' वृत्तं ॥ ४७७॥ एतेष्विति जे ते पुढो विसन्ना ये प्रकुर्वन्ते हिंसादीनि एतेष्वेव आवर्त्यते कर्मणि पावकैः वध्यते च एवं वालो एवमित्यवधारने एवं हि बालः चौर्यपारदारिकादीनि इहैव हस्तादिच्छेदान् बन्धबधादी प्राप्नोति,
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आत्म
तुल्यत्वादि
॥२३१॥
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आगम
(०२)
भाग-2 “सूत्रकृत" - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१०], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१०३-१०६], मूलं [गाथा ४७३-४९६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-०२] “सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
आवतादि
प्रत सूत्रांक | ||४७३४९६|| दीप अनुक्रम [४७३४९६]
श्रीसमका एवं तु एवमनेन सामान्यतो दृष्टेनानुमन्ये यथा इह हिंसानृतचौर्याब्रमपरिग्रहादीन् प्रकुर्वन् दोपान् प्रामोति एवमेव परत्रापि नरकातागचूर्णिः
दिसु दुःखानि प्रामोतीत्यतः आउद्धृति, आउद्धृती नाम निवर्चते, वक्तारोऽपि च भवंति-आउट्ट समाउट्टो समाउर्मिसु तु, इदाणिं ॥२३२॥
'चाला हि रटापायाः प्रायसो निवर्तते, अपायोद्वेजिनां चालानां भीरूणां अपदिश्यते, संसात् कानि पापानि येभ्योऽसौ निवर्चते, अतिवातो कीरति अतिपतनमतिपात: प्राणातिपात इत्यर्थः, जेणं अप्पाणं वा परं वा जीविताओ ववरोवेति, नियतं युञ्जते नियु
ते, यथा राजादिभिर्भृत्यादयः युद्धाधिकरणाध्यक्षादिपु तेषु निमुंजते, एवं यावन्मिथ्यादर्शनादीनि, किंच-तिष्ठन्तु तावोऽतिपातं कुर्वन्ति, ये च भृत्यानुभृत्या वा तेपु तेषु कर्मसु नियुंजते अन्येऽपि पापं कुर्वते, तद्यथा-'आदीणभोईत्ति' वृत्तं ॥ ४७८ ।। यावदैन्यं तावद्दीनः, कोऽर्थः --दीणकिवणवगीमगादि पावं करेंति, उक्त हि-'पिंडोलगेवि दुस्सीले, नरगाओ ण मुञ्चति आदीणतणेण मुंजतीति आदीणभोजी, सो पुण कयाइ अलब्भमाणो असमाधिपंचो अधे सत्तमाएवि उववजेजा, जहा सो रायगिहच्छणपिंडोलगो वेभारगिरिसिलाए घल्लितो 'मंता हु एवं मत्वा एगन्तसमाहिमाहुः, द्रव्यसमाधयो हि स्पर्शादिसुखोत्पादकाः अौकान्तिकाय भवन्ति, कथं ?, अन्यथा सेवनादसमाधि कुर्वते, उक्तं हि-तचेच होति दुक्खा पुणोवि कालंतरवसेणं ज्ञानार्यास्तु भावसमाधयः एकान्तेनैव सुखमुत्पादयन्ति हि, परवचः--एवं मत्वा संपूर्ण समाधिमाहुस्तीर्थकराः, सं एवं बुद्धे समाधियरते बुद्ध इति जानको, भावसमाधीय रते, बुद्ध इति जानको भावसमाधी एवं चतुर्विधो पट्टितो, दब्वविवेगो आहारादि, अट्टकुकडिअंडगप्पमाणमेत्तकवलेण०, एगे वत्थे एगे पादे, भावंत्रिवेगो केसायसंसारकम्माण, दुविधे विरत्तो विवेगो एवमस्य समाधिर्भवति, पाणातिपाताओ णवएण भेदेणाविरमणा अविरति, लेश्या स्थिता यस्याचिः स भवति ठितचा, अवहितलेश्य इत्यर्थः,
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आगम
(०२)
प्रत
सूत्रांक
||४७३
४९६||
दीप
अनुक्रम
[४७३
४९६]
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र- २ (निर्युक्तिः+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१०], उद्देशक [ - ], निर्युक्ति: [ १०३-१०६], मूलं [गाथा ४७३-४९६] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र - [०२] अंग सूत्र [०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि :
श्रीसूत्रक ताचूर्णिः
॥२३३॥
विसुद्वलेसासु ठितो सो 'सर्व जगं तु' वृतं ॥ ४७९ ॥ जायत इति जगत् समता नाम 'जह मम ण पिथं दुक्खं णत्थि य सिकोड़ बेसो पिओ व०' अथवा अन्यस्य प्रियं करोति अन्यस्याप्रियमित्यतः कोऽर्थो ?- नान्यान् घातयित्वा अन्येषां प्रियं करोति, सूपकैः मार्जारयोपवत्, अथवा प्रियमिति सुखं सर्वसधानां तदेषां प्रियं न कुर्यात्, न कस्यचिदप्रियं मध्यस्थ एव स्यादित्यतः सम्पूर्ण समाधियुक्तो भवति, कथित समाधि संधाय 'उट्ठाय दीणे तु पुणो विसण्णो' उत्थायेति समाधिसमुत्थानेन, दीन इत्यूर्जितो भोगाभिलाषी, सर्वो हि तर्कको दीनो भवति, ईप्सितलंभे च दीणेतरः, पुणो चिमनेति निहत्थीभूतो वा पीसत्यभूतो वा, अयं तु पार्श्वोऽधिकृतः, ष्यासकारा मिलापी वखपात्रादिभिः पूजनं च इच्छति, सिलोगो णाम इलावा यश इत्यर्थः, सो दुह सेजाए वहूति, अमिलममाणां असमाधिट्टितो भवति, किमयं पुण प्यासिलोग कामी १, भणितं च-जाति णिपीय पजं जति० 'अहाकडे चैव' वृत्तं ॥ ४८० || आहाय कडे आधाकडे आधाकर्मेत्यर्थः अथवा अन्यानपि जागि साधुमाधाय कीडकडादीणि क्रियं ताणि धाकडाणि भवति, अधिक कामयते- प्रार्थयतीत्यर्थः अथवा नियमेण नियंतणा, जो तं गियामणं गेण्हति सो णियायमाणे, जो पुण अहाकस्मादीणि कम्माई सरति---सुमरइति निगच्छति गवेप (य) तीत्यर्थः, स पायत्थोसणकुशीलाणं विसया संयमोद्योते मार्ग गवेषति, विषीदति वा, येन संमारि विसष्णो भवत्यसंयम इति, विषण्णमेपतीति विषण्णेषी, तहा तहा दीर्णभावं गच्छति शुक्कपटपरिभोगवत्, परिभुजमाणा शुक्लपटवत् मलिनीभवत्यसौ इत्थीहिं सत्तेय पुढो य वाले सक्ता रक्ता गृद्धा, पुढो इति पृथक् वहवः, स्त्रीनिमित्तमेव च परिग्रहं ममायमाणा, चतुर्विधपरिग्रहनिमित्तमेव 'आरंभसत्ता' वृत्तं ॥ ४८१ ॥ आरमसत्ता, आरभो दबे भावे य, तत्र सक्ताः असमाधि पत्ता निचयं करेंति, हिरण्णसुवण्णादी देव्यणिचप, दव्वणिचयदो
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जगत्सम
तादि
| ॥२३३॥
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भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१०], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१०३-१०६], मूलं [गाथा ४७३-४९६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
द्रव्यचयादिनिषेधः
प्रत
श्रीयत्रक-II/ सेणं अद्वविधाम्मणिचयं करेति, इहलोक एव च असमाधिगुणं जानानः समाधिधर्म वा समीक्ष्य चरेदित्यनुमत्यर्थः, सर्वेभ्यो सूत्रांक
ताहाण ममाधिस्थानेभ्यो विषमुक्तः आरभपरिग्रहादिभ्यः अणिस्सितभावविहारेण विहरमाणो । छंदे ण कुजा हित(इह)जीवितही ||४७३- | ॥२३॥ वृत्तं ।। ४८२ ॥ छन्दः प्रार्थना अमिलाप इत्यनन्तरं, पठ्यते च 'आर्य ण कुजा' आयं गच्छतीत्यादयो हिरण्यादि सद्दादी वा, ४९६||
माइजीवितं णाम कामभोगादयः यश-कीतिरित्यादि, असंयमजीविताधिकारेसु तद्गृहकलत्रादिषु अमजमाणो य परिवएज्जा, दीप
| किच-णिसम्मभासी य विणीतगेधी णिसंमभासी णाम पूर्वापरसमीक्ष्य भाषी, अहाअकम्मभोगी, स्वजनादिषु गिद्धी विनीता
यस्य स भवति बिनीतगिद्धी, हिमया अन्विता कथ्यत इति कथा, कथं हिंसान्वितं , तस्मादश्नीत पिबत स्वादत मोदत हनताअनुक्रम
तिहनत छिन्दत महरत पचतेति, आहाकडं वान निकामएज ।।४८३।। आहाकडं-औदेशिकमित्यर्थः, ण अधिकामेजा ये [४७३
तान् च कामयन्ति न तैः पावस्थादिभिरागमणगमादि तत्प्रशंसादिसंस्तवं च कुर्यात् , किंवा एवं समाधियुक्तः धुने उरालं तु ४९६]
अकंग्बमाणो उरालं णाम औदारिकशरीर तत्तपसा धुनीहि, धुननं कृशीकरणमित्यर्थः, तस्मॅिश्च धूयमाने कर्मापि यतेऽनपेक्ष| माण इति, नाई दुर्बल इतिकृत्वा तपो न कर्त्तव्यं, दुर्बलो वा भविष्यामीति, याचितोपस्करमिव व्यापारयेदिति, तत्र विशेषान् | अनपेक्षमाणः वेचाय असमाधिः, यतीति श्रोतस्तद्धि गृहकलनधनादि प्राणातिपातादीनि वा श्रोतांसि, तान्यनपेक्षमाणः धुनी
हीति वर्तते, श्रोतांस्यप्यनपेक्षमाणः, म एव पु असज्जमाण इत्यर्थः, किंच-पेक्ष्य ने प्रार्थये तयो 'एगत्तमेव अभिपत्थएज्जा' | वृत्तं ॥ ४८४ । एकभाव एकत्वं, नाई कस्यचिन् ममापि न कश्चिदिति, 'एक्को मे मामओ अप्पा, णाणदसणसंजुतो । सेसा मे | बाहिरा भावा, सव्वे संजोगलक्खणा ॥ १ ॥ एवं वैराग्यं अणुपत्थेज्ज, अथ 'किमालंबन कृत्वा ? 'एवं पमोक्खे ण मुसंति
॥२३॥
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भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१०], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१०३-१०६], मूलं [गाथा ४७३-४९६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[२] “सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
प्रत सूत्रांक | ||४७३४९६|| दीप अनुक्रम [४७३४९६]
श्रोत्रक-10 पास' चे एतं एकत्वं एम चेव पमोक्खो, कारणे कार्योपचारादेप एवं मोक्षः, भृशो मोक्षो पमोक्खो, सत्यवायं, अथवा || प्रमोक्षादि ताङ्गचूर्णिः
जानादिसमाधि प्रमोक्षं, अमुसंति एतदपते, तदेकान्तसमाधिरेव प्रमोक्षः, अमुसंति अननृतः, अयं वा परमोक्षक इति,अक्रोधने; ॥२३५।।
न केवलमक्रोधनः, एवं अर्थभणे अयंकणो अलुब्भणे जाव अमिन्छादसणो, सत्या णाम संयमोऽनृतं वा, सत्ये रतः सत्यरत , सत्यो
नाम संयमस्तस्मिन् , तपस्तपस्वी दुरुत्तरगुणाः, एते हि मूलोत्रगुणा विचित्रा स्रगिव श्रीकृताः, तत्रोत्तरगुणा दर्शिताः, मूलगुOणास्तु 'इत्थीसु या अरनमेहणे या वृतं ।। ४८५ ।। तिविद्याओ इस्थिगाओ, न रतः अतः विस्त इत्यर्थः, परिगगहं चेव FA अमायमाणे एवं सेसावि अहिंसादयो मूलगुगाः, चउत्थपंचमयाण तु बयाणं भावणा-उचावएहिं अनेकप्रकाराः शब्दादयः,
अथवा उच्चा इति उत्कृष्टाः, अबचा जघन्याः, शेषा मध्यमा, त्रायत इति धाता, श्रि सेवायां, ते न संश्रियमानाः, असंश्रयमान एप च विषयान भिक्षुःममाधिप्राप्तो भवति, इहैव नैवास्ति राजराजस्य तत् सुग्वं' परे मोक्ष इति, स एवं समाधिप्राप्तः 'अरर्ति रति च अभिभूय' वृत्तं ॥ ४८६ ।। केण ?, समावीए, पतनादिफासंति, तणफासग्रहणेण कट्ठसंथारगइकडा य, समाधिसमाओगे हियाओ तत्थ तणहि विज्झमाणे वा अत्युरमाणे वा सम्म अधियासंति, सीतं सीतपरीसहो, तेऊ उसिणपरी
सहो, तणादिफासग्गहणेण दंसगमसगादिपरीसहा गहिता, सदग्गहणेण सव्वे अकोसादिसहपरीसहावि गहिता, सुभिभिगहोण DAI इटाणिविसया गहिता, किंच-'गुत्ते वई य ममाधिपत्ते' वृत्त ।। १८७॥ मौनी वा समिते वा भापते, भावममाधिपत्ते | भवति, लेसं समाहट्ट तिणि लेस्साओ अवहट्टु तिणि पसत्याओ उपहटु, मयतो ब्रजेत् परिवएन्ज, किंच-गिहंण | छाए णवि च्छादएज्जा उग्ग एव परकतनि ग्यः स्यात्, संमिस्सभावं प्रजायंतः प्रजाः-खियः, अथवा सर्व एव प्रजा:
1॥२३५॥
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भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र- २ (निर्युक्तिः+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१०], उद्देशक [-], निर्युक्तिः [१०३-१०६] मूलं [गाथा ४७३-४९६] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र - [०२], अंग सूत्र [०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
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श्रीक वाि
॥२३६॥
गृहः तैः सन्मिश्रीभावं पाहे संमिस्तिभावो नाम एगतो वासः आगमणगमणावसथवो स्नेहो वा, एवं चारित्रमाधिः परिमतः ॥ इदानीं दर्शनभावममाधिः- 'जे के लोगंमि तु अकिरिया य' वृत्तं ॥ ४८८ || जेति अणिदिदुणिदेसो, अशोभन क्रियावादिनः पारतन्त्र्या अक्रियावादिनः क्रियातो, अक्रियो वाऽऽत्मा येषां निथितमेव अक्रियात्मानः अन्येन केनचित्पृष्टाःकीशो वा धर्म ?, धुतं आदियंतित्ति धुतवादिनो, धुतं नाम वैराग्यं, धुतमादियंति धुतं पसंसेति, एवं ते धुतमपि आत्मीकुर्वतः आरंभसत्ता यथा शाक्या द्वादश घुतगुणा ब्रुवते, अथवा पचनादिद्रव्यारंभेऽपि सक्ताः समाधिवम्न जानंति, विमो अस्य हेतुः विमोक्षहेतुः तमेवं तन्नमुत्रदिसंति, 'तेसिं पुढोच्छन्दा' वृत्तं ॥ ४८९ ॥ पुढोछन्दाण भाणवाणं पृथक् पृथक् छंदा नानाछन्दा इत्यर्थः केचित् क्रूरस्वभावा केचिन्मृदुस्वभावास्तथा केपांचिन्मंसं केचिन्मासमद्याशिनः तथा केचित् गीतनृत्यहसितशियाः केचित्परव्यसनरताः केचिन्मध्यस्था इत्यादि, तथा दृष्टिभेदमिति, प्रतिक्रियाण' वा पुढो वा तं यथैव हि नानाछन्दा कर्त्तव्यादिषु लौकिकाः तथैव हि किरिया अकिरियाणं वा पुणो पवादं उपादीयंत इत्युपादाः गृहा इत्यर्थः, अथवा उपवादो दृष्टिः, तद्यथा केपां चिदात्माऽस्ति केषांचिन्नास्ति, एवं सर्वगतः नित्यः अनित्यः कर्त्ता अकर्त्ता मूर्त्तः अमूर्त्तः क्रियावन्निष्क्रियो चा, तथा केचित् सुखेन धर्ममिच्छन्ति केचिद् दुःखेन केचित् सौचेन केचिदन्यथा केचिदारंभेण, केचिन्निःश्रेयसमिच्छन्ति केचि दभ्युदयगिन्छंति, एकस्मिन्नपि तावच्छास्तरि अन्य अन्यथा प्रज्ञापयंति, तद्यथा-शून्यता, अस्थि पुग्गले, णो भणामि गत्थित्ति पोगले, जंपि भणामि तंपि न भणामीत्यवचनीयं, अवचनीयं एव अवचनीयः, स्कन्धमात्रमिति, वैशेषिकाणामपि, अन्येषां न द्रव्याणि नर्वे, अन्येषां दश दशैव सांख्यानामपि, अन्येषां इन्द्रियाणि सर्वगतानि एवं तेषां मिथ्यादर्शनप्रत्यधिकं अनुसमय
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अक्रियावाद्यादि
॥ २३६ ॥
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भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र- २ (निर्युक्तिः+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१०], उद्देशक [ - ], निर्युक्तिः [१०३-१०६], मूलं [गाथा ४७३-४९६] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र - [०२] अंग सूत्र [०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि :
श्रीसूत्रकृ ताङ्गचूर्णिः
॥२३७||
'मेव कर्म बध्यते, दृष्टान्तो जातस्स वालस्स पकुचदेहं जातस्येति गर्भत्वेनोत्पन्नस्य तद्यथा-निषेकात्प्रभृतिरारंभः शरीरवृद्धेर्भवति यावद्भर्भान्निस्मृतः, आबाल्याच प्रबर्द्धते यावत्प्रमाणस्थो, जातश रीरवृद्धि सिंह कालक्षेत्रबाह्योपकरणात्मसानिध्यांयता येतुः 'अत उच्यते प्रकुर्व एव प्रकुर्वन् यथा तस्यानुमामयिकी शरीरवृद्धिः एवं तेषामपि मिथ्यादर्शनप्रतिपत्तिकालादारभ्य तत्प्रत्ययिकं "वैरं प्रवर्द्धते कर्म, वैराजतं चैर, यथा बेरं दुःखोत्पादकं वैरिणा एवं कर्मापि यद्यप्याकाशे निश्चलं उपतिष्ठति अविरतस्तथा 'अप्यस्थ कर्म बध्यत एव, पठ्यते च-जानाण बालस्स पगन्भणाए. जातानामिति गर्भपाका निस्सृतानां प्रगल्भं नाम घाट, | हिंसादिकम्मं स्वभिर तिरति निवेशोऽभिसंगिता वा, इत्यतः पवद्धते वेर मसंजतस्सं' आयुक्षयं चैव अवुज्झमाणे ' वृत्तं ।। ४९० || स एवं हिंसादिकर्म्मसु पमजमानः कामभोगे तृषितः छिन्नमत्स्यदुदकपरिक्षये आयुषः क्षयं न बुध्यते, उज्जेणीए वाणियो एगो रयणाणि कथं पविसिस्मामित्ति रजनिक्षयं न बुध्यते स, अंततो व्यग्रतया यात्रदुदिते सवितरि राज्ञा गृहीतः, यथा वा दिवि देवाः, दोगुंडुगा इव देवा गतंपि कालं ण णायंति, ममाई तथथा में माता मम पिता मम भ्रातेत्यादि सहमाई हिंसादीनि करोति मन्दमिति मन्दः, अहो य रातो परितप्यमाणे सर्वतस्तप्यमानः परितप्यमानः मम्मणवणिग्वत्, कायेणे किंसंतो वायाए मणेण य आर्त्तध्यानोपगतः तः द्रव्याचे चप्पडिअंति शकटवर्क द्रव्यार्त्तो वा भावट्टो रागद्दों सेहिं सुठु सद्दे संमूढो, सव्वत्थ वाणियगदितो वक्तव्यः, 'अजरामरवद्वालः, क्लिश्यते धनकारणात्। शाश्वतं जीवितं चैत्र, मन्यमानो धनानि च ॥ १ ॥ एवमेतद्वनः मत्या ( नमत्य) जित्वा गजचौराशिदायकाद्य विशेष, अप्पं च बहुंवा 'जहाय वित्तं पसवो य बंधर्व' वृत्तं | ॥ ४९१ ॥ जधायत्ति त्यक्ता, वित्तं धनं पशवो गोमद्दिध्यादयः, बान्धवाः पूर्वापरसंबद्धाः, मित्राः सहजातकादयः, लालप्यती
[250]
शरीरवृन्ध्यादयः
॥२३७ ।
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भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र- २ (निर्युक्तिः+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१०], उद्देशक [ - ], निर्युक्तिः [१०३-१०६], मूलं [गाथा ४७३-४९६] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र -[०२] अंग सूत्र [०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि :
श्रीकताङ्गचूर्णिः
॥ २३८॥
अत्यथे लवति पुनः पुनर्वा लवतीति लालप्यते, हा मातः हा पितः हा विभवाः हा जीवलोक अटदुहविसहा कुतीर्थिकाः राजादयथ अपि, रूपवानपि कोण्डरीक पौण्डरीकसरिसो, धनवान्नंदसरिसो, धान्यवान् तिलग सेडिसरिसो, तेऽचि सच्चे लालप्ययंता घतमुति, धन्तः- मंसारः एवं ते यथा कर्मनिष्पन्ना प्रेत्य समाधिं न प्राप्नुवन्ति यच तच्छाश्वतकारित्वेनाजरामरणेव अह न्यहनि उत्पद्यमानेन धनमुपार्जितं तदप्यस्याग्रे राजादयोऽपहरंति, एवं मत्वा पापाणि कर्माणि वर्जयेत् तपश्चरेत् कथं ? - सी हं जहा खुडुमिया चता' वृत्तं ||४९२|| क्षुद्राः मृगाः क्षुद्रमृगा, व्याघ्रवृकद्वीपिकादयः, मृगा रोहितादयश्च, अथवा स एव क्षुद्रमृगः दूरेणेति अदर्शनेनागन्धेन वा तद्देशपरित्यागेन च, अपि वातकम्पितेभ्यः वृणेभ्योऽपि सिंहा भयादुद्विग्नाचरन्ति एवं तु मेधावि समिव धम्मं एवं अनेन प्रकारेण मेधया धावतीति मेधावी सम्यक् ईक्षित्वा समीक्ष्य ज्ञात्वेत्यर्थः, असमाधि कर्तृणि च पावाणि दूरेण चिवञ्जए । 'संझमाणो' वृत्तं ॥ ४९३ ॥ संबुज्झमाणो य, किं संबुज्झमाणो १, समाधिधम्मं, मतिरस्यास्तीति मतिमान् बड़माणपरिणामो हिंसादिपापत आत्मनो निवृत्तिं कुर्यात्, निवृत्तेः करणमित्यर्थः स्यात् किं पापात् ०१, हिंसापताणि दुहाणि मत्ता, हिसातः प्रभूतानि हिसापताणि जातिजरामरणाप्रिय संवासादीनि नरकादिदुःखानि च अड्डविधकम्मोदय निष्फण्णाणि, असमाधिं प्रसवतीति णिव्वाणभूते च परिव्ययजा, निर्वाणभूतः सर्वभूतानां निर्वृत्तिकरणमित्यर्थः, द्रव्यवलयं शंखकः भाववलयं माया, यथा वा निवृत्तोऽव्याचाघसुखप्राप्तस्तिष्ठति एवं भगवानपि अय्यायाधसुख निस्संगो, अनिवृत्तोऽपि निर्वृत्तभृतः, सर्वतो व्रजेत् परिवएञ्जा । मूलगुणाधिकारे प्रस्तुत 'सं पण वूया' वृत्तं ||४९४ || आत्मनिः श्रेयसकामी एवं निर्वाणसमाधिर्भवति, कसिण इति सम्पूर्णः, संसारिकानि हि यानि कानिचित् स्नानपानादीनि निर्वाणानि तान्यसंपूर्णत्वात् नैकान्तिकानि नात्यंतिकानि च, वक्तारोऽपि च भवंति
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SERVOS
वित्तादि
त्यागादि
॥२३८॥
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भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१०], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१०३-१०६], मूलं [गाथा ४७३-४९६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
शुदेषणादि
||२३९॥
प्रत
श्रीसत्रक सूत्रांक | ताङ्गचूर्णिः ॥४७३४९६|| दीप अनुक्रम [४७३४९६]
पञ्चा णिहि लद्धा एवमन्येपामपि बतानामतीचार सयं ण कुजा, ण य कारवेखा, करतमण्णपि य णाणुजाणेआ, एवं योगत्रिक- करणत्रिकेन । इदानी उत्तरगुणसमाधि-'सुद्धे सेयो जायणंत सज' (सुद्धे सिया जाइयमेसणिज) वृत्तं ।। ४९५॥. सुद्धे सिया जाइउं लद्धं एसणिजं च, अथवा सुद्धं अलेनकडं, एसणिणं आहाणा(अणाहा)दीणं गल्लं पासएजा, अमुच्छितो अणज्झोववण्णो गवेसणघासेसणासु बिइंगालवीइधूम, धितिमं विप्पमुके सुसंजमे धृतिमान् आगारबंधणविष्पमुक्के, ण पूजासकारही सिलो. | गोत्ति जसो णाणतवमादीहि सिलोगो ण कामए'निक्खम' वृत्तं णिक्खम्म गेहातो णिरावकंखी अप्पं वा बहुं वा उपधि विहाय | निष्क्रांतो मिच्छत्तदोसादीहिं गृहकलत्रकामभोगेसु णिरावकंखो, दव्यतो भावतो य कार्य विसेसेण उत्सृज्य विउमज्जा, दव्वणिदाणं सयणधणादि भावणिदाणं कम्म, णो जीवितं णो मरणामिकंखी, वलयं वक्रमित्यर्थः, द्रव्यवलयं शतकः माक्वलयं अटप्नकार कर्म, येन पुनः पुनर्वलति संसारे, बलयशब्दो हि वक्रतायां भवति च गती, वक्रतायां यथा वलितस्तन्तुर्वलिता रज्जुरित्यादि गतौ च, चलति सार्थ इत्यादि, वलयविमुक्त इति कर्मवन्धनविमुक्तः, अथवा वलय इति माया तया च मुक्ता, एवं क्रोधादिमाणविमुक्ताः | इति ।। दशममध्ययनं समासम् ।।
मग्गोत्तिअज्झयणस्म चत्तारि अणुयोगदाराणि, अधियारो मग्गपरूवणाए, पसस्थभावमग्गोयरणाए य, णामणिप्फण्णे मग्गो, 'णामंठवणादविए' गाहा ॥१०७|| बतिरिनो दव्यमग्गो अणेगविधो 'फलग लता अंदोलग'गाथा ॥१०८|| फलगेहि जहा ददरसोमाणेहि, जहा फलगेण गम्मति वियरगादिसु, चिक्खल्ले वा, जहा वेत्तलताहिं गंगमादी संतरति, जहा चामदत्तो वेतपतिं वेचेहिं उल्लंघिऊण परकूलवे सेहिं आलाविऊण अण्णाए उत्तिणो, अंदोलएण अंदोलारूदो एत्तिया, जं वा रुक्खमालं
॥२३९॥
अस्य पृष्ठे एकादशमं अध्ययनं आरभ्यते
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भाग-2 “सूत्रकृत" - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [११], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१०४-११५], मूलं [गाथा ४९७-५३४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत' जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
प्रत सूत्रांक ||४९७५३४|| दीप अनुक्रम [४९७५३४]
श्रीसूत्रक-Eअंदोलिएऊण अप्पा अंदोलिरऊणं अप्पाणं परतो वञ्चति, जहा लता तहा वेचे वि, अथवा लतत्ति आकंपिऊणं, अणाए लत्ताए लग्गवि रज्जुहि गंगं उत्त- नद्रव्यमा
गांदि तामणिः रति, दर्ग णदी, जायणं विलं दीवहिं पविसंति, रज्जु वा कडिए पंधिऊण पच्छा रज्जु अणुसरंति केचिद् रसकूपिकादौ महत्यं॥२४॥
धारे, पुणो णिगच्छति गच्छति, स चेव पासमग्गो खीलगेहिं समाविसए चालुगाभूमीए चकमंति केचित् , रेणुप्रचुरे प्रदेशे
कीलिकानुसारेण गम्यते, अन्यथा पथभ्रंशः, अयं पथो लोहबद्धः सुवण्णभूमीए एत्थं पक्खीणंति, जहा चारुदतों गतो, छत्तगPI मग्गो छत्तगेण धरिजमाणेणं गच्छति उपद्रवमयात , जहा गणिगों पावातो, जलमग्गोणावाहि, आगासमग्गो चारणविजा
हराणं, 'खेत्तंमि जंमि खेत्ते 'गाथा |१०९॥ जमि खेते मग्गो, भूमिगोअराणं भूमीए मग्गो, देवाणं आगासे, खेचरविज्जाशहराणं उभये, अथवा खेत्तस्स मग्गो जहा सो खेत्तमग्गो एवमादि,ग्राममार्गों नगरमार्ग इत्याहि, यथैप पंथा विदर्भाया: अयं
गच्छति हस्तिनागपुरं, कालमग्गो जो जंमि काले मग्गो वहति यथा वर्षाराने उदगपूर्णानि सरांसि परिरयेण गम्यते, व्याशुककईमानि शिशिरे, ग्रीष्मे वा, उज्जुमग्गेण यस्मिन् वा काले गम्यते यथा ग्रीष्मे रात्री सुखं गम्यते, हेमंतेऽहनि, जचिरेण या गम्मति यथा योजनिकी संध्या, भावमग्गो दुविधो पसत्थो अपसत्यो य, दुविहंमिवि तिगभेदो० गाथा ॥११०॥ अपसत्थभावमग्गो तिविधी, तंजहा-मिच्छ अविरति अण्णाणं ३, पसत्थभावमग्गो तिविहो, तंजहा-सम्मणाणं सम्मदंसणं सम्मचारित्रं ३, तस्स पुण दुविहस्सावि मग्गरस दुविहो विणिच्छयो, विनिश्चयः फलं कार्य निष्ठेत्यनर्थान्तरं, पसत्थो सुग्गतिफलो, अप्पसत्थो दुग्गतिफले, सुगतिफलेनाधिकारः, अप्पसत्थमग्गडिताणं पुण दुग्गतिगामुगाणं दुग्गतिफलवातीणं ॥१११।। तिणि तिसट्ठा पावादियसता, दब्वमग्गो पुण चतुर्विधो खेमे णामेंगे खेमरूवे खेमे णामेगे अक्खेमरूवे अखेमें णामेगे खेमरूवे अखेमे अखेमेस्वेनि, अदुग्गनषिच्चो₹ २ ४०।।
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आगम
(०२)
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [११], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१०४-११५], मूलं [गाथा ४९४-५३४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-०२] “सूत्रकृत' जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
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प्रत सूत्रांक ||४९७५३४|| दीप अनुक्रम [४९७५३४]
श्रीयत्रक- खेमे खेमरूवे च, एवं चउसुचि मग्गेसु योजयित्तव्यं, भावमग्गे एवमेव चतुभंगो, पढमभंगे मापदवलिंगजुत्तो साधू, अक्खेम- द्रव्यमा. ताङ्गचूर्णिः
स्वे कारणिओ दवलिंगरहितो माधू, अक्खेमा खेमरूविगा णिण्डगा, अण्णउत्थिय गिहत्था चरिमभंगे, संमप्पणीतभागो गादि । ॥२४॥
गाथा ॥११२।। जो मो पसत्यभावमग्गो सो तिविधो-गाणं तह दसणं चरितं, तित्थगरगणधरेहिं साधूहि य अणुचिण्णो, तबिघरीशो पुण मिच्छत्तमग्गो, सो चरगपरिचायगादीहिं अनुचिण्णो मिच्छत्तमग्गो, येऽपि सस्थासनं प्रतिपन्नाः इडिरससातगुरुगा. गाथा ।। २१३ ।। इहिरसगारवेहि वा धम्म उबदिसंति तेऽवि ताव कुमग्गमम्गस्सिता, किमंग पुण परउत्थिगा तिगारवगुरुगा, छज्जीवकायवधरता जे उवदिसंति धम्म संघभत्ताणि करेमाणा एवमादि कुमग्गमग्गस्मिता जणा, जे पुण तवसंयमप्पहाणा० गाथा ॥११४।। सीलगुणधारी जे वदंति, सम्भावं णाम जहा बादी तहा कारी सबजगजीवहितं यं तमाह संमप्पणीतं, अवि तस्स पुण एगट्ठियाणि णामाणि भवंति, तंजहा--पंथोणाओ मग्गो गाथा ।।११५|| सव्या, णामणिफण्णो गतो। सुत्ताणुगमे सुत्नमुञ्चारेयव्यं, अञ्जसुधम्म जंबू पुच्छति-'कतरे मग्गे अक्खातेसिलोगो।।४९७।। आघात इति आख्यातः, माहणेत्ति वा सम
णेत्ति वा एगहुँ, भगवानेवापदिश्यते, मतिरस्यास्तीति मतिमान् तेन मतिमता, तत्र ताव द्रव्यमागों वा अप्रशस्तभावमागों वा। HAN तेनारुपातः, अवश्यं तु प्रशस्तभावमार्गः पमस्थो आख्यातः, किं तेहिं ?, तेण दिट्ठो उज्जुगो य तं मे अक्खाहिजे मग्गं उज्जु| पवजिता ओधों द्रव्योधः समुद्रः भावे संसारोघं तरति । 'तं मग्गं णुत्तरं सुद्धं 'सिलोगो॥४९८।। तमोधतरं महापोतभूतं नाखोसरा, अन्ये कुमार्गाः शाक्यादयः, शुद्ध उति एक एव निरुपहत्वाचैत्र, अथवा पूर्वापराव्याहतनया, वध्यदोपापगमा बुद्धाः, सबदुव विमोक्रवणं अन्येऽपि प्रामादिमार्गाचौरश्वापदभयोषदुता दुःखाबहा भवंति, भूत्वा च न भवंति उदकायुपप्लवैः, अप्पगासे २४१
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आगम
(०२)
भाग-2 “सूत्रकृत" - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [११], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१०७-११५], मूलं [गाथा ४९७-५३४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
मार्ग
प्रश्नोत्तरे
प्रत सूत्रांक ||४९७५३४|| दीप अनुक्रम [४९७५३४]
श्रीमत्रक- भावमार्गा अपि दुःखावहा एव ते, सम्यग्दर्शनज्ञानतपोमयस्तु प्रशस्त मावमार्गः, शुद्धः सर्वदःखविमोक्षणः, तमेवंविधं जाणेहि वाचूर्णिः
णं जहा भिक्खू यथेति येन प्रकारेण, भिक्षुरिति भगवानेव, यथा स भिक्षुर्ज्ञानवान् तथाभूतं त्वमपि जानीपे तमेवं जानीते, २४२
अथवा हे मिक्षो! तमेवं बेहि महामुणी, हे महामुने, स्थाकिमर्थमहं गृच्छामि ?, तत उच्यते-'जइ मे केइ पुच्छेजासिलोगो ४९९।। देवाचतुष्प्रकाराः एते प्रच्छाक्षमा भवंति, तिरिया मणुस्सा, उत्तरगुणलद्धि या पडुच तियं अपि, कश्चित् गिरा वत्ति वयसावि पुच्छेज, तेसिं तु कतरं मग्गं तेषामजानकानां खयमजानका कतरं मार्ग कथं वा? कथयिष्यामि, अव्यावाधसुखादीनि
| आवहतीति सुखावहः, अथवाऽभ्युदयकं निःश्रेयसं च, इति पृष्ट आर्यसुधर्मा जम्बूस्खाम्याद्यान् साधून प्रणिधाय सदेवमणुआसुरं IMIच परिसं णिस्साए कहेति 'जइ वो केइ०'वृत्तं ॥५००॥ जड़ वा केइ पुच्छेजा, जतित्ति अणिहिट्ठणिद्देसे, संसारभ्रांतिनिविण्णा
देवा अदुव माणुसा। तेसिं तु इमं मग्गं आइक्खेज सुणेध मे, पठ्यते च तेसिंतु पडियो(सा)हेजा मग्गसारं सुणेह मे, साहितं प्रति अन्येषां साईति-कथितं सत् पडिसाहेजा, मार्गाणां सारः मार्गमारः। अणुपुब्वेण 'सिलोगो।।५०१।। कथं मार्गप्रतिपत्तिरेव तावद्भवति ?, उच्यते, अणुपुब्वेण महाघोरं, अणुपुञ्वेगनि 'माणुस्स खेत्त जाती० गाथा, अथवा 'चत्तारि परमंगाणि' सिलोगो, अथवा 'पढमिल्लुगाण उदये गाथाओ तिष्णि, एवं 'कम्मकावयाणुपुर्वि०'गाथा, जाव 'बारसविधे' दुरन्तत्वात् महाघोराः, अणुपुंमिः दुस्तरं, महापुरिसा सुघोरमपि तरंति, घोरसंग्रामप्रवेशवत् , कासवेण प्रवेदितं प्रदर्शितमित्यर्थः, जमादाय इतो पुवं जं आयाय इति यमनुचरित्वा, इत इति इतस्तीर्थादवाक्, अद्यतनाद्वा दिवसादिति, समुद्रेण तुल्यं समुद्रवत् , व्यवहरंतीति व्यवहारिणः चणिजः, यथा तेऽतिकान्ते काले समुद्रं 'अरिंसु' सिलोगो।।५०३।। अतरिष्यन् तरंति तरिष्यन्ति
॥२४२॥
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गम
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भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [११], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१०४-११५], मूलं [गाथा ४९७-५३४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-०२] "सूत्रकृत' जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
श्रावक- ताङ्गचूर्णिः ॥२४३||
प्रत सूत्रांक ||४९७५३४|| दीप अनुक्रम [४९७५३४]
च, नद्वत्सम्यग्मार्गमनुचर्य तीतद्धाए अर्थता जीवा संमारौषमतरिम संख्येयाः तरंति साम्प्रतं अर्णता नरिसंति णागतंति, तं 1001 पटकाया | मोचा, तमहं श्रुत्या भवदादीन श्रोतृन् प्रति वक्ष्यामि, जायंति जन्तवः, जम्बूसाम्यादीनां आमत्रणं हे जन्तवः!,तं सुणेह मे | चरितमग्गं आइक्खिस्मामि, नन्दन(ज्ञानदर्शन)मार्गावपि तदन्तर्गतावेव, जेसु संजमिजति ते इमे, तंजहा-'पुढवी जीवा पुढो सत्ता' सिलोगो ॥५०३।। पृथक इति प्रत्येकशरीरत्वात् , आउजीवा तहा अगणी पुढो मत्ता इति वर्तते, तेण रुक्खरगहणेणं भेदो दरिसिते 'अहावरे 'मिलोगो ।।५०४॥ अहावरे तसा पाणा, पनं छकाय आहिया, एतावना जीवकाए, न हि असम्भूतो | विद्यते जीवः १, कायाः एते, 'सबासिं अणुजुत्तीहिं' मिलोगो ।।५०५।। अनुरूपा युक्तिः, जहा 'पुढवीए णिक्खेवो परूवणा लकवणं परीमाणं । उवतोए सत्थे वेदणा य चवणा णियत्तीय ॥१॥' किंच-अम्बञ्जीवत्वं पार्थिवानां विद्रुमलवणोपलादयः स्वस्वाश्रयावस्थाः मचेतनाः, कुन:?, ममानजातीयांकुरमद्धावान् , अशोविकाराष्ट्रावत् , 'भूमिम्वयसामावियसम्भवतो दडुरं जलमुत्तं । अथवा मन्छो व मभावयोमसंभूतपातातो॥१॥ सात्मकं तोयं भौम, कुतः ?, समानजातीयस्व| भावसम्भवात् ददुखत् , अथवा अन्तरीक्ष्यमपि अभ्रादिविकारखभावसंभूतपातान् मन्स्यवत् , ग्रहणवाक्यं, इतरसंयोगात्तेजसां, तेज: | मात्मकं आहारोपादाना उद्घचनिशेपोलब्धेः हृद्विकारदर्शनाद् पुरुषवत् , ग्रहणवाक्यं, गतिमच्चाद् वायु वः प्रयत्नगतेः, यमादयं | सविक्रम इव पुमान् तीव्रमन्दम यान् गतिविशेपान् स्वेन महिम्ना अयतीति, वेगवचाच वृक्षादीन उन्मूलयति, इत्यतो गतिमच्चाद्वायु वः, मान्मकाश्च वनस्पतयः जन्मजराजीणमरणभद्भावा स्त्रीवत् , आह-नन्वयमन कान्तिको जातायाख्यायाः विपक्षेऽपि दर्शनात् , तद्यथा-जातं दधि जीर्ण वासः संजीवितं विषं मृतं कुसंभकमित्यादि, उच्यते, न, वनस्पती ममस्तलिङ्गोपलब्धः, दध्यादाव- ॥२४३॥
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आगम
(०२)
प्रत
सूत्रांक
||४९७
५३४||
दीप
अनुक्रम [४९७
५३४]
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र- २ (निर्युक्तिः+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [ ११ ], उद्देशक [-], निर्युक्तिः [१०७-११५], मूलं [गाथा ४९७-५३४] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र -[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
श्रीमूलकताङ्गचूर्णिः
॥२४४॥
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समस्तदर्शनादुपचारत: जातमिति, इतच सात्मका वनस्पतयः शतसंरोहणादाहारोपादानदौहृदसद्भावात् रोगचिकित्सासद्भावात् (अशोका) दौ सम्भवः कुष्माण्ड्यादीनां विशेषपक्षः, विशेषश्वासौ पक्षश्च विशेषपक्षः, कर्त्तव्यः, 'छिकापरोता छिकमेत्तसंकोअतो कुलिङ्गो च। आसय संचारातो जाण वल्लीविताणाई ॥१॥ सात्मिकाः स्पृष्टप्ररोदिकादयः स्पृष्टाकुंचनात्कीटवत् आश्रयाभिसंसर्पणाद्वल्ल्या दयः 'सम्मादीया सावप्पबोहसंकोयणादितोऽभिमता । बउलादयो य सहादिविसयकालोवलंभातो ॥१॥ शम्यादयः स्वापप्रबोध| संकोयणादिसद्भावात् शब्दादिविपयोपलम्भात् वकुलासार (शो) कादयो देवदत्तवत्, एवमाद्यामिखसानुरूपाभिः सुयुक्तिभिः एगिदिए | पडिलेहिय जधेति जीवहिंसोपरतिः कार्या स्वकामतः अज्झोवगमियाओवकमियाओ वेदणाओ भणितब्बाओ, तत्थ मणुस्स पंचें दियतिरियाण य दुविधा, सेसाणं उवकमिया, एवं मतिमं पडिलेहिता सव्वे अर्थातदुक्खा य सारीरमाणसं अथवा सव्वेसिं अणि अकंतं अभियं दुक्खं अत इत्यसात्कारणात् नवकेण भेदेन अहिंसणीया अहिंसका एवं खुणाणिणो सारं 'सिलोगों ||५०६ ॥ न हि ज्ञानी ज्ञानादर्थान्तरभूत इतिकृत्वाऽपदिश्यते एतं खुणाणिणो सारंति, कोऽर्थः १, एप हि ज्ञानस्य सारः जंण "हिंसति कंचणं कञ्चनमिति केनचदपि भेदेन, अहिंसा समयंति समता 'जह मम ण पियं दुक्खं०' गाथा, अथवा यथा हिंसिंतस्य दुःखमुत्पद्यते मम एवमभ्याख्यातस्यापि चोरियातो वाऽस्य दुःखमुत्पद्यते, एवमन्येषामपि इत्यतो अहिंसासमयं चेव, अथवा | दब्बओ खेत्तओ कालओ भावओ हिंसा भवति, एवं शेषान्यपि, एतावपि ज्ञानविषयः यदुत हिंसाद्याश्रयद्वारोपरतः क्षेत्रप्राणातिपातं तु प्रतीत्यापदिश्यते, 'उड्डमहं तिरियं च० ' सिलोगो || ५०७ || प्रज्ञापकं प्रतीत्य उडूं अहं तिरियं च पूर्ववत्, सवत्थ | विरति कुज्जा इहापि तावत् निव्वाणं भवति, कथं ?, अहिंसकोऽयं न हि हिंसक इव सर्वस्योद्वेजको भवति, उपशान्तवैरत्वाच्च न कस्य
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जीवलिंगानि
॥२४४॥
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आगम
(०२)
प्रत सूत्रांक
||४९७
५३४||
दीप
अनुक्रम
[४९७
५३४]
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र- २ (निर्युक्तिः+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [ ११ ], उद्देशक [ - ], निर्युक्ति: [ १०७ - ११५], मूलं [गाथा ४९७-५३४] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र - [०२], अंग सूत्र [०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
श्रीसूत्रताङ्गचूर्णिः
॥२४५॥
चिदपि विभेति, किंच-तणसंथारणिवण्णोऽवि मुणित्ररो भट्टरागमय दोसो । 'किम् ?, मोक्खो एवं निर्वाणं भवतीत्याख्यातं, 'पभू दोसे णिराकिचा० ' सिलोगो ॥ ५०८ ॥ प्रभवतीति प्रभुः वश्येन्द्रिय इत्यर्थः, न वा संयमावरणानां कर्मणां वशे वर्त्तते, | अथवा स्वतंत्रत्वात् जीव एव प्रभुः, शरीर हि परतन्त्रं, मोक्षमार्गे वाऽनुपलायितव्या प्रभुदोषाः क्रोधादयः, निरा इति पृष्ठतः कृत्वा, |ण विरुज्झेज केणड़ न विरुध्येत केनचिदिति, अपि पूर्वशत्रूणामपि, अपि हास्येनापि विरोधे विग्रहः धंन इत्यर्थः यद्वा यस्य प्रतिकूलं, माणसा वयसा चैवत्ति नवकेन भेदेन अन्तश इति यात्रजीवितान्तः उक्ता मूलगुणाः । उत्तरगुणप्रसिद्धये त्वपदिपते 'संबुडे य महापणे' सिलोगो ।। ५०९ ।। हिंसाद्याश्रवसंवृत्तः इंदियभावसंवुडो वा, महती प्रज्ञा यस्य स भवति महाप्रज्ञः, धीर्बुद्धिरित्यनर्थान्तरं, आहारउवधिसेजाउ याचितद्रव्यं एपणीयं च चरति गच्छति तं चर्यत इत्वेकोऽर्थः, एसणासमिते णिवं तिविधा एमणा-गवेसणा गणेसणा घासणा, एवं सेसा ओवि समिईओ, तत्राचाकर्म सर्व गुरुअनेपणादोषः आयश्चेति | तेन तन्निषेधार्थमपदिश्यते- 'भूतानि समारंभ 'सिलोगो ॥५१०॥ भूतानि तस्थावराणि, कथमिति ?, साधू निर्दिश्योपकल्पितं, | तारिलं तु ण गेव्हिज्ञा, एवं अधिपि इत्येवं सार्वमार्गप्रतिपन्नो भवति, किंच- 'प्रतिकम्मं ण से विज्ञा' ॥ ५११ ॥ एस धम्मे सीमतोति, बुसिमानिति संयमनान्, बुनिमंच ऊं किंचि अभिसंकेला सघसो तंण भत्तए यदिति आहार उबधि | सेजा अथवा यदिति यत्किचित् दोष, अभिसंकते पणवीसाए अण्णवर क्रिमेतं एसणिजं असणिजं ?, सर्वश इति, यद्यपि प्राणात्ययः स्यात्, इदाणिं वायासमिती 'ठाणाई' सिलोगो ॥ ११२ ॥ ठाणाणि संति सड्डीगं, श्रद्धावन्तं श्राद्विनः, गामेसु नगरेस वा जाव सचिवेसेसु वा सम्नदिट्ठीगं मिच्छादिट्टीण वा, तेहिं सड़ेहिं पुनि णाम पुच्छगतो, परेणाचि मिच्छादिट्ठीणा, मरुयस
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दोषनिरा करणादि
॥२४५॥
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आगम
(०२)
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [११], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१०४-११५], मूलं [गाथा ४९४-५३४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-[२] “सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
दानविचार
थास्यक- ॥२४६॥
प्रत सूत्रांक ॥४९७५३४|| दीप अनुक्रम [४९७५३४]
डेण तपणियादिसडेण वा, हट्ठाऽधो, जमिदो अम्हे चालणं भिक्षु वा तर्पयामो, तत्र कश्चिद्धर्म च मग्गद्वितो मग्गचिट्ठ एवं पुट्ठो अस्थि धम्मोति णवचि', 'अस्थि वा सिलोगो ॥ ५१३ ।। अथवा णत्थि पुणंति, स्याद्-अनुज्ञायां को दोपः प्रतिपेधे या?, उच्यते-'दाणताए जे सत्ता हस्मंति तसथावरा ॥ ५१४ ॥ तंजहा-तणणिस्सित्ता कट्टगोमयणिस्सिता संसेतया तसा थावरा य हुमते नेसि सिलोगो तेसिं सारक्खणहाए अस्थि पुण्णन्ति णो वदे मिच्छत्तथिरीकरणं च, तेणाहारेण परिवूढा करेस्संति असंयम अप्पाणं परं वा बहुहिं भावेंति तदनुज्ञातं भवति, पडिसेधेवि जेसि तं उपकपति अण्णं पाणं तधाविधं । तेसिं लाभतरायन्ति, तम्हा णस्थिति णो वदे ।। कंठथे, तन्त्र का प्रतिपत्तिः तुसिणीपहिं अच्छितव्वं, नियंघे चा प्रवीति-अम्हं आधाकम्मादिवायालीसदोसपडिसुद्धो पिंडो पसत्थो, जंच पुच्छसि किमत्रास्ति पुण्यमित्यत्रास्माकं अव्यापारः, कथं ,उभयथा दोपोपपत्तेः, कथं ?,'जे य दाणं पसंसंति, बधमिच्छंति पाणिणं जे यणं पडिसेधेति, वित्तिछेदं कति ते ॥५१६।। महाभट्टारकदृष्टान्तः, सर्वैः जलचरैः स्थलचरैश्च प्रतिरोधितः, अनुज्ञायामननुज्ञायां चोभयथापिदोपः, अथवा 'ग्रसत्येको मुश्चत्येको, द्वावेतौ नरकं गतो' एवमुभयथापि दोपं दृष्ट्वा 'दुहओ' सिलोगो ॥ ५१७ ॥ दुहतोचि जे पा भाप्तति अस्थि पस्थि वा पुणो ते भगवन्तः, अयं स्यस्सा एतीत्यायमं रज इति रजइतुं, रजसः आगमं हिचा णियाणंति ते इत्येवं वाक्यममितिरुक्ता, तद्ग्रहणात् सेसावि समितीओ घेपनि, एवं पा णियाणं भवतीति, भगवंतश्च 'णिवाणपरमा बुद्धा सिलोगो ॥५१॥ णिब्वाणं परमं जेसिं ते इमे णियाणपरमा एते बुद्धा अरहन्तः तच्छिष्या युद्धबोधिताः, परमं निर्माणमित्यतोऽनन्यतुल्यं, नास्य सांसारिकानि तानि तानि वेदनाप्रतीकाराणि निर्वाणानि, अनन्तभागेऽपि तिष्ठन्तीति दृष्टान्तः मोक्ष एव, नक्खत्ताण व चंदि
॥२४६॥
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भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [११], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१०७-११५], मूलं [गाथा ४९७-५३४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
प्रत सूत्रांक ||४९७५३४|| दीप अनुक्रम [४९७५३४]
श्रीयक-III मा न क्षयं यांतीति नक्षत्राणि तेभ्यः कान्त्या सौम्यत्वेन प्रमाणेन काशेन परमचन्द्रमा नक्षत्रग्रहतारकेभ्य, एवं संसारसुखेम्यो- II सदायसागचूर्णिः
ऽधिकं निर्वाणसुक्खमिति, तम्हा सदा जते दन्ते मोक्षमार्ग पडिवण्णे उत्तरगुणेहिं बद्धमाणेहि अच्छिण्णं संधणाए णिचाणं तत्वादि ॥२४७॥
संधेजा, स एवं मिच्छत्तासंधनया निर्वाणं संधेमाणः उभयत्रापि 'बुज्झमाणाण पाणाणं' सिलोगो ॥५१९।। संमारनदीश्रोतोमिरुह्यमानानां स्वकर्मोदयेन, ये उच्छुभं तीर्थकरत्वनाम तस्य कर्मण उदयात अक्खाति साधु तं दीव अक्खाति भगवानेव शोभनमाख्याति साधुराख्यातं, एतावता समणे वा माहणे वा जावऽत्थऽन्धुत्तरीए, दीपयतीति दीपः, द्विवा पिचति वा द्वीपः, स |तु आश्चासे प्रकाशे च, इहाश्वासदीपोऽधिकृतः, यस्मादाह-उद्यमानानां श्रोतमा दीयो ताणं सरणं गति पतिद्वा य भवति, एत- IN दाश्वासदीपं प्राप्य संसारिणां प्रतिष्ठा भवति, इतरथा हि संसारसागरे जन्ममृत्युजलोमिमिरुद्यमानः नैव प्रतिष्ठा लभते, जंव मग्गं अणुपालेंतस्स अट्ठविधं कम्म, प्रतिष्ठां गच्छन्ति, निष्ठामित्यर्थः, यथाऽऽख्याति तथाऽनु चरति सयं, अणुग्गहितबालविरतो जेय जीवो हिंडतो प्रतिष्टां लभते, एष प्रशस्तभावमार्गः इति लभ्यते, केरिसो गुण पमत्थभावमग्गगामी प्रतिष्ठा लभते ? कीदृशोवा भावाभासदीपो भवति ?, 'आयगुत्ते सदादंते' सिलोगो ॥५२०॥ आत्मनि आत्मसु वा गुप्त आत्मगुप्तः इंदियनोइंदियगुप्त इत्यर्थः, न तु यस्य गृहादीनि गुप्तादीनि, हिमादीनि श्रोतांसि छिन्नानि यस्य स भवति छिन्नसोते, छिनधोतस्त्वादेव निराश्रवः, जे धम्म सुद्धमक्खाति य एवं विधे आश्वासद्वीपे स्थितः प्रकाशद्वीपः अन्येषां धर्ममुपदिश्यति, प्रतिपूर्णमिदं सर्वसच्चानां हितं सुई। सर्वाविशेष्य निरुपध निर्वाहिकं मोक्षं नैयायिक इत्यतः प्रतिपूर्ण, अथवा सौर्दयादमध्यानादिभिर्धर्मकारणैः प्रतिपूर्णमिति, अनन्यतुल्यं अपेलिस, योऽयमनन्यसदृशो धर्मोपदेशः। तमेव अविजानंता ॥५२॥ तमिति तद्विविधं प्रदीपभृतं धर्म न युद्धा
॥२४॥
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आगम
(०२)
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [११], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१०७-११५], मूलं [गाथा ४९७-५३४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत' जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
बीजोदकनिषेधादि
प्रत सूत्रांक ||४९७५३४|| दीप अनुक्रम [४९७५३४]
श्रीसूत्रक- युद्धपादिनच युद्धमन्याश्चात्मानं बुद्धा मोति य मन्नता अण्णाणिणो अविरया तिणि तेसट्ठा पावाइयसया एवमसाकं मोक्षसमाजागचूर्णिः
धिर्भविष्यतीति, 'दूरतस्ते समाधिए', कथमिह लोकेऽपि तायत् अनेकाग्रत्वात्समाधि न लभते, कुतस्तहिं परमसमाधि, मोक्षं, ||२४८॥
तद्यथा-शाक्याः अवुद्धा बुद्धवादिनः सुखेन सुखमिच्छंति, इहलोकेऽपि तावद् ग्रामव्यापारैर्न सुखमास्वादयंति, कुतस्तहि परमसमाधिसुखमिति ?, उक्तं हि 'तत्रैकाथ्यं कुतो ध्यान, यत्राध्यानं यत्रारंभपरिग्रह मिति, इत्यतस्ते चतुर्विधाए भावणाए दूरतः, इतश्च दूरतः 'ते य बीयोदगं चेच' सिलोगो ॥ ५२२ ।। बीयाणि सचेतणाणि, शाल्यादीनां, सृतमिति चोदकं सचेतनमेव, हरिद्राकहोदकवत् , तमुद्दिश्य च कृतं उपासकादिमिः स्वयं च पाचयंति पक्षचीरिकादयः, तेषां हि पक्षे चारिका भवंति, अनुज्ञाते च सुपकं सुमृष्टमिति, जीवेषु च अजीवबुद्धयः अतच्चे तत्चबुद्वयः वराकास्तकारिणस्तवपिणश्च संवभक्तानि गणयंतोऽतीतानागतानि च प्रार्थयन्तः झाणं णाम मियायन्ति णाम परोक्षस्तवादिपु तेऽपि नाम यदि ध्यायंति, को हि नाम न ध्यानं ध्यायति 'ग्रामक्षेत्रगृहादीनां, गीयजनस्य च । यत्रप्रतिग्रहो दृष्टो, ध्यानं तत्र कुतः शुभम् ।।१।। इाते, सचित्तकम्मा य तेसिं आवसहा, विहारकुडीउशि, मांसं कल्पिक इत्यपदिश्यते, दासी उ कप्पया रीउचि, यथा वबरेण मांसप प्रत्याख्यानं अशक्नुवता तमनुप्रासयितुं
भगमिति संज्ञाकृत्वा भक्षितं, फिमसौ तद्भक्षयं निर्विशंको भवति ?, लूता.या शीतलिकाभिधानेनामिलप्यमाना किन्न मारयति ?, Pएवं तेषां न संज्ञान्तरि परिकल्पितास्ते आरंभा निर्माणाय भांति, न च वैराग्यफरा भवंति, येऽपि तावद्भिक्षाहारा भवंति तेऽपि
सविकारस्त्रीरूपसचित्तकर्मसु लेनेपु वसंति तेपामपि तावत्कुतो का ध्यान ?, किमंग पुनः कल्पिकारीापारयन्तः पचन चना। प्रवृत्ताः, ता तनुमेय वानुप्रेक्षमाणानां कुतो ध्यानं ?, न हि मोक्षमागस ध्यानस्य च शुद्धस्य अखेत्तपणा अजाणगा, अस
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आगम
(०२)
प्रत
सूत्रांक
||४९७
५३४||
दीप
अनुक्रम [४९७
५३४]
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र- २ (निर्युक्तिः+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [ ११ ], उद्देशक [ - ], निर्युक्ति: [ १०७ - ११५], मूलं [गाथा ४९७-५३४] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र -[०२] अंग सूत्र [०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि :
श्रीसूत्रकताङ्गचूर्णिः
॥२४९॥
माहिता णामासंवृत्ता, मनोज्ञेषु पानभोजनाच्छादनादिषु नित्याध्यवसिताः कोऽत्थ संघभत्तं करेज ? कोऽत्थ परिक्खारं देज वखाणि इत्येवं नित्यमेवात्तं ध्यायति 'जहा ढंका' सिलोगो ।। ५२३ ।। जहा ढंका य कंका य पिलजा जलचरपक्षजाति से मरगुकाः काकमंगुवत् शिखी च जलचराः, एवं एते हि न तृणाहाराः केवलोकाहारवत् ते नित्यकालमेव मच्छेसणं झियायंति निव| लास्तिष्टंति जलमम्झे उदगमक्खो मेन्ता या भून्मत्स्यादयो नक्ष्यंति उकसिष्यंते वा 'एवं तु समणा एगे' सिलोगो ॥ ५२४ ॥ | एवंपि नाम श्रवणा वयं इति ब्रुवन्तः एकेन सर्वे पचनादिषु आरंभेषु अशुभाध्यवसायेनैव वर्त्तमाना मिथ्यादष्टयः चरितअणारीया आहारं परपूजासत्कारांथ ध्यायंति सन्मार्गाजानकाः कुमार्गाश्रिताः मोक्षमिच्छति, अपि संसारसागर एव निमजंतो दृश्यन्ते 'जहा आसाविणी णावं'सिलोगो ॥ ५२६ ॥ आश्रवतीत्याश्राविनी - सदाश्रवा शतच्छिद्रा, नयति नीयते वाडतो, जाति य एव | जात्यन्धः पूर्वापरदक्षिणोत्तराणां दिशामार्गाणां गतेः गन्तव्यस्यानभिज्ञः एतावद्गतं एतावद् गन्तव्यं इच्छेजा पारमागंतु अंतरा एवं नदीमुखे पर्वते वा प्रतिभग्ने निमग्ने वा पोते अंतरा इति अप्राप्त एव पारं विसीदति, एप दृष्टान्तोऽयमथेपिनयः'एवं तु समणा एगे सिलोगो ॥५२७॥ एगे, पण सच्चे, अण्णाणमिच्छत्ततमपडलमोहजातपडिच्छन्ना, अणारियाणाम अणारियचरिता, सोतं कसिणावण्णा, श्रवतीति श्रोतः आश्राविनीनौ थानीय कुचरिक श्रोतमास्थाय कसिणमिति सम्पूर्ण कर्म ततो भवति, तदभावे तु न शेपाः आश्रवाः, यद्वाऽपि भवंति तथापि न सर्वा उत्तरप्रकृतयो वध्यन्ते न वा सम्पूर्णाः यस्मादुक्तं 'सम्मदिट्ठी जीवो', अथवा कसिणद्रव्य श्रोतः प्रापि वर्षासु वा नदीपूरः, एवं मिच्छत्तसहगता जोगा कसाया वा संपुष्णभावसोतं भवति, त एवं सोत मावण्णा आगंनारो महभयमिति संमारथ जातिजरामरणवहुलो, तजहा- गन्मातो गन्भं जम्मतो
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आर्चवर्जनादि
॥२४९॥
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आगम
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भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [११], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१०४-११५], मूलं [गाथा ४९४-५३४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[२] “सूत्रकृत' जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
उत्सर्गापवादादि
श्रीसत्रक- ताजचूर्णि: ||२५०॥
प्रत सूत्रांक ||४९७५३४|| दीप अनुक्रम [४९७५३४]
जम्मं मारओ मार दुक्खओ दुक्खं, एवं भवसहस्साई पर्यापारित बहून्यपि, पसत्थं चेव पसत्थभावमग्गो वणिज्जमाणो, पुर्व | बुत्तं किंचि अभिसंकिज्ज सव्वसोतं ण भोत्तए एस उस्सग्गमग्गे इत्यादि, अतिप्रसक् लक्षणं निवार्यते, सर्वस्योत्सगर्गापवादः, यथा चोत्सर्गः काश्यपेन प्रणीतः तथाऽपवाद इत्यतोऽपवादसूत्र प्रारम्यते, प्रत्ययश्च शिष्याणां भविष्यति यथाऽस्त्यपवादोऽपीति तेन तमाचरंतो नामाचारमात्मानं मंस्यते, तच्च शास्त्रमेव न भवति यत्रोत्सर्गापवादौ न स्तः तेनापदिश्यते-'इमंच धम्ममादाय'सिलोगो ।।५२८।। धर्ममादाय धर्म फलं च तीर्थकरः काश्यपः स एवं भगवान् किं प्रवेदितवान् ?-कुजा भिक्खू गिलाणस्स पूर्ववत् , किंच-संखाय पेसलं धम्म संख्यायेति ज्ञात्वा, पेसलं इति सम्पूर्ण, द्रव्यपेसलं धम्मं यद् द्विभेदं सुन्दरं मांसं, भावपेशलस्तु ज्ञानदयादिभिः सर्वैर्धर्मकारणः सम्पूर्णो धर्म एव, तं ज्ञात्वा दृष्टिमानिति सम्यग्दृष्टिः, संख्याग्रहणा धर्मग्रहणा(ज्ञानं धर्मग्रहणाचारित्र) दृष्टिग्रहणात्सम्यग्दर्शनं, एवं त्रीण्यपि सम्यग्दर्शनशानचारित्राणि गृहीतानि भवति, तरे सोतं महाघोरं मार्ग एवानुवर्तते, तराहि सोतं महाघोरं, श्रवन्तीति श्रोत्रं, द्रव्ये भावे च जातिजरामरणाप्रियसंवासादिमिर्महाघोरं भावश्रोतः संसार अत्तत्ताएवित्ति अत्ताणं तरतो परिचएजासि तमेव तरति 'विरते गामधम्मेहिं' सिलोगो ॥ ५२९।। ग्रामधर्माः शब्दादयो, जे केइ जगती जगति जायत इति जगत् तस्मिन् जगति विद्यन्ते ये, जायन्त इति वा जगा:-जन्तवः, तेसिं अतुवमाणेण तेषां आत्मोपमानेन-आत्मौपम्येन, कोऽर्थः ? 'जह मम ण पियं दुक्खं० धीमं कुब्वं परिवए'त्ति संयमचारियं भवति 'अतिमाणं च सिलोगो ॥५३०॥ अथवा संयमवीरियस्स इमे विग्धकरा भवंति, तंजहा-अतिकोधो अतिमाणो अतिमाया अतिलोभो इत्यतः अतिमानं च मायां च, अतिक्राम्यते येन चारित्रं सोऽतिमाणं, अप्रशस्त इत्यर्थः, प्रशस्तोऽपि न कार्यः, किंतु तरिक
SARAN
॥२५०||
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भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [११], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१०४-११५], मूलं [गाथा ४९७-५३४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
थीत्रक- ताङ्गचूर्णिः ॥२५॥
कपायवर्जनादि
प्रत सूत्रांक ॥४९७५३४|| दीप अनुक्रम [४९७५३४]
यार्थमेव क्रियते, रजककूपखातकदृष्टान्तसामर्थ्यात् , यथा रजको मलदिग्धानि वखाणि प्रक्षालयन् शुख्यर्थ अन्यदपि मल औष-10 धादिकं समादत्ते, एवं साधुरपि, कूपेऽप्येवं, न च नामावीतरागस मानादयो नोत्पद्यन्ते, ते त्वप्रशस्ताः, तेवि नरेण न कार्याः, एवं शेषा अपीति । दुविधाए परिणाए परिजाणाहि, किंध-ये केचित् क्रोधमानमायालोभायन्यदपि दोपजातं सबमेतं निराकिच्चा, सव्वं निरवशेष तं, एतदिति यदुदिष्ट, निरमिति स्पृष्ट, णियाणं अच्छिण्णसंधणाए संधए, किंच-'संधए साधुधम्म वा' सिलोगो ।।५३१।। दमविहो चरित्तधम्मो णाणदंसणचरित्ताणि वा तं अच्छिन्नसंधणाए, णाणे अपुब्बगहणं पुब्बाधीतं च गुणाति, दसणे हिस्संकितादि, चरिते अखंडितमूलगुणो, पठ्यते च-'सबहे साधुधम्मंच' पावधम्मो अण्णाणअविरतिमिच्छताणि, अथवा पावाणं धम्मो, पापा मिथ्यादृष्टयः सर्वे गृहिणोऽन्यतीथिकाय, तेसि धम्म-सभावं, निराकुर्यादिति पृष्ठतः कुर्यात् , | तत्केन कुर्यात् को चा कुर्यादिति ?, उच्यते, उवधानवीरिए भिक्खू उपधानवीय नाम तपोवीर्य स उपधानवीर्यवान् भिक्खु । कोचं माणं न पत्थये न क्रुध्येत न मायेत, न क्रोमिच्छेदित्यर्थः, अक्रोधं तु प्रार्थयेत् , एवं शेषेवपि, स्वात् किमेवं वर्द्धमामानवामी एतन्मार्गसुपदिष्टवान् उतान्येऽपि तीर्थकराः?, उच्यते, 'जे य बुद्धा अतिकता सिलोगो ॥५३२।। अतिकंता अतीतद्धाए अर्णता, एतन्मार्गमुपादिक्ष्यंत, आचार्या वा मोक्षमिताः, साम्प्रतं पचदशसु कर्मभूमीषु संख्येया, अणागतद्धाए जे य बुद्धा अणागता संतित्ति संति पतिवाणं गमनं शान्तिश्चारित्रमार्ग इत्यर्थः, एषा शान्तिः तेषां प्रतिष्ठा नामाधारः आश्रय इत्यर्थः | प्रतिष्ठानं प्रतिष्ठा निर्वाणं वा शान्तिः तेषां प्रतिष्ठानि, को दृष्टान्तः ?-भूयाणं जगई जहा जगतीनाम पृथिवी, यथा सर्वेषां। | स्थावरजङ्गमानां जगती प्रतिष्ठान तथा सर्वतीर्थकराणामपि एष एव शान्तिमार्गः प्रतिष्ठानं प्रतिष्ठा, 'गहणं व तमावणं'
AN
॥२५॥
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भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [११], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१०७-११५], मूलं [गाथा ४९७-५३४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
PAR
भावभेदादि समवसरणानि
॥२५२॥
प्रत सूत्रांक ॥४९७५३४|| दीप अनुक्रम [४९७५३४]
श्रीसत्रक- सिलोगो ॥५३३।। अथ पुनस्तं ब्रतानि आपण चारित्रमार्गप्रयातमित्यर्थः, पठ्यते-अथेनं भेदमावण्णं भावभेदो हि संयम ताङ्गचूर्णिः
एव, कर्माणि मिनतीति भेदः फासा सीतउसिणदंशमशकादयः उच्चावचा अनेकप्रकाराः परीपहोपसर्गाः स्पृशेत् ण तेहिं १२ अ०
विणिहम्मेजा ण तेहिं उदिण्योहिवि गाणदंसणचरित्तेसु जत्ताओ मग्गाओ विणिहण्योजा, पुवीए जिणेता संयमवीरियं उपादे| जासित्ति, जहा ते गुरुगावि उदिण्णा लहुगा भवन्ति, दृष्टान्तः--आभीरयुवत्ति, जात मेत्तं वच्छगं दुणि वेलाए उक्खिविऊण |णिक्खामेति, पीतं चैनं पुनः प्रवेशयति, तमेव क्रमशो बर्द्धमानं अहरहर्जयं कुर्वता जाब चउहायगंपि उक्खिाति, एप दृष्टान्तोऽयमर्थोपनयः-एवं साधुरपि सन्मार्गात् क्रमशो जयति उदीर्णैरपि परीपहन विहन्यते, वानेण व महागिरिरिति मन्दर संवुडे
सि महापण्णे' सिलोगो ॥५३४॥ स एवं संवरसंवृतः प्रधानप्रज्ञः विस्तीर्णप्रज्ञो वा, दधाति बुद्ध्यादीन गुणानिति बुद्धा, पाठाHAIन्तर धीरं, द एसणं चरेआसित्ति दचेसणं चरे, अथवा दत्तमेपणीयं च यश्चरति स भवति दलेपणचरः, णिव्वुडे कालमानाखो शान्तसमितो णिम्खुडः शीतभूत इत्यर्थः, कालं कांक्षतीति कालकंखी, मरणकालमित्यर्थः, कोऽर्थः?-तापदनेन सन्मार्गेण
अविश्राम गन्तव्यं यावन्मरणकालः, एवं केनलिणो मतंति, जं तुमे अजजंबू पुच्छिते 'कतरे मग्गे' तदेतस्य केवलिनो मार्गाHAIमिधानं कथितमनन्तरमाख्यातमिति ।। इति मार्गाभययनं ।।
समोसरणंति अज्झयणस्स चत्तारि अणुभोगदारा, अधियारो किरियावादिमादीहिं चउहिं समोसरणेहि, णामणिकपणे |णिक्खेवो गाथा 'समोसरणंमिवि छ' गाथा ॥११६॥ वहरि दब्बसमोमरणं सम्यक् समस्तं वा अवसरणं, तंतिविधं। सचित्तं दुपदादि यत्रैकत्र बहबो द्विपदाः वा वह्वो मनुष्या समवसरंति तं सचित्तं दमसमोसरणं दुपदसमोरणं, जहा साधुसमो
॥२५२॥
अस्य पृष्ठे द्वादशमं अध्ययनं आरभ्यते
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आगम
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भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१२], उद्देशक [-], नियुक्ति: [११६-१२१], मूलं [गाथा ५३५-५५६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
प्रत
श्रीसूत्रक- सूत्रांक |
वाचूणिः ॥५३५
॥२५३|| ५५६|| दीप अनुक्रम [५३५५५६]
सरणं, चतुष्पदानां निर्वाणादिपु गयादीनां समोसरणं, अपदानां नास्ति स्वय समोसरणं, गत्यभावात् , सहजानां वा स्वयमपि भवति त्रिषष्ट्य
धिक त्रिशवृक्षादीनां समोसरणं, अचेतनानां अभ्रादीनां, खेचसमोसरणं जंमि खेत्ते समोमरंति द्रव्याणि, जहा साधुणो आणंदपुरे समो
तपाखंडाः सरंति, कालसमोसरणं वैसाहमासे जत्ताए समोसरंति, वासासु वा जत्थ समोसरंति, तहा पक्षिणो दिवाचरा वन-17 खंडमासाद्य समवसरंति । 'भावसमोसरणं पुणगाथा ॥११७|| तिण्णि तिमट्ठा पावादियसयाणि णिग्गंथे मोत्तूण मिच्छाII दिविणोत्तिकाऊण उदइए भावे समोसरन्ति, इंदियादि पडुच खोरसमिए भावे समोमरंति, पारिणामि जीव, एतेसु चेव तीसु|| भावेसु तेसिं सन्निवातिओ भावो जोएतच्यो, सम्मदिट्ठीकिरियावादी तु छसुवि भावेसु, उदइए भाये अण्णाणमियत्तबासु अट्टसुचि कम्मगतीसु समोसरंति, एवं चरित्ताचरित्ती य जोएयब्धा, उपसमिरवि भावे समोसरंति, उपसामगं पड्डुच उपसममङ्गीकृत्य, यदुक्तं भवति-अस्मिन्नेव भंगद्वये भवंति, खओवममिएवि भावे समोमरंति अट्ठारसविधे खओवयमिए भावे, तद्यथा-ज्ञानाज्ञानदर्शनदानलब्ध्यादयश्चतुस्लित्रिपश्चभेदाः सम्यक्त्वचारित्रसंयमासंयमाच, णाणं चउन्धिई-मतिसुतओहिमणपजवाणि, अण्णाणं मतिअण्णाणं सुतअण्णाणं विभंगणाणं, ज्ञानाज्ञानमित्यत्राज्ञानमिति यदुक्तं तदेकभावापकर्षमङ्गीकृत्य, यद्वा सामान्येऽन्ये च, केवलिनोवा | वदति, दरिसणं तिविधं-चक्खु अचक्षु अवधिसणमिति, लब्धिः पञ्चविधा-दानलाभभोगोपभोगरीरियलद्धी इति, संमत्तं चरितं | संघमासंयम इत्येतेऽष्टादश क्षायोपशमिका भावा भयंति, णवविध खाइगे भावे समोसरंति, तद्यथा-'ज्ञानदर्शनलाभभोगोपभोगगीर्याणि च,णाण-केवलणाणं, दंगणं केवलदंगणं, दाणलाभभोगोपभोगवीर्यमित्येतानि सम्यक्त्यचारित्रे च नब क्षायिका भाषा भवन्ति, परिणामिएऽवि अणातियपरिणामियगे भावे समोमरंति, एवं सन्निपातिगेवि सण्णिकासो ओइयिकादयो द्विकादिधारणिकाः। अथवा २५३३॥
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भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१२], उद्देशक [-], नियुक्ति: [११६-१२१], मूलं [गाथा ५३५-५५६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[२] “सूत्रकृत' जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
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सूत्रांक | ॥५३५५५६|| दीप अनुक्रम [५३५५५६]
श्रीरचक-TAN|| भावसमोसरणं चतुर्विध, तंजहा-किरियावादी अकिरियावादी अणाणीयबादि वेणइवादी, 'अस्थित्ति किरियावादी' गाथा
त्रिषष्ट्य
धिक त्रिशतामणिः ॥११७॥ तत्थ किरियावादी अत्थी आयादि जाव सुचिण्णाणं कम्माणं फलविवागो, तत्थावि ते मिच्छादिट्ठी चेत्र, जैन शासन ॥२५४।
तपाखंडा: | अनवगाढा, तद्विधर्मवादिनो अकिरियावादिणो, तंजहा--पत्थि मातादि जाव णो सुचिण्णाणं कम्माणं सुचिण्णा फल विवागा
भयंति, अणाणीवादिति किं णाणेण पढितेण? सीले उअमितव्यं, ज्ञानस्य हि अयमेव सारः, जं शीलसंवरः, सीलेन हि तपसाच | स्वर्गमोक्षे लभ्येते, वेणइयवादिणो भणति-ण कस्सवि पासंडिणोऽस्स गिहत्थस्स वा जिंदा कायया, सबस्सेव विणीयविणयेण
होयव्यं । असियसर्थ किरियाण'गाथा ॥११९॥ तंजहा-'जत्थि ण णिचोण कुणा कण वेदेह णस्थिणिवाणं सांख्य|| वैशपिका ईश्वरकारणादि अकिरियवादी, चउरासीइ तचणिगादि, क्षणभंगवादित्वातु क्षणवादिणः, अण्णाणीयबादीणि सत्चट्ठी, ते तु मृगचारिकाद्या, वेणइयवादीण छत्तीसा दाणामपाणामादिप्रवज्या, तेसि मताणुमतेणं पण्णवणा वण्णिता इहज्झयणे। सम्भावणिच्छयत्थं समोसरणं आहुतणंति ॥१२०॥ तेषां क्रियावाद्यादीनां यद्यस्प मतं यस्यानुमतं तेपा. समवायेन त्रीणि त्रिपष्टानि प्रायादुकशतानि भवति, तद्यथा-आस्तिकमतमात्माद्या नित्यानित्यात्मिका नव सं(भवति । कालनियतिखभावेश्वरात्मकृतितः स्वपरसंस्थाः ॥१॥ १८०, एवं असीतं किरियावादिसतं, एएसु पदेसु णवित्ति नव, जीव अजीवा आसव" बंधो पुण्णं तहेव पार्वति । संवरणिजरमोक्खा सम्भूतपदा णव हयंति ॥ १ ॥ इमो सो चारणोवाओ-अस्थि जीवः स्वतो. नित्यः कालतः १, अस्थि जीयो सतो अणिचो कालतो २, अस्थि जीवो परतो निचो कालओ ३, अस्थि जीवो परतो अणिचो कालओ४ अस्थि जीयो सतो णिचो णियतितो ५, एवं णियतितो स्वभावतो ईश्वरतः आत्मनः एते पंच चउका घीसं, एवं अजीवादिसुवि ॥२५४॥
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आगम
(०२)
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१२], उद्देशक [-], नियुक्ति: [११६-१२१], मूलं [गाथा ५३५-१५६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत' जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
प्रत
सूत्रांक
पातपाखंडाः
॥५३५५५६||
दीप अनुक्रम [५३५५५६]
श्रीयत्रक-101वीसं वीसं, एताओणव वीसाओ आसीतं किरियावादिसतें भवति । इदाणिं अकिरियावादि-कालयदृच्छानियतिसभावेश्वरात्म-10 त्रिपष्ट्यबागचूर्णिः
नश्चतुरशीतिः। नास्तिकवादिगणमतं न संति सप्त स्वपरसंस्थाः ॥१शा इमेनोपायेन-णस्थि जीवो सतो कालओ १, त्थि जीवोधिक त्रिश||२५५॥
A परतो कालओ २, एवं यदृच्छाएचि दो २ णियतीए वि दो २ इस्सरतोवि दो २ खभावतोऽपि दो २, सर्वेऽवि बारम, जीगादिसु मा
सत्तसु गुणिता चतुरसीति भवंति । इदाणि अण्णाणिय-अज्ञानिकवादिमतं नव जीवादीन् सदादिसप्तविधान् । भावोत्पत्तिः सदसत् द्वेधाज्याच्यं च को वेत्ति ? ॥१॥ ६७, इमे सनविविधाणा-सन् जीयः को वेत्ति ? किं वाणातेण? १, असन् जीवः को वेत्ति ? किं |
वा तेण णातेण?२ सदमन् जीवः को वेति किंवा तेण णातेण ? ३ अवचनीयो जीवः को वेत्ति किंवा तेण णातेण १४ एवं | 2 सत् अवचनीयः ५ असत् अपचनीयः ६ सदमत् अवचनीयः ७, अजीवेवि ७, आथवेवि ७ संबंधे ७ पुण्णेवि ७ पानेवि
७ संवरेचि ७ णिज्ञराएचि ७ मोक्खेवि ७, एवमेते सत्त णवगा सत्तट्ठी, इमेहिं संजुत्ता सत्तसही हवंति, तंजहा-सन्ती भाशे त्पत्ति को वेत्ति ? किं वा ताए पाताए ? असती१ भावोत्पत्ति को वेति ? किंवा ताए णाताए १२ सदसती भावोत्पतिः को | वेति ? किं वा ताए णाताए ? ३ अवचनीया भावोत्पत्तिः को वेत्ति ? किं वा ताए णाताए? ४, उक्ता अज्ञानिकाः। इदाणि चैनविको-पैनयिकमतं विनयवेतोबाकायदानतः कार्यः। सुरनृपतियतिज्ञातिनृस्थविराधमातृपितृपु मदा॥१॥ सुराणां विनयः कायव्यो, तंजहा-मणेणं वायाए कारणं दाणेणं, एवं रायाणं ४ जतीणं ४ णाणी(ती)णं ४ थेराणं ४ किवणाणं ४ मातुः ४ पितुः ४, | एवमेते अट्ठ चउक्का बत्तीसं, सव्वेवि मेलिया तिणि तिसट्ठा पावादिगसता भवंति, एतेसिं भगवता गणधरेहि य सम्भावतो निश्चयार्थ इहाध्ययनेऽपदिश्यते, अत एवाध्ययनं समवसरणमित्यपदिश्यते, ते पुग तिणि तिसट्ठा पावादिगसता इमेसु दोसु ठाणेसु ॥२५५॥
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आगम
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भाग-2 “सूत्रकृत" - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१२], उद्देशक [-], नियुक्ति: [११६-१२१], मूलं [गाथा ५३५-५५६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
त्रिषष्टव. धिक त्रिशतपाखंडाः
प्रत सूत्रांक ||
श्रीषक
वागवूर्णिः ॥५३५
॥२५६॥ ५५६|| दीप अनुक्रम [५३५
समोसराविअंति, नंजहा-संमयादे य मिच्छावादे य, तत्थ गाथा 'सम्मदिडी किरियावादी' गाथा ।। १२१॥ तत्र किरियावादितेऽपि सति सम्मदिट्ठीणो चेव एगे सम्मदिट्ठीवादी, अबसेसा चत्तारिवि समोसरणा मिच्छावादियो, अण्णागी अविरता परस्परं विरुष्टयः, तेण मोत्तण अकिरियावादं संमावादं लघृण विरतिं च अप्पमादो कायव्यो जहा कुदसणेहि ण छलिजसि, तेण धम्मे भावसमाधीए भावमग्गे अ घडितानमिति, णामणिक्खेको गतो, सुनाणुगमे सुत्तं, अभिसंबंधो अज्झयणं अज्झयणेण | तेण णिब्युडेण पसत्यभावमग्गो आमरणन्ताए अणुपालेतब्बो, संसग्गे अप्पा भावेतन्यो, कुमग्गसिता य जाणिउं पडिहणेतव्या, | अवो चचारि समोसरणाणि, अथवा णामणिफण्णे चुत्तानि समोसरणाणि इमानीति वक्ष्यमाणाणि, प्रवदंतीति प्रवादिनो ते इमेत्ति, 'चत्तारि समोसरणागि सिलोगो ॥५३५।। चत्तारित्ति संखा परवादिपडिसेधत्थं अंते चउण्ह गहणं, समवसरंति जेसु दरिसणाणि दिट्टीओ या ताणि समोसरणाणि, प्रवदंतीति प्रावादिका, पि,पिधं वदंति पुढो वदंति, तंजहा-किरियं अकिरियं विणयं अ|पणाणमासु चउत्थमेव, तत्थ किरियावादीणं अत्थित्ते सति केसिंचि श्यायाकतन्दुलमात्रः केसिंचि हिययाधिहाणो पदी| वसिहो धम्मो(वमोजीबो)किरियावादी कम्म कम्नफलं च अस्थिति भणति, अकिरियावादीणं केइ णस्थि किरिया फलं त्वस्ति, | केसिंचि फलमविणस्थि, ते तु जहा पंचमहाभूतिया चउभूतिया खंधमेत्तिया सुण्णवादिणो लोगाइतिगा य वादि अकिरियावादिणो, अण्णाणिया भणंति-जे किर णरए जाणंति ते चेव तत्थुववअंति, किं णाणेणं तवेणं वत्ति. तेसु मिगचारियादयो अडवीए पुष्फफलभक्विणो इचादि अण्णाणिया, बेणहया तु आदा)णामपणामादिया कुपासंडा, तत्थ पुत्र-'अण्णाणिया ताव कुसलावि सत्ता' वृत्तं ।।५३६॥ अकुशला एव धम्मोवायरस, असंधुता गामण लोइयपरिक्खगाणं सम्मता, सब्यसत्थवाहिरा मुका, विति
५५६]
॥२५६॥
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आगम
(०२)
चूर्णिः
प्रत सूत्रांक ||५३५५५६||
दीप अनुक्रम [५३५५५६]
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१२], उद्देशक [-], नियुक्ति: [११६-१२१], मूलं [गाथा ५३५-१५६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
VAN
|तिगिछिएणवि वितिगिच्छा गाम मीमांसा, तिष्णनि तीर्णा, णस्थिति तेसि वितिगिच्छा अण्णाणितणेणं, अथवा ससमएवि | विचिकिश्रीसूत्रक
ताव केसिचि वितिगिंछा उप्पञ्जति, किंतर्हि परसमये, तं कतरेण उवदेसेण करेस्संति विचिकित्साऽभावं ?, जोऽवि तेसिं तित्थगरो ॥२५७॥ तस्सवि सुतं, ण अत्थविचारणा, अथ अस्थि समयहाणीत, एवं अकोविता, ण तं सयं अकोविदा, अकोविदानामेव कथयंति,
| को हि णाम विपश्चित् तान् अब्रवीत् जहा अण्णाणमेव सेयं अबद्धं कमंच, अणाणुवीइत्ति अपूर्वापरतो विचिन्त्य पत्किचिदेवा
सर्वज्ञप्रणीतत्वात् बालवत् मुसं वदंति, शाक्या अधिप्रायशः अज्ञानिका एव तेपामज्ञानोपचित्तं कर्म नास्ति, जेसिं च बालमनInil सुत्ता अकम्मबद्धगा ते सन एव अण्णाणिया, सत्थधम्मता सा तेसिं जह चेव ठितेल्लगा तह चेव उवदिसंति, जहा अण्णाणेणं
| बंधो पत्थि, तह चेव ताणि सत्थाणि णिबद्धवाणि 'स' (५३७) सव्वं मोसं इति चिंतयंता असाधु साधुत्ति उदाहरंता सम्बंपि |
कताइ मोसं होजत्ति, एवं ते चिंतयंता सच्चपि ण जाणंति, कथं ?, साधू दळूण ण साधुति भणंति, कयाइ सो साधु होज कताइ | असाधू, कयाइ चाउब्बओ कयाइ पावंचितो, चोरो वा कदाचि चोर स्थात् कदाचिदचौरः, एवं स्त्रीपुरुपेयपि वैक्रियः स्यात् | वैसकरणा वा योजइतव्यं, गवादिपु च यथासम्भवावस्थासु पुरुपादिपु च इत्येवं सर्वाभिशंकितत्वात् तदसाधुदर्शनं साधुति ब्रुवते, साधुदर्शनं चासाविति, अथवा सचं मुसंति इति भासयंता, जो जिणपण्णत्ती मग्गो समाधिमग्गो तमेते अण्णाणिया सचमपि संतं असचंति भणंति, अथवा सचो संयमो तं सत्चदसप्पगारा य असचं भणंति असंयममित्यर्थः, जहा ते किल भणंति तहा सच्चं भणंति, अणुवातो सचं, तं च कुर्दसणमण्णाणवादं साधुंति भणंति, असाधू अण्णाणियं साधूत्ति भणंति, तच्छासनप्रतिपन्नांश्च असाधून साधून त्रुवते, वुत्ता अण्णाणिया । इदाणी घेणइयवादि, जेमे जणा वेणइया अणेगे, पुट्टावि भावं विणियं- AIR५७॥
नजान
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आगम
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भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१२], उद्देशक [-], नियुक्ति: [११६-१२१], मूलं [गाथा ५३५-५५६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
प्रत
श्रीसत्रक- सूत्रांक | तागचूर्णिः ॥५३५- ॥२५॥ ५५६|| दीप अनुक्रम [५३५
सु णामा जेत्ति अणिदिवणिदेसे, जणा इति पृथग्जनाः, विनये नियुक्ताः चैनयिकाः, अनेगे इति बत्तीसं वेणइयवादिभेदा, ते पुडा परेण अपिशब्दात् अपुट्ठावि विणयिंसु भावंति भावो नाम यथार्थोपलंभ विणयिंसु, तथा वा स्यात् अन्यथा बा, एवं ताव तेषां सत्यं भविष्यति, अथवा पुट्ठा वा-कीदृशो वा धर्मः ? इत्युक्ता बुबते-सर्वथा परिगण्यमानः परीक्ष्यमाणः मीमांस्यमानो वा अयमसाकं धर्मः, विणयमूलेण आरुहयधम्मगेण जणो णाधियो, कहं ?, जेण वयमपि विणयमूलमेव धम्मं पण्णवेमो, कथंचित्ते, येन वयं सर्वाविरोधेन सर्वविनयविनीताः मित्रारिसमाः, सर्वप्रबजितानां सर्वदेवानां च पुण्यं सत्कुर्मः, न च यथाऽन्ये वादिनः परस्परविरुद्धास्तथा वयमपि, अम्हं पुण पव्वइए समाणे जं जहा पासति इंदं वा खंदं या जाव उच्चं पासति उचं पणाम करेति णीयं पासति णीयं पणामं करेति, उच्चमिति स्थानतः ऐश्वर्यतः तमुच्चं रायाणं अण्णतरं वाइस्सरं दठूर्ण प्रणाममात्रं कुर्मः, णीयस्स तु साणस्स वा पाणस्स चा णीयं पणाम करेति, भृमितलगत्तेण सिरसा प्रहाः प्रणमामहे, त.एवं तालिशाः 'अणोपसंखा इति ते उदाहु'वृत्तं (५३८) संखा इति णाणं, संखाए समीवे उपसंखा, अणउपसंखा अज्ञाना इत्यर्थः, अनोपसंखयात एवमाहुः उदाहरेतस्स उदाहुः अढे स ओभासति, अर्थो नाम सत्यवचनार्थः, ओभासति उद्धवित्ति प्रगासति, एवं चेतसि नः प्रकाशयतीत्यर्थः, एवं च समीक्ष्यमाणं सत्यवचनं स्वाद् , अन्यथा तु तथा चान्यथा च भवति, अथवा अढेस नो भासतित्ति अर्थो नाम धर्मोऽर्थ एवं चेतसि नः प्रभासयति एवं च प्रकाशयति एवं दृश्यते युज्यमानः, आईतधर्मो ण, किल ज्ञानभासितेण तु सेसेहिं अण्णाणियकिरियावादिहिं घडते, कह?, जेण ते जात्यादिरागद्वेषामिभूता तेण ण तुल्लोऽवभासति, भणिता विणईया। इदाणि अकिरियवादीदरिसणं 'लवावसकी य अणागतेहिं लवमिति कर्म, वयं हि लवात् कर्मबन्धात् अवसकामो-फिट्ठामो
५५६]
॥२५८॥
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भाग-2 “सूत्रकृत" - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१२], उद्देशक [-], नियुक्ति: [११६-१२१], मूलं [गाथा ५३५-५५६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत' जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
प्रत
सूत्रांक
बन्धोपचारादि
पीसूत्रक
चूर्णिः २५९।
॥५३५५५६|| दीप अनुक्रम [५३५
अवमराम इत्यर्थः, संववहारबंधेणावि ण यज्झामो, किं पुण णिच्छयतो, उपचारमात्रं तु तयथा 'बद्धा मुक्ताश्च कथ्यन्ते, मुष्टि- ग्रन्थिकचोतकाः । न चान्ये द्रव्यतः संति, मुष्टिग्रन्थिकपोतकाः ॥१॥ ते हि वातूलिकाः शाक्यादयः आत्मानमेव नेच्छंति, किं| पुनम्तद्धं इति, अणागतेत्ति कालग्रहणात अनागतेऽपि काले न बध्यन्ते, चग्रहणाचातिकान्तवर्तमानयोः, अथवा विसक्कित्ति | क्षणलबमुहूर्तअहोरत्तपक्षमासर्वयनसंवत्सरादिलक्षणे काले. सर्वत्र कर्मबन्धादवशक्नुमः, लवः कालः, वर्तमानादवसक्कामो, एवम
नागतादपि, एतदर्शनः मिच्छत्तकिरियामाहंसु-आख्यातवंतः, के ते?, अकिरियओ आता जेसिं ते इमे अकिरियाता, ते नापि | कारकमिच्छंति नापि करणानि, येपामपि करणानि कितीणि आत्माकर्ता, तेऽपि अक्रियावादिनः, उक्तं हि-'का कंटकानां प्रका| रोति तैक्ष्ण्यं, विचित्रभावं मृगपक्षिणां वा । स्वभावतः सर्वमिदं प्रवृत्तं, न कामचारात् स्ववशो हि लोकः ॥१।। तेसामुत्तरं-गंता च नास्ति कश्चिद् गतयः पड़ बुद्धशासनप्रोक्ताः । गम्यत इति च गतिः स्यात् श्रुतिः कथं शोभना बह्वी॥१॥ क्रिया कर्म कतं न वास्ति, असति कारके कुतः कर्म ?'कथं च पद् गतयः, अंतराभावे वा, यथाऽस्माकं 'विग्रहगती कर्मयोगः' एवं | | तेषामपि अन्तराभावः, एवं ते पुट्ठा वा अपुट्ठा वा सम्मिस्सभावं अवते, अवंधानि च कर्माणि पण्णवंति, एवं जातकशतान्युपदिशति बुदस्य, तानि शून्यत्वे न युज्यंते, तथा--'मातापितरौ हत्वा बुद्धशरीरे च रुधिरमुत्याद्य । अर्हद्वधं च कृत्वा स्तूपं मिधा च पश्चैते ॥१॥ आविहि नरकं याति' एतच न युजते, जातिजरामरणानि च न स्युः, उत्तमाधममध्यमत्वं न स्यात्, मनुप्यतिर्यग्योनीनां स्वयमेव कर्माविपाको, जीवस कत्तृत्व कर्मावद्धं च कथयति, चौरादीनां च कर्मणामिहैव विपाकं दृष्ट्वा | सामान्यतोटटेनानुमीयते कुतकर्ताऽयमात्मा, येनास्य गर्भगतस्यैव व्याधयः प्रादुर्भवन्ति मृत्युच, तथा च सामान्यतोदृष्टेनानु
५५६]
||२५९॥
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आगम
(०२)
प्रत श्रीसूत्रसूत्रांक चूर्णिः ॥५३५- ॥२६०॥
५५६||
दीप
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र - २ (निर्युक्तिः+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१२], उद्देशक [-], निर्युक्तिः [११६- १२१], मूलं [गाथा ५३५-५५६] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र -[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
अनुक्रम [ ५३५
५५६ ]
मानेन, संमिश्रभावो नाम असतित्वमपि प्रतिपद्यमानाः अस्तित्वमेव दर्शयंति, तमेव सन्मिश्रभावं यथा गिरया गृह्यते, निगृद्यन्त इत्यर्थः, उम्मत्तवादं वदंति, तद्यथा कचिदुन्मत्तः स्वाभाविकं ब्रवीति चेष्टते वा, कचिदन्यथा, अंधो वाऽध्वानं व्रजेत् क्वचित् अपथा गच्छति, एवं तेऽपि गन्धर्वनगरतुल्याः मायास्वमोपनतधनसदृशाः मृगतृष्णा निद्रामदप्रनर्तितालातचक्रसमाः एवमपि निश्चयाभावात् भावानुक्त्वा पञ्चाजातिस्मरणानि जातकान् निरन्वयाश्रयं निर्वाणं च प्रतिपद्यन्ते, एवं ते संमिश्र भाववादिनः मिथ्यादर्शनान्धकाराः जातकानेतस्यां गिरि गृहीता, यदि शून्यं कथं जातकानि ?, कथं सारणं १ कथं शून्यता १, किंच- यदि शून्यस्तव पक्ष मत्पक्षनिवारणं कथं भवति । अथ मन्यसे न शून्यस्तथापि मत्पक्ष एवासौ ॥ १॥ अस्तित्वात् तस्य, किंच- केन शून्यता देसिता ? किमर्थं देशिता स्यात्रिप्पयोजना शून्यता इत्यादिभिः कर्कश हेनुभियोदिता कच्छाघरघरियार आहतियाए एलभूगो वा मम्मणमृगोवा, जहा मुंमुएति, णो एक्कं अणेकं दा पक्खं अणुवदंति अस्ति नास्ति वा यद्यप्यष्टौ व्याकरणानि पठंति, ते पुण अकिरियात्रादिणो दुविधं धम्मं पन्नवेति, तंजा - इमं दुक्खं इमं एगपक्खं तावत्, अविज्ञानोपचितं १ परिज्ञानोपचितं २ ईथे ३ स्वमान्तिकं ४ च चतुर्विधं कर्म चयं न गच्छति, एतद्धि एकपाक्षिकमेव कर्म भवति, का तर्हि भावना ?, क्रियामात्रमेव, न तु चयोऽस्ति, चन्धं प्रतीत्याविकल्प इत्यर्थः, एगपक्खियं दुपक्खियं तु यदि सच्चच भवति सच्चसंज्ञा च संचिव जीविताद् व्यपरोपणं प्राणात्तिवातः, एतत् इह च परत्र चानुभूयते इत्यतो दुपक्खिकं यथा चौरादयः, इह दुक्खमात्रामनुभूय शेर्पा नरकादिष्वनुभवति, किंच- आहंसु छलायतणं च कम्मं पडायतनमिति पड् आयतनानि यस्य तदिदं आश्रवद्वारमित्यर्थः, तद्यथा श्रोतायतनं यावन्मनआयतनं, 'त एवमक्स्वंति' वृत्तं ॥ ५४०|| अक्रियाअण्णाणिआयभागं अबुज्झमाणा इह मिच्छत्तप
[273]
e sure, has an affirmat
संमिश्र
भावादि
॥२६०॥
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आगम
(०२)
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१२], उद्देशक [-], नियुक्ति: [११६-१२१], मूलं [गाथा ५३५-५५६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
IN
विरूपदर्श
नादि
श्रीसूत्रकनागचूर्णिः ॥२६॥
प्रत सूत्रांक ॥५३५५५६|| दीप अनुक्रम [५३५५५६]
DI|| लोच्छणा अप्पाणं परं वा तदुभयं वा बुग्गाहेमाणा विरुवरुवाणि दरिसणाणि, कथं ?, दाणेण महाभोगा देहिनां सुरगतिश्च | | शीलेन। भावनया च विमुक्तिरित्यादि, किंच-यश्च वेदान्तश्च के ब्राह्मणे दधात् , यो वा विहारं कारयति, किंच-'एगपुप्फपदाणेण, आसीतिः कल्पकोटयः। सुखिनस्तिष्ठंति, एवमकिरिओ आता जेसिं ते होंति अकिरियाता, जमादितित्ता मणुस्सा जमित्यनिर्दिष्टस्य निर्देशः, आदिइत्चा गृहित्वा, स्वयं अन्यांश्च गाहित्वापि अणादीय अणवदग्गं संसारं भमंति, किश्चान्यत् , यदि सर्वमक्रियं तेन कथमादित्यः उत्तिष्टति ? अस्तं वा गच्छति ?, कथं वा चन्द्रमा बर्द्धते हीयते चनचा सरितः प्रस्पन्देरन् , नवा | वायवो चायेयुः, सर्वसंव्यवहारोच्छेदः स्यात , एवमुक्ताः त्रुबते-'णातिच्चो उद्देति ण अस्थमेई 'ति वृत्तं ॥ ५४१॥ आदित्य
एवं नास्ति, कुतस्तर्हि तदुत्थानमस्तमनं वा १, मृगतृष्णकासदृशं तु एतदिति लोहितमर्कमंडलमवभासते, एवं चन्द्रमापि नास्ति, | कुतस्तहि धृद्धिहासोत्थानास्तमनानि ?, किंच-संघातो मरीची उडेति, उट्ठोणासेणं इमं लोगं तिरिय करेति, करेत्ता सेणं इमं लोग | उजोवेति पभासति, न सरितोऽपि ण संदंति, न च न वायवः, ततः कथं न संदिष्यते वास्यति चा?, स्याद् बुद्धिः-उतिष्ठन्नादित्यो दृश्यते अस्तं च गच्छन् , यतः पूर्वस्यां दिशि दृष्टः अपरस्यां दिशि रश्यते, तेन क्रियावान् , देवदत्तस्य हि गतिपूर्विका देशान्तरप्राप्ति दृष्ट्वा चन्द्रादित्यावनुमीयेते, सरितश्च स्यन्दमाना दृश्यन्ते, चायवश्च वृक्षारकंदादिभिरनुमीयते क्रियावंत इति, तच्चासत् , | कथं , गतं न गम्यते तावत् , अगतं नैव गम्यते । गतागतविनिर्मुक्तं, गम्यमानं न गम्यते ॥१॥ एवमयं चंध्यो लोकः, वंभ्यो नाम | शून्यः, अथवा बन्ध्यावत् अप्रसवत्वाइन्ध्यो, लोकायतानां हि न मृतः पुनरुत्पद्यते, एतावानेप परमात्मा, त एवं दर्शनं भावयंति, गलागत्यमपि कुर्वाणा नोद्विजन्ते, मातरं भगिनीं वा गत्वा नानुतप्यते, वेषां बंधाभाव एव ते कथं पापेभ्यो निर्वयन्ते ? |
२६१॥
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आगम
(०२)
भाग-2 “सूत्रकृत" - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१२], उद्देशक [-], नियुक्ति: [११६-१२१], मूलं [गाथा ५३५-५५६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत' जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
श्रीमत्रक
नित्यलोकादि
प्रत सूत्रांक ||५३५५५६|| दीप अनुक्रम [५३५
| निवृत्तिमूलं वा धर्म देक्ष्यन्ते !, एवं शाक्या अपि एवं वन्ध्याः , नितिओ गाम नित्यकालमेय शून्यः, शुन्य वा न चोच्छिमाणघते, कसिणो नाम गृहनगरपर्वतद्विपदचतुष्पदादि सर्वो वन्ध्यः, त एवं विद्यमानमपि लोकं न पश्यति, दृष्टान्तः-'जहा य | રિદ્રા,
अंधे सह जोतिणावि' वृत्तं ॥५४२यथेति येन प्रकारेण, द्योतयतीति घोतिः आदित्यथ चन्द्रमाः प्रदीपो वा, धोतिना सह । | सहयोति नानादिरूवाणि घडादीणि, न पश्यन्ति, जग्गतोऽपि वर्तमानानि स्पर्शनापि न तेषां वर्णादिविशेष पश्यन्ति, नयतीति ने हीने यस्य नेत्रे स भवति हीननेत्रः, उदत्ते उपहते वा संतं तु ते एवं अकिरियाता संतमिति विद्यमानं, तु पूरणे, अकिरियावाइणो, अकिरिओ मिच्छत्तोदयान्धकारात जीवादीन् पदार्थान्न जाति, अथवा किरियं न ते पस्संतित्ति क्रियावा द्रव्याणां आगमनगमनाद्याः क्रियाः पश्यन्तोऽपि न पश्यन्ति, स्वयं क्रियासु वर्तते उघवत् , न चैताः न पश्यन्ति, निरुद्धा येपां प्रज्ञाः ते भवन्ति निरुद्धपन्ना णाणायरणोदयेन, अथवा ते वराकाः कथं ज्ञास्यंति ये आगमज्ञानपरोक्षा एव ?, जे पुण ण निरुद्रूपन्ना | ते प्रत्यक्षेण वा आगमेन परोक्षेण जीवादीन पदार्थान यथावजानति, तत्रावधिमनःपर्यायकेवलानि प्रत्यक्ष, मतिः श्रुतिः परोक्ष, प्रत्यक्षज्ञानिनस्तावत् जीवादीन पदार्थान् करतलामलकवत् पश्यन्ति, समत्तसुतणाणिणोवि लक्षणेण, अटुंगमहानिमित्तपारगा अर्थ च साधबो जाणति णिमित्तेणं, 'संबच्छर सुमिणं लक्ग्वणं च'वृत्तं ॥५४३।। संवत्सरनिमित्ते इमे एगदिया, तं०-संवच्छरोत्ति वा ओतिसेत्ति वा, सुमिणं सुविण ज्झाया व, लक्खणं सारीरं, एतेण चेव सेसयाईपि सूइताई, तंजहा-भोमं १ उप्पातं २ सुमिणं ३ | अंतरिक्खं ४ अंगं५ सरं ६ लक्खणं ७ वंजणं ८, णवमस्स पुच्चस्स ततियातो आयारवत्थुतो एतं णीणीतं, एतं बहने अधिजिता, | एवं अटुंगं णिमित्तं बहवे समणा अधिजिताण 'मधलोगंसि जाणंनि अणागताई' अतिक्रान्तवर्चमानानि च, केवलिबद्वा
५५६]
Prima
TETTLES
॥२६॥
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आगम
(०२)
भाग-2 “सूत्रकृत" - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१२], उद्देशक [-], नियुक्ति: [११६-१२१], मूलं [गाथा ५३५-१५६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
चुणिः
प्रत सूत्रांक ॥५३५५५६|| दीप अनुक्रम
अष्टांगकरेति तथा गताणित्ति, राथा भूताणित्ति यथावस्थितानीत्यर्थः, अंगवानां अनुष्टुभेन छन्दसा अर्द्धत्रयोदशशतानि सूत्रं तावदेव सत्रक
शतसहस्राणि परिपातिका, अङ्गस्य तु अर्द्धत्रयोदशमहस्राणि मूत्र, तावदेव सयसहस्राणि वृत्तं, अपरिमितं वार्तिकं, एवं निमित्त- निमित्तं १६३॥AN
मप्यधीत्य न सबै तुल्याः, परस्परतः पट्स्थानपतिताः, चोदसपुब्बीवि छट्ठाणपडिता, एवं आयारधराणि छट्ठाणवडिया, यतश्चैवं तेनापदिश्यन्ते 'केई निमित्ता तधिया भवंति' वृत्तं ॥५४४॥ केचिदिति न सर्वे, अमिन्नदसपुधिणो हेतुण एतं अट्ठगंपि महाणिमित्तं अधितुं गुणित्तुं वा, अधीत्य एवमेव केचित् परिणामयंति, ते पडुच्च ते णिमित्ता तधिया भवंति, केई पुण निमि
त्तबुद्धित्वात् विशुद्धिणेमित्तकेहिंतो छण्हं ठाणाण अण्णतरं ठाणं परिहीणा अविशुद्धखयोवसमा 'विप्पडिएन्ति णाणं' विपर्याPEA सेन एंति विपडिएन्ति, 'इक स्मरणे' 'इड्- अध्ययने' 'इण गतौ' एपां त्रयाणामपि इगिङीणां परिपूर्वाणां अप्रत्ययान्तानां विप
येय इति पूर्वरूपं भवति, विपर्य येण एति विप्पडिएति, को अर्थः?-विपर्ययज्ञानं भवति, जसम्यगुपलब्धिरित्यर्थः, सपरिभवमप्यङ्गमधीत्य, अब्भपडलदिटुंतेणं, यथा श्लक्षाभ्रपडले कश्चिद्वेत्ति एकमेवेदं अभ्रपडलं यावत्तवान्यदप्यस्ति सूक्ष्ममिति नोपलभ्यते, | संजतावि केई विष्पडिएन्ति णाणं, किमंग पुण अण्णउत्थिया दगसोयरिया तव्वणिगादयो, ते विजाभासं अणधिजमाणा अणधिञ्जमाणेत्ति अधीतेन निमित्तेण दुरधीतेन वितधं दृष्ट्वा निमिचं वदंति, णिमितमेव णस्थि, तद्यथा-क्वचित् क्षुते त्वरितत्वात् सङ्कित एवं गतः, तस्य चान्यः शुभः शकुन उत्थितः येनास्य तत् क्षुतं प्रतिहतं, स चेत् न तं शकुनं वेद शकुनोऽपि वा न लक्षितः स तु मन्यते च्पलीकमेव निमित्तं, वेनाशकुनेऽपि सिद्धिर्जाता इति, एवं शोभनमपि शकुनं उत्थितम्स्येनाशोभनेनप्रतिहतमनवयुद्धमानः कार्यसिद्धिनिमित्तमेव नास्तीति मन्येत, अपरिणामयन् , विज्ञाहरि(भा)से णाम यथार्थोपलम्भः, विद्यया स्पृश्यते विद्यया
IAN ॥२६३॥
[५३५
५५६]
[276]
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आगम
(०२)
भाग-2 “सूत्रकृत" - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१२], उद्देशक [-], नियुक्ति: [११६-१२१], मूलं [गाथा ५३५-१५६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[२] “सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
148
प्रत
सूत्रांक
श्रीसत्रक- माझ्चूर्णिः ||२६४||
विद्यापतिमोक्षादि
॥५३५५५६||
दीप अनुक्रम
[५३५
ऽप्यते, विद्यया गृह्यत इत्यर्थः, त एवं घराकाः चक्षुधमपि णिमित्तमपरिणामयन्तः आईसुविजाए पतिमोक्खमेच निमित्तविद्यापरिमोक्षं, एवं हि कर्त्तव्यं, नाधीतव्यानि निमिचशाखाणीत्यर्थः, किंचित्तथा किंचिदन्यथेतिकृत्या मा भून्मृपावादप्रसङ्गः, बुद्धः किल शिष्याणामाहूयोक्तवान् द्वादश वर्षाणि दुर्भिक्षं भविष्यति, तेन देशान्तराणि गच्छत, ते प्रस्थितास्तेन प्रतिसिद्धाः | सुभिक्षमिदानीं भविष्यति, कथं ?, अद्यैवैकः सन्यः पुन्यवान् जातः, तत्प्राधान्यात्सुभिक्षं भविष्पति, इत्यतो निमित्तं तथा चान्यथा |च भवतीतिकृत्वा आहेसु विजाए पलियोक्खमेव, उज्झनमित्यर्थः, मोक्षं च प्रति निरर्थकमित्यतः निरुत्सृष्टं, अथवा विजया परि| मोक्खमाहु, सांख्यादयो ज्ञानात् मोक्षमिच्छन्ति, जे णिमित्तं संखाणं परिज्ञाणमियन्ति न ते किलात्यन्तपरोक्षमात्मानं परलोकं मोक्षं च ज्ञास्यन्ति ? इत्यादि हास्य, पच्चल्लं कम्मं बंधति ते सुत्तणाणहीलणाए, उक्तं हि-ज्ञानस्य ज्ञानिनां चैव, निंदाप्रद्वेपमत्सरैः। उपघातैश्च विश्व, ज्ञानघ्नं कर्म बध्यते ॥१॥ स्यागुद्धि:-केनैतानि समोसरणानि प्रणीतानि ? जं च हेवा वुत्तं जंच उपरि भणिहिति?, उच्यते-अनिरुद्धपण्णा तित्थगरा ते एयमक्खन्ते 'समेच लोगं' वृत्तं ॥५४५॥ ते इति तीर्थकराः, एतदिति यदतिक्रान्तव्यं च परसमयसिद्धपरूवणाओ बा, एवमन्येऽप्याख्यातवंतः आख्याइस्संति च, सम्यक् इचा समिध शात्वेत्यर्थः, तथागता समणा माहणा य तथागत इति तीर्थकरत्वं केवलज्ञानं च गताः, पठ्यते च-तहा तहा समणा माहणा य, तथा तथेति यथा यथा समाधिमार्गव्यवस्थिताः तथा तथा ख्यान्ति त्रैकाल्यात् , जे अभिग्गहियमिच्छादिट्ठी जे अ अणभिग्गहियमिच्छा| दिट्ठी तेसि सम्वेसि दर्शनमाख्यान्ति, समणा माहणा यत्ति एगहुँ, पचक्खणाणिणो परोक्खणाणिणो वा आगमनामाण्यात् , किमा| ख्यान्ति ? अस्थि माता अस्थि पिता जाव सुधिष्णा कम्मा सुचिषणफला भवंति, एवं क्रियावादित्वं ख्याप्यते, किंच-'सयं
५५६]
riskintilles
॥२६४॥
[277]
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आगम
(०२)
प्रत
सूत्रांक
||५३५
५५६॥
दीप
अनुक्रम
[ ५३५
५५६]
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र - २ (निर्युक्तिः+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१२], उद्देशक [-], निर्युक्तिः [११६- १२१], मूलं [गाथा ५३५-५५६]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता...... आगमसूत्र - [०२], अंग सूत्र -[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि :
श्रीसूत्रकृ
चूणिः
॥२६५॥
कडे णण्णकर्ड च दुक्खं सयं कर्ड णाम स्वयं कृतं सयं कर्ज, सव्यमेव हि कर्म्म दुक्खं प्रतीकारात्पुण्यमपि दुःखं, उक्तं हि ' तौ सबकालदुगखौ' तं तु स्वयं कृतमेव नान्यकृतं न वाकतं, आहंसु विज्ञा चरणं पमोक्खं विजया चरणेग वा | मोक्खो भवन्ति, न तु यथा सांख्या ज्ञानेनैवैकेन, अज्ञानिकाथ शीलेनैवैकेन, उक्तं हि - 'क्रियां च सज्ज्ञानवियोगनिष्फलां, | क्रियाविहीनां च निबोधसंपदं । निरस्यता क्लेशन म्हशान्तये त्वया शिवायालिखितेय पद्धतिः ॥ १ ॥ ' 'ते भोगधस्मिया (भूया उ सुहं पयाणं ) गायगा' वृत्तं ५४६ ॥ चनुर्भूता लोकस्य, प्रदीपभूता इत्यर्थः, देशका गायकाः पमढगाः, मरगं णाणातिहितं सुहं प्रजानां तु विसेसणे, सन्मार्गगुणॉथ दर्शयति कुमार्गदोषांच, अथवा तु विशेषणे, अहितमार्गनिवृत्तिं च प्रजा|यंतीति प्रजाः, तथा तथा सालयमाहु लोगो तथा तथेति येन येन प्रकारेण शास्त्रतो लोको भवति पञ्चास्तिकायात्मकः अथवा यथास्यात्मनः अव्यवच्छिन्नकर्म संततिर्भवति यथाप्रकारा च तथा तथा सासतमाहु लोगे, तहा 'चउहिं ठाणेहिं जीवा रइयाउयत्ताए कम्मं पकरेंति०' तावत्संसारो नोच्छिद्यते 'यावन्मिथ्यादर्शनं, तीर्थकराहारकर्जाः सर्व एव कम्मविन्थाः सम्भाव्यन्ते, उपलक्षणत्वादस्यान्यदपि यदन्नं संभवति तत् द्रष्टव्यं, एवं रागद्वेषावपि संसारकरौ इतिकृत्वा तहा तहा वदति-संसारमाहुः, अहवा अतधा तथति जस्म जारिसी सत्ता तहा तस्स उबचयो होति मिच्छा, अहवा मिच्छत्त अविरति अण्णाणाणि जहा २ तहा २ संसारः, अथवा पाणवहादी जहा २ तहा २, अहवा कमायादयो जहा तहा, कायवाङ्मनोयोगा जहा २ तहा २ संसारो सर्वत्र यात्रा परिमाणं वक्तव्यं, 'जंसी पया' यस्मिन्निति यत्र, प्रजायंते इति प्रजाः सर्व एव सच्चा मानवा इत्यपदिश्यन्ते, मानवानां प्रजा मानवप्रजा, अथवा माणवा इति हे मानवाः !, संप्रसृताः संप्रगाढा ओगाढा विगाढा सम्प्रगाढा इत्यर्थः एवं आश्रवलोके
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विद्याप्रतिमोक्षादि
॥२६५॥
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आगम
(०२)
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१२], उद्देशक [-], नियुक्ति: [११६-१२१], मूलं [गाथा ५३५-१५६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[२] “सूत्रकृत' जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
प्रत सूत्रांक ||५३५५५६||
श्रीसत्रक- मागचूर्णिः २६६॥
दीप
अनुक्रम [५३५५५६]
कथयंति, आथवलोकानुरूपमेव च लोकं विशंति 'जे रक्खसा जे जमलोइया वा' वृत्तं ।। ५४७॥ पांचित् भवनपत्यादि । विद्यापति
मोक्षादि देवा शाश्वताः तेण रक्खसगहणं, अथवा व्यन्तरा ग्रहीता राक्षसग्रहणात , जमलोइयग्रहणाद्वैमानिकाः सचिताः, गान्धर्वा व्यन्तराः एए जेणं जमदेवकाईया तिविधा, सर्वे ते जम्मस्स महारायस्स आणाउववातवयणणिदेसे चिट्ठति, असुरग्रहणेन भवनवासिनः सचिताः, गान्धर्वा व्यन्तरा एव, ज्योतिष्का दृश्यन्त एव, सेसा आगासगामी य पुढोसिता य देवपक्खिवातादयः आगासगामी, पृथ्व्यंबुवनस्पतयः द्वित्रिचतुरिन्द्रियाश्च स्थलचरा जलचराथ, एते पुढोसिता, पुनः पुनः विपर्यासमेति विपर्यासो नाम जन्मनि मृत्युः, सर्व एव संसारे विपर्यासः, जेणं ' पुढविकायमइगओ उकोसं जीवो तु संवसे' 'जमाहु ओहं सलिलं अपारगं' वृत्तं ॥५४८॥ यत् इत्यनिर्दिष्टस्य निर्देशे आह भगवानेव, द्रव्योधः स्वयम्भुरमणः, स एवौघः सलिला, ओघसलिलेन । तुल्यं औषसलिलं तस्यापार, जलचराः स्थलचरा वा न शक्नुवन्ति गंतुं गणत्थ देण महदिएण इत्यतः अपारगः, जाणाहिणं जहा जिनैरुपदिष्टः आगमप्रामाण्यात प्रत्यक्षतश्च उपलक्ष्यते मनुष्यादिसंसारः, चतुर्विधं भवग्गहणं २, कडिल्यमित्यर्थः, चउरासिति । जोणिपमुहसयसहस्सगहणो जत्थ अणोरपारपविट्ठो सम्बद्धाएवि ण मुञ्चति मिच्छादिट्ठी लोको, लोकाएतसुण्णवादिगादि लौकिक इत्यादि, दुर्मोक्षेति मिच्छत्तसातगुरुत्वेन च ण तरंति अणुपालेत्तए, जेवि अस्थिवादिणो किमंग पुण नास्तिकाः,जहा ताणि चत्तारि तावससहस्साणि सातागुरुयत्तणेण छकायवधगाईजाताई, 'जंसी चिसपणा विसयंगणादी' यत्र संसारे यत्र वा साकारधर्म समाधौ कुमार्गे वा असत्समवसरणेपु, पंचसु वा चिसएसु विसन्नाः, सुगरियान् स्पर्शः, तेष्यप्यंगनाः, तासु हिपंच विषया विद्यन्ते, तद्यथा-'पुप्फफलाणं च रसं' इत्यतः अंगणाग्गहणं, दुहतोवित्ति द्विविधेनापि प्रमादेन लोकं अमुं संचरंति, तंजहा- ॥२६६॥
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आगम
(०२)
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१२], उद्देशक [-], नियुक्ति: [११६-१२१], मूलं [गाथा ५३५-१५६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चर्णि:
विद्यापति
प्रत सूत्रांक ||५३५५५६||
श्रीसूत्रकताइचूर्णिः ||२६७॥
दीप
अनुक्रम [५३५५५६]
लिङ्गवेससज्जाए अविरतीए य, अथवा आरंभपरिग्रहाभ्यां रागद्वेपाभ्यो वा बसस्थावरलोगाभ्यां इमं लोग परलोगं वा, त एव मिथ्यात्वादिमिदोपरमिभृताः अगत्समवसरणावस्थिताः 'ण कम्मुणा कम्म खति बाला' वृत्तं ॥५४९|न इति प्रतिषेधे, | मिथ्यात्वादिषु कर्मबंधहेतुपु वर्तमानाः न कर्माणि क्षपयन्ति बाला:-कुतीर्थाः, यस्यैव हि ते भीतास्तमेवाविशति, कर्मभीताः | कर्माण्येव बर्द्धयन्ति, न निदानमेव रोगस्य चिकित्सा, यथा कश्चिन्मूढधीनिंदानरेव रोगचिकित्सां करोति, स हि तस्य वृद्धिमामोति, | अकर्मणा णु आश्रयनिरोधेन कर्माणि क्षपयंति धीराः विधिक्रियाभिरिवामयान् वैद्याः, मेधाविणो लोभमयं मेरा (मेहया) धाविणो, लोभमतीताः, वीतरागा इत्यर्थः, एवं सायामतीता २ वा संतोसिणोति अलोभाः, स्याद् बुद्धिः अलोभाः संतोपिण एकार्थमितिकृत्वा तेन पुनरुक्त, उच्यते, अर्थविशेषात् न पुनरुक्त, लोभातीतः इति लोभमतिक्रान्तोऽलोभो वीतरागः, संतोपिण इति | निग्रहपरमा अवीतरागा अपि वीतरागाः, णो पकरेंति पावं संतोसिणो पयणुयं पकरेंति, तब्भववेदणिजमेव, यत एव लोभा ईया अत एव संतोसिणः, एवं अमातिनः स्तोकमायिनः, त एव भगवन्तः अनिरुद्धपष्णा 'ते तीअउप्पन्नअणागताई' वृत्तं ।।.५५०॥ त इति तीर्थकरादयः प्रदीपभूताः, तीताणि लाभालाभसुखदुःखादीनि एवं पडुपन्नअणागताई, जेहिं या कम्मेहिं पुच्च| कतेहिं इहायातो जोणिवासं पदं करैति जं च भविस्सति इत्यतः तीतपच्चुप्पणअणागताई, तहा भूताई तहागताणि अवितहाणित्ति भणितं होति, न विभंगनानिवत् विपरीतं पश्यन्ति, 'अणगारे णं भने ! मायामिच्छादिट्ठी रायगिहे नयरे समोहए' तेनावधिविभंगोपयोगेण,रायगिहे गतवं च वाणारसीए णयरीए रूबाई जाणति जाव से से दमण विवचासो भवति' ते भगवन्तः प्रत्यक्षज्ञानिनः, परोक्षे वा पूर्वविदः, तारो अण्णेसि अणण्णणेता-पायंतीति नेतारः अन्येषां भव्यानां सर्वेषां नेतार इति, न अन्यस्तेषां नेता
॥२६७॥
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भाग-2 “सूत्रकृत" - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१२], उद्देशक [-], नियुक्ति: [११६-१२१], मूलं [गाथा ५३५-१५६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[२] “सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
प्रत सूत्रांक ||५३५५५६|| दीप अनुक्रम [५३५५५६]
श्रीसत्रक- विद्यते, एतावं ताव समणेण या धम्प्रे अक्खाते इत्यतो अणण्णणेता, युद्धा खर्यबुद्धाः युद्धबोधिता या गणरायाः, अवं कुर्व
विद्यापतिवागचूर्णिः
मोक्षादि Hतीत्यन्तकराः भवान्तं कर्मान्तं वा, वे यात्र भवान्तं न पुनि तावत् 'ते णेय कुब्बति या कारयति'वृत्तं ।। ५५१ ।। वर्ष ॥२६८॥
न कुर्वन्ति न कारयन्त्यन्यैर्नानुमन्यन्ते, किं तव ?, पाणाडवातं, अनुक्तमपि विज्ञायते प्राणातिपातं, येनापदिश्यते भूनाभिसंकाए। Hदुगुछमाणा भूतानि तसथावराणि ताणि यतो भिसं संकति सा भूताभिसंका भवति, हिसेत्यर्थः, तां भूताभिसंका तत्कारिणश्च
जुगुप्समाना उद्विजमाना इत्यर्थः,पाणातिपातगिति वाक्यशेषः, लोकोऽपि हि मत्स्यवन्यादीच हिंसकान् जुगुप्सते, एवं ते ण आमन्ति, ॥ण भाषावेंति मुसाबात, एवं जाव मिळादंसणं ण परूवेंती जोरदहति णबएण भेदण, त एवमापाणं पर तयं च संजममाणा Tसदेति सर्वकाल प्रवज्याकालादारभ्य यावजी ज्ञानादिपु विविध प्रणमंति पराक्रमंत इत्यर्थः, विदितु बीरा: विज्ञाय धीगर
भवन्ति, ज्ञानादिभिर्वा राजन्तीति वीराः, एकेन सर्वे, पठ्यते च-विष्णत्ति वारा य भवंति पके, विज्ञप्तिमात्रा बीरा एवं
भवन्ति, ण तु करणवीराः, स्थान कैः करणभूतानि येपां संफितव्यं?, उच्यते-'डहरे य पाणे' वृत्तं ॥५५२।। डसरा सूक्ष्माः MUI कुन्थ्वादयः सुदुमकायिका बा, चुहा महापरीरा बादरा बा, ते डहरे य पाणे बुढ़े य पागे जे आतनो परसति सव्य लोगे
आत्मना तुल्यं आत्मवत् यत्प्रमाणो वा मम आत्मा एतावत्यमाण: कुंयोरपि हस्तिनोऽपीति, अथरा 'जह मम ण पियं दक्ख एवं सबजीवाणं, डहराण चा महल्लाण वा 'पुढविकाइए णं गते! असोते समाणे केरिमयं वेदणं वेदयंति?,' सुत्तालाबगो इत्यतस्तेऽपि ण अमितब्बा ण संघट्टेयच्या, ये एवं पश्यन्ति 'उहती लोगमिमं महतं' वृत्तं, उबेहती उपेक्षते, पश्यतीत्यर्थः, उपेक्षां करोति, सर्वत्र माध्यस्थ्यमित्यर्थः, महान्त इति छज्जीयकायाकुलं अविधकर्मा फुलं घा, बलिपिंडोवमाए महान्तो लोगो, २६८॥
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गम
(०२)
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१२], उद्देशक [-], नियुक्ति: [११६-१२१], मूलं [गाथा ५३५-५५६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
प्रत
आत्मपरज्ञानादि
सूत्रांक
||५३५५५६||
दीप अनुक्रम [५३५५५६]
श्रीरत्रका
अथवा कालतो महंते अनादिनिधनः, अस्ति एके भव्या अपि वे सर्वकालेनापि न सेत्स्यन्ति, अथवा द्रव्यतः क्षेत्रतश्च भावतच नान्तः, ताङ्गचूर्णिः बुद्धो नाम धर्म समाधौ मार्गसमोसरणेसु च, अप्रमत्तः कायेषु जयणाए य, अथवा अप्रमत्तेपु असंजतेपु परिवएञ्जासित्ति बेमि, ॥२९॥
अथवा बुद्धे अप्पमत्ते सुट्ठ परिव्यए । 'जे आतयो परतो यावि णचा' वृत्तं ॥५५३ ।। आत्मनः स्वयं तीर्थकरा जाणति || जीवादीन् , परतो गणधरादयः, अलं पर्याप्त्यादिपु, स द्विधाऽपि जानकः अलमात्मानं परांथेति, अत्यात् वा प्रतिषेधे यतितव्ये, | इत्येवं तं ज्योतिर्भूतं तमिति तं उभयत्रातारं ज्योतयतीति ज्योतिः आदित्यश्चन्द्रमाः मणिः प्रदीपो चा, यथा प्रदीपो द्योतयति एवमसौ लोकालोकं ज्योततीति ज्योतिस्तुल्यः इत्यर्थः, सततं आवसे(सेवि)ज्जासित्ति जावजीवाए से(वे)ला तित्थगरं गणधरे वा यो यस्मिन काले ज्योतिभूतः जे 'पादुकुजा' य इत्यनिर्दिष्टः, प्रादुः प्रकाशके, ये प्रादुकुर्वन्ति धर्म पूर्वापरतोऽनुचित्य, करतलामलकवत् लोकं दृष्ट्वा इत्यर्थः, अथवा अणुवीयिणितुं परममयं दर्शयति, धर्म समाधिमार्ग समोसरणानि च, कीदृशाः पुनस्ते विधारितजानिनः त्रैलोक्यदर्शिनः ?, उच्यते-'अत्ताण जे जाणति जे य लोग' वृतं ॥५५४॥ आत्मानं यो वेत्ति यथाs. IDD हममातोति संसारी च, अथवा स आत्मज्ञानी भवति य आत्महितेष्वपि प्रवर्तते, अथवा त्रैलोक्य (काल्य) कार्योपदेशादात्मा
प्रत्यक्ष इति, कृतवानित्यादि, येनात्मा ज्ञातो भवति तेन प्रवृत्तिनिवृत्तिरूपो लोको ज्ञात एव भवति, आत्मौपम्येन यथा ममेष्टानि, D. दृष्देष्यर्थेषु प्रवृत्तिनिवृत्तिभावतः यथाऽस्तीति, अथवा आत्मौपम्येन परेपहिंसकः। किंच 'जे आगति जाणइ णागति च जे
आगति जाणंति, कुतो मनुष्या आगच्छंति ? सत्तममहिणेरड्या०, कैर्वा कर्मभिः कुत्र वा गच्छंति ?, तब्बेए, कुतोऽहमागतः गमिप्यामि वा? अनागतिरिति सिद्धिः सादीया अपअवसिता, जे सासत जाणइ असासयं बा' सर्वद्रव्याणां शाश्वत द्रब्यतः |
Premain
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आगम
(०२)
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१२], उद्देशक [-], नियुक्ति: [११६-१२१], मूलं [गाथा ५३५-१५६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
शाश्वतादि
प्रत सूत्रांक ॥५३५५५६|| दीप अनुक्रम [५३५५५६]
धारणक-AM अगाश्यतत्वं पर्यायतः, चशब्दाच शाश्वताशाश्वतं वा, तंजहा-णेरड्या दबट्ठयाए सासता भावद्वताए असासता, अथवा निवाण वाणि:
शाश्वत, संसारिणस्तु संसारं प्रतीत्य अशाश्वता, जातिमरणं च जाणीते, औदारिकानौदारिकानां सच्चानां जातिः, एत्थ जोणी॥२७॥
संग्रहो माणितव्यो, णवविधोऽवि तंजहा-"सचित्तशीतसंवृत्ता मिश्राश्चैकशस्तधोनयः," सचित्ताचित्तसीतोष्णसंवृत्तविवृता एताच | सेतराः, ओरालिएणं चेव मरणं, बंधानुलोम्याच यतोऽपवादं, इतरधा तु पूर्वः उपपातो वक्तव्यः, स तु नारकदेवानां, चयणं तु
जोतिसियमाणियाणं, उन्धदृणा भवणवासियाणं वंतराणं नेरइयाणं च, 'अघोवि सत्ताण विउवणं च' वृत्तं ॥५५५।। | जहा जहा गुरूणि कर्माणि तहा २ अधो विउहंति, विविधं उद्घति विउति जातंते मियंत इत्यर्थः, सर्वार्थसिद्धादारभ्य यावद
धोसप्तम्यां तावदधो वर्तन्ते, तत्रापि ये गुरुतरकर्माणः ते अप्रतिष्ठाने शेपेषु चोत्कृष्टस्थितयः, जो आसवं जाणति आश्रवान् | रागादीन् प्राणवधादीन् पञ्च आरंभपरिग्गहौ च इत्याद्याश्रवास्तद्विधर्मा संवरः संयम इत्यर्थः, जाय निरुद्धजोगित्ति, 'यथा प्रकाराः | यावन्तः, संसारावेशहेतवः । तावन्तस्तद्विपर्यासा, निर्वाणावेशहेतवः ॥ १॥ दुक्खं च जो जाणति निज्जरं वा दुक्खमिति | कर्मवन्धः प्रकृतिस्थित्यनुभावप्रदेशात्मकः तदुदयश्च, निर्जरा नाम पन्धापनयः द्वादशप्रकारं तपो निर्जरा, सो धर्म समाधिमग्गं समोसरणाणि य आख्यातुमर्हति, पठ्यते च-आइक्खेतुमाहति सो किरियावादं एतानि मिथ्यादर्शनसमोसरणानि संसारकराणिचि ज्ञात्वा क्रियावादी सम्यग्दृष्टिश्चारित्रवान् 'सद्देसु रूवेसु अमुच्छमाणो' वृत्तं ।। ५५६ ।। रागो गहितो एवं जाव फासेसु, रसेहिं गंधेहि अदुस्समाणो द्वेपः गृहीतः, एवं शेपेष्वपि इन्द्रियेषु 'सदेसु० आभक्ष्यावएसु अ' णो जीवितं णो मरणं विपत्थर असंजमजीवितं, अणेगविधं पत्थए विपत्थए, णा वा परीसहपराइयं मरणं, णो विपत्थए, अथवा मा हु चिंते
॥२७०॥
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आगम
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भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१२], उद्देशक [-], नियुक्ति: [११६-१२१], मूलं [गाथा ५३५-५५६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
तथानिक्षेपः
प्रत सूत्रांक ||५३५५५६|| दीप अनुक्रम
श्रीस्वक- जासि जीयामि चिरं, मरामि च लहुं, वलयं कुडिलमित्यर्थः, तत्र द्रव्यवलयं नदीयलयं वा संखवलयं वा, भाववलयं तु कर्मा ताङ्गचूर्णिः चउसमोसरणं, कुडिलं तु मिच्छत्तं, बलयत्तएण मुको वलयादिविमुको हि, पठ्यते च-मायादिविमुक्के इत्यर्थः।। इति समवसर
॥२७॥ Nणाध्ययनं द्वादशं समाप्त। १३ याथा
___आहयधियंति अज्झयणस्स चत्तारि अणुओगदाराणि, अधिकारो सीसगुणदीवणाए, अण्णंपि जंधम्मसमाधिमग समोसरणेसु जं जत्थ अणुवादी तं च अस्तित्थं भणिहिति, एतेसिं चउण्हवि धम्मादीणं विपरीतं वितह, अत्र चायं न्यायः-यदुत उपसर्गप्रत्ययविमुक्ता प्रकृतिनिक्षिप्यते, यतः 'णामतह'मित्यादि ॥१२२ णामणिकण्यो आयतधिजं, तं चतुर्विध अत्तं, जहा णाम| तहं ठवणतहं दवतहं० गाथा ॥ ९२२ ॥ तं च यतिरित्तं दव्यतह तिविधं सचित्तादि, सचितं जहा सर्व एव जीवः उपयोगस्वभावः, अथवा जो जस्स दब्बस्स सभावोत्ति, कठिनलक्षणा पृथ्वी द्रवलक्षणा आप इत्यादि, अथवा दारुणस्वभावः मृदुस्वभावो वा, जो जस्स वा अचित्ताणं गोसीसचंदणकंचलरयणमादीणं, जहा-'उष्णे करेती शीतं स.ए उण्हत्तणं पुणरुवेति' मीसगाण | तंदुलोदगमादीणं जाब ण ता परिणतं, भावतहं पुण णियमा० गाथा ।। १२३ ।। भावतई, तस्य छविधो भायो, तंजहा| उदइयभावतह, उपसमणमेव औपशमिकः अनुदयलक्षण इत्यर्थः, क्षयाजातः क्षायिकः, किश्चित्क्षीणं किंचिदुपशान्तं क्षायोपशमिकः, तॉस्तान् भावान् परिणमतीति पारिणामिका, एवं समवायलक्षणः सान्निपातिकः, अथवा भावतह चउधिध-दसणं णाणं चरितं विणय इति, णाणं पंचविध स्वे स्वे विषये अवितहोपलम्भः, एवं तु विधिः, दसणे चक्खुदंसणादि, चरिचे तवे संयमे य, तवे दुवालसविधे संजमे सत्तरसविधे, विण यस्स वा बायालीसतीविधस्स, ज्ञानदर्शनचरिते जो वा जस्स जहा जदा य पउंजियचो,
[५३५
५५६]
॥२७॥
अस्य पृष्ठे त्रयोदशमं अध्ययनं आरभ्यते
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आगम
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भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१३], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१२२-१२६], मूलं [गाथा ५५७-५७९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[२] “सूत्रकृत' जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
भाव
प्रत सूत्रांक ||५५७५७९|| दीप अनुक्रम [५५७५७९]
श्रीसत्रक अण्णहा चितई, एस्थ भाववितहेण अधियारो, अथवा भावतहं पसत्थं अपसत्थं च, पसत्थेणाधिकारो, 'जह सुत्तं तह अत्यो ताङ्गचूर्णिः
गाथा ॥१२४॥ यदि यथा सूत्रं तथैवार्थो भवति तथा दर्शयति तहत्ति, किं भणितं होति ?, जं सतं सोभणिति च, जं संत संसार॥२७२॥
निधारणाय प्रशस्यते तं पसत्यभाषतह, जं पुण विद्यमानमपि दुगुंछितं तं संसारकारणमितिकृत्या अशोभनं आसीदित्यपदिश्यते, अशोभनमित्यर्थः, जो पुण एतं पसत्थभावतहं आयरियपरंपरेण आगतं जो उ छेयबुद्धीए । कोवेति च्छेयबुद्धी-दूषयति जमालिणासं व णासिहिति ॥१२५ ।। जो एवं आयरियपरंपरएण आगतं कोवेति सो-ण कुणेति दुक्खमोक्खं उजममाणोऽबि संयमपदेसु । तम्हा अत्तुकरिसो बजेयद्यो जइजणेणं ॥ १२६ ॥ णामणिफण्णो गतो। सुत्ताणुगमे सुत्तं उचारेयव्यं, अणंतरसुसे बलयाविमुकेति बुत्तं, इहापि वलयादी अवितहशीलेन प्रयतितव्यं वलयविनिर्मुक्तेन, भाववलयं माया, शिष्यदोपाश्च इहोकाः, अत्तुकरिसादीया भावदोसा वज्जेयचा, इत्यत 'आधातधिजंतु पवेइयस्सं०'वृत्तं ॥५५७॥ अयथा मिथ्या, आहनधियं याथातथ्यं, शीलवतानीन्द्रियसंचरसमितिगुप्तिकपायनिग्रह सर्वमवितहं यथा तई, ते अनाचरतां च दोपान् वक्ष्यामः,
अथवा व्रतसमितिकपायाणां धारणालक्षणादि, नित्याव्यग्रौ (निग्रहादिक) तुर्विशेषणे, ये च वितथमाचरंति तॉश्च वक्ष्यामः, भृशFA मावेदयिप्यति, नानार्थान्तरभावे पुरिसजातिमिति, केचित्प्रियधर्माण, केयि अहाछन्दाः, सत्पुरुषशीलगुणांचोपदेक्ष्यामः, समोसरणे
तु अण्णउस्थियनिहत्थाण घटयो दर्शिताः इत्यतो नानापगारंपरिसस्स जातं तिष्ठन्तु तावनानाप्रकारा गृहस्थाः, अन्यतीथिका पासत्थादयो संविग्गा य णाणापगारा पुरिसजाता णाणाछन्दा इत्यर्थः, अथवा किं चित्तं यदि नानाविधाः पुरुषाः नानाशीला एव भवन्ति ?, एक एव हि पुरुपस्तानि तानि परिणामतराणि परिणमते, पाणापगारा पुरिसजाता भवंति, तंजहां-कदाचित्तीव्रपरिणामः
॥२७२।।
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आगम
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भाग-2 “सूत्रकृत" - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१३], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१२२-१२६], मूलं [गाथा ५५७-५७९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
प्रत
सूत्रांक
||५५७५७९|| दीप अनुक्रम [५५७
_JD श्रीस्वक- कदाचिन्मन्दस्वभावः कदाचिन्मृदुस्वभावः कदाचिन्निधर्म एव भवतीति, कृत्वा च कृत्यं कश्विनिवर्त्तते कश्चित्सुतरां प्रवर्तते, अन्यस्य अशीलानाचूर्णिःचान्यः परीपही दुर्विपहो भवति अथवा दारुणादारुणस्वभावत्वाच्च नानाप्रकारं पुरुपजातं भवति, सतोय धम्म असतोय असीलं' ॥२७३।। IN सदिति शोभनस्तस्य सतः धर्मो भवति, यथार्थः, एवं समाधिर्मार्गश्च, असदिति अभावे जुगुप्सायां च, अभावे तावत् अशीला
एवं गृहस्थाः, जुगुप्सायां अशीलानारीवत् नामौ न शीला किन्तु अशोभनशीलत्वात् अशीला इत्यपदिश्पते, दुगुंछायां पासत्थादयो, | अण्णाउत्थिया पामत्था य कुसीला, सर्वाशुभनिवृनिः शान्तिः सर्वभूतशान्तिकरत्वात् , सर्वाशुभानिवृत्तिः अशान्तिः, तथा च परमा
शान्तिनिर्वाणं भवति, अशान्तिरशीलः आत्मनः परेषां च, इह या शान्तियत्यमुत्र च तां कर्मनिर्जरणशान्ति, प्रादुः करिष्यामि | प्रकाशयिष्यामीर्थः, कर्मबंधकरणं चाऽशान्तिः, इह परत्र शिष्यदोपगुणांश्च प्रादुः करिष्यामि, तत्र तावच्छिष्यदोपाः । 'अहो
य राओ असमुट्टिाहिं' वृत्तं ॥ ५५८ ॥ सम्यक् उस्थिताः २, सम्यग्गहणात् समुस्थितेभ्यः संयमगुणस्थितेभ्यथ द्विविधां शिक्षा गृहीत्वा तीर्थकरादिभ्यः 'तधागतेभ्यः' संमारनिस्सरणोपायस्तावत् प्रतिलभ्यते, प्रतिलभ्य ज्ञानदर्शनचारित्रवन्तः धर्म FA प्रतिलभ्य तीर्थकरोपदेशात् जमालिबदान्मोत्कर्पदोपाद्विनश्यन्ति, गोहामाहिलावसानाः सर्वे निहवाः आत्मोत्कर्षाद्विनष्टाः
बोटिकाश्च, एयमात्मा समाहिमाघातमजोसयंता भावसमाधिव्रख्यातः, तीर्थकरैः जुपी प्रीतिसेवनायोः, तं 'अजोसयंता' कम्मोदयदोसेणं केयि दुपियबुद्धयः असद्दहंता केचित् श्रद्दधतोऽपि धृतौ अपि दुर्वलाः, यावीवमशवतो यथारोपितमनुपालयितुं जेहि चेय णिकारणयच्छले हिं पुत्रवत् संगृहीताः ते चेव कहिंचि दुक्खलितादौ, मणो अणुत्तरं वा साधु पडिचोदेति-मा एवं करेहित्ति, नैण शास्तारोपदेश इति, सत्थारमेवं फरसं वदंति सो हि न ज्ञातवान् , किंवा तस्स उवदिस्संतस्सवि पारकस्स छिज्जति ?, ॥२७३॥
५७९]
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आगम
(०२)
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१३], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१२२-१२६], मूलं [गाथा ५५७-५७९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[२] “सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
प्रत सूत्रांक ||५५७५७९|| दीप अनुक्रम [५५७५७९]
शास्तृतिरश्रीराधक-19 सुहं परायएहिं हत्थेहिं इंगाला कडिअंति, अथवा यः शास्ति से शास्ता-आचार्य एव, तपि चोदंति, अशीलो वा, असंतिभावे या ताचूर्णिः
स्कारादि वमाणो, असत्पुरुषाः सुशीलं दुःशीलं वदंति, दुम्शीलं सुसीलं च ।। किञ्च-'विसोधियं वा (ते) अणुकोदयते (अणुका॥२७॥
यंते) वृत्तं ॥ ५५९॥ विसोधिकरं विसोधियं, धम्मकथा सुत्तत्थो वा, अनु पश्चाद्भावे, कथितमाचार्यः अनु कथयन्त्यन्येषां, तथाऽऽचार्यपरंपरागतं गाणं चरित्र वा जमालिपमिती य आतभावेण वियागरेति, भावो नाम ज्ञानं अभिप्रायो वा, उस्सुत्रं पनवेति, यैर्वा धैर्येणाशकान्तः परिणामयितुं वितहं कथयंति, आचार्यसमीपे गोष्ठामाहिलवत् , निग्गता वा जमालिवत् , एवं न युज्यते, यथोदितमेव संयुज्यते, इत्येवमातभावेन वियागरेंति, केचित् कथ्यमानमपि ब्रुवते नैतदेवं युज्यते यथा भवानाह, स्यादेनं तु युज्यते, स एवं स्वछन्दः अहाणिए होइ बहुगुणाणं अनायतनं असम्भवः अनाचार: अस्थानमित्यनान्तरं गुणा 'सुस्ससति पडिपुच्छति सुणेति गेहति य ईहए आवि। ततो अपोहए वा धारेइ करेइ वा सम्मं ॥१॥' एतेसिं सुस्ससणादीणं गुणाणं अत्थाणं भवति, पैनयिकमन्योऽन्यसाधारणवैयावृत्त्यादीनां च अथवा 'सवणे णाणे' पठ्यते च-'अट्ठाणिए होंति बहुणिवेसो' अस्थानिको गुणानां, दोषाणां तु बहूनिवेशो भवति, नियतं वेशो निवेशोऽनयिकादीनां दोपाणां,जेणाणसंकाए मुसं वदन्ति गाणे संका णाणसंका तेसु तेसु णाणंतरेसु एवमेतन युज्यते अथवा संकेतितमान्यार्थाः, जे ज्ञानवन्तमात्मानं मन्यमानाः असं लवंति अभयभावे छन्दता णियमा चेव मुसंवदंति जमालिवत्, जंमि अणुवादी अभिणिवेसेण भवति तदपि मृपा भवति, 'जे आवि पुट्ठा पलिकंचयंति' वृत्तं ।। ५६०॥ य इत्यनिर्दिष्टनिर्देशः, केनविऽधीतं कस्यचित् सकाशात् जात्यादिपरिपेलवस्य, स च पृष्टः केनचित्-कस्य सकाशात् भवताऽधीतमिति, स तस्मादाचार्याजात्यादिभिरात्मानमुत्कृष्टं मन्यमानः तमाचा- ॥२७४।।
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आगम
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भाग-2 “सूत्रकृत" - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१३], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१२२-१२६], मूलं [गाथा ५५७-५७९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-०२] "सूत्रकृत' जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
आचार्यापलापादि
प्रत सूत्रांक ||५५७५७९||
दीप
अनुक्रम [५५७
श्रीसूत्रक- यमपलपते, प्रख्यातमन्यमुद्दिसति, योऽपि तावद् यथा वैरस्वामी पदानुसरणलब्धिसम्पन्नः, आयरिआओ अधिकतरं पण्णवेति, সাল্পর্শি: तेनापि न निलवितव्यः आचार्य:, किमंग पुनर्ये समानो न्यूनतरो वा, जे पुट्ठा भणति अत्तकस्सेण-मया चैतद्विस्तरतो विकल्पितं ॥२७५|| | अर्थपदं, सूत्रं वा विसोधितं, सो णिण्हगो असंतिभावट्टितो, यस्य वा सकाशात् केनचिदधीतं ग्रहणशक्तितया या तेनान्यतोऽधिक
मधीतं शब्दच्छन्दहेतुतर्कादि गृहवासे वा तेन शब्दादीन्यधितानि, परेण चोदित:-त्वया अमुकाचार्यस्य सकाशात अधीतमिति ?, स किं जानीते बराको मृत्पिण्डः यस्यौछावपि न सम्यक्, यतः अभ्युत्थानादिविनयभीतानि यति, एवं णाणे पलिउंचणा, सणे य, | चरिते तु कोइ कोई पामत्यादि पुढविकाइयादि समारभते, कपाकप्पविधिष्णुणा मावगादिणा पुट्ठो-किह तुझं एतं कप्पती ?, | उदउल्लादि गेण्हंतो वा अमुगो ण एवं गेहति तुम कहं एतं गेण्डसि?, तुझं बा एतं एवं आगतेल्लगी, एवं पुट्ठो इह लोग कथेती, | नइतुं इमं लोयं जोणिधम्म, सो पलिउंति, सोऽत्थ कि जाणति? तुम वा किं जाणसि?, चीर्णवता वयं, पलिउंचंता आदाणमट्ट बलु आदानं शानादीनि, आदीयत इत्यादानं आदातव्यमित्यर्थः, अमाधुमाधुमानीनः साधुगुणवाह्यास्ते अमाधव एव साधुमानिनः, अणोपसंखाए य ते साधुवाद वदन्ति, स: असाधुः साधुमाणी, दगुणं करोति स पापि, वीया बालस्म मंदया, एवं शुद्धखंतिपरिचाए द्वितीयं पापमासेतो, एवं मायान्विताः एहिंति ते अगतसंमारिय, दामोधिपलाभियं कर्म पंधिया अगाइयं | जाइतब्यमरितव्बाई घातमेहिंति, एवं माणलोभादोसेवि, कोये तु सब एवं प्रतिपेधः क्रियते', 'जो कोहणे होति जगहभासी' वृत्तं ॥ ५६१ ।। जगतः अट्ठा जगतहा, जे जगति भापले, जगात २ तागत् खरफरुमणिठ्ठराणं असंयतार्थ इत्यर्थः, न पुनराचार्यादीन साधून गृहिणो वा खरफलमणिटुराणि भगति, कामकलुगादीणि वा, अथवा जगदर्था छिन्दि भिंदी वध मार
५७९]
| |२७५॥
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आगम
(०२)
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१३], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१२२-१२६], मूलं [गाथा ५५७-५७९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सूत्रकृत' जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
श्रीश्त्रक
जगदर्थ
भाषितादि
प्रत सूत्रांक ||५५७५७९|| |
सागणि
॥२७६॥
दीप |
अनुक्रम [५५७५७९]
यत् जातिवाद वा काणकुंटादिवाद वा फुडताणि वा, जगट्ठभासी य, पठ्यते च-येन तेन प्रकारेणात्मा जयमिच्छति, विउसितं या पुणो, विसेसेण उस वितं विउसितं, खामितमित्यर्थः, तं सपर्ख परपक्खं वा क्षामयित्वा पुनरुदीरयति। अंधे व से दंडपहं गहाय, दंडपहे णाम एकपहए, महापथ इत्यर्थः, तमन्ध उद्देसतो गृहीत्वा गायां धृष्य विपमे कूपे वा पतति, पापाणकंटकाअग्न्यहिश्वापदेभ्यो वा दोषमयामोति, अविउसितो णाम अधिनपाहुडो दंडगत्थाणीयं केवलमेव लिङ्गं गृहीत्वा गायां धृष्टे विषमे कूपे वा पतति पाषाणादिचिखिल्लादिसुवा, उत्तरगुणेसु मूलगुणेसु वा विसुद्धिमयाणतो कुर्वन् भावान्ध एव लभ्यते, घासति सारीरमाणरोहिं दुक्खेहिंति, सीसगुणदोसाहिगारे अनुवर्तमाने तदोषदर्शनार्थ-'जे विग्गहीए (अन्नायभासी) वृत्तं ॥५६२।। विग्रहो णाम कलहः, विग्रहशीलो विग्रहिका, यद्यपि प्रत्युपेक्षणादिमेरां नालुपालयंति,नात्याभाषी अत्याभापी गुर्वधिसेवी प्रतिकूलभाषी न मो समो भवति, समो नाम मध्यस्थः, न रक्तो न द्विष्टः, झंझाणाम कलहः, प्राप्तः, अथवा नासौ समो भवति झंझाप्राप्तस्तु गृहिमिः समो भवति जेन तेनैवंविधेन न भाव्यं शिष्येण, पुनरपि पठ्यते च 'जे कोहणे होति उणायभासी' एवं समे भवति, तेननैवविधेन न भाव्यं शिष्येण, अझंझापचे, किंच-ओवायकारी य, यशोद्दिष्टदोषरहितः ओवातकारी, चशब्दो यत्र दोपनिवृत्तये द्रष्टव्यः, उवातो णाम आचार्यादिनिर्देशः तद् वाच्यं कुरु मा चैवं कुरु, तत्थ गच्छतेति बा, अधवा सूत्रोपदेशः उपवायः, हीः लजा संयम इत्यनर्थान्तरं, ह्रीमान् संयमवानित्यर्थः, लजते च आचार्यादीनां अनाचारं कुर्वन् लोगतच, एगंतदिट्टी य एगंततदिट्ठी नाम सम्मदिहि असहायी अमायरूपी नाम न छमतः धर्म गुर्वादीचोपचरति । 'से पेसले' वृत्तं ॥५३॥ पेसलो नाम पेसलवाक्यः, अथवा विनयादिभिः शिष्यो गुणैः प्रीतिमुत्पादयति पेशल:, सुहुमो णाम सुहुमं भापते अबहुं च अविघुष्टं नौचैः
२७६॥
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भाग-2 “सूत्रकृत" - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१३], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१२२-१२६], मूलं [गाथा ५५७-५७९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] “सूत्रकृत' जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
प्रत सूत्रांक ||५५७५७९|| दीप अनुक्रम [५५७५७९]
ENक्यादि श्रीसूत्रक- पुरुषजात इति से पैसलवाक्यः, अथवा विनयादिभिः शिष्य गुणैः ग्रीतिमुत्पादयत्ति, पेगलः सूक्ष्मः, स जात्याऽन्धितः, से उज्जु ताङ्गचूर्णिः उन्जुगो णाम संयमो, जं या पुब्धस्सईति तं उज्जुगमेव करेति, ण विलोमेति, सकारो दीपनार्थे द्रष्टव्यः, सपेशलः सूक्ष्मः सः ॥२७॥ अमोहः पुरुषो जातः म जान्यादिगुणान्वितः स उज्जुकारी चहुंपि अणुमासिते, यद्यपि कचित्प्रमादान स्खलितो बहुप्यनुशास्यते
तथाप्यसौ तथाऽधिरेव भवति, अचिरिति लेश्या, तथेति यथा पूर्वलेश्या तथा लेश्या एव भवंति, पूर्वमसौ विशुद्धलेश्य आसीन | अनुशास्यमानोऽपि तथैव भवत्यतो, तथा च न क्रोधादा मानाडा अविशुद्धलेश्यो भवति, समो नाम तुल्यः, अमौ हि समो भवत्यझंझप्राप्तेर्वीतरागो ऋजुरित्यर्थः, इदाणि माणदोसा गिस्सस्सवि आपरियस्मवि 'जे आवि अप्पं सिमंति णचा (मत्ता) वृत्तं ५६४॥ य इत्यनिर्दिए निर्देशः, चुसिमं संयतमात्मानं बुमिमंति पचा, वृत्तं मत्वा, अहं सप्तदशप्रकारः संयमवान, मत्वा नाम ज्ञात्वा, संख्या इति ज्ञान, ज्ञानवन्तमात्मानं मत्वा, बदन बादः, किं वदति ?, कोऽन्यो ममायकाले संयमे सदृशः सामाचारीए
वा?, अपरिक्खं गाम अपरीक्ष्य भणति, रोगपडिणि वेस अकयण्णुताए बा, अथवा माणदोपानपरीक्ष्य बदति, माणदोसा णाम MA मदं करेति तं तं उपहण्णति, तेणेच बादं अहितेत्ति णचा, बलादीनां तपमां कोऽन्यो मया सदशो भवतामोदनमुण्डाना,
| बिम्बभूनमिति मनुष्याकृतिमान् , द्रव्यमेव च केवलं पश्यति, न तु विज्ञादि मनुष्यगुणानन्यत्र प्रतिमायते, अथवा चिंधमिति I लिङ्गमात्रमेवान्यत्र पश्यति, न तु अमणगुणान् उदकचन्द्रवत् कूटकार्पापणवचेत्यादि, त एवंविधाः शिष्याः गुणहीनाः अशीले अशान्तौ च वर्तन्ते, सच्छीला चा प्रलीयन्ते, केण?-गंतकृडेण उ पेसले (से पलेड)' वृत्तं ॥५६६।। संयमाओ पलेऊग | पूनर्जन्मकुटिले संमारे पुनः पुनर्लीयन्ते, यतयैवं तेण ण विजति मोणपयंसि गोत्ते, पदं नाम स्थान, मुनेः पदं मौनं, पदं संय- २७७॥
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भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१३], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१२२-१२६], मूलं [गाथा ५५७-५७९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-[२] “सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
प्रत
ताङ्गचूर्णिः
॥२७८॥
||५५७५७९||
दीप अनुक्रम [५५७५७९]
Nमस्थानमित्यर्थः, गोचेति गौरवः, संयमस्थानं प्राप्य तत्र कार्य इति, अथवा गोत्रमिति अष्टादशशीलाणसहस्साणि तत्रामौ गोत्रण | मनिपदादि
विद्यते, किंच-जे माणणढे ण विउकसेजा मान एवार्थः माननिमित्त इत्यर्थः, विविधं उत्कर्ष करोति, वसुति संयमेण विउ| कसति अप्पाणं, अण्णतरेण चा, प्रज्ञानेन अन्यतरेण वा, प्रज्ञानं ज्ञानं नाम, सूत्रमर्थं उभयं वा, ममाहिकं कंट्ठोडविप्पमुकं विशुद्ध Aसुतं अर्थग्रहणपाटवं विस्तरतश्चतान कथयामि, लोकसिद्धान्तो बज्झाई, किमन्यैर्जनैर्मुगास्त्वन्ये चरति चंद्र अधस्ताद्वा भ्रमन्ति अचु| ज्झमाणेत्ति आत्मोत्कर्षदोपं । किंच-जे माहणे वृत्तं ॥५६६|| माहण इति साधुरेव जो वा मुनी ब्राह्मण जातिरासीत् क्षत्रियो-राजा तत्कुलीयोऽन्यतरो वा उग्र इति लेच्छद च क्षत्रियाणामेव गोत्रभावः, अन्ये वा कविद्विजायाः प्रजिता एवमादि जातिविसुद्धा जे पचईए परदत्तभोई, चइताणं रज रटुं च पचइतो, अथवा अप्पं वा चहुं वा चहग पचइतो परतो य ये च दत्तमेपणीयं च | मुंक्ते, शेपैरन्यैः सर्वैरपि संयमगुणैः युक्तः असावपि तावद् जो गोतेणेत्यादिना स्वरूपतो जो कोइ हरिएसब लच्छणीया मेतज्ज| स्थाणीउ वा अन्यतरं वा एवं विधं द्रमकादिभवजितं निन्दति, अथवा जे माहणा खत्तिय अहवा उग्गपुत्ता अदु लेच्छची वा जे | पब्वइया, प्रबजिता अपि भूत्वा शिरस्तुंडमुंडनं कृत्वा परगृहाणि भिक्षार्थमटन्तः मानं कुर्वन्तीत्यतीव हास्य, कामं मानोऽपि क्रियते | यद्यसौ श्रेयसे स्यात् ‘ण तस्स जाती व कुलं बताणं०'वृत्तं ॥५६७। जातिकुलयोविभाषा, मावसमुत्थोत्पत्यादि, त्राणमिति न संमारपरिवाणं, कर्मनिर्जरेत्यर्थः, नान्यत्रेनि, विद्याग्रहणात् ज्ञानदर्शने गृहीते, चरणग्रहणात् संयमतपसी, णिक्खम्म से सेवतिऽगारिकम्मं स इति जातिकुलविकत्थनः, अकारिणां कर्म अकारिकर्म, तद्यथा-अहं जात्यादिसुद्धो, न भवानिति, ममकारो | वा इत्यादि गारिकर्म, नासौ पारको भवति धर्मसमाधिमार्गाणां विमोक्षस्य वा, अथवा नात्मनः परेषां वा तारको भवति, किंच २७८॥
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भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१३], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१२२-१२६], मूलं [गाथा ५५७-५७९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] “सूत्रकृत' जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
प्रत सूत्रांक ||५५७५७९||
श्रीसूत्रकतानचूर्णिः ॥२७९॥
दीप अनुक्रम [५५७
0 जिणेण उचं 'णिगिणिविया (णिकिंचणे) भिक्खु सुलूहजीवी ।। ५६८॥ णिगिणो नाम द्रव्याचेलः, लूहो संयमः, तेन नमत्वादि
जीवति अन्तप्रान्तेन, लूहिते वा, जेनैव रूक्षजीवीतेन गर्वितो भवति, न च समो भवति, अरक्तदिटैरिति, न वा अझंझाप्राप्तैः समो। | भवति, आजीवमेतं तु अबुज्झमाणो 'जातीकुलगणकम्मे सिप्पे आजीवणा तु पंचविधा', जात्या संपन्नोऽहमिति मानं करोति,
प्रकाशयति चात्मानं स्वपक्षे तथाचैन कश्चित्पूजयति, एपा हि आजीविका च भवति मददोपश्च, आजंजवं पुणो पुणो चाउरंते संसार| कंतारे, विपर्यासो नाम जातिमरणे, किमंग पुण जो सव्यसो चेव मुकधुरो लिङ्गमात्रावशेपः नानन्तकालमटति, जमेते दोसा | समाधिव्याघातमदसुमत्ताणं आयरियपरिहावीणं तस्मादिमः शिष्पगुणैर्भाव्यं, तंजहा-'जे भासवं' वृतं ।। ५६९।। सत्यभाषाN/वान् धर्मकथालब्धियुक्तो वा भाषावान् , सुष्टु साधु वदति सुसाधुवादी, मृष्टाभिधानो बा, क्षीरमध्यावादिप्रणिधानवंति 'सेकालं |गोवलंभो तथा के' यं च णए पुरिसे, आक्षिप्तः पडिभणति-उत्तरं भापते, प्रतिभणतीति प्रतिभाणवं, उत्पत्तिक्यादिबुद्धियुक्तः सन्न | प्रतिभापितवान् , अर्थग्रहणसमर्थो विशारदः, प्रियकथनो चा, कश्चिद्धर्मकथी अपि वादी अत्यर्थमागादप्रज्ञः, विशेषिकादिहेतुशाखाणि, तैरस्य भावितः आत्मा स भवति भावितात्मा. अण्णं जणं अण्णमिति योन भाषावान संस्कृतभाषी वा असाधुवादी न स्पृष्टवाक् संप्रतिपत्तिकुशलो न, न च लोकलोकोत्तरशास्त्रेषु आगाहप्रक्षेन सुभावितात्मा, स एवंविधः कश्चित् पपणसा णाम प्रज्ञया परिभवति न वासनाहः उच्यते-"एवं ण से होइ' वृत्तं ।।२७०।। एवं न से होति समाधिपते एवमनेन प्रकारेण | समाधिप्राप्तः चतुर्विधसमाधिग्राप्तः, यः प्रज्ञया भिक्षुरात्मानं विउकस्सति-अहं श्रेष्ठो नान्य इति, अथवाऽवि जे ताव मदेण मत्ते (मयावलिते) अहं वत्थपडिग्गहपीठफलगसेज्जासंथारंगमादी अण्णमवि उप्पावेउं सत्तो, किमंग पुण अप्पणो उप्पादेतुं तुम ॥२७॥
५७९]
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आगम
(०२)
प्रत
सूत्रांक
||५५७
५७९||
दीप
अनुक्रम
[५५७
५७९]
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र - २ (निर्युक्तिः+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [ १३ ], उद्देशक [ - ], निर्युक्तिः [१२२-१२६], मूलं [गाथा ५५७-५७९] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र -[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
श्रीताङ्गचूर्णिः
॥२८०॥
सो वा ?, स अष्णपाणगमवि ण लभसि एवं सो अण्णं जणं विसति बालपुणे (पण्णे) न इतरेऽपि पठ्यते च-अपणेsवि जो जातिमदेण मत्तो अण्णं जणं विसति बालपणे, एवं अण्णेवि सदा अजुत्तावि भाणितव्या, एतान् दोषान् मच्चा तेण 'पण्ण' | वृत्तं ॥ ५७१ ॥ पण्णामयं चैव तवोमयं च प्रज्ञामदो नाम अहं प्रज्ञासंपन्नः अहं तपस्वी, नान्ये इत्यतः परं परिभवति, तदेतौ द्वावपि मदौ निच्छितं निश्चितं वा नामयेत् निर्नामेत् णिण्णामयेदित्यर्थः एवं गोत्रमदमपि, चशब्दात् अन्यान्यमपि आजीवितं चैव चडत्थमाहु: आजीव्यतेऽनेनेति आजीविकः मद इति वाक्यशेषः, मदेन जीवतीत्यर्थः, तद्यथा जातिमदेन जीवति, नाम नातीच्य वर्त्तते एव इति, स इति स पण्डितः स्वकर्मभिः, पूर्यंते गलति वेति पुद्गलाः, स पंडितश्चोत्तमपुद्गलच उत्तमजीव इत्यर्थः, अथवा जो सोभणो लाडाणं सो पुद्गलो बुचति, जहा पुग्गलजम्मा पुद्गलजीवती । एताणि मदाणि विगिंच धीरा ॥ ५७२ ॥ वृत्तं एतानि यान्युद्दिष्टानि विगिंचत्ति उज्झित्वा, अहमिदानीं जात्यादिमदस्थानानि हित्वा प्रत्रजितः, धीः - बुद्धिः, ण ताणि सेवेज, किमुक्तं ?- न जात्यादिभिरात्मानं उत्कर्षेत, यथा पूर्वरतादीनि न स्मर्यन्ते तथा तान्यपि न वा पञ्चाजातैर्वहुश्रुतादिभिरात्मानं उत्कर्षेत्, सुष्ठुधीरधम्र्माणः ज्ञानधर्मिणो गीतार्थाः, आसेवित्ता जे सव्वगोत्तावगया महेसी 'ते' इति धीरधम्र्माणः, सर्वगोत्राणि सर्वे वा कर्म गुप्यन्ते येन तासु २ गतिषु स्वकर्मोपगाः, अतः कर्मैव गोत्रं भवति, उच्चं नाम इहैव सर्वलोकोत्तमानां प्राप्य लोकाग्रं निर्वाणसंज्ञकं अगोत्रस्थानं प्राप्नोति, स एवं सर्वमदस्थानपरिहितः भिक्खु मुतचा (चे) वृत्तं ॥ ५७३ || अर्चयन्ति तां विविधैराहारैर्वस्रायलङ्कारैवेत्यच, मृता इव यस्याची स भवति मृताचः, मृतो हि न शृणोति न पश्यंतीत्यर्थः, एवं भिक्षुरपि शृण्वन्नपि न शृणोति, पश्यन्नपि न पश्यतीत्यादि, इत्यतो मुतच्चा, संयमं वा मुतमुच्यते, अर्चेति लेश्या, स मुतलेश्यो मुतच्चो, विसु
[293]
खिसा - वर्जनादि
॥२८० ॥
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आगम
(०२)
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१३], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१२२-१२६], मूलं [गाथा ५५७-५७९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[२] “सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
अरत्यभिभवादि
प्रत सूत्रांक ||५५७५७९||
दीप
अनुक्रम [५५७५७९]
थीसूत्रक
द्धाओ संमत्ताओ अविसुद्धाओ असंमत्ताओ, कचित् सूत्रे वाऽर्थे च दृष्टयम्मी, दृष्टसारो दृष्टधा, इत्यर्थः कचिद् ग्राम नगरे वा ताङ्गचूर्णिः
MA अनुप्रविश्य गच्छयासी णिग्गतो वा से एसणं जाणमणेसणं च स एमणा बायालीसदोमविसुद्धा तगिवरीता अणेसणा, अथवा ॥२८॥ एमणा जिनकप्पियाण पंचविधा अलेवाडादि हेडिल्लातो अणेसणा, अथवा जा अभिग्गहिताणं सा एखणा, सेसा अणेसणा, जो पुण
| अण्णापाणे य अणाणुगिद्धे, सया सकेति परिहरितु सो चेव य जाणगो, किंच-अरर्ति रतिंच अभिभूय भिक्खू वृत्तं ॥५७८।। | अरति संयमे रतिं असंयमेचि, अभिभूय णाम अकमिऊणं, बहुजणमज्झम्मि गच्छयासी, एगचारित्ति एगल्लविहारपडिवण्णगा, अर| तिग्रहणात् परीसहगाहणं, एगंतमोणेणं तु एगंतसंयमेणं, एकान्तेनैव संजममवलम्बमानः पृष्टो वा किंचिद्वाकरोति, न तु यथा | मौनोपरोधो भवति, संयमोपरोध इत्यर्थः, तद्यथा-'जाय भामा पाविका सावा सकिरिया', किंच से नागरेति ?, उच्यते, एगस्स
जंतो गतिरागती य, एक एव च परभव यात्यात्मा, एक एव चागच्छति, उक्तं हि-'एकः प्रकुरुते कर्म, भुनक्तपेकश्च तत्फलम्।। | जायत्येको मृपत्येको, एको याति भवान्तरं ।। ९॥ पत्तेयं पत्तेयं जाति पत्तेयं मरति । धर्म कथिकविशेषस्त 'सयं समेचा वृत्तं । 111०७५|| स्वयं समेत्येति स्वयं ज्ञात्वा तीर्थकरः अन्यः सुच्चा भासेज धम्म हिययं पयाणं हितं इहलोके परलोके य, किंच जे
गरहिता सणिदाणप्पयोगा गर्हिता निन्दिता 'णिदाण बंधणे सह णिदाणेण प्रयुंजत इति प्रयोगा-त्रिविधाः, अथवा कम्म, कथा | | अधिकता, तेन ये वाक्यशेपाः प्रयोगा गर्हिता, तद्यथा-शास्त्रं सपरिग्गहं कर्म प्रज्ञापर्यतः कुतीथिनी न प्रशंसति, एतेऽपि हि काय. क्लेशादीन कुर्वते, सावञ्जदानं वा प्रशंसंति, न वा तथाप्रकारं कथं कहेजा जेण परो अकोसेज बहेत एवमादी वागदोपां धर्मजीवितोपरोधकत्वेन न सेवते सुधीरधर्माणः कथकाः। किंच-'केसिंचितझाए(इ)अबुज्झभावं' ।।५७६।। खरफरुसाइ भणेजा, मा भूत्,
॥२८॥
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भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१३], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१२२-१२६], मूलं [गाथा ५५७-५७९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] “सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
आयु:कालादि
ताङ्गचूर्णि ।।२८२॥
प्रत सूत्रांक ॥५५७५७९|| दीप अनुक्रम [५५७५७९]
रौद्रमपि गच्छति, अबुद्धयमानाः रौद्रं वर्मतः आउस्स कालाइयारं व घातं यावयेनायुषकालोऽतिवर्तितः स तस्यायुःकालः अतिचरणमतिचारः आयुःकालस्य अतिचरणे चरणोषघात होजा, पालक इव खन्दकस्य, येन चान्योपघातो भवति, अथवा अकोसेञ्जा वा, लद्धाणुमाणे तु अणुमीयतेऽनेनेत्यनुमान लब्धं अनुमानं येन स भवति लब्धानुमानः, कथं लब्धं?, नेत्रवक्त्रविकारेहि अन्तर्गतं मनो गृह्यते, तंजहा-'केऽयं पुरिसे ? किंवा दरिसणं अभिप्पसण्णे ? किं चास्य प्रियमप्रियं वा? यदिदं कथ्यत' इति एवं लब्धानुमानः परेषु कथयेत् येनात्महितं भवति परहितं च इह परत्र च, अथवाध्यमर्थः 'कम्मं च छंदं च विगिंच धीरो (रे) ॥५७७॥ वृत्त, येन कर्मणा जीवति न तेनैनं परिभापेत् , यथा होका(अक्का, न चैनं तेन कर्मणा निन्दयेत् इति, यथा चर्मकारो भवान् कोलिको वा मा सो उदुरुट्ठीण गेण्हिज, छन्दं चास्य जाणेज, तद्यथा-दारुणो मृदुर्वा, अथवा छन्द इति येनाक्षिप्यते वैराग्ये न शृङ्गारेण इतरेण वा, तथा-किंच अयं पुरिसे कंचा दरिसणमभिलसे? एवं ज्ञात्वा विणएज तु सर्वतो आतभावं आतभावो णाम मिथ्यात्यं अविरतो या, ततो अप्रशस्तादात्मभावात सर्वतो विनयेत, एवं कालण्यो मायण्णे, जे व क्षेअण्णे, तंजहा रुवेहि लुप्यति रूपं सर्वप्रधानं विषयाणां तथानापि स्त्रीरूपादि तेष्वेव मूर्छन्नालुप्यते इहापि तावत् जहा 'सद्दे गओ०'गाथा, किमु परलोए? एवमेतानिन्द्रियापायान् दृष्ट्वा विजंति विद्या गृहीत्वा ज्ञात्वेत्यर्थः, गृहीतविद्यः सन्ः त्रसस्थावररक्षणं धर्म कथयति, तं हुणं कहेत्ता न पूजासकारादीन्यालम्बनानि आलंघयेत् इत्यतो निवार्यते 'न पूयणं चेव॥५७८॥ वृत्तं, ण पूया मम भबिस्सती,सिलोगो णाम जसो कित्ती यथाऽनेन तुल्यः प्रशस्तविस्तरो कथको, मृष्टवाक्य इत्यादि, प्रियं च न कुर्यादसंयतानां अन्यतरेण सावधोपकारेण वा, अप्रियं, अथवा ममायं प्रियं अयं वाऽग्निय इति, अथवा यो यस्य प्रियः सन् तस्य पिशुनवचनविद्वेप गादि न कुर्याद् धर्म कथी। किंच
२८२॥
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भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१३], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१२२-१२६], मूलं [गाथा ५५७-५७९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
प्रत
सूत्रांक
श्रीसूत्रक
तानचूर्णिः
॥२८॥ १४ याथा
||५५७५७९|| दीप अनुक्रम [५५७५७९]
'सर्वे अणडे' अशोभना अर्थाः अनर्थाः, संयमोपरोधकृत अर्थोऽनर्थः अनर्थदण्ड इत्यर्थः, अणाउलो णाम अनातुरः क्षुदादिमिः ग्रन्थनिक्षेपः परीपहै:, अपापशील: अकपायी, 'आहत्तहीयं समुपेहमाणे॥५७९।। वृत्तं, आधचहियं धम्मं मग्गं समाधि समोसरणाणि | य यथावद् बच्चानि, सम्यक् उप इक्ष्यमाणः, सब्वेहिं पाणेहिं णिखिप्प दंडं दंडो नाम घातः, णो जीवियं णो मरणाभि| कंखी असंजमजीवितं परीपहोदयाद्वा मरणं, चरेज मेधावी वलयाविमुक्कोत्ति बलया माया, एवं उक्तं एवं ब्रवीमि ।। यथा
तथ्यं त्रयोदशमध्ययनं समाप्तं ॥ ___अज्झयणामिसंबंधो-वलयाविमुशोचि भावगंथविमुक्कोत्ति अभिहितः, सो पुण गंथो इह वणिजति एस संबंधो, तस्स चत्तारि अणुओगदाराणि, अत्याहिगारो गंथो, जाणिऊण विपहियचे, पसत्यभावगंथो य गच्छेययो, णामणिप्फण्णे गंथो, तत्थ 'गंथो पुब्बुद्दिट्टो ॥१२७|| गाथा, दुविधो गथो दच्चे भावे य, जहा खुड्डागणियंठिजे भावगंथो पुब्बुदिट्ठो, तं पुण गंथो जो सिक्खइ । सो सिक्खउसि वा सेहोत्ति वा सीसोति वा बुधति, सो पुण दिविधो-सहत्थपब्बावितो सिक्खवितो, तत्य सिक्खावणासिस्सेण | अधियारो, सो सिक्खगो तु दुविधो गहणे आसेवणे य बोद्धयो। गहर्णमि होइ तिविहो सुत्ते अत्थे तदुभए या | ॥१२८॥ आसेवणाय दुविहो मूलगुणे चेव उत्तरगुणे य । मूलगुणे पचविहो उत्तरगुण बारसविहो उ ॥१२९॥ | मुलगुणो पंचविधो-पाणाइवायवेरमणादि, प्राणातिपातविरमणं ज्ञात्वा तमेव आसेवते करोतीत्यर्थः, एवं उत्तरगुणेसुषि, ते य | द्वादसविधमासेवते, एप हि शिष्यः आचार्य प्रति भवति, तेनाचार्योऽपि द्विविधः, आयरिओ पुण द्विविधो॥१३०|| गाथा, पवावंतो य सिक्खावंतो य, पन्यावतो णाम जो दिक्खेति, सिक्खावतो दुविधो-गहणे आसेवणे च 'आधेत्तो(गाहावेतो)वि। ॥२८३।।
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आगम
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भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१४], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१२७-१३१], मूलं [गाथा ५८०-६०६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] “सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
आदानादि
प्रत सूत्रांक ||५८०६०६||
दीप अनुक्रम [५८०६०६]
श्रीमत्रक- यतिबिहो' गाथा ।। १३१ ॥ गहणे तिविधो-सु गाहेति अत्थं गाहेति उभयं गाहेति. आसेवणाए दुविधो-मूलगुणे उत्तर-
गुणे य, मूले पंच, तंजहा-पाणाइवायवेरमणं सेहावेति, कारयतीत्यर्थः, उत्तरगुणे त दुवालसविघं आसेवाविति, णामणिप्फण्णो ॥२८४॥
FA गतो। सुत्ताणुगमे सुत्तमुपारेतच, स एवमाधत्तधिए धम्मे द्वितो 'गंथं विहाए इह सिक्खमाणो ।। ५८० ।। वृत्तं. सापजं
द्रव्यं ग्रन्थः प्राणातिपातादि मिथ्यात्वादि अपसत्थभावग्रन्थं च विसेसेण हित्वा विधाय, पसत्थभावगंथं तु णाणदंसणचरित्ताई आदाय, खोबसमियं गाणं कस्सइ पुज्यादत्तं भवति, किंच आदाय?, पव्वजाति आदानार्थ, खाइगरम तु णियमादाय, दर्शनं त्रिविधं, तस्यापि कस्यचिदादानाय, केनचित्पूर्वेनादत्तेन क्षायोपशमिकेन पूर्वगृहीतस्य तु आदानार्थं वृद्ध्यपेशं, चरित्रस्य तु त्रिवि धस्याप्यादानाय, प्रशस्तभावग्रन्थो आदानी येत्यर्थः, तेन चात्मानं ग्रन्थयति, इहेति इह प्रवचने, इति च पठ्यते उपप्रदर्शनार्थ, एवं दुविधाए सिक्खाए सिक्खमाणो उत्थायेति प्रवज्य सोभनं बंभचेरं वसेजा सुचारित्रमित्यर्थः, गुप्तिपरिसुद्धं वा मैथुनभचेर बुचति, गुरुपादमूले जावजीवाए जाव अब्भुजयविहारंण पडिवञ्जति ताव बसे, उवायकारी-णिद्देशकारी, जं जं बुचति तं सिक्ख
न्ति महणसिक्खाए, सुदवि सिक्खितं च आसेवणसिक्खाय अपडिकूलेति, जे छेय विप्पमायं ण कुज्जा, यम्छेकः स विप्र4 माद, प्रमादो नाम अनुद्यमः यथोक्ताकरणं, यथाऽऽतुरः सम्यक् वैद्ये उपपातकारी शान्ति लभते एवं साधुरपि सावधग्रन्थपरिहारी
पापकर्म भेपजस्थानीयेन प्रशस्तभावग्रन्थेन कर्मामयशान्ति लभते, जो पुण एगल्लविहारपडिमाए अप्पजतो, गच्छति केयि पुरिसे अविदिण्णं णिगच्छंति, अवितीर्णश्रुतमहोदधी अविद्वानसौ तीर्थफरादिभिर्विधूतः, तस्स दुअदादी दोसा भवंति, इमे चान्ये, सूत्रम्जहा दिया ।।५८१।। वृतं, पोतमपत्तजातं साचासगा पघिउं मनमाणं । स्वासगात् गर्भादण्डाद्वा, द्विळ जातो द्विजः,
॥२८॥
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आगम
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प्रत
सूत्रांक
||५८०
६०६||
दीप अनुक्रम
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६०६]
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र - २ (निर्युक्तिः+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१४], उद्देशक [-], निर्युक्तिः [१२७-१३१], मूलं [गाथा ५८०-६०६] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र -[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
मा
श्रीसूत्रकृ ताङ्गचूर्णिः
॥२८५।।
पततीति पोतः पतन्तं त्रायन्तीति पतत्राणि पिच्छानीत्यर्थः, नास्य पत्राणि जातानि अपत्र जातः, साबसा पवितुं प्रपलातुं तमचाई तरुपक्खगं वा साचामगातो उल्लीणं पुणो उडेनुमस केन्तं, ढण्कः पक्खी, ढंकः आदिर्येषां ते भवंति ढंकादिणो अन्यतरा, अव्यकगम इति अपर्याप्तः, हरे वा, पिपीलिकाउ व णं खाएजा मारेज वा णं चेडरुवाणि धांडेज वा अपि काकेनावि हिते, एप दृष्टान्तः, सूत्रेणैवोपसंहारः । एवं तु सिद्धिवि (सेपि) अधम्मे (अहधम्मं ) ॥ ५८२ ॥ वृत्तं न स्पृष्टो येन धर्मः स भवति अपुडुधम्मे, अगीतार्थ इत्यर्थः, निस्सारियमिति इहलोकसुहं णिस्सार, वृसिमं गाम चारित्रं, णिस्सारं मण्णमाणो, परं सो असुहं चाणिस्सार मण्णमाणो, दियस्य छायं स एव द्विजः पक्षी वरिकादीनामन्यतमः, छायगं नाम पिलगं, अपत्रजातं हरिंसु हरिति हरिस्संति वा, त्रैकाल्य दर्शनार्थमतीतकालग्रहणं, येषां धर्म्मः मिथ्यादर्शनं अविरतिय तेऽप्यधम्र्मा, मिक्षुकादीनी तिगि तिसङ्काणि पानादियसयाणि विपरिणामेऊण हरंति, तद्यथा - जीवाकुलत्वात् दुःसाध्या अहिंगा, दुःखेन वा धर्मः इह तु सुखेन, शुचिवादिनोऽपि द्विपंति, आमिससुवरिवदित्येवं कुप्रवचनजालेन विनश्यन्ति, रायादिणो गियलगा वा णं बिसयहिं णिमंतेन्ति, इत्थी या इत्यादि, अनेक इति बहवः पापंडिनो गृहिणथ, यतश्चैते दोषाः अगृहीतग्रन्थस्य तेन तग्रहणार्थ गुरुपादमूले 'ओसाणमिच्छे' ॥ ५८३ ॥ वृत्तं, ओसाणमित्यवसानं जीवितावमानमित्यर्थः, अथवा ओसाणमिति स्थानमेव, गुरुपादमूले, उक्त हि - 'आसवप दमोमाणं गल्लिस्स' 'मणोरमा चेया' मनुष्य इतियावन्मनुष्यत्वं च अस्य तावदिवान्ते वसिओ, अभिलाए समाधि मण्णमाणोऽनवबुद्धो नवग्रहयत्, समाधिरुक्तः, तमाचार्य सकाशादिच्छति, अन्यत्रापि हि वसन् जो गुरुणिद्देशं वहति म गुरुकुलवा तमेव वसति, अनिर्देशवर्तितु सन्निकृष्टोऽपि दूरस्थ एव, लोकेऽपि सिद्धा प्रत्यक्ष परोक्षसेवा, कामक्रोधावनिर्जित्य, किमरण्ये
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अपोतद्विजादि
॥२८५ ॥
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आगम
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भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१४], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१२७-१३१], मूलं [गाथा ५८०-६०६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[२] “सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
ज्ञानवि
प्रत सूत्रांक ||५८०६०६||
श्रीमत्रक- ताङ्गचूर्णिः
२८६॥
त्तादि
दीप
करिष्यसि ?।' कालगतेऽपि गुरौ असहायेन गीतार्थेन चान्यत्र गन्तव्यं, स्यात्को दोपः?, अनधिकारिणोऽपि तस्य 'अ-N | पोसिए णंतकरिंति णचा' ण उपितः गुरुकुलेहिं अनुपितः न भवस्यांतकरो भवति, वालुकवैद्यदृष्टान्तः, गुरुसमीपे तु स्खलि| तोऽपि पुनर्विसोध्यते, कया ?, मेरया वासे, 'ओभासमाणे दवियस्स'वृत्तं ॥५८|| ओभासितं णाम रागद्वेषरहितत्वात् तीर्थकर एव भगवान् , ज्ञानधना हि माधव इतिकृत्वा, वित्तं ज्ञानमेव, ज्ञानदर्शन चारित्राणि वा, अथवा तं दविगवित्तं प्रकाशयति, वादी वा धम्मकथी वा विसुद्धचारित्रो वा तपस्वी वा, तद्यावदाचार्यसमीपे विद्यते ताव ण णिकसे बहिया, असावपि तावद्वशको गुरुमपि(मुप)जीवति, आचार्यवत् गुर्वणुज्ञातो णिकसेजा, ततो वा बहिता ण णिकसे, विपयकपायाभ्यां वा हीरमाणमात्मानं अवभासते अनुशासतीत्यर्थः, मा एवं कुरु यावदित्यर्थः, निवार्यमाणं चात्मानमिच्छन्ति गुर्वादिभिः, आसुप्राज इति क्षिप्रप्रज्ञा, क्षणलव| मुहूर्त प्रति युदयमानता, तथा 'किं में कडं किन्चमकिञ्च सेसं०' प्रमादं च गत्वा आसु प्रतिनिवर्तते किल, सप्रमाद वा तत्र खयं प्रमादनिवृत्तये इत्यपदिश्यते । सद्दाइ(णि)सोचा अदु भेरवाइ(णि)वृत्तं ।।५८५।। तयथा-वन्दनस्तुत्याशीर्वादनिमन्त्रणादीन् तथोपसेवनादीनि, येनादिग्रहणं करोति तेन ज्ञायते यथैतानि स्तुत्यादीनि शब्दजातानीह संतीति, भयं कुर्वन्तीति भैवाणि, तद्यथा-खरफरुमणिठुरभैरवादीनि सदाणि, सोचा वाक्यशेषादिति ज्ञाप्यंते, वाशब्दादभैरवान् , अथवा अभैरवाणि, अनाश्रयो । नाम अनाश्रवः तेषु भवेत् , अथवा आश्रय इति स्थानं रागद्वेपाश्रय इत्यर्थः, अनुभूनेषु वा, एवं जाव फरुसाणि फुसित्ता अदु मेरवाणि अपि फासरूवरसगंधेहि, एते इंदियपमाददोपा इहैव, निद्राप्रमादनिवृत्तये तु णिदं च भिक्खू न पमादकजा (पमाय कुञ्जा) दिवमतो ण णिहायति, रतिपि दोणि जामे जिणकप्पी, एकान्तं वितण्हणिद्दो, सरीरधारणार्थ स्वपिति, निद्रा हि परम
अनुक्रम [५८०६०६]
।।२८६॥
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भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१४], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१२७-१३१], मूलं [गाथा ५८०-६०६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] “सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
श्रीसूत्रक
प्रत सूत्रांक | ||५८०६०६||
दीप
HI/ विश्रामणं, चशब्दात्कपायकथामयप्रमादा अपि गृह्यन्ते, कथं कथमपीति किमहं पव्वजण णित्थरेजी समाधिमरणं पा लभेजा, निद्राप्रमाद
वर्जन ताङ्गचूर्णिः
|| अथवा कथं कथमिति सम्यक् अनुचीर्णस्वास्स कि फलमस्ति नास्तीति एवं चितिगिच्छा तरेज, न कुर्यादित्यर्थः, धर्मकां वा ॥२८॥
l कथयन वितिगिछामप्पणो तरेज, तमेव सर्व निस्संक जंजिणेहि पवेदितं ।' अण्णेसि च तहा कहेज जहा वितिगिंछा ण भवति ।
उत्तरशिक्षाधिकारे तु(ऽनु)वर्चमाने 'जे ठाणओ सयणासणे य'वृत्तं ॥५८४|| स्थानेन साधु भवति पडिलेहित्ता पमजित्ता, जहा | ठाणसत्तिकर, सपणे सुबतो साधू साधुरेव भवति, स जागरो सुवति जहा ओहणिज्जुत्तीए, आसणे निप्तीयंतो पडिलेहणादि करेति, पीढगादि या जहि काले आमणं गेहेतब्बं जहा परिभुंजियब्ध, पलियंकादीओ य पंच णिसिजाओ आचरतो साधुरेव न भवति, परमेरियासमितिवान् साधुरेव भवति, समितीसु अगुत्तीसु अ समिती इरियासमिती मुका सेमाओ, गुत्तीओवि काय-M गुत्तिं मोत्तुं, ठाणमयणासणगहणेणं कायगुत्तीरुक्ता, आगना प्रज्ञा यस्य स भाति आगतप्रजः, समिती गुप्तिथ आसेविते विया| गरेतिति, स.एवं समितात्मा गुप्तच यदा या करोति धम्म तदा सुखं प्रज्ञापयति, पुढो विस्तरशः कथयति, तरूप हि उद्यममानस ग्राह्यं वचो भवति, विसुद्धं भवति, स्थानादिपु वा यो हि चिरं स्खलतीत्यर्थः, तं पुढो वदेजा पति चोदिज्ज स्वयं यथा ते हि सुखं परिचारयंति, अथवा पुढोत्ति परस्परं चोदयंति, न गौरवेन, ममैते वश्या अभियोज्यावा, सो पुण चोदंतो दुविधो समानवयोऽममानवयो य, सर्वस्यापि पोढव्यमिति, तद्यथा- 'डहरेण वृत्तं ॥१८६।। डहरो जन्मपर्यायाम्पा, बुट्टो वयसा, अनुशासितः क्वचित् चुकस्खलिते पडिचोदितः रायणिए आयरिओ परियारण वा पबत्तगाईण वा पंचानामन्यतमेन समवयोपरियारण वयमा वा। एवमादीनां वचनं सम्म तगं थिरतो वेदेति चोदनावचनं, थिरं नाम जं अपुणकारयाए अब्भुढेति, न नाभिगच्छति, न गाति न, ॥२८७||
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भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र - २ (निर्युक्तिः+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१४], उद्देशक [-], निर्युक्तिः [१२७-१३१], मूलं [गाथा ५८०-६०६] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र - [०२], अंग सूत्र -[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
नोदनादि
श्रीसूत्रकनाचर्णिः
॥२८८॥
मिच्छा करेति, कुम्भारमिच्छादुकडं न करेति, चोदितो वा न पडिचोदति, णिजंतए वावि अपारए से यथा नदीपूरेण हियमाणः केनचिदुक्तं इदं तुरकाएं अवलंवस्त्र, वारं अंबे वृक्षशाखां वा मुहूर्त्तमानं वा आत्मानं धारय इत्युक्तो रुष्यति न वा करोति, यदुच्यते स हि अपारगे भवति, पारं न गच्छतीति अपारगः, एवं समिओऽवि, अथवा निमंत्रणामिवातुरः न रागं परं गच्छन्ति, अथवा णिज्जतराणि इति णिज्जवतो, स हि आचार्यमक्षं प्रति नीयमानोऽपि सम्यगुपदेशैः पडिचोअणाहि या पारं गच्छति संसारस्य कपायवशात् अहं अप्पसुतेहि य, एसा ताव सपक्खचोदणा । इदाणि सपक्खे परपकखे य-'विउद्वितेणं समयाणुस हे (सिट्टे) ' वृतं ॥ ५८७|| विउडिनो नाम विच्युतो यथा व्युत्थितोऽस्य विभवः, संपत् व्युत्थिताः, संयमप्रतिपन्न इत्यर्थः, पार्श्व स्थादीनामन्यतमेन वा कचित्प्रमादाय कार्येण वा त्वरितं गच्छन् जहा तुझं ण वहति तुरितं गंतुं, कहं १, कीडगादीनि न हिंसध, हिंसितु वा एवं मूलगुणेसु वा उत्तरगुणेसु वा विरावणाए अण्णतरेण वा समये वाऽनुशास्तः ण तुझं वहति एवं काउं, जे अंतरपलोयण होयचं, ते तु डहरेण वा महंतेण वाऽनुशास्तः, अम्भुट्टिताए घडदासीए वा, अतीव उत्थिता अन्भुङ्किता, कुत्रोत्थिता है, दौ:शील्ये, घटदासीग्रहणं तीसेवि ताव गोदिज्जतो ण रुस्सियन्वं, किं पुण जो तणुआणिवि सीलाणि धरेति १, अथना अि मा दंडघट्टिता भुयंगीव धमधमेति रुड्डाणं भणेति तुज्झ वहति एवं काउं ? अथवा अब्भुद्दितेति पडिपक्त्रत्रयणेण गतं, चन्द्रगुप्तस्त्रीत् पुरुषः, तद्यथा - दासदासी, पतितेभ्योऽपि पतितस्याचि चोदंती, ण वक्तव्या, से वावि नाव तुमं कहेसि मत्रं चोदेंतु, आगारिणंति स्त्रीपुंनपुंसकं वा, आह केन ?, अन्यतरेण वा एवं चोदितो 'ण कुप्पेजा' वृत्तं || ५८८ || कोपो नाम मनप्रद्वेषः, पडुचे तं पयहेज्जाकलोत्थादीहिं, ण वा फरुसं वदेज, जहा मरुओ, रक्तपडगे णाम मंसखोयडक्खाओ मुंडकुटुम्बी, सोऽवि ता वत्थेण
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भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र - २ (निर्युक्तिः+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१४], उद्देशक [-], निर्युक्तिः [१२७-१३१], मूलं [गाथा ५८०-६०६] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र -[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
प्रत श्रीसूत्रक्रसूत्रांक साङ्गचूर्णिः
॥२८९॥
||५८०
६०६||
दीप
अनुक्रम
[५८०
६०६]
पासिओ लोगो ण किर जाणति जेण तुम्शो दिडं, किगंग पुण तुमं सरक्सेग वा ओसोग चोदितो, भगति को तुममट्ठे बा चोदेतुं भवति, तहा करिस्संति, सपक्खे मिच्छामिदुकडे, परपकखे ममेन तच्छ्रेषः, एवं पडिसुजा, न च प्रमादं कुर्यात्, येन पुनबोधते यत्तुल्यगं तस्स पूया कायव्या । 'वर्णसि मूढस्स ० ' वृत्तं ॥ ५८९ ॥ वनमरणं तत्र दिग्मूढस्य उत्पथप्रतिपत्रस्य वा अमूढः कथितमान् अन्यो ग्रामो वा अदिस्सं गच्छतो मार्ग कथयति यथा कथयागि तथा तथाऽयं मार्ग इप्सितां भुवं गच्छति, अनुशासंतो यदि उन्मार्गापायान दर्शयित्वा ब्रवीति अर्थ ते मग्गे हितः क्षेमोकुटिलत्वादितः फलोवगादिवृक्ष जलोपेतल्याच, प्रजायंते इति प्रजाः- मनुष्याः प्रयान्ति वा येन तत्प्रयानं भवति मार्ग एव तेवमेव सेयं, तेणावि मुढेण अमृढयस्स तेण मज्झ यचैव एवं में से जंबुद्धा समणुसासरांति, जं मे एते बुद्धा मग्गविद् सम्मं उअगं, न वा द्वेपेण, अनुशासना नाम घी, सम्ममणुमामयंति, बुद्धा बुद्धा आचार्याः पुत्रस्येवोपदिशंति, न द्वेषेण पक्षरागेण वा स्खलिनेषु अणुशासति एप दृष्टान्तः, उपसं हारः तवस्तेन मूढेनेश्वरेण या० वृत्तं ॥ ५९० ॥ अमृढस्येति देशिकस, यद्यपि चण्डालः पुलिन्दिगन्दगोपालादि च तस्यापि विस्तीर्णवता नरेण सता शक्त्यनुरूपा कायच्या, पूया भक्तिसंजुत्ता, अहमनेन दुर्गात् श्वापदभयात् दोपेभ्यो मोक्षित इत्यतोऽस्य कृतज्ञत्वात् प्रतिपूजां करोमि, विशेषयुक्ता नाम यावती मे तेन पूजा कृता अतो अस्याधिकं करोमि, तद्यथा-- वस्त्रान्नपालनभोगप्रदानं राजा दद्यात् उक्तो दान्तः 'एनोवमं तत्थ उदाहु बीरे' तस्मिन्निति तस्मिन्मार्गोपदेशक उदाहरंति स्म उदाहुः, धीराः, अणुगम्म अत्यंति अणुगमेण अणुगम्य उपनयति, तेनापि मिथ्यात्ववचनात् उत्तारनेन अभ्युत्थानादि सविशेषा पूजा कर्त्तव्या यद्ययस चक्रवर्ती निष्कान्तः आचार्यच द्रमरुकुलादिजानः, द्रव्यपूजा आहारादि, मावे मक्तिः वर्णवान्वेदान्ताः
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चोदकपूजादि
॥ २८९ ॥
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भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१४], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१२७-१३१], मूलं [गाथा ५८०-६०६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-[२] “सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
नेतृत्वादि
प्रत सूत्रांक |
श्रीस्त्रक तद्यथा-'गेहंमि अग्गिजालाउलंमि जह णाम डझमाणमि । जो बोहेइ सुयंत सो तस्स जणो परमबंधू ॥१॥ जद्द वा विससंजुत्तं 'तानचूर्णिः
भत्तं निद्धमिह भोत्तुकामस्स । जो विसदोसं साहइ सो तस्स जणो परमबंधू ।।२।। अयमन्यः सौत्रः 'णेता जहा अंधकारंसि ||५८०॥२९ ॥
रातो०'वृत्तं ॥५९१।। नयतीति नीयते वा नेता, अंधं करोतीति अन्धकार मधान्धकार अचन्द्राबा रात्रिः अडवीसा गत्तापाषाण६०६||
दरीवृक्षदुर्गमा से तस्यां पूर्वदृष्टमपि दण्डकपथं न पश्यति, कुतोऽमार्ग, सो सूरीयस्स अन्भुग्गमेणं स एव सूर्यप्रकाशामिव्यक्तचक्षुर्जानकः मग्गं वियाणाति पगासितंति प्रकाशितमिति जगति चक्षुषि वा, एवं तु सेहे' वृत्तं ॥५९२।। सेहो पुव्युत्तो
दुविधो-गहणे आसेवणे य, अपुट्टधम्मो णाम अदृष्टधा, धर्म न जानाति, प्रवृत्तिनिवृत्तिलक्षणं धर्म ज्ञानादि, प्राणातिपातादिषु दीप
यथासंख्य, अथवा चित्रधर्म अप्रमादादिधम्म वा से कोवितो जिणवयणेण पच्छा कोविता णाम विपश्चितः गहणसिक्खाए अनुक्रम
कोवितो, आसवितव्यं च गहणशिक्षया ज्ञायते सूरोदए पासति चक्खुणेव देशिकोऽपि च पथं, अकृत्यादावर्य कृत्ये प्रवर्तते, [५८०
गुरुकुलबासगुणात्प्रमादाप्रमादी मूलोत्तरगुणौ च पश्यति, मूलगुणेसु तावत् अहिंसापथमपदिश्यते 'उड़ अहेयं तिरिय दिसासु
वृत्तं ॥५९३।। उट्ट अहेयचि खेत्तपाणातिवातो, जे थावरा जे य तसा दव्यपाणातिवातो, सदाजतोत्ति कालपाणातिपात:, ६०६]
तस्स परक्कमंतो मणप्पओसं अविकंपमाणोत्ति भावपाणातिवातो योगत्रयकरणत्रयेण, एवं सीतालं भंगसतं पंचसु महब्बएसु,
दब्यादिचतुष्कं च सामान्येन सन्यासु जोएयच्या, मणप्पदोसं, पदोसेण या विविध कम्पयति २, एवं उत्तरगुणसुवि दुविधा सिक्खा DAII जोएवा, यस्मायेने गुरुकुलवासगुणाः तत्रावसन् ज्ञानमधीत्य करतलामलकबल्लोकं पश्यति व्रतेषु च स्थिरो भवति, ज्ञानगुणात् ।
तेन तज्जातं 'कालेण पुच्छे समियं पयासु'वृत्तं ॥५९४॥ 'कालेने ति 'काले विणए बहुमाणे०'णाणायारो मयिति, सम्य
||२९०॥
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आगम
(०२)
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१४], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१२७-१३१], मूलं [गाथा ५८०-६०६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
कधनादि
प्रत सूत्रांक
श्रीसूत्रक
नाङ्गचूर्णिः ॥५८०- | ॥२९॥ ६०६||
दीप
| गिति तिविधाए पज्जुवासणताए, प्रजायन्त इति प्रजाः सम्यग्प्रजाभ्यः आइक्खमाणं (णो) 'जहा पुण्णस्म कत्थइ तथा तुच्छस्स कत्थई' यथा ईश्वरनिक्रान्तस्य तथा पेलवनिष्कान्तस्यापि कथ्यते, दविओ णाम दोहिवि रागदोसेहिं रहितो भावात् तस्य तज्ज्ञानं, बानधनानां हि साधूनां किमन्यत् वित्तं स्यात् १, स तु गीतत्थो पुच्छिययो, इतरो उ अतञ्चपि देसेज्ज, तं सोयकारीय तमिति यत्कथ्यते श्रोतसि करोतीति श्रोतकारी, गृहीत्वेत्यर्थः, गृह्णाति, अथवा श्रोत्रेण गृहीत्वा हृदि करोतीति श्रोत:कारी, श्रुत्वा वा करोतीति श्रोतकारी, पुढोपवेसेत्ति पृथक् पुणो २ वा पवेसे हृदयं पुढो पवेसे, 'सहस्रगुणिता विद्याः, शतशः परिवर्तिताः', पत्तेयं वा पत्तेयं पवेमो पुढोपवेसो, तंजहा-उस्मग्गे उस्सग्गं अवयाते अववातं, एवं ससमए सममयं परसमए परसमयं वा, अतिक्रान्ते अतिक्रान्तकालं, संख्यायतेऽनेनेति संख्यानं, केवलिन इदं कैवलिकं समाधिरुक्ता, 'अरिंस सुठिच्चा' वृत्तं ।।५९५॥ अस्मिन्निति यद्गुरुकुलबासे बमता श्रुतं गुणितं च, सुठ्ठ डिच्चा सुठिच्चा, दुविधाए सिक्खाए अप्पमादे समितिगुत्तीसु अ एसकालं यथा साम्प्रतं तथैष्यकालमपि यावदायुः, एतेसुत्ति एतेष्वेव समितिगुप्त्यप्रमादेषु धर्मसमाधिमार्गेषु च वर्तमानस्य शान्ति:-इहान्यत्र च सौख्यमित्यर्थः, सर्वकर्मशान्तिर्वा, शान्तस्य च सतः सर्वकर्मनिरोधो भवति, अनाथव इत्यर्थः, अथवा समित्यादिपु अप्रमादस्थानेषु यानि चिहान्युक्तानि तेसु वर्तमानस्य कर्मोपनिरोधो भवति, क एवमाख्यांति?, उच्यते, ते एवमक्खंति | 'ते' इति ते तीर्थकराः ज्ञानदर्शनचारित्राख्यास्त्रीन् लोकान् पश्यन्तीति त्रिलोकदर्शिनः, ऊर्धादि वा त्रिलोकं पश्यति, तस्माद्गुरुकुलबासे वसतः समितिगुप्तिगुप्तस्य प्रमादरहितस्य शान्तिर्भवति कर्मनिरोधश्च, तेन न भूयः पतंति प्रमादसंग, एतदिति यदुक्तं, | असमितित्वमगुप्तत्वं च, प्रमाद एच सङ्गः, संगो वा थोवक्खो मोक्खमग्गस्म, एवं गुरुकुलबासे दवियस्स वित्तं । 'णिसम्म से
अनुक्रम [५८०६०६]
॥२९॥
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आगम
(०२)
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१४], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१२७-१३१], मूलं [गाथा ५८०-६०६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[२] “सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
' श्रीक्षक
र्थादि
प्रत सूत्रांक ||५८०६०६||
१ ॥२९॥
दीप अनुक्रम [५८०६०६]
भिक्खु समीहमद (सभी हिय).'वृतं ॥५९६॥ निशम्येति गृहीत्वा गुणयित्वा निशभ्य वा, सम्यक् पौर्वापर्येण वा समीक्ष्य, समीहिता0 अर्थमिति श्रुतार्थ मोक्षार्थ या, तॉग्तान् प्रति अर्थान् भातीति प्रतिभा, श्रोतृणां संशयच्छेचा, विशारदः खसिद्धान्तजानका, आदा
णमट्टी आदीयत इत्यादान, शानादीन्यादानानि, आदानेन यथार्थः स आदानार्थी, योदानं विदारणं तपः, मौन-संयमः, आदानार्थी वोदानं मौनं च, उपेत्येति प्राप्य, दुविधाए सिक्खाए गुरुकुलवासी प्रमादरहितः शुद्धेत्ति निरुपधेन सम्यग्दर्शनाधिष्ठितेन चोदनेन प्रतिपेधेन, उबेतिति, मारं मरंत्यस्मिन्निति मार:--संसाः, उक्कोसेणं वा सत्तट्ट भवग्गहगाई मरेज, एवं सो बहुस्सुओ जातो जो वुत्तो अस्सि सुद्विचा, यस्थ पढितं-णिसम्म से भिक्षु समीहियहूं, देशदर्शनं कुर्वन् अब्भुजयमेगतरं प्रतिपत्तकामेण । वा गुरुणा आचार्यत्वेन स्थापितः समीक्षितो वा, एके अनेकादेशात अभिधीयते 'संवाइ धम्मं च वियागरंति'वृतं ।।५९७।। संखाएति धर्म ज्ञात्वा श्रुतं धर्म वा कथयति सिस्मपहिच्छगाणं धर्मकां च कथयति, अथवा 'संखाए'त्ति खेर कालं परिसं सामत्थं वऽप्पणो बियाणित्ता परिकथयत्ति, अथवा कि अयं पुरिसे? कं च गए?" अथना संख्यायेति एतत्मात्रस्यायं श्रुतख योग्या, अतः परं शक्ति स्ति, सत्यां वा शक्ती जचियं प्रचरन्ति तत्तियं गहिय, एवं संख्याय 'अयोच्छित्ति०' एवमादिभिः प्रकारैः संख्याय धम्म वागायंता बुद्धबोधितास्ते आचार्याः, कम्माणं अंतं करेंतीति अंतकराः, अन्याश्च कारयति, यतः पारगाः ते पारगा दोपहावि मोयणाए ते इति संख्याय धम्म व्याकरयन्तः, पारं गच्छंतीति पारगाः, आत्मनः परस्य च, दोण्हवि मोयणाए, पारं गच्छति मोचनाः, कतरे ते ?, जं संसोधिगा पाहमुदाहरंति सम्यक समस्तं वा सोधिया संसोधिया, पुच्छंति तमिति प्रश्नः, पूर्वापरेण समीक्षितुं आत्मपरशक्तिं च ज्ञात्वा द्रव्यादीनि च तथा केऽयं पुरिसेति परिचितं च सुत्तं करण आयरिया देसाधारित्तेण
॥२९२॥
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गम
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भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१४], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१२७-१३१], मूलं [गाथा ५८०-६०६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सूत्रकृत' जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
श्रीसूत्रक
प्रत सूत्रांक ||५८०६०६||
ताजचूर्णिः
JAMISARTAN
॥२९३॥
दीप अनुक्रम [५८०६०६]
अत्धेण सरितेणं तो संघमज्झयारे चवहरितुं जे सुई होति, अच्छिद्दपसिणवागरणा अकेवली केवली वा रयणकरंडसमाणा, कुत्ति- अनाच्छा
दनादि यावणभृता कथा, चोदसदसणवपुथ्वी जाव दसकालियंति, संसोधितुं अविच्छिन्नोच्छित्ति करेति, तं पुण कहतो-'णो छादएका वृत्तं ॥५९८।। मत्सरित्वेनार्थे नाछादयेत् पात्रस्य, धर्मस्य कथां कथयन्त्र सद्भूतगुणान् छादयेत् , नवा चायणारिय छादयेत् , लूसितं भग्नमित्यर्थः, लूसित्ता णाम अवसिद्धांतं कथयति सिद्धान्तविरुद्धं वा, माणं ण सेवंति प्रज्ञामानमाचार्यमानं वा, संशयानात्मनः परस्य वा छेत्तुं न मदं कुर्यात् , न वा प्रकाशवेदात्मानं यथाऽहमाचार्यः, णयावि पपणे परिहास कुजत्ति प्रज्ञावान् प्राज्ञः, न चेदृशीं कथां कथयेत् येन श्रोतुमात्मनो वा हास्यमुत्पद्यते, अपरियच्छते या परे अण्णहा वा अबुझमाणे न प्रज्ञामदेन परिहासं | कुर्यात् , यथा' 'राजा तथा प्रजेतिकृत्वा न सर्वत्रैव परिहासः, ण याऽऽसियावायंति 'शंसु स्तुतौ तस्याशीर्भवति स्तुतिवादमित्यर्थः, न तदानबन्दनादिभिस्तोपितो यात-आरोग्यमस्तु, ते दीर्घ चायुः, तथा सुभगा भवाष्टपुत्रा इत्येवमादीनि न व्याकरेव , एवं वाक्समितिः स्यात् , किंनिमित्तमाशीर्वादो न वक्तव्यः ?, उच्यते, भूताभिसंकाए(इ)दुगुंछमाणा(णे)' ॥५९९।। वृत्तं, भूतानि अभिसङ्केयुः सावद्याभिधायिनः अत इदमपदिश्यते, भूतानि यस्य सावधवचनस्य शङ्कते न तेन वचनेन णिचहे, संयमे निर्गच्छेदित्यर्थः, न चानेन वचनेन णिबहे, संयम निर्गालवेदित्यर्थः, मन्यत इति मत्रा-वचनं, मत्र एव पदं मत्रपदं, | अथवा मत्रा इति विद्यामधादयो गृह्यन्ते, तेन मत्रपदेन निब्बहे, गुप्य(गूयत इति गोत्रं-संयमः सप्तदशविधः अष्टादश च सीलगमहस्साणि इत्यस्मागोत्रान्न तद्विधं वचो त्रूयात् यन्त्र निर्वहेत् , पट्काया वा गोत्रं यत्र गुप्यते तां न निर्वहेत् , गोत्रात् जीवितादित्यर्थः, तच्च गोत्रमाचरेत् , कहेन्तो वाण किंचि मिच्छे ण कितिवणमसिलोगट्टताए कहिश धम्म, मनुष्य इति स पदकथका, ॥२९३॥
AN
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आगम
(०२)
प्रत
सूत्रांक
||५८०
६०६||
दीप
अनुक्रम
[५८०
६०६]
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र - २ (निर्युक्तिः+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१४], उद्देशक [-], निर्युक्तिः [१२७-१३१], मूलं [गाथा ५८०-६०६] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र -[०२ ], अंग सूत्र [०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि
श्रीसूत्रकृ
नाचूर्णि
॥२९४॥
प्रजायत इति प्रजाः यामां कथ्यते, तासु प्रजासु, खियो वा प्रजा, न कीर्त्तिमिच्छेत् असाधूनां धर्माः २ तान् असाधुधर्मान् न संव एजा, ते च दर्पमदाहंकारादयः, अथवा न तत्कथयेत् येन असाधुधर्माणां सद्ध्यानं भवति, पचनपाचनादीनां, असंयतदानादि या न कुतीर्थिकान् वा प्रशंसंति, किंच- 'हासंपि णो संघति० ॥ ६००॥ वृक्षं, हास्येनापि नो पापधर्मं संचयेत् यथेदं छिंदत भिदन वा खाद मोय वा, अथवा हास्येनापि न प्रशंसयेत् कुप्रवचनानि शाक्यं ब्रुवते - अहो तुज्यं सुदिहं जं वरचोल्ला वट्टंति, सुहं चैव धम्मं तुझे करेह, यद्यपि सोलंठं तथापि न वक्तव्यं मा भूदन्येषां पात्रबुद्धिः स्यात्, गोमढं खजति गोचम्मेसु वधं, जायेति रागद्वेपरहितः, न विगंतन्त्रं सद्भूतं, फरुसं अतिजाणति, रागद्वेपबन्धन भावात् परुषः- संयमः कर्मणामनाश्रय इत्यर्थः, तथ्यं -संयमं, अभिमुखं जानाति यथा सो वाग्दोषान्न विराध्यते यथा वाऽऽचार्यते तथा च कथयति, अथवा कथयन् कथां लब्धिगर्वितो न भवति, नैवार्थकं पदं, किं १, लब्ध्वा गर्वितो भवति, जहा तुच्छस्स कहेति-तणहारगस्तवि तहा रायस्स, जहा जहा तुच्छरस तहा तहा राज्ञोऽपि, प्रकथनो नाम नो धर्मथित्वेनान्येन वा आत्मानं कथयति श्लाघयतीत्यर्थः, अपरिच्छंतं वा नाव कंसेति, चमढयतीत्यर्थः, तत्र न अन्येषामपि संयतानामुदुरुस्ती, अथवा न तुच्छए आत्मानं मौनपदेन प्रकथयति, यथाऽहमीदृशो अनन्यमदृशो वा अणाइलेति न धर्म देशमानो, न आतुरो भवति, मन्यादितो वाऽऽकुलः -व्याकुलो भवति, अपरियच्छन्ते वा परे, सिद्धताविरुद्धानि सेवन्ते इत्यविरुद्धसेवी, न च विरुद्धयते तेन सह यस्य कथयति । किंच 'संकेज याऽसंकित भाव भिक्खू० ॥ ६०१ ॥ वृत्तं यत्र शंकितमस्य ज्ञानादिषु तन्न कथयति अपृष्टः पृष्टो वा शंकेत अशङ्कितभावः, एवं तावत् ज्ञायते, अतः परं जिना जानंति, भावो नाम ज्ञानं, सङ्किनज्ञानमित्यर्थः न च तद्भापते कथयति वा येनान्यस्य शङ्का भवति, विभज्यवादी नाम भजनीयवादः, तत्र शङ्किते भजनीय
[307]
असाधुध
मवदनादि
॥२९४॥
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भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१४], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१२७-१३१], मूलं [गाथा ५८०-६०६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
विभज्यवादादि
प्रत सूत्रांक | ॥५८०६०६||
तागचूर्णिः ॥२९५॥
दीप अनुक्रम [५८०
वाद एव वक्तव्य:-अहं तावदेवं मन्ये, अतः परमन्यत्रापि पुच्छेञासि, अथवा विभज्यवादो नाम अनेकान्त पादः स यत्र २ यथा युज्यते तथा २ वक्तव्यः, तद्यथा-नित्यानित्यत्वमस्तित्वं वा प्रतीत्यादि, किं कथयति ? केन वा कथयति? सत्या असत्यामृषा च भाषादुर्ग, संमसमुट्टितेहिं पढमचरिमाओ दुवे भासाओ, सम्म समुट्ठिते, ण मिच्छोवहिते, जहा उदाइमारगो, चोदकबुद्ध्या वा वेतण्डिका वा करेजा, सनीएत्ति सम्यक् आशुप्रज्ञः उक्तः। किंच-'अणुगच्छमाणे वितहं विजाणे.' ॥६०२।। प्रत्तं. | तस्यैव कथयति कश्चिद् ग्रहणधारणासंपन्नः यथोक्तमेवावितहं गृह्णाति, कश्चित्तु मन्दमेधात्री वितथं हि जाणति, तक मंदमेघसं तथा २ तेन प्रकारेण हेतुदृष्टान्तोपसंहारैः, यथा २ प्रतिबुद्ध्यते तथा साधु सुष्टु प्रतियोधयेत् , न चैन कर्कशाभिगिराभिरभिहन्येत् , घिग मूर्ख ! किं तवार्थेन ? स्थूलबुद्धे!, एवं याचा अककसं, कायेनापि न क्रुद्धमुखः, हस्तवक्रौष्टविकारैः वा, मनस्तु नेत्रवविकारेण अनादरेण गृह्यते, सर्वथा अकर्कशे, किंच-तत् कुन्नचिद्भाव क्वचित् खसमये परसमये वा तथोत्सर्गापवादयोः ज्ञानादिपु द्रव्यादिगज्ञापनायां चा न कुत्रचिद्भापां विहिंसेत् , परुपमृपावादादिदोपः, तस्य वाऽबुद्ध्यमानस्य श्रोतुन कुत्रचिद्भापां चिहिंसेत , अहो भंगा लक्ष्यन्ते, न निन्ददित्यर्थः, निरुद्धगं चार्थमाख्यानं वा न दीर्घ कुर्यात् अधिकाथैः, सो अत्थो वत्तव्यो जो अत्थो अक्खेहि | आरूढो"अपक्खर महत्थं'चउभंगो जहा जहा परूविज्ञा० हंदि महता चङगरत्तणेण अत्थं कथा हणति ॥१॥ किंच-'समालवेजा'
॥६०३।। वृत्तं, सोभणं समयं वा कधेजा, पडिपुन्नभासी अद्वेहिं अक्खरेहिं अहीनं अक्खलियं अमिलितं निमामियं जहा गुरुसगासे व निशान्तं ममीक्षिनं वा बहुशः तथा सम्यगर्थदर्शी कथयति, समिया नाम सम्यक, यथा गुरुपकाशापधारितं सम्यक् अर्थ पश्यन्ति
मभियाअगुदमी नाहमाचार्य इतिकृत्वा, संति वा श्रोतारः यत्किश्चित् कथयितव्यं तेण हि, आणाइ सुद्धं बयणं आज्ञा, यथा गुरु
६०६]
।।२९५॥
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भाग-2 “सूत्रकृत" - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१४], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१२७-१३१], मूलं [गाथा ५८०-६०६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत' जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
आज्ञा| सिद्धादि
प्रत सूत्रांक ॥५८०६०६||
दीप अनुक्रम [५८०६०६]
श्रीवत्रक- णोपदिष्टं तथैवोपदेष्टव्यं, आज्ञासिद्धं नाम यथोपधारितं, तास्वविकल्पितं वचन मिति सुत्तमत्थो वा, विविध वैध जुंजेजा, कथं , ताङ्गचूर्णिः
उसग्गे उस्सग्गं अववाए अवघात, एवं ससमए ससमयं परसमए परसमयं, तदेवं युज्यमानः कंखेजया पावविवेग भिक्खू, ॥२९६॥
कथं मम वाचयतः पापविवेकः स्यात्, न च पूजामत्कारगौरवादिकारणाद्वाचयति, किंच-'अहावुइयाई सुसिक्खएज्जा'वृत्त
॥६०४।। यथोक्तानि अहावुझ्याणि सुट्ठ सिक्खमाणे सूत्रार्थपदानि दुविधाए सिक्खाए जएजसुचि घडेजसु पडिक्कमिजसु आसेवPणाए सिक्खाए, अतिप्रक्रमलक्षणनिवृत्तये व्यपदिश्यते-णातिवेले वएजा, वेला नाम यो यस्य सूत्रस्यार्थस्य धर्मदेशनाया वा काला,
वेला मेरा, तां वेलां नातीत्य अयादित्यर्थः, एवं गुणजातीयः से दिट्टिम म इति स यथाकालवादी यथाकालचारी च दृष्टिमानिति सम्यग्दृष्टिः, सपक्खे परपक्खे वा कथां कथयन् तस्कथयेत् जेण दरिसर्ण ण लूसिञ्जइ, कुतीर्थप्रशंसाभिः अपसिद्धान्तदेशनाभिर्वा न श्रोतुरपि दृष्टिं दूषयेत् , तथा २ तु कथयेत् यथा २ अस्य सम्यग्दर्शनं भवति स्थिरं वा भवति, यश्चैवंविधं स जानीते उपादेष्टुं ज्ञानादिसमाधिधर्ममार्ग, चारित्रं च जानीते सः, एवं अलूसए ण य पच्छन्नभासी०॥६०५॥ वृर्च, अलूसकाः सिद्धान्ताचार्याः, प्रकटमेव कथयति, न तु प्रच्छन्नवचनैस्तमर्थं गोपयति, अपरिणतं वा श्रोतारं प्राप्य न प्रच्छन्नमुद्घाटयति, अपवादमित्यर्थः, मा भूत 'आमे घडे णिहितं' किंच-अणुकंपाए ण दिजति, न सूत्रमन्यत् प्रद्वेषण करोत्यन्यथा वा, जहा रणो मसिजो उज्ज्वलप्रश्नो नामार्थः तमपि नान्यथा कुर्यात् , जहा 'आवंती के आवंती-एके यावंती तं लोगो विप्परामसंति' सूत्रं सर्वथैवान्यथा न कर्त्तव्यं, अर्थविकल्पस्तु स्वसिद्धान्ताविरुद्धो अविरुद्धः स्यात् , किमन्यथा क्रियते ?, उच्यते, सत्थारभत्तीए शासतीति शास्ता शास्तरि भक्तिः सत्थारभत्तीः स भवति सत्थारभक्तिः, अनुविइणं तु अणुचिंतेऊण, वदनं वादः, तदनु विचिन्त्य वदेत् , तच श्रुत्वा
S
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भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१४], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१२७-१३१], मूलं [गाथा ५८०-६०६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-०२] “सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
प्रत सूत्रांक ||५८०६०६||
श्रीमत्रक- सागाचूर्णि: ॥२९७॥ ५ आदा०
दीप
सम्यक् अन्येभ्यः रिणपरिमोक्खाए बाएझा, तदिदं परिवादयेत् पडियाएजा, सूत्रमथं धर्मकां वा, स एव गुराधनायां वर्त
आदान-- मानः सुद्धसुत्ते उवहाणवं च ॥६०६।। वृत्तं, स इति ग्रन्थवान् , सुद्धं परिचितं अविचामेलितं च० उपधानवानिति तपोप
Wall निक्षेपादि धानं वा धर्म यावजीवेदिति, ततु आज्ञा ग्राह्या, आगमेनैव प्रज्ञापयितव्याः, दार्शन्तिकोऽपि हेतूदाहरणोपसंहारः, अथवा तत्र इति |खसमये परसमये था, तथा ज्ञानादिपु द्रव्यादिपु वा उत्सर्गापवादयोर्वा यत्र २ तत्तथा द्योतयितव्यं आहेज्जवक्के आहेयवाक्य इति ग्राह्या प्रत्यक्षा परोक्षज्ञानी बा, खेदण्यो कुसले पंडिते स एव अर्हता भापितुं समाधि, सनाधिरुतः घमों मार्गश्चेति ।। इति ग्रंथा| ध्ययनं चतुर्दशं समाप्तम् ॥ ___आयाणिजजायणस्स चत्तारि अणुओमदारा, अधियारो आयाण चरित्ते, णामणिफण्यो दुविधं णाम-आयाणिअंति वा संकलित्तज्झयणति वा वुचति, तत्थ गाथा-'आदाणे ॥१३२।। गाथा, एते तु आदाणगहणे किमेकार्थे स्यातां उत नानार्थे ?, उच्यते अभिधानं प्रति नानार्थे शकेन्द्रवत् , अर्थ तु प्रति एकाौँ , तदेवादानं तदेव च ग्रहणं, यथा पुत्रमादाय गच्छति पुत्रं गृहीत्वा गच्छतीति नार्थो व्यतिरिच्यते आदानग्रहणयोः, एकेकं चतुर्विध-नामादानं०, उच्यते तावत् वित्तमेवादानं तेन भृत्या गृह्यन्ते, तदेव वा आदीयते, प्रशस्तभावादानमेवाध्ययनं, द्रव्यग्रहणेऽपि गलो मत्स्यस्य ग्रहणं, पाशकूटो मृगस्येति, भावग्रहणं तु यो येन भावेन गृह्यते प्रशस्तेनाप्रशस्तेन या सिंहो मृगान् गृहाति, प्रशस्तेन साधुः शिष्यान् गृहाति, यो वा येन भावेन गृह्यते यथा दास्योः परस्पर चोरभाषेन, उपशमभावेन शिष्यो गृह्यते, आदानमुक्तं । इदाणि संकलिका, सावि णामादि चतुर्विधा-द्रव्यसंकला कुंडगमादीया २ बद्धा संकलिता बुझंति, भावसंकला इणमेव अज्झयणं-जं पढमस्संतिमए वितियस्स उतं हवेज आदिम्मि । एतेणा- २९७॥
अनुक्रम [५८०६०६]
अस्य पृष्ठे पंचदशमं अध्ययनं आरभ्यते
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(०२)
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१५], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१३२-१३६], मूलं [गाथा ६०७-६३०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-०२] "सूत्रकृत' जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
प्रत सूत्रांक ||६०७६३१||
दीप अनुक्रम [६०७६३०]
संकलिधीरक्षा-140 (ण उ आ)दिज एसो अन्नोऽपि पजाओ॥१३॥ कहिंचि सुतेण संकला भवति, कहिंचि अत्थेण, कहिंचि उभयेणवि, एतच्चैवं
कादि नाहनाणः|| नेण आदि णिक्खिवियच्या, सच णामादी ठवणादी गाथा ॥१३४॥ दबादी णाम जो जस्स दबस्स भावो होति, उत्पाद इत्यर्थः, ॥२९८11
HAI धीरे हि क्षीरभावात् परिणमते दधित्वेन, य एव क्षीरनाशः स एव दधि द्रव्यं, यस्मिन् २ काले आत्मभावं प्रतिपद्यते तस्य द्रव्य-"
स्यादिर्भवति, उक्ता द्रव्यादिः। भावादिस्तु आगमणोआगमतो ॥१३५ ।। गाथा, णोआगमओ भावादी पंचण्ह महन्बयाणं जो पढमताए पडियजणकालो, आगमओ पुण आदी गणिपिडगं ॥१३६|| गाथा, सुअस्स सुअणाणस्स आदी सामाइयं, तस्त च करेमिति पदमादी, तस्सवि ककारो आदी, दुवालसंगस्स आयारो, तस्सवि सत्थपरिणा, तीएवि पदमुद्देसओ, तस्सवि 'सुतं | मे आउसं ! तेणं तस्सवि सुकारो, इमस्सवि सुशखंधस्स समयो, तस्सवि पढमुद्देसओ, तस्सवि सिलोगो पादो पदं अक्खरंति, YAणामणिप्फण्णो गतो। सुत्ताणुगमे सुत्तमुच्चारेयव्यं, स एवं गुरुकुलबासी गंथंति सिक्षमाणो शिक्षापादं केवलज्ञानमुत्पाद्य-जमतीतं
पडप्पणं ॥६०७॥ सिलोगो, यदिति द्रव्यादीनि चचारि, तं अतीतद्धाए दवादिचतुष्पं सब जागति, केवलं नाणं सयभावे | पासति केवली, एवं पडिपुण अणागतेवि भावे ज्ञान, तस्माद्भावतो जानीते सर्व मण्णति मेधावी 'सर्व'मिति सर्व द्रव्यादिचतुष्कं युगपत्काले वा सर्व, मेराए धावतीति मेधावी, कस्माद्धेतोः जानीते ?, उच्यते, 'दसणावरणतए' चउण्हं घातिकम्माणं, दर्शनग्रहणात् ज्ञानस्य ग्रहणं, स एवं-'अंतए वितिगिच्छाए' ॥६०८|| सिलोगो, अत्रोभयेनापि सङ्कलिका, वितिगिच्छा णाम | संदेहज्ञानं, तेसु य णाणतरेसुत्ति, तस्यान्तए, वितिगिच्छाए, समस्तं जानाति संजापति, न ईदृशं अणेलिसं, अतुल्यमित्यर्थः, | तस्यैवंविधस्य अपेलिसस्य-अतुल्यस्याख्याता दुर्लभः । तहिं तहिं सुयक्खायं ॥६०९॥ सिलोगो, वासु २ णारगादिगतिसु
२९८
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आगम
(०२)
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१५], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१३२-१३६], मूलं [गाथा ६०७-६३०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
प्रत सूत्रांक ||६०७६३१||
श्रीसूत्रकपगचूर्णिः ॥२९९॥
दीप अनुक्रम [६०७६३०]
D| तत्र तवेति सूत्रार्थः, स्खसमयोत्सर्गद्रव्यादिपु या, अथवा तहिं २ ति न तस्य तासु णरमादिगतिसु सुलभो भवति, यच सो व्याख्याति से असचे अणेलिसो-अवितहो सचे, कथं?-'वीतरागा. हि सर्वज्ञा, मिथ्या न पते वचः । यस्मात्तस्मादचस्तेपा, ICE
सान्तकादि तथ्यं भूतार्थदर्शनं ।।१।। संयमो वा सत्यं, सदा सचेण संपण्णो वचनेन तपः संयमज्ञानं सत्यं संयमः येन यथा वादिनःA तथा कारिणो भवंति, यथोदिष्टं चास्य सत्यं भवति, स एवं सत्यवान् मित्तिं भूतेसु कप्पए करोतीत्यर्थः, आत्मवत्सर्वभूतेषु यतते। सा चैवं भवति भूतेसु(हिं) न विरुज्झेजा ।।६१०॥ सिलोगो, भूताणि तसथावराणि तैन विरुध्यते, विरोधो-विग्रह: तदुपघातो 'एस धम्मे वुसीमओ' बुसीमॉश्च भगवान् , तस्यायं धर्मः, साधुर्वा बुसीमान् 'जगं परिण्णाय' दुविधाए परिण्णाए न एकस्मिन्निति 'अस्सि' धर्मे आजीवितादात्मानं भावयति पणवीसाए भावणाहिं चारसहिं वा । किंच-"भावणाजोगसुदुप्पा' ॥६११।। सिलोगो, भावनाभियोगेन शुद्ध आत्मा यस्य स भवति भावणाजोगसुद्धप्पा, अथवा भावनासु योगेषु च यस्य |AV सुद्धात्मा, यथा जलान्तनौंर्गच्छति तिष्ठति वा न निमञ्जति, स एवं हिणावा व तीरसंपन्ना यथाऽसौ निर्यामिकाधिष्ठिता मारुतवशाचीरं प्रामोति उपायात् , यथा तथा जिनचारित्रवान् जीवपोतः तपःसंयममारुतवशात् सज्ज्ञानकर्णधाराधिष्ठितः संसारतीरमवाप्य सर्वकर्मेभ्यो तिउति-छिद्यते इत्यर्थः, किंच-'तिउद्दई उ मेधावी' ।। ६१२ ।। सिलोगो, अतीव त्रुट्यति अतितुट्टई, अतीत्य वा उट्टति अतिउद्धृति, जाणमाणो असंजमलोगस्स पावगं यथा, पठ्यते कर्मा, तस्य पापानि जानानस्य तपःस्थितस्य खिजंति, पाचं पूर्वकर्माणि-पूर्वबद्धानि, संयमतो निरुद्धाश्रवस्य सतः, नवानि कर्माणि अकुर्वतस्तस्यैवोपरतस्य अकुवतो णवं णस्थि | ॥६१३।। सिलोगो, अकुर्वतो णवं कर्म, निरुद्धेसु आमवदारेसु नाम परोक्षस्तवादिषु, कर्मणामकुर्वतः, अकुर्वतः कर्मणां णवानामपि ||२९९॥
ESS
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भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१५], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१३२-१३६], मूलं [गाथा ६०७-६३०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] “सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
प्रत
सूत्रांक
||६०७६३१||
दीप
अनुक्रम [६०७६३०]
श्रीवकस्थि , विजानतो हि कर्माकर्मनिर्जरणोपायांश्च कुतो बन्धः स्यात् ?, एवं कर्म तत्फलं संवर निर्जरोपायांश्च णचाण से महा- महावीरताङ्गचूर्णिः वीर इति आयतचारित्री महावीर्यवान् , सर्वकर्मक्षये सति न पुनरायाति, न वा मजते संसारोदधौ, न वा कर्म निर्णीयते, आश्र
स्वादि ॥३०॥
वार्वाऽस्याजातरागरोसो ण मञ्जते 'ण मिजई ॥६१४ ॥ सिलोगो, अत्र ब्रह्माद्याः, तदेव दुश्वरत्वादपदिश्यते, वायु जालं अचेति, यथा वायुः द्वीपजाला अचेति-कंपति णोल्लसतीत्यर्थः, एवं स भगवान् , प्रिया लोकस्य स्त्रियः, अंचेतित्ति वा णामितित्ति वा एगहुँ, न तामिरचते, एताः खियो नासेव्याः, किंच-'इथिओ जे ण सेवंति।।६१५|| सिलोगो, स्त्रियोऽपि त्रिविधकरणयोगेनापि ण सेवन्ते, आदिमध्यावसानेपु आयतचारित्तभावपरिणता, ते जणा बंधणुम्मुका ते जना इति ते साधवो महावीराज कम्मादिवंधणांतो मुका णावकंग्वंति जीवितं असंयमकसायादि जीवितं, अणवकंखमाणो अणागतमसंयमजीवितं वट्टमाणं णिरुमित्ता शेपमतीतं तपि वंतीकिच्चा असंयम जीवितं, अंतं पावेति सर्वकर्माणां, कई ?, जेण कम्मुणासंमूहीभूतो येनासौ कर्माणि। कस्य क्षपनाय संमुखीभूतः, न पराङ्मुखः, जेण इमं णाणदंसणचरिततवसंजु मग्गमणुसासति अण्णेसिं च कथयति आत्मानं
चानुशासते अणुसासणं पुढो पाणी (णे) ॥६१६।। सिलोगो, अनुशासंतो-कहेंतो पुटु विस्तारे, पुढ इति पुढो विस्तरेण पुनः पुनर्वा, पाणे अणुशासति आयतचरित्तभावो, वसुमं पूयणं णासंसति-ण पत्थेति, किंच-अणासए जए दंते अनाश्रयो अनाश्रयो वा, पुनरपि पठ्यते-अणासवे सदादंते सदा नित्यकाले दंते इंदियणोइदिएहिं दंते, मूलत्तरगुणेसु मूलगुणधारी गरीयस्त्वाद् गृह्यन्ते 'आरतमेहुणे' उपरतमैथुन इत्यर्थः, णीवारे व ण लीएज्जा ।। ६१७ ॥ सिलोगो, णिकरणं दण्डः दण्डस्थानमेतद् व्यवसानं बन्धनस्थानं च इत्यतः तत्र स्थानं न लीयते-विकारितां न लभेज, छिन्नसोएं सोतं प्राणातिपातादीन्द्रियाणि वा ॥३०॥
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भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१५], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१३२-१३६], मूलं [गाथा ६०७-६३०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[२] "सूत्रकृत' जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
- 1980
श्रीमत्रक
ताङ्गचूर्णिः
प्रत सूत्रांक ||६०७६३१||
दीप अनुक्रम [६०७६३०]
रागादयश्च 'अणाइले'ति, अणातुरेण छिन्दियब, पुणरपि उच्यते च 'अणाइले' स एवमनाकुलः सदा दान्तः, संध्यते सन्धिः, भावसंधिर्मानुष्यं कर्मसन्धिः कर्मविवरः ज्ञानादीनि च, भावसन्धिः प्राप्तः अणेलिसं योगत्रयकरणत्रयेण 'अंतरा' इति यावत्कर्मतो | | भवन्तो वा, एवंविधो वा से हु चक्खु लोगस्सिह ॥६२०।। सिलोगो, स भव्यमनुष्याणां चक्षुर्भूतः, यः किं करोति ?, जे कंखाय करेंति अंतर्ग, कांक्षानाम प्रार्थना कामभोगयोः, अंताणि च सेवंति, सात्को गुणः इत्यतः पुनः पठ्यते--अंतेण खुरो बहती, अंतेनेति धारया, नान्यतः, चकं अंतेण लुट्ठति, चक्रमप्यन्तेन लोट्टति, इयमर्थसंकलिका, अंताई आरामोद्यानानि वसत्यर्थ अंतप्रान्तभूतानि, आहारार्थ कर्माश्रवॉश्च न सेवन्ते, न तेषु वर्तन्ते इत्यर्थः, तेनैव प्रांतसे वित्वेनायतचरित्तकर्माऽन्तकरा भवन्ति, इह धर्म, स्थादिदं-धर्मान्तमासाद्य कुत्रान्तकरा भवन्ति , उच्यते, इह माणुस्सहाणे मनुष्यभवे, अथवा स्थान| ग्रहणात्कर्मभूमिः गम्भवकन्तियसंखेजवामाउयत्तं च गृह्यते, धर्ममाराधका नाम अंतधर्म च आराधयंति तमाराध्य । णिट्टियट्ठा व देवा वा ॥६२२।। सिलोगो, ' गता' वित्यस्सार्थो भवति, संसारार्थः कर्मार्थः विपयार्थ इत्यादि, णिहियट्ठा, निष्ठानं च येषां | ज्ञानादयोऽर्थागताः ते भवंति णिडियट्ठा, सिद्धयन्त इति, तदभावे देवा, उत्तरीयं तित्थगरसगासाओ तचत्थो योच्यते, इदं चान्यत् || 'सुयं च मएमेगेसिं' च अनुकर्षणे, एवं मया श्रुतं, यदुक्तं साधवः सिध्यन्ति, अणुत्तरा वा भवन्ति', इदं च श्रुतं 'अमाणुस्सेसु णो तहा' अमनुष्या तिस्रो गतयः न तास्वन्तं कुर्वन्ति यथा मनुष्येषु, शाक्या वा ब्रुवंति 'अनागामिनो देवा भवन्ति, ते हि देवा अनागत्यान्तं कुर्वन्ति, अस्माकं तु नो अनागत्यान्तं कुर्वन्ति इत्यतः तद्व्युदासार्थ अमणुस्सेसु नो तहा यथा अन्येपामिति वाक्यशेषः, 'अथ न यथाऽमनुष्येषु सर्वनिर्जरा भवति नो तहा अमाणुस्सेसु तेसु देपणिजरा न भवति, उक्तं हि-सर्वोऽपि संसा
॥३०॥
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आगम
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भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१५], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१३२-१३६], मूलं [गाथा ६०५-६३०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] “सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
अध्ययन
प्रत सूत्रांक ||६०७६३१||
दीप अनुक्रम [६०७६३०]
श्रीसूत्रक- रान्तः स्यात् , किं तत् ?, जं अमणुस्सेसु णो तहा भवति, उच्यते-अंत करंति दुक्खाणं ॥ ६२३ ।। सिलोगो, अमनमन्तः, ताङ्चूर्णिः
1 दुःखानि कर्माणि, इहेति इह प्रवचने, एकेषां न सर्वेषां, अस्माकमेव हि तमाख्यातं, किंच आघात पुण एगेसि आघातमा॥३०२।।
ख्यातं, पुनर्विशेषणे, नान्येषां, एके वयमेव, किमाख्यातं ?, दुल्लभेयं समुस्सए समुच्छ्रीयते इति ममुच्छ्रय:-शरीरे, समुच्छ्रितानि वा ज्ञानादीनि, किंच-इतो विद्धंसमाणस्स अंतं करंति दुक्खाणं सिलोगो, अत इति इतो मनुष्यात् , विद्धसमाणे विद्धत्थे, धर्माद्धि विद्धंसमाणस्स उकोसेण अबड्डेण पोग्गलपरियट्टेणं चोवी लब्भति, माणुस्संपि उकोसेणं असंखेज्जा पोग्गलपरियड्डा, आवलियाए असंखेज्जइभागेणं, किंच-दुल्लभाओ तहवाओ अर्चा लेश्या, तहेति तेन प्रकारेण तथा अर्चा येषां ते इमे तथा वा तीर्थकरा चिसुद्धार्चा, अथवा यथा प्रतिपत्तौ लेश्या चात्यन्तं भवति, दुल्लभा वट्टमाणपरिणामा अवहितपरिणामा वा इत्यर्थः, धर्म एवार्थः परं शोभनं, तद्यथा मोक्षो मोक्षसाधनानि च, अपरमशोभनं मिथ्यादर्शनाविरत्यज्ञानादि, धर्मार्थस्स विदितं । परापरं ये ते दुर्लभा धम्मट्टी विदितपरा, के ते?-जे धम्मं सुद्धमक्वंति ।।६२५।। सिलोगो, सुद्धं निरुपहं आख्याति चानु
चरति च, पडिपुण्णं नाम सर्वतो विरतं पडिपुण्णं अहाख्यातं चारितं, अणेलिसं अतुल्यं, न कुधर्मज्ञानादिभिस्तुल्यं तमनेलिसं, आख्यान्ति चानुचरन्ति च तस्यातुल्याचारस्य कुतो जन्मकथा भवति ?, ज्ञातौ वेति, अथवा कथास्वपि तस्यां जन्मकथा नास्ति, अत एवोच्यते-कओ कयाइ मेधावी ॥६२६।। सिलोगो, कुत इति कुतस्तस्य अनिधनसावीजाकुरवत् कदाचिदिति सध्यमनागतकालं उपज तित्ति न पुनरुत्पद्यते मनुष्यत्वेनान्यतरेण वा जन्मना, तच्चा(हा)गता अथाख्यातीभूता, मोक्षगतौ वा के तथा गता ?, उच्यते-तथागता ये (ग्रन्थाग्रं ६४०० ) अप्पडिण्णा तीर्थकरा, चग्रहणात् केवलिणो गणधराश्च, अपडिण्णा अप्रतिज्ञा,
॥३०
२॥
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आगम
(०२)
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१५], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१३२-१३६], मूलं [गाथा ६०७-६३०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-०२] "सूत्रकृत' जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
१५
श्रीसूत्रक
प्रत सूत्रांक ||६०७६३१||
वाझचूर्णिः ॥३०॥
दीप अनुक्रम [६०७६३०]
ANITAINMETHEIRECHANIBHITARATIRIHATTISGAR
| अनाशंसिन इत्यर्थः, परं आत्मनश्चक्षुर्भूता देशकाः, अनुत्ता ज्ञानादिना, स्याफेनैतदुक्तं ?, उच्यते-अगुत्तरे य ठाणे से॥६२७॥ सिलोगो, ठाणं-आयतनं चरित्तट्ठाणं, काश्यपगोत्रेण वर्द्धमानेन, तस किं फलं ?, उच्यते, जं किचा णिब्बुडा एगे, णिबुडा उवसंता, निष्ठानं निष्ठा तं णिहाणं, पण्डिता, पापाड्डीनः पण्डितः, अनेके एकादेशे पंडिए बीरियं लधु ॥६२८॥ सिलोगो, पंडियं वीरियं संयमवीरियं तपोषीरियं च लब्ध्वा कर्मनिर्धातनाय प्रवर्तते, केणाय?, चारित्रेण, धुणे पुब्धतं कम्म, तपसा धुनाति पूर्वकृतं कर्म, संयमेन च न नयं कुरुते, संयतात्मा तु सन् न कुवति महावीरे।।६२९।। सिलोगो, णाणवीरियसंपनो, अणु-100 पुब्बकडं णाम मिच्छत्तादीहि, संमुहीभूताः उत्तीर्णा इत्यर्थः, कम्मं हेचाण जं मतं कर्म हित्वा क्षपयित्वेत्यर्थः, जं मतंति यन्मतं यदिच्छन्ति सर्वमाधुप्रार्थितं, खात् किं तत् ?, उच्यते, जं मतं सवसाधूनां ।।६३०॥ सिलोगो, यत्सर्वसाधुमतं तदिदमेव णिग्गथं पावयणं, सर्वकर्मशल्पं कृतन्ति छिनचीत्यर्थः, साधइत्ताण तं तिन्ना यदाराधित्वेत्यर्थः, णाविहाए आराहणाए तिण्णा संसारकतार, सावसेमकम्माणो वा देवा वा अभविंसु, ते तीर्णा इत्यतिकान्त काले निर्वृत्ता, देवाथ, अभविष्यनित्यतिकान्त एवम-18 भविष्यन् उच्यते, अभर्विसु पुरा बीरा ॥६३१।। सिलोगो, विराजन्त इति वीराः साम्प्रतं तरति देवा वा भवन्ति, अनागते व्यपदिश्यते आगमिस्सावि सुचता तरिष्यन्ति देवा वा भविष्यन्ति, के ते?-दुनियोहस्स मग्गस्स नियतं निश्चितं दुःखं निवोध्यते दुणियोधः ज्ञानादिमार्गः अंतं पाउकरा अमनमंतः प्रादुष्कुर्वन्तीति, तरमाना ती इति ।। पनरसमं आदानीयं वा जमइयमज्झयणं समत्तं ॥
गाहाज्झयणस्स चत्तारि अणुभोगदारा, अधिकारो अह गंधेण पिंडगयणेणं, जं पणरससुवि य अज्झयणेसु भणितं सब इहं
॥३०३॥
| अस्य पृष्ठे षोडशमं अध्ययनं आरभ्यते
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(०२)
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१६], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१३७-१४१], मूलं [गाथा ६३२-६३५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] “सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
अध्ययन
प्रत सूत्रांक ॥६३२६३५||
श्रीसूत्रकतानचूर्णि ॥३०॥
दीप अनुक्रम [६३२६३२/२]
सूइज्जइ, णामणिप्फण्णे एगपदं गाहत्ति, णामं ठवणा ।। १३० ॥ गाथा, पत्तयगाधद्ध, यति रिचा दबगाहा पत्तयपोत्थगलिहिता जहा 'वीर ! वसभभमराणं कमलदलाणं चउण्ह णयणाणं । मुणियविसेसा अस्थी अच्छीसु तुम रमइ लच्छी॥१३॥ अथवा इमा चेव गाथा यस्मिन्नेव पत्रे पुस्तके वा लिखिता, होति पुण भावगाहा ।। १३८ ।। गाहासु उपओगो सागारोवयोगोत्तिकाऊण खओवसमियं सव्वं सुतंतिकाऊण खओवसगियणिप्फण्णा, सा पुण मधुरामिधानजुत्ता, चोयतो वा पुच्छंतो वा परियट्टतो वा गायतीति गीयते वा गाथा, अस्या निरुक्तिः गाथीकताव अस्था ।। १३९ ।। गाथा, ग्रथ्यत इत्यर्थः, अथवा सामुदएण छंदेणं
एत्थं होति गाथा एसो अमोवि पजाओ पण्णरससु अज्झयणेसु पिडितत्था अवितह इह सूयंती, तंमि एवं पिंडियवयणेण 0 गाथीकते अत्थे जतितव्वं घडियव्यं गंतव्वं च, तेण पंथोवदेमणा, ततो गाथासोलसमे अज्झयणे ।। १४१ ॥ गाथा, एवमे
तेसुवि सोलससुवि गाथासोलसएसु यथोक्ताधिकारिकेपु अणगारगुणा वर्ण्यते अगुणांश्च दर्शयति(त्या)प्रतिषिध्यन्ते येन तेषां पोडWशानामध्ययनानां गाथासोलसमीति तेनोच्यते गाथापोडशानि, णामणिफण्णो गतो । सुत्ताणुगमे सुसमुचारेय, 'अहाह भगवं'
सूत्रं, अथेत्ययं मङ्गलवाची, आनन्तर्ये च द्रष्टव्यः, यदिदं प्रागुदितानां पञ्चदशानामध्ययनानामनन्तरे वर्तते, आदौ मंगलं बुझेअचि, इहाप्यथशब्दः, अन्तेन सर्वमङ्गल एवायं श्रुतस्कन्धः, भगवानिति तीर्थकरः, एवमाह-जे एतेसु पण्णरससु अज्झयणेसु साधुगुणा बुत्ता तेसुवि जहावस्थितो, तत्थ पढमज्झयणे ससमयपरसमय विऊ संमत्तावस्थितो वितियज्झयणे णाणादीहिं विदालणीएहि कर्म विदालतो ततिए जहाभणिते उपसग्गे सहमाणो तत्थविह इत्थीपरीसहो गरुउत्ति तज्जयकारी चउत्थे पंचमे पारगवेदणाहितो उच्चियमाणो तप्पओगकम्मचयरित्तो छठे जहा भट्टारएण जतितं एवं जयमाणो, अविय 'तित्थयरो सुरमहिओ चउणाणी
॥३०४॥
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भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१६], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१३७-१४१], मूलं [गाथा ६३२-६३५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत' जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
अशेषाध्ययनार्थः
प्रत सूत्रांक ||६३२६३५||
चूर्णिः
दीप अनुक्रम [६३२६३२/२]
श्रीआचा
- सिज्झितब्वय धुमि । अणिगृहियवलदीरिओ तबोपहाणेसु उज्जमति ।।१॥ किं पुण अवसेसेहिं दुक्खक्खयकारणा सुविहिएहिं । गि सूत्र-1 होइ ण उञ्जमियव्वं सपञ्चवायमि माणुस्से ? ॥२॥ सत्तमे कुसीलदोसे जाणेतो ते परिहरेंतो सुसीलोवचिओ अट्ठमे पंडितविरिय
| संपष्णो णवमे धम्मे भणितं धम्ममणुचरंतो दसमे संपुण्णसमाधिजुतो एकारसमे संमं भावमग्गमावण्णो घारसमे कुतित्थियदरि-1 ॥३०५|
सणाणि जाणमाणो असहंतो तेरसमे सिस्सगुणदोसविद् सिस्सगुणे णिसेवमाणो चोइसमे पसत्थभावगंथभावितप्पा पण्णरसमे ६अध्य
आयातचरित्तावस्थितः एवं विधे भवति । दंते दविए वोसट्टकाएत्ति बचे, तत्थ दंतो इंदियणोइंदियदमेणं, इंदियदमो सोईदियदमादि पंचविधो, णो इंदियदमो कोहणिग्गहादि चतुर्विधो, दविए रागदोसरहितो, बोसट्ठकाएत्ति अपडिकम्मसरीरो उच्छुढसरीरेचि बुलं होति, एवंविधो वाच्यः माहणेत्ति वा समणेत्ति वा भिक्खुत्ति वा मा हण सव्वसचेहि भणमाणो अहणमागो य माहणो भवति, मिचादिसु समो मणो जस्स सो भवति समणो, अथवा 'णस्थिय से कोइ वेसो पियो वा०"मिट दारणे' क्षु इति कर्मण आख्या तं भिंदंतो भिक्षुर्भवति, बझभंतराओ गंथाओ णिग्गतो णिग्गंथो, एवमेते एगट्ठिया माहणणामा चत्तारि, | बंजणपरियारण वा किंचि णाणलं, 'अत्थो पुण सो चेव, पडियाबुझंति' सिलोगो, सिस्सो पडिभणति आयरियं, पुच्छितित्ति बुइयं होति, अथवा आहुः गणधराः-भंते ! ति भगवतो तित्वगरस्स आमतर्ण, कथं दंते दविए?, कथमिति परिप्रश्ने, कथमसौ पण्ण
रसज्झयणेसुवि दंते दविए बोसट्ठकाए 'स' वाच्यः, माहणेति वा तं णो ब्रूहि महामुणी! तदिति तकारणं हि भो महामुने, 10 एवं पुच्छितो भगवं पडिभणति-इति विरए सबपावकम्मे इति एवंविधेण पगारेण जे एते अज्झयणेसु गुणा सुता तेहिं जुत्तो
विस्तसब्बसावजकम्मो सब्यसावजजोगविरतोचि भणित होति, अथवा विरतसव्यपावकम्मोत्ति सुत्तेण एतदेव भणितं, तंजा-
३०५॥
[318]
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आगम
(०२)
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१६], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१३७-१४१], मूलं [गाथा ६३२-६३५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[२] “सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
प्रत
विरताद्यर्थः
सूत्रांक
||६३२६३५||
दीप अनुक्रम [६३२૬૩૨/૨]
श्रीरात्रफ-1 / पिछदोसकलहअब्भक्खाणपेसुष्णपरपरिवादभरतिरतिमायामोसं, णस्थि मिच्छादसणसले, तस्थ पेजं-पेमं रागोत्ति भणितं होति, ताङ्गचूर्णिः दोसो अप्रीति, कलहो विग्गहो सपक्खे परपक्से वा, अग्भक्खाणं असम्भूतामिनिवेसो यथात्वं इदमकापीः, पैसुणं करेति पिसुणो, ॥३०६॥
पर परिवदति दुस्सीलादीहि, अरती धम्मे अधम्मे रती, मायामोसं मायासहियं सदनृतं, मिच्छादसणं-'पास्थि ण णिचो ण कुणति कतंण वेदेति णस्थि णिब्याणं । णस्थि य मोक्खोपायो छम्मिच्छत्तस्स ठाणाई ॥१।। एतं सल्लं मिच्छादसणसलं, एवमादीसु पावकम्मेमु जो विरतो सो विरतसव्वपावकम्मे, ईरियादीहिं समितो, णाणादीहिं सहितो, सदा सव्यकालं, 'यती प्रयत्ने' सर्वकालं प्रयत्नवानिति, णो कुज्झेज्जा ण माणं करेज्ज, एवंविधो गुणजुत्तोसऽवीन्ने हिंसत्थमुग्वाडेहि उवदिस्लति माहणेति बचो, भणति
श्रमणगुणप्रसिद्ध उपदिशंतो, एत्थवि समणे य एते पापकर्मविरताद्या माहणगुणा बुत्ता जाय माहणेत्ति, एत्थं पुण ठाणे समणोवि PA वचो अनेन सत्रेण, इमे चाग्रे, तंजहा-अणिस्सिते अणिदाणे अणिस्सितेत्ति सरीरे कामभोगेसु य, अणियाणचि ण णिदाणं
करेंति, आदाणं च येनादीयते तदादानं, रागदपौ हि कर्मादानं भवति, अतिवातं च आयुःप्राणा इंदियनाणा एभ्यः विजोएति | अतिपात इत्यर्थः, 'वहिद्ध' मैथुनपरिग्रही, एगग्गहणे सेसाणवि मूमावादादत्तादाणाणं गहणं कतं भवति, उक्ता मूलगुणाः, उत्तर| गुणास्तु 'कोहं च माणं च मायं च लोहं च पिजं च दोसं च, इचेचं जओ जओ आदाणाओ, इति एवं इच्चेवं, जओ प्राणा तिपाततः मृपावादादा आत्मनः प्रवेपहेतून पश्यति तस्माद् , आदानं कर्महेतुरित्यर्थः, पुवं पडिविरते'त्ति, पूर्वमादानं चेव, ततो विरतो भावप्राणातिषातवेरमणमनुवर्तते, एकग्गहणेन मृपावादादिविरतोवि, स एवं भवति(सिआ) दंते इंदियदमेणं, दविओ रागद्वेपरहितो, वोमट्टकाए, गच्छवासी गच्छनिर्गतः 'समणे' इति वाच्यः, भिक्षुरिदानी, एत्थंपि मिक्खू इमो बाच्यो, तंजहा-अणु
॥३०६
[31]
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आगम
(०२)
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१६], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१३७-१४१], मूलं [गाथा ६३२-६३५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
अवतादिवजितत्वादि
प्रत सूत्रांक ॥६३२६३५||
दीप अनुक्रम [६३२૬૩૨/રી.
श्रीरक्षक
पणओ णावणते ण उष्णते अणुण्णते, उण्याओ णामादि चतुर्विधो, दण्णतो जो सरीरेण उणणतो, भावुण्णतो जात्यादिमद- जागचूर्णिः
| स्तब्धो, एवं खान अवनतोऽपि शरीरे भजितः, भावे तु दीनमना न स्यात् , अलाभेन च ण मे कोइ पूयतित्ति पो दीनमणो ||३०७॥ होजा, 'दते दविए बोसट्टकाए' पूर्ववत् , 'संविधूणिय विरूवरूवे परीसहोवसग्गेति, एगी भावेण विधुणीय संविहुणीय,
| विरूवरूवेति अणेगप्पगारे वायीसं परीसहे दिवाई सउबसग्गे 'अज्झप्पजोगसुद्धादाणे' अध्यात्मैव योगः अध्यात्मयोगेन शुद्वमादानं इति अज्झप्पजोगसुद्धादाणे 'उपट्टिते' सयमुट्ठाणेणं ठितप्पा गाणदसणचरित्तेहिं 'संखाए' परिगणेतो गुणदोसे 'परदत्त
मोइचि परकडपरणिहितं फासुएलणिजं झुंजतित्ति, एवंविधो अदुविधकम्मभेत्ता भिक्खूचि बचे । इदाणिं णिग्गंथो-एस्थवि IPAणिग्गंथो जह दिढेसु ठाणेसु वडति, तेचि य समणमाहु मिक्खुणो णिग्गंथे, किंच णाण ?, एगो एगविऊ, एगे दयओ भावओ
य, जिणकप्पिओवि दवेगोवि भावेगोवि, थेरो भावओ एगो, दबओ कारणं प्रति भाज्य इत्यादि, एगविक एकोऽहं न च मम | कश्चित् , अथया 'एगे'त्ति एगचिई, एते दिट्ठी, इणमेव णिग्गंथं पावयणं नान्यत् 'बुद्धिति धम्मो बुद्धो, सोताई कम्मासवाई | दाराई ताई छिणाई जस्स सो छिष्णसोतो, लोगेवि भण्णाइ-छिण्णसोता ण दिन्ति, सुठ्ठ संजुते सुसंजुत्ते, सुटु समिए सुसमिए, समभावः सामायिक, सो भाइ-सुठु सामाइए सुसामाइए, आतवादपत्त वित्ति अप्पणो वादो अत्तए वादो २ यथा-अस्त्यात्मा | नित्यः अमूर्नः कर्ता भोक्ता उपयोगलक्षणो य एवमादि आतप्पवादो, सो य पतेयं जीवेसु अस्थिति, न एक एव जीवः राबव्यापी | एवं जणो, विदुः विद्वान् , दुहओत्ति दव्यओ भावो य सोताणि इंदियाणि, दबतो संकुचितपाणिपादो, लोएस कारणाणि सुगमाणोवि ण सुणति, पेच्छमाणोषि ण पेच्छति, भावतो इंदियत्थेसु राग दोसं ण गच्छति, अतो दुहतोवि सोतपलिच्छिणो,
॥३०७॥
[320]
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आगम
(०२)
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१६], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१३७-१४१], मूलं [गाथा ६३२-६३५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
प्रत
सूत्रांक
धर्माथि
मे त्वादि
||६३२६३५||
श्रीमत्रक णो पूयणट्ठी ण पूयासकारादि पत्थेति, पूइजमाणोवि ण सादिजइ, 'धम्मट्टी' णाम धम्ममेव चेष्टते भापते वा, नान्यत् , ताङ्गचूर्णिः 'धम्मविऊ'त्ति सर्वधर्माभिज्ञः 'नियागं' णाम चरितं पडिवण्णो, समयं च सम्यगाचरन् ‘दंते दबिए बोसहकाए णिग्गंथेत्ति ॥३०८।। विज्जू विज्जुत्ति विद्वान् , सेवमाणाण व भयंतारो,'स' इति निर्देशः स माहणः समणः भिक्खू णिग्गंथेतिया, एवमनेन प्रकारेण
प्रयुक्तः आयागविभेयं गेण्हति, भयंतारो इहलोगादिभयात्रातारो, वेमित्ति अञ्जसुहम्मो जंबुणाम भणति, भगातो बदमाणमामिस्सुवदेसेण ब्रवीति, न खेच्छया इति, तंजहा-एगे एगविद् एगे दबतो भावओ, जिणकप्पिओ दब्बेगो भावेगोवि, थेरा दन्यतो कारणं प्रति भइया, एगविऊ एकोऽहं न मे कश्चित् , अथवा एगविदो एगदिट्ठी, ओहओ इणमेव निग्गंथं पावयणं, दुहतो
दव्यतो भावतो य परिच्छिण्णे, ण पूयणट्ठी णाम पूयासकारादि पत्थेति, पूइजमाणोविण साइआइ पंचसमितिओ, धम्मट्ठी णाम धर्म Pएव आचेष्टते भापते वा, भुंक्ते सेवत्ते चा, नान्यत् प्रयोजन, धर्मवित्ति सर्वधर्माभिज्ञः नियाकं नाम चारित्रं तं पडिवण्णो, समि
गत्ति सम्यक् चरेत् , दंते दंविए बोसट्ठकाए, एवंगुणजातीए णिग्गन्थे विजा, विजेत्ति विद्वान् ॥ गाथाषोडशकचूर्णिः संमत्ता पढमो सुयक्खंधो सम्मत्तो॥
दीप
अनुक्रम [६३२६३२/२]
Pus PITITION GRANTIANELECTRICITIHASTHMAITADIUMLama Lam a
समत्तो पढमो सयक्खधो
TO
॥३०८॥
प्रथम-श्रुतस्कन्ध: समाप्त:
...अथ द्वितिय-श्रुतस्कन्धः आरभ्यते
[321]
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सूत्रकृत् चूर्णि:
[श्रुतस्कन्ध-२]
[322]
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आगम
(०२)
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [१], अध्ययन [१६], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१३७-१४१], मूलं [गाथा ६३२-६३५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] “सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
श्रीमत्रक
प्रत सूत्रांक ||६३२६३५||
ताझ्चूर्णिः ॥३०८||
आरब्धो बीईओ सुयक्खंधो
दीप
:
अनुक्रम [६३२६३२/२]
गाहासालसगाई खुडुलगाई, महल्झयणाई इमाई, महत्तरियाई महंति अज्झयणाई, अहया महंति च ताई अज्झयणाई च महज्झयणाई, महं णिक्खिचितवं अज्झयणं च, मह छविहं, णामठवणाओ गयाओ, 'दब्बमहं सचित्ताइ, सचित्तं ओरालाइ, ओरालियं महा मच्छसरीरं जोअणसहस्मियं, वे उब्धियं जोयणसयसाहस्सिअं, तेआकम्माई लोगंता लोगंतो, सचित्तमहं इलिकागत्या केवलिसमुग्धाओ वा, अचित्तमहं लोकव्यापी अचित्तमहखंधो, मिसियं तस्सेव च मच्छसरीरस्स देशे उवचितो, खेत्तमहं
MIEET
॥३०८॥
अथ दवितिय-श्रुतस्कन्ध: आरभ्यते
[323]
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आगम
(02)
प्रत
सूत्रांक
[१-१५]
दीप
अनुक्रम
[६३३
६४७]
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र - २ (निर्युक्तिः+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [१], उद्देशक [-], निर्युक्ति: [ १४२-१६५ ], मूलं [१-१५]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र -[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि :
महद्वर्णनं
श्रीसूत्रकृ ताङ्गचूर्णिः
॥३०९ ॥
आगासं, जइ वा खेचमहं जहा इह जम्बुदीवे महाविदेहं काल नहं सव्यद्धा, भावमहं उदइओ बह्वाश्रयत्वाद् सव्वसंमारिषु विद्यत इतिकृत्वा महान् भवति, कालतोवि सो चेव तिविहो- अणादीओ अपजवसितो सचिन अभवसिद्धिअस्स, अणादिओ सपञ्जवसिओ भवसिद्धिअस्स, सादीओ सपजवसितो णेरइयस्स, सादिरपर्यवसानस्तु नास्ति, खइए केवलणाणे, ण तत्राश्रयमहवं, किंतु सादिअपर्यवसितत्वात्, कालओ महं खड़ओ, खउपसमिओवि आश्रयत्वादेव महं, स च इन्द्रियादि, कालतो ठाणं एकेक पटुच साई सपअवसितो, परिणामिअस्स सर्वजीवाजीचाश्रयत्वाच सख्यं महत्, उदइयं यद्यपि पुद्गलाश्रयी तथापि न सर्वपुद्गलाश्रयी, केवलमेवमनन्तपए सिआणं खंधाणं अनंतर सरीरमणवायापाउगेसु वइति, कार्म अप्पतरो पारणामियो भात्रो, उतं महं । इदाणि अज्झयपि णामाइ छन्विहं दब्वे पत्तयपोत्थयलिहिअं, खेते जंबुदीवपण्णत्ती दीवसागर पण्णत्ती, जंमि वा खेते काले चंदसूरपण्णत्तीओ, जंमि वा काले, भावज्झयणं आगमतो जाणओ उपउत्तो, णोआगमओ इमाई महंती अझयणाणि । पिंडरथो | वण्णिओ समासेणं इत्तो इकिकं पुण अक्षयणं वण्णइस्सामि ||१|| तत्थ य अज्झयणं पोंडरीयं पढमं तस्स चत्तारि अणुओग| दाराणि उवकमादीणि परूवेऊण पुन्वाणुपुच्चीए, एताए सनगच्छगताए सेढीए, णामे खओवसमिअभावणामे समोअरड़, पमाणे जीवगुणष्पमाणे, तत्थचि लोगुत्तरिए आगमे कालियसुयपरिमाणसंखाए, बत्तव्बताए अवस्सगं सव्वज्ञयणा ससमयवत्तव्यताए, अत्याहिगारो पोंडरीउपमाए, जत्थ जत्थ सगोतरति तत्थ २ समोतरिय, तस्स छन्त्रिहो णिक्खेवो, णामं ठवणादविए ॥१४४॥ गाहा, दव्वे सचित्तादि तिविहो-जो जीवो भविओ खलु ॥ १४५ ॥ गाहा, पौण्डरीयमिति यद्यत् चैतं पद्म, एगभविए य डाउए य ॥१४६॥ गाहा, परगवजासु गइसु जो जीवो पहाणो सो पुंडरीओ भण्णइ, तं जहा-तेरिच्छिया मणुस्सा ॥ १४७॥
| अथ द्वितिय् श्रुतस्कन्धस्य प्रथमं अध्ययनं आरभ्यते
[324]
॥३०९॥
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आगम
(०२)
भाग-2 “सूत्रकृत" - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [१], उद्देशक , नियुक्ति : [१४२-१६५], मूलं [१-१५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] “सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
प्रत
महद्वर्णन
सूत्रांक [१-१५]
श्रीसूत्रकृ- तानचूर्णिः ॥३१०॥
AMSUTRA
दीप अनुक्रम [६३३६४७]
गाहा, तिरिच्छएसु वा जलयर थलयरा खयरा ॥१४८॥ गाहा, जलचरेसु मच्छादि जे पहाणवण्णादिजुचा, थलचरेसु सिंघाया ये च वण्णरुवादिजुत्ता, परिसप्पेसु फणि मणिरूवादिगुणजुत्ता, उम्परिसपेषु सर्पाः भुअपरिसप्पेसु मंडुगादी दरिसणता रूवतोय | पसत्था, खयरेसु देसणरूयसराइपसत्था हंसमयरा कोकिलाइ, मणुस्सेसु अरहंतचकवट्टी॥१४९॥ गाहा, देवेसु भवणवइ ||१५०|| गाहा, एवमार्यादि, सव्वेसि एतेसिं पहाणाओ पोंडरीया, वुत्ता सचित्तदव्यपोंडरीया, कंसाणं दूसाणं ॥ १५१॥ | गाहा, मिस्सगचित्वार्ण पहाणाणं देसा उवचिता अवचिया, अहवा समोसरिता उजलालंकारविभूसिया अरहंतचकवट्टिमादी, क्षेत्रपोंडरीआ खेत्ताई जाई ग्वलु ॥१५२।। गाहा, कालपोंडरीआ जीवा भवद्वितीए॥१५३।। गाहा, भवद्वितीए देवा अणुत्तरो| ववाइया, कायट्टितीए मणुस्सा सुहकम्मसमायारा सत्त भवम्गहणाणि सत्तट्ठ भवाणि चा, तद्भवे मोक्खं प्राप्तस्य सप्त, अप्राप्तस्याष्टी, अणुपरिअद्वितुं असंखेजवासाउएसु उववअंति ततो देवलोग, तिरिक्खजोणिएसु च जे पतणुकम्मा, परिकम्म रज्जु रासी ववहारे तह कलासवण्णे य । पोग्गल जावं तावं घणे य घणवग्ग वग्गे य ॥१॥ गणिते विशेषाः सर्वे, तत्थ रज्जुगगणितं पोंडरीयं, संठाणे चउरंसं संठाणं पोंडरीयं, एतेसि वियरीया कण्डरीआ, भावपोंडरीए-ओदइए उपसमिए ॥१५५॥ गाहा, ओदइए य भावे पहाणे अणुत्तरोववाइया तित्थगरसरीरं वा, उपसमिए उवसन्तमोहणिजा, खइए केवलणाणिणो, खओयसमिए चउदसपुची परमोही विपुलमई, पारिणामिए भवसिद्धीआ, उक्ता भावपोंडीआ, शेपाः कंडरीयाः ये अप्रधानाः । अहवावि णाण ॥१५६॥ | गाहा, णाणे मइणाणपहाणा जे उप्पचिआइमइजुत्ता, सुत्ते चउदसपुदी, ओहिणाणे परमोही, मणपजवनाणे पिपुलमई, सव्वेर्सि वा केवलं, दसणे खाइए, विरतिएवि खाइए, विणए अब्भुट्ठाणादिवियणजुत्तो जो अणासंसी अज्झप्पे परमसुकज्झाई, उक्ता पोंड
॥३१॥
[325]
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आगम
(०२)
भाग-2 “सूत्रकृत" - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [१], उद्देशक H], नियुक्ति: [१४२-१६५], मूलं [१-१५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-०२] “सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
महर्णन
प्रत सूत्रांक
श्रीसूत्रक
ताङ्गन्चूर्णिः
[१-१५] ।
दीप अनुक्रम [६३३६४७]
|रीया, एत्धं पुण अहिगारो ॥१५७॥ गाहा, दन्बपोंडरीएण, तत्थवि सचित्तदन्वे गिहिअ वणस्सइकाइअजलरुहपउमवरपोंड
|रिएणाहिगारो, भावंमि अ समणेणं, कयरेणं समणेणं, जो सो खाइअणाणदसणचरितविणयऽझप्पजुत्तो, वुत्ता णिक्खेवणि॥३११ जुत्ती । इदाणिं सुत्तफासिअणिज्जुत्ती, अणुचरित्ते चेव सुतिअप्पा च कासइ वा उच्चइ 'उवमाइ पोंडरीए' गाहा, वण्णगुणो
वचएण तस्स णिप्फत्ती, अवा मूलाई तदंगोवचएण, एयरस दिद्रुतस्स को उवसंहारो?, जिणोवदेसणा सिद्धित्ति अहिगारो, स्यात् कथं सिद्धिं गच्छति ?, उच्यते-सुरमणुअंगाहा, उवगाणाम असंजया जीवा, चउण्हं गईणं उवगा भवंति, पभू चरित्तेण उवगा चरितं, तेण वा सिज्झइ, ते इमे मणुस्सा चेव, मणुस्सेसु अहिगारो, ते चेव महाजणणेतारो भवंति आश्रयणीया इत्यर्थः, तेसु | विसेसेण रायाणो, तेसु विसेसेण चक्रवर्तिनः, तंमि गाहिते प्रायेण सर्वलोको ग्राहितो भवति, उत्तममहता मार्गाः सुखमितरो
जनः प्रपद्यते, किंचान्यत्-'अवि दुस्साहियकम्मा' गाहा उकोसकालाहितीपओगेवि णेरइउगणिवत्तीए आउयसंबद्धे, | जिनोपदेशात् संबोहिं लधु केइ तेणेव भवेण सिझंति, ते अबंधमोक्खा, पड्डपन्नाणागते अमणुएहिं अहियारो, सा य पोक्खरणी | दुरोगाहा, कहं ?–'जलकद्दमाला' गाहा, जलमगाई कद्दमोवि अगाहो, कलंयुगावल्लिमाईउ वल्लीओ, पउमाणि उप्पलसंठाणा, | जंघाहिं वा बाहाहिं वा, विजा केवलणाणविजा, सुत्ताणुगमे सुतं उचारेयव्वं अस्खलितादि, "सुअं मे आउसं तेण' (सू०२)
इत्यादि, श्रुतं मया आउसंतेणेत्यत्र चत्वारः प्रकाराः, इह खु असिन् प्रवचनेसुवा, सूअगडस्स वावित्ते, एसुत्ति खंधो, पोंडरीएण 161 उवमा अतः पुण्डरीकाध्ययनं आदाणपदेण वा पोंडरीअं, से जहाणामए पोक्खरणी पोक्खरं णाम पउमं, पुष्कराण्यस्यां
संतीति पुष्करणी, सिआ, बहुदगा आतीरभरिता, सीदति तस्मिन्निति स्वेदः पङ्क इत्यर्थः, पुष्करिण्यर्थ उपलब्धो यया सालद्वत्था,
॥३१॥
[326]
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आगम
(०२)
भाग-2 “सूत्रकृत" - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [१], उद्देशक H], नियुक्ति: [१४२-१६५], मूलं [१-१५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[२] “सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
प्रत
सूत्रांक [१-१५]
श्रीसूत्रकताइचूर्णि ॥३१२॥
दीप
अनुक्रम [६३३६४७]
पनवर्णन कथार्थः ?, प्रसन्नोदकाः, पुष्करादिजलजोबसोभिता, पुष्करन्ते विमए, विसेसिआई पोंडरीआई तस्यां सन्तीति पोंडरीगिणी, तैरेव स्वगुणैः चक्षुष्मतां मनसः प्रसादं जनयतीति प्रासादिका, दडव्या दरिसणिज्जा, अभिमतरूपा प्रतीतरूपा प्रतिहपा, तत्थ तत्थत्ति जाव जलं पंको अ, देशे देशे तद्देशः तहि २ जत्थ एगं तत्थ अण्णाणिवि, अणुपुविहिता, पंकादुत्तीर्य जलमतिक्रम्य खिता, उस्सिता जलतला दूरमतिक्रम्य उस्सिता, रोयन् चक्षुषः,यदितरो वर्ण एषां श्वेतोऽस्तीति वर्णवंतः,गन्धाः सुरभिः,जत्थ गंधो तस्स रसोवि,फासं, स्वेदः कोमला, वण्णमंतादिग्रहणात् नातिक्रान्तवयाः, अजढरा इत्यर्थः, तीसे(णं)पोक्वरिणीए बहुमज्झदेसभाए एगे महं पउमे प्रधानत्तं गृहीतं, अणुपुबिए जाव पडिरूवे । सबाचंति च णं तीसे पोक्खरिणीए ते बहवो०, सच्चावंतित्ति सर्वाण्येव मृगालनालपत्रकेसरकणिकाकिंजलफैरुपेतानि, अणुपुब्वेण पत्ताई जहा आतडा उस्सिताणि जाव पडिरूवाणि, अहवा सन्याचंति सव्वाणि चेव पउमरपोण्डरीयाणि, अणुपुचिताणि जाव पडिरूवाई, सव्वावंति च णं एगे पउमघरपोंडरीए जाव पडिरूवे, जुत्ता पोक्खरिणीए, तत्प्रयोजनं तु अह पुरिसे पुरित्थिमाओ दिसाए तीरे ठिचा एवं चदासी आत्मसम्भावितत्वात् अहमस्मि पुरुषः देशशः कालज्ञः क्षेत्रज्ञः, देशो येन यथा च तीयते, कालः दिवसो, कुशलो दक्षः, प्लवने उत्पतने च उत्पाटने च। पण्डितः, उपायशः तरितुं ग्रहीतुं पुनरुत्तरितुं च, विभत्ते वयसा वक्तव्यः अपोडशफा, मेधाविचि आशुग्रहणधारणसंपन्नः अवालोचुड़ो वा, व्यक्तबुद्धिा, एगडिताई वा सब्बाई एयाई, तेसु २ कंजेसु अधिकारित्वात्., मग्गण्णुति मग्गविद् जेण उत्तरिजइ मग्गस्स गतिआगति जो जेण वा कालेण गम्मइ उत्तरणं च, परकम्मण्णू तरित्तुं जाणइ, अहं इह अहमेकः एतस्पौण्डरीकं समर्थः, उत्पाटयितुं च, उण्णिक्खिचिस्सं उप्पाडेस्सं, इति वच्चा बइत्ता, अभिमुहं परकमे अभिपराक्रमेत् , यावत् अमिक्रमे तावत् महंते उदए ॥३१२।।
ANANDArtim umra Amoti walimanmame
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आगम
(०२)
प्रत सूत्रांक [१-१५]
भाग-2 “सूत्रकृत" - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [१], उद्देशक , नियुक्ति : [१४२-१६५], मूलं [१-१५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: श्रीखक- आगाहे, सेतो-पंको सोवि अगाहो चेत्र, पुणवि केण पउमाणि संभवंति ?, जाव २ परिसंते, जाब २ सेते पादं छुभइ ताव २ खुप्पइ ID मिर्णवर्णन ताङ्गचूर्णिः | उदये सिग्गो हत्थे पादेवि छुभंतो अहिअतरं खुप्पति, पहीणे तीराओ भृशं हीनः प्रहीणः, तीरं अवगत इत्यर्थः, अपने पउम॥३१॥ | Vवरपोंडरीयं गो हब्बाए मग्गे, ण तरंति पच्चुत्तरिउं परकूल वा गंतुं पोंडरीयसमीयं चा उल्लंघेत्तुं, निवृत्ता कथा त्रोटने, अउत्तरा उद
कतलमतिक्रम्य विसण्णे ते सेते खुत्ते पढमो पुरिसे। अहावरे दोचे (सू०३)॥ एवं चचारिवि । अह भिक्खू लूहे रागद्वेषरहितः तौ हि स्नेहभृतौ ताभ्यां कर्मादत्ते, जहा णेहत्थुप्प(तुप्पि)तगत्तस्स, रुक्खयरेण ण लगइ लग्गा वा पप्फोडिता पडइ, एवं वीतरागस्सवि कम्मा ण बज्झन्ति, संपराइअं, इतरं बंधइ जाव सजोगी, अजोगिस्स तंपिण बज्झइ, संसारतीरट्ठी खेत्तण्णे व्रतसमितिकपायाणां, सव्वठाणपदाणि संजमोवाए समोतारेयब्बाई, अण्णतरिओ दिसाओ, अणुदिसा अग्गेयांदी, समोतारं वा पडुन अण्णा| तरीओ पण्णवगदिसाओ दसप्पगाराओ, भावदिसाओ वा अट्ठारसपगाराओ, पासंति ते चत्तारि ग्राहिणो तीए णोहन्याए०, एतेहिं परिसेहिं एवं णाता चयं एवं पोंडरीय उनिक्खिस्सामो, न उवायम्रपायाओ अंतरीय, पोक्खरिणीए एवं उप्पाडेतन्वं, अयं तु विशेपः, अहमंसि खेयन्ने जाव उणि क्विविस्सामि इति वुच्चा णो अभिकमति तीसे पोक्खरिणीय, तीरे ठिचा सदं कुजा उप्पदाहि खलु भो पउमवर २, अह से उप्पतिते किट्टिते वणिते, कथिते इत्यर्थः, किमर्थ पुष्करिणीदृष्टान्तः कृतः?, अर्थोऽस्य. मर्यादया | ज्ञातव्यः, भंते ! ति आमंत्रणं, अन्योऽन्यं समणा समणे वदंति, किट्टितं णायं-दिटुंतो, से किट्टिते भगवता, अम्हे पुण से अणुKE पसंहारितस्य अर्दु ण आयाणामो, भगवान्-आयुष्मन् ! श्रमण इत्यामन्च्य उवाच, हंतेति संप्रेपे पृष्टोऽहं भवद्भिः, अहं त्वाख्यामि
| आइक्खामि, विभयामि किडेमि पवेदयामि, अटुं अयमेव पुष्करिण्यर्थः, यदर्थमुपेताः स्थः, सहेतुमिति हेतु: नास्ति जीवः शरीरा- ॥३१॥
दीप अनुक्रम [६३३६४७]
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आगम
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भाग-2 “सूत्रकृत" - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [१], उद्देशक , नियुक्ति : [१४२-१६५], मूलं [१-१५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] “सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
प्रत सूत्रांक [१-१५]
ओघात
उपनयः
दीप अनुक्रम [६३३६४७]
थीया- वणादिरहितत्वादिति एलमादि हेतुः, किं कारणं-हेतुदृष्टान्तः, उक्तावित्यर्थः, यथा ते पुरुषा अप्राप्तप्रार्थिता विपन्ना एवं सागणिःक्ष्यमाणा अन्नउस्थिया अपारगा संसारस्य, अभिप्रेतस्य वाऽर्थस्येत्युपसंहारकरणं, अथवा सर्वज्ञानां निरर्थिका वाक् न भवतीति
सअई, एवं हेतुकारणे अपि, अथवा सह हेउणा सहेउ, एवं कारणेवि, अथवा स्वो हेतुः खहेतुः, एवं कारणंपि, सत् प्रशंसास्तिभानयोः, शोभनोऽर्थः सदर्थः, सद्धेतुः सत्कारणं वा, अथवा निमिन हेतुरुपदेशः प्रमाणं कारणमित्यनर्थान्तरं, लोगं च खलु मा अप्पाटु मए लोगो अट्ठविहो, यथाप्ययमात्मा एवं लोकात्मा, तमढविहं आहृत्य मया सा पुष्करिणी बुइता, अथवा आत्मना ज्ञात्वा मया पुष्करिणी दिष्टंतो चुइत्तो, नान्यतः श्रुत्वेत्यर्थः, कर्म उदगं, कामभोगा सेओ, कर्मोदयाद्धि कामसंगो भवति, | कामसंगा वा पुनः कर्म ततो जन्म, पोंडरीयाणि पौरजणवया बहुपोंडरीयं राया, अण्णउत्थिया ते पुरिसा, धम्मो भिक्खू, धम्म
कहा सदो, णिव्वाणं उप्पतो, सर्वसासंसारादुत्तीर्य लोकाग्रे स्थानं, एवं च खलु मए णिर्वाणार्थ वुइतं, ताव संखेवेण पोक्खरिणी| दिटुंतो समोतारितो, इदाणिं वित्थारिजइ, उक्तं हि-पुव्वभणितं हि०, इह खलु पाइणं वा०, इह मणुस्सलोगे पण्णवगं पडुच्च संति-विअंते एगतिया ण सव्वे, अभिगिहीतमिच्छादिट्ठीणो भवंति, उपलक्षणत्वादनभिगृहीता अपि, के ते?, आर्या अपि खेतादि
आयरिया, तब्बहरित्ता अणारिया, इकिका उचागोअणिचागोआ, जच्चातिएहिं मतहाणेहिं जुत्ता उच्चागोता, तेहिं विणा णीआ| गोआ, प्रांशवः कायवन्तः वामनकुन्जस्ववंतो एकेका पुणो सुपर्णा वेगे अवदाताः श्यामा वा वण्णमंता काला पिंगला वा दुव्यण्णा अथवा काला अपि स्निग्धन्छायावन्तस्तेजस्विनच सुवर्णाः, अवदाता अपि फरुसच्छविणो दुवक्षणा, उक्तं हि-'चक्षुःस्नेहेन सौभाग्य, दन्तस्नेहेन भोजनं । त्वकस्नेहे परमं सौख्य, नखस्नेहेऽशनादिकं ॥ १॥ सुवण्णा णामेगे सुरूवे भंगा एकिका, सुरूवा दुरूवा
॥३
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आगम
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भाग-2 “सूत्रकृत" - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [१], उद्देशक H], नियुक्ति: [१४२-१६५], मूलं [१-१५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[२] “सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
राजवर्णनं
प्रत सूत्रांक [१-१५]
दीप अनुक्रम [६३३६४७]
श्रीवक- अहीनपंचिंदिया नातिथूरा नातिकृशाश्च सुरूपा, इतरे दुरूपा, अहवा ये चक्षुपो रोचते ते सुरूवा, इयरे दुरूवा, तेसिं राया भवति, महं- तानचूर्णिः NEL तग्रहणं महाहिमवंते, सको चेव मलयो बुच्चति, मंदरो सुमेरू, महिंदो सको, तत्थ हिमवंतमलया पञ्चक्खा, दिलुतो, मंदरमहिंदा ॥३१५॥ | परोक्खा, सारं स्थैर्य, पर्वतानां औपधिरत्नसंपण्णा, महेन्द्रश्चापि धैर्यैश्चर्यविभवाकुलप्रसूतत्वादमर्यादा न करोति, अचंतविसुद्ध
| पूर्वकमपि तस्स असकण्णा वर्णा, लक्षणसंपन्नो चिरंजीवी निरुपहतं च तस्य राज्यं भवति, मातुं पितुं सुजातं जहिच्छिते मणोरहे | | पूरयति, दयालू दाणशीलो चा, दयप्पत्तो, सीमा मर्यादाकारः, क्षेमं परचक्रादिनिरोधो सेऊ-पाली यथा सेतुं नातिवर्नन्ते अपि,
एवं तत्कृतां मर्यादां नातिवर्तन्ते भृत्याः, केतुर्नाम वजः, केतुभूतं स्वकुलस्य, आसीविसे सो जहा दृष्टमात्रमेव मारयति एवं TA अवकारिणो रिऊणो अ आशु मारयति, वग्यो अतीसयदढग्गाही य, पोंडरीयं प्रधान, गंधहत्थी गंधेण णस्सति एवं तस्स वि,
एवं तस्स सत्थवलं, सारीरं चतुरगं च, पञ्चमित्ता सामंता दाईआ तकरा डिंबं सचक-रजखोभादि परचकं-परबलं, परिसयतीति परिसा, 'उग्गा भोगा राइण्ण खत्तिया संगहो भवे चउहा। आरक्विगुरुवयंसा सेसा जे खत्तिया ते उ ॥१॥ भट्टा जोधाः, ते तावद्भटत्वमप्राप्तवयत्वात् कुर्वन्ति ते भट्टपुत्राः, एवं सर्वत्र, लेखकाः धर्मपाठका, रक्षका रसकाद्या, प्रशस्तानि कुर्वन्तीति प्रशस्तारो, लेच्छवि कुलं लिच्छाजीविणो वा वणिजादि, माहणा जेसिं अण्यो वणिया ववहरंति ते, इडिते वणिया इति इब्भा, आह हि-'अणु
श्रवणपुत्राभ्यां०'इत्यादि, तेसिं च णं एगतिए सड्डी भवइ,धर्मशुश्रूपुर्वा धर्मजिघृक्षुर्वा, काममवधृतार्थे, अववृतमेव हि आश्र। यणीय आश्रीयते, प्रफुल्लसरो वा पचोवगादिजुत्तो वा वणसंडो, कम इच्छायां वा कामयमाणा तं ग्राहिष्यामः, ससमयं परसमयं
इत्येवं समणा पासंडी माणा निहत्था पहारेंसु-पत्थेति, वत्थ णं मच्छरेण नासदीयेन वयमनेन खप्रणीतेन धर्मेन पण्णवइस्सामि,
॥३१५॥
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भाग-2 “सूत्रकृत" - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [१], उद्देशक , नियुक्ति : [१४२-१६५], मूलं [१-१५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] “सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
प्रत
नास्तिकमतं
सूत्रांक
श्रीयत्रक- ताङ्गचूर्णिः ॥३१६॥
[१-१५]
दीप
अनुक्रम [६३३६४७]
त एवं सम्प्रधार्य तदंदिकं गत्वा भो आमत्रणे, अत्यर्थं जाणह यद्वक्ष्यामः, भयात् त्रायन्ति इति भयत्रातारः, ते तु राजानः, उग्रायाश्च तद्भूताः, जहा मे से धम्मे मम एप प्रत्यक्षः, सुट्ठ अक्खातो सुपण्णचे, कतरो लोगायतधम्मो, तेषां आत्मा विद्यते न तु शरीरादर्थान्तरं, शरीरमेवात्मा, तत्परिमाणं उड़े पायतले अहे केसग्गा तिरियं तयाए, ता वातेन जीवति, सदा विञ्जति पनवों प्रकारो पञ्जयपकारो, कसिणं-कृत्स्नं शरीरमात्मा जीवे जीव इति सरीरे जीवति शरीरादनर्थान्तरमेव जीवितं, तद्विनाशो जीवविनाशो, वातपित्तश्लेष्मणश्च शरीरं त्रिविष्टंभसूत्रवत् बर्द्धते, तेपामेकतराभावे शरीराभावः, एतावंत जीवितं यावत्सरीरमविकलं, आह हि-एतावानेव परमात्मा०, तत्चविगतं शरीरं आहहणं परेहिं णिज्जू , आहृत्य यस्मिन् सुहृदो दहति तं आदहणं-श्मशानं, परेहि चउहिं पुरिसेहिं णिजइ अगणिज्झामिए, कावोतो पारेवओ, आसनं ददातीत्यासंदी धारा, चत्तारि गाम पञ्चेन्ति, मंचगंपि पाणा आणेति, यदि पुनरात्मा विद्यते तेन शरीरे छिद्यमाने भिद्यमाने दह्यमाने वा निस्सरन् उपलभ्येत, वृक्षविनाशे शकुनिवत , इत्येवं शरीरादुर्वमविद्यमाना, जेमिं तं सुअक्खाय, किमाख्यातं , यथा अण्णो जीयो अणं शरीरं तस्मादप्येवासुअक्खातं, णो विविधं पवेदिति, अयमाउसो ! आया दीहेति वा, यदि सरीरादर्थान्तरमात्मा स्यात् तेन तस्याशरीरवत् संस्थानं वर्णगन्धरसस्पर्शा उपलभ्येरन्, न चोपलभ्यन्ते, इह यदस्ति शरीरादर्थान्तररूपं दीहं हस्सं वा जाव अद्धसमं वा, कण्हेति जाव लुक्खेत्ति वा एवं तावच्छरीरादन्यो नास्ति, कहं से जहाणामए केइ पुरिसो कोसिओ असिं इत्येवमादिभिर्दृष्टान्तैः शरीराणां दाहे सति छदे चा को दोपः परमात्मिकोऽस्ति ? अविद्यमाने जीवे, अथवा सरीरादूर्ध्वमविद्यमानो जेसि तं सुअक्खायं, किमाख्यातं ? यथाऽन्यो जीवोऽन्यच्छरीरं, तम्हा तं मिच्छा, यसाचैवं तस्मात् हं भोहणध पयध, उक्तं हि-पित्र मोदब साधु शोभने तावं ते जीवान भवंति,
॥३१६॥
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(०२)
भाग-2 “सूत्रकृत" - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [१], उद्देशक , नियुक्ति : [१४२-१६५], मूलं [१-१५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[२] “सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
प्रत
सूत्रांक
[१-१५]
दीप
अनुक्रम [६३३६४७]
मा त्थि परे लोए, ते एवंवादियो विप्पडिवेदेति-विविधं प्रवेदयन्ति २, किरिआइया अकिरिपाइबा, यद्यारमा मृतः परलोकं गच्छेत् । सांख्यमत श्रीस्त्रकताङ्गचूर्णिः
IMO सक्रियः, क्रिया कर्मवन्ध इत्यनर्थान्तरं, ये चाक्रियावादिनः तेसु सुकडदुक्कड विवागो ण भवति, सुकडाणं कल्लाणफलविवागो, सुक॥३१७|| IM डकारी च साहू, दुक्कडकारी असाधू, सुकृतकल्याणाच साधोः सिद्धिर्भवति विपर्ययवद्, असिद्धिः असिद्धस्स दुकडकारिस्स इत-MA
रस्स णिरयो, तेषामेते एवं प्रकाराः स्वकर्मजनिताः सुकृताद्याः फलविपाका न भवंति, त एवं संसार स्वकर्मविहितं अश्रद्धानाः विरूवरूवेहिं कम्मसमारंभेहिं प्राणवधाः अथवा स्वयं परेहिं च, यथा च विरूवरूवाई सदाईणि कामभोगाई समारभंति अर्जयन्ति । रक्षयन्ति, 'भुज पालणाभ्यववहारयो रिति भोजनायैव एवं एगे पागम्भिणि, कम्मप्रागल्भीति धृष्टाः, अण्ण जी अण्णं शरीरं,
जातिस्मरणथणाभिलासादिएहिं दिटुंतेहिं अत्यविदितं अन्यत्वं दरिसिञ्जमाणं असद्दहमाणा तथापि धृष्टाः णिलजा मामगं धर्म 16 पण्णवयंति, कथमिति यथा नान्यः शरीरादात्मेति, तं सद्दहमाणां तं पत्तिप्रमाणा साधु अक्खाता आख्यातीत्याख्याता, काम 'कमु
इच्छायां' इच्छामि देवाणुप्पिया! तं तुमे अम्हाणं तज्जीवतस्सरीरको पक्खो अक्खातो, इहरहा वयं परलोगभएण हिंसादीणि सुह| साहणाणि परिहरमाणा दुक्खिता आसी, संपति णिस्संकित पब्वइस्सामो, इहरहा हि मजं मंसं परिहरामो उबवासं करेमो णिर| स्थयं चेव, अस्माच कारणात् वयं भवतां प्रत्युपकारं कुर्मः, आयुष्मन् ! पूजयामः, केण?, असणेण वा ४ गंधेण वा ४ तत्थ पूयणाए आउट्टिसु, एतेहि चेव असणाईएहिं सयणासणवसहीहिं वा, तत्थ एगे णिकामइंसु, णिकामं णाम एवं तावं पुवं जेहिं सम
हिं गहिता ते ते पूएन्ति, स्याद् बुद्धिः, यदि नास्ति परलोगो किं ते पन्चइता?, उच्यते, तेसि लोगायतियाणं पासंडो चेवणस्थि, | ते पुण अण्णेसिं केसि गेरुमलिंगमाईण सच्छंदमतिकप्पि धम्मं सोतुं भणति-तेसिं अंतिए पब्वइतुं समणा भविस्सामो, अणगारा ||३१७॥
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(०२)
भाग-2 “सूत्रकृत" - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [१], उद्देशक , नियुक्ति : [१४२-१६५], मूलं [१-१५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-०२] “सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
प्रत
सांख्यमतं
सूत्रांक
श्रीसनक- तानचूर्णिः ||३१८॥
[१-१५] ।
STUN
दीप अनुक्रम [६३३६४७]
जाव पावं कर्म णो करिस्सामो एवं संप्रधार्य तदन्तिके प्रबजिता आढत्ता पहितुं सोतुं च पच्छातं चेव रुचि तं, अथवा लोकपंक्तिनिमित्तं सूत्रमात्रपापंडमाश्रित्य विचरिष्यामः, मुद्गलासातिपुत्रवत् । किंच-चरगादिलिङ्गमाश्रयन्ति, लोकपंक्तिनिमित्तं च प्रच्छादयन्त्यात्मानं पव्वयाभो, पचइतुं समणा भविस्सामो अणगारा जाव पावकम्म पो करिस्सामो, पव्वइयावि सन्ता तमेव वादं वदंति यथा वयं अणगारा अकिंचणा जाव पावकम्मं णो करिस्सामो, उक्तं च 'अतीते सरहस्य'इत्यादि, एवं ते कुकुडा पापंडमाश्रित्य एमेव पचनपाचनमादिएसु हिंसाइसु पावकम्मेसु अप्पणा अप्पडिविरता रयमाईयंति, जं च तं अगाराई सचित्तकम्माई हिरण्णा दियति परेहि य अदत्तमादियंति, अण्णेहि य अदत्तमादियावंति, तेसु इस्थिकाईएसु कामेसु मुच्छिता, किंच- जाणा एवं ते मुच्छिता इब न तत्र दोपान् पश्यन्ति, गृद्धास्तदभिलापिणः, ग्रन्थिताः बद्धाः न तेभ्योऽपसर्पन्ति, अझोववातो तीवाभिनिवेशः, 'कामस्य वित्तं च वपुर्वयश्चेति मूलमितिकृत्वा कामसाधनेष्वपि लुब्धा ते तानु रक्तास्तत्प्रत्यनीकभूतेषु द्विष्टाः, मनसि चक्रुः, उपकारं कृत्वा ताभ्यामेव रागद्वेषाभ्यां बाधितमनस्त्वादश्रद्धाणा अप्पाणं समुच्छिदिति, कुतः?-कामभोगतृष्णाकात् , परास्तच्छिध्याः तव्वइरित्ताइणो अण्णाई पाणाई समुच्छिदिति, अथवा तेसिं लोगायतगाणं संसारो चेव णस्थि, किं पुण मोक्खो', तेण न युक्तं यत्कुतो अप्पाणं समुच्छिदिति ?, उच्यते, केणापि प्रकारेणासद्भावनेनेत्यर्थः, स समुच्छेदो नाम विनाशः अभावमः वणमित्यर्थः, त एवं विप्रलंभंतोऽप्यात्मनः अमावं कर्तुमसमर्थाः, कथं ?, तदुक्तं-'जातिस्मरणात् स्तनामिलापात् पूर्वापरगमनागमना'दित्येवमादिभिः सरीरादन्यो जीवः, ते एवं महामोहिताः पहीणा पुन्वसंजोग-गृहावासं णातिसंयोगं चा, सारिओ समणाण धम्मो, संसारी वा जीव इति श्रद्धानं, जहा भट्टारएहिं भणितो सद्भूतो अन्योऽमूर्त इति उफादर्शनार्थः, हेतुं गिहिचासो जहा
IANILEY
॥३१८॥
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भाग-2 “सूत्रकृत" - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [१], उद्देशक H], नियुक्ति: [१४२-१६५], मूलं [१-१५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[२] “सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
सांख्यमतं
प्रत सूत्रांक [१-१५]
दीप
अनुक्रम [६३३६४७]
श्रीस्त्रक
हविपि, तान् रूवान् विप्रः, पारं प्रवज्या फलं चा पारलोकिकं वा सग्गो मोक्षो वा, अंतरा कामभोगसि पंकमि विसणा गर- ताङ्गचूर्णिः
गादि दुर्गतिसेयसि वा । पढमे पुरिसजाते, अहावरे दोचे पुरिसजाए। ३ह खलु पाइणं वा ४, संतेगतिया ५ जाव | ॥३१९॥ से एवमायाणह भयंतारो जहा मे से धम्मे सुअक्खाते, कयरे धम्मे !, पंचमहब्भूहए, इह ग्वलु खल्लिति विशे
| पणे, किं विशिनष्टि ?, सांख्यसिद्धान्तो, जहिं णो काइ किरियाइ वा अकिरियाइ का, क्रिया कर्म परिस्पन्द इत्यनर्थान्तरं,
तद्विपर्ययः अक्रिया अनारंभः अवीय अपरिस्पन्द इत्यनर्थान्तरं, सुठु कर्ड सुकर्ड, दुटु कई दुफर्ड, सुकामेव कल्लाणं पाप| मितरं, शोभनं-साधुमितरमसोभणं ईप्सितार्थः मिष्ठानां सिद्धिविपयः, असिद्धिः, निर्वाणं वा सिद्धिः, असिद्धिः संसारिणां णिरएत्ति Hiचा अणिरयः तिर्यग्योनिः मनुष्यामराः, स्यात्कथं महाभूतान्यचेतनानि क्रियाकर्म कुर्वते ?, उच्यते, सत्वरजस्तमोमिः प्रधान
गुणैरधिष्ठितानि कर्म कुर्वते, उक्तं च-"सचं लघु प्रकाशकमिष्टमुपष्टम्भकं बलं च रजः । गुरुवरणकमेव तम" इत्यादि, सत्वरजस्तमसां साम्यावस्था प्रकृतिः, प्रधानमव्यक्तमित्यनर्थान्तरं, तत्र रजोबाहुल्या क्रिया भवंति, तमस्तु गुर्वावरणकं चेतिकृत्वा | अक्रिया भवति, सच्चवाहल्या सुकडं रजस्तमोबाहुल्यात् दुफड, एनमन्यान्यपि कल्याणसाधुसिद्धिनरकादीणि अ०, प्रशस्तानि सच्चबाहुल्यात् , रजस्तमो न यदि स्यात् अधि अतशो तृणस्य कुब्जीकरणेऽपि पुरुषोऽनीश्वरः, गुणकृतं फलं भुंक्ते, उक्तं हि'तस्मात्तत्संयोगादचेतनं चेतनावदवभाति । लिंग त्वप्रकृतिगुणं कर्तृत्वे च भवत्युदासीनः ॥ १॥ तं च पदउद्देसेण पदानामुद्देश: पदैर्वा पञ्चभिरुपदेशात् , वाच्यस्य समवायणं समवायः, स्यात्-कथं समवायः', प्रधानत्वात् , उक्तं हि-प्रकृतेर्महान् महतोऽहंकार:०, | प्रतिलोमं संहारः, प्रधानमेव समवेति, अनिर्मिता न केनचिदीश्वरेणान्येन वा अभ्रेन्द्रधन्वादिवत् , स्वयं प्रादुर्भूताः, अनियया न
||३१९॥
[334]
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आगम
(०२)
भाग-2 “सूत्रकृत" - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [१], उद्देशक H], नियुक्ति: [१४२-१६५], मूलं [१-१५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-०२] “सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
सांख्यमतं
प्रत सूत्रांक |
श्रीमत्रक- तानचूर्णि ॥३२०॥
[१-१५]
दीप अनुक्रम [६३३६४७]
निर्मिताः न निर्मितव्यं, येषां असत्कार्य तेषामभूत एव काष्ठादग्निनिर्मीयते मृत्पिंडाच घटः इत्यादि, नैवं सांख्यानां, कारणे कार्यसद्भावात् , न हि किंचिनिर्मितव्यमिति, अकडा णो कडा यथाऽन्येपामकृतकमाकाशं एवमकडा, यथा च घटः कृत्रिमः एवं नो अ कत्तिमा, अकृत्रिमत्वादेव च अनादी अणिधणा नेत्तत्ता भवंति, ततोऽवन्ध्या नशून्या, न तेषां कश्चित् स्वामी प्रवर्तते इत्यतः अपुरोहिता, पुरुषार्थे तु स्वतः प्रवृत्तिरेपा, आह हि-'वत्सविवृद्धिनिवृत्त क्षीरस्य' यथा, अथवा नैवैपां कश्चिदेकं इन्द्रियाणामिव चक्षुः प्रधान, स्वविषयबलवन्ति हि भूतानि, सकतत्ता नाम सासतनि, स्वकतभावः स्वकतत्त, आयतह पुणेगे उक्तानि भूतानि भूतकारणाणि च, अव्यक्तमहदहंकारः तन्मात्राणि, स्यात्-कि मेपां प्रवृत्तिरिति ?, तदुच्यते, पुरुषार्थः स एवैपां पष्ठ यदर्थ नातिवर्तते, असावपि सनेव, सत्वेऽपि प्रधानवत् शाश्वतः, सतश्च नास्ति विनाशः परमाणुवत , असतः सम्भवो नास्ति खरवि| पाणवतु , आह हि-'असदकरणादुपादान' एताव जावजीवकाएत्ति, किमिति ?, न कश्चिदुत्पद्यति वा विनश्यति वा, नापि संसरति सर्वगतत्वात् , कूटस्थवदवतिष्ठते, एताव अस्थि, कोऽस्ति ?, यदस्ति तदेतावदेव, प्रधानपुरुषावित्यर्थः, एताव ताव सब्दलोगे प्रधान: पुरुषानेव लोकः, एतंमुहं कारणमित्यर्थः, कारणभावः कारणता, अवि अन्तसो प्रधानपुरुपो व्यवस्य तुणाग्रादपि किंचिदन्यतो जायत इति, परमात्मा कारणात्मा तु करोति, तत्फलं तु परमात्मा भुक्ते, तद्यथा तत्प्रकृति पुरुपान्तरं जानीते स किणकिणाविमाणो, जो किणाकिणावेति च सोऽमुक्तोऽपि जायते, अनुमोदतेऽपि, कारणकारणाई पुणो भारियतराई तेण ताई गहिवाई, उक्तं च-'जो खायह न माणुस्सं मांसं अण्णं कतो स मेलेति ?,' एवं पयणपायणाईपि, एतेहिं पुण तिहिनि णव कोडीओ गहिताओ, अवि अन्तसो पुरिसमवि विकिणिचा एत्थवि जाण णस्थेत्थ दोसो, तेणोऽवि पडिवेरंति, सव्वे सिद्धते मोत्तुं अण्णत्थ किरिआदिवा
॥३२०॥
[335]
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आगम
(02)
प्रत
सूत्रांक
[8
१५] दीप
अनुक्रम
[६३३
६४७]
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र - २ (निर्युक्तिः+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [१], उद्देशक [-], निर्युक्ति: [ १४२-१६५ ], मूलं [१-१५] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र -[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि :
श्रीसूत्रकताङ्गचूर्णिः
॥३२१॥
अकिरिआइ वा जहा संखसिद्धते वृत्तं तहा किरिआइ वा अकिरिया २ तेषामुत्तरं अत्यन्तानुपलब्धेः प्रधानमेव नास्ति, मक्कार्थमप्येकांतेन नास्ति, कस्मात् ?, यस्य च भवति उपलब्धेरनुपलब्धेथ, तथा कारणात् कार्यस्यान्यत्वात् इत्येवमादिभिर्हेतुभिः सांख्यसिद्धान्तस्योत्तरं, एवं तेहिं विरूवरूयेहि कम्मममारंभेहि जाव भोजणाए, एवं एमे मामगं धम्मं पण्णवंति, आत्माप्यथैशमकर्त्ता, तथापि निर्लज्जा मागं धम्मं पष्णवैति, यद्यकर्त्ता तेन पण्णवणा ण जुजते. वुडेयचेतनत्वात् घटस्येव प्रज्ञापनासामर्थ्य | नास्तीति ततस्तदुपदेशद्रप्रभावात् कामं च खलु परलोग णिमित्तं ते सहायका सांख्या ते समणपाहणा पूति, न तु प्रत्युषकारार्थं, लोकायतिकवत्, जाय णिकामइंसु, पुव्नामेव तेसिं गातं भवति धम्मसङ्काए ते अप्पया आचरंता उद्देसगादीनि आत्तयति एवं जात्र कामभोगसेयंसि० दोघे पुरिसजाते ॥
अहावरे तचे पुरिसे ( ० ४ ) इस्सरकारणिए, इह हि पुरिसाइया धम्मा-स्वभावाः, जीवानामजीवानां च अत्र जीवधर्मा | जन्मव्याधिजरारोगशोक सुखदुःखजी चितमरणायाः, अजीवधर्म्मा अपि मूर्त्तिमताममूर्तिमतां च द्रव्याणां मूर्त्तिमतां तावत् वर्णगन्धरसस्पर्शाः, अमूर्त्तिमतां आकाशदिकालादीनां दिश्यन्त इति दिशः, परापरत्यादि कालस्य, शब्दगुणमाकाशं, कतरः पुरुषो योऽसौ परमेश्वरः विष्णुरीझसे बा?, आह हि 'पुरुषः कर्मणां कर्त्ता० तथा चाहुः 'ईश्वरान् संप्रवर्त्तते' अपरे बाहु: - 'एका मूत्तिः त्रिधा जाता०' इत्यतः पुरुपादीया, पुरुषप्रणीताः पुरुषेण प्रणीयमानास्तान् प्रकाशनापद्यन्ते क्षीवत्, पुरुषोत्तमीयाः न स्त्री न नपुंसो, पुरुषः प्रधानः, पुरुषेण प्रदर्शिताः प्रयोतिताः, यथा प्रदीपेनादित्येन वा घटः, पुरुषणाभिरामन्यागताः सर्वगतत्वात्, पुरुपेण आभिमुख्येन अणुगता सर्वगतत्वाद् मृणालतंतुवद्, न पुरुषमुदस्य वर्त्तते, पलयकालेऽपि पुरुषमेवाधितिष्ठति जलोमिवत्,
[336]
ईश्वरकारणिकाः
| ३२१॥
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आगम
(०२)
भाग-2 “सूत्रकृत" - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [१], उद्देशक , नियुक्ति : [१४२-१६५], मूलं [१-१५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-०२] “सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
प्रत
नियति
सूत्रांक |
कारणिकाः
[१-१५] ।
ताइचूर्णिः
दीप अनुक्रम [६३३६४७]
श्रीपत्रक- आह हि-'जह सलिलंमि तरंगा' दृष्टान्तः गण्डे जहा शरीरे जाए बुड़े जाप अमिभूय चिट्ठर, यथा वा तं समादिभिः क्रियाविशेपैः
| समितं सरीरमेव अभिभूय चिट्ठइ एवमेव धर्मा इस्सराईया०, एवं सेसाईपि । जंपिय इमं दुवालसंगं गणिपिडगं, तंजहा-आयारो ||३२२॥
जाब विट्ठीवाओ सबमेतं मिच्छा, अनीश्वरप्रणीतत्वात् , ये हि ईश्वरं न प्रतिपद्यन्ते, ततः स्वच्छन्द विकल्पितानि शाखाणि प्रथयन्ते, वयं तीर्थकरा इति मुढानां वचो, 'सदसतोरविशेषाद् यदृच्छोपलब्धेरुन्मत्तवद्'(तना०१)असत्यं, असत्यत्वात् अतथीय अतथ्यमित्यर्थः, यथातथ्यं आहतहियं एकार्थवाचकानि वा पदानि शकेन्द्रवत् व्यजनविशिष्टानि, इमं सचं इमं ईश्वरकारणीयं दरिसणं सचं अहत्तहियं, त एवं मोहाः मोहिताः सव्वं कुर्वन्ति, काउं तत्थेव ठवेति, सुठु ठवेंति, तेसिं एवं मोहा मोहितता, मोहा पुरिसस्स रागो
भवति, तस्सिच्छाभावतो तद्विद्विष्टेषु च द्वेपः, रागद्वेषमोहाच कर्मचन्धहेतवः, कर्मणः संसारो तदुःखं च, तेनोच्यते-तमेव ते तजाVतीयं दुःखं नातिवते सउणं पंजरं जहा, ते णो विप्पडिवेदंति, ईश्वरं मुथा अन्यतः किरियाइ वा करेति धम्मेणचि, यथा इह
| खलु दुवे पुरिसजाते, किरियाणं अकिरियाणं च हेतुः, एवं ईश्वरस्योपरि तगं छोढुं विरूवरूवेहि भणंति,'यस्य चुद्धिर्न लिप्येत, । हत्वा सर्वमिदं जगत् । आकाशमिव पंकेन, न स पापेन लिप्यते ॥१॥' तेऽपि परलोगकंखी धर्मवुद्ध्या ईश्वरं भक्या पूजयन्ति
जाच विसण्णे । तचे पुरिसजाते॥ ___अहावरे चउत्थे (सू०५) णितिया जाव जहा जहा मे एस धम्मे सुअक्खाए, कयरे ते धम्मे ?, णितियाचादे, इह खलु |दुवे पुरिसजाता एगे पुरिसे किरियामक्खंति, किरिया कर्म परिस्पन्द इत्यर्थः, कस्यासौ किरिया ?, पुरुपस्य, पुरुष एवं गमना| दिपु क्रियासु स्वतो अनुसन्धाय प्रवर्त्तते, एवं भणिचापि ते दोऽवि पुरिसा तुल्ला णियतिबसेण, तत्र नियतिवादी आत्मीयं दर्शनं
३
२२॥
[337]
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आगम
(०२)
भाग-2 “सूत्रकृत" - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [१], उद्देशक H], नियुक्ति: [१४२-१६५], मूलं [१-१५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
प्रत सूत्रांक [१-१५]
श्रीयत्रक- ताङ्गचूर्णिः ॥३२३॥
दीप अनुक्रम [६३३६४७]
समर्थयन्निदमाह-यः खलु मन्यते 'अहं करोमि' इति अमावपि नियत्या एव कार्यते अहं करोमीति, तदायत्तत्वाचराचरस्य, यत्र नियति
कारणिकाः | चैव २ मेधावीग्रहणं तत्र २ नियतिवादिनः परामर्पः, एगो मण्णति-अहं करोमि, वितिओ मण्णइ-णियती फरेइ, एगट्ठा, कतरोऽर्थः १-कारकार्थः, तत्थ पुण वाले एवं पडिवअंति कारणमावन्ने, अहमि दुःखामि वा बाधनालक्षणं दुःखं शारीरं, शोको इष्टदारापत्यादिविप्रयोगादि, शोकः मानसः, शारीरेण मानसेन वा दुःखेन, शारीरेण जायति, करोमि त्रिभिः कायवाङ्मनोमिः | तस्यामिति, तप्पामि बाबैरभ्यन्तरैश्च दुःखविशेपैः, उभयथापि पीडयापि, गवतो तप्पामि परितप्पामि, एतत्सन दुःखोदयं कर्म | अहमकापीः परो वा मे दुःखति या सोयति चा जा परितप्पति वा, परो एवमासी, नेश्वरो, नियतिति, एवं खलु सकारणं पर-11 कारणं एवं विप्पडिवेदेति कारणमावण्णा, मेधावी एवं विष्पडिबेदेह जं खलु दुःखामि जाव परितप्पामि वा णो एतमहमकासि, किन्तु णियती करेइ, न चाकृतं फलमस्तीत्यतः णियती करेति, जति पुरिसो करेज तेन सर्वमीप्सितं कुर्यात् , न चेदमस्तीति ततो नियती करेइ, नियतिः कारिका, परोऽपि खलु जं दुःखति वा णो परो एतमकासी, णियतीए तं कृतं, एवं खलु सेसं कारणं, एवं चिप्पडिवेदेति--इह खलु पाइणं वा ४, जे तसा थावरा पाणा ते पंच-संघातमागच्छंति, केण संघायमागच्छंति ?, सरीरेण, परिजातबालकौमास्यौवनमध्यमस्थ विरान्तः पर्यायभेदः, परि आगाः परिवागाः, एवं विधेणेन शरीरेण बालादिपज्जवे विहि वियागो।। विधान, पृथधारणमित्यर्थः, त एवंविधो विधिविधानं, तचैत्र-संधानपरियागविवागा विधानं, स्वकृतं वा कर्म विधान, जन्मजरा| रोगशोकमरणानि वा, नरकतिर्यक्मनुष्यदेवेषु उत्तमाधममध्यमविशेषाः, विशेषेणाह-इन्द्र सामानिकवायविंशपारिपद्यात्मरक्षकलोकपालानीकप्रकीर्णकाभियोग्यकिल्लिपिकाः दशविधाः, तिर्यक्षु चेकेन्द्रियादयः, पण्णवणापदे जहा मणुस्सेसु समुच्छिमा गम्भवतिश्रा | | |३२३॥
[338]
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आगम
(०२)
भाग-2 “सूत्रकृत" - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [१], उद्देशक , नियुक्ति : [१४२-१६५], मूलं [१-१५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] “सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
प्रत सूत्रांक [१-१५]
नियतिकारणिकाः
श्रीरा- तारणिः ॥३२४॥
दीप
अनुक्रम [६३३६४७]
य. ते एवं संगतिआ उवेंति, नित्यकालसंगता हि पुरुपेण नियती, यथा रूपं स्पर्शन, अग्निरोष्ण्येन, अथवा आपो द्रवा अस्थैर्यवती च यथा गोदक्षिणविपाणं सम्वेणं, एवं सबजीवा णियतीए णिचं कालं संगता, तत्कृतानि विधानानि प्राप्नुवन्ति, उपेक्षणमुपेहा नियती करोति, पुरिसो उवेक्खा, उबसंख्या पुरुषक्त , एवं उपेक्षा हि णियतीवाद, एवं सावजीवणिस्सिता णियती चुत्ता। इदाणिं अजीवणिस्सिता, तजहा-त एव संघातमागच्छंति परमायादयः, अभ्रेन्द्रधन्वादिकानां वा संघातपरियागं, तेसिंदो वण्णादिपज्जया, विवेगः तेसिं चेव संघाताणं भेदो वण्णादिविवेगो य, विधाणं तेसिं भेदः प्रकार इति, तेसिपि णियतीकता, त एवं संगतिय तेसिं अजीवाणं, ता णियंतीमंतरेणं गस्थि अण्णतो अकिरियाइ वा, जं च अण्णे रएति वासमाउद्देति सभावओ एव, ण पुण जहा लोगायतियाणं रूपकारणणिमित्तं जाव सेयंसि विसपणे, एने चेव चत्वारि पुरिमजाता पाणापण्णा सूक्ष्मसूक्ष्मतरमन्दबुद्ध्यादयः, णाणावण्णा वा वादाणादयः जातिकृता वर्णाः, शारीरा वा कृष्णश्यामादयः, छन्दोऽभिप्रायोऽभिलापमित्यर्थः, अन्यस्यानिशो भवति, अण्णस्स पिया छासी' गाहा, जहा दोहल्लए चेव, महिलाणं णाणाविहा दोहल्ला उप्पज्जंति जहा मल्लि. सामिस्स मातुं मेहकुमारस्स य, णांणासीला दारुणभद्रसीला, पाणादिट्ठी, एते चेव चत्तारि लोगायतिगादयो, एगग्गहणे गहणं तिणि तिसहाई पावाइयसताई, णाणारंभा असिमसिकसिवाणिज्जादयो आरमा, अण्णोण करेंति, णाणाअज्झवसाणा तीवमन्दमध्याध्यवसानाः, सच्चेऽपि पहीण पुब्वर्ग आयरिया मग्गं अंतरा कामभोगेसु विसन्ना, उक्ताः पंच यथा भवी, तेऽपि किलापबर्गतो अण्णउत्थिया, संपति भिक्खू बुचइ, जो सो पोंडरीयमुपाडेति, से वेमि मिक्खोरुपोद्घातं विवक्षुः सोऽहं ब्रवीमि, पाइणं वा० पण्णवगदिसाओ भावदिसाओ महिताओ, संगतिया मणुस्सा, सन्ति-विद्यन्ते, तंजहा-आयरिया बेगे जाय दुरूवां वेगे
||३२४॥
[339]
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आगम
(०२)
भाग-2 “सूत्रकृत" - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [१], उद्देशक H], नियुक्ति: [१४२-१६५], मूलं [१-१५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[२] “सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
प्रत सूत्रांक [१-१५]
श्रीमत्रक
चूर्णिः |३२५॥
दीप
अनुक्रम [६३३६४७]
अगारियावि पव्वयंति, जहा अइयो वक्ष्यमाणः, णीयागोतावि जहा हरिएसवलो, इश्वन्तो जहा अतिमुत्तो वामणावा, दुयण्णरूवेसु सो चेव हरिएमवलो, अण्णो वा जो कोइ दुपण्णरूगो, संपर्नपि णियागोतवजा पवाविजंति, अपणदेशे वा | हरिएसवजा, दुरुबवण्णा पुण अव्यंगमरीरा सदोमावि पन्चाविज्जति चेव, खेतवत्थुविभासा, अप्पाइ० दुग्गततणहारादीनां, भूयो बाहुल्ये, इदं भूयः इदं भूयः इदमनयोभूयस्तरं, अल्पेभ्यः बहुतराणि, 'भुज्जतरे वेगेसिं, तद्यथा-अहं चिय राजमंडलियबलदेववासुदेवा चकवट्टी य, ण य जहा कम्म भुज्जनरो, तेसिं च णं जणजाणवताई, जणः सर्व एवं प्रजाः, जनपदसैतानि जानपदानि, ग्रामनगरखेट कटादीनि, अथवा जनः प्रजास्तत्प्रतिगृहितानि द्विपदचतुष्पदादीनि जानपदानि, तहप्पगारेहितो मिक्खू भाणितब्बो उच्चणीयमज्झिमेहितो कुलेहितो, कश्चित्केचिद्वा साधुममीपमागम्य धम्मं सोचा तं सद्दहमाणा, अमिभूय, किं?, परी-| | सहोबसग्गे मिक्खायरियाए समुट्ठिता, दुक्खं भिक्खं अडितुं, उक्तं हि-'पिंडवातपविट्ठस्स, पाणी०, तथा उक्तं 'चरणक| रणस्स सारो मिक्यायरिया०', संमं उहिता सगुट्ठिता, सतोविएगे णातयो पुब्धावरसं मट्ठा णातयो, कामभोगोवकारी उपकरणं,
ताणि चेव खेतवत्थुहिरण्णसुवण्णादीणि च, जे ते सती वा असती वा, सतिति अस्थि से'णातयो जहा 'भरहस्स, असतित्ति | णस्थि से णातयो, अहवा नास्य नाती सन्ति अणातयो-प्रणातगा ते अस्थि, अण्णेसिं उ परिचिन्तगा मिचा, अस्थि उपकरणं, उव| करणं च उपकरोतीत्युपकरणं घटपटशकटादि, मास उपकरणं विद्यते अनुपकरणः, अथवा नोपकारं करोतीत्यनुपकारणं यथा छिद्रबुध्नत्वात् घटः जीर्णत्वाल्पटः, एवमन्यान्योपकरणानि एकांगविकलानि यथा खं खं कार्य न साधयन्यि तान्यनुपकारित्वादनुपकरणं, समुदिता, स्थात् कथं समुट्ठिता? धम्मे एमाए य समुहिता, कथं समुट्टिता ?, पुयमेव तेहिं णात भाति, पुन्यं धम्म ।
॥३२५॥ .
[340]
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आगम
(०२)
प्रत
सूत्रांक
[१-१५]
दीप
अनुक्रम [६३३
६४७]
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (निर्युक्तिः+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [१], उद्देशक [-], निर्युक्ति: [ १४२-१६५ ], मूलं [१-१५]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र -[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि :
भिक्षुवर्णनं
श्रीसूत्रकताजचूर्णिः
॥२२६॥
सुर्णेति पच्छा जाणंति, एवं सोतुं पातं । इह वलु पुरिसे अण्णमण्णं मम अड्डाए, अण्णं च अण्णं च अण्णमण्णं, अनेकप्रकारमित्यर्थः, अन्यचान्यच अण्णमण्णं, एवमधारणे, दिविधं प्रवेदयन्ति विपडिवेदयन्ति किमिति १, विजा, तंजा खेपणे जाव सदा मे, कारणे कार्यवदुपचारात्, ताडका ताडकातोजा आतसमुत्था मद्दा एवं सर्वेषु कामगुणेषु विभाषा, एते ममाहीणा अह मवि एएसिं स्वामी, मेधावी पुण्त्रमेव, किमिति नमभिजाणेजा ?, एते खलु कामभोगा मम अडाए अजिजंति परिवहिति परिवारिजंति, न चैकान्तेन सुखाय भवन्ति, कथमिति १, इह खलु मम अण्गतरे रोगातंके, विदूगमामासो, पुग वातिओ वा पेसिअ असिंभियसंणिवाइय, इषु इच्छायां न इष्टो अनिष्टः, अकमनीयः - अकान्तः न प्रीतिकरः अप्रियः न शुभः अशुभः अशोभन इत्यर्थः, सर्व एवानुभो व्याधिः कुष्ठादिव विशेषतः, मनसा ज्ञायते मनोज्ञः मनतो मतः मनोमः, दुक्खेणोस हो, दीर्घकालस्थायी रोगः, सजोघाती आतंकः जे इति अहं, तेण रोगातङ्केणामिभूयते, कामभोगे भणेज से हंता, दंत संप्रेपे, भयात्तायंत इति भयंतारो, इमं दुक्खं परिआइयंतु, एगं मम अर्जनरक्षणादिसमुत्थं भवनिमित्तमेव दुक्ख समुत्थितं मां बाधते तं भवन्त एवैतं प्रत्यापितु, स्वाद् अचेतनत्वात्कामभोगानां आमन्त्रणं न विद्यते ततः उच्यते, शुकशारिकामंयूराणां आमन्त्रणमिष्टं, तंजहा - 'अकष्ण ओसि तुंडिय ' तथा च- 'भो ! हंस ! निर्मलनदीपुलिनादि', तथा च 'बोहित्य ! ते यतः कान्तास्पृष्टामपि स्पृश्य' इत्येवं तेषां पुत्रेभ्योऽपि प्रियतराणां कामभोगानां पुरस्ताद्भवद्भिरपि पूर्व भवति वाण, जम्हा एवं तम्हा कामभोगा तन्निमित्तेहिं तु दुक्खेहिं अण्णणिमिरोहितो वाचि हु बटतडिघातादीहिं णो ताणाए वा न चात्यन्तं भनति, कहं १, पुरिसो वेगड़तो पुधि कामभोगे विप्पहेजा, जहा संयोगविप्पयोगो, कामभोगो वा पुरिसं पुचि चिप्पजहायह, त चैव पंडुमधुरवाणिजपुत्तं, जम्हा ते णचंतिया
[341]
॥३२६॥
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आगम
(02)
प्रत
सूत्रांक
[१-१५]
दीप
अनुक्रम [६३३
६४७]
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (निर्युक्तिः+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [१], उद्देशक [-], निर्युक्ति: [ १४२-१६५ ], मूलं [१-१५]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र - [०२ ], अंग सूत्र - [०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
भिक्षुवर्णनं
श्रीसूत्रताङ्गचूर्णिः
॥३२७॥
भवंति ण चेवेगन्तिया, रोगितादीनां जहा कालसोयरियंमि, तम्हा एवं गचा अण्णे खलु काममोगा जाव अण्णमणेहिं मुच्छामो, इति संखाए ज्ञात्वेत्यर्थः, वयं कामभोगे संबुज्झितुं विष्पजहिस्यामो, बुत्ता कामभोगा से मेधावी जाणेजा वाहिरंगा मे तं एते च उपसामीप्पे णी प्रापणे, आसन्नतरमित्यर्थः, तंजा-माता मे जाव संयुता मे, एते मम अमवि एतेमिं कथमिति ?, ममैष | पिता अहमस्य पुत्रः, भार्या पतिः एवमन्येष्वपि यथासंभवं विभाषा से मेधावी पुत्रमेव अपना एवं समभिजाणिजा, इह खलु | मम अन्यतरे दुःखे रोगात जाव णो सुभे, तेसिं वा मम भयंताराणां जाय एवामेव णो लहपुत्रं भाति, अण्णस्म दुक्खं गो | अण्णो परिआतियति, अण्जेण कडे णो अण्गो संपडिवेदयति दुक्खं, दुक्खं ताणियमा कृतं कृतं दुःखं वा स्याद्, सुखं वा अहवा दुक्खोदयमपि कृतं यावनोदीर्यते न वाध्यत इत्यर्थः तावत् कृतमेव नाकृतं यसादेवं तस्मादन्येन कृतं अन्यो न प्रतिसंवेदयति | तन्हा पत्तेयं जाति पत्तेयं मरति, पत्तेयं त्यजति उपपद्यते, झंझा-फलहो, संजानातीति संज्ञा तां निजमेव वैद्यत इति वेदना, इति | खलु एवं इत्येवं णातिसंयोगा जो तागाए वा सरणाए वा पुरिसो वेगता पुनि णातिसंजोगे विष्वजहति, जहा भरहो, पुरिसं | या एगता णातिसंयोगा विप्पजहंति जह अहणं, बाहिरए तान एम संजांगे इमे उवणीततरिए, किमिति शरीर चेन तदवयवा हस्तादयः यथा मम पातलकोमलौ लक्षणोपचितौ हस्तौ तथा कस्यान्यस्य ? 'इमौ करिकराकारौ, भुजौ परंपरजुतौ । प्रदांती गोसहस्राणां जीवितान्तकरः करः ॥ १ ॥ पादा मे कुर्म्मणिमा, आयु मे दीहं, निश्वधृतं च बलं, उरसं बुद्धिवलं च बच्या अवदातादी, त्वक् स्निग्धा. छाया प्रभा, वर्णच्छाययोः को विशेषः ४, वर्णः अनपायी, छाया तु उत्चिन्नपुरिसमनपायिनी, शेषाणां भवति | च न भवति च, 'अनलानिलसलिलसमुद्राग्बुद्धिः पंचधा स्मृता छाया' अशुभदा त्रिकार्यलक्षणा, अथवा अवर्णनीयेऽपि ममीकारो
[342]
॥ ३२७॥
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आगम
(०२)
भाग-2 “सूत्रकृत" - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [१], उद्देशक , नियुक्ति : [१४२-१६५], मूलं [१-१५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] “सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
प्रत सूत्रांक [१-१५]
दीप
अनुक्रम [६३३६४७]
थीत्रक- भवति, शरीरे शरीरावयवेपु वा सडतपि कोइ णेच्छइ च्छेतुं, जति णिधिजति ण जीवति, ययगोणसखइताइणं सडइ ण च सकति भिक्षुवर्णन नाङ्गचूर्णि:
पविणेतुं, एवं अच्छीणि विशालरतुप्पलधवलाई, दिट्ठी मे बलिया, उज्जुतुंगायता णासा, जिब्भावि तणुइआ विसदा, फासा कक॥३२८॥
उमउओ, इत्थीण विपरीतो, एवमन्येऽपि दंतोदुकवोल मगणिडालगलखंघउरपट्टिकडिजाणुजंघादि ममाति-ममीयते जारिसं ममी 7 सरीरे सरीरावयवा वा तारिसा कस्सति ?, एव ममीयमाणो जेसिं पढ़मे मज्झिमे पच्छिमे वा, वयसि वाऽवयवे ममाति, तस्सि
च बातो झूरति, कथं ?, पढमे तार चये परिझूरमाणो मज्झिमो भवति, मज्झिमेवि परिझूरमाणो पच्छिमो भवति, एवमेकैकसिन् चयसि परिग्माणो अन्यां वयोऽवस्था प्रामोति, जहा वयतोऽसौ परिझूरति तथा चलतोवि, जं पढमवयस्स णस्थि, सणं
कुमारदिहतो, उक्तं च-'षष्णासगरम चक्खू परिझरति० परिझूरमाणे तु वयसि सूसंधिना संधी विसंघीभवंति, सुणिगूढसमुPaगणिमुग्गसंठिता पाया उकडसंठिता हारसंघातपरिणिजा भवंति, बलितरंगे गाते, किम्हा केमा पलिया, जंपि इमंपि सरीरं तदपि
परायतं, ण विणा आधारेण, तेनोच्यते-आहारोपचय, विणा आहारेण सुस्सति मरयति य, सतापि च आहारेण कालोपकेण णिद्धण मणुष्णेण पञ्जनेण पदिजमाणेण आणुपुबीए जाव तीसवरियाणि बडितुं ताव तंपि अवढितं वा गोमणुयाऊणं, जंपि णिरुवकम आउसं भवति तंपि आणुपुब्बीए परिहाति, तंजहा-पग्णासगस्स चक्खू हायति, अथा समए २ आवीचिपमरणेण मरमाणो २ जीर्णशकटवत् पतति, एवं शरीरं अणिचं अधुवं संखाय मिक्खू एव, जं पुरेक्खडेभिक्खू चेव क्वहारीयणयस्स, णिच्छयणयस्स भिक्खू चेव भिक्खापरियसमुट्टितेण, भिक्खायरियं विणा प्राणी प्राणयिता न ज्ञानादीनि तेन मिक्खायरियग्रहणं, दुहतो लोग जाणिजा, किं दुहतो?, तंजहा-जीवा चेव अजीवा चेव जदस्थि लोए, अहिंसापालनार्थ, जीवा दुविधा, तंजहा-इमं च अण्णं
[343]
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आगम
(०२)
प्रत
सूत्रांक [१-१५]
भाग-2 “सूत्रकृत" - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [१], उद्देशक , नियुक्ति : [१४२-१६५], मूलं [१-१५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-०२] “सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
|| श्रीसूत्रक- | जाणेजा, इह खलु गारस्था सारंभा सपरिग्गहा आरंभो पयणपापणादीहिंगाप्रवृत्तिः, परिग्गहो खेलपत्थुहिरण्णादि, संते-10 पुंडरीकावाचूर्णिः | गतिया समणा पंच, माहणा द्विजातयो गहिताओ, आह-पाणु गारस्थगहणेण द्विजातयो गहिता ?, उच्चते-केचिद्विजाः घरदार ॥३२९॥ पयहिऊण लोहआई तित्थतयोवणाई आहिँडंति मिगचारियादि चाति, समणोवासगा वा, ते तु अविरतत्वात् , जे इमे तसथावरा
पाणी ते करिसणपयणपायणादिसु वद्यमाणा समारभंति अगोहि समारंभावेंति, उदेसिपभोयणा पुण अण्णे समारभंते समणुजाणंति, किंचान्यत् , जे इसे कामभोगा सहरूबा कामा गंधरसफासा भोगा, तदुपकारिपु द्रव्येषु कामभोगोपचार कृत्वाऽपदिश्यन्ते, तेसिं परिगिण्हंति वणियफरिमादयो, इस्तरपुरिमा परिगेहानेते परिगिहन्ते य समणुजाणंति, एवं समणमाहणेसु यिभापा, तिचिह| तिमिहेण सारभे सपावए णातुं गारस्थे समणमाहणे य, संसारभया अहं खलु अगारमे आरिग्रहे भविस्मामि, स्याद् बुद्धिः-अगाभारभो अपरिग्गहो य कथं शरीर धारयिष्यति ?, उच्यते, जह खलु गारस्था सारंमा एगतिमा ममगा दगारमं प्रति जई णाम के
अणारंभा अपरिग्रहा बा, आरभं प्रति असंयतत्वात् सारमा सपरिग्गहा चेन, तत्थ जे ते दब्बारंभ प्रति सारभा मपरिग्गहा मिरखगमादी ते चेव णिस्साए आहारोवहिसेज्जादि जायमाणा वंगचेर वशिस्सामो चारित्रमित्यर्थः, करस णं तं हेतुं ? कस्माद्धेतोः भवांस्तानन्सृज्य तानेवाश्चति ?, उच्यते, जहा पुयं तहा अवर अहार तहा पुन, आवाजुत्तं-गिहत्थे गिस्साए जुर्त, किंवा तेसिं अस्थि जं देहेंति !, उच्यते, पुवं एगे सारंभा सपरिग्गहा एन आसी, इदाणिपि पव्यहता संता पचमाणगा गामादिपरिग्गहेण यमपरिगहा, जेवि दग्गता आसी तेरि कामादीगि सेति, केरलं तेहि फणिहा परिचता, कई कततो?, उच्यते, जस्सारंभो| य घरवापपायोग्ग, अदुवेता रिजुभावेण णणु कांता ताकं धम्म मनुपस्थिताः, पुगरवि तेऽपि तारिमगति असंजतत्वात्संसारिगः, ३२९॥
दीप
अनुक्रम [६३३६४७]
[344]
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आगम
(०२)
भाग-2 “सूत्रकृत" - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [१], उद्देशक H], नियुक्ति: [१४२-१६५], मूलं [१-१५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
प्रत
पुंडरीकाध्ययनं
सूत्रांक [१-१५]
थीसूत्रकतागचूर्णिः ॥३३०॥
दीप
अनुक्रम [६३३६४७]
जे खलु गारस्था सारंभा सपरिग्गहा पासंडत्थावि सारंभा, दुहयोति दोवि ते, अथवा पुब्धि पच्छा य, अहवा सयं परेहि य, अहवा रागेण दोसेण य, इति संखाए ज्ञात्वा, दोहि अंतेहिं अदिस्समाणेहिंतो गारत्थावृत्ते पासंडवृत्ते इति भिक्खू रीएजत्ति इति परिसमाप्ती उपप्रदर्शने वा, मिक्खु रीएज इति, तत्थ पण्णवगदिसं पडच से बेमि पाईणं वा ६ एवं दुविधाए परिणाए परिण्णायकम्मे, परिज्ञातकर्मत्वात् व्यपेतकर्मा अबन्धक इत्यर्थः, अवन्धकन्वात् पूर्वोपचितकर्मणः वियंतिकारिए, अंतं करोत्येव| माख्यातं भगवता, कथं अंतं करोतीति ?, अत्रोच्यते, तत्थ भगवता छज्जीवणिकाय०, उक्तं च-'पुबभणितं तुजं भणत्ती तत्य.' ते कह रक्खितव्या ?, अन्तोधम्मेण, कई अंतोधम्म भवति ?, से जहाणामए मम अस्मात्तदण्डेण आउडिजमाणस्स, आउडिजइ खीलउ, जहा सीसे हम्मइ खीलगो तहा सकण्यो आउडिजति, हम्मति तजणं, वाघाए आउडिजति हमइ एगट्ठा, देखि वा आसज, अयमण्णत्थ वुच्चति जहा ओयणो कूरो भचं ददाति, एक एवार्थः अण्णण्णधामिलवेंति, एवमाहननक्रियायां के | आउडत्ति भणंतिचि, केई हम्मतिति भणंति, केई पुण तिहिवि पगारेहि, तातिगाढं दुक्खं परितावणा, जेण वा मरणसंदेहेण भवति, किलावणं पुण मुच्छा, मुच्छकरणं जाच लोमकरणं, लूयते लूगंति वा तमिति लोमं दुक्खाविजंतो, अंगाई अक्खिवंतो हिंसंति करोति, इच्चेव जणे सबे पाणा जाव दुक्खं पडिसंवेदेति, एवं अंतोधम्मेण जाणित्ता सब्वे पाणा ण तव्या, आह-किमयं धम्मों | बर्द्धमानस्वामिनैव प्रणीतः?, आहोखित् वृपभाद्यैरपि तीर्थकरैरन्यैश्च ततः परेणातिकान्तः, किमिति ?, जमु सब्बे पाणा०, एवं शिष्येण चोदिते आचार्यवाक्यं-से वेमि जे अतीता अणंताजे अ पच्चुप्पना साम्प्रतं वर्द्धमानखामिकाले पण्णारससु कम्मभूमीसु जे आगमेस्सा अर्णता अरहता भगवंतो सब्वे ते एवमाख्यातवन्तः एवमाख्यासंति अर्थतः, अतीतानागतकालग्रहणसूत्रेण
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आगम
(०२)
भाग-2 “सूत्रकृत" - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [१], उद्देशक H], नियुक्ति: [१४२-१६५], मूलं [१-१५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-०२] “सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
प्रत
सूत्रांक
[१-१५]
दीप अनुक्रम [६३३६४७]
श्रीमत्रक-10 तु वर्तमानकालो गृहीतः, सर्वे ते एवमाइक्खंति, आकारकथनत आख्यान, यथा 'अवलोअणं दिसाणं' नन्वेवमाकारेण भगवन्तो| पुंडरीका
ध्ययन तागचूर्णि: A अरहन्तः धम्ममाइक्खंति, भाषमाणा अपि भृशं ज्ञापयन्ति प्रज्ञापयन्ति, भृशं रूपयन्ति प्ररूपयंति, स्थाद्वादतो वा रूपयंति, उक्तं । ॥३३॥ हि-'नानामागेप्रगममहती.' किं तं प्ररूपयन्ति ?, सब्वे पाणा ण हतब्वा 'हन हिंसागत्योः' आज्ञापन प्रसह्यामियोगः
तद्यथा कुरु याहीत्येवं, ण परितावेयच्या ण उद्दवेयब्वा, एस धम्मे धुवे, भुवः नित्यं तिष्ठति, सर्वकर्मभूमिपु नितिओ नित्यः, शश्वद्भवतीति शाश्वतः, एगट्ठाई वा, एवं मंता अंतोधम्मेण से भिक्खू विरते पाणातिवायाओ जाच परिग्गहाओ, तत्परिपापालनार्थमेव उत्तरगुणेवि रक्खइ, तंजहा-णो दंतवणेणं दंते धोवेज्जा, गिलाणो अगिलाणो वा विभूमावटिए, आया वा णो अंजणं, गिलाणो वा रोगा पडिकंमठाणो वमणवेरमणविरेयणं वा, अज्जधूवणेतमवि धूमं पिचति कासादिप्रतिघातार्थ, एवं मूलगुणोचरगुणेसु सुसंवृतात्मा से भिक्खू अकिरिए नास्य क्रिया विद्यते ते सो अकर्मबन्धक इत्यर्थः, लूप हिंसायां, अहिंसक इत्यर्थः, अकमायाणं णिव्याणंतिकाउं अकोहे जाव अलोभे, स एवं मूलगुणसंवुडो भवति, जे य कमायग्रह करेइ, कसाइओ पुण मृलगुणे उत्तरगुणे य खिप्पं अतिचरति, जो पुण अकोहो जाव अलोभो सो चेव उबसंतो भवति सकाया, अणुवसंतो चेव परिणिव्युड ति, जहा उण्होदर्ग, उपहाणं समाणं परिणिबुडेत्ति बुचइ, एवं कसायोचि उसिणो, तदुवसमे परिनिब्युडे बुञ्चति, एवं ताव इहलोइएसु विरतो, अथवा परलोइया कामभोगा किमासंसितव्या ?, णेति उच्यते, परलोइए कामभोगेसु णो आसंसा पुरतो काउं वियरेजा, IAS कथमिति ?, इमेण मे दिद्वेण वा दिटुं धम्मफलमिहेन, जहा-आमोसहि विप्पोसहि अक्खीणमहाणसिआ चारणविउव्यणिड्डि| पचाणि,परलोए सग्गं सुकुलपञ्चायादिमादि, सुतं अदक्खाणएसु धम्मिलभदचादि, मणज्ञानी, सुतं सयमेव जातीस्सरणादिएहिं
॥३३॥
[346]
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आगम
(०२)
भाग-2 “सूत्रकृत" - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [१], उद्देशक H], नियुक्ति: [१४२-१६५], मूलं [१-१५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] “सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
प्रत
पुंडरीका
श्रीसूत्रकताङ्गचूर्णिः ॥३३२।।
सूत्रांक [१-१५]
ध्ययन
दीप अनुक्रम [६३३६४७]
चेत्र दिलु, सुतं सुत्तेहि, विविधं विसिटुं वा णातं विण्णातं, इमेण वा सुचरिततवणियम० सुचरितं तयो बारसविधो, नियमो इंदियनोइंदिय०, ब्रह्मणश्चरणं बंभचेरं चारित्रमित्यर्थः, हमेण जातामातागु(ब)त्तिएण धम्मेण, यातामाता यस्य वृत्तिः स भवति यातामातावृत्तिका, यात्रा नाम मोक्षयात्रा, मात्राऽल्पपरिमाणा या वृत्तिराहारादि, उक्तं च-'यात्रामात्राशनो भिक्षुः, परिशुद्धमलाशयः। विविक्तनियताचारः, स्मृतिदोपैर्न बाध्यते ॥१॥' इतो चुतो देवे सिया कामकमित्ति यतिमितान् कामान् कामयते तान् लभते चासेवतित्ति, वसे इंदियाणि जस्स चिट्ठति, कामवसवत्तिगहमेण अदुविधं लोइयं इसरियं रहतं, तंजहा-अणिमा लधिमा महिमा प्राप्तिः प्राकाम्यं ईशित्वं वशित्वं यत्र कामावसायित्व, सिद्धे वा अदुक्खमनुभवतेचि, एते चेव अट्ठविधा सिद्धा ते, इच्छाए सुहं वा दुक्खं वा भवति, एत्थवि सिया एत्थवि णो सियत्ति एरिसओ भवामि, एरिसमिति एरिसओ देवो भवामि, एरिसओ वा पुरिसो, इच्छियरूपो, इस्सरिओ वदे-देवे, एरिसया च मे सद्दादयो विसया भवंतु, एवमादि आसंसप्पयोग पुरतो काउंणो विहरेज्जा, स एवं भिक्खू सद्देहि अमुच्छितो जाय फासेहिं विरतो कोहातो जाव मिच्छादसण सल्लाओ जहा अमुछितो सद्दादिएसु विमएसु सुभेसु, असुभेसुवि अदुढे, विरतो कोहातोत्ति णिग्गहपरो, णिक्खीणा सव्वसो चेव, उत्तरगुणा एते मुत्ता अमुच्छतेत्ति, इति से माहणा आदाणतो इतिः परिसमाप्तौ उपप्रदर्शने वा, कस्स आदाणं १, कोहादि ४, अथवा आरंभी पयणादि परिग्गडो वा सचित्तादि कामभोगा सणातमा सरीरं वा, महंति-महंतं एतं कम्मादाणं, सद्दाणं अमुच्छितेऽद्वेपो वा यथाऽग्निः क्षीणेधनो उपसंतो ण डहति उपसंतो मोक्खं तु धम्मेसुहितो उपसृत्य उपरतो हिंसादिकर्मसु आयरियसगासे वा अविरतिप्रतिविस्तो पडिचिरतो स मिक्खू भवति, जे इमे तसथावरा विषयार्थ अचिन्त्यत्वादुपदेशकत्याच पूर्व च तसा उ पत्तो, तेऽवि पयार्थ
॥३३२॥
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आगम
(०२)
भाग-2 “सूत्रकृत" - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [१], उद्देशक H], नियुक्ति: [१४२-१६५], मूलं [१-१५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-०२] “सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
प्रत
क्रिया
ध्ययन
सूत्रांक [१-१५]
दीप
अनुक्रम [६३३६४७]
श्रीरावक- णासइ समारंभंति पन्वइ योगत्रिककरणत्रिकेण, अहिंसा गता, से मिक्खू जे इमे सचित्ता मीसा सदरूवा कामा गंधरसफासा भोगा ताङ्गचूर्णिः || सचित्ता दुपदादि दुपदेसु सदादि इत्थीपुरिसगीतहसितभणितसद्दा कोइलसुयमयणसलागा हंसाण वा, एतेसिं चेय अलंकिताणं ॥३३॥ मणुआणं तिरियाणं च ईसमयूराणां, रूवसंपण्णे णामेगे णो रूवसंपण्ण चतुभंगो, चउप्पदसद्दा हयहेसितहत्थिगुलगुलाईयं वसभढ
कितादिरूवं एतेसिं चेव अण्णेसिं च, अपया सद्दा पोसवणपवादादि वातेरियाण वा सालीणं रुक्खाणं तणाणं वा अचित्ताणं 'तेसि णं भंते ! तणाणं मणीण य केरीसए सद्दो किण्णरवरित्यादि विभासा, वीणादीणं चा मीसाणंपि भासितब्वा, सद्दे वेणुसद्दो रूवे अलंकिताण, बुत्ता कामभोगा, सचित्ता मंधा दुपदाणं पमोच्छासा माणुआ, रसो तत्थेव, फासो इत्थीणं, चउप्पदे विदाणं गंधो रसोवित्थ तत्थेव, फासो आसट्ठादीणं रसेसु पुष्फफलाण फासे हंसतूलादीगं, एते कामभोगे योगत्रिककरणत्रिकेण व सयं परिगि-1 हेजा ३, से मिक्खू जं इमं संपराइयं कम कजइ, सम्पराए भवं संपराईयं संपरेंति वा जेण तासु संपराइयं, अब रक्षणादिपु न कृतं | मात्र संवेद्यते, तञ्च तत्पदोपनिट्सवमात्सर्यान्तरायासातनोपघातैर्वध्यते जाव अन्तराइय ते कर्महेतवः नापि खयं करोति ३ से भिक्खू जं पुण जाणेजा असणं वा ४ आहारो, इदाणिं यसादुक्तं 'नाशरीरश्चरेत् धर्म, नाशरीरस्तपश्चरेत् । तस्मात्सर्वप्रयत्नेन, कत्तव्यं | देहरक्षणम् ॥ १॥' उक्तं च "धम्म णं चरमाणस्स पंच णिस्साठाणा पण्णत्ता इत्यादि" कंठय, अह पुणे जाणेजा विजति तेसि | परकमे हिंसादिप्रवृत्तिः, पराक्रमः प्रकरणमित्यर्थः, आतपरउभयपराक्रमः खभावः धर्मः जस्स अट्ठाए अप्पणो परस्स य भंगा ४, चेतितं कृतं करिज्जमाणं वा तस्किमर्थं , उच्यते-अप्पणो पुचाईणं भोजगाएत्ति, भुज पालनास्यवहारयोः यत्पालनीय अभ्यवहरणीयं च वस्त्राभरणादि आहारश्च, एवं तस्स अट्ठाए णिहिते, तस्स णिहितं भंगा ४, उग्गमे१६,उप्पादणाए १६, एसणा,१०, पसत्था,
SHEShareALAIMES
॥३३३॥
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आगम
(०२)
भाग-2 “सूत्रकृत" - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [१], उद्देशक H], नियुक्ति: [१४२-१६५], मूलं [१-१५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] “सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
प्रत
Imtaman
सूत्रांक [१-१५]
दीप
अनुक्रम [६३३६४७]
श्रीसत्रक- शसु हिंसायां शशति तेनेति शस्त्रं-अग्यादि सत्येण कामितं जीवभावात् सत्यादीनां सत्येण अजीवभावात् , परिणमितं जीविता वा, ताचूर्णिः
पारणामितं वणादीहि, अवहिसितं उग्गमदोसादी, तं एसणिजं एसियं वेसियं न इत्यादि, अहवा जहा वेसीयाणि रूपादि जोएत्ति ॥३३४॥
| तंपि सामुदाणियं एतत्प्रज्ञस्यासणं पिण्डकप्पियस्येत्यर्थः, अहवा यण्णग्गहणे कुसणं घेप्पेत्ति असणग्गहणा दुरुयणो अयवावादिवा, कारणट्ठा वेदणादि, पमाणं बत्तीसं, बिलमित्र जहा बिले पण्णउ पविसतिण य तं विलं आसातमितिकाउं सम्मिलावेंति तडाई, जहा वा किंचिवि लेटु घेज्झति, पातं विलं संमिलावेंति आसादेन्ति वा, पणउत्ति जहा पण्णओ किंचि मंडकादि अणासादितो असति, भूतेण तुल्लेणं, एवं साधूवि णो वामातो हणुवातो दाहियं दाहिणओ वा वामं, अण्णं अण्णकाले, कालो दुविथो-गहणकालो परिभोगकालो
य, छुहितो भिक्खावेलाया, अकाले बरसे, तिसितो पाणं पिवति, पुव्यं च भुंजेति मज्झे पाणगं पित्रति, वत्थं जम्मि काले परिभुज्जति INTI उदुवासेसु वा, वासे या वासत्ताणं, सीते वा लेणं, लयति लीयतेऽस्मिन्निति लेणं सेज्जा गहिता, जहा य सोतव्वं पडिमापडिवण्ण
एणवि णएणवि सेज्जाए वसति, सुसाणादिसु उड्डबद्धे, वासासु सेज्जं उवलीयति, सेसा णिचं सेज्जामयंति, सयणं सयणकालेत्ति | संथारसेज्जा गहिता, जयणाय विहिणा सुप्पति, से भिक्खू मात्रज्ञः आहारोवधिसयणखाध्यायध्यानादीनां मात्रां जानातीति,
अण्णतरं दिसं या रीयमाणे आइक्वेज्ज धम्ममाइक्खे जहा धुते, से भिक्खू धर्म कहेमाणो णो अण्णस्स हेतु पाणवत्थलेणसallयण णो अयोसि विरूवरूवाणं पूयासकारसहरूवगंधादिवामभोगाणं, णपत्थ धम्म णिज्जरहताए इति खलु हेतुं एवं णिरुवधं | जिरासंसं धम्म, तस्स भिक्खुस्स अंतियं जो सो उड़दिसमागतो तीरही तस्स अंतिए धम्म सोचा नं सद्दहमाणा उठाए धीरा | अस्सि धम्मे सुट्ठिता, ते एवं सब्योवगता सर्वात्मना उबगता इत्यर्थः, बाहिरेण अभितरकर पोण य आचार्यसमीपं गत्वा उपेत्य
॥३३४॥
[349]
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आगम
(०२)
भाग-2 “सूत्रकृत" - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [१], उद्देशक H], नियुक्ति: [१४२-१६५], मूलं [१-१५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[२] “सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
क्रियाध्ययन
प्रत सूत्रांक श्रीयंत्रक- संतो सर्वतो सव्वामेव संता, उण्होदगं वा उसिणं होऊण पच्छा कमेण सर्वात्मतया णिब्बुडा परिणिबुडा, एवं सो भिक्खू धम्मट्ठी,
ताङ्गचूणिः |से बेमि पाईणं वा ६, एचो आरंभेऊण जाव परिणिबुडे वेमित्ति, एवमवधारणे से इति स भिक्खू एवंगुणजाईओ धम्मेण 1 [१-१५] । ॥३३५ वा जस्स अट्ठो ३, धर्म वा वेतीति धम्मविदु, णियागं णाणादी ३ चरिचं चा, से जहामेत्थं बुइयंति से इति निर्देशः येन प्रका
रेण यथा, जं एत्थ अज्झयणे किंचि बु त सव्वं बुइतं, अदुवा एचो पोंडरीयं तं सव्वं बुइतं केवलणाणं, जहा पत्ते तहा बुत्तं, दीप
अदुवा अपने अण्णउत्थिया तंपि वुत्तं, एवं से भिक्खू कतरो जो तिणि णाणादीणि उप्पाडेति सो वुत्तो, स एव परिण्णायकम्मे
भवति, दुविधाए परिणाए पावाई कम्माई जस्स परिण्णाताई, एवमेव तु बाहिरब्भन्तरेसु वत्थेसु रागदोसादिलक्खणो संगो, गृहं अनुक्रम
समृद्धं सकुडुकबाडादिलक्खणं कलत्रमित्रपुत्रादि, एयपि दुविधाए परिणाए परिण्णातं, कोधादि उवसंते, एतेहिं तिहिं कम्मसग्गेहिं [६३३
गिहिवासेहिं असज्जमाणे उपसंते भवति. रियादिसमितोणाणादिसहितो सदा सबकालं जतेचि जतेज्जा, हितजाते जतिया जतो, 12 ६४७]
| अहवा को उवसंतो? जो समितो, को समितो? णाणादिसहितो, को सहितो? जो सदा जतेत्ति, सेचि णिदेसे स एवंगुणजातीयो वक्तव्यः, तस्सेवंगुणजातीयस्स भिक्खुस्स इन्द्रशक्रपुरन्दस्वत् नामानि भवंति, तद्यथा-समणेचि वा माहणेत्ति वा सर्वाणि, थप्नु तपसि खेदे च, श्रमणा, अथवा तो समणो०, ब्रह्मा अणतीति ब्राह्मणः, अथवा माहणा ण हणतीति २, खमतीति खंतो इन्द्रियणो० इति, विभिगुप्तः, बाह्याम्पन्तरग्रन्थमुक्तत्वात नीगंथचि मोक्षं ऋपित्यर्थः, करोतीति क्रतुः यज्ञः, यती प्रयत्ने यतत इति यतिः, विद्-ज्ञाने विद्वान् विदु मुणितं गमितमित्येकोऽर्थः मुनतीति मुनिः भिक्षणशीलो भिक्षुः रागद्वेपविमुक्तत्वात् लूहे | संसारतीरेण जस्स अट्ठो स भवति तीरट्ठी चरंति तदिति चरणं व्रताभ्युपगमं कुर्वन्तीति तदिति करणं पडिलेहणादि पारमन्तगमन
॥३३५॥
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आगम
(०२)
भाग-2 “सूत्रकृत" - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [१], उद्देशक -, नियुक्ति: [१६६-१६८], मूलं [१७-४३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-०२] “सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
प्रत
किया
श्रीसत्रकताङ्गचूर्णिः ॥३३६॥
सूत्रांक [१-१५] ।
ध्ययन
दीप
अनुक्रम [६३३६४७]
मित्येकोऽर्थः, चरणकरणपारं विदंतीति चरणकरणपारविदुत्ति बेमि, एवं ब्रवीमि तीर्थकरवचनात् , अजसुहम्मो जंयुणामस्स कहेति ।। पौडरीकाध्ययनं समाप्तम् ॥
किरियट्ठाणस्स अभिसंबंधो-एवं तेण चरणकरणपारगेण विदुणा भिक्षुणा कम्माणं खवणट्ठमभुद्वितेण कम्मबंधणट्ठाणाणि वजेतवाणि तन्यिवरीताणि य मोक्खवन्धट्ठाणाणि 'आसेतच्चाति, एस संबंधो, अहवा ते अण्णउत्थिया कहं संसार अणुपरिय{ति ?, कम्मणा, तं कम्मबंधं वज्जेति, इमेहिं बारसहिं किरियट्ठाणेहिं वज्झति, मुञ्चति तेरसमेणं, एतेणामिसंबंधेणं किरियट्ठाणं णाम अज्ञयणं आगतं, तस्स चत्वारि अणुओगद्वारा वणोतव्या, अहिगारो पुणाई संबंधे तह बंधे मोक्खे अ, आह-अस्तु ताव मोक्खेणाधिकारो, बन्धेन किं प्रयोजनं ?, उच्यते-अनेनाबन्धे मोक्खो न भवतीति अतो बन्धेनाप्यधिकारो भवति, तच क्रियास्थानं क्रियावत्स्वेव भवति नाक्रियावत्सु, ते च क्रियावन्तः केचिद् बध्यन्ते केचिन्मुच्यन्ते तेण इमस्स अज्झयणस्स बंधमोक्खेण य वुत्तो अधिकारो। इदाणिं णामणिफण्णे किरियाठाणं, किरियाओ णिक्विवियव्या ठाणं च, किरियाओ पुन्वणिताओ पडिकमणए 'पडिकमामि पंचहि किरियाहिं' किरिआ णिक्खिवितब्बा णामादि, दवे किरिएजणया ॥१६६।। माहा, जीवस्स अजीवस्त वा जा किरिया सा दबकिरिया, एंजृ कंपने, एजते इत्यर्थः, एजनं कम्पनं गमनं क्रियेत्यनान्तरं, तत्र जीवनोदना कर्मणो गुरुत्वात् विश्रसायोगाद्वा या गतिः सा सव्वा अनुयोग इतिकृत्वा द्रव्यक्रिया द्रव्यजीवस्त्रेह प्रयत्नपूर्वकत्वेनापि सति या परप्रयोगादनुपयोगाद्वाईपदपि कम्पनं अप्यन्ते चक्षुर्निमेपमात्रमपि सा दवकिरिया,भावकिरिया उपयोगपापकरा णिजसमुदाणो इरियावद्धसम्मत्ते मिच्छत्ते,सम्ममिच्छत्तोपयोगो तिविधो मणप्पयोगादि ३ नास्फुरद्भिर्मनोद्रव्यैरात्मनो योगो भवतीति मणप्पयोगा किरिया एवं वाकायद्रव्यैरपि, उक्तं
॥३३६॥
अथ द्वितिय-श्रुतस्कन्धस्य द्वितियं अध्ययनं आरभ्यते
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भाग-2 “सूत्रकृत" - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [२], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१६६-१६८], मूलं [१७-४३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[२] “सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
प्रत
क्रियाध्ययन
सूत्रांक
श्रीसूत्रक
चूर्णि: ॥३३७॥
[१७-४३]
दीप अनुक्रम [६४८६७४]
हि 'गेण्हा य काहाणं कायफिरिया गमणादि, उवायकिरिया द्रव्यं येनोपायेन क्रियते, यथा पटं वेमनलिकांछणितुरिवि-1 लेखनादिभिः पटसाधनोपायैः शिखितप्रयत्नपूर्वकं पटकारः करोति, एवं घटादिष्वपि आयोज्यं, करणं णाम यथेनोपायेन करणीयं द्रव्यं तत्तेनैव क्रियते नान्यथा, अथवा करण हितं, करणीयान्मृपिण्डात् बटः क्रियते नाकरणीयात् उपदग्धाच्छक्यते पापाणसिकताभ्यो वा, समुदाणकिरिया णाम समित्येकीभावे जंकम्म पयोगगहितं तं पसिट्टाएलण 'समुदयसमुत्थं पुट्ठणिधत्तणिकाचितं स्थित्यु| पायापेक्षं करोति सा समुदाणकिरिया, उक्तं हि-'कम्मं जोगणिमित्तं बज्झति०' सा य पुण समुदाय किरिया असंजतस्स संजतस्स | अप्पमचसंजतस्सवि जाव सकसायया ताव कीरति, इरियावहिया पुण छ उमस्थवीतरागरस केवलियरस जाव सजोगिति, किरिया-1 ट्ठाणं गुण एक चेव सयोगी, मम्मतकिरिया णाम जावतियागो सम्मदिट्ठी कम्मपयडीओ बंधति, प्रायेण अपसत्थाओ ण पंधति, इदाणि मिच्छादिट्ठी सवासि कम्मपयडीणं मिच्छादिट्ठीओ बंधओ होइ आहारगतित्थगरत्तं च मोत्तूर्ण, सम्ममिच्छादिट्ठी इदाणि जाब कम्मपगडीओ बंधति येन बंधति जयाओ विभासिंयन्याओ, तंजहा-सम्मामिन्छादिट्ठी मिच्छ पंचगं आहारगतित्थकरविभासा 'णिदाणिदा पयलापयला थीणद्धि ण पंधतु एवं तु एवमादि इदाणिं । हाणं-णामं उवणा दविए खेत्तद्धा ॥१६७|| गाहा, जहा लोगविजए तहा, तओ भणियवाओ किरियाओ डाणं च, एत्थ कतराहि कतरेण वा हाणेणं अधिकारों, तत उच्यते। | समुदाणिपाणिहणयोगट्ठा समुदायकिरियाहि अधिकारो बंधणचंधणयो 'अधिमारो सम्मपयत्तेण भावकिरियाओ, ठाणं च, एस्थ | कतराहिं कतरेण चा हाणेणं ?, आह-किं इरियावहियाकिरियाए णो अधिकारो?, उच्यते, सा संमपयने हाणे वट्टमाणस्स भवत्येव ताई पुण सम्मपयचाई भावठाणाई विरती संजमहाणं-लोगोचरियो परिग्नहो पसत्थभावसंघणा यत्ति एतेसु चट्टमाणो इरियाबंधओ
॥३३७॥
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भाग-2 “सूत्रकृत" - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [२], अध्ययन २], उद्देशक [-1, नियुक्ति: [१६६-१६८], मूलं [१७-४३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-०२] “सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
प्रत
सूत्रांक
क्रिया: ध्ययन
पाच
[१७-४३] |
दीप अनुक्रम
[६४८
श्रीसत्रक- वा अवन्धयो होजा, जो गुण अपसत्थेसु भावहाणेसु सो णियमा पायोगियं वा सामुदाणियं वा संपराइयं वा बंधति, अर्थापत्तिश्चात्र
द्रष्टव्या, समुदाणीयग्रहणात् इरियावहियावि गहिता, पसत्थभावट्ठाणगहणा अपसत्थट्ठाणमवि गहितं, एताहिं किं कज्जति ?, उच्यते, किरियाहिं पुरिसा पावाइयाओ सव्वे परिक्खिज्जा, तंजहा-धम्मेति लोयाणुगामियभावं पडिसंधाय तत्थानासे भवति महेच्छे | महारंभे, तहा धम्मपखेवि पुणो तउवकरणं च विप्पजहाय भिक्खायरियाए समुढेता इति वक्ष्यामि, तत्थ धम्मिया धम्मिट्ठा से
जहाणामए अणगारा भगवन्तों तिधा पावाझ्या परिक्खिजंति मंडलवाहिंद्विता अगणिकायपाती य, णिजुत्ती समत्ता। सुत्ताणु| गमे सुत्तमचारेयन-सुतं मे आउसं तेणं भगवता इह खलु(सं)जूहेणं (सू०१७) जूहे संजूहः संक्षेपः समास इत्यनाANन्तरं ये ते क्रियावन्तः ते सव्येवि एतेसु दोसु ठाणेसु वटुंति, तंजहा-धम्मे अधम्मे च उवसमे या अणुवसमे या, धर्म एवोप| शमः उपशम एव च धर्मः, उभयावधारणं क्रियते, अथवा उपशमाद्धर्मों भवतीति तेन धर्मग्रहणे कृतेऽपि उपशमस्य क्रियते ग्रहणं, | एवं अधर्म अनुपशमे च विभाषा, अर्चितत्वात् पूर्व धर्मसोपशमस्य च ग्रहणं कृतं, इतस्था हि पूर्वमधर्मोऽनुपशमश्च भवति पच्छा
धम्म उवसमं च पडिपज्जेति, तेण एते दो चेव पक्खा भवति, तंजहा-धम्मपक्खो अधम्मपक्खो य, तस्स पढमस्स ट्ठाणस्स अधम्म| पक्खस्स विभंगो विभाग इत्यर्थः, इह च खलु पाईणं वा ६ संतेगतिया मणुस्सा जाव सुरूवा वेगे, तत्र घातो हिंसा मारणं दंड: | अधर्म इत्यनान्तरं, तेसिं पुण सव्वेसि अधम्मपक्खे वट्टमाणाणं इमेतारूवं दंडममादाणं संपेहाए जाब हिंसापरद्धस्स दंडः क्रियते
एव, अत्र अधम्मपक्खे अणुवसमे य वट्टमाणस्स दंडस्स समादाणं ग्रहणमित्यर्थः, सपेहाएत्ति संम पेहाए दटूर्ण , तंजहा-पोर| इएमु तिरिक्ख० मणुस्सेसु देवगतीए य एतावं ता, पाणादिकं तु जाव वेमाणिएसुत्ति, मणुस्साणं दंडसमादाणं समीक्षितुं आह
६७४]
॥३३८॥
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भाग-2 “सूत्रकृत" - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [२], उद्देशक -, नियुक्ति: [१६६-१६८], मूलं [१७-४३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
किया
ध्ययन
प्रत सूत्रांक [१७-४३]]
श्रीसूत्रक
तानचूर्णिः
॥३३९॥
दीप अनुक्रम [६४८६७४]
यदि मणुस्साणं चउगतिसु दंडसमादाणं सेसाणं णेरइयतिस्यिदेवाणं तेसिं णाम किरियाट्ठाणेसु वट्टमाणाणं दंडोणस्थि ?, उच्यते, | अस्ति, कथं , जे यावण्यो तहप्पगारा, अण्णे मणुअवज्जासु तिसु गतिसु, प्रकार इति सादृश्ये शरीरेन्द्रियादि, णेरड्यदेवाणं पुष्णाN दिलक्षणत्वात् शरीरसादृश्यमन्ति, तिरिक्खजोणियाओ ओरालियशरीरसादृश्यं इन्द्रियसादृश्य, 'विन्नू वेयणं वेयंति' 'विष्णू'
संज्ञानग्रहणं इन्द्रियाणां च तानि केषांचित् सगलाणि, इंदियणिमित्तं चेव, उक्तं हि-"भवपचइयं देहं." गाथाओ तिण्णि, अहवा | विन्नू वेदेति य भंगा ४, सणिणो चेदणं विजाणंति य वेदंति य, सिद्धा विजाणंति ण वेदंति, असणिणो ण जाणंति वेदंति, अजीवा न जाणंति ण वेदयन्ति, एत्थ पुण पढमततिपहिं भंगेहिं अहिगारो, वितियचउत्था अवत्थू , तेमिंपिएयाइंति जहा मणुस्साणं तधा तेसिपि नेरइय० किरियाठाणाई भवन्तीति अक्खाताई, तंजहा-अहादंडे जाव इरियावहियाए। तत्थ पढमे दंडस| मादाणे (सूत्र १८) आहिज्जतिति आख्यात इत्यर्थः, से जहाणामए केइ पुरिसे आतहेतुं वा आतहेतुति आत्मार्थ, | णातहेतुति पुत्रदारादीणं अट्ठाए, अगारहेतुति घरस्स खंभे इट्टकादि वा करोति, परियारोत्ति वासभत्तगचारभट्टासहत्थिमादि
परिवारो, अहवा घरस्सेव वा पडियादिपरिवारं करोति, एवमादीणि अट्ठाए दंडं तसथावरेहिं पाणेहिं तं च सयमेव णिसिरति, | तस्स ताव अण्णे अहिउंजति अण्णे बोहंति, अण्यो मंसादीणं अट्ठाए उद्दयेइ, थावरेवि, अण्णेवि हन्ति अ अण्णे छिदति अण्णे | तच्छेति अण्णणे आहारहेतुं खाति वा, एवं अण्णेहिचि कारवति, कीरतंपि समणुजाणति, योगत्रिककरणत्रिकेण विभासा, एवं खलु
तस्स तप्पचियं तत्प्रतिकं सावद्यकर्म पढमे दंडसमादाणे १ अहावरे दोचे अणत्थदंडेत्ति (सूत्रं १९) से जहाणामए केइ | पुरिसे जे इमे तसथावरा पाणा ते णो अचाए अर्चयन्ति तामिति अर्चा-शरीरं तस्य मार्यमाणस्य शरीरमुपयुज्यते यथा मृगं,
13
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भाग-2 “सूत्रकृत" - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [२], अध्ययन २], उद्देशक -, नियुक्ति: [१६६-१६८], मूलं [१७-४३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] “सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
प्रत
सूत्रांक [१७-४३]
कियाध्ययन
४०॥
दीप अनुक्रम [६४८६७४]
श्रीसत्रक- एतं हणंति, एवं णो अइणाएति अइणं णाम चर्म तं वग्यादीवगादीणं, एवं जाव णो अद्विमिंजाएत्ति, हिसिंसु सेत्ति ताइचूर्णिः
एतेण मम पिता अण्णो वा कोइ मारितो जह कत्तविरियावराह० गाहा स मम चेव अण्णं वा मारेहित्ति जहा दसारहिं
जरासिंघो हिंसिस्सतित्ति गम्भत्थं वा बालं वा मारेति जहा कंसो देवइपुत्ते णो पुत्तपोसणं मारयित्वा पुत्रादीनां मांसानि Hदासंति, पसुपोसणतारति गवां गवात्राय आसहत्थीण उदण्णमंसादीणि दीयंते, अगारहितूणहेण(विद्धिहेतुणा)वा अगारं
गृहं तं बृहयंति इष्टककाष्ठादिमिर्वयंतीत्यर्थः, णो समणमाहणेहिं तु समणाणं चरगादीणं पंचहं भत्तमावसथं वा करेति, एवं माहणाणवि, सब्यस्थ वा सरीरादीणि किंचि एति, से हंता छेत्ता जाव उद्दवेउं उज्ज्ञितुं बाले घेरस्स आभागी भवति, वेराणिवि इमेकडादीणं एमेव, जहा पंथं वचंतो रुक्खस्स पतं छेत्तूर्ण छडेइ, लडीए चा मोडतो पाणाई वचति, कुहाडि वा आयुधं । वा रुक्खखंधेसु रुक्खडालेसु वा णिवाडेतो वचति, स वाले न किंचि तत्तो पत्त्रं वा पुष्पं वा आजीवति, केवलमेव वेर-कम्मं तस्स भागीभवति, अणट्ठदंडे । से जहाणामए केइ पुरिसे कच्छसि वा जाव पव्ययदुग्गंसि वा तणाणि-सेडियभंगियादीणि पत्तापि पुण सुक्खाणि उस्सविय २ जाव णो दव्वोच० भवतुति अगणिकायं णिसरति ३, योगत्रिककरणत्रिकेणं ३, एवं खलु तस्स तप्पत्तियति सावज्जेत्ति दोये दंउसमादाणे २॥ अहावरे तचे दंडसमाणे (सूत्रं २०) हिंसावेंति एत्तियं अधिज्जति, से जहाणामए केइ पुरिसे से इति निर्देशे, येन प्रकारेण यथा, नाम परोक्षसूचादिषु, केइ अणिदिवाणिदेसो कीरती, ममंती ममेव मीयते तम तदीयं पुत्र प्रातरं वा दुहितरं वा, अण्णं णाम अणिएल्लयं, अणि वेति अणिएल्लियं, जहा कुप्पिसप्पेण खइतो अमचो, अण्णो साहामरत्ति, तेण च सो मप्पो गहितो, तेण चिंतितं-अई ताव खइओ मतो य, मा एस जीवंतो अण्णंपि लोग
||३४०
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भाग-2 “सूत्रकृत" - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [२], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१६६-१६८], मूलं [१७-४३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] “सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
प्रत
क्रियाध्ययन
सूत्रांक [१७-४३]
दीप अनुक्रम [६४८६७४]
श्रीसूत्रक
साहित्ति तेण मारेमि, एवं सो अण्णस्स अट्ठाए तं राष्पं मारेति, अथवा अन्य इति परः पराक्ष्यः अण्णिय हिंसेतीति, एतेण 'कोइ तालचणिः मम मारतो आसि, हिंसंति उद्यतायुधः' एवं जहा सुरायादि, हिसिस्सतित्ति जहा आसनीयो तिवटुं.मा मे मारेसतित्ति मारि॥३४॥ [ तुमिच्छति, रायाणो वाऽद्दामाए खुड्डूलए चेव मारेंति, एवं ममं वा अण्णं वा अणि वा एक हिंमतिचि त्रिकालो भावितव्यः,
तसेसु दुपदचतुष्पदअपदादिषु जाव थावरेसु विहिसिंसुति रुक्खसालियं अजाणतो आपडितो रोसेण छिदति, उक्तं हि-'एतो। कि कट्टतरं जं मु०' हिंसतिति रुक्खमालं पडतं अणामंतं चेव आयुधेण छिदति, हिंसतिति दम्भसहमादीकण्टए मलेति, यथा वा। साक्यभिक्षुः पलं पत्रं छिन्नं वा, योगत्रिककरणत्रिकेण णिसिरति, तने दंडसमादाणे ३॥ अहावरे चउत्ये अकम्हावत्तिएत्ति आहिजइ, (सूत्रं २१) अकस्मात् नाम हेत्वर्था पञ्चमी अकस्मात् , से जहाणामए केइ ताव पचतदुग्गसि वा मिययत्तीए. | मृगा एव यस वृत्तिः सङ्कल्पो नामाभिप्रायः मृगान् मारयिष्यामीतिकृत्वा गृहानिर्गच्छति तदेवास्य प्रणिधानं बुद्धिरभिप्राय इत्यनर्थान्तर, अथवा प्रणिधान, बीत संगमादीहि अप्पाणं णा बेति, उक्तं हि-वीतं मयणो सरणो०, विगाए गंता एते मिगत्तिकट्टु |
जाव णिसिरति से मिगं वधिस्सामित्तिकट्टु, तित्तरंति वा जाव कजिलं वा विधित्ता भवइ, जहा मृगंतहा अन्नं दुपदचतुष्पदं Mसिरीसिवं घा विधित्ता भवति, इति खल से अन्नस्स अट्टाए जान से जहाणामए के पुरिरो सालिमाइ णिलिजमाणे निन्दसाणे
अन्नयर अनतरस्स हत्थं निसिरति, सत्थं वा अराियगमादि, से समागमे वा मरणकाले सुगंपी तणजातिसालिमाई छिदिता भवाते, HE इति (खलु) से अन्नरस अट्ठाए अनं फुसति णाम छिदति अथवा फुसंशि फसमाणो चेव दुक्खं उप्पाडेति, किं पुण छिजमाणे १,
चउत्थे दंडे ४॥ अहावरे पंचसे दंडे (सूत्रं २२) से जहाणामए केइ पुरिसे माईहि वा पितीहि वा नियमात्मनि गुरषु
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आगम
(०२)
भाग-2 “सूत्रकृत" - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [२], अध्ययन २], उद्देशक -, नियुक्ति: [१६६-१६८], मूलं [१७-४३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-०२] “सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
प्रत
कियाध्ययन
सूत्रांक [१७-४३]
दीप अनुक्रम [६४८६७४]
श्रीमत्रक- च पहुवचनं अहया माईहिंति सवचीणीओ मातुसियातो पितुस्सिताओ गिहिताओ, पितीहिंति पितुपितृव्यादयः पिल्वयंसा था, तानचाण सेसाणि भातिमादीणि मिनं अमिति निग्गहणा, एते चेव पुन्बुद्दिद्वा मायादीया गहिता, तेसिं एगतरं चा, गतो वा खणखण
उत्तिकाउं घरं अतितवानिति, तं वा मिचं च अमित्तमिति मिचे वधितपुब्वेति, सांरष्टकं क्रियते, अध केइ वधितपुब्वे भवति अजाANI णतो इष्टेविपर्यासः, दिद्विविपरियासिया, से जहा० केइ रिसे गामघातंसि वा रातो वा वियासि वा दिवसतो वा तावद
भ्रांतलोचनः अतेणं तेणंति अतेणे हतपुब्वे भवति आसण्यो वा असिमादिणो जइ दिट्ठीविपञ्जासो ण हतो ण मारतो तस्स ते सावज्जेत्ति पंचमा किरिया, दंडो घात इत्यनान्तरं, स तु पराश्रयं दण्डं समादियति एभिरिति दंडसमादाणे । इदाणिं प्रायेण आत्माश्रयाणि, ण च एकान्तेन तेसु परस्स ववरोवणं भवति तहावि कम्मबंधो भवतित्तिकाउं किरियाहाणाणि उचंति, आदिल्लाई | पुण किरियाट्ठाणतेवि सति दंडसमादाणेवि सति दंडसमादाणा बुच्चंति ५॥ अहावरे छट्टे किरियाहाणे मोसावत्तिएत्ति
(सूत्रं २३) से जहाणामए मोसवत्तिए आतहेतुं वासहेतुं वा सहोटोपि कोइ चोरो गहितो अवलवति णाहं चोरोत्ति, गाइहेतुत्ति | पुत्तो वा से अण्णो वा से कोइ ण एस चोरो णो पारदारिओ, एम भत्तगादी परिवादे सइ, मुसं भणावेइ मोसोवदेसं करेइ एवं | तुम भणेज्जासि, कूडसक्खी वा करेति, अण्णं वा अणुजाणतेत्ति चेव भणति-सुट्ठ तुज्झेहि अबलत्त, योगत्रिककरणत्रिकेण ३ |सावज्जे ति छट्टे किरिया०६॥ अहावरे सत्तमे किरियहाणे अदिन्नादाणवत्तिएत्ति (सूत्रं २४), आतहेतुं हरिमस्सामि इति एवं णेति, अगारपरिवारहेतुंचा हरति, योगत्रिककरणत्रिकेण सावज्जेति सत्तमे किरिए ७॥ अहावरे अट्ठमे
अज्झथिए (अज्झत्थवत्तिएत्ति) (सूत्रं २५), से जहा० केइ पुरिसे णस्थि ण च विसंवादेति, यो हि यद्विवक्षुश्चिकीर्षुर्वा
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आगम
(०२)
प्रत सूत्रांक
श्रीपत्रक
[१७-४३]
भाग-2 “सूत्रकृत" - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [२], अध्ययन २], उद्देशक -, नियुक्ति: [१६६-१६८], मूलं [१७-४३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
क्रियाDदित्सुळ कस्यचित् किंचित् स यदा अन्येन अपदिश्यते एवं कुरु वहि वा असंवादेहि स एवं विसंवादिज्ज तो पुण कोइ रुस्सति ||
ध्ययनं. कोई तुस्सति, ण एवं केइ विसंवादेति, सयमेव अज्झस्थियत्तेण हीणो' अदीणे दीणे, अथवा समित्येकीभावे सम्यग्वादः विसंवादः, ॥३४॥NY क्षेपः अपश्चः, अन्य वा किंचिदप्रियं वचनं काममप्रियमुक्तस्य कोपः, स एवं अविसंपादितोवि अकस्मादेव हीणोत्ति हीणे सरतो
ओयातो छायातो, दीणो णाम अकृपणोऽपि सन् कृपणवनिःसंहतोऽवतिष्ठते, दुटोति अकृतापकारस्थापि प्रदुष्यते, दुष्टमनाः दुर्मणाः, इष्टविषयप्रार्थनाभिमुखं हि मनः तदलाभे अपहतं भवति, अभिहतमित्यर्थः, मनसा च संकल्पाः मनःसंकल्पचिन्ताः जार अनि तत्क्षणं आत्मानमधिकृत्य वर्तते आध्यात्मिका अध्यात्मे संश्रिताः अज्झत्थसंसरया, अथवा युक्तमासंसयमेव समानदीपत्वे कृते | अज्झत्थया आसंसइया, अहह्या संशयः अज्ञाने भये च, संशयं कुर्वतीति संशयिता, कसाएहि कपायावृत्तमतिर्न किंचि जानीते, भयं चास्थ इह परत्र च भवति, चचारि, तंजहा-क्रोधं वा ४, अप्पणो कुज्झति, अगम्म वा गंतुं, वाया दुरुचरं वा काउं अप्पणो चेव रुस्सति, रुट्ठो ओहतमणसंकप्पो अज्झत्थमेव कोहमाणा, सिस्सो पुच्छति-एते कोहादि अज्झत्थतो जाता किं अज्झत्थं भवति ?, | उप्पतिमाणं भावाणं उभयथा दृष्टत्वात्संसयः, तत्र तावत् तंतुभ्यः पटो जातः तंतुप्रत्याख्यानाय भवति, गोलोमाविलोमेभ्यो दूर्वा | जाता, कारणमविलक्षणा भवति, एवमध्यात्मक्रोधाया जातो किमध्यात्म भवति पटवत्सूत्राकारादन्यत्वे आहोश्चि दूर्वा यथा खकारणेभ्योऽन्या, एवमध्यात्म कपाया अध्यात्मवतिरिक्ता वा भवंतीति संदेहः, उच्यते-कपायास्तावनियमादध्यामं च स्यात् , कपायाः स्यादन्यत् खदिरवनस्पतिवत् च, कथं ?, येनाकपायस्यापि अध्यात्म भवतीति, कथं काए विदु अज्झप्पं अपायस्यापि कायबामनोयोगा भवन्तीतिकृत्वा तेऽध्यात्म भजते इति, निराश्रयकपायवतो हि कपायिणश्च, एवं खलु तस्स तप्पत्तियं अट्ठमे
दीप अनुक्रम
[६४८
६७४]
॥३४२
[358]
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आगम
(०२)
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [२], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१६६-१६८], मूलं [१७-४३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
प्रत सूत्रांक [१७-४३] |
श्रीसूत्रक- ताङ्गचूर्णिः ॥३४॥
दीप अनुक्रम [६४८६७४]
कि. कोवपत्तिपत्ति आहिले ८॥ अहावरे णवमे किरियहाणे माणवत्तिएत्ति (सून २६), से जहा केइ पुरिसे जाति-11 क्रिया
ध्ययन मएण वा अहं जात्यादिविशिष्टः असंकीर्णवर्ण उत्तमजातीय अन्येष्वपि विभापा, अण्णातरेण मतेणंति, णस्थि एतेहिंतो अहविहे. हिंतो मदट्ठाणेहिंतो अणं मयहाणं, चरित्तं अस्थि, किंतु संजोगा कायव्या, संजहा-जायमयपते णामेगे णो कुलमयमत्ते० जातिमदमोवि कुलमदमचेचि एगे, णो जातिमदगते णो कुलमदमत्ते सोचि अवत्थु, आदिल्ला तिणिण भंगा घेप्पंति, एवंजातीए सेसाथि। पदा भइतब्वा, दुगसंयोगो गतो, तिगतिगसंयोगे एगो जातिमदमत्तोवि कुलमदमचोवि बलमदमचोवि, एवं चउक्तगपंचगछक्कगसत्तगअट्ठगसंजोगा कायव्या, बुद्धिविभवेण जाच परं हीलेति, परो णाम यो जात्यादिहीनः, अतुल्यजातीय रत्नं हीलयति लजा. | मिति, एवं जाब अणिस्सरदुर्गतं हीलयेति, निंदितो नाम परजात्यादिन्यूनसमुत्था, आत्मसमुत्थो मनस्तापः, जहा इमो वराओ हीणजाती दुग्गतओ बेति, मा मरिसउ कोइ कुलो भोज्जो, जोवि केणइ मंदेणवि सिट्टो तंपि ण जिंदति, सम्बंग णाम मएहितो सो बलिओ रूविओ अथावि दुजातीओत्तिकाउं, श्मशाने इव, एवं सब्वे संजोगा भाणितचा, गरहा णाम परेसिं पागडीकरणं, एस दुजातीओ चंडाले डंबो चम्मारादि वा, परिभवो णाम आत्मनो जात्यादिमदायएम्भात् तद्दीनेपु परेपु अवज्ञा करोति, त्रिष्यपि अनभ्युत्थानं न्यूनमासनं असकारिताहारादिप्रदानमित्यादि, इत्तरिओ अल्पप्रत्ययः, इत्वरमित्ययमल्पतरोऽयमसात् जात्यादिमिः असादहं जात्यादिभिर्महत्तर इति अप्पाणं विउकसेड़ विविधं विशिष्टं वा आत्मानं विउकमतीति अपाणं विउकस्से, सो पुण कि जाणह बराओ?, एतानि जात्यादीनि मद स्थानानि इहैव भाति, अथवा बलरूपतपःशुतलामैश्वर्येभ्यः इहापि कदाचिद् अश्यते, किं पुनः परत्र ?, तद्यदि अत्यन्तं जातिमदादीनि भवंति तो कि स्थ मज्जितव्य, इतो पुण देहतो चुतो कम्मवितियो अवसो पयाति | CT
11३४४॥
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गम
13५५॥
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) (०२)
श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [२], उद्देशक [-], नियुक्ति : [१६६-१६८], मूलं [१७-४३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
. प्रत
मानप्रत्यय सूत्रांक |
| तासु तासु उच्चनियतासु गतिस, उपपद्यत इत्यनर्थान्तरं, रंगनट इव, सो चेव राया भवति, सो घेर राया भविता सो पेय दास, श्रीसूत्रक
सो चेव इत्थीवि, को वा तस्स माणो ?, एवं जीचोवि एगता खत्तिओ, अथवा यत्र परवशता तत्र को मानः, सर्वः कर्मवशेन, [१७-४३].
| एवं गम्भाओ गन्मं गम्भाओ अगम्भं अगम्भाओ गभं अगम्भाओ अगभ, मणुस्सपंचेंदियाणं गम्भो सेसाण अगन्भो, जम्माओ दीप
जम्मं एवं एकभंगो. णरगाओ णरगं चतुभंगो, यावत्खकर्मचशादेव सुखी भवति दुःखीवा, मृतथ कर्मभिरेव शोभनामशोभनां|
गति नीयते, उक्त हि- आकडणं कर्मा, कर्मणं विकढ़ती'ति, एतदुभावे उत्कर्षापकों को नाम?, जो पण मानी तस्स अवमानिअनुक्रम
AN तस्स रोसो भवति तेनोच्यते-चंडे थटे पंडे कोधीत्यर्थः, जात्यादिधर्मः स्तब्धः, अपमाणितो णिसमा रुस्सति, रुट्ठोऽपि माणपि, IN [६४८
का गतिः तेन, क्रोधमानयोनित्यमन्योऽन्यस्य विद्यते, चवले नाम० अगंभीरे, मुहुत्तेण अवमाणितो रुस्सति थरथरेति अको- IMPA सति जात्यादिमिरात्मानं, प्रशंसति मानी यावि भवति, चशब्दः पूरणे अपिः संभावने, माणी अवमाणितो चंडो चवलो च भवति, एवं तस्स माणदोसा सावर्जति, णवमे किरियाहाणे ९॥ अहावरे दसमे मित्तदोसवत्तिएत्ति आहिए (सूत्रं २७) से जहाणामए केइ पुरिसे मातीहि या पितीहि वा जाव सुण्हाहिं या संवसमाणे तेसि अण्णतरे निवाइए वा अवराधवइए ताव अकोसो || 1वा कारण हत्थेण वा संघट्टेवा उपकरणे वा कम्हियि मिण्यो वा एवमादि लहुमओ-अल्प इत्यर्थः, सीतोदगे या कार्य उबल्लेत्ता.INI भवति, हेमंतरातीसु, उसिणोदवियडेण वा कार्य उस्सिचित्ता भवति, वियडग्रहणा उसिणतेल्लेण वा उसिणकंजिएण वा अगणिकाएण वा उम्मुएण वा तत्वलोहेण वा कार्य उहहिचा भवति, कडएण वा वेढेतुं पलीवेति, सो चेच कडग्गित्ति बुचति, आह-'हिंसाश्रवाः केशव! मायया चा, विपेण गोविन्द ! दिवाग्निना चा' छिजति से सओ कसओ, सेसं कंठर्थ, उद्दालेत्ति चम्माई लंबावेति, दंडोत्ति
६७४]
RUIRECURI
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आगम
(०२)
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [२], उद्देशक [-], नियुक्ति : [१६६-१६८], मूलं [१७-४३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-०२] “सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
मित्रदोषप्र.
प्रत सूत्रांक | [१७-४३]
दीप अनुक्रम [६४८६७४]
श्रीसूत्रक- लउडओ, अट्ठित्ति कोप्परं, तेण खीलं देति, अंगुट्ठि अंगुलितलसंघातो, मुट्ठी, लेल लेटुओ, लीलावयति प्रहारेणेति लेलू कवाल, ताजबूर्णिः ॥
वसकघरमित्यर्थः, कुड्डयतीति आउद्देति, तहप्पगारे पुरिसे संवसमाणे दुहिता दुम्मणा भवंति, त एवं यथा मार्जारे प्रोपिते मूषि॥३४६॥
कादी सत्था सुई सुहेण विहरंति एवं तंमि पयसिते वीसत्था घरे ठिया वा जागरगा गामेल्लगा था, सचो वा जगवतो वीसत्थो खकर्मधर्मानुष्ठायी भवति, तहप्पगारे दंडगरुओत्ति वधति चारंभति वा सव्वस्सहरणं वा करेइ हत्यच्छिन्नत्ति व करेति णिब्धिसयं वा करेति, दंडपुरक्खडेति वा दण्डं पुरस्कृत्य राया अयोइल्ला एगट्ठावेति, आउल्लगावि दण्डमेव पुस्कृत्य करणे णिवेसेन्ति, सव्यालिए बबहरति, अप्पणो चेव अहिते अस्मिन् लोगसि कथं किंचि दंडेति सो णं मारेति अहवा पुत्तं अण्णं वा से णिएल्लग मारेइ वा अबहरति वा अण्णं वा किंचि अप्पियं करेतित्ति तस्स घरं वा से डहति सस्साणि वा चतुष्पदं वा से किंचि गोर्ण वा अस्सं वा हत्थि वा घूरेति-अवहरेति वा २, अह ते परलोगंमि एवमादिएहि पावेहिं कम्मे हिं सुबहुं पावं कम्मं कलिकलुसं समजिणिता गरगतिरिक्खजोणीसु वा सुबई कालं सारीरमाणसाई पचणुभवंति, संजलणेत्ति संजलति यथाऽनि:, भस्मोपधायी त्वनुयोगादि, सोऽपि लहुसएवि अवराधे खणे २ संजलतीति संजलगा, परं च संजालयति दुक्खसमुत्थेण रोसेण, संजलण एव य कोधणो वृञ्चति, एगडिता दोषि, परं च अवगारसमुत्थेण दुक्खुप्पादेण कोपयति, एवं ताव उरंउरेण सयं करोति कारवेइ वा, अप्यो पुणो सयं असमत्थो रुडोवि संतो परस्स दुक्खं उपाएतुं पच्छा से रायकुले वा अण्णत्थ वा पट्ठीमंसं खायति चोपनयतीत्यर्थः, पृष्ठिमांसं खादतीति पिट्ठिमंसिओ, एवं ताव अधालहूमए अवराधे जो एरिसं दंडं वत्तयति सो महंते अवराधे दारुणतरं | दंडं निवत्तेति, कह !, पुत्तदारस्सेव यथोक्तानि दंडस्थापनानि शीतोदकादीनि अवि रोसेण सयं करोति वा कारवेति वा, एवं पुण
॥३४६॥
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आगम
(०२)
भाग-2 “सूत्रकृत" - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [२], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१६६-१६८], मूलं [१७-४३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
मायाप्रत्यय
दीप
प्रत सूत्रांक | श्रीमत्र
केथिवि दोसवचियं अट्टमं किरियाटाणं भावितुं पच्छा भणति, परे दोसवत्तिय णवमं किरियट्ठाणं पच्छा माणवत्तिय ९॥ एवं
| खल्लु तस्स सावजत्ति दसमे किरियट्ठाणे से जे इमे भवंति गूढायारा 'गुह संवरणे' गूढो आचारो जेसिं ते गूदायारा वा तामणिः [१७-४३]|
॥३४७ IN गलगर्चा सट्ठिलचारो वा, णाणाविधेहिं उवाएहिं वीसंभंजणयितुं पच्छा मुसीत वा मारेति वा जहा पज्जोयेण अभयो दासीहिं
हरावितो तमो तिमिरमन्धकार इत्यनन्तरं यथा नक्तंचराः पक्षिणः रतिं चरति अदृश्यमानाः केनचित एवं तेवि चोरपारअनुक्रम
| दारिया तमसि कार्य कुर्वन्तीति तमोकाईया, उलुगपत्तलहुएचि उलुका:-पक्षिणः पात्यतेऽनेनात्मा तमिति पत्रं पिच्छमित्यर्थः जहा
तं उलुगं पत्तं तणुएणावि बातेण चालिञ्जति वा उच्छल्लिञ्जति वा उत्क्षिप्यति वा एवं लहुगधम्मो, जेण इधं थोलगुरुएवि कले [६४८
उच्छल्लिजति, पब्वयगुरुएत्ति जहा पव्यतो गाढावगाढमूलो संवहगवातेणावि ण सकेति चालेउं वा एवं सोऽवि मायावी मुसाबाई, जत्थाणेण लंबो गहितो जं वा असंतेणवि अभियोगेण विणासेतुकामो तत्थ अण्णेहिं अन्भस्थिजमाणो वा अवि पादपडणेहि ण सकति उच्छल्लेत, आरियावि संता अणारियाहि विउदंति, आयरिया खेत्तारियादि, आरियमासाहि, गच्छ भण भुंज एवमादिएहि, | एते चेवत्थे कलादतालाचरचोरादी आत्मीयपरिभाषाएहि भणंति, मा परो जाणीहीति, अजाणतो सुहं वंचिजइ, अण्णं पुट्ठा आत्मा न पृष्टः, को विचारान् कथयति !, एवं कोई सुडिताए गारीओ पंथे हिरंतो कुढिएहिं णाओ, चोरोत्ति विंदमाणो गहितो, राउलं
नीतो. कारणिएहि पन्छिओ भणति-णाहं चोरो, पहिउति, अमृगत्थ पट्टितो, कथंचि समावत्तीए एयासिं गावीणं पिद्रतो संपत्त। मेतो चेव गहितो, अथवा कस्सइ किंचि आसिआडितं, पच्छा सो तं चोरं किंचि भणति-अवस्सं एतं अमुगेण हितं भविस्सति,
सो य तं जाणतोचि जहा तेण हितति भणइ-अमुगेण हितं अयोण या एवमादि अन्नं वागरेति, अपणहा संतं अप्पाणं अण्णधा
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॥३४७॥
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आगम
(०२)
भाग-2 “सूत्रकृत" - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [२], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१६६-१६८], मूलं [१७-४३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] “सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
प्रत
मायाप्रत्यय
सूत्रांक
[१७-४३]
दीप अनुक्रम [६४८
६७४]
श्रीसत्रक- सेतित्ति, जहा गलगा णाणाविहेहिं पासंडवेसेहिं अपरं बचेति, एवं चारिगावि चारैति, अण्णहा आइक्खंति, जहा पुट्ठो केणइ ताजणि कोसि तुम? मोढेरगातो आगतो भवान् ?, सो भणति-णाहं मोढेरगातो, भवद्यामादायातो, विकतो वा पुच्छइ कोइ-अशो! निउण ॥३४८ भणत्ति, किणतो अधियंतो एवं कूडकरिसावणं च्छेयं कूडगंति, से जहा वा केइ पुरिसे अंतो सल्ले मा मे दुक्खाविजिहित्ति कंट
णो अणुण्णवति, विजेण अण्णण वा ण णीहरावेति, णो पलिविद्धसमेतित्ति, नान्येन केनचित् ओसहेण कोत्थति, केणइ चा पुढे दुबलो?, ण एतेण पसवणे पउणतित्ति, मा ससल्लो अञ्जवि होजा पच्छा एवं एवमियंति, जह से सयं णो उद्धरति एवमेव अण्ण्णवि पुट्ठो चेदणभीतो णत्थि सल्लोचि गिण्हइ, अविउमाणेत्ति परेण पुट्ठो वा अणालोएमाणो, तेणान्तर्गतेन दुःखेन पोल्लरुक्खोविव
अन्तर्गतदावाग्निना अंतो अंतो झोसियाति, एवं एत्थ णं पारदारियादि विरहेणं तप्पंति, अलब्भमाणो पोलरुक्खोविव अन्तर्गतPA पात का अंतो अंतो शियाति, आह हि-तं मित्रमंतर्गतमूढमन्मथं' एप दृष्टान्तोऽयमर्थोपनयः-एवमेव मायी मायाकरो वा अचोरो
अण्णो वा पुच्छिजंतोवि णो अपणो आलोएति, लोउत्तरिओवि किंचि मूलगुणातिचारं वा उत्तरगुणातिचारं वा कटु णो आलो.
एति, आलोचना आख्यानं, प्रतीपं क्रमणं प्रतिक्रमणं, निन्दा आत्मसंतापे, गरहा परेसिं वा, तस्मात् निवर्त्तनं बिउट्टणं णो जधाFA वराह जं जस्स अवराहस्स अणुरूवं पायच्छित्तं लोगे चरेत् , लोके तावत् अगम्यं गत्या अगदाघेव, मद्यं पीला, णिब्धिसओ चा,
मांस खाइत्ता माणवो धम्मकोविताणं उबढेति, जाव पच्छित्तं ते दिति, किंचित् अतिचारं पलंडुभक्खणादि कृत्वा मद्यं वा पीत्वा 'सद्यः पतति मांसेन' अध्यापकानामालोचयति जाव पच्छि, समये विश्वासाय विरुद्धं कृत्वा सयाणं सयाणं गुरूणं आलोएति, लोगुत्तरेबि एतं चेव णो आधारिधं, मायी अस्सि लोये मणुस्सलोए, जे ताय गृहस्था मायी सो कदाइ उस्सण्णविदोवा इमं लोग
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(०२)
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [२], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१६६-१६८], मूलं [१७-४३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
तापसादिक्रिया
प्रत सूत्रांक [१७-४३]
दीप
अनुक्रम [६४८६७४]
श्रीसत्रक
Dणचेव लभति, परलोगेण तिरिक्खजोणिएसु अप्पणोगासा पचायति, जइ कोइ उस्सण्णदोपत्वात् अस्सि चेव लोगे पचायाति, देव- ताङ्गचूर्णिः
IN लोगपि गो लम्भति, कुतो मोक्खो ?, अणालोइए अपडिकंतो वा सम्मदिट्ठी जावणो सिज्झति, परलोए पचायाति, देवलोक इत्यर्थः, ॥३४॥ किं पुण ?, स एवं मायी, निंदागरहानिंदनादयो मिथ्या, उक्तं हि-'अमायमेव सेवेत' मायी च निन्यते लोकेन इत्यर्थः, आत्मानं
|| प्रसंसतीति, सेविता च मए असुद्धं वंति अप्पणो तुस्सति, आह हि-"येनापत्रपते साधुरसाधुस्तेन तुष्यते" णिशरति यदा मायिना
| परो वंचितो भवति तदा लब्धपसरो अधियं चरतीति णियरतीति, णो णियट्टति-न निवर्तते तस्मात् प्रसङ्गाद, उक्तं हि-'करोहा त्यादौ " णिसिरियदंडो णाम हरणे माहणाणं वा तं काउं छादेति, ण करेमित्ति, अण्णस्स चा उवरिंछुभति, माई असमाहडलेस्से
हेद्विष्ठाओ तिणि असमाहडलेस्साओ. सम्यग्भिः त्रियोगैरात्मनाऽऽहत्य असमाहडाओ, उवरिल्लाओ तिणि समाहडाओ, ते एवं खलु से मायिस्स अममाहडलेसस्स सावजत्ति आहिते, एकारसमं किरियाहाणं ११ ॥ (सूत्रं २८) अहावरे दुवालसमे (सूत्रं २९), एतागि प्रायेण गृहस्थानां गतानि एकारस किरियाट्ठागाणि, इमं पुण पासंडत्थाणं बारसमं किरिया० तेनोच्यते
जे इमे भवंति आरणिया अरण्णेसु बसंतीत्यारणिया तावसा, ते पुण केइ रुक्खमुलेसु य बसंति, केइ उदएसु, आवसहेसु IS वसंतीत्यावसस्थिगा, गामे अंतिका ग्रामाभ्यासे ग्रामस्थ ग्रामयोर्वा ग्रामाणि वा अंतिए वसंतीति ग्रामणियंतिया, ग्राममुपजीवन्ती-1 2. त्यर्थः, कण्हुईरहस्सिया, रह त्यागे, किंचिद्रहसं एषां भवति यथा होम मंत्राश्च आरण्यगं वा इत्यादि, सर्वे वेदा एपां रहसं
येनात्रामणाय न दीयन्ते, णो बहुसंजता णो संजता णो बहुएसु जीवेसु संजता, पंचिंदिए जीवे ण मारेति, एगिदियमूलकन्दादि उदयं अगणिकायं च वधेति, संयमो नाम यत्नः, विरती वेरमणं जहा मए असुओ ण इंतव्योति, पच्छा तेसिं चेव जेसु
॥३४९||
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प्रत
सूत्रांक
[१७-४३]
दीप
अनुक्रम
[६४८
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भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र -२ (निर्युक्तिः+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [२], उद्देशक [-], निर्युक्तिः [१६६-१६८ ], मूलं [१७-४३]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र - [०२], अंग सूत्र -[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
श्रीसूत्र कृ
ताङ्गचूर्णिः
॥३५०॥
विरतो तेसु जतणं करेति, मा मे मारेस्सामिति, अथवा संजमो विरती एगड्डा, सन्नपाणजीवस तेहिं, अथवा णो बहुसंजओ-बहुसंजओ णो बहुविरते अप्पको सच्चामोसाई एवं विउंजंति, सबं मोसं कतं, तंजहा - अहं न तच्चो अण्णे तब्बा, ब्राह्मणा न हंतव्याः, ब्राह्मणघातकस्य हि न संति लोकाः, श्रद्रो हन्तव्यः, शूद्रं मारयित्वा प्राणायामं जपेत् विहमि (नी) तिकां वा कुर्यात् किंचिद्रा दद्यात्, अनस्थिकानां सच्चानां शकटभरं मारयित्वा ब्राह्मणं भोजयेत्, हृणणं-पिणं, आज्ञापनं अमुगं कुरु अमुगं देहि चेत्येवमादि, परितावणं- दुक्खावणं, परिवेत्तव्यंसि दासमादि परिगेण्डति, उदवणं मारणं, जहाऽतिवातातो अणियत्ता तथा मुसावादादि ३ जहा एतेसु आसवदारेसु अणियत्ता एमेव इत्थिकामा भारिया, उक्तं च- "मूलमेयमहम्मस्स ०" आह च- " शिश्नोदरकृते पार्थ", अथवा इत्थियासु सद्दादयो पंचवि कामा विद्यते इति उक्तं च--"पुप्फफलाणं च रसो० " मुच्छिता गिद्धा जाव अज्झोचवण्णा जाव वासाई चतुःपंच, पंचग्रहणं छसत जाव छदमाई, मज्झिमो कालो गहितो, परेण कम्हा ण गहितो जाव वीस तीस सयंति वर १, उच्यते एते प्रायेण अण्णउत्थिया भुक्तभोगा अब चोपादानाई काऊणं पव्वयंति, भोगपिवासाए वा भोगे के वि हरंति, जीवंतित्ति गतवया जाव अवच्चाई उपादेति, थोवंतियं तात्र चैव से वयो भवति, आह हि - " या गतिः क्लेशदग्धानां०" तेन चतुःपंचग्रहणं, उक्तं च- "सोयसु न घरेण मुद्दे० " एवं ताव तेर्सि थेरपच्चइताणं एस कालो उस्सग्गेण भणितो, पच्छा सुतेण चैवsवदिसति एतस्मात् यथोद्दिष्टात् अप्पतरो वा भुजतरो वा, एकं दो वा तिष्णि वा वासाई गहिताई, भुजतरो भवति, दसहूं परेण जाब सतं वालपव्यइताणं, जहा सुगल (सु) तस्स, जणे णासित्ति जणो न जातो, एवं ताव ते पव्वइता अणियत्तभोगा, यथा शाखोक्ता, आधाकर्म्म आहारो आवसहसयणीवादाणस्नानगन्धमाल्यादिभोगा भुंजंति, त एवं अणियत्तकामा कालमासे कालं किचा
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तापसादिक्रिया०
॥३५०॥
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भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [२], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१६६-१६८], मूलं [१७-४३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत' जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
दीप
प्रत सूत्रांक | श्रीयंत्रक- अण्णतरेसु आसुरिएसु किब्धिसिएसु जेसु सरोणस्थि वाणेसु, ताणि पुण अधे लोए सरोणत्थि, तत्थ भवणवइवाणमंतरा देवा ईर्यापथ१७-४31 ताङ्गणितेसूबवजंति, किविसं कलुसं कल्मपं पापमित्यनान्तरं, किब्धिसबहुला किनिसिया, ततोवि किब्धिसियातो विप्पमुच्चमाणा जहYAL क्रिया ||३५१|| IV किहवि अर्णतरं परंपर चा माणुस्सं लभंति तहावि एलमुयत्ताए, एलओ जहा बुब्बुएति एवंविधा तस्स भासा भवति, तमोका-IN
| इयत्ताएत्ति जात्यन्धो भवति वालंधो चा, एवं खलु तस्स दुवालसमो १२, इचेताणि दुवालसकिरिया० संसारियाणि प्रायेण अनुक्रम
| मिथ्यादर्शनमाश्रित्य, दविओ रागदोसविप्पमुको समणेत्ति या माहणेति वा एगढ, सम्म पडिलेहितब्वाणि भवंति, ज्ञात्वा न कर्त्त[६४८
व्यानीत्यर्थः ।। अहावरे तेरसमे किरियहाणे ईरियावहिपत्ति आहिए (सूत्रं ३०), ईरण-इया ईर्यायाः पथश्च तत्र जात | ईर्यापथिक, ईरणं ईर्या, ईरणात् पथश्च जातं, तत् कुत्र भवति ?, उच्यते-इह खलु इह प्रबचने खलु विशेषणे, नान्यत्र भवति, | कस्य बध्यते ? आत्तत्ताए आत्मभावः आत्मत्वं, आह-सर्व एवायं लोकः आत्मार्थ प्रवर्तते ?, उच्यते, येनात्मानं निश्चयेन हितं, तर्धनात्मवतां कर्म ?, अशोभनवान्मा अनात्मैव, लोकेनापदिश्यते, यो हि दुर्विहितो भवति सः अनात्मैवापदिश्यते, आह हि| "अनात्मना चैप दुरात्मवृत्ति:" यस्य च नित्यो जीवस्तस्यात्मार्था प्रवृत्तिरयुक्ता, येषां चात्मा नित्यः, कर्मफलं न च, तेपामन्यः । करोति अन्यः प्रतिसंवेदयते, इन्द्रियानिन्द्रियसंयुडे अणगारः, ईरियासमियस्म जान उच्चार० मणसमितस्स वइ० काय०, सम्यग्योगप्रवृत्तिः समितिरितिकृत्वा अढ समिइओ गहियातो, मणोगुत्तस्स बइकायगुत्तस्सत्ति तिण्णिा गुत्तीओ गहिताओ, एते पुण तिण्णिवि || कायवायमणा य सम्पक प्रवर्चमानस्य समितीओ भवंति, एतदेव त्रयोऽपि योगाः 'सम्यग्योगनिग्रहो गुप्ति'रितिकृत्वा गुप्तयो भवंति, पुनः गुप्तिग्रहणं एतायान् गुप्तिगोचरः, नातः परं गुप्तिरन्याऽपि दृश्यते, 'गुत्तबंभचारिस्सति जस्स पवहिं बंभचेरगुत्तीहिं
६७४]
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भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [२], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१६६-१६८], मूलं [१७-४३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[२] “सूत्रकृत' जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
ईर्यापथ
क्रिया
प्रत सूत्रांक | [१७-४३]
दीप अनुक्रम [६४८६७४]
श्रीसूत्रक- गुत्तं भरं भवति सो गुत्वंभचारी, 'आउत्तं ति णियमेव संजमे उबजुत्तो, मा मे सुहुमा विराहणा होअत्ति अप्रमच इत्यर्थः, ताङ्गचूर्णिः
बाहिरतो वा तस्स आणणं करेति, माणस्य अवमाणस्य कोष्ठस्य प्राणनं कुर्वतः प्राणनमानस्य, चिट्ठमाणस्स णिसीयमाणस्स तु॥३५२॥
अदृमाणस्स वा आउत्तं वत्थं णिक्खिवमाणस्स वा पडिलेहि पमजितुमित्यर्थः, जाव चक्षुःपम्हं यावत्परिमाणावधारणयोः, पश्यतीति चक्षुः चक्षुपः पक्ष्माणि अक्षिरोमाणीत्यर्थः 'णिवायमवित्ति उम्मेसणिमेसं करेमाणो इत्युक्तं भवति, एवमादि अण्णोवि कोइ सुहुमोवि गायसंचारो भवति, तंजहा-जाब जीयो सजोगी ताव णिचलो पा सकेइ होउं, उक्तं च--'केवली णं भंते ! अस्सि समयसि जेसु आगासपदेसेतु' सब्यो आलावगो भाणितब्यो, एवं सजोगीकेवलीणो सुहुमा गत्तादिसंचारा भवंति, कम्मयसरीराणु
गतो जीयो तचमिव च उखास्थमुदकं परियचति तेण केवलिणो अस्थि सुहुमो मात्रसंचारो, विपमा मात्रा माता कदाचिच्छरीPA रस्य महती क्रिया भवति स्थानगमनादि कदाचित् उस्सासमहुमंगसंचालादि अप्पा भवति, स पुनर्महत्यामल्पायां वा चेष्टायां ।
तुल्यों भवति, कालतो द्रव्योपचयतश्च, कालतस्तावत् सो पढमसमए वज्झमाणो चेव पुट्ठो भवति, न तु संपराईयस्सेव, जोगनिमित्तं गहणं जीवे, अज्झत्तं बज्झमाणं चेव परस्परतः पुष्टं भवति, संश्लिष्टमित्यर्थः, बज्झमार्ण चेव उदिअति, वितिए समए संवेदिअति, ततिए समए णिजरिअइ, प्रकृतिस्थित्यनुभावप्रदेशक्रमश्च वक्तव्योत्र, तस्स पगडिबंधो वेदणिजं, ठितीए दुसमयठितिसमयियं, पदेसतो बादरं, थुल्ला पोग्गला, अणुभावतो सुभाणुभावं, परं सातं, अणुत्तरोववातिगसुहातो, प्रदेशओ बहुप्रेदशं, अथिरबंध, उक्तं च-"अप्पं बादरमउ०" अप्पं ठितीए, बादरं पदेसेहि, अणुभावतो सुभअणुभाई, बहु पदेसतो, सुकिल्लं वष्णतो, सुगंध गंधओ, फासतो मउअं, मंदलेवं भुल्लकुडुलेववत् , महव्ययं बहुअं एगसमएण अवेति, सातबहुलं अणुनराणवि तारिसं सात
||३५२।।
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भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
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ON
प्रत
श्रीसूत्रकसूत्रांक || ताङ्गचूर्णिः [१७-४३]
॥३५३॥
दीप
अनुक्रम [६४८६७४]
णस्थि, बंधी फुसणा य अस्थि, संपराइयस्सेव बढ़पुट्ठगिध'वणिकायणा य गस्थि, रोयकाले अफम्म वावि भवति 'सेय- क्रियाधान कालो त्ति एस्सो कालो, सेत्ति णिदेसे, ईरियावहियाए कम्मे अकालो, तरस दोण्हं समयाणं परेणं अकर्म वावि भवति, चशब्दो- प्रज्ञापना | अधिकवचनादिपु, तथा वेदनं पड़च्च अकर्म, तीतभावपण्णवणं पहुच कर्म गुडघटदृष्टान्तो, दुविधा कम्मशरीरा बद्धेल्ला य मुकेल्ला य, गुकिल्लए पडुच कम्म, एवं चग्रहणेन संभवता चसद्देण च लभति, एवं खलु लस्स सायजति आहिजति एवं तात्र वीतरागस, जे पुण सरागसंजता तेसिं संपराइया, ते पुण जाई एताई ईरियावहियवाई वारस किरियाणाई तेसु वह तिलिका | ते तत्थाणुब्धया, तेसिं प्रमादकपाययोगनिमित्तो संपराइयनंधो होइ, जत्थ प्रमादतः तत्थ कपाया य जोगाय णियमा, जोगे पुण। पुचिल्ला भजिता, पमादपञ्चइयो णातिदीहकालद्वितीओ होति, कपायपचइया या ऊणतरो अंतोगहुत्तिोचा अट्ठसंवच्छरिओ, जो पुण कसायविरहितेण जोगेण बज्झति सो य ईरियावहिओ, हेडिल्ला पुण सावञ्जा चेव घारस किरियाहाणाई भवंति, एवं पव्वइओ | वा उपपव्यइओ वा, एवं सरागसंयतस्स सावझो चेत्र, एताई पुण तेरस बदमाणसामिणा वुत्ताई तहा किमण्णेहिं बुत्ताई ? आगमेस्सी | वा भणितिहिति ?, उच्यते-से वेसि जे अतीता ३, एताई तेरस किरियट्ठाणाई पगासिंसु वा ३ जहा जंबुद्दीचे दुवे सूरिया तुल्लं उज्जोति, यथा वा तुल्यस्नेहोपादानात्प्रदीपास्तुल्यं प्रकाशयन्ति, वीतरागत्वात् सर्वज्ञत्वाच तुल्यमेवाईन्तो भगवन्तः तीतानागसंपत्ता भासिसु वा ३, अदुत्तरं च णं तेभ्यः क्रियास्थानेभ्यः अथ उत्तरं अदुत्तर, यथा वैद्यसंहितानां उत्तरं जं मूलसंहि| तासु श्लोकस्थाननिदानशारीरचिकित्साकल्पेषु च यत् यथोपदिष्टं च, यथोपदिष्टं सदुचरोऽभिधीयते, रामायणछन्दोपद्विततमा| दीर्णपि उत्तरं अस्थि, एवमिहापि तेरससु किरियाहाणेसुजं वुत्तं अधम्मववास्स अणुवसमपुव्वकं उत्तरं उचेति, विजयो नाम मार्गणा,
॥३५॥
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LFA
प्रत
श्रीसूत्र- सूत्रांक |
वार्षिः
॥३५॥ [१७-४३]
दीप अनुक्रम [६४८६७४]
विविधो विशिष्टो या विभागो विभङ्गा, तं पुरिसजातविभंग आइक्विामि, केसि सो विभंगो', उच्यते-गाणापण्णाणं, पापशुतानि नानाऽर्थान्तरत्ने, प्रज्ञायते अनयेति प्रज्ञा, सा य उत्तमाधमा पण्णा, लोके दृष्टत्वात् , छट्ठाणपडिता वा पण्णा, छन्दोऽमिलाप इत्यनर्थान्तरं, कोइ उच्चच्छन्दो भवति कोइ णीअच्छंदो भवति, उत्तमाधमप्रकृतिरित्यर्थः, उचे णामेगे उच्चच्छन्दो उच्चेणामेगे० भंगा चत्वारि, 'णाणासीलाणं सुसीलो दुस्सीलो इति, सुखभावभद्रा सुशीला, णाणादिट्ठीणं तिगि तिसवाणि पावातियसयाणि दिट्ठीणं णाणारुयीणं आहारविहारसयणासनाच्छादनाभरणयानवाहणगीतवादित्रादिपु अण्णमण्यास रुचति, 'णाणारंभाणं' कृषिपाशुपाल्यपाणिकविपणिशिल्पकर्मसेवादिषु गाणारंभो जाय 'णाणाज्झवसाणसंजुत्ताओ' शुभाशुभाध्यवसानानि तीवमध्यमानि इहलोकपडियद्वाणं परलोगणिप्पिवासाणं विसयतिसियाणं इणं णाणाविधं पायसुचपसंग वण्णइस्सामि, तंजहा-भोम्म AN उप्पायं इथिलक्षणं जहा सति तणुईत्ति, तणुईति तन्वी, पुरिसलक्खणंति मानोन्मानप्रमाणानि यथा त्वचि भोगाः सुखं मांसे०% हिनोति हीयते हयः, स्वस्थ मानोन्मानप्रमाणवर्णजात्यादिलक्षणं गच्छतीति गजः तस्य लक्षण 'सत्तंगपतिहिते'तिवण्णओ, गोणो मानोन्मानप्रमाणवपुर्वर्णखरादिलक्षणं, एवं चेव जाव लोगोत्ति चकच्छत्तस्स चउदसह मणिकाकिणि चक्वडिस्स, तस्स लक्खणं सारप्रभादीणि लक्षणानि, एतानि स्वमूर्तिनिष्पन्नानि लक्षणानि, इदाणि विज्ञान तकम्मं बुच्चति, तंजहा-सुभगं दुभगं दुभगं सुभगं करेति विजआए, गब्भो जेण संभवति मोह मेहुणे वा, जीवकरणं, अथर्वणवेदमत्रादि, हिंदयउड्डियपक्खं सदोषैः, पाकान् शास्तीति पाकशासनः इन्द्रस्तस्येन्द्रजालं विद्या, दवाई घयमधुतंदुलादीनि दयाणि तेहिं होमं करेति दाहोम, एवं सब्यविजाकम्म, खत्तियाणं विजा खत्तियविज्जा इसत्थं धणुवेदादि, तस्थ विज्जाओ जहा अवशस्त्राणि, इदाणि जोतिसं बुचति, तंजहा-चंदचरिया तं
||३५४||
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भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [२], उद्देशक [-], नियुक्ति : [१६६-१६८], मूलं [१७-४३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-०२] “सूत्रकृत' जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
पापथुतानि
प्रत
सूत्रांक
श्रीसूत्रवाङ्गचूर्णिः
चणि ॥३५५॥
[१७-४३]
दीप अनुक्रम [६४८
1 वर्णसंस्थानप्रमाणप्रभानक्षत्रयोगराहुग्रहग्रहणादि चन्द्रचरितं, सूर्यस्य वर्णनभा० राहुग्रहनक्षत्रयोगादि, सुनचरितं सुकचारो 'परमो होति सुभिक्खं' वहसती संवत्सरहाई एकेक रासि बरिस्सेण चरति, तत्थ केयि संवत्सरेसु सुभो केसुइ असुभो केसुइ मज्झिमो, उकावाया दिसादाहा वा यथा-'अग्गेय वारुणा माहिन्दा तेजसा सत्थग्गिबुहा भावा दिवायवादीया,' एवं वारुणमाहिंदावि भाणितब्बा, मृगा हरिणा, शृगालादि आरण्या तेसिं रुतं, दरिसणं ग्रामनगरप्रवेशादि, जहा 'खेमा वामा धाति दाहिणा बापसाणं पची। सरुदाई परिमंडलचि काकाई उडका धड़ करेंति ॥१॥' पंसुवुट्टि जाव रहिरवुहित्ति, कंठ, पुणो विज्जाओ वेताली दंडो| उद्वेति दिमाकालादिसिट्ठो, अद्ववेताली य वेडतो जाति, पच्छा पुच्छिजति, सुभासुभं तोलति, कवाडं मंतेण विहाडेति जहा पभयो, मोवाई मायंगी विज्जा, सवेरिसवराणं सवरभासाए वा, दामिली दामिलभासाए, कालिंगी गौरी गंधारी कंठोक्ता, जाए उप्पतति सय अण्णं ना उप्पतावेति सा उप्पादणी, जाए अभिमंतितो णिवडति सयं अगणं चा णिवडावेति सा णिवडणी, जीते | कंपति जाए कंपावेति पासादं रुक्खं पुरिसं वा, मा जंभणी जाए जंमिज्जति, सा थंभणी जहा वइराडा अज्जुणेण कोरवा धभिता, जाए जंघाओ उरुगा य लेसिज्जति आसणे वा तत्थेव लाइज्जति सा लेसणी, आमया णाम वाधी, जरमादी ग्रहो वा लाएति आमयकरणी, सल्लं पविट्ठ पीहरावेति सा पुण विज्जा ओसधी वा, जहा सो वाणरजहवती०, अदिस्सो जाए भवति | सा अंतद्धाणी अंजणं या एवमादि, आउविज्जा उम्मच जोगे य सावज्जया अण्वास्स हेतु, अण्योसि वा विविधाई विसिट्ठाई रुवाई से सिताई विरूवरूवाई मयणासणच्छादणवत्थालंकाराईणवा, अथवा समासेण सहादीणं पंचाहं विसयाण पति. ते पुण पासंडत्था निहत्था बा, जे ताव पासंडत्था पउंजंति तिरिर्छते, तिरिच्छं नाम अननुलोममित्यर्थः, जहा गलए अडुगं अट्टि वा कटु वा लग्गं
६७४]
||३५५॥
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भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [२], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१६६-१६८], मूलं [१७-४३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] “सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
प्रत सूत्रांक | [१७-४३]
श्रीसूत्रकताजचूर्णिः ॥३५६||
अनुचरस्वादि
दीप
अनुक्रम [६४८६७४]
ण जीणेति, एवं ते जइपि मोक्ख कंखिया तहावि ण मोक्खं गच्छंति, ते अणारिया जवि खेलारिया तहावि णाणदंसणचरित्ताई पद्धच अणारिया, कालमासे कालं किया अण्णतरेसु वा जाब एलमूअत्ताए पञ्चायति, पासंडत्था, जे पुण गिहत्था एते लक्षणविज्जामते पति तिरिच्छंते, तिरिच्छे नाम अननुकूलं, ते जहाकम्मा णिचिट्ठा उववत्तारोवि गच्छंति, एवं ताव अणुवसमयपुवोपाएसु पासंडत्थाणं अधम्मपक्खो भणितो, इदाणि चेव अधम्मपक्खे गृहस्थी पाएण बुचति, सो एगतिओत्ति कोइ णिसंसो आतहेतुं वा जाव परिवारहेउँ वा अण्णं चा किंचि णिएल्लगं णिमाएचि निन्निऊणं, सो य असमत्यो गिहित, आह हि-"विवादश्च विचाहन, तृतीयं गृहकर्म वा। न शक्यमसहावेन, निःसर्तुमधनेन वा ॥१॥" सहवासोति सहवासो, सो पुण बासो एसो एकगो अमिल्लाओ वा किं करेंति', अदुवा अणुगामिओ अदुवा उवचरए जाव सोवागणिएत्ति, सूचनात्सूत्रमितिकृत्वा एवं एताणि संखेवेण सुत्ताई युत्ताई, एतेसिं इदाणिं सुत्तेण चेव वित्ती भण्णति, जहा बेतालिए, चत्तारि विणयसमाधिडाणा उच्चारेतुं पच्छा एकेकस्स विभासा, जहा वा उक्खित्तणाए संघाडेत्ति उच्चारेऊण पदाणि एकेकस्स अज्झयणं बुधति, दिविचाते सुत्ताणि भाणिऊण पच्छा सब्बो चेव दिविवातो, तेर्सि सुत्तपदाणं एतेण चेव वृत्तिभवति, जहा एगइओ आणुगामियभावं पडिसंधाय-अनुगच्छतीत्यानुगामिकः सो पडिचरतु अस्थि एतस्स किंचि हत्थए, पच्छा सोद्धिलाए पत्थिओ अहमितिकाउं गलागतॊऽन्यो वा तं अणुआगच्छति मग्गेण, सोवि चिंतेति-एतेण अहं गच्छामि, पच्छा बलावलेहि विसंमेऊण गविलए देसे गलगों करति वज्झियं खरगं, दोरं गले छोडं एगखेनेण चेव पाडेति, अणु सुत्तमत्तिओ पाहरे, सावेक्खं सलंगादिसु, णिरवेक्खं गीवाए अण्णस्थ वा देसे, से हता पडिपहाय दुता वेयणगं, खलंगादिसु छिदित्ता भिदित्ता सीसं लउडपहारेण, पोट्टे वा भल्छएण, उद्दावेत्ता मारेत्तु 'लुट छेदने'
॥३५६॥
[371]
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आगम
(०२)
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [२], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१६६-१६८], मूलं [१७-४३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चर्णि:
प्रत
सूत्रांक |
[१७-४३]
दीप
अनुक्रम [६४८६७४]
अधर्मपक्षः श्रीसूत्रकृत
- लुंपत्ति, जहा विविधा विलुत्ते सत्थे गामो य आहारेतित्ति, एवंप्रकारा नत्थ आहारवृत्तिः, द्रोहेणेत्यर्थः, णो वा सो अणं किंचि तागचूणि
| करिसणं वा आहारणिमित्रं करेइ इति, सोथतीत्युपदर्शने, महद्भिर्महता बहुपदेसिएहि चिरकालद्वितीयहि य पावेहिं अट्टहिं कम्मेहिं
आत्मानं उब समीपे आङ् मर्यादामिविध्योः ख्या प्रकथने, आधावन्नपि स्वयमेव उपेत्य आख्यातीत्यर्थी, यथाऽहमेवाकर्मा, तेनैव महता द्रोहेण पापेन कर्मणेति वक्तव्ये एके अनेकादेशादुच्यते-पाचेदि कम्मेहिं अहिं बज्झति, अहवा एकस्मिन् प्राणवधे कथमष्टविध कर्म बध्यत इति ?, उच्यते, यथा पय(पट्प)दायिके, जाव अडहिचि, से एगतिको उपचरगभावं पडिसंधाय, उपेत्य | चरतीत्युपचरका, भंडिओ भंडेतुं मुगावेचि जाव उपक्खाइत्ता भवति, पडिपंथिओ पडिपंथेग सोदिलाए एग हंता छेत्ता भेला जाव उपक्खाइत्ताणं, गंठिछेदओ लोहमएण समुग्गएणां रूवगाणं पोलियं करेति छिदितुं, उरम्भा णाम ऊरणओ, तं वुत्तमलो वा मारेति अण्णतरो व तसो पाणोत्ति, तस्साल, छगलादि वागुरिओचि, बहो व सुरं करेति, आहडेता पा रायादिणो मिए चराए बग्गुराएका | वेढेतु मारेति, अण्णतर तसंमि सूकररोज्झवग्यातिए तत्थ मारेति, सउणा मोरतिचिरादि अण्णतरो पाणो, तस्स बाहिचए अण्णं
| किंचि मारेति, ग्राहस्य मारणं या सव्वं, जहा चकवाई मारिता, मच्छगं जालेण गलेण वा, अण्णतरं वा तहप्पगारादि एगतिओ AN/ गोधातगभावं पडिसंधाय गोणं मारेति तस्यालाभे महिपमेलगं वा, केई पुण भणति-सोआरियमा ति महिसं, अण्णतरो तन्य
| तिरित्तो गोणादि, सोणइओ आमारयाणं डुबो य, अण्णतरंति तदलाभे खाडइलाउ मारेंति, सावगणियन्ति सुणए पचंती, सोगगाणि| याधिक्ये, अंतेसु गामादीणि वसंतीति अंतिया जहा पचंतिया, एवं सोवाहिन्तोनि अंतियतरो भवति, रहित इत्यर्थः, जो पुण | पुरिसं मारेति गोल्लविसए ब्राह्मणघातक इन पुरिसघातओवि गरहिअति, घरतो य णिगच्छति, उक्ता वृत्तिः । इदाणि से एग- ||३५७॥
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(०२)
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [२], उद्देशक [-], नियुक्ति : [१६६-१६८], मूलं [१७-४३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सूत्रकृत' जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
श्रीयत्रक-
अधर्मपक्षः
प्रत सूत्रांक [१७-४३]
तागचूर्णिः
॥३५८॥
दीप
अनुक्रम [६४८
तिओ उवरिममज्झातो उद्वेत्ता अहमेत हत्थामि, को विसेसो पुब्बतेहितो?, उच्यते, सो कोई पच्छपण करेति, इमो पुण अण्णमादीण कारो णिस्संको कडणिमित्तं वा मंसं वा खाइतुकामो, हत्थत्थो वा, अधमा पक्खेवा वणिजमाणे जावतियाद्रोहकारका ते केई समासेण उदिसंति, एते पुण सव्वे अवरद्धकुद्वा बुत्ता, इमे अण्णो विरोधिता बुञ्चति, से एगतिमो केइ आदाणेण आदीयत इत्यादानं ग्रहणमित्यर्थः, तत्कस्य केपां या आदानं ? शब्दादीनां विषयाणां, सद्दे तार आकुट्ठो निन्दितो केणइ पुट्ठो रुट्ठो भवति, स्वेसु य वसणा दिक्षु मिक्खुकादीवि रुस्संति, गंधरसे उदाहरणं सोत्रमेव, खलदाणेणं खलभिक्खं तदूर्ण दिणं ण दिण्णं वा तेण विरुद्धो, सुरथालगत्ति थालगेण सुरा पिजति, तत्थ पडिवाडीए आवेवस्स वारो ण दिण्णो उढवित्तो वा तेण विरुद्धो, जंते लोग। भणति-वारविरुद्धो, गाहावतीण वा गाहावतिपुचाण बा, सयमेव विस्ससा एका आलूणालूगाणि पगरणस्थाणि, उम्मग्गेण झामति, अण्णण वा झामावेति, झामिताई अणुजाणति सुठु तुमे शामिताइंति, एवं फासेवि, आहतो भरितो वा केणइ असुअणा खेलेणं उविद्वेण वा, से एगताओ घूराओ कप्पेइ, सालातो डहति, किंचि कुंडलसुवण्योति, जाणाइ, ताणि मेहलादीणि ताणि गहिताणि, मोत्तिए हरादि, एवं तहेव गिहाण विट्ठो, इमो अण्णो पासंडत्थाण दिद्विरागेणं वादे वा पराइत्तो सयमेव तेसि अण्णं किंचि णत्थि जं अस्थि त अवहरति, तंजहा-दंडगं वा भंडगं वा जाव परिच्छेदनगं वा, सयमेव अवहरति जाव सादिजति, एवं ताव विराघिया गता, इमे अण्णे अविराहिता वुचंति सो एगतिओ वितिगिच्छादि, नेति प्रतिषेधे, वितिगिच्छा णाम विमर्शो मीमंसा इत्यर्थः, न विमर्शति न मीमांसइत्ति, इह परलोके वा दोषोऽस्ति नास्तीति वा, गाहावईण वा सयमेव अगणिकाएक सस्साई झामेइ, अण्पोण या जाव समणाण वा दंडं अवहरिचए, एते ताव असंवृत्ता उक्तः। सग्गेसु णरगेसु वा निहत्थपासंडस्थेसु य दहणछेयणा
६७४]
॥३५८॥
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आगम
(०२)
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [२], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१६६-१६८], मूलं [१७-४३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-०२] "सूत्रकृत' जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
अधर्मपक्षः
प्रत सूत्रांक | [१७-४३]
दीप अनुक्रम [६४८
श्रीक्षत्रक- पहारवृत्ति इति । इदाणि दृष्टिविरुद्धा आगाढमिच्छादिट्ठिका बुचंति, सो एगतिओ समणं वा माहणं वा गाम घरं वा अतितो वा तागचूर्णिः
अण्णस्थ या कथइ दुल्लभं दसणं अवसउणंति मण्णमाणो आसुरुचे रुढे अदुवा णं अच्छराए मज्झियारे रोसेण वा जाव भण्णति, ॥३५९॥ अच्छरा णाम चप्पुटिका, किं ज्ञापकं ?, तीहिं अच्छराणिवातेहिं तिसत्तखुत्तो एगाए अच्छराए अप्फोडेतित्ति, भिगुडी कुंचितनि
डाला फिटफिट भणंति, अदुवा णं फरुसं भणंति, कालेवि सेजाति, मिक्खाकाले णो दवावेज्जा, जोषि देत्ति तंपि वारेइ, एवं च MOणं वदति-जे इमे धुवणमंतत्ति-धूयतेऽनेनेति धुवणं-कम्मं तणकट्ठहारगादि, कर्महता, अशुभैर्वा प्रागुपचितैः पापकर्मभिर्हता पव्व
यंति, भारकंतत्ति कुटुम्बभरेण अकंता, ण तरंति, त एवं दृष्टयः असद्धानाः सद्धर्मप्रत्यनीकाः इणमेव धिज्जीवितं धिक् कुत्सायां
अशोभनं जीवितं धिजीवितं इहलौकिकं, वृह वृद्धौ, संपडिहयंति संपडिहति न परलौकिकं किंचियि अत्थं, शिलप आलिINङ्गने, न श्लिष्यन्ति न साधयंतीत्यर्थः, इहलोकपरो दुक्खंति, दुक्खेहिं संजोएंति दुक्खंति जाव परितप्पंति. ते एतेसिं साधणं ||
| दुक्खणाणानो सोअणाणाओ जाब परितावणातो अप्पडिविरता भवति, ते पुण केइ इडिमंतो भयंति रायादिणो केयि अणिडिमंते, III इडिमते ताव भणति-ते महया आरभेणं परणिमित्तं चेव ताव इष्टकापाकादिष्वारंभो भवति जाव तसकायो पघिजति आहारनिमि-1
तंत्ति, खड्डगच्छगलमहिसमगरादिषु, पुढविदगअगणिवणस्सइकाइया वधिअंति, उक्तं च-"तणकट्ठगोमयनिस्सिता." सम्मत्तं छण्हं | | कायाणं आरभसमारंभे विरूवरूवेहिं पावकिचेहिं अण्णं दंडंति अण्णं बंधंति अण्णं रुंधति कारणा वित्तिहरणं करेंति, एवमादीहिं पावकम्मेहि धणं उपजिणित्ता, बंधणाणुलोमता विभत्तिपदाति, कातुं किं करेंति ?, विउला माणुसा जाब भत्तारो भुंजितारो भवंति, किमिति ते मुंजते ?, मुच्यते, अण्णं अण्णाकाले, सायं पायं च, पाणं उदगंमजं च, हातसमालद्वाणं चउत्थकालेणं गम्भवराणि,
६७४]
॥३५९॥
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(०२)
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [२], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१६६-१६८], मूलं [१७-४३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत' जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
अधर्मपक्षः
प्रत सूत्रांक | [१७-४३]
श्रीमन क- ॥३६०॥
दीप
अनुक्रम [६४८
६७४]
साहणकाले सयणामणाणिति, यो वा यस्याभीष्टः कालविभागः, क्रीडा वेनराणां, विद्यते सो पुव्यो पुब्बण्हे अवरण्हे पहाते कय- बलिकम्मे-अगणियं करेंति कुलदेवतादी काउं, आसीन्भयजोहारो, लोणादीणि च डहंति, मंगलाणि सिद्धत्थयाहरयालियादीणि से करेंति, सुवण्णमादीणि च छिति, पायच्छित्तं दुस्सुविणगपडियातणिमित्तं धीयाराणं देति, सिरसि पहाते सिरहाईणि, ससीसो हाति, अविद्धिमाणि चूडामणिः गोवि सुषण्णण हेट्ठा पडिबज्झति, सुवण्णाभरणेसु प्रायेण मणीगो विजंति, कपितं घडितं, माला नक्खामालादि, मौली मउडो, सो पुण कमलमुकुलसंवुत्तो मउली बुच्चति, तिहिं सिहरएहि मउडो वुचति, चतुरसीहिं तिरीडं,' बग्यारियं लंबितं, ज्ञापकं 'आसत्त्वग्धारिय०' सोणि कडी, सोणिसुत्तगं कडिसुत्तकं, मालिनति, मलं सिरदामगंडादि, कलाति कलाची, कडाई मलगादीणि, पमतकूडाणिमा पासादे सत्तले वा, महउ चेव महतो, अक्खाणबद्धं गिजति, जह आडगं पवंचो. वा, तलगं ताडा, घणं लचगादी, णिरेत्तं वा, घणा वा मेहा, मेहा वेत्यर्थः, उरालाई-उरालाई, आस्यते अनेनेति आस्यक-मुखं तमेव क्रीडतं, 'अणारिय'ति अगाणि मिच्छादिट्टी अचरित्री देवोऽयं पुरिसो, ण मणुस्सो, परलोके जातो वसतित्ति वा तेण हरदेवो, देवसिणाएत्ति स्नातकः श्रेष्ठदेवत्वे वसति इन्द्रतुल्यः, जलजोवसोभित इव सरो, संपुप्फफलो वा वणसंडो तदर्थिभिः उपजीवणिजो, अण्णेवि णं बहनश्च ये ह्याश्रिता अपरिभूता भवंति, तदेवं णाणादीआयरिया, अभिमुखं क्रान्तं, कूरादीणि हिंसादीणि, अमिधूणे धूयतेऽनेन तासु तासु गतिषु वाताहिं इव रेणू, धुणे कम्मंतेत्ति, तेहिं हिंसादीहिं कम्मे हिं, अपं रक्खंतीति | आयरक्खों, दाहिणगामिएत्ति जे अतिक्रूरकम्मा भवसिद्धियावि ते प्रायेण दक्खिल्लेसु णरएसु वा मणुस्सेसु देवेसु य उववजंति, जस्स भवसिद्धीयस्स अबडो पोग्गलपरियट्टो सेसो अच्छति संसारस्स सुझपक्विओ, अधिए काहपक्खिए, अभवसिद्धिया सव्वे
॥३६०॥
लाvिadi
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आगम
(०२)
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [२], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१६६-१६८], मूलं [१७-४३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
प्रत सूत्रांक |
श्रीयत्रक-
| तान्चूर्णिः [१७-४३]|: ॥३६१
दीप अनुक्रम [६४८६७४]
कण्हपक्खिया, आगमिस्साणं, तित्थमगणं, तस्थ णरगतो उपवढे समाणो जइ कहापि माणुस्सं लभति तत्थवि दुल्लहबोधिए यावि | साचभवति, तस्म डायस्स इस्सरियट्ठाणस्स, उद्विना णाम पधज्जाममुट्ठाण ममुट्ठिया, परे पासंडिया, तम्हा अभिज्झा लोभो प्रार्थ- साधुपक्षी नेत्यनान्तरं, अणुद्विता गिहि एव, असव्वदुक्खपहीणमग्गे एगंतमिच्छेत्ति एगंतमिच्छादिट्ठी परिग्गही, असोभे णाम असाह ।। पढमस्स अधम्मपावस्स विभंगे आहिते (सूत्रं ३३) अहावरे दोचस्स धम्मपक्खस्स एवमाहिति (सूत्रं ३४) एवं तावत् अधम्मपक्खो चुत्तो, छायातपयत् शीतोष्णवह जीवितमरणवत् सुखदुःखवद्वा, तत्प्रसिद्धये इदमुच्यते-से बेमि पाइणं | वा संतेगतिया मणुस्सा भवंति, तंजहा-आयरिया वेगे, तेसिं च णं खेत्तवत्थूणि सो चेव पौडरीयगमओ जाव सब्बदुक्खाए परिनिम्बुडेत्ति वेमि, एस ठाणे आरिए केवले जाव साध , दोचस्स ठाणस्स विभंग एवमाहिए।
अहावरे तच्चस्स ठाणस्स मीसगस्स विभंगे एवमाहिजति (सूत्रं ३५), अधम्मपक्खेण धम्मपक्खे संजुत्तो मीस| गपक्खो भवति, नत्राधर्मो भूयानितिकृत्वा अधर्मपक्ख एव भवति, रिणे देशे वर्पनिपातवत् , अभिनवे वा पित्तोदये शर्कराक्षीर
पानवत् अमेज्म(सुद्ध)रसभाविते वा द्रव्ये क्षीरप्रपातवत् , एवं ताबन्मिथ्यादर्शनोपहतान्तरात्मानः यद्यपि किंचिद्विरमन्ते तथापि | मिथ्यादर्शनभूयस्त्वात् अविरतिभूयस्लाम धर्माननुबन्धाच अधर्मपक्ष एव भवति, जाव एलमूलचाए पञ्चायति, एस ठाणे अणारिए | जान असाधू , एस खलु तचस्स मीसगस्स अधम्मपक्खस्स विभंगे आहिते ॥
अहावरे पढमस्स अधम्मपक्वस्स विभंगे एवमाहिते (सूत्रं ३६), अथाह-दट्ठप्रयोजनानामप्रयोगः', उच्यते, मत्यं, किन्तु यदत्र नापदिष्टं तदिहोच्यते, अधम्मपक्खे मीसओ य, उकं हि-'पुब्बभणितं तु इह विशेषोपलम्मो द्रष्टव्यः, कथं ?, ॥३६१॥
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भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
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असाधुगृहिपक्षा
॥३६२॥
दीप
प्रत
श्रीमत्रक- स एवाधर्मो बहुप्रकारः अपदिश्यते, तकारणं कार्य वा, अधर्मफलं नरको एसत्ति, तत्र च पार्षडमिश्रा अधार्मिका उक्ता इह गृहस्थायेव सूत्रांक | वाङ्गणिः प्रायेणोच्यन्ते, अधार्मिकाणि कर्माणि प्रलोकयन्तीत्यतः अधम्मपलोइणो, रलयोरैक्यमिति, तत्रैव चामिकेषु कर्मसु रज्जंति [१७-४३]
इति अधर्मपलज्जना 'जे रत्तए से लत्तए' बापकत्वात् , अधर्मसमुदायाचारात् अधर्मवित्तित्तिकट्टु वृत्यर्थमेव, हण छिन्द, हणचि कसलतादीहि, छिन्दनि कण्णणासोटुसीसादीणि, सोमपोट्टाई किंतति, बज्झे, जम्हा रौद्रा, आसुरा रौद्राणि हिंसादीनि कर्माणि
करेंति रौद्राः, क्षुद्रो णाम असज्जनमहायो सोऽगिण मुंचति, असमीक्षितकारी साहस्सिओ, ण च मारेमाणस्स विकतीयाणस्स, अनुक्रम
णीलीरागरसेव णीलीए, एवं तस्म महिसमादी मत्ताणि, लोहियलित्ता पाणिनि लोहितपाणी, उक्तं च 'कुच कुंच कौटिल्ये [६४८
उद्भायोलभावेषु, ईपन कुंचनं आकुंचनं, जहा कोइ किंचि मूलाई भज्जति, एत्थ कोइ मानोन्मानविचक्षणः तिष्ठति, सो जाणति ६७४]
La मा मब्बं छिज्जंतं इमं दटुं आइक्खिस्सति एतस्स, राउले वा कहहित्ति तो उत्कंचेऊण अच्छति नाव सो बोलेइ, वंचु प्रलम्भने,
बंचनं जहा अभयो धम्मच्छलेण वंचितो पजोतस्स संतियाहिं गणिआहि, मृगोऽपि मीतेण बंचिनति, अधिका कृतिनिकृतिः अत्युपचार इत्यर्थः, यथाप्रवृत्तस्योपचारात् तस्य निवृत्तिः, तथा अत्युपचारोऽपि दुष्टलक्षणमेव, जहा कत्तिओ सेट्ठी रायाणपण अत्युपचारेण गहितो, जं अलियं अगल बंजुल धम्मज्झयसीले सद्धिलक्खेहिं वीसंभकरणमधिकच्छलेहिं तं बात णिगडिति, देमभाषादिविपर्ययकरणं कपट, जहा आसाढभूतिणां आयरियउवज्झायसंघाड इल्लगाण अप्पणो य चचारि मोदगाणि, कालित्ता कूडकबडमेवं लोकसिद्धत्वाञ्च यथा कूटकापिणं कटमाणमिति, सातिपयोगवहला शोभाविशेषः सातिशयः न्यूनगुणानुभावस्य द्रव्यस्य यः सातिशयेण द्रव्येण सह संयोगः क्रियते सो सातिसंपयोगो, अगुणवतश्च गुणानुशंसनं अगुणानां च गुणव
BATTIRMALEESHARA
३६२॥
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(०२)
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [२], उद्देशक [-], नियुक्ति : [१६६-१६८], मूलं [१७-४३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत' जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
प्रत
श्रीस्त्रक- तीति, आह च-'सो होति सातिजोगो दव्यं जं उयहितऽण्णदब्वेसु । दोसगुणा बयणेसु य अत्यविसंवादणं कृणइ ॥१।। एते पुण उत्कं- | असाधुसूत्रांक | गचूर्णिः । चणादयः सच्चे मायायाः पर्यायशब्दा यथेन्द्रशब्दस्य, शक्रपुरन्दरबत् एते शब्दाः, यद्यपि क्रियानिमित्तोऽभिधानभेदः उत्कंचना- गृहिपक्षः [१७-४३] ॥३६३॥
दीनां तथापि न मायामतिरिच्यन्ते, एवं जीवानिसूर्यचन्द्रमसां अभिधानभेदेनार्थभेदः, दुस्सीला दुधता दुष्ट शीलं येषां ते भवंति दीप
WI दुष्टशीलाः, परिजितावि सिप्पं विसंवदन्ति, दुरणुणेया दारुणखभावा इत्यर्थः, दुधानि ब्रतानि येपा ते भवंति दुव्वा तात्मा यथा ॥
यज्ञदीक्षितानां शिरोमुण्डनं अपहाणयं दम्भमयणं च एवमादीनि व्रतानि तथापि च छगलादीनि सत्ताणि घातयन्ति, आह हिअनुक्रम
। 'पट् शतानि नियुज्यंते.' टुणदि समृद्धी, तस्यानन्दो भवति कश्चिदन्येन, यस्तु प्रत्यानन्दं करोति प्रतिपूजामीत्यर्थः, स तु गर्वात् | [६४८
कृतमत्वाद्वा नेनं प्रत्यानन्दति दुप्पडियाणंदा भवति, आह हि-"उपकर्तुमशक्तिष्टा, नराः पूर्वोपकारिणम् । दोपमुन्पाय गच्छति, ६७४]
मद्गूनामिव वायसाः ॥१॥ सवाओ पाणाइवाजोति जाव रहिता बंभा य, परिसबंधादिपाणाइपातातोवि अप्पडिविरता, एवं मुसाबाता कूडसक्खियादि, तेणमहवासतेणादीन्यासाबहारा इस्थिवालतेणादी वा, मेहुणे अगम्मगमणादि, परिग्गहे जोणिपोसगादि, सध्याओ कोहाओ जाब मिच्छादसणं, मन्याओ पहाणुम्मण. काम पुष्कभंगितो वा मदिज्जति पच्छा पहाति, तथावि सव्याओ ण्डाणुम्मदण० पणएण उम्मदिज्जति तेण, अभंगणगं गहितं, वगणओ कुंकुमादि कसाया य, विलेवर्ण चंदणादि, सद्दादी | पंच विसया, तेहिंतो अपडिविरता, मल्लगंधं वा, एम व अलंकारो, अपणोवि वत्थालंकारादि, सबाओ आरंभसमारंभाओत्ति विभासा, सव्वाओ करणकारण सयं एतेसिं चेव जहोद्दिट्ठाणं पाणाइवायादीणं अण्योसि च सावजाणं कारावणाणुमण्णेहिं इस्सरादीणं, पयणपायणंति मांसादी, ईसरा अण्णोहि पायेंति, सबाओ कोहणं कोई धरणं अहिमरणं वा घेत्तु पलं २ कोटेति पिटेति य, ॥३६३॥
SINGER
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भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [२], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१६६-१६८], मूलं [१७-४३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] “सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
प्रत सूत्रांक |
असाधुगृहिपक्षः
PARAN
श्रीसूत्रक
ताङ्गाणा [१७-४३]]
॥३६॥ दीप अनुक्रम [६४८
चंपकलनाकमवेत्तलतालउडादीहिं तजेइ, पातादीहिं तालेति, नलपहारा खीलपण्हिमादीहिं एस बद्धो मारेति वा बंधति व णंगला- दीहि, एतेहिं चेव परिकिलेसं करेंति, अण्णेहि अ करदंडादीहिं किलेसेहिं किलेसेइ, परं जे आवडपणे तहप्पगारा केत्तिया चुचंति ?, गोगहणवंदिगहणादओ, दोहणा गावधमामधातमहासमरसंगामादीहिं, सावजा अयोधिकरा कम्मजोगा कम्मंता इह परत्र वा परेपा प्राणा-आयुःप्राणादि परेपां प्राणा परिताति, दृष्टान्तः कियते निर्दयत्वे तेषां, से जहाणामए केयि पुरिसे कलम मसूर लूणतो वा मलेंतो वा मुसलेण वा उक्खले कोईतो रेनो वा ण तेसु दयं करेति, अजए अयते, कूरो निघृणः, मिच्छादंडेत्ति अण्णविरुद्धो कुरो, एवमेव तहापगारति तीसे दयासु णिरवेक्खो णियो, मिच्छादंडे पउंजंति जा व से तत्थ बाहिरिया परिसा भवति तंजहा-दासेत्ति वा अदासो दासवत् तेसु तेसु पेसणेसु णियुजंति परगाउलग्गादी, भत्तओघि वित्तीए घेप्पति भाइलो, कम्मकारका जे लोग उबजीतित्ति घरकम्मपाणाइवहादीहिं, तेऽवि राउले विट्टिकारा विजंति, तेसिपि य णं अण्णातरंसि लहए लहुमओ काईआणित्तिया ण करेति(ना) तत्थ रुट्ठो गुरुं, मझवाझं इमं दमेह कंठं, प्रायेण णिगलबंधणो हडिबंधणादिणा विवरण करेति, जहा'मालवाण, पदोसा या २ पदाहित्ति, जामकुणपिसुादीहिं जत्थ बद्धो चारिजति सो चारओ, अण्णो पूण चारए छ णिगलेहिं दोहि तिहि वा सत्तहिं णिगलिजोएहि यज्झति, संकोडितमोडितो णाम जो हत्येसु अ पादेसु अ गलए बज्झति, चारए अण्णत्थ वा सो जमलणिगलसंकोडितमोडितो, इमं हत्थच्छिष्णं करेह, एको वा, हत्था छिअंति, एवं पादावि, घोरादीणं कण्णणकोडे, चारितदुताणं विरुद्धरजसंचारिणां च छिजंति, इत्थीणं वा सीसं, अहिमराचरियाणं मुखे मज्झे छिजति असिमादीहि, गच्छओ खंधे आहेतूण वभसुत्तएण छिजंति, जीवंतस्सेव हियए उप्पाडेति पुरोहितादि जाब जिन्भा, गोलंयि कूचे पच्च-
६७४]
पाया
॥३४॥
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भाग-2 “सूत्रकृत" - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [२], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१६६-१६८], मूलं [१७-४३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[२] “सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
अधर्मपक्ष
॥३६५॥
प्रत सूत्रांक | [१७-४३]
दीप अनुक्रम [६४८
CHAR
श्रीसूत्रक
10 तणदितडिमादिसु वा ओल्लंबिज्जति, रुक्खि जीवन्तो मारेतुं, मलाइतओ मुलाए पोइजति, अयाणे मूलं छोटुण मुहेण णिकालिMO अति, मूलंभिष्णो मज्झे सलाए भिंजते, सत्थेणं कप्पेतुं लोणखारादीहिं सिंचिजति, बद्धा अबकप्पिजंति, पारदारिया सीहपुच्छि
जंति, सीहो सीहीए समं ताव लग्गओ अच्छति जाव स्थामिगाणं दोहवि कईताणं छिण्णणेता भवति, एवं कस्सइ पूत्तगा छेतुं अप्पणए मुहे छिज्जति, कडएण बेटितुं पलाविज्ञति कडग्गिडडओ, कागिणिमंसं कागणिमे ताई से साई मंसाई कप्पेतं खाविअंति.। अण्णतरेणंति जेण अण्णो ण भणिता सुमिगकुंभिपागादि कुत्सिता मारा, एवं ताव बाहिरपरिसागं दंडं करेह, जाबि से अमितरपरिसा भवति, तंजहा-माताइ पा०, तेसिपि आहालहुएत्ति वयणं वा ण क उपक्खेयो, कोड णासिओ हारितो मिन्नो वा इमंसि उदएण सिंचह जहा मिचदोमयत्तिए जाय अहिने परलोयंसि, एवं ताव बाहिरपरिसाए या अब्भनरपरिमाए वा ते दुक्खेति जाव परितावेति, दुक्खाओ जाव अपडिविरता भवंति, ते पुण किं णु एवं करेंति ?, कामवनगा, ते य इमे छेदिणो, तेन उच्यते-एचामेव ते इत्थी
कामभोगेसु मुन्छिता जावं यामाई भुंजितुं भोगा पसवितुं वेरायतणाई, कम्मं चेव, बहूणि अट्टकम्माणि सुबहुकालद्वितीयाई उस्सLA पर्णति अणेकसो एकेक पावायतणं जहादिढ हिसादि आयरति, संभारो णाम गुरुत्तर्ण, गर्हितो, से जहाणामए, अयं हि पात्रि-1
कृतं तरति, सिला वा विच्छिण्णत्तणेण चिरस्म णिच्छुत, गोलओ पुण खिप्पं णिबुड्डति, एवामेव तहप्पगारं वज्जबहुले, 'पावे |
रज्जे वेरे०' गाधा, अयसोति एतेहिं चेव जहुद्दिडेहि, उत्कंचणवंचणादीहि सहयासद्रोहादीहिं अगम्मगमणेहि य अयसो होति, M जेसि च नाई बचणहरणकण्णाछेदणमारणादिकरणादि तेसि अग्पिर्य होति, कालमासे 'णिचंधकार०' अगंधमप्यधीकुर्वन्तीति,
/ अण्णोविं णाम अंधकारी भवतीति, अपगासेसु गम्भबरोबरगादीसु, ते पुण जचंधमेव, मेहन्छण्णकालद्धरत्त इव तमसा उजोतकरा
६७४]
३६५।।
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भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [२], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१६६-१६८], मूलं [१७-४३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[२] “सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
प्रत सूत्रांक | [१७-४३]
दीप अनुक्रम [६४८
श्रीमनक- भावाच, तमसातो वा, जोतकरा ज्योतिष्का एवोच्यन्ते, वबगतगहचंद, रोप्पणं च छिन्दिचाणं सरीरावयवेहिं मेदवसा काओ, साधुम्माताङ्गन्चूर्णिः किण्हअगणि लोहे धम्ममाणे कालिया अग्गिजाला णिन्ति तारिसो तेहिं वणो, फासा य उसिणवेदणाणं कक्खडफासा, से जहा
वको ॥३६६॥
णामए केइ असिपत्तेति वा, दुक्ख अधियासिज्जति दुरधियासा, असुभा णरगा, असुभा दरिसोण सदगंधफरिसेण वा, वेदणाओवि असुभा, णो चेव णिदाति बा, गिद्दा पसुहितस्स होति, निद्रा च विस्सावणा इतिकृत्या, तेग णस्थि, तं उज्जलं जाव वेदंति, एस ताव अयगोलदिटुंतो, गुरुगं आगंतुणत्थाकारा, इमो अण्णो रुक्खदिट्ठतो सिग्धपडणत्थं कीरति-से जहाणामए केयि रुक्खे सिया पचयग्गे जाते (सूत्रं ३८), एवामेव कालसमए सिग्छ गरएसूबवज्जंति, ततो उन्धट्टे गम्भवतिएसु तिरियमणुएसु कम्मभूमगसंखेजवासाउएसु उववञ्जति, ततो भुजो गम्भाओ गभं जाव णरगाओ णरगंदाहिणगामिए जाव दुल्लभवोधिए
एतस्स ठाणस्म, तस्स हाणे अणारिए, पढमस्स ह्याणस्स अधम्मपक्खस्स विभंगे आहिते ॥ 17 अहावरे दोचस्स ढाणस्स धम्मपक्खस्स विभंगे आहिजति (सूत्रं ३९), इह खलु पाईणं वा ४ संतेगतिया मणुस्सा । भवंति, अणारभा अपरिगहा धम्मिया धम्मिट्ठा जाब विहरति, सुसीला सुब्बया उकंचगपडिविरता जावजीबाए सब्बाओ पाणा
इवायाओ पडिविरता जावजीवाए जे आवण्णे तहप्पगारा, उक्ता विरतिप्रकाराः, के च ते विरताः', उच्यते, से जहाणामए केडी पुरिसे अणगारा ईरियासमिता जाव सुहुत०, नस्थि तेसिं जाव विष्पमुक्का, तेसि णं भगवंताणं एतेणं विहारेगं विहरंताणं जातामाताविती होत्था, यात्रामात्रा यया साध्यते, अक्खोवंजणवणाणुलेवणभूता, अथवा अर्चयन्ति तामित्यर्चा-शरीरं, एको जेसिंग गम्भो शरीर बा, गतिकल्लाणा कल्लाणगती अणुत्तरोववाइएसु बेमाणिएसुवा, इन्द्रसामानिकत्रायविंशलोकपालपरिषदात्मरक्षप्रकी
६७४]
३
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प्रत सूत्रांक [१७-४३]
दीप अनुक्रम [६४८
H
S
श्रीस्वक10 केषु न त्वाभियोग्यकिस्विपिककान्दपिका, द्वितिकल्लाणेनि उकोसिया द्विती अजहण्यानणुकोसा या, आगमेसिभदेति आगमेसे|| साधुम्मा
चको तामणिः
भवग्रहणे सिझति, एस द्वाणे आरिए, एस खलु दोचस्स ट्ठाणस्स धम्मपक्वस विभंगे आहिते ॥ अहावरे तबस्स धम्म॥३६७|| पक्वस्स मीसगस्स विभंगे (सूत्रं ४०), धम्मो बहुओ अधम्मो थोव चिकाउं, तेण अचम्ममीसओवि एस पक्खो अंततो
धम्मपक्खे चेव णियडिति, को दिटुंतो?, जहा णदीए के पुरिसे हायति, केइ पुत्ताई सोयंति कड असुईणिवि मुहाई पक्खालेंति, KI गोमाहिसकं च छगणमुत्तुस्सगं करेंति, तहाचि तं उदगं बहुगत्तणेण ण विस्सीभवति, कलुमीतपि पसादति, जहा तु बहुगेण || | सीतोदएण थोवं उसिणोदगं सीतीकजति, एवं सावगाणं बहुअसंजमेणं. थोवो असंजमो खबिजति, उक्तं च-'सम्मदिट्ठी जीवो.' जपि य तंपि य संपदी वक्ष्यमाणमपि च, ते बहु अबरा जीवा जेसु सावगस्स पच्चक्खायं भवति, ते य इमे, तंजहा-पाईणं वा ४ संतगतिया मणुस्मा अप्पिच्छा अप्पारभा अप्पपरिगहा घम्मिया जाब वित्ति कप्पेमाणा सुसीला एगातो पाणाइवायाओ पडिविरता जावजीवाए एगचातो अप्पडिविरता, एगिदिएसु अप्पडिविरया जाव जयावण्यो तहप्पगारा, एगता ततोविमे से जहाणामए ममणोवामगा भवंति, उपासंति तत्वज्ञानार्थमित्युपामकाः, अधिगतजीवाजीवाः अभिगमउपलभकुशलादयः शब्दाः ज्ञानार्थाः अन्यान्येन त्वमिधानेनाभिधीयमानः बोधं मानमप्रमादमुत्पादयति, किरियति वा एगहुँ, अधिक्रियत इति अधिकरणं जीवमजीवं च, क्रियाहिकरणेण य कम्मं बल्झतित्ति बुच्चइ, कुशला, जेण बंधो मोक्खिजति सो बन्धमोक्खो, असहेजा असंहरणिज्ञा, जहा नातेहि मेरु, न तु जहा बातप्पडागाणि सकांत विष्परिणावेत, देवेहिवि, किं पुण माणुसेहिं ?, अणतिकमणिजत्ति जहा कस्सह सुमीलस्स गुरू अणतिकमणिजे एवं सिं अरहंता साधुणो सीलाई वा अणतिकमणिजाई, णिस्संकिताई, ते पुण किह अतिकमि- ।।३६७॥
६७४]
TRITION ilaTRANIII
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श्रीसूत्रक
प्रत सूत्रांक | [१७-४३]
साधुम्मावको
दीप
अनुक्रम [६४८६७४]
जति ?, संकादीहिं दोसेहिं अत एवोच्यते पिस्संकिता णिकंखियादि, लट्ठा, जहा कोइ अस्थत्थी तं जहा तहा पञ्जतं अस्थं ताङ्गचूणिः
लधु तुट्ठो भवति एवं तेऽवि जिणवयणलबुट्ठा एव तुट्ठा, गृहीतप्रवचनार्थाः ये ते भवंति, पुटुं२ गहितो पुच्छितट्ठा, विनिश्चितो ॥३६॥
निर्नीतः, अट्ठर्मिज. अट्ठियाईपि भावेतुं जाब मिजत्ति मजा बुञ्चति, जस्स रोगेण तयं आदिकाउंजाब मज्जा भाविता सो
दुधिकिच्छो भवति एवं ते, आमज्जाइ वा भाविता, यथा सो परिवायगो, गिहे मिक्वं हिंडंतो जा से महिला रुचति तं तं | विजाए अभिजोएतु एकाए गुहाए छोढुं, विज्जावातियो इरतित्तिकाउं पडियरावितो, पुरिमो य भत्तगंधादि परिगिणेन्तो पंथोलिआहितियाए पडियरितु तेहिं पविसितं जुझंतो मारितो, ताओ अ महिलाओ जा जस्स सा तस्स दिना, सा य इका इन्भ
महिला अमिजोइ निझाया पति णेच्छड, जाणगा पुच्छिता भणंति-जति से परिवायगअट्ठीणि घसितुं खीरेण दिजंति तीसे अपेमझतीए तो, नवि, वरतेहिं तस्स अपेक्खंतस्स घसितुं २ खीरेण सह काढेत्तुं पाइता, जहा २ पाइजति तहा २ तंमि पुरिसे पेम्म ||FA AW आरंभति, सम्बेसु घटेसु पीतेसु य जहा, परिवाए अणुरत्ता जहा मा तम्मि परिव्याए अडिसेसेवि ण विरजति एवं सावओऽवि ||
चेतिएसु साधूसु अ अणुरत्तो जइचि किंचि लिंगत्थं वा पासत्थं वा उडाहं करेंतो पासति तहावि पुरिसदोसोत्तिकाउंणवि पवIMA यणातो विरजति, उपमा, एकदेरोन दृष्टान्त इतिकृत्वा, जहा सा तंमि परिब्धायगे रत्ता एवं पवयणाणुरागो सो अट्टमिंजपेम्मा
-णुरागरत्तो, जतिवि केण विप्परिणामेति जइणपवयणातो-किं तुझे एत्थ दिट्ठति ?, तहावि भणति भणतं-अयमाउसे! हे आयुप्मन् ! णिग्गंथे पावयणे अढे परसटे सेसे अगटेत्ति, तिणि तिसट्ठाई पावाइयमयाई अण्णो, जस्स बि कस्सवि धम्मं कहेति तंपि भणति-अयमाउसो! जाव अद्वे सेसेसु अणद्वे, तेण गेण्ड, ओसितफलह० अर्वगुतदु० किं कारणं पिहितुभिण्णे कवाडेति ?,
॥३६८॥
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"२५०॥
TA
अहिंसा
स्थापना
प्रत सूत्रांक [१७-४३]
दीप अनुक्रम [६४८
. May श्रीमत्रक
ण बड्डइ उग्घाडेतुं उग्घाडे कवाडे या पेठेतु, उक्तं च-'कवाडं णो पणोलेजा' परिसंतो णियंतो अ लोगो मा णिचं संवरादिणा साहािथिरादि विराहेहित्ति ते णिश्चमेव फलिई उस्साएत्तुं अग्गदार कोटुगपमुहे अ कवाडं विराहेतु अभंगुयदारं अच्छंति, चियत्ततेउर० ॥३६॥ अंतेउरं घरे अणिडिमंताणं जइचि इत्थिाओ अच्छंति तत्थवि णं चरेति, जाव एसो ठाति तत्थेसणं सोघेति, कस्सइ महिडि
यस्स अंतेपुरं भवति, तंपि तेण अणुण्याता पविसितुं भाति, एप तावत् दर्शनसंपदुक्का । इदाणिं सीलसंपत्प्रसिद्धये इदमपदिश्यतेचाउद्दसट्टमुछिटपुषणमासिए पव्वं मासस्स अट्ठमि पक्खस्स उदिट्ठा-अमावसा, पुन्नि मा इति चन्द्रमाः पूर्णमासः स्यात् | सेयं पूर्णिमा, पडिपुण्णं पोमहंति-आहारपोमहाहि ४। पोसहिओ पारणं अबस्सं माधुण मिक्वं दाऊण पारेति तेनोच्यते-समणे || णिग्गंथे फासुएसणिजं असणं वा ४ पडि० बासारने पीढफलगे पडिलामेमाणा विहरति । इदाणि सम्बो सावगधम्मो समाणिजति-बहुसीलवान् सीलाई सत्त सिक्खाबदाई वयाई अणुच्चताई, विहर, वेरमणं सदादिविपयेषु जहासत्तीए वेरमणं करेंति, अथवा वेरति वा बांति या वेरमणति वा एगहुँ, पञ्चक्खाणं, उत्तरगुणे दिणे २ पुमण्हेऽवरण्हे, पोसई सरीरमकारबंभवेर, अथवा | अवरो वा तिविहो आहारपरिचाओ उपवासो, अप्पाणं भावमाणा अण्णेसिं च साधुधम्मं च कहेमागा एकारस उवासगपडिमाओ फासेमाणा विहरति । इदाणि संणिकासो कोरति, जम्दा अभिगतजीवाजीयाः उबलद्धपुण्ण जाव मोक्खकुसला तम्हा असं० जम्हा
देवासुगदिसु अणतिकमिजा य पवयणातो जम्हा तम्हा णी संकितादि जाव अभिगतहा, अथवा गतप्रत्यागतिलक्षणं क्रियते-जम्हा पाणिसं० जहा(तम्हा असहेजा) जम्हा असंजहा तम्हा णिस्संकितादि, एवं जम्हा णिस्संकितादि सम्हा णिकंखिता, एक पदं छईतेहिं | एक्के यार भणंतहिं जाव जम्हा अभिगतहा तम्हा अद्विमिजा जाब रचा तम्हा परेण पुडा व अपुट्ठाया वदंति-अयमाउसो! जिग्गंथे
HINDU
६७४]
॥३६९॥
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दीप
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[६४८
६७४]
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र -२ (निर्युक्तिः+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [ २ ], उद्देशक [ - ], निर्युक्ति: [१६६-१६८ ], मूलं [१७-४३]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र -[०२] अंग सूत्र [०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि :
श्रीसूत्रक ताङ्गचूर्णि
॥३७॥
पावणे अङ्के सेसे अण, जम्हा य एवं प्रतिपद्यन्ते तम्हा उसितफलिहा जाय पवेसा, जम्हा एवं तम्हा चाउदसमीसु, तम्हा पारण समणे णिग्गंधे, तेणं एयारूवेणं विहारेणं विहरमाणा बहूणि चासाणि प्राप्नुवंति पाउणति, पाउणता प्राप्य, इदाणि अंतिमं संलेक्षणः वृच्चति-अबाहंसि अत्यर्थं बाधा आबाधा जरा रोगो वा, साधुसमीवे वा आलोइयपडिकंता साधुलिंगं घेतु संथारसमणा दब्भसंचारगता सव्वासंभविष्यमुक्का बहूणि भत्ताणि० कालमासे कालं किच्चा अण्णतरेसु देतेसु देवमहड्डिएस उबवत्तारो, ते णं तस्थ मडिया हारवि० गतिकल्लाणा जाव बावीसं सागरोवमाई, आगमेसिभद्दा एगगन्भवसघीया चरितं प्राप्य सिध्यन्ति, उक्कोसेण वा अभवग्गणाणि गतुं सिज्झति, एसड्डाणे कल्लाणे परपरएणं सुहृविवागोत्तिकाऊणं आयरिए केवले, तत्र तचस्म मीसगस्स धम्मपक्खस्स आहिते ।। एवं भणिता अधम्मपक्खा, तप्पडिपक्खा य धम्मपक्खा, उभयसंजोगेण य मीसपक्खा, तेसिं सव्वैसिं इदाणि संखेवेणं पडिममणेणं कीरति जे ते अधम्मपक्वस्मिता धम्मपक्खस्सिता मीसगपक्खसिया य सव्वेऽवि वाला पंडिता बालपंडिताय भवंति के तेत्ति १, सुत्तेण चैव वक्खाणं, अविरतिं पहुंच वाले विरतिं पहुंच पंडिते य, विरताविरतिं पहुच बालपंडितेय, तत्थ जा सा सच्यतो अविरती एम द्वाणे आरंभट्टाणे, आरभो असंजमो अविरती या एगड्डा, तत्थ जा सा विरती एम हाणे अणारभट्ठाणे संयमस्थानमित्यर्थः, तत्थ जा सा अविरतविरती एस द्वाणे आरमाणारंभट्ठाणे, जेण परिमियं अवति तेण आरंभडाणे, णिच्छय सुतिकाउं तित्थगरोयदेमो य, तेऽणारिए केवले एवं ताव मो बहुविध अधम्मपक्खो यतिसु ाणेसु अविरतीए संखेवितुं समोआरितो यथा 'जीर्णेऽभोजनमात्रेयः' एवमेष संक्षेपः, पुनरपि संक्षिप्यमाणः दोसु द्वाणेसु समोतरंति यदपदिइयते एवं समगम्ममाणा (सूत्रं ४१), सम्यग्गमना गत्यर्था धातवो ज्ञानार्था इतिकृत्वा सम्यगनुगम्यमानाः सम्यगनु
[385]
श्रमणोपासका
॥३७०।
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आगम
(०२)
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [२], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१६६-१६८], मूलं [१७-४३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
प्रत सूत्रांक [१७-४३]
श्रीसूत्र
ताङ्गचूर्णिः ॥३७१॥
दीप
अनुक्रम [६४८
| चिन्त्यमानाः इत्यर्थः, 'समणुगाहमाण'नि अनु पश्चाद्रावे यदा ग्राहितः कश्चित् तानेवार्थानन्यान् ग्राहयति यदा तेऽर्थाः कर्म D. अहिंसासंपद्यते तदा उच्यते तेऽर्थाः समनुगम्यमाणाः, इमेहिं दोहिं ठाणेहिं पृच्चुहिडेहि समोतरंति, तंजहा-धम्मे य अधम्मे उपसंते या स्थापना अणुवसते य, तत्थ णं जे से पढमस्स अधम्मपक्खस्स विभंगे एवमाहिते तस्य प्रादेशकानि कारणानि च इमाई तिणि तेवढाई आदौ ता बदनसीला पायाइया, शास्तार इत्यर्थः, तच्छिप्पास्तु भृशं वदंतीति प्रावादुकाः, तेण समासेण चउसु हाणेसु समो० किरियावादी अकिरियावादी वेणइयवादी अण्णाणियवादी, आह-किमर्थमेतानि तिपिण तिमहाणि प्रवृत्तानि ?, उच्यते-यथैव वयं । कर्मक्षपणार्थमुत्थिताः एवं सिद्धि प्रार्थयमानाः एवं तेऽवि स्वच्छन्द विकल्पैः संसाराभावं केशामा वेच्छन्त्यतोऽपदिश्यते-तेऽपि णियाणमाईस, तेऽवि पलिमोक्खमाहसु, तत्र येषां तावदात्मा नास्ति, केचिच सन्प्रकारेण कर्मसंतति नेच्छति, ते बंधामावा
केवलमेव कर्मसंततेरुच्छेदात् न निर्वाणमिच्छति, आह हि-'कर्म चास्ति' कर्तुरमावे को बध्यते मुच्यते वा ?, केवलमुपादानक्षयात प्रदीपयत् ते लवन्त्युपादानक्षयानिर्वाणं, एवं कम्मोपादानक्षयादनागतानुपपत्तेष संततेरभावो भवति, सतत्यमाव एवं च मोक्षः, आह च-'अर्थोऽप्यनागतस्येव, थेपामात्मा न विद्यते' माख्यादीनां तेऽवि अपलिभोक्खं मन्यो मोक्खोपडिमोक्खो, आह हि-'प्रकृतिविकारविमोक्षो मोक्षः कस्य :-क्षेत्रज्ञस्य विद्यमानस्य, विद्यमानैव च प्रकृतिविकारानान्मोक्षो भवति, अपिच-'शाप्ता. | नामुपयोगः वैशेषिकानामपि विद्यमान एव पट्चक्रो मुच्यते, एवमन्येऽपि स्वच्छन्द विकल्पः संमागभावमिच्छंतोऽपि न मुच्यन्ते,
आह-जइ संमाराओ न मुचंति ण वा मोएति किं खलु लोगो ते सरणं पञ्जयति !, उच्पने, मिच्छनाणुभावत्ति, तेयि लवंति सावगा, कूटएण्यग्राहयच तेऽवि मायइत्तारो, आश्रवत आश्रुवाणमित्यर्थः यः शुश्रूपयन् श्रावयति स मापइनारो भाति । एवं ताव आदि- ॥३७१श
६७४]
[386]
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आगम
(०२)
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [२], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१६६-१६८], मूलं [१७-४३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[२] “सूत्रकृत' जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
अहिंसा
श्रीस्त्रक- ताङ्गचूर्णिः ॥३७२||
स्थापना
प्रत सूत्रांक [१७-४३]
दीप अनुक्रम [६४८
तीर्थकराः कपिलादयः सावए लवंति, तच्छिष्याश्च पारम्यर्येण मिथ्यादर्शनानुभावादेव तेविलवंति सार्वति साबइत्तारो यावदद्यापि विपयानुकूलं धम्म देशमाणाः, उक्तं हि-"भवत्रीज०" जह 'गन्तुमशक्नुवन्नुवास' तथा 'निरवग्रहमुक्त' तथा बहुएहि अभिसेएणं, आह-कथं तानि तिणि मयाणि तिसहाणि मिच्छावादीणि ?, उच्यते, ये हिंसागुपदिशति, ण हु तेण मोक्खो भवति, ते तावत् अवत्थु चेव, जेयि मोक्खवादी अहम्मं पसंसंति मोक्खस्स पढमगंति, यथा सांख्याणां पञ्च यमाः शाक्यानामपि दश कुशलाः कर्मपथाः, तत्राहिंसा मान्या, न चाहिंसा तेषां गरियो धर्मसाधनं, कथं ?, सांख्यानां तावज्ज्ञानादेव मोक्षा, आह हि-'एवं तव. भापा' वैशेषिकानामपि 'अभिसेचनोपयासब्रह्मचर्यगुरुकुलवासप्रस्थादानयज्ञादिनक्षत्रमन्त्रकालनियमा दृष्टा' तत्र तत्र हिंसव, " वैदिकानां न गरीयसी यज्ञोपदेशात्, उक्तं हि 'ध्रुवं प्राणिवधो यज्ञे' शाक्यानामपि सत्यं गरीयो धर्ममाधनं, कथं ?, कोऽपि मिक्खुएहि भणितो-सिक्खावतं गेण्ह, तेण मुसाबादवजाई गहिआइ, ते घेत्तुं च भंजति, भंजतो वुत्तो-कीस भंजसि ?, सो भणति मुसाबादवेरमणं मए ण गहितं, तएणं सव्वं अलियं चेय, एवं तेसिं अहिंसा सीलंगा, कथं कृत्वा ?, सकलप्तच्चादिति हेतुः, ते चेय । पावादिया अप्पाणुमाषण दिटुंतों कीरति । ते सव्वे पावाउचा०(सूत्रं ४२),प्रबदनशीला: प्रा० आदिकरा धम्माण, असम्भावपटुवणाए एतेसि तित्थगराणं तच्छासनप्रतिपन्ना वा, णाणापण्णा जाय णाणारंभा, अधाभावेन केणइ कारणेण धम्मपरिक्षण ट्ठवणावावारेण अगामण्णाई धम्मसाधनाई भणिल्लियाई, भणमाणा अहिंसमवमणमाणा अणिजएण चेव करणएण अहेतुकामेण एगहा, मेलेतुं भणिता, मंडलिबंधं काउं चिट्ठा, जहा दोणि बाहाओ आकुंचिताओ, अग्नहत्थेहि मेल्लिताशो यथा भवंति, लोए अ व मंडलंति चुञ्चति, मंडलयाहाई मंडलवाहाए व, तेसि मंडलिआए जहा परिणसणाए ते चेय णिवेसिता, एते विचिन्तेति कूरो
६७४]
॥३७२॥
[387]
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आगम
(०२)
प्रत सूत्रांक [१७-४३]
दीप अनुक्रम [६४८६७४]
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [२], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१६६-१६८], मूलं [१७-४३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
DI श्रीमत्रक- लब्भतित्ति उपविट्ठा जाब पुरिसो सागणियाणं इंगालाणं हिलिहिलेन्ताणं पाति, पतंति तस्यामिति पात्री-कुमिया लोहमयी ताम्र- आहार
निक्षेपः [गचूर्णिः मयी या, सा छुर्भतेहिं चेव अंगारेहि तलिणतणेण अग्गितुल्लतला भाति, तं अयोमएण संडासएण गहाय जेणेव ते पावाइया ॥३७३| तेणेव उवागच्छति, ते पावातिए एवं पदासी-हंभो पावाइया! आदिकरा धम्माण इमं सागणिं पाति मुटुत्तं २, यीप्सेणेफेक भणति,
मुहुत्तमेतं धरेह, णो संडासरण घेत्तुं अण्णस्स हत्थे दातव्या, पविहिता णो अग्गिभग विजाए आदिचमतेहिं अग्गी थंमिजइ, | मावम्मियवेयावडिएण पासंडियस्म थमेति, परपासंडितस्सवि परिचएण थंभेइ, उज्जुकडा दन्बुजुगा उज्जुगा, पडिवाडिए ठिता। भवेजहत्ति, णियगं २ धन्म पडिवण्णा सत्यलोपनेत्यर्थः, अमायं कुव्यमाणा, वक्ष्यति माया अग्गिथंभणादि, णिकायणं पडिवण्णा | णिकायपडिवण्णा सबहसाविता इत्यर्थः, सबहेहिं पंच महापातगा गोभणिरिसिभ्रूणगामादीहि, एवं ताव तित्थगरा तस्सीसा चेव महापातगाहि, सब्यधा खसमयसिद्ध्या च खतीर्थकराणा पाएसु इति बुच्चा-एवं णिकाएतुं तेसिं पावातियाणं तं पाति सइंगालं. संडासेण णिसरति, नागार्जुनीयास्तु 'अओमएण संडासएण गहाय इंगाले णिसरति, तते गं ते पावातिया आदिकरा धम्माणं | मा डज्झीहामोत्तिकाउं पाणि पडिसाहरति, ततेणं से पुरिसे ते पावातिए एवं वदासी-हंभो पावादिया! आदिकरा कम्हा पाणि णो | पसारेह ?, ते भणंति-पाणी डोज, सो भणति-जिणवयणाकोविदा! पाणिमि दड़े किं भवति, ते भीता भणति-दुक्खं भवति, | सो पडिभणइ-इमं दुक्खं भवति, जति अ दुक्खं मण्णमाणा पाणी ण पसारेह, णणु अत्ताणुमाणेण येव एस तुलत्ति, समभारा जहा
एकतो २ णयति, एवं जहा तुझं दुक्खं ण पियं एवं सधजीवाणं दुक्खमणिटुं, पमाणमिति तुझेन पमाणं, साक्षिण इत्यर्थः, | जह कस्सइ सुहमणिई, दुक्खं वा पियं, उक्तं हि-'वस्त्रादिमिश्वेदिह नामावेष्यन् , प्रच्छादितः काममसौ भ्रमोऽयं । त्वमेव साक्षी | ॥३७३||
[388]
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आगम
(०२)
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [२], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१६६-१६८], मूलं [१७-४३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] “सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
प्रत सूत्रांक [१७-४३]
आहार
निक्षेप
॥३७४||
दीप
अनुक्रम [६४८६७४]
श्रीसत्रक- सहजातरूपे, यद्यत्र रागे प्रणयोऽभविष्यत् ॥१॥ सम्वेसि जीवाणं एत्थ सुहदुक्खे तुल्ले सम्यक् अवसरणमिति तुल्योऽर्थः, ण ताङ्गचूर्णिः
कत्थइ सुमई, पत्तेयं तुला, एकैकं प्रति प्रत्येकं, प्रत्येकमिति एकेकस्त जीवस्स तुला, सुहग्रियाणां दुःखोद्वेगिणां च, तहेव एक्केकपमाणं समोसरणं च कीरति, एष दृष्टान्तः अयमर्थोपनयः, तत्थ जे ते समणमाहणा एतं सुहृदुक्खं तुल्लं, अत्तपरगति तुल्लमजाणंता भणति-सव्वे पाणा हंतव्या० उदवेतब्वा, कहं च णं भंते । हतब्या?, उच्यते-उद्देसिकादि अनुजानते तेहिं सम्वेहिं पाणा इंतचा
उबद्दवेतब्वा हि अणुण्णाता भवंति, उक्तं हि-तमथावराण.' तम्हा उद्देसियाणं भुजो, अथैपामेवोदेशिकादि अनुमन्यमानानांच DD को दोपः ?, उच्यते, अनिर्मोक्षः, अमुच्यमानाश्च चातुरंते संसारकंतारे आगच्छति छेदाए, यथा ग्रामाय गच्छति, एवं आगंतारो,
देसच्छेदो हत्यच्छेदादि, मब्बच्छेदो सीमादि, जाव कलंकलिभावभागिणो भविस्संति । किंचान्यत-चहणं नज्जणाणं जाव आभागीभविस्संति, अणादीयं च णं जाव अणुपरियट्टिस्संति, ते णो सिजिझस्संति, जेसिं तुल्ला जे पुण अत्तोवमेण सधजीवेहिं तुल्ला सुहदुस्खतुल्ला, णस्थि तहा माणं सरणं, पत्तेयं तुल्ला ३ एवं मण्णमाणातत्थ जे ते समणा मारणा एबमाइक्खंति सव्वे पाणान इतन्या तचाईता, एवं उद्देशिकादिविवक्षिणो ते णो आगंतुगा च्छेदाए, तं चेव पडिलोमं जाव सयदुक्खाण अंतं करेस्संति । भणियाणि किरियाहाणाणि, एत्थ पुण पडिसमणेणं कीरति-इरियावहियायचा वारस किरियाट्ठाणा अधम्मपक्खेऽणुवममे समोतारिजंति, तेण बुश्चति-इचेतेसु वारससु किरियाहाणेसु चट्टमाणा जीवा (सूत्रं ४३), अतीतकाले गोवि सिझसुत्ति, संपयं काले णोवि सिज्झति, एवं अणागते णोवि सिज्झिस्संति, तेरसमे किरियाहाणे यमाणा सिझंसु इचाइ, एवं सो भिक्खू जो पोंडरीए वृत्तो किरियाट्ठाणवाभो अधम्मपक्सअणुवसमत्राओ य किरियाद्वाण सेवी धम्मपक्खट्ठितो उसनो आयट्ठी जो अप्पाणं रक्खति
॥३७४॥
[389]
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आगम
(०२)
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [२], उद्देशक [-], नियुक्ति : [१६६-१६८], मूलं [१७-४३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
प्रत सूत्रांक [१७-४३]
दीप अनुक्रम [६४८
६७४]
श्रीसूत्र- जतो आयरक्खिओ भवति आत्मवान् , लोकेऽपि वेद्यते, अरखंतो अनात्मवान् , अथवा अप्पएण से अट्ठो आयट्ठी, अप्पणो हितो.आहार
निक्षेपः नाचूणिः | इह परत्थ य लोए, चोरादी दोसुवि लोपसु अप्पणो अहितो, अप्पगुत्ता ण परपचएण लोगपंचिणिमित्तं आत्मनैव संजमजोए
॥३७५|| जुंजंति, ण परपञ्च य९, सयमेव परकर्मिति, केइ पुण भणंति-'ईश्चरात्संप्रवर्नत, निवत तथेश्वरात् । सर्वभावास्तथाभावाः, पुरुषः ३ अध्य
| स्थास्नुन विद्यते ॥१॥' 'सर्वे भाषा तथाभावाः' एतच आयपरकमगहणेण परिहृतं भवति, एवं प्रकृतिकालस्वभावानामपि आतपरकमगहणेण पडिसेधो कतो भवति, अप्पाणं रक्खेतो आयरक्खतो भवति, आताणुरक्खितो वा अनु पश्चाद्रावे किरियाट्ठाणसेविणो, तेण अधम्मफलेण दुक्खेण संपयुत्ते कंपिजमाणे दटुं जस्से कंपो भवति से आताणुकंपए, परमात्मानं वाऽनुकम्पमानः, आत्मना ह्यात्मानमनुकम्पते, तदनुकम्पते तदनुग्रहात , आतणिप्फेडए अचाणं संसारचारमा णिप्फेडिति, अत्ताणं णाणादीहि गुणेहि णिप्फेडंति आतणिप्फेडए, अत्ताणमेव पडिसाहरेखासित्ति वेमि किरियाहाणेहिंतो पडिसाहरति २ चा अकिरियं ठावे ।। ॥ इति द्वितीयश्रुतस्कन्धे द्वितीयाध्ययनं क्रियास्थानाख्यं समाप्तम् ।।
___अज्झयणामिसम्बन्धो-तेण मिक्खुणा कम्मक्खयसमुट्ठितेण किरियाट्ठाणविवजएण तेरसमकिरियाट्ठाणासेविणा आहारगुत्तेण PA भवितव्यं, वक्ष्यति-'आहारगुत्ते समिते सहिए सदा जएजासित्तिवेमि,' जो फासुगाहारो सो आहारगुत्तो भवति, तत्र उच्यते
केयि जीवा सचिचाहारति, को वा किमाहारेति ?, एतेणामिसंबन्धेन ततियमझयणमायातं आहारपरिणा, फासुगाहारो सो आहारगुत्तो भवति. चत्तारि अणुओगदारा, पुवाणुपुबीए ततियं पच्छाणुपुनीए पंचम अणाणुपुब्धीए एगादिमत्तगच्छगता जाप ३, णामणिफणे आहारपरिणा, आहारो णिक्खिवितव्यो परिष्णाए य, आहारणिक्खेयो पंचहा-णामं ठवणा ॥१६९।। गाहा, ॥३७५॥
HAN
| अथ द्वितिय्-श्रुतस्कन्धस्य तृतियं अध्ययनं आरभ्यते
[390]
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आगम
(०२)
प्रत
सूत्रांक
[४४-६३]
दीप
अनुक्रम
[६७५
६९९]
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र -२ (निर्युक्तिः+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [ ३ ], उद्देशक [ - ], निर्युक्ति: [ १६९-१७८ ], मूलं [४४-६३]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र-[०२] “सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
配
श्रीसूत्र
ताङ्गचूर्णि
॥३७६॥
एसो खलु दवे सचित्त ॥ १७० ॥ गाहा, दव्वाणि आहारेति दव्याहारो, सो तिविहो- सचित्तादि ३, सचित्तो छन्विधो-पुढ विजो पुढविकाईयादि, पुढवी लोणमादी अपि कर्द्दममपि कर्दमपिंडादानं च, आउक्काओ सचित्तो भोमतलागादि अंतरिक्खो य, ते काओ सचितो आहारो इहगपागादिसु, महंतेसु अ अग्गिट्ठाणेसु अ अग्गिमूसगा संमुच्छंति, ते तं चैव सचित्तं अग्गिमाहारेंति, सेसा मणूयादयो ण तरति जलगाणं सचितं अग्गिमाहारेतुं, उक्तं हि - 'एको नास्ति अवक्तव्यस्याप्रेरनास्थान मित्रवत् ', लोमाहारो पुण तेसिं होत हेमंते सीतेचि तावेंताणं, सो पुण जो अग्गीओ प्रकाशः प्रतापः सो सचित्तोत्ति वा, सचित्तं ते पुण नियमा आहारति जीवा, जेण सीतेण खुणखुणंतो अद्धमत ओचि आसासति, जहा मुच्छितो पाणिएण, बाउक्काओ लोमाहारो सीयलएण वातेण अप्पाञ्जति, वणस्सती कन्दमूलादी, तसा अंडके जीवंते चैव सध्या गस्संति, मणूमावि के छुडाईता जीवंतिया चेव मंदुकडिविया, एवं अचित्तो मीसओ अवि भासितव्यो वरिपवर) अग्गी अचित्तो भणितच्यो, अथ 'भंते! ओदणे ओदण कुम्मासे० ' भणितों दन्नाहारो, खेत्ताहारो जो जस्स नगग्स्स आहारो, आहार्यत इत्याहारः विसओ आहागेचि बुधति, जहा मधुराहारो खेडाहारो यस्सो व स्नेहोदनादि, इदाणि भावाहारो, तेसिं चेव सचित्ताचित्तमीसगाणं दव्वाणं जे वण्णाइगो ते बुद्धीए वीसुं २ काऊन आहारिमाणो भावाहारो भवति, तत्थवि कडुकमा विलमधुररमादि जिम्मिदियविसयोतिकाऊण प्रायेण घेण्पति, उक्तं हि राइमतेभावतो तिने वा जाब मधुरे वा, इतरेऽपि चानुपंगेण उक्तं हि 'जडो जं वा तं' मृदुविशदचापढ्यौदनः प्रशस्यते, शीतोदकेन प्रशस्यते, शीतोदकं तु प्रशस्यते, एवं तावद्भावाहारो द्रव्याश्रय उक्तः, इदाणि जो आहारेति आहारओ तमाश्रित्य भाव उच्यतेसब्बो आहारेन्तो उदयस्य भावस्स आहारेति कयरस्स उदया, वेअणिजस्म कम्मस्स उदपणं, 'पंचेव आणुपुवीए'
[391]
आहारनिक्षेपः
॥३७६ ॥
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आगम
(०२)
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [३], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१६९-१७८], मूलं [४४-६३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
आहारभेदाः
प्रत सूत्रांक | [४४-६३]
दीप अनुक्रम [६७५६९९]
श्रीक्षेत्रक- जम्हा वुत्त'चउहि ठायोहिं आहारसण्णा समुप्पञ्जति, तंजहा-ओमकोडताए छुधावेदणिजस्म कम्मरस उदएणं मतीए तदट्ठोव- ताङ्गचूणिः | गे' जम्हा उदयिकस्स, कुट्टे उदयीयस्स कर्मणः उदयात् आहारेति, केनलीणवि औदायिकपारिणामिको भावी इति, तम्हा सिद्धो, ॥३७७॥
भाषाहारो तिविहो-ओए लोमो अ पक्खेवे, एएस तिहाचि एकाए चेव गाथाए संखेववक्खाणं, तं०-'मरी रेणोयाहारो तयाइ P फासेण लोगआहारो।' पक्खेवो जं मरीरस्म पजत्तीए, पञ्जत्तओ वा आहारेति, जो ओयाहारो एतस्म बक्खाणं गाथाए पुण्यदेण| |तं०-ओयाद्दारा जीया सब्वे ॥१७२।। गाहा, आहारगअप्पजत्तगा, ओजत्ति सरीरं ओजाहारा-सरीराहारा कतरे?, सब्बे आहा
रगा, जे आहारति, ते पुण तत्ततेल्लसंपाणपक्खेब०, इस सरीरपञ्जत्तीए पाचगा वा पजप्पमाणावा, सरीरपजती पुण आहारपजत्तीए । | पजप्पमाणस्सेब, सब्यबंधे आढविय जाव मरीरपजत्तगस्स ओयाहारो होति, किं बुञ्चत्ते ?-ओयाहारा जीवा सव्वे आहारगा अप
अत्तगा उच्यन्ते, इंदियशाणुपाणुभासमणोपाचीहिं अपजत्ता, बुतं ओयाहारवक्खाणं, इदाणि लोमाहारस्स भवति, तयाइ फासेण ||य लोमाहारेति, एतस्स गाहापादस्म पुरिष्ठीर गाथाए पछिमद्धेण वक्खाणं-'पजत्तमा तु लोमे पक्खेवे होइ भयितब्बा' कतरीए
पञ्जत्तीए आढवेतुं ?, तत्थ नया घे पति फासिदियमित्यर्थः, जं उपहामितत्तो छायं गंतूण छायापोग्गलेहिं आसामति सव्वगात| लोमकुशणुपविद्वेर्हि, आमामति शीतवातेण वागादीपउक्खेवणगादीवातेण या, आससति पहायतो वा, एवमादि लोमाहारोत्ति, गम्मेवि लोमाहागे चेव, जेण पक्खेवाहार व आहारिआंतो आहारो, तेन चक्षुष्मता अम्येन वाण दीसति लोमाहारः लोप इच, लोपः अदर्शनमित्यर्थः, जे अदीसंता चोरा हरति ते लोमाहारा बुचंति, एसो पुण लोमाहारो णिश्चमेव भाति अनाभोगणित्तितो आभोगणिवचितोवा, पक्खेवाहारो पुण भाइजति, का भयणा?, कदाइ आहारे जहा उत्तरा कुरा अट्टमेण भत्तकालेण पक्खेवमाहारमाहारेति
1३७७॥ .
[392]
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आगम
(०२)
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [३], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१६९-१७८], मूलं [४४-६३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सूत्रकृत' जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
आहार
भेदाः
प्रत
श्रीसूत्रकसूत्रांक |
ताङ्गचूर्णिः [४४-६३] ॥३७८॥
दीप अनुक्रम [६७५६९९]
EPHANISTERDINMandalaa
संखेजगवासाउआणं अणियो, तयाइ फासेणंति वुत्तं । इदाणि पक्खेवगाहारस्स बक्खाणं, तेनोच्यते-एगिदियणारगाणं देवाणं चेच णत्थि पक्खेयो । सेसाणं पक्खेबो संसारत्थाण जीवाणं ॥१७३॥ सेसाणेगिदियवजाणं ओरालियसरीरीणं जेसि जिभिदियमस्थि ते पक्खेवाहारा, एके त्वाचार्या एतदेव त्रिविधं आहारं अन्यथा युवते, तंजहा-पक्खेवाहारः ओयाहार- लोमाहार इति त्रयः, जिहेन्द्रियेन लभ्यते स्थूलशरीरे प्रक्षिप्यते सो पक्खेवाहारो, यो घाणदर्शनश्रवणरुपलभ्यते धातोः परिणाम्यते ओजाहारो, या स्पर्शनोपलभ्यते धातोः परिणाम्यते स लोमाहारः, वुत्तो आहारो, अप्पाहारगा बहुआहारगा य इदाणि वत्तव्ययाजे जत्तियं वा
कालं आहारगा भवति, कालं ताव भणति-एकं च दो व समए तिषिण व समए मुहुत्तमद्धं वा । सादीमणादिमणिहणं । वा कालमणाहारगा जीवा ।।१७४|| बुत्तो कालो गाथासिद्ध एव ।। इदाणिं अणाहारगा चुर्षति ते दुविधा, छउमस्था केवली
य, तत्थ छउमत्था अणाहारगा-एकं च दो व समए केवलिपरिवजिया अणाहारा | मंथंमि दोणि लोगे य पूरिते तिन्नि समया तु 'एगं च दोव समए'त्ति विगहगतीए, केवली अणाहारा दुविधा--सिद्धकेवली अणाहारा भवत्थकेवलिअणाहारा, भवत्थकेवलिअणाहारा दुविधा. तंजहा-सयोगि अयोगी०,मयोगिभवत्थकेवलिअणाहारा समुग्घातगता,ते पुण मंशूमि दोण्णि, मंथं पूरेंतो लोए भवति तइए समए, णियटुंतो पंचमसमए, लोग पूरेति चउत्थसमएत्ति तिसुवि अणाहारो, इदाणिं अजोगिभवस्थकेवलिअणाहारओ गाथासिद्धो चेव अंतोमुहुत्तं, सिद्धकेवलिअणाहारओवि गाथासिद्धी सादीयअणिधणो सिद्धअणाहारो, जोएण कम्मएणं आहारेती अर्णतरं जीवो। तेण परं मीसेणं जाब सरीरस्स पजत्ती (निष्फत्ती)॥१७७॥ उववजमाणा चेत्र सच्चबंधे कम्मगजोगेणं आहारेति, तो मीसेण जाय ओरालियसरीरपञ्जत्तीए पञ्जत्तो भवति, पच्छा ओरालिपमिस्मसरोरेण चेच
॥३७८॥
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आगम
(०२)
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [३], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१६९-१७८], मूलं [४४-६३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत' जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
वनस्पतिः
प्रत सूत्रांक | [४४-६३]
श्रीसूत्रक- ताजचूणिः
दीप
अनुक्रम [६७५६९९]
आहारेति, एवं वेउब्वियं, आहारगसरीरेणं पुण णियमा आहारगोचेव, बुत्तो आहारो । इदाणि परिण्णा जहा सत्थपरि- णाए भणिता णिक्खेबे, सुत्ताणुगमे सुत्-सुअं मे आउसंतेणं० (सूत्रं ४४) इह खल आहारपरिष्णा तस्स णं अयमट्ठोइह खलु | पाईणं वा ४ पण्णवगदिसाओ पडुच्च, सयाओत्ति सब्बाओवि दिमाओ उर्छ अधो अगहिताओ, सब्यातित्ति सव्वसंसेवेण चत्तारि वीजकाया, बीजमेव कायो बीजं इत्यर्थः, तंजहा-अग्गं बीजाणि जेसिं तिलमादीणं सालिकलमअतसिमादीयावि, तणा, अग्गं बीजं | जेसिं या अग्गलता सप्पंति पर होंति वा ते अग्गं वीजा, मूलबीजाचा अल्लगमादी, पोरु उल्छुगमादी, खंधवीजा सल्लइमादी, तदंत नागार्जुनीयास्तु 'वणस्सइकाइयाणं पंचविहा वीजवकंती एवमाहिजइ-तंजहा-अग्गमूलपोरुक्खंधीयरुहा छटावि एगेंदिया | समुच्छिमा बीया जायते' जहा उद्दावणे दड़े समाणे णाणाविधाणि हरिताणि संमुच्छंति, पउमीणीसो वा नबए तलाए संमुच्छंति, | पुराणेवि कथयि पुथ्वं ण होतुं पच्छा संमुळंति, उक्तं हि-'पभं च राजहंमाश्च' 'तेसिं च णं अहाबीजेणं'ति ययस यी तत्र | तदेव प्रसूयते यथा शालिपीजे शाल्यडरो जायते, न कोद्रवादयः, अथवाऽवकागेन जं जत्थ खेते जायते, यथा सुमजितकेदारपल्लवे प्रावृट्काले शालिर्जायते यथा शालीवीजे शाल्यंकुरः, पापाणोपरि नोप्यते न वा उत्तोऽपि जायते, अथवा भूम्यम्बुकालाका| शवीजसंयोगो गृहाते, अथावकाशग्रहणण०, एगतिया एगे ण सव्वे, जेऽवि वणस्ततिकाये तेऽपि रुक्खा उम्मजणबद्भणा, सेसाओ अपुढविजोणिया, पृथग् वियोनिउँपां, उत्पत्तिः आधारः प्रसूतियोंनिरित्यर्थः, यु मिश्रणे, यौतीति योनिः, मिश्रभावमापद्यन्त इत्यर्थः, कार्मणसरीर वा, जीवो वृक्षभावपुरस्कृतः, या च प्रसूतिः क्षमाभूमिमंतरेण न प्रसूयते सो पुढविजोणियो भवति, जहा जलं न जायते, जत्थ जस्स जोणी सो तत्थेव संभवति पंकजयत् बीजाकुरवद्वा, उक्तं च-"कुसुमपुरोप्ले बीजे मथुरायां नाङ्कुरः समुद्भवति ।
।।३७९॥
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आगम
(०२)
प्रत सूत्रांक
[ ४४-६३]
दीप
अनुक्रम
[६७५
६९९]
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र -२ (निर्युक्तिः+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [३], उद्देशक [-], निर्युक्तिः [१६९-१७८ ], मूलं [४४-६३] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र -[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
वनस्पतिः
श्रीफनागपूर्णिः ॥२८॥
यंत्र तस्य वीजं तंत्रोत्पते प्रमयः ॥१॥" तथा यथा प्रतिचन्द्रकस्य दिक्षु समुद्भवः स चैकन दृश्यते, प्रतिमुखस्य वाऽऽदर्शके प्रतिभो दृश्यते एत एवं तदुक्तं भवति या हि यत्र यस्य योनिः सा तत्रैव सम्भवति, पुढ विवक्रमत्ति, केसिंचि आलावगो चैव एस पत्थि, जेसिपि अस्थि तेसिपि उक्तार्थ एव तस्सग्रहणेन, तहावि विसेसो बुच्चति, जहा तंतुजोणिओ पडो तंतुमय इत्यर्थः कारणान्तरितः क्रियमाणो तंतुष्वेव भवति, न देशान्तराभ्यां हियते वा, वृक्षस्त्वेवं न चैवं कथमिति १, उच्यतेकोई सामल पुढ विकाईए पुरेक्खडो पुढविकायसरीर विप्पजहाय तंमि चैत्र देशे सशरीरे अण्णेसु वा तत्संनिकृष्टपुढविकायिएस रुक्ता विहृति, तत्थ कायांतरसंक्रमे कमोघे पति, अण्णो पुण देशांतरातो सकायातो वा परकायातो वा आगम्म रुक्खत्ताए
मति तोणिया तस्वभावा, तन्त्रकमत्ति तं चैव जोणियमिति, जहा जा जस्स जोगी सो तम्मि चैव संभवति, णष्णत्य यथा पापानात् सुवर्ण जायते, न सर्वस्मात् पाषाणात् जायत इति, एवं पुढविजोणिओ पुढविसंभवो पुढविवकमो य ण सन्याओ पुढवीओ जायते, कथं पुत्र भूमीय उस्सरिछे पत्थरोवरि वा णो जायते ?, तोणियगणेण तु सन्त्रमेतं परिहरितं गहियं च भवति, कम्प्रोवगा कम्मजोगा भवति, जो जस्स जोगो भवति सो तस्स उनजोगी बुच्चति, यथा रूपवाने दार उपजीवनीयो, सो रुवेण कुलेण शीलेण य तीसे एवंगुणजातीयाए दारियाए, दारिकाए चैव दारको, सोऽवि एतस्य उपयोगो, एवं तेहिं तन्विधाई कम्माई कताई रुवखारोह अनिलगाई जेसिं रुक्खाण हउवइक भवति, तहा मंडगमध्ये किंचि जं जिरह तं उबक, सिणेहस्स वा तेल्लस्स या वयस्सना, मरमाणं अणोवड़कं, तहा आढगः प्रमाणो घटः, आढगप्रमाणस्यैव मेयस्य द्रव्यस्येतरस्य वा उपयोगो, पत्रपुष्कफलादिलक्षणव्यतिरिकानां ण तेसिं अण्णपुढविकाइयादिशरीरेणोवयोगो, कम्मणिदाणति णियाणं हेतुः कारणमित्य
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||३८० ॥
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आगम
(०२)
प्रत सूत्रांक [४४-६३]
दीप अनुक्रम [६७५
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [३], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१६९-१७८], मूलं [४४-६३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: श्रीवक-ID नर्थान्तरं, बातिकस्य हि व्याधेः यातलद्रव्याहार एव णिदाणं, एवं पित्तियमिमियाणपि पत्तियसि माणिदाणं, यथा नानिदानो वनस्पतिः वामन्चूणि याधिः उत्पद्यते एवं कर्मनिदानमन्तरेण न शरीरोत्पत्तिः भवतीत्यत उच्यते-कम्मणिदानेन, नथा च कम्म०, कतर कम्म?,HI ॥३८१॥ ANI रुक्खणामागोतं तस्सोदएणं णाणाविहजोणियासु, पुढवीति नेमिपि जो पुढगी 'गचित्तसंवृनमिश्राश्चैकशः' तयाप्रकारा योनिः, णाणा-IN
| विधानां च अण्णेसिं पुढ विकाइयादीणं छपई कायाणं जोणी विउदृतित्ति, विवियोगे, विशेष्य पृथिवीकार्य वृक्षवममिसंप्राप्य | वर्तन्ते विउति । ते जीवा तेसिं सिणेहं ते जीवत्ति जे पुढविकाईएसु उववण्णा तासिंति जासु उपादागभूतासु उपवण्णा अविद्धत्थजोणियासु उबवण्णा, सिणेहो णाम सरीरमारोतं आपिवंति, ण य एगतेण व नं वन्धु विद्धंसें ति, को दि©तो, जहा। अंगत्थो जीयो मातुगातुम्हंपि आहारेति, ण य माऊए किंचिवि पीले जनयति, खीपुमो वा परम्परगात्रसंम्पर्शात् पुष्टिर्भवति, न च तयोः पीडा भवति, जहा अंबस्म य णियस्म य, णिवावयवा अंबमणुपविसित्ताण दूसेति, " य णिवस्स पीडा भवति, जेण | बर्द्धते णिवः, एसोऽवि वणस्सइकायिको सक्खो तासिं पुढवीण सिणेहमापिवेइ, ण य तेसि पीडं जणपति, कदायि पीडं जणयति | असमाणवण्णगंधरसस्पर्शात् , एवं उपवजमाणाण आहारो भवति ता, परिवड़माणा पुण परिवड्यंने जीना आहारेति पुढविशरीरं जाव शरीरसनिकृष्टं आउकार्यपि अवलिक्खं भोमं वा, भोमं भूमीतो उभिदिय जातो, पाणितं जं भुमं चेव भूमित्थं, वहतमत्रहंतगी वा, तेउच्छरादिवाओ भूमिखलणाओ वा आगामाओ वा, वणस्मई परोप्परं मूला संमत्ता, जहा अंवस्म, तह काउगोकरिममाणा | पुरिसादि, नागार्जुनीयास्तु अवरं च णं असंबढे पुढविसरीर जाब पाणाविधाणं तमथावगणं अचित्तं कुचंति जंतयो, पुन्यविउ IN/चेच जीवेणं जीवमहगतं आहारत्ताए गेण्हंति, तपि जया मरीरत्ताए परिणामेति तदा अचेतनीकरोति, कथं या अणोण जीवेण | |३८१॥
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आगम
(०२)
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [३], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१६९-१७८], मूलं [४४-६३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत' जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
वनस्पतिः
प्रत सूत्रांक | [४४-६३]]
दीप अनुक्रम [६७५६९९]
श्रीपत्रक- परिग्गहितं ताब अण्णमरीरत्ताए ण परिणमेति ?, जया पुण परिचत्तं भवति, जेणेव जीवेण सरीरगं णिव्वतितमासी तदा अण्णो ताङ्गणिः जीवो आहारेति, परिविद्धन्थंति प्राक्तनेन जीवेन मुक्तं, पुन्याहारियंति, तं सरीरगंजो वणस्सइकाइओ पुढविसरीरगं आहारेति तंपि ॥२८सा तेहिं जीवेहिं 'आहारगा य पाणा' इतिकाऊण चेव णिव्यतितं, अत एतदुक्तं भवति-पुब्बाहारितमेवान्यजीवराहार्यते, तयाऽऽहा
रितित्ति जे एगिदिया एते तयाए चेव आहारति फासिदिएपणेत्यर्थः, जेसिपि जिभिदियमस्थि तेसिपि पुव्वं फासिदिएण स्पृशित्वा पथात् , जिहेन्द्रियमप्यस्ति ?, उच्यते, यस्मात् जिह्वा स्पर्श गृह्णाति, अग्निना अनास्वादनीयेन स्पृष्टा दाते, एवमन्यदपि दन्तौष्ठ
ताल्यादि स्पर्श वेत्ति, न च तत्र किश्चिदन्यदास्वादयति, विपरिणतंति पुढविकाइयत्तणं मोत्तूणं विविधैः प्रकारैः तमेव वृक्षत्वं । परिणतं, सारूविकडंति ममानरूविकडं वृक्षत्वेन परिणामितमित्यर्थः, सबप्पणत्ताए आहारेति, नागार्जुनीयास्तु एवं सम्प्रति.
पन्ना-अवरेणं णं, कतरं ?, संबंधमसंबंधं वा, जो पुढविकाइयमरीरेहिं तस्यापतितै गैः संश्लेप इत्यर्थः, तेसिं तं पुढवितप्पहमताए सिणेहमाहारयति, असंबई पुण जं पासत्तो पुढविसरीरं वा ते पुण पण्णत्तीआलावगावि भगति, तेमिं पुराणगुणे गंधरसे? अवरेणवि य णं, कतरे अबरे वा ?, णावरे, जं उवबजनेण गहितं अबशिष्टमूलादिभ्यः, जहा गभवतिरण जाव लभंति, तत्थवि दुल्लहबोधि, पंच पिलगाओ इंदियाणि वा णिवत्तेनि ताव, अवशिष्टा एवमेव निपेकादयः, एवं तेवि रुख जीवा जार मूला. दीणि णिवत्तेति ताव णो अवरं भवति, आदिशरीरमित्यर्थः, मुलकन्दादि जात्र वीजं ताव अबराई बुच्चंति, अन्यानीत्यर्थः, णाणा
वण्णत्ति, नानार्थान्तरत्वेन वण्णत्ति पंचविधा, तंजहा-किण्हा नीला खदिरशिंशपादि, णाणाशरीरत्ति णाणाविधेभ्यः पुगलाना। हारत्वेन गृहीत्वा आत्मशरीराणि विविधं कुर्वन्ति विकुर्वति, अथवा णाणाविधसरीरा णाणाविधपुद्गला विकुर्वन्तित्ति, अल्पशरीराश्च
॥३८२।।
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आगम
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भाग-2 “सूत्रकृत" - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [३], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१६९-१७८], मूलं [४४-६३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत' जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
प्रत सूत्रांक | [४४-६३]
श्रीसूत्रकतागचूर्णिः ॥३८३||
दीप
अनुक्रम [६७५६९९]
| तहा सुरूवा दुरूवा थिरसंघयणा दुबलसंघयणा इत्यर्थः, अप्रकाशवदप्रकाशत्वेन रसवीर्यविमागं तत भेदार बहवो विभावयि-D वनस्पतिः तव्याः, विविधपद्गलापि विकुर्विता ते जीवा इति, केषांचिद् न जीवाः वानस्पत्याः तत्प्रतिपेधार्थमुच्यते--ते जीवा कम्मा, कथं | जीवा ?, कुञ्जनात्संरोहादकुरात् आपदाहारकाच, कम्मो वणस्सति बणस्मतिणामस्म कम्मस्सोदएण, न त्वीश्वरसृष्टाः अदृष्टेन वा द्रव्याणि वेत्यादि, एस ताव पुढविजोणिओ रुम्यो वुत्तो, इदाणि मि चेव पुढविजोगिए रुक्खे अण्णो रुक्खत्ताए बकमति| अथावरं पुरवायं० (सूत्रं ४६), अथेत्यनन्तरे अथावर पूर्वमाख्यातं, गणधरो सीसाणं अक्खाति, तित्थगरेण अक्खातंति, अत्यनन्तर्ये पुनर्विशेपणे, आड्न मर्यादाभिविध्योः ख्या प्रकथने, पुनः आख्यायते, घोषवत्स्सम्परतः ख्यादेशे कृते पुनराख्यातं भवति, तस्सेव रुक्खस्म किंचिदन्यदाख्यातं, इहेगतिया सत्ता रुक्खजोणिया, कतरेति !, पुढविजोगिएसु रुक्खेसु जो एते आदिजीवा पुढविजोणिएसु रुक्खेसु रुक्खत्ताए वकता तेसु चेव अविभिन्नेसु मूलादिसहितत्वेन तमेव रुक्ख परिवहयमाणा रुक्खत्ताए विउति, सेसं तथैव जाच भवतित्ति मक्खातं, किं तं पुरा अक्खातं पुनर्वा आख्यातं १, एम ताव रुक्खो अविसिट्टो वुत्तो, पढमो। | पुढविजोणिओ रुक्खो, वितिओ पुढविजोणिओ रुक्खाओ तन्निश्रयोत्पद्यते, ततिओ रुक्ख जोणिो रुक्खो, यदुक्तं भवति| योऽसावायनिश्रयोत्पन्नः तस्यैव निश्रया जातः, अत्र च अनवस्था न नोदनीया, तृतीय एव वृक्षः प्रकारे, स चैपामेव भागत् , | एते तिनि सुत्तदंडगा, चतुर्थस्तु तृतीयवृक्षमूलादिनिवेशप्रतिपादकः, एवमव्याकुलेन चेतसा पर्यालोच्य सूत्रदण्डकाः अन्यत्रापि
नेतव्याः, एवमनयैव भंग्या अज्झारुहेण चत्तारि दण्डकाः, साधारणानामेक एव दण्डका, तेषु येऽन्ये उत्पधन्ते तेषां विभापाभावः, | रुक्खेहिं रुक्खजोणिए, मलेहिं जाव हरितेहिंवि तिषिण, अत्र द्वितीयतृतीयावेकमेवेतिकृत्वा चतुर्थसूत्रदण्डकाभावः, अफायिकानां ॥३८३॥
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आगम
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भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [३], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१६९-१७८], मूलं [४४-६३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
वनस्पतिः
प्रत
श्रीरामक- चतुर्थोऽत्र शेपेषु दंडकः, अग्निकायिकानां चतुर्थो, आवाकादिपु मूपकाः, इदाणि सो चेत्र विसेसो मूलादिणा दसविधेण विसेसेण सूत्रांक | नाचूर्णिा
नाराण विसेसिञ्जइ, शरीरवत् , यथा शरीरमविशिष्टं तदेव पाण्यादिभिर्विशेपैषिशिष्यते, वनवद्वा ग्रामगृहवता विषयवद्वा, एवं रुक्खेत्ति अवि[४४-६३] ॥२८॥ शिष्टो उपफमो वचो सो पुण विसेसिजइ मलत्ताए, मलं नाम मुलिया, जेहिं मूलिया पइडियाओ, भूम्यन्तर्गत एव स कन्दः खन्धदीप
सस्योपरि खन्धो तया छल्ली सब्दरुक्खसरीराणि सालेसुपि होइ खंधाओ, सालो अहुरा इत्यर्थः, प्रथाले हितो पवाला पत्ता पत्तरेसु
फलाणि कलेहितो बीजाणि ॥ अहावरं पुक्ग्यायं इहेगतिया० (सूत्रं ), रुक्खजोणिएसु रुक्खेसु अब्भारुहत्ताए, रुहं जन्मनि, अनुक्रम
अहियं आरुतिति अज्झायारुहा, रुक्खस्स उपरिं, अत्र रुस्खो पगतो, लतावल्लिरुक्खगति, सो पुण पिप्पलो वा अण्णो वा कोयि [६७५
रुक्खो, अण्णस्म उवर जातो, एवं तणओमहिहरिएसु चत्वारि आलावगा माणितव्या, कुहणेसु इको चेब, सम्वेसिं कायाणं पुढ६९९]
विमलाहारोत्तिकाऊणं तेण पुचि पुढविसंभवा वुचंति, एवं ताव एते वणस्सइकाईया, लोगोपि संपडिबजति जीति जेण सुहपण्णवणिजत्तिकाऊण पढमं भणिता, सेमा एगिदिया पुढविकाईयादयो चत्तारि दुमद्दहणिजत्तिफाऊण पच्छा बुचंति, वणस्सइकाइयागंतर तु तसकाओ, सो पुण णेरईओ तिरिक्खजोणिओ मणुओ देवेत्ति, तत्थ नेरइया एगंतेण अप्पचक्खत्तिकाऊण ण भणंति, ते पुनरनुमानग्राह्या, तेण ण भण्णंति, तेसि आहारोवधिः आनुमानिक इतिकृत्वा नापदिश्यते, म तु एगंतासुभो ओजसा न प्रक्षेपाहारः, । देवा अपि साम्प्रतं प्रायेणानुमानिका एव, तेसुचि एगंततो आहारो ओजसा, मणभक्खणेण य, सो पुण आभोगणियत्तितो अणाभोगणिव्यत्तितो य, जहा पणत्तीए अगाभोगेण अणुसमतिगो, आभोगेणं जह० चउत्थं उक्कोस. तेत्तीसाए वाससहस्सेहिं अत्थतो चेव चुञ्चति, इह सुने वणमत्किाइयाणंतरं मणुस्मा, सतिरिक्खजोणिएत्ति मचित्तरत्तिकाउं पढमं बुनांत । अहावरं णाणा-
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आगम
(०२)
प्रत सूत्रांक [४४-६३]
दीप अनुक्रम [६७५६९९]
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [३], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१६९-१७८], मूलं [४४-६३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[२] “सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
श्रीयप्रक-IP विधाणं मणुस्साणं (सूत्रं ५७) आरियाणं मिलक्षण तेमि अथ वीजं, मणुस्सपीजमेव हि मणुस्सस्स प्रादुर्भविष्यतः बीजं भवति, DDM ताङ्गचूणिः || तु शुक्र शोणितं च, ते पुण उभयमपि यदा अविद्वत्थं भवति, अथावकासेशि जोणि गहिता अविद्वत्था, एत्थ चउभंगो-| ॥३८५॥ बीजं निरुवहतं जोणी णिरुवहता बीजं णिरुवहतं जोणी उपहता०, एवं सत्तकोट्टा इस्थित्तिकाऊणं अंतोदरस्स अथावकासो भवति,
इत्थीए पुरिमस्स या स्त्रीपुरुषसंयोगः उत्तराधरारणिसंयोगवत् संस्पर्शकर्म, आह हि-'चक्र चकेण संपीब्ध, मर्त्यजघनांतराणी'
कर्म करोति इति कर्मकरा, कर्मममर्था वा कम्मकडा, अविद्धन्था इत्यर्थः, विध्वंस्य ते तु-पंचपंचाशिका नारी, सप्तसप्ततिक: Joal पुमान् । एत्थ पुण मेहुणं मेहुणभावो मिथुनकर्म वा मैथुनं, मैथुनप्रत्ययिका मेहुणवत्तीओ, अण्णोवि आलिगणावतासणसंजोगो
अणंगकीडा च अस्थि, नत्तमो गण्यते गर्भोत्पत्ती, ते दुहतोचि सिणेहं, सिणेहो नाम अन्योऽन्यगात्रसंस्पर्शः, तद्यथा आहारस्य आहारिनस्य, शोणितमासमेदोऽस्थिमज्जाशुक्रान्तो भाति पुरुपे नार्या उपजातः, स यदा पुरुषस्नेहः शुक्रान्तो नार्योदरमनुप्रविश्य नार्योजसा मह संयुज्यते तदा मो सिणेहो क्षीरोदकवत् अण्णमण संचिणति, गृहातीत्यर्थः, 'तत्य जीवेति तस्मिन् तत्थमणुप्पविढे सिणेहे म्वकर्मनिवर्तितस्खलिङ्का इस्थिताए पुं० नपुं० विउति, माओऽयं सोणियं पितुः शुकं, ततो पच्छा जं से माता णाणाविधाओ रमविहीओ (विगही) क्षीरनीरादिआउणव विगईओ, जोवि ओदणादि अविगतो आहारो भवति मोपि प्राक्तनात भावाअदा विगतो भवति सरीरत्वेन परिणामितो भवति तदा आहार्यते, उक्तं हि-एगिदियशरीगणि लोममाहारेति, एगदेसोचि तस्स फलटसरिसा रसहरणीए यथोत्पलनालेन आपिवत्यापः, ततो कायातो अमिणिवरमाणाई, ३ इस्थि चेव एगता जनयति आत्मा, | नपुंसको वेत्यर्थः, स्वकर्मविहितमेव तेपां जन्मनि मस्सस्स णामस्स कम्मस्स उदएणं, न खेत्तबले, तं तु दुगे मातापितरौ समनु- ॥३८५॥
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आगम
(०२)
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [३], उद्देशक [-], नियुक्ति : [१६९-१७८], मूलं [४४-६३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-०२] “सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
जलचराः
श्रीसूत्रक-
॥३८६॥
प्रत सूत्रांक [४४-६३]]
दीप अनुक्रम [६७५६९९]
गृहीतः, विशेषतस्तु माता, अत एतदुक्तं भवति, इथि घेगया जणयंति' एकदा नाम कदाचित् नियं कदाचित्पुरुपं कदाचिद् | गर्भगत एव मरति, तेन न जनितो भवति, ते जीवा डहरा खीरं सप्पि, खीरं मातुःस्तन्यं, सप्पि घतं वा णवणीतं वा, सेसं कंठयं, एवं ताप गम्भवतियमणुस्सा भणिता जहा जायंति आहारयति । इदाणि समुच्छिममणुस्साणं अवसरो पत्तो, सो अ उवरिं दुरुतसंभवे बुचिस्सति, इदाणि पंचिंदियतिरिक्खजोणिया भण्णन्ति, तत्थवि पढमं जलयरा-अथावरं जाणाविधाणं जलयराणं (सूत्रं ५८), मच्छा मत्ता सीतेणं, अथवा जेण इत्थीए य पुरिसस्स य कम्मकडाए जोणीए एत्थ णं मेहुणं सिणेहं, ते जीवा डहरा समाणा | आउं सिणेहं होति, आउकाओ चेव, अथवा जे तत्थ मात्रा ओजसा चेत्र, आउकायमाहारैति, ण तु पक्खेवेणं, तेणेव ते पुस्संति | परिवईती य जहा खीराहाराणं खीरेणेव, चुड़ी णं अणुसमयिकी बुट्टी हुत्तया दिवसदेवसिया, वणस्सइकाइयाण सेवालहरियादि | तसथावरे जति तते मच्छे चेत्र खायंति, आहहे-अस्ति मत्स्यस्तिमिर्नाम, अस्ति मत्स्यस्तिमिगिलः। तिमितिमिगिलोऽप्यस्ति, तिमिगिलगिलो राघव! ।।१।। ते जीया पुढविकाईयं कद्दममट्टियं खायंति आउं निसिताय पिचंति, खुधिया मच्छं पाणि उल्लं गस्मति, अगी उदगादि वापि लिहंति, वणस्सई बुत्तो, तसकायो जलचरो चेन, मगरो य चउप्पदाणुस्सयं उगईति, णाणाविधतसपाण जाव पञ्चइया । अहावरे चउपपदाणं एगखुराणं एतेसिं अड, णवरि णस्थि आहारे णाण, जीवा डहराति, सा पक्विणी ताणि अंडगाणि सएण पेल्लिऊणऽच्छति, एवं गातुम्हाए फुसंति, सरीरं च णिव्यत्तेति, तं पुण अंडजंकणं चेव भवति पच्छा | सरीरं जायते विपुलमादी चम्मपक्खी पोतया, एतेसिं पुण मणुयाण पंचिंदियतिरिक्खजोणियाण य सव्येसिपि दुविधो आहारो | भाणितब्बो, तंजहा-आभोगणिव्यत्तितो य अणाभोगणिव्वत्तियो, वुत्तो पंचिंदियतिरिक्खजोणियाण य सम्वेसि पुणाहारो॥इदाणि
॥३८६॥
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आगम
(०२)
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [३], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१६९-१७८], मूलं [४४-६३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
विकलेन्द्रियाः
प्रत सूत्रांक | [४४-६३]
दीप अनुक्रम [६७५६९९]
श्रीसूत्रक-15|| विगलिंदिया जे तेमि तिरिक्खजोणियाहारो बुच्चति-अहावरं डहेगतिया(सूत्रं ५९)कम्मणियाणेण जस्थउवफम्मा गाणाविहाणं | ताङ्गचूर्णिः | तसथावराणं, तसा तिरिक्खजोणियमणूया ओरालियशरीरगता, तेऊ वाऊथि तमा चेब, थावरा पुढवि अणुसूयंता, अणुसूयंता णाम ॥३८७॥ शरीरमनुसृत्य जायन्ते, तंजहा-सचिचेसु तहा जूपाओ लिक्खाओ सेयवतो छप्पदा य मंकुणा पुण माणुमसरीरोवजीविणो मानु
पशरीराश्रयादेव जायन्ते, शरोरोपभुज्यमानेषु पर्थङ्कादिपु, न त्वन्यत्र, गोरूपानामपि शरीरेषु यूकादयो भवंति गोकीडा य, अचित्तेसुवि एतेसु अव्यावष्णेसु जुवादयो संभवंति, अचिचीभूतेसु तु कृमिकाः संभवंति, एवं चिंदिया ने इंदियाण चउरिंदियाणपि सरीरेण अणुसित्ता जायते जहा विच्छिगस्म उवरिं बहयो विच्छिमा संभवंति, अचित्तीभूतेसु य किमिकादयो जायंते, | उकाए सचित्ता मूसगा संभवति, जहिं अग्गिपाणादिवत्याणि अग्गिसोज्झाण चेव कीरति, जत्थ अग्गी तत्थ बातोवि अस्थि, जेवि बाउकाए निस्माए आगासे संभवंति, वुचा तराथानरा। दाणिं तत्थ पुढविमनुसृत्य वेइंदिया कल्लुगादयो सम्भवन्ति तेइंदिया कुंथुपिप्पीलिकादयो चतुरिदिया पतंगा, वरिसारते भूमि पडिलेहंतो उडेति सलभादयः, आउक्काए पूतरगादयो वणस्सतिकाए पणगभमरादयो, अचित्तामुवि एतेसु जायंते, ते जीवा तेसिं णाणाविधाणं तसथावराणं पुराणाणाविधाणं तसथावराणं सरीरेसु सचित्तेसु अ अचित्ते अ वेदियसत्ता दुरूवत्चाए विउद्घति, दुरुवा णाम मुचपुरिसादी मरीरावयवा, तस्थ सचित्तेसु मणु
स्साण ताव पोहेसु समिगा गंडोलगा कोट्टाओ अ संभवंति संजायन्ते, बाहिपि णिग्गतेसुवि उच्चारपासवणादिसु किम्मिया सम्मुHE छंति, अचित्तेसुवि गोरूवकडेवरेसु य, उदरान्तशः कम्यादयः संमुच्छंति, तिरिक्खजोणियाणपि सचित्ते उदरान्तरा० उज्झेसु
| किमिया संभवंति, उदरातो विणिग्गनेसु उज्झेसु छगणेसु य किमिगा संमुच्छति, भणिता दुरूवसंभवा । इदाणि खुरगा चुचंति
॥३८७॥
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गम
(०२)
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [३], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१६९-१७८], मूलं [४४-६३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] “सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
प्रत सूत्रांक [४४-६३]
दीप अनुक्रम [६७५६९९]
श्रीसमक-म अथावरं इहेगतिया गाणाविधा जाव कम्मखुरुडगाए चकमंति, खुरुधुगा णाम जीवंताण चेव गोमहिसादी] चम्मस्स अंतोज अप्काया: ताङ्गपूर्णिः
समुच्छंति, पच्छा ते खायंतो २ चम्मं भोत्तण उहृति, पच्छा ते तेणेव मुहेण लोहितं णीहरंति, अचित्तेसुवि एते गवादिसरीरेसु ॥३८८।।
संमुच्छंति, अगिनवमडेसु थावराणवि रुक्खाण संमुच्छंति, अचित्ताण विज्जुघणा ते जीवा, तेसिंणाणाविधाणं, इदाणि तिरिक्खजोणियाण अधिकारे चेव बरमाणा एगिदिया चेव बुचंति, तत्थवि पुव्वं आउकाईआ-अहावरं इहेगतिया सत्ता० सूत्रं ६०), जाब उबकमा, पाणाविधेसु तसथावरेसु एगडेमो कीरति तं सरीरगं जं तं आउकाईया, अहावरं डहेगतिया सरीरगं भविस्मति ताव संसिटुंति बाउजोणिओ आउकाईयो, उक्तं हि-'उन्मे वाते.' तमालस्स वातेण गम्भा संमुच्छति, वातसंगहिता संचि.
टुंति, समुच्छिमा पुण सत्ता आउकाइयत्ताए परिणमन्तीत्यर्थः, ऊर्श्वभागा ये हि भुम्यन्तरे आउकाओ संमुच्छति, बायरहरितमणुगादी, से उडु च तेहिं पुढविहितो उविवित्तो जो आगासे संमुच्छितो, अधोभागेहिं पाडिजति, धाराहि करगताए वा पुणो
परिणतो पाडिति, तिरियभागेत्ति जदा तिरियं भवं तिरिन्छ णेति णो पाडेति, स तु संमुग्छितो गुरुत्वाद्वातं पुण जनयति तद्विधानानि तु, तंजहा-ओसो हिमं जाव सुद्धोदए, सेसं तह चेव आलावगा। सव्येहिं काएहितो दुरधिगमा पुढवित्तिकाऊण तेण पच्छा वुचिस्मइ, अहावरं इहेगतिया अगणिजोणिया णाणाविहाणं तसथावराणं (सूत्रं ६१), सचित्तेसु अचित्तेसु आसन्नेसु ताव हत्थीणं जुज्झताणं दंतखडखडासु अगणी संमुच्छति, महिसाण य जुझताणं सिंगेसु अग्गी समुच्छति, अचेतणाणऽस्थि अडिगाणवि, एवं बेइंदियाणवि, तहा णं अट्ठिएसु जहा संभवति भाणितव्यं, थावराणं अचेतणाणं पत्थराणं आगासे, आगासे । आवडताणं अम्गी समुच्छति, अचेतणाणं उत्तराधरारणिजोएण अग्गी संगुच्छति, तहविधाणाणि तु इंगाले जाले चत्तारि आला- ॥३८८॥
[403]
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आगम
प्रत
सूत्रांक
[४४-६३]
दीप
अनुक्रम
[६७५
६९९]
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र -२ (निर्युक्तिः+चूर्णि:)
-
श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [ ३ ], उद्देशक [ - ], निर्युक्ति: [ १६९-१७८ ], मूलं [४४-६३]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र -[०२] अंग सूत्र [०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि :
पृथ्वी कायः
श्रीसूत्रकृ ताङ्गचूर्णिः
४ अप्रत्या
॥ ३८९ ॥
वगा। अथावराणं णाणाविधा, तसथावराणं वाउजोणीणं, णाणाविधाणं तस्थावराणं, ण विणा वाउकाएण वाउ (अगणि) आए संमुच्छंतित्ति काऊण जत्थ चैव सचिते वा अगणिकाओ संमुच्छति, एवं चत्तारि भाणितव्या ॥ इदाणि पुढविणाणाविधाणं तसधावंराणं सचितेसु य अचितेसु वा सप्पाणं मत्थए मणी जायति, हत्थीगवि मुचिया, मत्यएस सप्पाण य मन्छाण य उदरेसु, मणुस्सा| णवि मुत्तसकराओ, अचित्तानं पुणरिणमो कलेवरे छगणमादीणि लोणत्ताए परिणमंति, थावराणं सचितेसु हंसपब्वगेसु मोतियाओ | जायंति, अचिचाणवि लवणागरादिसु कटुमादि लोणत्ताए परिणमति, अगणीविद्वत्थानिगालादीणि लोणीहोंति, एवं चत्तारि आलावमा || इदाणिं सव्वसमासो-इहेगतिया सत्ता णाणाविधजोणिया णाणाविधा संभवा जे पुढचिजोगिया जहा सण्हपुढवीए सकरे पत्थर समुच्छति प्रवालकायस्कान्वादयः, आउजोगिया सरीरमेघजोगि, पुढवी पुढवीए, एवं सेमाणवि, शरीराण्येवाहारयति, कम्मुणा गई श्री गच्छंति, णिरयादी, कम्मुणा द्विती उकोममज्झिमजदृष्णिया, कम्मुणाऽऽरियादिविपजासो, जहा मणुस्सो णेरईओ होति, मणुस्सखेचा रइयखेत्तं गच्छति, काले-शेरइयकालं गच्छति, मणुस्सगतिभावा देवगतिभावं गच्छति, आयाणह अगुत्तस्माहारे नरकादिः विपर्यासो, तस्मात् गुप्तः गवसणा गहणे० घासेसणासमिते णाणादि ३, सदा नित्यकालं यावदायुः शेषं निर्वाणं वा गच्छति, गतो अणुगमो, इदाणिं गया-जाणणा 'णायंमि गिहितच्चे' सम्वेसिंपि गया०' इति आहारपरिण्णा सम्मत्ता ॥
एवमाहारगुप्तस्य सतः पापं कर्म न बध्यते, नाप्रत्याख्यानस्य इत्यर्थः तेनाध्ययनं अपञ्चक्खाण किरिया णाम, अनुयोगद्वारप्रक्रमः णामणिफण्णे अपञ्चकखाण किरियापदड्डाणं णामं ठवणा गाथा ||१०९॥ दव्यपचक्खाणंति दव्वेणवि पंचक्खाणं दन्यभूतो यां पञ्चक्खति, तत्र द्रव्यस्य द्रव्ययोः द्रव्याणां वा पचक्खाणं जो जं सचितं अचितं वा दव्यं पञ्चकखति तं दव्त्रं, तं
अथ द्वितिय् श्रुतस्कन्धस्य चतुर्थ अध्ययनं आरभ्यते
[404]
||३८९||
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आगम
(०२)
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [४], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१७९-१८०], मूलं [६४-६८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-०२] "सूत्रकृत' जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
प्रत
।
प्रत्याख्याननिक्षेपः
श्रीसूत्रक- सूत्रांक | तागचूर्णिः [६४-६८]
॥३९॥ दीप अनुक्रम [७००७०४]
साधू णवगेण य साधूण सचित्तादि सम्बदबाणि जावजीवाए पञ्चक्खायाई, सावगोवि य कोई जावजीवाए आउकार्य जं सव्यं सचि, कन्दमूलफलानि पञ्चक्खाति, कोड सचिनं आउकायं बजेइ, अचित्तं मञ्जमंसादि जावजीवाए पञ्चक्खाइ, कोई विगतीओवि मव्वातो जायजीवाए पच्चक्खाति, यदि हि ण वा कोइ सब्यातो पञ्चक्खति कोई महाविगतिबजाणं आगारं करेइ, साबगावि केवि जायजीवाए मझमंसादि वजंति, दवेण पञ्चक्खाणं जहा रजोहरणेण हत्थगतेण पचनाति, दव्वहेतुं वा पञ्चक्खाइ जहा धम्मिल्लम्स, दय्यभूतो वा जो अणुवयुत्तो, गतं दबपञ्चक्खाणं, अतित्थ समण! अतिस्थ भणत्ति पडिसेह एव, जहा कोह केणइ जाडतो कंचि भणति-ण देमित्ति, भावपचक्खाणं दुविध-मूलगुणउत्तरगुण ॥१८०।। गाहा, मृले सव्वं देसं च विभासा, गतं पञ्चक्खाणं, इदाणिं किरिया, सा जहा किरियावाणे, भावपच्चक्खाणेणाधिकारो, भावकिरियाए पयोगकिरियाए ममुदाणकिरियाए वा, तस्स रक्खणवा भावप्रत्याख्यान तदिह वर्ण्यते, कहं होई तप्पचइयं अप्रत्याख्यानित्वं ?, अप| चक्रवाणकिरियासु वहमाणस्स, अप्रत्याख्यानिनश्च किया कमत्यनान्तरमितिकृत्वा अवश्यमेव कर्मवन्धो भवति, ततः संसारो दुःखानि च इत्यर्थः, अप्रत्याख्यानं वर्जयित्वा प्रत्याख्यानं प्रति यतितव्यं, णामणिफण्णो गतो सुत्तालावे सुत्तं उच्चारेयव्यं-सुतं से आउसंतेणं भगवता० (सूचं ६४), इह खलु एतस्याध्ययनस्यायमर्थः-नत्र प्रत्याख्यानिनः आत्मनः पञ्चक्खाणं भवति | तदधिकृत्योच्यते, आता पश्चक्रवाणी अपञ्चक्खाणी यावि, भवति आत्मग्रहणं आत्मन एवापत्याख्यानं भवति, न घटादीनां, कतरस्थात्मनः?, यस्याप्रत्याख्यानक्रिया, क्रियत इति वाक्यपः, जस्म ताव मब्वे मावजजोगा पचक्खाया तस्य सब्यसावजयोगप्रत्याख्यान क्रिया क्रियते, यस्यापि देशप्रत्याख्यानं तस्यापि येन प्रत्याख्यान, तस्यापि ये न प्रत्याख्याताः सावजयोगा तत्प्रत्य
॥३९॥
[405]
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आगम
(०२)
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [४], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१७९-१८०], मूलं [६४-६८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
प्रत
अप्रत्याख्यानपाप
ताङ्गणि
सूत्रांक | [६४-६८]
दीप अनुक्रम [७००७०४]
श्रीसत्रक- यिकः कश्रियो भवति, प्रत्याख्यातेभ्यो न भवति, को पुण सो अपचक्खाणी ?, जो किरिया अशलो, धर्मार्थकामार्थमोधार्थ
वा क्रियमाणं कर्म क्रिया भवति, तद्विपरीता तु अशोभना क्रिया अक्रिया भवति, अक्रियासु कुशला अक्रियाकुशलाः, आह हि- ।।२९१| 'अनर्थेपु च कौशल्यं' अथवा न क्रियाकुशलः अक्रियाकुशलः, अजानक इत्यर्थः, घटात्मवाना, अकुशलशन्दस्य नान्यप्रति
RAI पेधः, आता मिच्छासंठिने यावि भवति मिथ्याप्रतिपत्तिः-मिथ्याध्यवसायः मिच्छासंस्थितिरित्यर्थः, तत्तो अतत्ताभिनिA वेशः, सो मिच्छासंद्विती एवं धर्मसाधुमत्यपानादिष्यपि योज्या, एवं तावदर्शनं प्रति मिथ्यासंस्थितिरुक्ता, आचार प्रति अनाचारो
आचारतणं भावेति, मायी उज्जुतर्ण भावेति, जहा उदायिमारओ, असिनमुढो वा, एगंतदंडेति न कस्यचिदपि दण्डं न FFAI पातयति, पितुरपि, कतो तस्य मरिसेति, पगंलबालोति णिश्चमेव इवेसु विसएसु अणिढेसु संपत्तेसु असंपकेसु दोहि चि आगलिञ्जड़ वालः, कार्याकार्यानभिज्ञात्वाहा मूढो बालः इत्यनान्तर, पगंतसुत्तेति यथाऽऽद्यखापसुप्तः शब्दादीनां विषयाणां सन्नि
प्टानां मत्युपादो न भवति एवं सहिताहितकार्यानभिज्ञत्वात् हिंसादिसु कर्मसु प्रवर्तते, एकान्तग्रहणं न पण्डितबालपण्डितमित्यर्थः, आता सविचार: विचरति यस्य कायवाङ्मनांसि स भवति सविचारः, मणवयणाययफे, तत्र मनोविचारः इदं चित्यं इदं मनसा प्रकृत्य, वाग्विचारस्तु इदं वाच्यमिदं न वाच्यं, काय विचारोऽपि इत्यं मया न कर्त्तव्यं इत्थं च कर्तव्यमिति, विचारमणवयणकायवकोसि तुमं, न किंचि कुशलमकुशलं या मनसा चिन्तयति, वाचा न ब्रुवते, कायेन स्थाणुरिव न चेष्टस्तिष्ठति,
तस्यापि तावत्कर्म बध्यते, किमंग पुण सविचारमणवयणकायवकस्स', आह-पुनक्यिग्रहणं पुनरुक्तं, उच्यते, एककालं कदा। चिढा युगपत् योगित्वात् एवं सूक्तं भवति, उक्तं च-'काए बहुअज्झप्पं सरीखाया', आता अपडिहतपञ्चक्खातपावकम्मे यावि
॥३९
॥
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आगम
(०२)
प्रत सूत्रांक
[६४-६८]
दीप
अनुक्रम
[ ७००
७०४]
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र - २ (निर्युक्तिः+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [ ४ ], उद्देशक [ - ], निर्युक्ति: [ १७९-१८० ], मूलं [६४-६८]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र -[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
श्रीसूत्रवाङ्गचूर्णिः ॥३९२॥
भवति, पहितं पञ्चकखातं पडिसेधितं निवारितमित्यर्थः, ण पडितपञ्चकखातपावकम्मो अपडितपञ्चकखातपावकम्मे य, आह पुनरुक्तं प्रागुक्तं, आता अपचक्खाणी यावि भवति, इदानीमवि अपचक्खाणगहणा पुनरुक्तं, उच्यते, तत्राप्रत्याख्यानी उक्तो, नतुकं किमस्याप्रत्याख्यानमिति १, इह तु अप्रत्याख्यातस्यैतत्कार्यानि चा पडिहतादि, यच्चाप्रत्याख्यानी न प्रत्याख्यानि तदुच्यते, किंचिद् हिंसादि पापकर्म्म तदस्याप्रत्याख्यानं अपडिहतपचक्खातं, इह खलु एप इति यः उक्तः अपचक्खाणी ण तु देसमचक्खाणी वा स एव च असंजतो अविरतो यको असंयतो अविरतो यत्तिकाउं असंजतो अविरतो या अप्पडितपञ्चकापाचकम्मे सकिरिए असंबुडे एकतदंडो एवं जाव एतदंडो सुत्तो एस वालेति वाले अवियारमणवयणकायवकेत्ति, अधिकरणे अपsिहतपचखातः सुविणमवि ण पस्मतित्ति केसि खमान्तिकं कर्म चयं न गच्छतीति, अस्माकं तु स्वमान्तिकं कर्म्म अविरतप्रत्ययाद्वध्यते, सो अ पुण असंजते अविरते जाव अविचारव के अप्येकं खममपि न पश्यति यत्र प्राणवधादिकर्म कुर्यात् तावि य से पावे कम्मे कज्जति बध्यते इत्यर्थः स्थापनापक्षः तत्थ चोदए पण्णवर्ग एवं वदतं वयासी (सूत्रं ६५) कार्य सद्भिः मनोवाक्काययोगैराश्रवहेतुभिः कर्म वध्यते इति युक्तमेतत् यत्पुनरुच्यते-असंतपणं मणेणं पावएणं असंत एणं, असंता विद्यमान अमनस्कत्वाद्विकलेन्द्रियाणां संज्ञिनां तु अप्रयुज्यमानेन मनसा एगिंदियाण वाया णत्थि जेसिपि अस्थि तेसिंपि अप्रयुज्यमानया वाचा कायः सर्वेषामप्यस्ति त्रिभिरपि योगैरविचार जाववकस्मत्ति, सुविणमधि अपस्तो हिंसादि पावकम्मे णो कुञ्जति, दृष्टान्तः आकाशं यथाऽऽकाशममनस्कत्यानिश्रेष्टत्वाच्च कर्मणा न वध्यते एवं तस्यापि बन्धो न युक्तः, कस्स णं तं हेतु ? कस्माद्धेतोरित्यर्थ अथ कसाद्वैतोः कर्म न बध्यते ?, उच्यते--- अयोगित्वात् इह हि अष्णतरेणं अण्णतरमनस्कस्य
"
[407]
अप्रत्याख्यानपापं
॥३९२॥
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आगम
(०२)
अविरतिबन्ध:
प्रत
सूत्रांक [६४-६८]
दीप अनुक्रम [७००
भाग-2 “सूत्रकृत" - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [४], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१७९-१८०], मूलं [६४-६८] श्रीसूत्रक
निरुद्ध विचारमनःप्रयुक्तमनोवाकायकर्मिण इत्यर्थः, अप्येक खमं पश्यतः एवंगुणजातीयरय गुमाभिनिवेशः क्रियते, अथवा पंध वाङ्गचूर्णिः
प्रति गुण एवासौ भवति येन बाते कर्म, युक्तमेतत् , तस्य इच्चेवमासु एषमाख्यान्ति, असंतएणं एवं वईए कारणं तस्स अम॥३९३॥
वणवकस्स अविचारजाववकस्म सुविणमवि अ पाये कम्से कजति, जे ते एवमासु मिच्छं एकमाईसुवा, चोदकः पक्षः, एवं वदंतं चोदगं पण्णवगे एवं वयासी-जं मया लत्रु गृत्तं स्यात् , किमुक्तं ?-असंतएण मणेण पावएणं जाव पावे कम्मे कजति तत्सम्यक न मिथ्येत्यर्थः, कस्स णं तं हेतुं कसावेतोरित्यर्थः, तत्थ छजीवनिकाया हेतु, न व्यापादयितव्याः, इतिहेतुरुपदेशाप्रमाणे, संजहा-पुढविकाइया जाय तसा, इचेहिं छहिं जीवनिकाएहिं कदाचिदपि न तस्य अवधकचित्त मुत्पद्यते, अनुत्पद्यमाने |च अवधकचित्ते तस्याप्रत्याख्यानिनः तेसु आता अपडिहतअपञ्चक्खानपारकम्मो, अपडिहतअपचक्खातपावकर्मत्वादेव चास्य णिचं पसढ जाव दंडे, णिचं सन्नकालं, भृशं शार्ट प्रशठ, मततं निरन्तरमित्यर्थः, विविधो अतिपातः, अतिपाते अतिशब्दस्य । लोपं कृत्वा वियोपाते इति भवति, तेन वियोपाते चिचदंडे, तंजहा-पाणातिवाते, वर्तमानस्येति वाक्यशेपः, तत्र प्राणा 'छकाया | पुढवादि' एवं मुसानादेऽवि, अपडिहत अपचक्खातपायकर्मत्वादेव णिचं पसहँ अलियभासणे चित्तदंडे, अदिणाहाणेवि णिचं पसदं
परस्वहरणचित्तदंडे, मेथुणे णिचं देवादिमेथुणसेवणे पसदचित्तदण्डे न किंचि दिव्यादि मैथुन परिहरतीत्यर्थः, सर्वपरिग्रहगहणं |पमदचित्तदण्डे न किंचिन्न परिगृहातीत्यर्थः, कोहेण ण कस्स न रुस्सइ अप्येव मातापित्रोः पुत्रस्य वा, एवं सेसेसु विभासा, मिच्छाMC सणं प्रति, तम्हा ते चेव मिच्छत्ते पसहचित्तदंडे संसारमोचकवैदिकलोकायतिलोक० श्रुत्यादिभिःभावितान्तरात्मा, न
शक्यते तस्मादसगृहान्मोचयितुं, स्थादेव बुद्धिः-अकुर्वतः प्राणातिपातं कथं तत्प्रत्ययिक कर्म वध्यत इति प्रतिज्ञा, स एव च
७०४]
॥३९३॥
[408]
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आगम
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भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [४], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१७९-१८०], मूलं [६४-६८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
प्रत
सूत्रांक |
वधकदृष्टान्ता
[६४-६८]
दीप अनुक्रम [७००७०४]
श्रीमत्रक- पूर्वोक्तापडिहतपच्चक्खातपापकर्मत्वादिभिर्हेतुमिनिदर्शनं, तत्थ खलु वधएहि दिलुते, से जहाणामए वहए गाहावइस्स वा जाव तागचूर्णिः रायपुरिसस्म वा कोई ताव पिति अविरोधेवि पुत्तं वा मारेति, कोइ पुत्त अविरोधे पितरं मारेति, कोइ दोवि ते मारेइ, अण्णं किंचि ॥३९४॥
अकोसवहदंडावणादि दुक्खं उप्पातयति, एवं राजा रायपुरिसाणवि विभासा, स तु अपकृते वा वधखणं णिदाएचि-अप्पणो खणं A/ मत्वा साम्प्रतमक्षणिकोऽहं कर्षणेन तावत्करोति पुत्रं विवाहं च रोगतिगिच्छं वेत्यादि पश्चातधयिष्यामि खणं लदधति यावत्तस्स
छिद्रं लभे, तम्य खणो, एवं चत्तारि भंगा, नागार्जुनीया अप्पणो अक्खणत्ताए तस्स वा पुरिसस्स वा छिद्रं अलब्भमाणे णो HEबहेति तं जदा मे खणो भविस्सति, तस्स वा पुरिसस्स छिद्रं लभिस्सामि तदा मे पुरिसे अवस्सं बधेतव्वे भविस्सति, एवं मणे । । पहारेमाणेत्ति एवं मनः प्रधारयन् सङ्कल्पयन्नित्यर्थः, सुत्ने वा जागरमाणे वा, सुत्ने कथं पठ्यत इति चेत् ननु सुप्तोऽपि स्वमं किल पश्यन् तमेवामित्रं धातयति, तद्भयाद्वा अति, तं वाऽमित्रं न पश्यन् तं भयादनुधावति, किंचान्यत्-प्रत्याख्याने च आचाराद् अनाचारतश्च प्रत्याख्याता, उक्तः संक्षेपः, चत्तारो वणिजः दृष्टान्तः, मित्र एवामित्रभृतः अमित्रीभवतीत्यर्थः, मित्रस्सं तिष्ठतस्स ठाणे यद्यपि किंचिदुत्थानासनप्रदानादिविनयं विधमहेतुं पूर्वोपचाराद्वा कस्यचित्प्रयुक्त तथापि दुष्टत्रण वान्तर्दुष्टत्वादसौ असद्भावोपचार इति, असद्भावोपचारात् इतिकृत्वा मिथ्यासंधितो चेव भवति, णिचं पसदं जहा वीरणस्तम्बस्य अण्णोऽणेण गतमूलो दुक्खं उब्वेढेतुं एवं तस्सवि सो वधपरिणामो वैरा दुःक्खं उव्वेढेतुं, मारेऊणवि पा उवसमति, जहा रामो कत्तबीरियं पितिवधवेरियं मारेऊणवि अणुवसंतणेण सत्त वारा णिक्खत्तियं पुढविं कासी, आह हि-'अपफारसमेन कर्मणा, न नरस्तुष्टिमुपैति शक्तिमान् । अधिकां कुरुतेऽरियतनां, द्विपतां मूलमशेषमुद्धरेत् ॥ १॥' एप दृष्टान्तः, अथो एवमेव बालेवि सव्वेसिं पाणाण जाव
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भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [४], उद्देशक [-], नियुक्ति : [१७९-१८०], मूलं [६४-६८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
दीप
प्रत श्रीसत्रक- सत्ताण अविरतत्वात् अमित्तभूते मिच्छासंठिते णिचं विउवाते अप्रत्याख्यानत्वात् प्राणातिपातस्य तत्ातिकेन कर्मणा जस्स दिया) वधक-. तागचूर्णिः वा रातो वा जाय जागरमाणो वा बध्यते. यथा तस्य राजादिधातकस्य अनुपशमिते वैरे घातकत्वं न निवते एवमस्यापि अप्र-14
A दृष्टान्तः सूत्रांक | ॥३९५॥
त्याख्यानिनः सर्वप्राणिभ्यो बैरं न निवर्चते, अनिव्वते च बैरे प्राणवधप्रत्ययिकेन कर्मणा असौ बध्यत एवेति, उक्तः उपसंहारः, [६४-६८]
निगमनस्यावसरः, 'प्रतिज्ञाहेत्वोः पुनर्वचने निगमन मितिकृत्वोच्यते--तसादपडिहतपच्चक्खायपापकर्मत्वात् तस्य अकुर्वतोऽपि
प्राणातिपातं तत्प्रत्ययिकं कर्म बध्यत इति, पंचावयवमुक्त, एवं मुसाबादादीसुवि योजयितव्यं जाव मिच्छादसणसल्ले, इकेके अनुक्रम
पंचावयचं, एस खलु भगवता अक्खाओ असंजते अविरतो अपडिहतजावपावकम्मे, एवं पणवतेण वहगदिटुंते उपसंहते चोदक ||
आह-जहा से वधके तस्स वा गाहावडस्स जाब पुरिसस्म पत्तेयं पत्तेयं वीप्सा, एककं प्रति प्रत्येकं, कोऽर्थश्च ?-यस्मिन् तस्या[७००
Si|| पतं तस्मिन्नेव तस्य वधकचित्तमुत्पद्यते नान्यत्र, अन्न बसौ वधकः प्राप्तमपि तत्संबंधिनं पुत्रमपि न मारयति, तस्मिन्नेव कृता-IN | गसि चैरिणि तद्वधकचित्तं मनसा समादाय गृहीत्वा इत्यर्थः, अमुक्तवैरः दिया वा रातो वा जाव जागरमाणे अमित्त० जाव
चित्तदंडे एवामेव वाले, एवमवधारणे, एवमसौ बाल: सम्बेसि पाणाणं, किमिति वाक्यशेषः, पत्तेयचित्तं समादाय, कतरं चित्तं | समादाय !, वधकचित्तमित्यर्थः, दिया था जागरमाणे वा राओ वा अमित्रभृते, मिच्छास० णिचं जाय दंडे भवति, सो चेत्र
चोदओ एवं पच्छा भणति, णोत्ति, स्यादुद्धिः-कथं न भवति ?, पच्छा सो चेव चोदओ भणति-इह खलु इमेण समुस्सएण शरीरं | HO चक्षुरादीणां इन्द्रियाणां मनसञ्चाधिष्ठानं इमेनेति मदीयेन, पण्णवर्ग वा भणति-त्वदीयेन चक्षुषा, तदीयेन चक्षुषा न दिट्ठा पुवा
सूक्ष्मत्वात्सनिष्टा अपि, स्थूलमूर्चयस्तु विप्रकृष्टत्वान दृश्यंते, तस्मान्नो दृष्टा, श्रोत्रेण न श्रुता, मनसा न श्रुता, एमिरेव त्रिभिः ||३९५॥
७०४]
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(०२)
प्रत
सूत्रांक
[६४-६८]
दीप
अनुक्रम
[ ७००
७०४]
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र - २ (निर्युक्तिः+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [४], उद्देशक [ - ], निर्युक्तिः [१७९-१८० ], मूलं [६४-६८ ]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र [०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
श्रीसूत्रक
ताङ्गचूर्णिः
॥ ३९६ ॥
संज्ञि
दृष्टान्तः
चतुःश्रोत्रमनोभिर्यथाविषयं न श्रुतं श्रुतैरपि विज्ञाता न भवन्ति, जम्हा य ते तेण ण दिट्ठा वा सुता वा विष्णाया वा अणवकारिणो अणुपयुज्यमानाथ इत्यतः तस्य तेसु णो पत्तेयं दिया वा जाव जागरमाणे या अमित्त जात्र दंडे, कथं भविष्यति इति डिसेडो अणुवत चैत्र, एवं चोदएण वृत्ते पण्णवतो भर्णाते-जइनि तस्स अपचक्खाणियस्स अणवकारेसु अणुवजुअमाणेसु यतः मनि विप्रे वधचित्तं ण उप्पअति तहावि सो तेसु अविरतिप्रत्ययादमुक्तवैरो भवति ॥ तस्स भगवता दुविधा दिहंता पण्णत्ता, तंजहा- संनिहिंते असंनिदिते य (सूत्रं ६७), संज्ञा अस्यास्तीति संज्ञिकः, न संज्ञी असण्णी, असंज्ञी दृष्टान्तः क्रियते, संज्ञिदिते २ इमे संणिपंचिदिया पंचहिंदि पजतीहिं पञ्जतगा एतेसिं छज्जीवनिकाए पहुच बुधति, कायग्गहहिं एते जीवनिकाए आरभ्यते, न या आरभ्यंते, यां प्रतीत्यापि वैरिणो, वैरिणो वैरं च सूयते अविरतस्य, से एगओति चोदओ चति, तुमं वा अण्णं वा कोई इह पुढविकारण, पुढवित्ति सर्वा एव पृथिवी अविशिष्टा, तद्विशेषास्तु लेलुसिलोपललवणादयः कृत्यन्ते, तेन तेसिं तस्माद् तद्वेति, तेनेति सिलं वा लेलुं वा खिवड़, लवणेण वंजणं लवणयति, तस्मिन्निति चंक्रमणादि करोति, तस्मादिति मृतपिण्डात् घटादि करोति, तदिति तदेव मृद्रव्यं भक्षयति, एवं तावत्स्वयं करोति, अण्णेण वा कारवेति, तेहिं चैत्र
हिं मारिहि तेन तस्मिंस्तस्माद्वेति णो चेव णं तस्स एवं भवति-इमेण वनि, तंजहा - कण्डमट्टिआए वा ५ जाव से जा आवडिति, आसण्णे वा दूरे वा, कण्हा वा जाव पणगमत्तियातो, एतया किंचि ?, लिंपणअक्खणणसोयादी करोति, अण्णेण वा, जति यविय से एगबजाए कर्ज तहा तहा विसेसमावण्णः वर्णत्वे सति अण्मेण वा गुणान्तरे तुल्यगुणाए, णो एवं भवति अनुगाय या २ स्थानादीनि करिष्यामि, जत्थ से समावडति, तद्यथा-चिडवणं णिसीयणं वा उच्चारादिवोसिरणं या, स एवं तो पुढविका ॥ ३९६ ॥
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भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [४], उद्देशक [-], नियुक्ति : [१७९-१८०], मूलं [६४-६८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत' जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
NORN ..
असंनिदृष्टान्तः
दीप
प्रत श्रीमत्र-10 यातो मयाओ चेव अपडिहनपञ्चकवानपायकम्मे याचि 'भवति, से एगे आउ० पदाणपियणसेअगभंडोगरगधुवणादी, जंड विसेमो सूत्रांक | तानचूर्णिः | भवति स्वादुउदकादिपु तथापि समाम्खादाविशेपो, तेउकाएणवि पयणविपाचणप्रकाशादि, स्वात् धातुवादिको, महिपच्छगगादि
||३९७॥ [६४-६८]
विशेषस्तथापि महिपीछगणेसु अविसेसो, एवं अग्गिम्मियादीणं खदिरांगोरादिषु विसेसेऽवि समाणासु खादिरंगालेसु अविसेसो, एवं बाउकाएणवि विधूवणवीयणादिस, धुवणनावागमणादिसु वणस्सतिकाएणं, कंदादिममाणे विभामा, तसकाएणं येइंदियादि
समाणे विभासा, तदुपयोगस्तु पानबहनआज्ञापनमांसाधुपयोगादि, से एगदओ छहिं जीवनिकाएहिं किचं करेति कारवेहवा, छहिं अनुक्रम
जीवनिकाएहिति संयोगेण तिगचउप्पंचछसंयागा विभासितचा, तत्थ संयोगे दबग्गिणिद रिसणं, जहा कोइ वणदवं विझवेमाणो [७००
धूलि तत्थ छुभति पाणियपि अगणीवि पतिदवं देति वातपि बाहविक्षोभणादीहिं वणस्मई रुक्खमालिमादीहि, तमा च
तेसु व कापसु संसिता सुन्निगउवयोगादिणा गोधं वा पुच्छं घेतृण ताए ममेति, ण पुणाई से एवं भवति इमेणं या इमेण वत्ति. ७०४]
दुगसंयोगेण वा जाव छकायसंयोगेण वा, णिचं करेंतिवि, ण कदाइ उवरमति, असंजते जाव कम्मे, नंजहा-पाणातिवाने, एवं|| मुसाबातेऽवि, ण तस्म एवं भवति-इदं मया वक्तव्यमनृतं इदं नो वत्तव्यमिति, से य ततो मुसाबाआतो तिविहेण असंजते, अदिण्णादणे इदं मया घेत्तवं अमुगस्म प, मेथुणं इमं सेवि इमं ण, परिग्गहे इमं घेतव्यं दमण, कोहे इमस्स रुसितव्वं इमस्स ण, एवं जाव | परपरिवाए इमं वा विभामा, मियादसणे इमं तश्चमिति शेपमतच्चमिति, स्याद्विचारणा ण भवति, अभिग्रहे तु मिच्छादंमणे यनेनामिगृहीतं तत्तस्य तवं प्रतिभामते, सेसेसु अणमिग्गहिए ण तस्म एतं भवति इमं तच्चमिमं अतचमिति, एम खल अक्खाते असंज तेतस्याकुर्वतोऽपि हिंसादीणि पापानि अविरतत्वात्कर्माजस्रमाश्रवत्येवेति सिद्धान्ती, सेनं समिणदिटुंतो।। से कितं अस-
३९७||
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भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र -२ (निर्युक्तिः+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [४], उद्देशक [ - ], निर्युक्तिः [१७९-१८० ], मूलं [६४-६८ ] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र -[०२] अंग सूत्र [०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि :
प्रत
सूत्रांक
श्रीसूत्रक्रताङ्गचूर्णिः
[६४-६८ ] | ॥३९८ ॥
दीप
अनुक्रम
[७००७०४]
us on Sep
त्रिदिते ?, असणिदिते संज्ञीनामसंज्ञीनां मनः सद्रय्यतया तदभावाच्चावश्यं तीव्रतीवाध्यवसाय कृतो विशेषः प्रसुप्तमत मूर्च्छितेतदिति विज्ञेयः, जे इमे अमणिणो तंजहा पुढविकाए वा जहा छद्धा वेगतिया तसा पाणा, ते तु बेदिया जाव संमुच्छिम पंचिदियतिरियक्खजोणिया, संमुच्छिममणुस्सा य, जेसिं णत्थि तकाइ वा जाब वईति वा तेषां हि मनःसद्व्यवायाभावात् प्रभुसानामिव पहुंविज्ञानं न भवति, तदभावे चैपां तर्कादीनि न संभवति, तर्कों मीमांसा विमर्श इत्यनर्थान्तरं यथा संज्ञिनः स्थातुपुरुपविशेषाभिजा मन्दप्रकाशे स्थाणुपुरुपोचिते देशे तर्कयंति किमयं स्थाणुः ? पुरुष? इति, एवमसंज्ञिनां ऊर्ध्वमात्रालोचना तर्का न भवति स्थाणुः पुरुषो वेति, संज्ञानं संज्ञा पूर्वे दृष्टेऽर्थे उत्तरकालमालोचना, स एवायमर्थ इति प्रत्यभिज्ञानं प्रज्ञा, भृशं ज्ञा प्रज्ञा, अव्यभिचारिणीत्यर्थः, मननं मनः मतिरित्यर्थः, सा चावग्रहादिः, वयतीति चाकू जिहेन्द्रियगलविलास्तित्वाद्यपि, वागू विद्यते द्वीन्द्रियादीनां त्रसानां तथाप्येषां पापं हिंसादि करोमि कारयामि चेत्यध्यवसायपूर्विका न वाक् अवागेव मन्तव्या सदसतोविशेषात् यच्छोपलब्धेरुन्मत्त सुप्तमतप्रलापवत् घुणाक्षरवद्वा स्वयं पापकरणाय अण्णेहिं वा कारवेति य, यद्यपि न कारयन्ति न कुर्वन्ति स्वयं तहवि णं बाला, सव्वेसिंपि पाणाणं ४, अविरतत्वात् दिया चा रातो जाव अमित्तभूता मिच्छा णिनं पसद जाय दंडात पाणावांत, तं जहा मुसावादेऽवि, जधा धूओ अध्रुवः विधुवत्वाच कम्मणो ण मुमाचाता विरतो भवति, एतेऽवि अमामता अव्यक्ति चिकिचिकशब्दं करेमाणा मुसावातातो न विरता भवति, अध्येवं संज्ञीनां वाच्यावाच्यविशेषोऽस्ति तेषां तु तदभावात् सर्वमेवमिच्छा भवति, अदत्तमपि तेषामिदमस्मदीयं परकियमिति विचारणाऽसम्भवात् अदत्तादानं सर्वे स्तेयं भवति, यद्यपि किंचि काष्ठाहारकादि ममीकुर्वन्ती तथापि तत्तेषां केन दत्तमित्यदत्तादानं भवति, मैथुनमपि मक्षिकादीनि नपुंसकं वेदं वेदयंति, आहार्येषु
[413]
असंज्ञि
दृष्टान्तः
||३९८||
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भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [४], उद्देशक [-], नियुक्ति : [१७९-१८०], मूलं [६४-६८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
असंधिदृष्टान्तः
दीप
प्रत
भीत्रक-ID|च द्रव्येषु परिग्रहः, क्रोधोऽप्येपा, न तु तीवः, जाप मायामोमोचि विभासा, मिच्छत्तं अणमिगहितं, इथे जाण णो घेव मणो
| तानचूर्णिःणो चेव वई पापं कर्तुं कारयितुं वा सम्वेसि पाणाणं ४, कतरेसिं सत्ताणं असण्णीणं दुक्खणत्ताएत्ति दृक्खावणाए, परितावणं [६४-६८]| ॥३९९॥AVI मागणं वा दक्खवणं वा, खजनधनविप्रयोगो शोका, जीरणं जूरणं स्वजनविभवानामप्राप्तौ प्राप्तिविप्रयोगेन, त्रीण्यपि कायवाइम
नोयोगान् तापयति तिप्पावणा सर्वतस्तापयति परितापयति, बहिरंतश्रेत्यर्थः, अमण्णी सण्णिमादि, मच्छो मच्छं, मणूसोवा, खज
माणस्स जं दुक्खं ततो सो दुक्खावणातो अपडिविरते, विभावैः दुक्खतोवि दुक्खावेति, तच्चाधनानां सधनानां च तस्मिन्नष्टे मृते वा अनुक्रम
शोको भवतीत्यतो शोचावनादविरता, झूरेति जेसि बंधुविप्रयोगं करोति जे वा तदक्षिते णो जीवंतिण मरेंति ते झूरति, त्रिमिस्ता[७००
पयति तानेव भक्षमाणा परितापयति न, तद्वान्धवाश्च, असंणिणोषि ते संणिणो इव ते दुक्खाति, जेसि मणो नस्थि तेवि मणबजेहिं ७०४]
दोहिं, दोविति सोगेवि तेसि मुच्छितो भवति, इच्छेवं तस्स सण्णी असण्णी वा दुक्खावणा जाव परितावणातो अपडिविरता, पधस्तादणं मारणं वा सिंगखुरादीहिं विसंताण गवियाओ, एतेहिं चेव वहांधणादीहि परिकिलेसेन्ति केई, आख्यायन्ते चन्धमोक्षवितद्भि| स्तीर्थकरैः णिचं मुसाबादे उवजीवसि, देसणसण्णे उबउ, असण्णिदृष्टान्तद्वयं किमनेन साध्यते ?, सणिणो य अहर्णता अमर्णता | य अविरतत्वाद् बध्यते, तथा चावभाषितं च जे मणेण णिवत्त निक्षेपाधिकरणं णिक्खिविणो संजोयणि णिसरणंति अधिकरणं |णिव्वचितं अवसटुं च, स तेण परंपरभवगतोवि अणुवमति, तज्ज्ञापनार्थमिदं सूत्रं-'सबजोणियावि खलु सत्ता' कामं सर्वे योनिग्रहणादिदहणप्रयोगयोगा कायच्या, इह खलुशब्दो विशेषणे, ग्रहणात्कायग्रहणं मंतव्यं, कायाधिकारश्चानुवर्तत एवेति, तत्थ पंच काया तसकायवजा, णियमा असणी, तसावि इंदिया तेइंदिया चउरिदिया तिरियमणुस्सा य समुच्छिमा असण्णी, जे संमु
॥३९९
AV
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भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [४], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१७९-१८०], मूलं [६४-६८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
प्रत
सूत्रांक |
धीस्त्रक- वाचूर्णि ॥४०॥
असंज्ञिदृष्टान्तः
[६४-६८]
दीप अनुक्रम [७००७०४]
छिमेहितो उववजंति णेरड्यदेवेसु तेऽपि जाव अपजत्तगा ताव असणी चेव, सणी होजा अमण्णी, सण्णी जहा भवति तो अभिविभागाय, निसर्गतः सिद्धाः, त एवं कश्चिन संज्ञी या जीयः निसर्गसिद्धा, तत्र भूयश्च ज्ञानावरणीयकर्मोदयादसंजीवं, तत्त्क्षयोपशमात्संजित्वं, 'पूर्व यच्चाचितं द्वयोरिति तेन संजिनः पूर्व, तत्प्रतिपक्षातु पुनः प्रतिषेधः क्रियते, न संजी, तत्र संज्ञिना व्याख्याने इतरेषु निवृत्ताः कथाः तेन संज्ञिनः आदावभिधीयते, यत्रापि त्रसथावरा तत्रापि सुरासुरवदयपदेशादेवं क्रमो भवति, जहा जागरमाणो पुरिमो स्वपिति निद्रोदयात् निद्राक्षयाच पुनः प्रतियुध्यते प्रतिबुद्धश्च पुनः स्वपिति, एवं संज्ञित्वं जीवानां नैमित्तिकं न निमगिफमिति बोदव्यं, यस्माक्षेपी कायानां न निमर्गो संजित्वमसंज्ञित्वं वा तस्मादन्योऽन्यसंक्रमत्वमविरुद्धं, अविरुद्धं च तस्मिन् गतिप्रत्यागतिलक्षणं युक्त, यतोऽपदिश्यत्ते होज सणि अवा अमणि, तत्थ से अबहिया 'विचिर पृथग्भावे' अविविन्य जानावरणीयादि कर्म प्रथक्त्वेत्यर्थः, विविऽपि अविशोधितं भवति, यदृच्छिष्ट ऊहनोखावत , जहा मेरइओ साबसेसेण चेच कम्मेण उच्चट्टिय पदणुवेदणेसु तिरिक्खजोणिएसु उववाति, देवाविप्रायेण सुहट्ठाणेसु चेयुववअंति, उक्तं हि-"कवित्वमारोग्यमतीव मेधा०' अबिधूणिय जहा धूणिय पोडलगं परिद्ववेऊण वत्थं पुणो धोवेति, कंबली वा पी , पूणो पुष्फो उज्झति, एवं सच्चे विधुत्ते पुणो तत्शेष विशोधयेत् , अममुच्छियंति 'छिदिर द्वैधीकरणे अममुच्छिन्नं रिणवत् , अहवा 'सृज विसर्गे अनुत्सृष्टं मित्रकलत्रवत् , अणणुतापी यो तेहिं हिंमादीहिं श्रामबदारहिं तं पावं उचितं ताई काऊण गाणुतप्पति, हा! ४ कयंति, अहया सन्याणि एगट्टियाणि, अक्खवेतुं पुढविकाइयाण चित्तगाणि कम्माणि जे य तमा असण्णी मण्णी वा तन्निर्वर्तकानि च नामादीनि कर्माणि ताईपि अविप्पजोग अणुताविविय तैः स्वकर्मकतैः कर्मभिः अनुविधाः सणिकायातो वा तन्नेरइयदेवगम्भवतियतिरियमणु
॥४०॥
[415]
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आगम
(०२)
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [४], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१७९-१८०], मूलं [६४-६८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
प्रत सूत्रांक | [६४-६८]
दीप
अनुक्रम [७००७०४]
श्रीस्त्रक- ID सत्तविभचासु, सेसा असण्णी, तं सष्णिकार्य संकमंति, भंगा जे संगी वा असंणी वा जहा एगे गामनगराई वा अन्योऽन्यसंक्रान्त | मिथ्याताङ्गचूणिः
चारादि | गत्यागतप्रत्यागतलक्षणानुवर्तिनः असंशिनः संझिनो वा दृष्टान्तद्वयेनोपसंहृताः तेषां सर्वेषां मर्पणं, अधुना सर्वे ते मिच्छाचारा १.४०१॥ | अप्रत्याख्यानत्वात् , कथ?, सर्वकडकविपाकं सुचरितमपि पुद्गलस्य मिथ्यादृष्टेः, इदानि चरितार्थस्यापि सूत्रस्य निग
मनाथं पुनरामत्रणं क्रियते, अपचक्खाणित्वात् सबजी येसु णिचं पसढदण्डे सर्वाश्रयद्वारेषु, तानि चैतानि तंजहा-पाणातिपाते जाव मिच्छादमणसल्ले, एवं खलु भगवता अक्खातो, चोदगं पण्णवगो एव भणति यदुक्तवानिति, आदौ अहणतस्स अणक्खस्म) पायकम्मे णो कजति तदेतत् एवं खलु एवमधारणे यथेतदाऽऽदायुक्तं वधकदृष्टान्तेन सणिअसणिदिलुतेहिं एवमसावप्यग्रत्या-17 | ख्यानी असंजते अविरते जाव सुविणमपि ण पासति पावे य से कम्मे काति, एवमुपपादिते अप्रत्याख्यानी अविरत इत्यर्थः,
स चाविरती हिसाथैः, तेण पाणाइवातेणं, जाव परिम्गहे, क्रोधो जाव लोभेति कसाया गहिता, पेजा दोसेत्ति कपायापेक्षावेव | रागद्वेपौ गृहीती, कलह जाब अविगतित्ति गोकमाया गहिता, ते य रतेसु चेव दोसेसु पाणवधादिसु समोतारेयव्या, मिथ्यादरि| सणाविरतिप्रमादकपाययोगाः पंच बन्धहेतवो एतेसु पदेसु विभासितव्या, उक्तमप्रत्याख्यानेन अप्रत्याख्यानवतां क्रिया च भवति, | कर्मचन्ध इत्यर्थः, तद्विपाकस्तु शारीरमानसा उड़काओ वेदणाओ तंजहा-उजलतिउजला जाब दुरधियासे, जे पुण संजतविरत| पडिहतपच्चक्खातपावफम्मा भवति तस्स किरिया ण भवति, कर्मबन्ध इत्यर्थः, तद्भावा नरकादिपु नोपपद्यते, एवं सो चोदओ पचक्खाणकिरियाफलनिवागं सुणेत्ता भीतो तत्थ जाव संजते तओ पण्णवर्ग वंदित्ता एवं पुच्छति-से किं कुब्वं किं कारवं? संजतविरतजावकम्मे भवति (सूत्रं ६८), सेत्तं सोडे, किमिति परिप्रश्ने, किं कुचं, व्रतं तयो धर्म नियमं शीलं संयम ४०
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आगम
(०२)
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [४], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१७९-१८०], मूलं [६४-६८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सूत्रकृत' जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
आचोरनिक्षेपादि
प्रत सूत्रांक [६४-६८|
दीप अनुक्रम [७००७०४]
श्रीसूत्रकतागचूणिः
॥४०॥ २ श्रु.५अ.
वा संयमविरयजावकम्मो भवति, जेण मुचेज सम्बदुक्खाणं, कि कारवति किमन्यं कारयन्ति, शिष्याचार्ययोः संबंधो दर्शितः, धर्मकथासम्बन्ध इत्यर्थः, आचायों ब्रवीति-तत्य खलु भगवया काया हेऊ पण्णत्ता, जहा च पचक्खाणिस्स संसारस्स ते हे छजीवनिकाया ते चेव हेऊ मोक्खाय, तत्थ निवृत्तस्य पुनः आगंतुं सुहदुक्खतुल्लणं णातुं भिक्खू विरतो पाणाइवातातो जाव सल्लातो, तहेव प्राणातिपाताया मिथ्यादर्शनावसानाः संसारहेतवो, विपरीता मोक्षहेतवो भवंति, उक्तं हि-'यथाप्रकारा यावन्तः तेनोच्यते-एवं से भिक्खू विरते पाणाइवाताओ जाव सल्लातो, से भिक्खुः अकिरियाए जाव संबुडे, जं पुच्छिते सुहम्मा कथं संजतो भवति ?, तदेवमाख्यातं-एवं खलु भगवता आख्यायते संजते जार संवुडे, एगंतपंडिते यावि भवतिति वेमि ॥ इति पञ्चकग्वाणकिरिया सम्मत्ता।।
एवं पडिहयपश्चक्खायपावकम्मरस आयारो भवति, एतेन आयारसुत्तज्झयणं, पडिपक्षेणं अणायारसुत्तं, पदद्वयं, आचारो णिक्विवियव्यो, इकिके चउकणिक्खेबो-णामं ॥१८१।। गाथा, आयारे णिकलेवो चउकओ गाहा, आयाररस जहा खुडियाचारए, सुत्तस्स जहा विषयसुते. आयारसुयं भणियं ।। १८२ ।। गाहा, आयारो यत्र वयते श्रुने तदिदं आचारश्रुतं तस्य आचारश्रुतस्य, नकारणेन प्रतिपेयः क्रियते, न आचारश्रुतं अनाचारश्रुतं, अनाचार इह वर्ण्यते इत्यतो अनाचारश्रुतं, अनाचारॉश्च वर्जयतः आचार एव भवति, मार्गविपथिकपथिकदृष्टान्तमामात् , यथा मार्गविपथिकः उन्माग बजेयेत् , नापथगामी भवति,
न चोन्मार्गदोपैयुज्यते, एवमनाचार वर्जयन् आचारवान् भवति, न चानाचारदोपैयुज्यते, ते तु अनाचारे अबहुस्सुतो ण जाणति । तेण कारणेण आचारसुतं भणति, बजेयब्वा सदा अणायारा' 'अबहुस्सुत' गाथा एतस्स उ पडिसेहे ॥ ॥कतरस्म ?, जो
॥४०२॥
अथ द्वितिय-श्रुतस्कन्धस्य पंचमं अध्ययनं आरभ्यते
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आगम
(०२)
प्रत
सूत्रांक
||६३६
६६८||
दीप
अनुक्रम [७०५
७३७]
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र -२ (निर्युक्तिः+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [ ५ ], उद्देशक [-], निर्युक्ति: [ १८१-१८३], मूलं [गाथा ६३६ - ६६८ ] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र -[०२] अंग सूत्र [०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि :
श्रीसूत्रताङ्गचूर्णिः
1180311
अज्झत्थचियस्सत्ति तेण अणायारसुतं णामेण होति अज्झयणं, सो पुण पाविओ इह अणाचारो वणिजति, गतो णामणिष्कण्णो । सूत्तालागणिफण्णे-भचेरं आदाय (सूत्रं ६३६), (वृत्तौ शीलाङ्कीयायां आदाय बंभवेरं) गृहीत्वा आचारोति वाऽऽचरणंति या संवरोति वा संजमोत्ति वा वंभचेरंति वा एगई, 'आपने' आसु प्रज्ञा यस्य भवति स आसुप्रज्ञो, केवली तीर्थंकर एव तस्य | वक्तव्यव्यापार: 'तीर्थप्रवर्त्तनफलं यत्प्रोक्तं०' अन्ये तु केवलिनो धर्मोपदेशं प्रति भजनीयाः 'इमं वई' तं इमां वक्ष्यमाणां वाचं क उक्तवां कतरां वा ? यस्मिन् धर्मे 'अणाचारे ' अणाचारेज, अस्सि तावके धर्मेऽनाचारः अकर्त्तव्यमित्यर्थः, अनाचारवतीं चन ब्रूयात् कदाचिदिति, अहनि रात्रौ च सर्वावस्थासु, ते तु यथा लौकिका 'न नर्म्मयुक्तं वचनं हिनम्ति तन्न, सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः सम्यग्दर्शनाचार एवादावुच्यते अनादीयं परिन्नाय || ६३७ ॥ नास्य आदिर्विद्यत इत्यनादि अनवर मित्यपर्यवसानं चास्ति, तदनित्यमिति परतंत्री ब्रूते, सदकारणवन्नित्यमिति, सांख्यानामप्यहेतु सन्नित्यं तदेवमनाद्यविपर्यवसानं च शाश्वतं चैकेपां, शाक्याः पुनस्तद्विपरीतां ब्रूते सर्वमदिमवदरगं च घटवदशाश्त्रतमित्यर्थः, तदेवं परतंत्रा के चित्शातवादिन | इत्यर्थः, 'सासयमसासए वा इति दिहिं न धारए' इत्येवं दृष्टिं दर्शनं न धारयेत् हृदि मनसि, दोपः, कतालम्बेन चैतद्, एतेहिं दोहिं ठाणेहिं (सूत्रं ६३८), विविधो विशिष्टो वा अवहारो व्यवहारः अनुपदेशः अननुमार्गः, अनित्यादिव्यवहार इत्यनर्थान्तरं कथं १, एकान्तेन च शाश्वतवादिनो न व्यवहारिणः, ते तु हि सर्वे सर्वत्र सर्वथा सर्वकालं च नित्यमित्येके ब्रुवते, तेषां संसाराभावात् तदभावे प्रागेव मोक्षाभावः, अशाश्वतवादिनामपि सर्वेषां सर्वत्र सर्वकालं चानित्यमिति ब्रुवतां क्षणभङ्गत्वात्संसाराभावस्तदभावे च प्रागेव मोक्षाभावः बन्धमोक्षार्थश्यायं प्रयासः किंचान्यत्-सुद्वदुक्खसंपयोगो एगंतुच्छेतम्मिय, यस्य चैतौ
[418]
अनाद्यादि
||४०३ ॥
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आगम
(०२)
भाग-2 “सूत्रकृत" - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [५], उद्देशक , नियुक्ति: [१८१-१८३], मूलं [गाथा ६३६-६६८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-०२] “सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
2HAN
खाद्वादादि
प्रत सूत्रांक ||६३६६६८||
श्रीसूत्रकताङ्गणिः ॥४०४॥
दीप
अनुक्रम [७०५७३७]]
शाश्वताशाश्वतग्राहावेकान्तेन न व्यवहारमवतरत इत्यतः 'एतेहिं दोहि ठाणेहि अणाचारं विजाणएहि' सम्यग्दर्शन विराधनेत्यर्थः । तदभावे प्रागेव ज्ञानचारित्रयोरप्यभावः स्यात् , कशं प्रतिपत्तव्यं कथं वा व्यवहारो भवति ?, उच्यते-सदसत्कार्यत्वात् तत्प्रतिपेधः अंगुलीयकदृष्टान्तः, यथा सुवर्ण सुवर्णत्वेनावस्थितमेव कारणान्तरतः अंगुलीयकत्वेनोत्पद्यते, तद्विनाशे च सुवर्णस्यानिवृत्तिः, अस्त्वेवं जीवो जीवत्वेनावस्थित एव नामकर्मप्रत्ययानरकादिभावेनोत्पद्यते नारकादिविगमाच मनुष्यत्वेनोत्पद्यते, जीवद्रव्यं तु नारककाले मनुष्यकाले चावस्थितं, घटपटादिष्वन्यायोज्यं, साद्-आकाशादिपूत्पाद विगमौ न विद्यते, तत्राप्युत्तरं आकाशादी तिहं परपञ्चयतो, अत्राह-ननु शाक्यदृष्टिरेव उच्यते, तेषां हि प्रगलो नित्यानित्यत्वं प्रत्याचनीयः, अस्माकं तु नित्यानित्याः । सर्वभावा इति वाच्यमेतत्-उत्पाद्यविगमध्रौव्यपर्यायत्रयसंगहं । कृत्स्न श्रीवर्द्धमानस्य शासनं (शासनं भुवि) ॥१॥ एवं सर्वभावानां मन्यमानाः उच्यमाना व्यवहारमवतरति, व्यवहारादपेतं च मन्यमानमुच्यमानं वा न आचारं विना, अयमन्यो दर्शनाचारः, 'वोच्छिजिस्संति सत्यारो' यस्य किलापवर्गोऽस्ति न चास्ति नबमच्चोत्पादः, तस्यानन्तत्वात्कालस्य सस्थारोवि ताव बोच्छिजिस्संति तीर्थकरा इत्यर्थः, किमंग पुण जे अण्णास्म य परिवारो. मोक्खं गच्छंति, आह हि-"त्वद्देशनामतीनः कालः किमहं वनन्ततद्विगुणं" ननूक्तं 'देविंदचकवाट्टित्तणाई.' गाथा, असदृशा--अक्षीणक्लेशपृथग्जनेन गठिया भविस्संति, ग्रंथिं न सक्ता भेत्तुं गठियसच्चा इति वाक्याब्यवहारः, स्याद्-ब्रवीति-भव्येषु सिद्धेपु अभव्याः स्थास्यन्ति, यतः संमार परिहास्यति. तथापि न मोक्षाभाष इति न दोपः, अवश्यं च संसारमोक्षाविति द्वन्द्व सिद्ध्या भवितव्यं, सुखदुःखवत् सीतोष्यवद्वेत्यादि, अथ मा भूसंसार इति तेन अपवर्ग एव नास्तीति मन्तव्यं वक्तव्यं चा, तथाऽनादि सामयंति णो वदेजा, मा भूत्संसाराभाव इति दोषः, अथवा 0
॥४०४॥
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आगम
(०२)
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [५], उद्देशक , नियुक्ति: [१८१-१८३], मूलं [गाथा ६३६-६६८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
सर्वभव्य
प्रत
सूत्रांक
||६३६६६८||
दीप
अनुक्रम [७०५७३७]]
श्रीसूत्रक
मणति सपक्खचोदओ सब्वे भवसिद्धि एवं सासतित्ति, जइवि जीया सिज्झिस्संति त मावि भवसिद्धियविरहिओ लोगो न भवि- तागचूर्णिः स्सति, ण णामऽभवसिद्धिः, एवं सासतित्ति वा असामतित्ति वा णो बदे। एतेहिं दाहिं ठाणे हिं चवहारो (सूत्रं ६४०), ॥४०५॥ इमाणि दोष्णि द्वाणाणि-वोच्छिनिस्संति भविया अथवा णो बोच्छिजिस्संति, णो णामऽमविया, अथवा सेसा सब्वे गंठिया भवि
| संति, तहावि एतेहिं दोहि ठाणेहिं बवहारादीत्यतथ दर्शनं न भाति, एतेहिं दोहि ठाणेहि अणायारं विजागए, कतरं अनाचार,
दर्शनानाचारं, स्यात् कथं मन्तव्यं, वक्तव्यं वा ? "जयन्तीति ! से जहा णामए मधागाससेढी" एवं मन्तव्यं, परेण वा पुढेण YA वक्तव्यं, उक्को दर्शनाचारस्येति । इदानीं चारित्रं प्रति थद्वानमुच्यते-जे केइ खुड्या पाणा ॥६४१॥ वृत्तं, इन्द्रियाणि प्रति
खुटुगा सब्बे एगेंदिया वेइंदिया क्रमवृद्धि जाव पंचेन्द्रिया, अथ शरीरं प्रति कुंथुमादी खुड्डगा हस्थिमादी महालया, संति-विद्यन्ते सर्वे लोकप्रत्यक्षा, आलयः शरीर, महानालयो येषां ते महालयाः, ताँच जिघांसुर्यदि कश्चित्पृच्छेत् आर्जवा दुर्विदग्धो वा-सरिसं वेर कम्मं ते मारेमाणस्स, किं सरिसो कर्मबंधो भवतित्ति, तत्थ को ववहारो?, उच्यते-तेहिं दोहिं ठागेहिं ॥६४२॥ वृत्तं, कथं न विद्यते !, जइ भमति-सरिसो कम्मबंधो तो महालया परिचत्ता, इतस्था ते थूलचि कया, अथ न भीरू लोगरवभीरू य ते परिहरति खुइलए य कुंथुमादि एगिदिए वहतो, दोहि ठाणेहिं ववहारोन, समं त्रुवता महालया तथाऽनुज्ञा, विपमं त्रुवता खुदलाघातानुज्ञा भवति, तेन धर्मसंकटमेतत् , न कश्चिानानो धर्मसंकटमनुप्रविशेद , अत्र दूधगणिक्षमाश्रमणशिष्या भटियाचार्या वते-अत्र निस्तुपमेव वाक्यमतो अवचनीयवाद इति, स तु तैरेव पुनर्विशेपितः, यथा शाक्यानां नित्यानित्यावेवेत्यवचनीयः पुदलः अस्माकं तु विशिष्टं अबक्तव्यं, कथं न वक्तव्यं ?, तुल्योऽतुल्यो वा घाते वन्ध इति तृतीयमवक्तव्यं, अन्यमत्या आचार
|४-५॥
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आगम
(०२)
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [9], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१८१-१८३], मूलं [गाथा ६३६-६६८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[२] “सूत्रकृत' जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
प्रत सूत्रांक ||६३६६६८||
आधाकर्मवन्धादि
दीप
अनुक्रम [७०५७३७]]
थीसूत्रक- प्रति पृच्छा-आधाकम्म(म्माणि) च ॥६४३॥ वृत्तं, आधायिकर्म साधुं मनस्याधाय प्रकरणमित्यर्थः, 'अन्योऽन्य' इति वीप्सा, || ताङ्गचूर्णिः
|| अन्य इति असंयतः तस्मादन्यः संयतस्येत्यसंयतः तस्यान्यस्याधायकर्म कर्तुः कर्मलेपेन किं लिप्यते नोपलिप्यत इति प्रश्नः?, ॥४०६॥
उच्यते-एएहिं दोहिं ठाणेहिं ॥६४४॥ वृत्तं, कथं अबवहारोऽनाचारश्च ?, उच्यते, यदि ब्रवीति अस्थि कम्मोवलित्तोति एकान्तेन तेन द्रव्यक्षेत्रकालभाया व्यतिक्रान्ताः, साधवः परित्यक्ताः, स्यादत उबालतेत्ति, जइ देतोवि बन्झति ननूक्तं 'तिहिं ठाणेहि जीवा अप्पाउअत्ताए कम्मं बंधति' 'तेणं किं मम अप्पवधाए चेव आहाकम्मेण दिण्योग ? बेन दाना बध्यने, अल्पायुष्कं च कर्मोपचीयते, किंच-अकृताभ्यागतदोपं चैवं कश्चिदपि पश्येत् , नैवं मन्येत, तेन उबलि नेति न वक्तव्यं, अह भगति-वि अण्णो
अंगारे कडति एवं नान्यस्य कर्मणा अन्यो युज्यते तेन मृगदृष्टान्तेन दातव्यमेव च इति अत्र दोपः, जो देति सो पावं कम्म NT काउं जीयोवघातं करेइ इति परिचत्तो, जेऽपि पाणे वधेति तेऽवि परिचत्ता, तदेव धर्मसंकडमिति कत्याऽन्योऽन्यस्य कर्मणा
उबलित्तो अनुपलित्तो वेत्युच्यमान व्यवहारं नाचरति एगंतेणं, किंचान्यत्-ये यदान पर्ससंति तद्वतोविजे णिसे|ति, अपमन्यो दर्शनं प्रति बागाचारः, नद्यथा-जमिदं ओरलमिति ॥६४५।। वृत्तं, ये इति अनिर्दिष्टस्य निर्देशः, इदमिति सबलोके प्रत्यक्षं आहारकमपि कपांचित्प्रत्यक्षमेव, वैक्रियमपि प्रत्यक्षमेव, तैजमकार्मणे प्रत्यक्षज्ञानिनां प्रत्यक्षे, एफस्मिौदारिके साधिते शेषाण्यपि साधितानि भवंति, शिष्यः प्रच्छति एतदौदारिकं शरीरं कार्य कार्मकशरीरा निष्पनं तत्किमनयोरेकत्वमुनाहो अन्यत्वं , कुतः संशय इति चेत् उभयथा दृष्टत्वात्कार्यकारणयोरिह तंतुपटयोरयुगपत्सिर्टिया, तंतब एव कारणान्तरतः अमिनदेशं पटं निर्वर्त्तयति, आदर्श त्वादर्शदृश्यसंयोगा सशच्छाया उपलब्धे सति कार्यकारणयोः संबंधे मित्रदेशता दृष्टा इत्यतो नः संशयः,
॥४०६||
[421]
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आगम
(०२)
भाग-2 “सूत्रकृत" - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [५], उद्देशक , नियुक्ति: [१८१-१८३], मूलं [गाथा ६३६-६६८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत' जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
प्रत सूत्रांक ||६३६६६८||
दीप अनुक्रम [७०५७३७]
श्रीयत्रक-10 किं कार्मणशरीरमौदारिकं मिनदेशमारभते प्रतिबिंबवत् उताभित्रदेश तंतुपटवदिति तत उच्यते, एकाश्रयत्वान्न प्रतिबिम्बवनि- कारणकाताङ्गचूर्णिःनदेशं, तंतुसमुहै। चा स्याद् , उक्तं हि-'जले तिष्ठति०' आहारात्तु तावतंतुपट पदन्भिनदेशः कार्यकारणसंबन्धः कार्मकऔदारि- योन्यत्वादि
| ककायौ, तरिकमेकत्वमनयोरुतान्यत्वं इति, उच्यते, मदमत्कार्यत्वात् घटवदेनत्स्यात् , उक्तं च-"गरिय पुढी विमट्ठो घडो"त्ति | एवं न कार्मणशरीर प्रत्याख्यायौदारिकं भवतीति एकत्र सिद्धमनयोः, सक्ष्मस्थलमूर्तिमच्चादचाशुपत्वान्निरुपभोगसोपभोगत्वाच | स्पष्टं अन्यत्वमित्येवं सदसत्कार्मकौदारिकयोरेकत्वान्यत्वं प्रति भजनीयना, वैक्रियाहारकयोरपि, तैजयमपि कम्मकातो णिकअति, तत्थवि भजना, इचेवं एकान्तेन तु एकत्वमन्यलं वा अवतो वागनाचारो भाति, तेण एतेहिं ठाणेहिं ।। ६४६।। वृत्तं, IN पच्छिमद्धसिलोएण वितिजिया पुच्छा, सव्वस्थ वीरियं अत्थि यथा कार्यकारणयोर्वक्तव्यावक्तव्यतोक्ता एवं कर्तृ कर्तव्ययोरपि, किमेतत् सर्व सर्वकार्ये किं कर्तुः मामर्थ्यमस्ति उत नास्तीति प्रच्छा, उच्यते, शिक्षार्थ पूर्वमशिक्षापूर्वकं च, केषु कर्तुः सामर्थ्यमस्ति केपु च नास्ति, तत्र शिक्षापूर्वकं घटादिष्वपि सामर्थ्य अशिक्षापूर्वकं गमनादानभोजनाद्यासु क्रियासु चैवं सामथ्यनास्ति, उक्त
हि-"छहिं ठाणेहिं जीवस्स नथि उठाणेइ वा० लोगं च अलोगं च' एवमवचनीयनादः प्रसक्त इतिकत्वा साम्प्रतमपवादः क्रियते, Halन सर्वत्रावचनीयवादो भवति, तंजहा-णत्थि लोए अलोए वा ॥६४७॥ वृत्तं, प्रत्यक्ष एवं दृश्यते स कथं नास्तीति संज्ञा दिल
निवेशः इति, व्यवहारो वक्तव्यो, यच्चास्ति लोक इति लोकविरुद्धं चैव, प्रतिपेधश्च कथं, प्रतिषेधकोऽस्ति? अप्रतिषेधे लोको नास्ति ?, स हि लोकान्तर्गतो वा न वा?, यदि लोकान्तर्गतो यथा भवानस्ति फिमेवं लोको न भविष्यति ?, उत लोकवहिर्भूतो वा ननु लोकस्यास्तित्वं सिद्धं यस्य भवान् बहिर्वर्तते, वक्तृवचनवाच्यविशेषा न च कश्चित् प्रतिपेधयति, लोकास्तित्वे अलोक-IN४०७||
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आगम
(०२)
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [५], उद्देशक , नियुक्ति: [१८१-१८३], मूलं [गाथा ६३६-६६८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[२] “सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
प्रत सूत्रांक ||६३६६६८||
वादि
दीप
अनुक्रम [७०५७३७]]
श्रीसूत्रक- स्थापि, सुक्खदुक्खशीतोष्णजीवितमरणछायातपयदिति द्वन्दसि द्वेस्त मानव संशा मनमि नियेगयेत । किन्तु अस्थि लोग अलोए लोकाशिताङ्गचूर्णिः
वा' अत्रापि भजनीयं अस्ति सद्भावे, आदिट्ठो लोकः अस्थिता असद्भावादिलो पत्थि तहावि लोकविरुद्रमितिकत्ता भजनाबादो ॥४०८॥
नोच्यते । अस्थि जीवो अजीवो वा ॥ ६४८ ।। वृत्त, जीवद्रव्यसिद्वौ तद्गुणावसरो यत उच्यते-गस्थि धम्मे ॥ ६४९॥
वृत्तं, तदेवं घृणानिस्त्रैण्ये, न वाभ्युपगमो भवति, धर्मतो हि अभ्युदयनिःश्रेयमयोः सिद्धिरिति, अन्यच्चाभ्युपगम्यते धार्मिकस्य, सN । चेन्नास्ति कस्ताननुमत ?, तेन तीर्थोछेदः, अधार्मिकेषु कर्मसु प्रवर्तते नास्त्यधर्म इति कृत्वाऽतो दोपसंकटं, न वक्तव्यं नास्ति
धर्मः अधों वा, वक्तव्यं तु 'अस्यि धम्मे अधम्मे वा धर्माधर्मानन्तरं बन्धमोक्षौ भवतः अधर्मश्च कारण बन्नस्य, धर्मस्तु सरागधर्मों वीतरागधर्मश्च, तत्र सरागधर्मः स्वाराज्याय, धर्मः स्वर्गीय, वीतरागधर्मस्तु मोक्षाय, ते तु प्रायेण चित्रिनलोका लोकायताद्या धर्माधों बन्धमोक्षौ नेच्छन्ति, एककर्वतासामः (भावः) अभ्युपगमनिर्दयदोपाथ वाच्याः, वर्माधर्गवन्ध मोक्षास्तित्ववादास्तु त एव विपरीताः सुगुणा भवंति, उक्तो बन्धस्तद्विकल्पास्तु पुण्यं पापंच, अतो बन्धमोक्षानन्तरं गत्यि पुषणे व पावे वा ।। ३५१ ।। वृत्तं, तत्थ पुण्यं णवविध, पुणं सुहादि, अथवा पोग्गलकांच सुभं गोत्रादि, अनं पापा णस्थि, पुष्णतिकाउं पुण्णायतणाई लोगो ण सेविस्सइ, तं पुण्णस्स तहा हेतुं, पुग्यपापयोरागमः हेतुः प्रभवः प्रमूतिराश्रवमित्यनान्तरमितिकृत्वा, ने पुण्यपापानन्तरं आसवो संवरक्रिया या, णस्थि फिरियत्ति अकिरियावादिणो भगंति, केचित्त बुबते-पर्वमुत्पाद्यते घटवत् , यच्चोत्पद्यते तत्सवं क्रियावद् घट्वदेचेत्यत: अकिरिया णस्थि, उत उभयमत एतदर्थ नस्थि किरिया अकिरिया बा, अस्थि किरिया अकिरिया वा, तब जीवपुद्गलाबवस्थितौ च क्रियावन्ती, धर्माधर्माकाशानि,निक्रियानि,प्रागभिहित आया,नझेदास्तु-णत्थि कोहे ॥४०८||
dile
FAST
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आगम
(०२)
भाग-2 “सूत्रकृत" - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [५], उद्देशक , नियुक्ति: [१८१-१८३], मूलं [गाथा ६३६-६६८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
संसारखवादि
प्रत सूत्रांक ||६३६६६८||
श्रीमत्रक- ताङ्गचूणिक ॥४०९॥
दीप
।
अनुक्रम [७०५७३७]]
माणे वा ॥६५६॥ वृत्त, दृश्यन्ते हि यथास्वं क्रोधादिकपायामिभृता वधवैरप्रवृत्ताः तत्कथं कपाया न भविष्यति, नथि पेजे ॥६५७॥ वृत्त, प्रीतिः पेम वा पेजं बा, तद्विपरीतं दोपः, एतेहिं चेय-कमाएहिं पेय, कसाएहि पेजदोसेहिं वा संसारो वा चाउरतो णिव्वनिअति, तेण णस्थि चाउरतो संसारो ॥६५८ ॥ वृत्तं चत्तारो अंता जस्स स भवति चाउरंतः, तत्थ तिरिक्खजोणियमणुस्सा पञ्चक्खचिकाउंण वति णस्थि य मणुयो, रइयजुवलयं जहा सेसागं, णेरड्यपजंता अणुमाणगिज्झा० वुचंते, ण वुचंति-पत्थि देवो व देवी वा ॥६५९।। अस्थि देवो व देवी वा। देवाणतरं णस्थि सिद्धि असिद्धि वा ।।६६०॥ केचिद् अबते मोक्षोपायो णत्थि, तेण चुचंति, 'णस्थि देवो व देवी था, णस्थि सिद्धि असिद्धि वा' जइ कोइ भणेजा सकपुब्बो उ, | 'जले जीवा थले जीव'ति, कोइ जीवबहुना अहिंसाभावा च णत्थि सिद्धी नियंठाणं ॥६६१|| तत्प्रतिपेधार्थमुच्यते-अस्थि जीवबहुत्वेऽपि, कथमिति जीववत् , तदुच्यते 'जलमज्झि जहा णावा' णस्थि साधू असाधू वा, णिव्याणसाधगा अहिंसादि हेतू साधयंतीति साधू, तत्केचिद् ब्रुवते-विणावि जीवबहुत्वे नैव शक्यते मोक्षः साधयितुं कस्माद् ?, यतश्चलं मनः, अविनयति चलानि चेन्द्रियाणि, ताणि न सुखं निग्रहीतुं, अनिग्रहीतेपु च कथं मोक्षः स्यात् , उक्तं हि 'चंचलं हि मनः पार्थ.' यसादेयं तस्मानास्ति | साधुः, साध्वभावाच तत्प्रतिपक्षभूतस्य प्रागेवासाधोरभाव इति, तदुच्यते-अस्थि साधू असाधू, कथं साहू भवति ?, उच्यते, णाणी
कम्मसक्खो, विसयाण अणणुवत्तणं, अथवा साधुरेव साधुः संयत इत्यर्थः, विवरीतो असाधुः, णस्थि कल्लाणेति ॥६३३॥(मत्र), | यथेष्टार्थफलसंप्राप्तिः कल्याणं, शाक्या ब्रुवते-सर्वमनिमित्तमात्मकवचनात् कल्याण मेव न विद्यते कचित्, पावं कथं णस्थि, | सर्वमीश्वरविकार इतिकृत्वा, कुतः पापं नेच्छंति परलोकिके, शाक्यास्तु कल्याणमेवैकं नेच्छंति, तेपांत एवानाश्वासादयो दोपा
ALI४०९॥
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आगम
(०२)
भाग-2 “सूत्रकृत" - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [५], उद्देशक , नियुक्ति: [१८१-१८३], मूलं [गाथा ६३६-६६८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
प्रत सूत्रांक ||६३६६६८||
दीप
अनुक्रम [७०५७३७]]
श्रीसत्रक- " अभिधेयाः, वयं तु अस्थि कल्लाणे पावे वा कथं कल्लागं ?, कल्लाणफलविवागदर्शनान , प्रत्यक्षतो हि कल्याणपापफलविपाका दृश्यन्ते, या एकान्त ताङ्गचूर्णिः
कल्याणादि रोनितसुहितदुःखितादिषु सुइविवागदुहवियागाई एत्थ दरिसर्ण, उक्तो दृष्टिं प्रत्यानाचार आचारच, अयमन्यो दृष्टयामनाचारः, पाप॥४१॥
। कानि कर्माणि करोति वेदयति बेति, अत्रैकतेन एस कल्लाणे पावउ(ए)॥६६४॥ (मूत्र), पुरिसे भामाणे ववहारोन विजति,
तत्र वच क्षरणे, कथं कल्याणकारी ण भवत्येकान्तेन ?, उच्यते, सातं चेत्यादि कल्लाणं, एतेसि सेसाणि य एतेण कारणेण पावं, जाव सूहुमसपराईयबंधो सो आउमोहणिजबजाओ छ कम्मपयडीओ बंधमाणे णाणावरणिजअंतराईयाई बंधति, ताओ जाओ
प्रायेण सुहं बंधति, तहाचि एकान्तेन कल्लाणकारी न भवति, अथ चेदन प्रति अणुत्तरोबवाइयावि किंचि अशुभं णाणावरणि 7 वेदेति, जेण तेसिं ण सम्बं णाणावरणीजं खीणं, एवं दरिसणावरणिअंपि अंतराईयपि, मणुस्सेसुपि तित्थगरोवि सीउण्डादीणि अमाVताणि वेदेति, जेण जति सो खीणकसायो गाणाणा० पावं बंधति, ताव वेदेति नामगोतं असातं च, तेण एर्गतकल्लाणे ण वत्तव्यो,
एगंतपावो मिच्छादिट्ठी परमकण्हलेस्सो उकोसं संकिलिट्ठाणि परिणामोच्यते, जइवि सो बंध प्रति एगंतपायो तहाचि कदाचित सातावेदओ हुआ, उच्चागोतो सुभणामोदयो बा, णियमा पंचिंदिओ उत्तमसंघयणो य, एवं एगंतपायोनि मो न व्यवहारमनतरति, यस्माञ्चैवं तमादेकान्ते निर्देशव्यवहारोण विक्षति, यवहारायेदं च मण्णमाणमुन्यमानं वा वैरं प्रसने, कर्मण एवं च बैगख्या, उक्तं हि-'पावे बजे वेरे०' दृष्ट हि लोकविरुद्धमुच्यमानं वैराय, उक्तं हि-जाता यथा, अतोऽन्यथाऽऽलापेच बरं, नया चोक्तं-जीहा जहा पमाणं जे में एवं तु सूक्ष्म ज्ञेयं, कुदृष्टयः श्रमणा अपि नावन्न जानन्ते शास्यादयः किमु गृहस्थाश्च बाला, मूला एव अजानका इत्यर्थः, यद्यपि ते म्यगास्त्रपरशास्त्रविशारदा: लोकेन पण्डिता इत्यपदिश्यने तथापि पण्डिता इति वाला एव प्रत्ययसेयाः,000४१०॥
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(०२)
भाग-2 “सूत्रकृत" - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [५], उद्देशक , नियुक्ति : [१८१-१८३], मूलं [गाथा ६३६-६६८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत' जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
अशेपात्वादि
प्रत सूत्रांक ||६३६६६८||
दीप
अनुक्रम [७०५७३७]
थीसूत्रक-9 अयमन्यः अवाच्यसंग्रहः प्राक्तनेनैव श्लोकेनाभिधीयते असेसं अस्वयं वावि ॥६६५।। (पत्र), अशेपं कृत्स्नं सम्पूर्ण सर्वताङ्गचूर्णिः मित्यनर्थान्तरं, न सर्वमुक्तमेव भवति, सवों ग्रामो आयात इति अवाच्यमेतत् एकान्तेन, कथं ?, जीवाजीवसमुदायो हि ग्राम: ॥४११॥ स कथं सर्व आयास्यति, अशेपो वा ओदनो त्वया मया भुक्त इत्यव्यवहारः, तत्र हि शिक्थादयः, शिक्थै फदेशावयवा ओदना,
गन्धक्ष विद्यत एव, यद्यपि अशेपा मिथ्या वा भुत्ता अण्णस्थ वा पक्खित्ता तहावि गंधोऽस्ति, न चापद्रव्यो गन्धो भाति, एवं चेय जइ भणति-देहि देहि मुंज झुंज वा अञ्जवि अक्खयो कूरो अच्छति, न हि कृतकानां द्रव्यानां अक्षतता विद्यते तेण ण सब्धमक्खयं वत्तव्यं, ननु संमारः कथं', उक्तो हि सो सम्बकालदुक्खो, उच्यते, पण्णवणामग्गोऽयं' जेण वुचति तो सबकालदुक्खो, III इहरहा सुहपि अस्थि दुक्खंपि, ननूनं सादं च वेदणिजं, सातं च नवपदार्थः, तत्थ पण्यावणं पडुच तस्थिमो पदत्थो-सुहोदय, किं पुष्णं पुब्बम्मिति पावं पच्छा मिजति, एगमेगतेणं सर्वदुःखमुच्यमानं चवहारं नावतरति, वज्झमाणाण बझंति सर्वलोके विरु
द्वमेतत् वज्झं पाणाति मणसावि ण सम्मतं किमुत वक्तुं ?, कम्मुणा चा कर्तु, अतोन वक्ति वध्याः प्राणिनः, अथ अवज्झा, कथं न FA वाच्यं ?, नन्वेतदपि लोकविरुद्धमेव, कथं ?, अहिंसकः स्वयं न च वक्ष्यति अवध्याः प्राणा इति, उच्यते, सत्यमेतद् स्वयं क्रियते
तदन्यस्थाप्यपदिश्यते, किन्तु यदि कश्चित् सिंहमृगमार्जारादीक्षुद्रजन्तुजिघांसु बयात्-भो साधो ! किमेतान् क्षुद्रजंतून घातयामि WAII उत मुंचामीति, तत्र न वक्तव्यं मुंच मुंचेति, ते हि मुक्ता अनेकानां घाताय भविष्यन्ति, एवं चौरमच्छरद्धबंधादयो न वक्तव्या|
मुंच धातयेति वा, आह च-'ग्रसत्येको मुअव्यापार एष साधोः, तेन व्यवहारपक्षे नावतरति, यसाच व्यवहारपक्षातिक्रान्ता एवंप्रकारा चाक् तस्मादिति वाचं ण णिसरे, एवं ताव लोगो जं भणति 'असेसं अक्खयंति वा' तंतहा ण वत्तव्यं, उच्यते किंचि
॥४११॥
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(०२)
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [५], उद्देशक , नियुक्ति: [१८१-१८३], मूलं [गाथा ६३६-६६८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सूत्रकृत' जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
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दीप अनुक्रम [७०५७३७]]
श्रीवत्रक
एकान्त दन्यथा, जहा कि ?, दीसंति० ॥६६६।। (सूत्र), णिहुअप्पणो स्वशास्त्रोक्तन विधानेन निभृतः जात्मा येषां ते भवंति निभृतातागचूणिः
निरर्थकमानः युगतरपदिविणो परिपूतपाणियपायिणो मोडणो णगणिणो विवित्तिका, तेसिपि णो ध्यायिन इत्येवमादि न निभृत, मिक्खा॥४१२॥
वादि मेचवित्तिणो साधुजीविणोति ण कस्सह उबग्गथेण जीवंति, के, ककहागकसयावञिणो, एवं वने ते मिच्छा पडिवअंतिनि, एवं दिदि न धारेज, परेण पुढेण एवं भणेजा-एते वरागा वालतपस्सिणो सब मिच्छा करेंति, लोकविरुद्धं च, तं भणंतस्स ते लोए गाढरुट्ठीभूता पन्छा लोगो मा भणिहितित्ति एते मदीये सस्थिया गुणद्वेषिणः, अविदुः रुस्तंति ण य उवसमंति, तेऽपि य जाव गेवेजा ताव उबवअंति तो कहं एगतेणं एवं बुचति-सबमेतं णिरत्थगं फिलिस्संति, नो णिचपुट्ठो वा भणिति-अणामाढमिच्छा
दिट्ठीस, एतेवि किंचिदधेलोगफलिगं णिव्यत्तेन्ति, अयमण्यो अन्नउस्थियगिहत्थाणं दाणं प्रत्यव्यवहारः-दक्खिणाए पडिलं भो (A5॥६६७।। (सत्र), दान देंति देयते वा दक्षिणां, दक्षिणां प्रति लंभो, दक्षिणायाः प्रतिभा, अथवा दक्षिणाया लेमे प्रति दक्षिणाल
भस्तया या लंभितः स प्रतिलम्भः प्रतिमानयत सम्मानितो वा भवति, एवं प्रतिकारप्रत्यपकाराप्रतिपूजादिष्वायोज्यं, स किं पाने वाऽपाने वा प्रतिलाभिते , ततो पडिलाभो अस्थि णत्थि प्रच्छिजति भणति-एकान्ते नास्ति तस्थ दोसा, जारिसंवा विनीयं । तारिसेणेव फलेण होतब्बं, तेण अधम्मियस्स कस्सइ इट्टदाणं दिण्णं तेणवि मा णाम हटेण फलेण होतव्यं, पावे या अंतं पंतं दिणं तेणावि णाम अंतफलेण होतव्यं, एवमनेकान्तः, पत्ते तु इट्टमणि वा सड़ाए अणुपरोधी दिजमाणं महफलं भवति, अपचे तु इट्ठमणिटुं वा दत्तं वधाय, तहाथि ण वारिजति अंतराईयदोसोत्तिकाऊग, तथाऽणुज्ञायते न देहित्ति मजारपोसगादिद्रुतेण मा अधिगरणं भविस्सति, तेण असंजतगिहत्थाणं अन्नउत्थियाण देहित्ति, किंच-इत्थ पुण पावं पुण्णं ण वियागरेजा, मेधावी जइ ॥४१२॥
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आगम
(०२)
भाग-2 “सूत्रकृत" - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [५], उद्देशक , नियुक्ति : [१८१-१८३], मूलं [गाथा ६३६-६६८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
आईकवृत्त
प्रत सूत्रांक
श्रीस्त्रक-
ताइवृणि: ||६३६- | ६६८||
२ श्रु.६ अ. दीप अनुक्रम [७०५७३७]
पुण भणति-किं पत्रं जस्स मए दातव्यं ?, कथं वा किंवाऽस्य फलमिति तदाऽस्य कथयते, यो दातव्यं देयं, एवमेतान्यव्याकृतवक्तृनि | यथा येषु स्थानेषु वक्तव्यानि तथोक्तानि अवतन्यान्यप्यन्येषु स्थानेषु यथा च वक्तव्यानि तथाप्युक्तं, एतेन लक्षणेनान्यान्यपि तथाऽवक्तव्यानि वक्तव्यानि च विज्ञेयानि, अतोऽतिप्रसक्तं लक्षणमितिकृत्योच्यते,एवं सर्वत्रैव तद्विकल्पं करिष्यति तेनोद्वारः क्रियतेएकान्तेनैव 'सन्तिमग्गं च चूहए' शमनं-शान्तिः मग्गे-मार्गः जेण कथितेण उपमर्मति सताणि शासनवृद्धिश्च भवति तथा कथयति, सो पुण संतिमग्यो धर्म कहतेहिं पावाउतेहिं संगिण्हतेहिं उवगिण्इंतेहिं हितो भवति, उक्तं च-'प्रावचनी धर्मकथी' | एत्थ णस्थि भयणा, एगंतेन चै तथा तथा कहेतब्बं जहा जहा संतिमग्गों वृहिति इचेएहिं हाणेहि ॥६६८॥ (सूत्र), कतराई ठाणाई ?, जाणि अणादाय परिणादीयं परिणादीणि अपवहारं णावतरति, जो अस्थि लोए वा अलोए वा ववहारं अवतरति, तेसु सव्वेसु संजयति तिरियमाणेसु अप्पाणं, कथं अप्पाणं वारयति, अक्वायं भणंति, एवं धारितो अप्पा कियंत कालं ?, आमोक्खाए जाव ण मुच्चइ सम्बदुक्खेसु असाद्वा, शरीरफत्वे, परि समता वएजासि मोक्खाय परिव्यएआसित्ति बेमि ।। अनाचार| श्रुताख्यं पंचममध्ययनं समत्तं ॥
अनाचारश्रुतमुक्तं, यथा केन वर्जिवा अनाचाराः, अनाचारश्च सेवितो सो भावतो तावदुच्यते-जहा अद्दएण, एस अज्झ| यणसंबंधो, णामणिफण्ण अद्दइज, अई णिक्खितव्य-णामई ठवणई ॥१८४|| गाथा, आईकमिति नाम, वत्थाण खिचमद्देण, वष्णदं चिचकमादिसु आर्दकं लिसितं, आर्द्रानक्षत्रं लिखितं, उदगई सारई ।। १८५ ।। गाथा, उदकाई यथा उदका गात्रं, केवि हरितया सुर्वतयाए य अब्भन्तरे जे पंडुरगं, संसारो पण्णाणे णियसे अजवि प्रीत्याः , एवं उल्लोल्लो अस्थिति विन्ति, तया
॥४१३॥
अथ द्वितिय्-श्रुतस्कन्धस्य षष्ठं अध्ययनं आरभ्यते
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आगम
(०२)
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [६], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१८४-२००], मूलं [गाथा ६६९-७२३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-०२] “सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
आद्रकवृत्तं
प्रत सूत्रांक ||६६९७२३|| दीप अनुक्रम [७३८७९२]
श्रीमत्रक- यथाऽयं पुरुपोऽस्थिपु निदो गाइ, से मक्खिताई अंगाई, आह हि-"त्वचि भोगाः सुखं मांसे", सिलेसद्धं जहा कोइरवंसो विततो ताङ्गचूर्णिः
समाणो पच्छा सिलेसेण मक्खिजति, पच्छा णिजति, गलितित्ति, एवमादि, द्रव्याट्टै द्रव्याः जहा उदगं सिलेसो य एते दोवि ॥४१४॥
सयं चिय अद्दा अण्णंपि आर्द्र कुर्वति, सारई, छवियद्दा पुण केवल सयमेवाऽऽर्द्रा, भावई रागई लोग भणति, आर्द्रसंतानो देवदत्तः स्नेहवानित्यर्थः, णेहतुप्तितगत्तस्स रेणु, उपरुचित्तं च तं कमई, इह तु आईकनाम्ना पुरुषेणाधिकारः, तत्राप्यर्थाश्रयणमेवेतिकृत्वा तत्प्रयोजनमुक्तमेव भवति, द्रव्यभावाकविशेपास्तु पुनरुच्यन्ते, तत्थद्दओ तिविधो-एगभवियबद्धाउय ॥१८६|| गाथा, अदाओ णामगोतं वेदेतो ततो समुट्ठिता गाथा, यद्यपि शृङ्गवेरादीनामाईकसंज्ञा तथापि तेभ्यो नाध्ययनमिदं समुत्पन्नं तसात्तैर्नाधिकारः,
जो चेव सो अद्दाभिधाणो साधू तेणात्राधिकारः, तदेव अद्दकउम्पत्ती भणितव्या, 'तत्तो समुट्टियमिणं' सा एया गाथा, जेण च तं, - पतिट्टिकं णाम गामो, तहिं सब्वे उ परिवसंति, संसारभयुधिग्गा, धम्मघोसाण अंतिए पन्धइतो सह भारियाए, सो विहरति साहिं सह, इतरावि अजियाहिं सह, ताई केताए नगरे समोसरिताई, तेण सा मिक्खं हिंडमाणा दिहा, सो तहिं अज्झोपवण्णो, AM तेण संघाडिगो बुञ्चति-एसा मम घरणी, पडिभञ्जाविजउ, पण चिंतितं-अकजएण ण उवेक्खितचं, तेण भण्णति-अजेब कतं चा मए, सो एवं भणिउं गतो पच्यइयापडिसयं, तेण महत्तरियाए सिट्ठोस उल्लाबो, पच्छा महतरिताए सा भणिया-अखे । अण्णविसयं वचाहि, ताए भण्णति-अहं ओलिया कहिामि, सो पुरिसो, सो उ दूर अण्णदेसंपि वजेजा, अहं भत्तं पञ्चक्खा मीति, एवंति भणति, इतरेण दित्तस्स आगंतूण कहिअति, जहा इमं समोसरणं टुकडं, तत्थ मिल्हिहामो, इतरधा ग सकति, सो इच्छंति, दिवस गणेतो, इतराएवि ते दिवसे आसण्णत्ति काऊणं वेहाणसं कतं, तेहिं आयरियाणं णिवेदितं, जहा पाइता कालगता, इतरस्म
॥४१४॥
[429]
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आगम
(०२)
भाग-2 “सूत्रकृत" - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [६], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१८४-२००], मूलं [गाथा ६६९-७२३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-०२] “सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
श्रीस्त्रकताजचूर्णिः ॥४१५||
प्रत सूत्रांक ||६६९७२३||
दीप अनुक्रम
सोचूण अद्धिती जाता, अकजं, महचएणं तवस्सिणी कालगया, तेणवि भत्तं पञ्चक्खातं, तं सो कालं गयो, समणी देवलोएगुआद्रकवृत्तं उबवण्णा, ताओ देवलागाओ चुता संती मेच्छविसए अद्दगनसे अगस्स रण्णो धारणीए देवीए कुञ्छिसि पुत्तत्ताए वकंता, तीसे | णवण्हं मासाणं दारओ जातो, तस्स णामं कीरति अद्दओ, इतरोऽवि कालं काऊण देवलोएसु उबवण्यो, तओ चुओ बसंतपुरे णगरे | सिद्विकुले दारिया जाया, इतरोऽपि जुब्धणस्थो जाओ, अण्णादा कयाई सो अद्दओ राया सेणियस्स रण्णो दतं विसति, तेण कुमारेण
पुच्छिाति कहिं बञ्चसि ?, तेण चुच्चति--आयरियविसयं सेणियस्स रण्यो सगासं, सो तुझंपि पितियवयंसओ होति, तेण बुचइ-- | तस्स अस्थि कोई पुत्तो णस्थि ?, तेणऽस्थिति वुत्ते अद्दकुमारो विचिंतेइ-तेण मित्तता होतु, सो तस्स पाहुडं विसजति, एयं अभ-1
यस्स उवणेतब्ब, सो दूतो तं गेण्हितुं रायगिढ़ नगर आगतो, सेणियस्स रपणो सब अप्पाहणियं अक्खातिय, इतरदिवसे अभयस्स || दुको, अभयकुमारसत्तं पाहुडं उवणेति, भणिओ य-जहा अद्दकुमारो अंजलिं करेइ, तेण पाहुडं पडिच्छिअं, दूतो य सक्कारिओ, |
अभओऽवि परिणामिताए बुद्धीप परिणामेऊण सो भवसिद्धीओ जो मए सद्धी पीति करेइ, एवं संकप्पेऊण पडिमा कारिजह, तं | मंजूसाए छोढुं अच्छति, सो दूतो अण्णतावि आपुच्छइ, तेण तस्स मंजूसाए अप्पिता, भणिओ य एसो-जहा कुमारो भण्णइ-एतं | मंजूस रहस्से उग्घाडेजासि, मा महायणमज्झे, जहा ण कोइ पेच्छेइ, बहुपाहुडं पेसति, सो दूओ परं णगरं पडिगओ, अदस्स रणो सेणियसितं पाहुडं उवणेति अद्दस्स, सकारेतूण पडिविसञ्जिओ, कुमारस्म मूलं गओ, अभयपेसवितं पाहुडं उवणेति अप्पा
हणियं च अक्खाति, तेणवि सकारेऊण पडिविसञ्जितो, इतरोऽवि तयं गहेऊण उबरि भूमि दूरूहित्ता जणविरहियं करेत्ता मंजूसं| | उग्घाडेति, सो पेच्छेति उसमसामिस्स संमें पडिम, तस्स ईहापोहमग्गणगवेसणं करेंतस्स कहिं मए एयारिसं रूवं दिट्ठति ?, ॥४१५॥
[७३८
७९२]
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गम
(०२)
भाग-2 “सूत्रकृत" - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [६], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१८४-२००], मूलं [गाथा ६६९-७२३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
प्रत
सूत्रांक
आद्रेकवृत्त
श्रीसूत्रकताङ्गचूर्णिः ॥४१॥
||६६९७२३|| दीप अनुक्रम [७३८७९२]
चिन्तेमाणस जाइसरणं उप्पण्णं, अहो मम अभएण णाई किर्च कय, रहस्सिगं तं च काऊग परिभोग उचित ण परि जति, ताहे रष्णा कथितं-जहा कुमारस्स जप्पमिति आयरियविसयातो पाहुडं आणीतं तप्पमिई जहोचितं परिभोग न परि जति, रायाए चिंतित-गट्ठो कुमारो भवति, वच्चंतस्स अण्योहिं आइक्खिाति, तेण चिन्तितं-जइ किहइ नस्सामि तो नट्ठ कजं भवति, सबधाधि जहोचितं भोगं मुंजामि, रण्णा सुतं परि जति, तस्सगासे पंचण्हं कुमारामचसताणं पंच पुत्तसयाई आणविदिण्णाई, भणियाइओजइ कुमारो णस्सति तो सब्वे विणासेमि, ते तं कुमार आदरेणं रक्खंति, कुमारणोवायो चिंतितो, आमवाहणियाए जिग्गच्छामि, एवं विस्तासेण पलाओ आसं विसजेऊग, देवताए य भणियं-सउवमग्गं, इतरेऽवि पविसित्ता अडवीए चोरियं करिता अच्छिति, इतरोऽवि णाओ एकारसमं सावगपडिम पडिजित्ता आगतो वसंतपुरं णगरं, आया।तस्स पाडिहेर कतै देवताए, तत्थ आतवितो अच्छति, ताए दारियाए भण्णति-अहो मम पती आहेसि, ताहे अद्भतेरमहिरण कोडिओ पाडियाओ, राया ओडितो घेतुं, सप्पा उडेति, देवताए भणितं-एतं तीसे दारियाए, पितुणा संगोवितं, सोऽवि पगतो, सा सेट्ठिधूता अण्योहिं वरिजति, तीए मातापितुं भणइ-एकस्स दिष्णा, जस्सेतं धणं मुंज, तुम जाणसि कहि सो ?, णधि, णवरं पाए जाणामि, ताहे सा ताहि भिक्खा दवाविज्ञति, जति जाणसि तो गेण्हेजासि, इतरो बारसण्हं वरिसाणं आगतो, सो तीए पाएहिं गातो, तस्स पन्छातो विसजिता, तो चिंतियं-उडाहो, पडिभग्गो, तस्स तहिं पुचो जातो, बारसह परिमाणं तहिं आपुच्छति, सातहि परुनिया, सोदारओ भगतिकिं कसि ?, पिता ते पाइउकामो तो सुहं जीविस्सानि, सोऊण पुत्रेण वेदितुमारद्धो, तेणवि चिंतितं-जइएहि तंतूहि वेदिति तत्तिगाणि यरिसाणि अच्छामि, तेण बारसहिं रेढितो ताहे वारस बरिमाणि, पच्छतो पुणोहिं पचहतो, ताए अडवीए बोलेति जीए
॥४१६॥
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आगम
(०२)
भाग-2 “सूत्रकृत" - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [६], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१८४-२००], मूलं [गाथा ६६९-७२३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[२] “सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
स
दीप
प्रत श्रीसूत्रक- ताई पंचसताई, तेहिंतो पञ्चभिण्णाए य पंचवि सयाई पाइताई, सो जाति तित्थगरमूलं, सोरायगिहं णगर पविसंतओ, गोसालेणधर्मकथासूत्रांक | ताङ्गचूर्णिः समं वातो, युद्धेन समं वादो, घिआतिएहि परिवाएहि तावसेदि, सव्वे पडिहंतुं सामिपादमूलं जाति, तस्स पच्चंतस्स हत्थी वारि- निर्दोषता ॥६६९॥४१७|| INछदओ. सो हत्थी अगं पेच्छिऊण एवं चिंतेति-अगस्स तेयपभावेण मुंचामि, तस्स य तेयपभावेण बंधणाणि छिण्णाणि, हत्थी।
हो, अद्दओ भणति-ण दुकरं वारणपासमोयणं०, गतो णामणिफण्णो, सुत्तालावगणिफण्यो सुत्तमुचारेतब्ध-पुराकडं ७२३||
अद्द! इमं ॥६६९॥ वृत्तं, ततस्तमाकं राजपुत्रं प्रत्येकचुद्धं भगवत्पादमूलं गच्छमाणं गोसाल आह-'पुरेकडं अद! इमं सुणेहि' | सर्वैरपि तीर्थकरैः कृतं पुरेकर्ड, आर्द्रक इति आर्द्रकखामन्त्रणं हे आर्द्रक राजपुत्र, इमं यद्वक्ष्यामस्तच्छृणु 'एगंतयारी समणे पुरासी'
सोऽयं बर्द्धमानः यत्सकाशं भवान् गच्छति पूर्वमेकान्त चारी आसीत् , तदेकान्तं द्रव्ये भावे च, द्रम्पैकान्तमारामोद्यानसुण्णघअनुक्रम
मरादीणि एतेसु एगंतेसु चरति एगंतचारी पुरा आसित्ति, एस मए सद्धि लाभालाभसुहृदुक्खाई अणुभवितयां, तत्थ भावणाठाण[७३८
मोणासणादीहिं उग्गेहिं तवचरणेहि णिभत्थितो समाणो दुकर एरिसा चारि जावजीवाए धारेयवत्तिकाउं मामवहाय बह्यो ७९२]
| भिक्खुणो मद्विधा प्राणादमात्राहार्यां मुंडेति, पिंडिते य मुंडेता य २ तेहिं यहूहि परंसतेभ्यः इहि साम्प्रतं आइक्खइ पुव्यावरण्ई, अदो व णं भिक्खुचरियादिकायकिलेसे णियत्तचित्तो पृथक् पृथक् पौनःपुण्येन जो जहा उपवसति तस्स तहा परिकहेंतो अपरि
ततो गामणगराई आहिंडति, वित्थरेणंति अनेकैः पर्यायैर्वसु किल एप, सर्व इति लोकोत्पत्तिः, यतो पत्तियंत पवत्तयंतो, एवं HOT पूआगारवपरियारहेडं कधेति हिंडति गामाणुमाम, इत्य सात्कारणात्-साजीविया पट्टविया ।। ६७० ।। वृत्त, इथरथा हि
एगाणियं विइरंतं ण कोइ पूएइ, ण वा अभिगच्छति, अथिरधम्मा अथिरो, कधमस्थिर इति चेत्यदा सो एगंतचारी भूत्वा स- ४१७॥
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आगम
(०२)
प्रत
सूत्रांक
||६६९
७२३ ||
दीप
अनुक्रम
[७३८
७९२]
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र -२ (निर्युक्तिः+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [ ६ ], उद्देशक [-], निर्युक्तिः [१८४-२०० ], मूलं [गाथा ६६९-७२३]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र -[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
श्रीसूत्रकृ ताङ्गचूर्णिः
॥४१८||
गृहस्थान आरामगतो या वृक्षमूलाश्रितो गृहं सरणमित्यर्थः, त्यत्वा गृहं किं पुनः गृहप्रवेशनेन ?, गणः समूहः, गणमध्ये आख्याति, नैककस्य, भिक्षुमध्ये सदेवमणुआमुराए परिसाए परिवुढो, जनाय हितं जन्यं बहुजनाय बहुजन्यं तं चार्थं कथयति, न सूक्ष्मं ण संघायति 'त्ति न संविति, अवरं णाम जेनिमं तं साम्प्रतीयं वृत्तं रत्नशिलापटः सिंहासनं छत्रं चामरं, अथवा'अशोकवृक्षः सुरपुष्पवृष्टिर्दिव्यध्वनियामरमासनं च भामण्डलं दुन्दुमिरातपत्रं, सत्प्रातिहार्याणि जिनेश्वराणाम् ॥ १ ॥' अनेन देवेन्द्रदुर्लभेनापि विभृतिवृत्तेन यत्पूर्वादृतं एगंतचारितं तदन्योऽन्यव्याघातान्न संति । किंच एगंतमेवं अदुवावि इहि ॥ ६७१ ॥ यदि एकान्तचारित्वं शोभनमेतदेवात्यन्तं कर्त्तव्यमभविष्यत् उत मन्यसे इदं महापरिवारवृत्तं साधु तदिदमादावेवाचरणीयमासीत्, तो किं वारसमधियाई वरिसाई किलेसितो ? यद्यसादिदं साम्प्रतीयं वृत्तं पोराणं च दोऽवि अष्णोऽण्णं ण समेन्ति न तुल्ये भवत इत्यर्थः तस्मादतो पूर्वापरव्याहतवादी कारी च नाभिगमनीयोऽस्ति, एवं गोशाले नोक्ते भगवानार्द्रकः प्रत्येकबुद्धः तद्वाक्यमवज्ञयैव ग्रहस्यैवं आह च-भो गोशाल ! स हि भगवान् वर्द्धमानः 'पुधि या पच्छा वा' पुत्रि छउमत्थकाले पच्छत्ति गाणे समुपन्ने अणागतं जाबजवाए तेसु तेसु तिकालेसु भगवान् 'एगतमेवं पडिसंदधाती'ति वक्तव्ये ग्रन्थानुलोम्यात्सुखमोक्खोच्चारणाछुधानुवृत्ते पत्थं याति स्यात्किमर्थं कथयति ? - 'ममिच लोगं ॥ ६७२ ॥ वृत्तं सम्यक् ज्ञात्वेत्यर्थः, तसाणं थावराणं जीवाणं खेमं सयं करेति, अवधमित्यर्थः, अण्णोवि जीव अणसिं च जीवाणं खेनं काउकामो कथेति, समणेति वा माहणेति वा एगई, स एवं 'आक्खमाणोsa' अपि पदार्थादिषु जनमहस्रयोः जनसहस्राणां वा मध्ये एकभावः एकत्वं सर्वेर्द्धातोः सारि इत्येवं कृते सृजति कश्चिदित्येवं विगृा मारयतीति भवति एकत्वं गमयति, कथं नाम भव्याः एकत्वं भजेयुः प्रव्रज्यामित्यर्थः, रागद्वेप
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SALAAMANA
धर्मकथानिर्दोपता
॥४१८॥
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आगम
(०२)
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [६], उद्देशक , नियुक्ति: [१८४-२००], मूलं [गाथा ६६९-७२३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत' जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
प्रत सूत्रांक ||६६९७२३|| दीप अनुक्रम [७३८७९२]
श्रीरत्रक- विप्रमुक्तं हि एक तस्स वल्लुलो(त्थुतो), आत्मानमपि च एगंतमेवं सारयतीति, रागद्वेपत्रहीण, जेण मज्झवि वसंतो, तथा चोक्तं धर्मकथाताङ्गचूर्णिः
'कामक्रोधावनिर्जित्य', स्यात्-तदेतदेकत्वावस्थितस्य कृतार्थरय च किं परोपदेशेन ?, तदुच्यते कर्मक्षयाथै, आह हि 'यनैतच्छुभं || निर्दोषता ॥४१९ तीर्थकरत्वनाम 'तीर्थकरखाभाव्यात वेति, उक्तं-'तत्वाभाव्यादेव०' तं वदति, अर्चा नाम लेश्या, सा य शुक्लेसो चेव, न राग
| दोसाभिभूत इव संकिलिट्ठलेसाओ परिणमति, अथवा अचंति मरीरं, सीहासणे आविट्ठोवि धम्म कहतो तेण पुष्फवत्थगंधादीहिं HOअलंकारहिं तहा अर्च एव निर्भूप इत्यर्थः, निर्दोपत्वाच, धम्मं कहेंतस्स उ णस्थि दोसो।।६७३।। वृत्त, क्षान्तिग्रहणं यतिवि | दुब्धियडबुद्धिं चोदेति न वा कथ्यमानं परियच्छति तत्थवि ण रुस्सति 'तो'ति कसायद तो 'जिइंदिओ'त्ति इंदियदंतो, पृथगुचारणा इंदियणोइंदियदंतविसेमो दरिसितो ककडुगणिठुर सावजा य भामादोसा, हितमितदेशकालादि भासागुणेहि, आहहि"दि8 मितं असंदि ०" स्वादसौ भाषादोपगुणज्ञो कि भगवान् समाख्याति ?, उच्यते-महबए पंच अणुपए य ।। ६७४ ।। वृत्तं, साधूर्ण महब्बए सावगाणं अणुव्यए य, महबए तब्धिवरीता एवं प्राणवधादयः पंचायया भवन्ति, 'संवर' इति इंदियाणं | "विरतिचि महाव्रतवत्ता, इंद्रियसंवृतस्य सतो विरतिर्भवति, अथवा असंजमाविरते 'इहे'ति इह प्रवचने लोके वा श्रमणभावं श्रामणीयं प्रज्ञानवान् प्रबो, ण आख्यानपि वाक्यशेष: 'लव' कर्म ततोऽवसकति लयावसी न, नो वाचिकेन कर्मणा मानसेण वा युज्यत इत्यर्थः, श्रमणो भगवानेव एवं ब्रवीमि स्वयमपि 'भगवं पंचमहव्ययगुत्तो इंदियसंवुडो य चिरतो य । अण्णेसिपि तमेव | य धर्म देसेति गाहेति ॥ १॥ यस्मात् प्रवीपि वयमपि व्रतमन्तः इन्द्रियसंवृत्ता विरताश्च, यदि च मन्यसे शीतोदकपायित्वाद् IN बीयादिकन्दभोजनात उद्दिवभोजनात स्त्रीविषयोपसेवनाच किममाकं ?, असाधुत्वं, तत्रेदं कारणं शृणु-अस्माकमाजीविकानामयं
HARIHANUA: अ
Rana
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आगम
(०२)
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [६], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१८४-२००], मूलं [गाथा ६६९-७२३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[०२] “सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
आजीविकनिरास:
प्रत सूत्रांक ||६६९७२३||
श्रीस्त्रकताइचूर्णिः ॥४२०॥
दीप
अनुक्रम [७३८७९२]
कृतान्तः, क इति चेद् उच्यते-सीओदगं सेवउ ॥६७५।। वृत्तं, सीतमसत्थोवहतं सीतमेव जलं, बीजं जस्स, को एस भवति ? सब्यो चेव यणस्सती गहितो, आत्मन्याधाय कृतं आधाकर्म, इत्थियाओ य, अम्हे एताई पडिसेवामोति तेण असंतेति सणु कारणआतवयम्मपरिताविता सीतोदकेण अप्पाइजामो, कन्दमूलादीणि 'आधाकम्मं च शरीरसाधारणहमेव पडिसेवामो, न चान्यकृतेन कर्मणाऽन्यो बध्यते, प्राणानुग्रहाच आधाकानुज्ञा, एवं कृतादीन्यपि अस्मानाधाय कीतानि कल्पन्ते, इत्थियाओवि आसेविअंति मनसो येन समाधिमुत्पादयन्ति, सेव्यमानास्तु उचारप्रश्रवणनिसर्गदृष्टान्तसामर्थ्यात् मनःसमाधिमुत्पादयन्ति, ततो ध्यावाद्याः शेपाः क्रियाविशेपाः खस्थचिः सुखमासेव्यते, परानुग्रहाच सेव्याः, आह हि-"सुखानि दचा सुखानि" जंपि य एतेहिं सीतोदगादिएहिं इत्थीपज्जवसाणेहिं कम्म उवचिजतित्ति यदि मन्यसे, एगंतचारीसु एगते उजाणादिसु चरति एगंतचारी इहई आजीबकम्मे जम्हाणं आतावणमोणत्याणासणअनमनास्नानकादीहिं घोराणि एतेहि चेव एगंतवचादीहिं गुणेहिं 'खविजंति, जतिय सीतोदगादिदोसोवचितं कम्म ण सक्कामो खवितुं ततो अणेगभवसहस्ससमजितं कम्मं कथं खविस्सामो?, तेण 'अप्पेण बहुमेसेज' सीतोदगादिसेवा अणुस्सिता तदेवमादिदोसेसु अदोपदर्शित्वादेहि आगच्छ, एवं गोसालेनोक्ते आह-सीतोदगंचा तह बीअ० ॥ ६७६ ।। वृचं, इह सीतोदगं वीजायं आधायकम्मं इस्थियाओ य सेवमाणावि वयं समणा होमो यदुक्तं त्वया तेन समानवृत्तत्वात् अगारिणो समणा भवंति त्वन्मतेन, तेवि हि सीतोदगादीणि सेवंति, तेन प्रकारेण तहा तेवि तहप्पगारं वृत्तं कुर्वन्तीत्यन्यथा वा का प्रत्यासा ?, अथ मन्यसे समानवृत्ते वयमेव श्रमणा न गृहस्थाः पंचिकात्र न भोजयितव्या जे यावि सीतोदगमेव (वीओदगभोति) भिक्खू ॥६७८|| वृत्च, कोइ णम्मित्थीओ परिहरति लोकरवभीतो, बालो वृद्धो वा, न धर्मयोग्यो वा
PART
॥४२०॥
-
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आगम
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भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [६], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१८४-२००], मूलं [गाथा ६६९-७२३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[२] “सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
आजीविकनिरामः
प्रत सूत्रांक ॥६६९७२३|| दीप अनुक्रम [७३८७९२]
श्रीमत्रक
सीवर्जमपि सीतोदगभोजी नाममिक्प मिक्षां च इह तार के जीवतो ध्याननिमित्तं जीवितट्टता एवंप्रकारा, णातीण संजोगो णाति | वाचूर्णिःAN संजोगो पूर्वापरसंबंधादि, अपि पदार्थादिषु, णातिसंयोगमिति दुप्पञ्जहणिजं, मुमुक्षयोऽपि संतः कायोपका एव भवति, अनंत ॥२१॥ कुर्वन्तीत्यनन्तकराः कर्मणां संसारस्य भवस्य दुःखानामेवेत्यर्थः, एवमुक्तो आर्द्रकेन गोशालो जाहे अण्णं उत्तरं न तरति ताहे
अण्णउत्थिए वितिञ्जए गिण्हति, दुबलो वा कडुच्छडीए, एवं वाई तुमं (इमं वयं तु तुमं)॥६७९।। वृत्तं, एतां एतत्प्रDकारां, प्रादुः प्रकाशने, प्रकाशं कुर्वन्तीत्यर्थः, कथं ?, भणति-सीतोदकाय आधाकम्माई इस्थिया जीवो आउ य सेवमाणा अममणा
भवंति कायोवगा, कायोवगत्वाच नांतकरा भवंति, तेन शाक्याः सर्वे शीतोदगभोजका ये आधाकम्माई सेवंति अबंभमवि प्रेष्यगोपसुवर्गाणां, सांख्यास्तु 'प्राप्तानामुपभोग' इति वचनात् , एवं वाचः प्रादुः कुर्वन्ति, प्रवदनशीला प्राधादुकाः तान' गरहसि
आत्मोत्सेकेन, न चोत्सेकः शिवाय, आर्द्रक आह-ननु पावादिनोऽपि पुढो, ते हि पावादिया पुढोत्ति आत्मीयं पक्षं कीर्तयन्तो| वर्णयन्तः स्वं स्वं दृष्टिं कुर्वति-करति प्रादुः, प्रकाशयन्तीति-अण्णमण्णस्स तु ते (ते अण्णमण्णस्स उ)॥६८०॥ इति ID प्रागुपदिष्टाः प्राचादुकाः अन्यश्चान्यच अण्णमण्णं अण्णमण्णस्स विविधं विशिष्ट वा गरहमाणा: कुदृधिमाचरति, वाक्याध्याहार: | आख्यान्ति परशास्त्रदोपांश्च आविः कुर्वते, श्रमणाश्च श्रामणाश्च, किमाख्यान्दि, 'सतो य अस्थि असतो य' स्वमात्मीयवचनमित्यर्थः, तस्मात् सुतं श्रेयोऽस्ति निर्वाणमित्यर्थः, परस्मात्परतः, अन्यस्मात्प्रवचनादित्यर्थः, नास्तीति नास्ति, निःश्रेयसं वा निर्वाणमित्यर्थः, एवं ते सर्वे अहमिति व्यवस्थिताः स्वपक्षसिद्धिमिच्छन्ति परपक्षस्य चासिद्धि, उक्तं च-"जहिं जस्म जं क्वसितं" वयमपि स्वपक्षमेवावलंब्यापरां शाक्यां दृष्टिं गरिहामः तान् , ननु किंच गरहामो, न यथा त्वं पापदृष्टिः मिथ्यादृष्टिः मूढो मूर्खः अजानको वेति,
४२१॥
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भाग-2 “सूत्रकृत" - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [६], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१८४-२००], मूलं [गाथा ६६९-७२३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-[२] “सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
तागाणा ||४२२|
प्रत सूत्रांक ॥६६९७२३|| दीप अनुक्रम [७३८७९२]
किंचिद्रूपेन रूवमिति यथा लोको लोकं कस्मिंश्चिदपराधे आक्रोशति काणः कुलजः कोढी वैति, जात्या वेति चण्डालकर्म करोति, आजीवि
कनिरासः किंचिद्रूपेण त्रिदणिडक दुष्ट परिव्राजक दुष्ट ! इदं ते दुष्टं शासनं, तेन मूर्खकपिलेन किं दृष्टं येन कर्ता क्षेत्रज्ञः, घटं च करोमीत्य संधि करोति, कुम्भकारोऽकुर्वन् कथ कुम्भकारः, कुर्वन् कुम्भकरो भवति, एवं नमो, वीतरागोपदेशाद्यपामेपा दृष्टिरकर्त्तात्मा निर्लेपश्च तेषां घटं साधयामीति मृत्पिडदण्डाशुपादानक्रियैव न युज्यते, निर्लेपस्य च शौचक्रिया वा किं क्रियते ?, कथं चास्य केवलज्ञानं नोत्पद्यते शुद्धस्य, यतः शाक्या अपि नो रूपताः प्रत्यक्षमित्यर्थः, हे कपायकठ शाक्याक शाक्यपुत्र कथमिदं ते दृष्टं सुख| मस्ति चेन च सुखी तहा स्कन्धाः, न च किलिस्मतां, न किं चूस्यते, येषामेपा दृष्टिः सुखमस्ति चेन च सुखी, त एव दोपाः | अभिमुखं अमिधास्यामः, चाचं बेमीत्यर्थः, किन्तु खं दृष्टिं संदिदै करेमो कुर्मः प्रादुः प्रकाशमित्यर्थः, तद्यथा-जी प्रति सद्धा
तोऽन्यो मूर्तोऽम्त्यात्मेति, यस्य पुनर्वादिनः नास्त्यात्मा तस्य जातिस्मरणादीनि न विद्यन्ते, दानदमाध्ययनक्रियाश्च न युक्ताः, |न तु प्रमः शाक्या अन्ये वा नास्तिकवादिनः हे मर्खा 1, यद्यात्मा नास्ति ततोऽसौ शुद्धोदनपुत्रो वृद्धो नास्ति, वक्तृवचनवाच्याविशेपा न कि केन कस्स चोपदिष्टमिति, ननु मनोन्मत्तालापः, एवमन्यत्रापि प्रवादिप्यायोज्यं, उत्येवं दृष्टिं गरहामो, नतु किंचि. द्वादिना संमुखे बूमो चिकिमास्से, मूर्खदृष्टिमिथ्यादृष्टिाति एवं स्वदृष्टौ प्रादःक्रियमाणाया तिष्णि तिमट्ठाई दिहिमताई परूविजंति, मिच्चत्तंतिका तेसु दिट्ठी न कायव्या, स्यात् किं तत्प्रादुःक्रियते ?,'मग्गे इमे किट्टिए आरिपहि' सम्यग्दर्शनादिमार्गः कीर्तितः | आख्यातः पाणारियादीहि, नास्योत्तरोऽन्यो मार्गो विद्यते शोमनपुरुपसर्वज्ञत्यात्तथाकारित्वाच अजक दुजओ न पूर्वापरव्याहतः शाक्यस्येव, यथा ज्ञानमुत्पन्नं, आद्रकं च राजपुत्रं मृतं न ज्ञातवान् , स्यादेकं किं निष्ठुरं स्पष्टं नाभिधीयते, त्वं मूों या कुदृष्टि- ॥४२२॥
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भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [६], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१८४-२००], मूलं [गाथा ६६९-७२३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
प्रत सूत्रांक ॥६६९७२३|| दीप अनुक्रम [७३८७९२]
श्रीमत्रक- वति, तदुच्यते, मा भृत्तस्य दुःखं, स्यात्कि वा निष्ठुरमुच्यमानस्य मनो दुःखाचरीरमपि स्याद् हृदयरोगादि, तेज उड़े अहेयं आजीवि नागपूर्णिः ६८२॥ पण्णवगदिसाओ गहिताओ ते थावरा तमा पाणा भूयामिसंकाए संकालये अण्णाणे च, इह तु भवे वुसिय, बुसियं तुसिमा कनिरास:॥४२३|| MA चुत्तो, ण किंचि गरहति जिंदति वा सब्बलोए, सब्बलोएचि त्रैलोक्ये पासंडलोके चा, एवं निलोंठिते वादे आजीविकगुरुराह-यद्य--
| सावेवं गुरुवीतरागोऽनुत्तरमार्गोपदेशकत्वात्सत्पुरुषः सर्वज्ञश्चाथ किं यथा वयं आगंतारादिसु ण वसति सत्तूजणे, आगंतारे | आरामगारे ॥६८३।। वृत्तं, आगत्य २ यस्मिन्नरास्तिष्ठन्ति तदिदं सभा प्रपेत्यादि, आरामे आगारं २, ममणो सो चेव जो भंतिचि |तित्थगरो, भीतो ण अवेति वा स्यात् , कस्य भीत: ?, उच्यते-दक्खा, दक्खा नाम अनेकशास्त्रविशारदाः सांख्यादयः किंचिदणेण । | केचिदतिरिक्ता जत्थ ऊणा अतिरिक्ता वा तत्थ समाधि अस्थि, जपलप व्यक्तायां चाचि लपालप इति बीमा भृशलपालपालपा |वा, जहा दवदवादि, तुरितं वा गच्छ गच्छ वा, उक्तं हि-"देवदेवस्स", अथापियं एवं बडबडादि किमेवं लवलवेसि , त एवं दक्षा, पुनरुच्यन्ते मेधाविणो ॥६८४॥ वृत्तं, ग्रहणधारणासमर्थाः, शिक्षिता अणेगाणि व्याकरणसांख्य विशेषिकबौद्धाजीवकन्यायादीणि
शास्त्राणि, बुद्धिरुत्पत्तिकाद्या तत्र विनिश्चयज्ञा इति, निपद्यानि सूत्राणि जानन्ते पठन्ति वा गद्यन्यूतकानि, तानि च परोपपेतानि, A अर्थ चानेकप्रकारं जानते भाषन्ते च विशारदाः, जानका एवैते चैवं जानका बहुजनसन्निपातेपु वसंतं पुच्छिसु, मा णे अणगारा
शाक्यदीपकाद्याः पृष्टवन्तः, पुच्छित्ति पूर्ण कत्थर, सो बहुजणमगासे सभादिआवासे आवसितो संतो, तेहिं पुच्छितव्यो अन्नहन्तो तद्भचान्मा में पुच्छिस्संति, अनिवहतो य महाजणमज्झे लावितो होमु परिभृतो अ अजाणओत्ति, इति' एवं 'संकमाणे चीहमाणे इत्यर्थः, 'ण उवेति तत्थ' सुण्णघरजिण्णुजाणगिहेसु पंडितजणेण सुरभिगंधेसु आसेवति, आह च-"पाएण खीणदव्या"। ४२३॥
AV
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भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [६], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१८४-२००], मूलं [गाथा ६६९-७२३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
श्रीवक-
आजीविकनिरास:
ताङ्गचूर्णि
॥४२४॥
प्रत सूत्रांक ||६६९७२३|| दीप अनुक्रम [७३८७९२]
इत्यादि, सभयत्वात् 'न' वीतरागो न च सर्वज्ञ इति, किंचान्यत्-कत्थति दुरपि गंतुं कथयति, काणि य गामणगराणि ण चेव गन्छति, काणि य योलेउपि कथेति, न च वीतरागस्य चैपम्यं युज्यते, स हि पर्जन्य इव सर्वत्र समकारी, आह च-"विद्याविनयसंपन्ने, ब्राह्मणे" उच्यते, णो कामकिचा ॥६८५।। वृत्तं,'कम् इच्छायां' करणीयं कृत्यं अकामं कृत्यं करोति अकामकिच्चं तन ताबदकामः कथयति बालवत् मन्यमानोऽपि परानुरोधात् न गौरवाद् वा, न बालकिति न बलातकाराद्, हवदीयते विरध्यानुलोम्यात् , बलकिच्चेति वक्तव्ये चकारस्य दीर्घत्वे कृते णाम बालकिच्चा भवति, जहा बलं, णाचादिमति यो येण, कुतस्तदिदं भयं जितभयस्य ?, स्यात्कथं व्याकरोति ?, तदुच्यते-एमिरकामकृत्यादिदोपैथित्रमुक्तः विविधं विशिष्टमन्येभ्यो बालादिभ्यो वा करेति विविध करति, पुच्छं नितमिति प्रश्नः पुट्ठो अपुट्ठो या, जेण अपुढे करुणाईपि अस्थि, जहा चिरसंगट्ठोऽमि मे गोतमा! आयातिठाणाणि य, अथ विपि कि बीतरागस्स. धम्मदेसगाए ?, कथं वा गंतुं कथेति ?, तस्थवि अणियमो, कत्थयि गंतुं कथति, मजिनम गंतुं तप्पढमताए गणधरा संबोधिता, तत्थ गंतुं कथेति, तं बंदणवतीयादीहिं आगताणं देवाण पाएणति चेव, तेनोच्यते-गंता च तत्थ ।। ६८६ ।। वृत्त, पसिणं प्रश्नः प्रजावत् जत्थ जागति धुर्व पडिवजिस्संति तत्थ गंतु कथेति, जेवि सो एंति तेमिपि द्वाणद्वितो चेव कथयति, ण जाणति. जं जुत्तं जत्थ ण कोइ पडिबजति तत्थ 'ण वञ्चति, अमूहलक्षत्वाच ठाणत्थोवि ण कथेति जत्थ ण कोइ पडियजति, किं भणसि ?, जइ सो एवं वीतरागो सधणू कथयतो कीस अणारिए देसे गंतु ण संवोधयति', तत उच्यते-अणारिया जे देसा सगजाणादी दृष्टिदर्शन परिचा इति परिनदर्शना दीर्घदर्शना नदीघसंसारदर्शिनातदपायदर्शिनो बा, इहलोकमेवैकं पश्यन्ति, को जागति परलोगो ?, शिश्नोदरपरायणाः, न एते धर्म प्रति पश्यन्त इति शङ्कमान
॥४२४॥
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प्रत सूत्रांक ॥६६९७२३||
दीप अनुक्रम [७३८७९२]
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [६], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१८४-२००], मूलं [गाथा ६६९-७२३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[२] “सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
I . . . श्रीसूत्र-D| इत्यर्थः, शंकाशब्दो ज्ञानार्थ एव तदुभये मन्तव्यः, आह हि-"शके प्रहर्षतुला" जेविय आरियदेशेषु अणारियदेसेण अपरिता गोशालक
निरास: वागचूर्णिःगामा णगरा य तत्थवि ण बच्चइ, ण वा तेसिं कथयति, तदेवं भगवंतो देसे तारिसएवि अगारियतुल्ले ण इत्थं धम्मं कोई पडि॥४२५॥ वजइत्ति, नतु भयाद्भवता, सदेवासुगए परिमाए, देवा अच्छराइयाणं तिणि वा, तिदिसिं चेव तेमि चेक, भवद्विधाः परपासंड
तिस्थगरापि न शक्रवन्त्युत्तरं दाउं, किं तर्हि तलिप्या आत्मवलियाः प्रमभमिदाः, तिष्ठन्नु नाव, एवमुक आर्द्रकेन गोशाल: पुनराह-अस्तु ताव जत्थ जत्थ पडिवजंति धम्म तत्व गमणं कथणं च-पन्नं जहा वणिए ।। ६८७॥ वृत्तं तुलो सो णासो, पण जहा, पणति तमिति पण्णागणिमधरीमादि, उदो लाभओ, उदयस्स अट्ठाए 'आयस्स हेतुं, एतीत्यायो लाभ इत्यर्थः, 'पंज संगे' पंजनं सक्तिर्वा संगः, जन्थ लाभगो तत्थ वणिया भंडे घेत्तण वचंति, एवं णाम तुज्झवि तित्थगरो जत्थ लाभो तत्थ
वचति कथेति वा इत्युक्ती ब्रीमि 'ततोवमे', इति एवं इचे होति मम तका, नऊ मति मीमांसा या इत्युक्तो गोशालेन राजमू. MIनुराह-अस्तीयं एगदेसोपमा जहा लाभगट्ठी वणिओ बबहरति एवं भगवं लाभट्ठी तवं च संजमं च करेइ, तस्स के गुणा भवंति ? IAL तदुच्यते-णवं ण कुज्जा ॥६८८। वृत्त, जतो ताव कम्मखवणट्ठा उद्वितस्स ण बज्झति तेण संजम करेति, जेण विधुणिजह परा-11 Vणगं पावं तेण तवं करेइ, चिचा छडेतुं असोभणमति अमति, अण्णहेतुं वा पूजापरियारहेतुं नाण कथेति, तीर्णोवि परान् तारे
तीति, स्याद् धर्मकथायां का प्रस्तावः संजमस्य तपसो वा यद् ब्रविपि 'णवण कुजा विहुणे पुराणं ?', तदुच्यते-णाणं सिक्खति Oणाणं गुणेति णाणेण कुणइ किचाई! णाणी ण ण बंधेति' किंच-सोय खलु णाणपरिणतो, तेण संवृतो, संबर एव संवरस्त
थावि अन्नतरो धम्मकथावसाणो पंचविधी सज्झाओ, इचे धम्मकथाएवि संवरहाणं उत्तरोऽस्ति तेनोच्यते-गण का विहए' lifal|४२५।।
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भाग-2 “सूत्रकृत" - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [६], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१८४-२००], मूलं [गाथा ६६९-७२३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] “सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
निरास:
प्रत सूत्रांक ||६६९७२३|| दीप अनुक्रम [७३८७९२]
श्रीसत्रक- Pएतावतो बंभचेर, एतदेव तद् ब्रह्मणः पदं, नामपदं वा, ब्रह्मवतं वा, किमिति चेत् ब्रह्मेति चरितं दुविध तवचरणं संजमजोगो ताचूणिः
तं उवेतः, उदइओ लामओ संजमस्स तबस्स बा, उक्तं हि-उदग पक्खे' उदएण वा जस्स अट्ठो भवति, समणो भगवानेव, ॥४२६॥ एवं ब्रवीमि, नतु सर्वसाधर्म्यमस्ति भगवतो वणिजेहिं, कथं ?-समारभंते हि वणिया ॥६८९॥ वृत्तं, समारभंते क्रयविक्रय
भंडसगडवाहणपयणपयावणादीहिं आरंभंता समारभंति छकायभूतग्राम, परिग्रहो दुपदं चउप्पदं धणं धण्णहिरण्णसुवण्णादित एव ६७ ममायमाणा रक्खंता णट्ठविणटुं च सोअंता उवाणिजंता य सुबह पावकम्म कलिकलुसं तु एवं वृत्ता, स एवं कम्मसमाचारो य ।
णातिसंजोगो, तं अभिग्रहाय तेमि अप्पणो य अट्ठाए, आयहेतुति आयलाभओ लाभट्ठाए एए पाइसंजोगा तस्सट्टाएति वुत् होति, भृशं करेंति प्रकरेंति, सक्ति संयं। किंचान्यत्-ते हि वणिजा-वित्तेसिणो ।॥ ३९॥ वृत्तं, 'वित्त' हिरणसुबण्णवित्र तं एसति गणो, मिथुनभावो मैथुनं, सं प्रगाढा २ समस्त गावाः, भुञ्जत इति भोजनं. अशनादि ब्रजति, भोजनं अशनादि, ब्रजन्ति दिशः संक्षेपार्थ ते वणिओ, वित्तं किमर्थमेपमाणा दिशो ब्रजन्ति ?, उच्यते, मैथुनार्थ भोजनार्थ वेति, आह हि-"शिश्नोदरकते पार्थ " विरक्ताः स्त्रीकामेभ्यो जितजिह्वेन्द्रियाव, वयं तु तुर्विशेपणे विरक्ताः अन्यतीर्थेभ्यः, किं पुनर्ग्रहीभ्यः, त एवं इत्थिकामेसु वित्तादि भोयणे रसेसु अ अज्झोववण्या वणिया, जहा रसेसु तहा सेसेसुचि विमएसु सद्दातिसु, अथवा रस इति सुखस्य आख्या, आह हि-'आश्चादे शीघ्रभावे च' तथा चाह-'विषया विनिवर्तन्ते, निराहारस्य देहिनः। रसवजे, रसेसु गृद्धति सुखेसु गिद्धा इत्यर्थः, इतथ सामान्यवृत्तं भवतां वणिजा, कथम् ?-आरंभग चेव परि०॥६९१।। वृत्तं, आरम्भो, उक्षसकटभरादीणां पचनपाचनच्छेदनादीनां च हिंसाद्वाराणां, परिग्रहे ममीकारः धनधान्यादि, संरक्षणं च, परिग्रहार्थमेव चारंभः क्रियते तमारंभं च
मायाला
॥४२६॥
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भाग-2 “सूत्रकृत" - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [६], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१८४-२००], मूलं [गाथा ६६९-७२३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत' जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
प्रत सूत्रांक ॥६६९७२३||
THE
दीप
अनुक्रम [७३८७९२]
श्रीसूत्रक- परिग्रह' चा अविउस्सिया णाम अयोसिरिङ, णिस्सिता तमिः आरंभे परिग्रहे बा, पुथ्यापरसंबंधे च णिस्सिता, आत्मन इति जीवान गोशालकताङ्गचूर्णिः
निरास: VA दण्डयति चन्धवधपरितावणोदवणादीहि तदुःखोत्पादनाद्वा आत्मानं दण्डयंति संसारे। किंचान्यत् 'तेसिं च से उदए' तेसि वणि-11 ॥४२७॥
Nयाणं 'सो उदए'ति सो लाभओ चाउरंतमतससाराय भवति, ण तु इह धम्मकथारजलाभो पुण चाउरंतसंसारविप्पमोक्खाय | किंचान्यत् , णेगंत णचंतिय (ब) ॥६९२॥ वृत्तं, सव्वेसि वणियाण एगतिओ होइ किरियाइ छेदओ होति, कदाइ लाभओ, जइवि लाभओ तोवि अग्गिचोरादि सामण्णतणेण य जं खजइ दिजइ तेण आणचंतियं वदंतित्ति, जुञ्जद, एते दोऽवि पगारा | अणेगंतिए, अथवा विपद अवार्या, दोऽवि पगारा अणुदए चेव, न लाभ इत्यर्थः, तद्विपरीतस्तु णिजरा उदयो, यत उच्यते से। | उदए से णिञ्जरा लाभः, मोक्षगतस्य सादिअणंतत्वं अणंतप्राप्ते, अणंतपते तं उदय, लाभक इत्यर्थः, साहयति-आख्याति सिलाइति बा प्रसंसतीत्यर्थः, णातीति ज्ञातिः कुली, यात्रायतीति त्राती, स चैकः एकान्तिकत्वाच्च परमलाभक इति, तदेवं वणिग्भ्यः भगवंत सुमहद्भिविशेषैविशिष्टं संतं यत्नैः समाणीकरोषि तं पुनरयुक्तं, कतरैविशेषयन्ति णणु जे समारंभादिभिः पंचभिर्विशेषैराख्याताः, इमे चान्ये विशेषाः, तद्यथा-अहिंसकं(य) ।। ६९३ ॥ वृत्तं, अहिंसको भगवान् , ते हिंसका, सब्वमत्ताणुकंपी च भगवं ते गिरणुकंपा, दसविधे धम्मे हितो भगवं, ते तु वणिजा, किमत्थं धम्मे स्थित इति चेत्, कम्मविमोक्खणट्ठाए, पुन: कर्मविमोक्षार्थ अभ्युत्थिता, धनार्थ तूस्थिताः, तदेवं अणेगगुणसहस्रोपेतं, 'आयदंडे'ति आत्मानं दण्डयंति जीवोवघातित्वात् , समाचरति इति सम आचरंता समाचरंता, तुल्यं कुर्वन्ता इत्यर्थः, समानयंतो वा समानं कुर्वन्त इत्यर्थः, एतद्धि तओअघोरमज्ञानं चेति, तमेवं प्रतिहत्य निर्वचनोध्यमितिकृत्वा चाजीवकपुरुषं गोशालं भगवंतमेव प्रति ययौ, तथाकेन गोशालमवधीरितं ॥४२७
mयायालय
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आगम
(०२)
प्रत
सूत्रांक
||६६९
७२३||
दीप
अनुक्रम [ ७३८
७९२]
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र -२ (निर्युक्तिः+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [६], उद्देशक [-], निर्युक्तिः [१८४-२०० ], मूलं [गाथा ६६९-७२३] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र [०२], अंग सूत्र -[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
श्रीसूत्रकताम्रचूणिः
॥ ४२८ ॥
मत्वा द्वाभ्यां कारणाभ्यां तुष्टाः शाक्यपुत्रीया मिक्षवः, कथमिति चेत् यदेषो अमाकं प्रत्यक्षतोऽनेन निगृहीतः यच्चासाकमिदानीं इलाघा बहुपरिवारो राजपुत्रोऽस्माकमायास्थतीति, अतः गुणशीलमुद्यानं भगवत्समीपं प्रत्यायातस्य संबहुला भूत्वा बुद्धसिद्वान्तं ग्राहयिष्यामेति पुरस्तात्स्थित्वा भो भो भव्य महाश्रव आर्द्रकराजपुत्र स्वागतं ते 'कुतः आगम्यते ?, क च यासीति' स भगव समीपं यामि इत्युक्ते भिक्षुका इयमूचुः - इदमपि तावदस्म सिद्धान्तं शृणु, श्रुत्वा च संप्रतिपद्यख पण्डित वेदनीयो धरमसिद्धान्तः सूक्ष्म चित्तमूलत्वाद्धर्म्मस्य, तदेव च नियंतव्यं, कि कायेन काठभूतेन वृथा तापितेन ?, आह हि 'मनपुच्वंगमा' तथा चोक्तं'चित्ते तायितव्ये' इत्येवं चित्तमूलो धर्मः, अधर्मोऽपि चित्तमूल एवं स्यात् कथं स धर्मवित्तमूल: १, उच्यते, पिण्णागपिंडी | ६९४ || वृत्तं, जइ कोइ आमन्नवेशे वेरिओ जो चालरूबाई सोयति सो तेवि मारिए (रेड), मारेतुं चेडरूवाईपि मारेमित्ति ववसितो, सुवंतिय के वेरिया जे गन्भेवि विगितिति महिलाणं, मा एते बद्धमाणा सतुणो होडिंति, तत्थ समावतीए खलपिंडी पलंकर पोतेण ओहाडिता मन्दप्रकाशे गृहकदेसे वा मो तेण तिब्ववेराभिभूतेण एस दारओचिकाऊ गं सत्ति कुंतो वा सत्ती वा तिमूलं चा, एवं विधुं चिंतेति कदायि एस अमम्भविद्धो जीवो, ता तहेव मूलप्रोतं अग्मिम्मि पयति, एनमेव अलाउयं वावि कुमारओति पयतिले विधुं अवेद्धुं वा स प्रदुष्टचितत्वात् लिप्पति प्राणिवघेण अहणतोचि सतं 'अहं'ति अहं सिद्धते, एवं तावदकुशलचित्तप्रामाण्यादिति, कुर्वन्नपि प्राणातिपातं प्राणघातफलेन न संयुज्यते अयमन्यः कुशलचित्तप्रामाण्यात् अकुर्वनपि प्राणातिपातं तत्फलेन संयुज्यते, यत्रायं पाठ:- अह्वावि विद्धूण मिलक्खु सूले ॥ ६९५ ॥ वृतं वा विभाषादिपु मूलक्खुत्ति अणारिया अथवा आरिएवि जे मिलक्खुकम्माणि करेंति, स एवं मे छोपि भूत्वा क्षुधार्तः पित्रागपिंडीयमिति कृत्वा पुरुषमपि
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बौद्धनिरामः
॥४२८||
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आगम
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प्रत
सूत्रांक
||६६९७२३||
भाग-2 “सूत्रकृत" - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [६], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१८४-२००], मूलं [गाथा ६६९-७२३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि: श्रीस्त्रक- शूलेण वेधुं अगणिकाए पएजा खाइतुकामो, कुमारगं वावि अलाउअबुद्धीए पउलेतुं खाइस्सामि तु पएजा, ण लिप्पति पाव- बौद्धनिरास: तागचूर्णिः बंधेण अम्हं, एवं तावदसाकं अपचेतनकुनप्राणातिपाते नास्ति, यद्यपि च भवानन्यो वा कश्चिन्मन्यते अनपाये अपायदेशी यथा ॥४२९॥ भवतो मांसासिन इति तत्रापि अनभिसंधित्वादेवास्माकं त्रिकरणशुद्धं मांस भक्षयतां नास्ति दोपः, कथं ?, इह हि-पुरिसं च |
|विदधृण ॥६९६।। वृत्तं, जइ कोइ अजाणतो पुरिसं वेधुं कुंतण वा सूलेण वा अप्रकाशावस्थित कुमारकं वा बालमित्युक्तं, एतं | | गिलाणमिक्खुस्स छिन्नभत्तस्स दुभिक्खादिसु जायतेए परंतु पिंडीयमिति पोलितं सुगंध सुहं खाइस्संति सती बुद्धिः तस्या
कल्पति, 'बुद्धा ति नित्यमात्मनि गुरुपु च बहुवचन, युद्धस्मवि ताच कप्पति किमुत ये तच्छिप्या:?, अथ बुद्धिः पापापत्यानि चौद्धानि VIतेसिणं कप्पति पारणए भोजनायेत्युक्तं भवति, सर्वावस्थासु अचित कर्मयायं न गच्छति, अविज्ञातापचितं ईर्यापथिकं खमा-IHA
न्तिकं चेत्यस्माकं कर्मचर्य न गच्छति, एवं तावच्छीलमूलो धर्म उक्तः । अथेदानी दानभूल:-सिगायगाणं ॥६९७|| वृत्तं, चतस्रो तासु त द्वादशसु धृतगुणसु' युक्ता, एतेसिं एवंगुणजायियाण अभिगत यथा तस्यानन्दो दोणि सहस्से मिक्खुयाणं | भोजावेति समांसगुडदाडिमेनेटेन भत्चेन, तेण पुण्णखंध, संस्कारो नाम पंचधा, स त्रिविधः पुण्यः अपुण्यः सतिजा इति ते, तं
आरोपं, ते हि प्रवीणकल्मपप्रायाः चतु:प्रकाराः आरोपा देवाः, ते भवन्त्याकाशोपकाः विज्ञानोपकाः अकिंचणीका: णोसणिणो | दातारः, सर्वोत्तमा देवगति गच्छंतीत्यर्थः, महतां इति प्राधान्ये महाशब्दः, अथवाऽऽकस्याऽऽमत्रगं क्रियते हे महासच ! इत्यर्थः, तदेवमिह स भगवता बुद्धेन दानमूलो शीलमूलश्च धर्मः प्रणीतः तदेहि समागच्छ बौद्धसिद्धान्तं प्रतिपद्यख, इत्येवं बौद्धभिक्षुकैरुक्त आर्द्रको आर्द्रकानादरयाऽव्याकुलया रष्ट्या तान् दृष्ट्वोक्तवान्-भो शाक्या यद्ब जो-पिष्णागं पुरिसबुद्धीए सूले विधति पचति.
दीप
अनुक्रम [७३८७९२]
JI४२९
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भाग-2 “सूत्रकृत" - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [६], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१८४-२००], मूलं [गाथा ६६९-७२३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-[२] “सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
प्रत सूत्रांक ||६६९७२३|| दीप अनुक्रम [७३८७९२]
न थीमयक- वाजानते य अलाउ वा कुमारयुद्धीए किर लिप्पति पाणवधेण अकुशलचित्तो, अण्णो पुण पाणवधंपि करतो पयंतो पाणे कुश- बौद्धनिरासः तानचणि लेन चितेन मुगति पाणातिपातातो, तत्र धूम:-अयोग्यरूपः।। ६९८ ॥ वृतं, इह न योग्यमयोग्य, रूपमिति स्वभावेत्युच्यते, ४३०|| ITA यथा कधिन्केनचित गेपतः प्रत्यपकारचिकीपुरन्तर्गतं भावमाविः कुर्वन् भ्रूकटिं करोति रूक्षा खारा या दृष्टिं निपातयति, उक्तं ।
हि-'सहस्स खरा दिट्ठी' माथा, एवं स्वभावे रूपशब्दं निवेश्य उच्यते अयोग्यरूपं क्रूरस्वभावभित्यर्थः, शिरस्तुण्ड मुण्डनं कृत्वा प्रनजितोऽहमिति लिङ्गानुरूपा चेयां युञ्जते, आह हि-"वयं मकर्मणोऽर्थस्य" तेनोच्यते-अयोग्यमेतत् प्रबजितरूपस्य अहिंसा
मुत्थितस्येहेति इहास्माकं प्रवचने, अहिंसार्थक हस्तादिसंयता वा पार्य तु, तुर्विशेषणे हिंसैब सर्चपापेभ्यः पापीयसी, प्राणाः पृथिव्यादयः, प्रसहोति क्रौर्याद्वलादाक्रस, तुम्भेवि य प्रबजिताः शिरस्तुण्ड मुण्डनं कृत्वा कपायवाससः स्त्रीवेषधारिणः संयता वय| मिति सम्प्रतिपन्नाः, तेण तुम्भेवि अयोग्यरूपं हिंसादिवलाः जे तुम्भे संपडिवजह, मणुसादि प्रसह्य असमीक्ष्य कथं वयं प्राणिनो मास्यामः मारापयामो वा तदुच्यते-नो मंता व अकुशलेण चितेण पिण्णागपिंडी खोडी या पुरिसोत्तिकाउं अलाउयं अण्णं वा तओ सालिफलं कुमारकोऽयमिति प्राणातिपातेन, आज्ञादोषो न युज्यते इति ब्रूमः, यत्तु पिण्णागवुद्धीए पुरिसंपि विद्धमाणो मारेमाणो वा कुमारगं वा अलाउअबुद्धीए ण लिप्पति पाणवहेण अई सिद्धान्त इति वाक्यशेषः, 'अबोधिए दोण्हवि' अबोधिःअज्ञानं तेण यदि अज्ञानात् मुच्यते प्राणवधानाज्ञानं श्रेयमितिकला, किं पुनरुच्यते-अविद्याप्रत्ययाः संस्काराः, सर्वसम्यग्दृष्टिप्रमाक्षेत्र प्रसज्यते, विरताविरतिविशेषणश्चैवं सति, अन्यथा वा का प्रत्याशा ?, निर्दयं ततो विकृताः, कथं १, इहरहावि ताय लोगो दुक्षेण अहिंसत्वं कार्यते, तुम्मे य भणह मारेन्तो कुशलचित्तेन अहिमो भवति, तदेवं प्रकार यो वचः 'असाधु' अशोभनं,
DIC
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भाग-2 “सूत्रकृत" - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [६], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१८४-२००], मूलं [गाथा ६६९-७२३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
प्रत सूत्रांक | श्रीसूत्रक-01'दोहवित्ति तुम्भे य जे य पडिसुणंति अज्झावयो, हंतुंपि अणुतप्पति, ते परिचत्ता, हतुं वीसत्था होहिंति, आह च--"केचित् बौद्धनिरास:
मागचूर्णि: शुन्यं नष्टाः" यदि च अज्ञानमदोपाय तेन वैदिकानामपि परमात्मके यबुद्ध्या छक्काए घातयतां न दोपोऽस्ति, संमारमोचकानां । ||६६९॥४३१०
च, घातयामिति किं भणह ?, तुम्भपि एवं रोचयति जहा असंचितेंतो कम्मबन्धी णस्थि ?, इत्यत्र बम:-उडमहेयं ।।६९९॥ ७२३||
वृत्तं, चत्तारिनि दिसाओ गहिताओ, पण्णवर्ग पथ, विविधं विशिष्टं ज्ञात्वा विज्ञात्वा विज्ञाय, लीनमर्थ गमयतीति लिङ्ग पसंतीति | दीप
त्रसा, तिष्ठन्तीति स्थावराः, तेसु तसथापरेसु, किंच लिंगमेपां? उच्यते-उपयोगी लिंग लक्षणमित्यर्थः, आह हि-निमिनं हेतुर
पदेशः' यथा अनावौष्ण्यं सांसिद्धिकलिङ्गमेवमात्मनां त्रसानां स्थावराणां च सांसिद्धिकलिंग, येन ज्ञायते आत्मनाऽऽत्मेति, स चोपअनुक्रम
योगः स्पर्शादिपिन्द्रियेषु सुखदुःग्वयोरुपलब्धिरित्यर्थः, तच्च सर्वप्राणभृतां समानं लिङ्ग, सुखं प्रियमप्रियं दुःखं, तदेवं [७३८
अत्ताणुमाणेणं 'भूतामिसंकाए(ड)दुगुंछ माणे' कता भूताई संकति तसथावराई दुक्खाओ,तं च दुक्खं त्रमा वा दुगुंछति, तस्मादुद्विजत ७९२]
इत्यर्थः, एवं जाणामि, णो बदेल मारतो मुञ्चति, दोसो पत्थि, करेज वाणिस्संको प्रमाद, अण्णाणेण दोमो स्थि, कृत एतद् ब्रमो माया च कुचकुचा वा प्रवचनेऽस्ति ?, किंच-पुरिसेत्ति विन्नत्ति ॥७००॥ वृत्तं, जंवा भणिसि पुरिसोऽयमितिकृन्वा पिण्णागपिंडी अलाउज वा कुमारगति अकुशलचित्तो विधमाणो अदोसोचि विद्वानो विष्णुत्ति, एतं जहां हिंसकत्वे चिन्तिक्षमाणं ण युजति, अणारिए वा से पुरिसो भणति, अलाउ वा कुमारवुद्धिए विभुतु, अज्ञानेन अस्य द्रोहः संपद्यते, एवभज्ञानेन चैवं पुरिसं | पिण्णागपिंडीवुद्धीए कुमारगं या अलाउयबुद्धीए विवाइन्तो किं च ण बझिस्सति, किंच-को संभवो? पिण्णागट्ठताए संभवणं, संभूतं वा संभवः, का पुरुपे सचेतने पिण्णागयुद्धिमुत्पादयिष्यति ?, निसृष्टसुप्तस्य च नोद्वर्तनपरिवर्तनाथाः क्रिया भवन्ति तेन | ॥४३१॥
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भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [६], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१८४-२००], मूलं [गाथा ६६९-७२३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-०२] "सूत्रकृत' जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
बौद्धनिरासः
-
श्रीमत्रक
चूणिः
-
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प्रत सूत्रांक ||६६९७२३|| दीप अनुक्रम [७३८७९२]
संभवोऽस्ति पिण्णागपिंडपुरुषस्य, तंत उच्यते-नैतदेवं, यत एवं-पिण्णागपिण्डे पुरुषस्य काठे वा वस्त्राच्छादिते उपपत्तिरिति, अत। एव किमसावेवमेतदुभयं जानमानो निस्संक करेति, किमयं पुरुषः स्यात्पिण्डी काष्ठं वेति स्यादिति, अथ सम्भवे विद्यमाने निशः
महारी पठ्यते निर्मीमांस इत्यर्थः, एवं 'मे वायाप्यसौ कुशलचित्तेन पुरुष पिण्णागपिंडीयुद्ध्या चातयति तस्याप्युभयं सम्भवत्वात् युक्तो विमर्श:-किमयं पुरुषः स्यात् उत पिण्णागपिंडी?; एवं कुमारेऽपि अलाउक स्यात्तुमारः स्यादिति, जम्हा-न एवं संभवो दिवो तम्हा य सहप्पगारा गस्थि, 'पाया युइति त्ति वुत्ता असत्या अशोभना, अथवा सत्य इति संयमः असत्य इति संयमवादीत्यर्थः, निश्चयस्य निरनुकम्पा सद्रोहेत्यादि, किमंग पुण कम्मुणा ?, किचान्यत्-यज्याभियोगेन ।। ७०१ ॥ उच्यते इति वाचा, वायाएवि अभियोगो अभिमुखो योगः अणियोगः अभिवाग्योगः, एवमुक्तं भवति-हवेञ्जति हवति संयम ? इति वाक्यशेपः, कः पिण्डार्थः संवर्णीयः वायाभियोगेण यदा हवति संयम, जहा भणह मारतो अदोसोचि 'ण तास्सिं वायमुदाहरेजा' सद्रोहमित्यर्थः, । अट्ठाणमेतं कुशला वदंति-यथा कण्टका स्थाल वा सलिलस्पारस्थान एवं तुभपि इमं वयणं, अज्ञानदीपोऽस्तीति, अहिंसकादीनां
गुणानामस्थानं अनवभाजनमपि, निजे वित्थरेण दिखातो मोकावत्थं गृदि निसृत्य शिरस्तुण्डमुण्डनं कृत्वा यात 'सुराल'मिति, सूरालमेतत्स्थूल हिंसकत्वात् 'अदिक्वितस्मवि, किं पुण दिक्खितस्स ?, एवं असंचिन्तिते न कर्मवन्धो भवतीति अज्ञानश्रेयसं सर्वसम्यग्दृष्टिप्रसङ्गश्चेति, वैदिकाः संसारमोचकाच निदोपाः एव भवन्मतेन. शाक्यं हेडयित्वाऽऽर्द्रको मुखीभूत्वा प्रपंचमाह लद्धे अडे अहो एव तुमे ॥७०२।। वृत्तं, लब्धः प्राप्तो यदज्ञानं श्रेयस्ततः किं ज्ञानाधिगमः क्रियते ?, कुतो एस तुम्भेहिं अट्ठो लको जेण अजाणता' सम्वतो मुचति !, बालमचोन्मत्तप्रमत्तादयः, अहो दैन्यविसयादिपु, दैन्यं तावत् जहा कोयि कंचि दिमूद
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प्रत
सूत्रांक
॥६६९७२३|| दीप अनुक्रम [७३८७९२]
भाग-2 “सूत्रकृत" - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [६], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१८४-२००], मूलं [गाथा ६६९-७२३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-[०२] “सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
YRY.. धीसत्रक- उपहेण अडतं दद्दु भणति-अहो अयमेवं बराओ किलिट्ठो किलिस्सति, एवं तुम्भे उम्मग्गपडिनना मोह किलिस्मह, साम्येनि सांख्यताङ्गचूर्णिः विस्मये, अयं शोभनो अहो सिद्धान्तो यत्राचिंतितं कर्मचयं न गच्छति, कार्यकारीसमता एवं अयं जीवाणुभागे सुविचिंत-1 गैद्धनिरास: ॥४३३॥
यंता ॥७०३।। वृत्तं, कश्चैषां अनुभागस्तनुसुखप्रियताः दुःखोद्विगिता, तस्किमुक्तं भवति , एवं जीवाणुभागो सुचिओ भवति । यदुत सर्वसचानामात्मोपमानेन न किंचि दुःखमुदपप्तदिति, अहोशब्दः सर्वत्रानुवर्तते अहो वचस्तेन गुरुगा करतल इयामलक | सर्वलोकोऽवलोकितः, ज्ञात इत्यर्थः, किमुक्तमुच्यत इत्यर्थः, इति चेत् येनाज्ञानं श्रेय इति, स्यादेप भवतां किं चिन्तितः कर्मबन्धो । भवत्याहोखिदचिंतितो मोक्षो वेति, अत उच्यते-'धारीया अन्नविधीए सोहि' मोक्ष इत्यर्थः, स्यात्करोत्यन्यो विधिर्येनार्या शोधि| मिच्छन्ति, तत उच्यते, जहा छणणं, नापि संचितितं कर्म बसत इति सिद्धान्तः, किंतहि ?, असा प्रमत्तस्य कर्म वध्यते, अप्रमत्तस्य मुच्यते, अप्रमत्तः शुयत इत्यर्थः, एवं शोधिराहुराचार्याः, ण वियागरे ण चाकरेंति, छद अपवारणे, छज्जते तस्स
छन्नं छन्नमप्रकाशमदर्शनमनुपलब्धिरित्यनान्तरं, पदं चेष्टितं, छन्नपदेन उनजीग्नधर्मा छन्नपदोपजीवि, कथं ?, अजाणस्स बंधो HAणस्थि तहा ण विआगारे, छष्णपदोपजीवि, पठ्यते गूढविजागरे छगणपदोपजीवि, छण हिंसायां छणणमेव पदं छणणपदं ततो
वागरेजा, जहा अजाणंतस्स कम्मबंधो णस्थि, ते एवं श्रोतृणां निर्दयादयो दोषाः, स्यात्कि व्याकरितव्यं कथं न ?, उच्यते, जहा
छणणं न होति जीवाणं, अज्ञानते तु बंधो पत्थि उच्यमानेन प्रमादं करिष्यति, तेण छणणं अनुज्ञातं भवति, तदेप पिण्डार्थः-- MOI जहा छणपदोपजीवि ण छणणपदोपजीविणो वाकरेंतीति वाक्यशेपः, तहा ण वियागरेज, अयं इदानीं आपोऽर्थः, जीवाणुभाग
अनुचिन्तयतो वियागरे अछणपदोपजीवि, एकारात्परस्य लोपे कृते छणपदोजीवि भवति, अचिंतिते कर्मवन्धो नास्ति हा च साधु ॥४३३॥
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भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [६], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१८४-२००], मूलं [गाथा ६६९-७२३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-०२] “सूत्रकृत' जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
प्रत
मांख्यबौद्धनिरास:
सूत्रांक ||६६९७२३|| | दीप अनुक्रम [७३८७९२]
ALNILIP
HarPIRINTIMAntarna
धीक- वियागरे, अछणपदोपजीवि 'एसोऽणुधम्मो' अनु पश्चाद्भावेऽनुधर्मस्तीर्थकराचीर्णोऽयमुपचर्यते इति अनुधर्मस्तीर्थकरानुम्मिणः ताङ्गचूर्णिः
साधय इहेति, इह प्रवचने संजयाणं एवं सील, न घटते भवतां, जोऽवि अतुझं अशीलमंताणं देति सोऽवि अप्येवं वध्यते, ण ॥४३४॥
मुच्यते, जं भणसि-सिणातगाणं तु दुवे सहस्से ॥ ७०४ ।। वृत्त, सिणातगा सुद्धा द्वादशधूनगुणचारिणो भिक्षवः, जेवि दोऽवि सहस्से मुंजावेति सोवि ताव मुचति, किं पुण जो एक वा दो वा तिण्णी वा, एते णिचं दिणे दिणे असंजता लोहितापाणि सधघातीत्युक्तं भवति, गर्हा-निन्दा इत्यर्थः, ज्ञानाचार्याणां धर्मः अजः, जइ लोके भिक्षुकाणां च गरहितो धर्मः अजाणमाणाणं, इह हिंसानुज्ञानात् अपात्रदायकत्तिकाउं गरहितो, सावधं छकायवघेण, अजयाण अपात्रेपु व दिञ्जमाणं, कर्मबन्धाय भवति, इतच तुम्भे य अपात्राणि दक्षिणाया इत्यर्थः, जेण मंसं खायह तह णस्थि एत्थ दोसो, अह्वा शीलं तुझं दुसितं दाणंपि ण जुजति, इतश्च शीलं नास्ति, जं भणह-थूले उरभं०॥७०५।। वृ, "थूलो'ति महाकायो उपचितमांसह लोके शाक्यधर्म
एवं मारेह, यथा शाक्या उद्दिसितुं भिक्षुसंघ प्रकल्पयंतः, केण साघेति?, तं लोणतेलपिप्पल्यादीनि वेपणाणि गृहीतानि हिंग। कुच्छंभरादीनि वाऽन्यानि, तमेवमादीहिं वेसणेहिं भिक्खूढाए पकरेंति । तं भुंजमाणा पिशितमिति ॥७०६ ॥ वृतं, मांसं
प्रभूतमाकण्ठाय बहुप्रकार वा, अप्येवं दिणे दिणे पोष लिप्पामो वयं, कस्मात् ?, त्रिकरणशुदवात, इषमसाक, अहं खु बुद्धः तेन प्रमाणमित्यतस्तत्प्रामाण्याद्भपामः, तदुच्यते-'इचेवमासु, अणजवु द्वो वा अण्णे वजे केइ एवमक्खातवन्तः साम्प्रतं आइक्खंति वा मांसदोपमिति, सर्वे ते अणारिया बाला मूढा रसेसु, रसशब्दो वा सुखे भवति, सुहेसु विसएसु, सुहे गिद्वा। जे यावि भुजति ॥७०७।। वृत्तं, जे य बुद्धा वा अबुद्रा या पुत्रांसोपमं मांसं प्रदोपतिकाउं मुंजंति, चशब्दादुपदिशन्ते मांसमदोपमिति,
m
aingan ORYAL
।।४३४॥
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भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [६], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१८४-२००], मूलं [गाथा ६६९-७२३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[२] “सूत्रकृत' जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
प्रत सूत्रांक ||६६९७२३||
दीप
अनुक्रम [७३८७९२]
श्रीयत्रक- सेति ते पावमजाणमाणा, हिंसादी उपार्जयन्तीत्यर्थः, अहवा ते मांसासिणां णिरणुकं जीवेसु बुद्वसंज्ञिक पावं सेवंति, तदोपम-ID सांख्यताङ्गचूर्णिः जानमानाः, अथवा जाणं मंसखायणेण पावं वज्झति तं च तुम पावं अजाणमाणो, जहा एन्थ बधाणुमाणागतं घणं चिकणं पाव चौद्धनिरास: ।।४३५॥ V बज्झति, तेण खणं ण, एवं कुशला रदंति तंमि मांसादे, सुद्धे, मांसभक्षणोपदेमएण एवं तच्छमाणे कुचंति भुक्तिमीत्यर्थः मंस
भक्षणे, वा अथवा 'मणं ण एतं सुद्ध, कुशला जाणका मनज्ञाना मणपि न कुवंति ज्ञातपुत्रीया, वतीति एसा मंसमदोसंति बुड्या |
असञ्चा, किल कम्मणो कर्तुः, स्वादुद्दिष्टं भक्तं, उच्यते-सब्वेसि ॥७०८॥ वृत्त, पाणा पृथिव्यादयः तेसिष्णिकार्य णिक्खिप्प, दंडो AV मारणं, सहावजेण सावज पचनपाचनानुमोदनानि, यो वाऽन्येन प्रकारेण दंभनवाहनमारणा, दण्ड सावजं दोसं पविजयित्ता
'तस्संकिणो' वा, शंक ज्ञाने अज्ञाने भये च, ज्ञाने तावत्कथं जानमानः उद्दिश्य कृतदोपे तं गृहीयात् , अज्ञाने संकितो कंखो | वितिगिच्छासमावष्णो संकमाणो, भए 'आहाफम्मणं भंते ! मुंजमाणे किं पगरेंति ?, उच्यते अट्ठकम्मपगडीओ सिढिलबंधण
बद्धाओ धणित०' एवंविधा संका जेसिं ते भवंति तस्संकिणो इसिणो णातपुत्चा णातस्स पुत्ता ते भूनाभिसंकाए दुगुंछमाणा | ॥७०९॥ वृत्तं, जम्हा भूतो भवति भविस्सति तम्हा 'भृते'ति, संका भये ज्ञाने अज्ञाने च पूर्वोक्ता, इह तु भए द्रष्टव्या, तच मरणभयमेव, मारेमाणेहिं इह परत्र च संकते विभ्यत इत्यर्थः, इह तावत्प्रतिवरस्य संकते बंधषधरोहदंभणाणां च, परलोए णरगादिभयस्स, उक्तं च-"जो खलु जीवं उद्दवेति एस खलु परभवे तेहि वा अण्णेहि वा जीवेहिं उदविजति" इह लोके तु भयेण 'सब्वेसु पाणेसु'ति पाणा एगिदियादिया आयुः प्राणादि, घाइणो घातयति निक्षिप्यते, एवं समणुण्णाते,'तम्हा ण मुंजंति' तस्माद्वाऽनुमत्याः कारणात् इहपरलोकापायदर्शनाच न भुजंति 'तहप्पगारं' अन्यदपि जं साधु उद्दिश्य तं कृतं 'एसोऽणुधम्मो, जहा लोए ॥४३५॥
5SANSAMUHIMAHESHARMA
[450]
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(०२)
भाग-2 “सूत्रकृत" - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [६], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१८४-२००], मूलं [गाथा ६६९-७२३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सूत्रकृत' जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
प्रत
सूत्रांक
1
७२३||
दीप
अनुक्रम [७३८७९२]
श्रीपत्रक- अणुराहणो धम्मो, उक्तं च-" यद्यदाचरते श्रेष्ठः" तथा "देशे २ दारुणो वा सिवो वा" एवमिहापि, अनु पश्चाद्भावेतिकृला | AY
सांख्यनाहगूर्णिः
ail बौद्धनिरास: तीर्थकरगणधरेहिं वर्जितमुद्देशितं, तदनु तच्छिष्याः अपि परिहरंति, अथवा अणुः सक्ष्म इत्यर्थः, सक्ष्मो धर्मो भगवता प्रणीतः ॥४३६11
स्तो फेनाप्यतिचारेण बाध्यते शिरीपपुष्पमिव तदनुतापेन, संयताः साधवो, णिग्गंधधम्माण (धम्ममि) ।। ७१०॥ वृत्तं, णिग्गंथस्स धम्म एव येषां धर्मः तेण भवंति णिग्गंयधम्मणो, अथवा णिग्गंथो भगवानेव, गंथा अतीता अत्ता, चेअणभूतेण 2.णिग्गंथेण तुल्लो जेसि ते भवंति णिग्गंधधम्माणः, तत्सहधर्माणः इत्यर्थः, इमो इति प्रत्यक्षीकारणे, समाधिः समाधिः मन:॥ समाधानमित्यर्थः, अथवा मणस्स हि इहेव समाधी भवति, द्वन्द्वाभावात, परमसमाधी य मोक्षो, ये पुनः पचनपाचनरता आरम्भA प्रवृत्ताच तेपामनेकाग्रीभावः, कुतः समाधिः?, उक्तं हि-"स्नानाद्या देहसंस्काराः" समणे भगवं महावीरे इति खलु से भगवं
महावीरे समन्तात् शामोति, मोक्षमित्यर्थः, इहार्चनं श्लोकं च प्रामोति, श्लाघा कथने, श्लोको नाम श्लाघा, कथं श्लाध्यते ?, इहैव तावत् उराला किरियण्णासइसिलोगा परिवुअंति इति खलु समणे ३, परमि सिद्धे युद्धे, तहा या “णवि अस्थि माणुसाणं" एरत्र च श्लोकं प्राप्नोति, इलाघामित्यर्थः, यस्तु अबुद्धोऽशीलगुणोपपेतः पचनपाचनाद्यारम्भप्रवृत्तः साताबहुलस्नानादिशरीरसंस्कारग्रामादिपरिग्रहे व्याप्रियमाणोऽसमाधियुक्तः इहेति निन्धो भवति यथा "ग्रामक्षेत्रगृहादीन" तथाऽऽहु:-"यथाऽपरे संकथिका" भावयुधास्तु तच्छिष्या श्लाघ्या भवन्ति "नवास्ति राजराजस्य तत्सु०" स एवं तान शाक्यान् सप्रपंचं निहत्य भगवतामेव प्रतिपत्तिमान ऊर्द्धज्वलद्भिर्धिग्जातिभिः परिवार्यापदिश्यते-भो आईक राजपुत्र! मा तावद्गच्छ, तावदसाकं वेदसिद्धान्त | शृणु तद्यथा-आदिसर्गे किल विष्णोर्नाभ्यां समुत्पन्नं पद्म नैककेसराकुलं, तस्मिन् ब्रह्मा समुत्पन्नस्तेन सृष्टमिदं जगत् , स मुखतो ॥४३६||
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भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [६], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१८४-२००], मूलं [गाथा ६६९-७२३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
प्रत
जातिवादनिरास:
सूत्रांक
॥६६९७२३||
दीप अनुक्रम [७३८७९२]
श्रीमत्रक-100 ग्रह्मणोऽसृजत् , ततः शूद्रांत्रिवर्गपरिचारकान् , क्षत्रियान सु०, एकमेव वर्ण परिचरन्ति, तत एव च श्रेयोऽवाप्नुवन्ति, यस्मा- तागचूर्णिक चैवं तस्माद् ब्रह्मोत्तरं जगा, तदेवं त्रयाणामपि वर्णानां ब्राह्मगा एर पूज्यतमाः, आह च-"ब्राह्मण एव जायते." ते च द्रव्य1.४३७॥ क्षेत्रकालभावोपधानशुद्रेन दानेन पूजनीयाः, ततेनोपधानशुद्वेन गोहिरण्यसुवर्णधणादीनि देयानि, क्षेत्रशुमपि खगृहेऽभ्यागत
स्थानाविस्कृतक्रियस्य सुखासनासीनस्य, अथवा क्षेत्रशुद्ध पुष्करादिपु क्षेत्रेषु दीयते क्षेत्रमिदं विख्यातं, कालशुद्वमपि दर्शपूर्णिमाऽमावास्यासु, तथा अन्येषु च सर्वेषु पर्वखिति, तथा चाह-'अतुल्याण्यत्रिरावाणि, तीर्थाण्यनभिगम्य च । अदत्वा काश्चनं गाव, दरिद्रस्तेन जायते ॥ १॥ भावोपधानशुदमपि लोकप्रत्युपकारादित्यतः अदिन्नए यहीयते तद्भावोपधानशुद्धं, अभागो, भावस्तु पात्रमित्यर्थः, पात्रशुद्धमेव हि शुद्धिमुत्पादयति, अहन्यहनि दातव्यं, तत्र पात्रशुद्धिमधिकृत्योच्यते-सिणायगाणं तु दुवे सहस्से ॥७११।। वृत्तं, स्नातकाः शुद्वात्मानः, यज्ञादिपु षट्कर्माभिरताः, अथवा स्नातकादि इति वेदपारका प्रवक्तारः,
आह च-"सम न ब्राह्मणे दानं" ते यदात्मानं पात्रीकृत्य केलं परानुग्रहार्थमेव परिगृहन्ति तदा दातारमात्मानं च तारयति, VA तत्परिमाणं दुवे सहस्से, तेसु च एगदिणेण बहुएहि वा दिणेहिं दोणि सहस्सेहिं पूरति जो भोजयतीति, बद्धानुलोम्या भोजये
जेति, येत्ति दिणे दिणे, णेकतियं वा णितियं एगे अणेगे वा भोजावेति सदक्षिणे वा जपे य पौंडरीकादी वा यज्ञं यजते, तत्फलप्रसिद्धये त्वपदिश्यते, 'ते पुण्णखंधे सुमहजणित्ता'ते इति ते प्रागुपदिष्टाः द्रव्योषधानशुदैर्दानैः स्नातकवादागपूजयितारः, पुनातीति पुण्यं, स्कन्धग्रहणात् सुमहत्पुण्योपचयं सम्यगुपार्जयित्वा, परत्र बझेंद्रग्रजापतिविष्णुलक्षादिषु देवा भवन्तीति प्रद| र्शनार्थः, यथा तावत्परसमये क्रियावद् गुणवद् समवायि कारणमिति द्रव्यलक्षणं, समयेऽपि इओएहि छहिं जीवनिकाएहि,वेदानां
॥४३७॥
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भाग-2 “सूत्रकृत" - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [६], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१८४-२००], मूलं [गाथा ६६९-७२३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-[२] “सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
श्रीसूत्रकताजचूणि
जातिवादनिरास:
॥४३॥
प्रत सूत्रांक ||६६९७२३|| दीप अनुक्रम [७३८७९२]
2. यादो वेदयादो, वेद एव हि परं प्रमाणं, आह हि-"वेदाः प्रमाणं" एवं त्रयी वर्तमानमाभृत्य, राज्यं गत्वा राज्याभिषेकं प्राप्य | इप्टेभ्य स्नातकेभ्यः बाह्मणेभ्यः गोहिरण्यादीनि दानानि त्यजस्व प्रयच्छस्व, आह च-"यान यान् कामान् बाह्मणेभ्यो ददाति | तान् कामान् शजनोपभुक्ते" यज्ञांश्च भूहिरण्यदक्षिणां यजस्व, आह च-"जइत्ता विउले जण्णे" तदेवं श्रेयसीमवाप्स्यति,तत्कथं ?, | यदा घेतानि यथोदिष्टानि धर्मसाधनानि अभ्युदयिकं धर्ममुद्दिश्य करोति तदा नापवर्गमवामोति, यदा स्वपवर्गमुपदिश्य धर्मसाध
नेषु वर्तते तदा अपवर्गमवामोति, तदेवं स्वर्गापवर्गफलं वेदानां धर्म प्रतिपद्यस्व, किं तैर्जिनैः संयमपुरस्सरैस्तपोभिः अपार्थकै| राचीण: १, ताने जात्यादिमदोद्धतां संमारमोचकतुल्लधर्मा भगवानार्द्र उवाच-यद् ब्रूत जातिशुद्धा पट्कर्मनिरताश्च शीलमन्त| रेणापि स्नातका बाह्मणा भवन्ति, कथं ?, व्याधकोपाख्यानात् , आह हि-"सप्त व्याधा दशाणेपु” तथा च "सद्यः पतति मांसेन' [किंचान्यत्-"वर्णप्रमाणके", अथवा पञ्चभिरिमैः कारणैः बाह्मणत्वं न घटते, तद्यथावत्-"जीयो जातिस्तथा देहः" एवं च श्लोकः, किंचान्यत् “विद्याचरणसंपन्ने" तथा चाहुः “न जातिर्दुध्यते राजन्" यचभिप्रेतं 'यजनादिप्रवृत्ता बाह्मणा भवन्ती'ति (तन्त्र) | कस्माद्धिसकत्वात् यज्ञस्य,आह हि-"पद् शतानि नियुज्यंते" न च हिंस्रान् भोजयमानस्य खगोऽपवर्गो वा भवति,तन्नोदाहरणं लोकमिव । सिणायगाणं तु दुवे सहस्से । ७१२।। वृत्तं, स्नातका ग्रामारण्या वा विडालमपकादिमांसाशिनः किलाहारकाः स्यः, ते स्नातकत्वे सति क्षुदाः परिमाणता च द्वे सहस्र णितिए णिचे-दिणे दिणे वा दो सहस्साणि अधिगाणि वा कुत्सितं रौतिीयते वा मारा 'से गच्छति लोलुवसंपगाढे' एवं हि सपापो लोलुपः स्वाभाविकैः शीतोष्णाभिः परस्परोदीरितैः संक्लिष्टासुरोदीरितैश्च दुःखैभूमिगता अमिगता लोलुप्यन्ते लोलविजंते वा भृशं गाई तीव्र, एवं शीतायाः स्वाभाविकाः परकृतावा तीवा
HTIHD
॥४३८॥
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भाग-2 “सूत्रकृत" - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [६], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१८४-२००], मूलं [गाथा ६६९-७२३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत' जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
प्रत
||६६९७२३|| दीप अनुक्रम [७३८७९२]
श्रीसूत्रक- नुभावा येषु अनु पश्चाद्भावे जेहिं अण्णे सत्ता दुःखेहिं ताविता ते पच्छा दुःखमनुभवंतीत्यनुभावः णरकः उक्तः, पठ्यते च-तीत्रा- जातिवादताजचूणि मितावी, तिव्वं अमितावेति जे चिति ततोऽधीको अभितायो जेसु णरएसु ते तियामितावाणरका तीवमित्येकोऽर्थः, सेवितो, निरास:१४३९॥ जहा सो कुललभोजी णरगं गच्छति जण्णिका ते वराते मारेमाणा, ये चान्ये पापके तुणकाष्ठगोमयाश्रिता संस्वेदसिताः महीसिता
चेव कृष्णादिपु च कर्मसु वर्तमाना बहून् जीवान घातयन्ति ते च विषयोपभोगदृष्टान्तसामाद्धिसामेव प्रज्ञापयंति ब्रुवन्ति च, II "आततायिनमायातं, अपि वेदान्तगं रणे । अहवा बह्महतो चा, हत्या पापात्प्रमुच्यते ।१।। तथा च शूद्रं हत्वा प्राणायाम जपेत , LL
| चिहस्सतिकर्म या कुर्यात् , यत्किचिद्वा दद्यात् ,तथा 'अनस्थीकानां शकटभार मारयित्वा बाह्मण भोजयेत्',एवं ते हिंसकं धर्म देशंतो VA जहा कुलाला कुलपोसगा य णरए पचयंति एवं तेवि द्विजा हिंसकत्वात् कुलाला एव नरकं वचंति, जेवि तेसि देति तेचि कुलपोसगा, 40 इह सह तेहिं गरगं वचंति । तएवं दयावरं धम्म ||७१३।। वृत्तं, दूसेमाणो दया परा जस्स दयागर, दमो वा दया या वरा ||
जस्स स भवति दयावरः, यः किल आततायिनमायातं न घातयति सो पारगं गच्छति, वहावह धम्म वधा पराः वधादिति || | पंचमी, वधाद्धि परो धर्मः, कथं ?, आह हि-"हत्वा स्वर्गे महीयति" तथा चाह-"अपि तस्य कुले जायासदो" ण उ तमेवं वधावधं पसंसमाणा एगपि जे भोजयती कुशील, प्रगाहस्य ग्रहणं कृतं भवति, यत्रायं पाठ:-'दयावर धम्म दुगुंछमाणो' वधावधं पसंसमाणा एगंपि' अथवा दया परिगृह्यते, दयावरं धम्मं दुगुंछमाणा, वधावधं धर्म पसंसमाणा, एवं प्रकारा दया एगपि भोजयति कुसीले, किं पहुए, कुत्सितं शीलं कुशीलः हिंसाद्याश्रवद्वारप्रवृत्तको हिंसकधर्मोपदेशको, अणिधो णि णाम अधः उसितं अधिकार, दुरुत्तरं नरकमिति वाक्यशेषः, अन्तकाल इति मरणकालः। ताने बमवतिनः प्रतिहत्य भगवानार्द्रको भगवन्तमेव प्रति ||४३९॥
SHERPAN
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आगम
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:) श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [६], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१८४-२००], मूलं [गाथा ६६९-७२३]
(०२)
सांख्य
निरासः
प्रत सूत्रांक ||६६९७२३|| दीप अनुक्रम [७३८७९२]
श्रीमत्रक- प्रातिष्ठत , अथैनं चिदं त्रिदण्डकुण्डीय जाच पवित्तनिहत्थगता परिवाजकाः परिवार्य उभयपक्षाविरुद्राभिराशीमिर्दण्डमाणा एवताङ्गचूणिः
मृचू:-भो भो आर्द्रक राजपुत्र ! इदं तावदस्माकं सिद्वान्तं शृणु तयथा-'तमः खल्विदमग्गे आसीत् अव्यक्तमित्यर्थः, तस्मा॥४४॥
दव्यक्तत्वान्मात्रेन्द्रियभूतानां प्रादुर्भावः, आह हि-"प्रकृतेमहांस्ततोऽहकारम्तस्माद्गणश्च पोडशकः। तस्मादपि पोडशकारपंचभ्यः पंच भूतानि ॥१॥ इत्येतचतुर्विंशकं क्षेत्र,पञ्चविंशतितमः पुरुषः, तत्र न किश्चिदुत्पद्यते विनश्यति वा, किन्तु केवलममिव्यज्यते तमसि प्रदीपेन घटः यथा, भूमिदेशद्विगोदाद्वा मूलोदगादीन्यभिव्यज्यन्ते, एवं प्रभवः, संहारकाले च यद्यस्मादुत्पन्नं तत्तत्रैव लीयते इत्यतः सत्कार्य, भवतामपि च द्रध्यार्थतया नित्याः सर्वभावाः, इत्यतः सत्कार्यपरिग्रहः एव यथाऽस्माकं, खरूपं चैतन्य पुरुपस्य नैःश्रेयसिके मोक्षे इत्यर्थः, न त्वभ्युदयिके इष्ट चिपयनीतिप्रादुर्भावात्मके, अनैकान्तिको वाऽसौ य नियमलक्षणो धर्मः, तत्र पञ्च यमाः अहिंसादयो भवतामपि पंच महाव्रतानि पञ्चयमो धर्मो, नियमोऽपि पश्चप्रकार एवेन्द्रियनियमः, अदिस सुविचति, यथा भर्वतोऽस्मिन् स्वधर्म यमनियमलक्षणे एवं स्ववस्थिताः एवं वयमपि स्वे धर्म यमनियमलक्षणे स्थिताः, न फल्गुकल्ककुहकाजीवनार्थ लोकप्रत्ययार्थ या 'एसकालं'ति यावजीवा, ण एवं तावदावयोरविशेषः, किंच-आचारशीलं २ तत्राचारः यथा भवतां
युगमात्रान्तरदृष्टित्वं एवमस्माकमपि, यथा रजोहरणं प्रमाजनगर्थं एवमस्माकमपि केसरिका, यथा वचो वाक्यमिति एवमस्माकNमपि मौनाना नात्युचैपिणं वा, अथवा शील भद्र मृदुस्वभावता आक्रोशमत्सरो वा, इत्तं चुनं, शानमुपदेश भाचारः शीलं
यस्य ज्ञानस्य तदिदमाचारशीलं, अथवा ज्ञानमिति भवतामपि चैतन्यात अनन्य आत्मा, तदेवं सर्वमविशिष्टं 'ण संपराए विसेसमस्थि' चशब्दः समुच्चयार्थः, किं समुचिनोति ?, पूर्वोक्तकारणानि 'दुहृतोचि धम्ममि समुट्ठियामो' यथा एतेष्वपि अविशेषः एवं
॥१४॥
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
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आगम
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प्रत सूत्रांक ॥६६९७२३|| दीप अनुक्रम [७३८७९२]
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [६], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१८४-२००], मूलं [गाथा ६६९-७२३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत' जिनदासगणि विहिता चूर्णि: थीत्रक- | संपराइतोवि, संपरीत्यस्मिन्निति सम्परायः स च संसारः भवतामपि संमरत्यात्मा अस्माकमपि कारणात्मा संसरति, आह हि- हस्तितापतागचूर्णिः । संसरति० वेदयन् मुश्चन् सर्वथैवाविशेषः,करसाद ,परमात्मनोः संमारित्वात् ,उक्तं हि-अबत्तरूवं पुरिसं महंतं ॥७१५।। वृत्त, ॥४४शा अव्यक्तं रूपं यस्य स भवत्यव्यक्तरूपः, पंच तन्मात्राणि बुद्धिर्मनोऽहकार इति पुरं, अथवा से शरीरं पुरं तस्मिन् पुरे शयत A
| इति पुरुपः, 'महन्त' इति सर्वगतः, सर्वथा वा प्रकृत्या गतः,सनातनः पुरातन इत्यर्थः,आह हि-"अजो-नित्यः शाश्वतो योन। क्षीयते घटवत्" इत्यतः कृतो-'नैनं छिंदन्ति शाखाणि' अव गतिप्रजनकान्त्यशनखादनेषु, अक्षयोऽपि कश्चिद्यायति परमाणुवत् , परमाणुळयति गच्छतीत्यर्थः, आह हि-'अच्छेद्योऽयमभेद्योऽयं' से सधपाणेसु स सव्वगतोऽसौ सर्वप्राणाः करणात्मानः, अथवा आयुरिन्द्रियशरीरबुद्धिपाणा, 'से' इति तस्यात्मनो निर्देशः, सर्वत इति सर्वासु दिक्षु, सर्वकालं च नित्यमित्यर्थः, आह हि-"सर्व सर्वत्र सर्वकालं च" नित्य इत्येको विशिष्यते, सर्वकारणात्मनामन्यः, यथा चन्द्रमाः सर्वग्रहनक्षत्रताराभ्यो वर्णप्रमाणसंस्थानलक्ष्मलक्ष्मीप्रमाकान्तिमौम्यतादिभिर्विशिष्यते एवमसावपि परमात्मा कारणात्मभ्यो विशिष्यते, सांख्यप्रक्रियाचारः,, अथवा चैदिका| नामयं सिद्धान्तः 'अच्चत्तरूवं पुरिसं महंत' तेपामेक एव परमात्मा, शेपास्तु तत्प्रभवाः, आह हि-“यस्मात्परं नापरमस्ति किंचित्" | स एव च सनातनोऽक्षयो अव्यया पूर्ववत् , 'सच्चेसु पाणेसु' कथमिति ?, ते उच्यते-यथा हिमहम(पट)लविषमुक्तत्वात् भूरितेजसाऽऽदित्यविम्वादश्मयः सर्वतो निस्सरते, निःसुत्य च तमेव पुनः प्रविशन्ति,न च तस्यावाधां कुर्वन्ति,एवं सर्वात्मनखिका-|| लावस्थिताः कूटस्थानिस्सरंति निसृत्य च तानि स्वकर्मविहितानि शरीरानि निवर्तयित्वा सुखदुःखादि चानुभूय पुनः पुनस्तमेव परमात्मानं प्रविशन्ति, एतच्च सूत्रं सायवैदिकयोस्तुल्यं व्याख्यायते, नैके परमात्मानो, वेदिकानां तु एकः, सांख्यवैदिकयोः प्रक्रि- ||४४१॥
[456]
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आगम
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प्रत
श्रीसूत्रसूत्रांक ताङ्गचूर्णिः ||६६९
॥४४२॥
७२३||
दीप
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र -२ (निर्युक्तिः+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [ ६ ], उद्देशक [-], निर्युक्ति: [ १८४-२०० ], मूलं [गाथा ६६९-७२३] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र [०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि
अनुक्रम
[ ७३८
७९२]
यावादः, तदुत्तरं तु यदि सर्वगत आत्मा सांरूपानां एवं न म्रियन्ति न संसरति ॥७१६॥ वृतं, 'मृ प्राणत्यागे' असर्वगतस्य हि प्राणत्यागो युज्यते, यथा-देवदत्तः स्वगृहं त्यक्त्या अन्यत्र गच्छति न चैवं सर्वगतस्य शरीरादिप्राणत्यागो युज्यते, सर्वगतस्यैव संसारो घटते देवदत्तवदेव, न सर्वगतस्यैव सर्वगतस्य न तु किञ्चिदप्राप्तं यत्र गच्छतीत्यतः संमारो न घटते, किंच'ण भणे खत्तिय वेम पेमा' तत्र ब्रह्मणोऽपत्यानि बृहन्मनस्त्वाद्वा ब्राह्मणाः क्षात्रायन्तीति क्षत्रियाः, कलादिभिर्विशन्ति लोकमिति वैश्याः, प्रदेशास्पृष्टा श्रावन्तोऽन्येपात्मात्मनां प्रदेशास्पृष्टः, तत्र कथमवसीयते यथा तुल्ये चात्मानि शरीरं तनुः शेषाणामित्यपसिद्धान्तः मलदासीवत् यथा मलदासी सर्वेषां मल्लानां सामान्या एवं ब्राह्मणशरीरमपि सर्वेषां क्षत्रियविद्राणां सामान्यमिति, यथा बाह्मणं शरीर तथा क्षत्रियचिद्रशरीराण्यपि सर्वात्मनां समानीत्यतश्रातुर्वर्णं न घटते, किंच- 'कीडा (य) पक्खी (य) सरीसिवा (घ) ' सर्वगतत्वे सति अयं कीडोऽयं न कीड इति न घटते, तदेवं बाह्मणशरीरवत्समानः सर्वः, एवं पक्खी वा सर्पन्तीति सर्पः नरः, अथवा देवलोकेषु भवा देवलौकिका अमरा इत्यर्थः एतदेव चोत्तरं एकात्मकचादिवैदिकानां किंच- एकात्मकत्वे च सति पितृपुत्रादिरिति वार्ता न घटते, तत्सर्वज्ञप्रामाण्यात्मांख्यज्ञानप्रामाण्यात् बह्मापि च किल सर्वज्ञः, तेन चोक्तं- "यस्मात्परं नापरमस्ति किंचित्" तत्कथं केवलज्ञानमनृत भविष्यति इति ?, उच्यते-नैच ते केवलिनो भवन्ति, कथं ?, अनन्तत्वादर्शित्वात् सत्रं त्वदृष्टमिति १, उच्यते, ननूक्तमेवं 'न मिजति ण संमरति', वैदिकानामपि एकात्मकत्वे च ये केवलज्ञानेन लोकज्ञात्वा जहा वृहादीभिस्तीर्थं प्रवर्त्तयन्ति तेषां कथं वाक्यं प्रमाणं स्यादिति, अथ सूत्रम्-लोयं अयाणित्तिह केवलेणं ॥७१७॥ वृत्तं लोको नाम द्रव्यक्षेत्रकालभावानां यथावस्थितिः तं लोकमज्ञात्वा तेन येन धर्म कथयन्ति अजाणमाणा णासंति
[457]
हस्तितापसनिरासः
॥४४२॥
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आगम
(०२)
भाग-2 “सूत्रकृत" - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [६], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१८४-२००], मूलं [गाथा ६६९-७२३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत' जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
प्रत सूत्रांक ||६६९७२३||
श्रीमत्रक- तानचूर्णिः | ॥४४३॥
दीप
अनुक्रम [७३८७९२]
अप्पाण परं च णट्ठा जहा अन्धो देशकोऽध्यान अप्पाणं परं च णासेति एवं तेवि, जे पुण लोकं विजाणाति च केवलेणं-केवल हस्तितापज्ञानेन 'पुण्येति पुण्णेण 'नाणेण ज्ञानेन 'धम्म समनं च कहंति जे उ' समस्तो नाम सर्वचनीयदोपैर्विमुक्तः, जहा देसिओसनिरास: जाणओ अदिसामुढो गरो पेमें अकुडिम मग्गं अबतारेऊण जहिच्छे देसं सम्मं वा यति, एवं तेवि केवलणाणेण भगवन्तो तित्थ-H गरा अप्पाणं परं च संसारसमुद्दमहाकान्तारातो तारेति, सर्वगतत्वे सत्यात्मनि जे गरहियं ठाणमिहावसंति ॥७१९॥ वृत्तं, गरहित-निन्धं जातितः कुलतब, तत्र जातितश्चाण्डालाः कर्मतवाण्डालत्वेऽपि सति ये सौकारिकाच, स्थानं वृत्तं कर्मेत्यनान्तरं आवसन्ति उवजीवन्ति, चरणं वृत्तं मर्यादेत्यनान्तरं, चरणेणं उबवेंनि, तदपि जो जातितो वृत्ततश्च, जातितो मिथ्यादृष्टिः लोकः, समता बामणः परिबाज ब्रजितः, एतदुभयमपि भवन्मते नैव, उदाहरति हि उदाहरणं भवति, अथार्थापत्तिः एतदापद्यते सर्वगतत्वे सति सर्वात्मनां समतेति, समता समं तुल्यमित्यर्थः तुल्याहुतद्रव्यवत् , सतिएति बुद्धीए, एवंप्रकाराए सर्वगत आत्मेति, सत्तीएति वा एगट्ट, 'अथाउसे विप्परियासमेव' अथ इत्यानन्तर्ये, सर्वगतत्वे सति सर्वात्मा निकृष्टोत्कृष्टयोः समता इत्यर्थः, 'आउसे ति हे आयुष्मन्तः! विद्धी योगो विपरीतो असौ विपर्यासः, विपरीत इत्यर्थः, कथं ?, सर्वगतत्वेन चेदानीं निकृष्टोस्कृष्टानां साम्यं भविष्यति, अथवा संचिदधिगमो ज्ञानं भाव इत्यनर्थान्तरमितिकृत्वा विपरीतभावमेव सर्वगतग्राह इत्यर्थः, अथवा विवञ्जास इति मनोन्मत्तालापवदित्युक्तं भवति, तावन्न चैतत्स्यात् सर्वगतत्वे सति सर्वात्मनां, निकृष्टोत्कृष्टानां तुल्यत्वे च सर्वगतमित्यन्यथा वा का प्रत्याशा ?, एतदेवोत्तरमेकात्मवादिनामिति, एवं सांख्यानिलोव्य भगवंतमेव प्रति तिष्ठतमाद्रक केचिदतिदीर्घश्मथुनखरोमाणो जटामुकुटदीप्तशिरसो धनुष्पाणयो हस्तितापसाख्याः परिवाजोऽभ्येयुः, भो भो! क्षत्रियकुमारः आर्द्रक! 1.४४३॥
[458]
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आगम
(०२)
प्रत
सूत्रांक
||६६९
७२३||
दीप
अनुक्रम
[ ७३८
७९२]
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र -२ (निर्युक्तिः+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [ ६ ], उद्देशक [-], निर्युक्तिः [१८४-२००], मूलं [गाथा ६६९-७२३] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र -[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
श्रीसूत्रक्रताङ्गचूर्णिः
1188811
तिष्ठ तावदीपतरं इमामस्माकं सिद्धान्तोदितां पुष्करचर्यां शृणु, श्रुत्वा रोचयिष्यसि यास्यसि वा तत ईपद् व्यवस्थिते राजपुत्रे पञ्चशत पुरुषपरिवारो हस्तितापमानां वृद्धतमस्तमुवाच वयं द्वादशाग्रात् अभ्युदयार्थिनः मुमुक्षवो हस्तितापसा वा इति वाच्या महाजनेन, ते च वयं परमकारुणिकाः सवेषु वने हि वमतां मूलस्कन्धोवघात आहारार्थः सुमहादोष इति मत्वा तेन संवच्छ रेणावि एगमेगं ॥७२०॥ वृत्तं, संवसन्ति तस्मिन्निति संवत्सरः, एकैकमिति वीप्सा एकेके, मासे एकेके 'चाणेग' सरेण विसलिचेण वा मंमं तुति मारे, महागर्जति गर्जति गर्जते वा गजः महाकार्य महागजं मतं मजमाणं गंधा, सेमाणं जीवाणं सेयत्थि विज्जा, वणस्सतिकाइ मूलपत्र पुण्यफलप्रवालाङ्कुराया वानस्पत्या स्थावरा जङ्गमात्र मृगाया, दयानिमित्तं, मांसमास्वाद्य खां वृत्ति परिकल्पयामः । खंडोखंडि काउंसमे भागेतु कवल्लूरं पऊलेऊणं खायामो, एवमेगेण जीवघातेण सुबहु जीवे रक्खामो, जे पुण वणतावसा चणिकन्दफलाणिघाति ते दिषेण गामघातं करेंति, न चाशरीरो धम्र्मो भवतीत्यतः अल्पेन व्ययेन बहु रक्षामः वणिजवत्, जंपि तदर्थं किंचित्पापं भवति तदषि आतावणोववापजापत्रह्मचर्यैः क्षपयामः, विश्वामित्रेणाप्युक्तं "शक्यं कर्तुं जीवता कर्म पाप" णणु च तुम्हेवं पडिकमणादिकाउस्सग्मेण सोधवा, अयं चास्माकं स्मृतिविहित एवं हस्तितापसधर्मस्तमेनं प्रतिपद्यस्त्र आगच्छ, तवं वाणान् आर्द्रक आह-संचच्छरेणावि य ॥ ७२१ ॥ वृत्तं, एकतरं प्राणिनं हस्तिनं, सा हिंसा, ततो अणियत्ता अणिपत्तदोसा जिम्मिदियदोसाओ य, किंचान्यत्-जा सा जिवांसा सा रौद्रता, कथं हस्तिनि परं मग्गमाणा मंसलोलुपा अत एव हेतु हिंसा एका चैव णरगपजन्ता, किया सेसाण जीवाणं ?, जं च भगह- 'सेसाथ जीवाण दयहृताए'ति तं ण भवति, सो हत्थी faat उफडिंतो वसतिकाए हरते गुच्छगुंमादीए पेले तणाति महंते व रुक्खे भंजति, कुंथुपिप्पीलिकादिए य जाब पंचिदिए
[459]
हस्तितापसनिरासः
||४४४॥
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आगम
(०२)
प्रत
सूत्रांक
||६६९
७२३||
दीप
अनुक्रम
[ ७३८
७९२]
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र -२ (निर्युक्तिः+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [ ६ ], उद्देशक [-], निर्युक्ति: [ १८४-२०० ], मूलं [गाथा ६६९-७२३] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र -[०२] अंग सूत्र [०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि :
श्रीसूत्रकताङ्गचूर्णिः
1188411
| पेल्लेति, जे य मंसं पयंता सुंठीए चुलीस वा अग्गिमंथेण वध, उक्तं च- “तणकटुगोमय माहणस्मिया. संसेदसिदा मट्टिस्तिता चेव" एवं सेसाण जीवाण लग्गह पाणातिवाते, सिया यथैत्र, स्थादेतत् सर्वमपि तं सह हत्यिवधेण जे य अ य पडतो मारेति एगे य उज्झति, सर्वमेतं थोवमुच्यते, गिद्दिणोवि ते य बहुजीवे जेण मारेति, कथं १, तेलोगं सर्वं जीवेहिं ओतप्रोतं, सो य गिट्टी तिरियलोए वसति, उड़लोए अधोलोए य ण मारैति एवं जाव जंबुद्दीवे भरहे मगधाए सणगरे, ते छब्बिसे खेते वा, एवं सोऽपि नाम धार्मिकः । किंच-संवत्सरे ॥७२२॥ वृत्तं प्राणं हस्तिनं, श्रमणव्रतानि अहिंसादीनि तानि किलास्य हस्तितापसस्य श्रमणव्रतानि सन्तीति श्रमणवती, तुर्विशेषणे, किंच मारयति च कस्येदं हास्यं न स्यात् ?, 'आताहिते' आत्मनः अहितो य, एवं परूयंते आयरितं च, सो नट्टो अण्णंपि णासेति, जहा सो दिसामूढो अणे य देसिए णासेति, अणारिओ दंसणाओ चरिताओवि प्रागेव ज्ञानतः, ण तारिसं धम्मं हिंसकं केवलिणी भणति करेंति वा, किं ब्रूते १, बह्मा केवली, तेन तदुपदिष्टं हस्तितापसवतं, तदुच्यते-ण तारिसे केवलिणो भवंति करेंति वा, जे हिंसगं धम्मं पण्णवैति तिलोति, सा जेण णो तिष्णा अण्णतेसु च, सो नहो अपि णासेति जहा हाणिकताणि, एवं बह्मवद्भिः संसारमोचकवैदिकादीनां पक्षसिद्धिः प्रसाधिता भवतीत्यन्यथा वा का प्रत्याशा ?, इत्येवं तॉस्तापसान् प्रतिहत्य भगवत्समवसरणमेव प्रति प्रतिष्ठते, तत्थ य आरण्णो दस्ती नवग्रहो आलाणखंभे बद्धो सण्णी, तं जनसदं सुणेति, जहा एसो अदओ रायरिसिपुत्तो णियआलाणाणि भंजिऊण तित्थगरसमीचं पड्डो, परतित्थिए पडिहणिऊण, लोएण अभिव्यमाणो पुष्पंज लिहत्थएण अचिजमाणो बंदिजमाणो णिरवेक्खो हतपञ्चस्थिपक्खो वच्चति, अहो घण्णो य, तं जड़ अहंपि एतस्स प्रभावेणं इमाउ बंधणाओ मुच्चे तो णं बंदिज, वंदित्ता णमंसित्ता नियंगवणं पाविऊण संजूहे नागस्स बहूहिं लोट्टएहि य
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दस्तिमुक्तयादि
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आगम
(०२)
भाग-2 “सूत्रकृत" - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [६], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१८४-२००], मूलं [गाथा ६६९-७२३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] “सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
प्रत
हस्तिमुच्यादि
सूत्रांक
श्रीवत्रकतागचूर्णिः ॥४४६॥
||६६९७२३||
दीप
अनुक्रम [७३८७९२]
वहिं कलभेहिं हत्थीहि य २ यहिं उज्झारएहि जाब सच्छंदसुहं विहरेजा, एवं चिंतितमेन एव तडतडस्स बंधणाई छिण्णाई, छिपाधणो ऊसितहत्थो भगवंतमाकरिपितेण संपत्थितो, पच्छा लोएण भीतेण कलकलो कओ, हो हो अहो! आर्द्रकराजपुत्रो इमिणा दुट्ठहथिणा मारिजतित्तिकाऊण, इच्छेवं भाणिऊण भयसंभंतो सबओ समंता विष्पलाइतो, तते णं सो वणहत्थी भत्तिसंभमोणवग्गहस्थो णिञ्चलकण्णकओलो विषयणउत्तिमंगो धरणितलणिम्मितगजदंतो आईकराजपुत्रस्य पादेसु णिवडितो, मनसा चेव इणमववीत्-'भद्रं ते भो आईकरायरिसि यथाऽभिलपितान् मनोरथान प्राप्नुहि, बंधनाद्विप्रमुक्त' इत्येवं मनसा उक्त्वा यथेष्टं वनं प्राप्तवान् , तत्सुमहान्तं प्रभाव राष्ट्र लोकस्यातीव तपस्सु सविस्मया भक्तिभूव, एताए एव वेलाए सेणिओ राया भट्टारक| पादसमीयं बंदिउं पत्थितो किमेयंति पुच्छति, गहियत्थेहि य से महामतेहि य मिचेहि य पउरेहि य कथितं, जहा सो सब्बलक्खणसंपण्णो आरणो हत्थी चारिं पाणियं च अणमिलसमाणो आर्द्रकस्य रायरिसिस्स तवप्पभावेण बंधणाई छिदिऊण अद्दयं रायरिसिं चंदिऊण पलाओ, पच्छा सो सो णियराया तं सोऊण जणकलकलं अविम्हयं अदरायपुत्तं बंदिऊण णमंसित्ता एवं वदासीअहो भगवं दुफराणि तपांसि महानुभावानि च, कथं ?, तपसा तप्यते पापं, तप्तं च प्रविलीयते । देवलोकोपमानानि, भुजंत्यप्प्सरसः खियः॥१॥ विन्यस्तानि हि पुण्यानि, येषां तपः फलं ततः ॥'सेणिओ ब्रवीति, णणु भगवत एव दुष्कराणां तपमा प्रभावादसौ वनहस्ती आयसानि शृङ्गलबन्धनानि शस्त्रपि तीक्ष्णैर्दुच्छेद्यानि छिच्चा यथेष्टं वनं प्रयातः, इत्यहो दुकर, आर्द्रक उवाच-"ण दुकरं वा पारपासमोयणं, गयस्स मत्तस्स वणम्मि रायं । जहा उ चत्तायलिएण तंतुणा, सुदुकर मे पडिहाइ मोयणं ॥१॥" इत्येवमुक्त्वा भगवत्समीपं प्राप्याकः ताणि पंच सिस्ससवाणि भगवतः शिष्यतया प्रददौ, भगवानपि च तान् प्रव्राज्य
॥४४६॥
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आगम
(०२)
प्रत सूत्रांक ॥६६९७२३|| दीप अनुक्रम
भाग-2 “सूत्रकृत" - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [६], उद्देशक [-], नियुक्ति: [१८४-२००], मूलं [गाथा ६६९-७२३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
श्रीसूत्रक- तस्यैव तान् शिष्याननुज्ञातवान् । वुद्धस्स आणाएँ इमं समाधि ।।७२३।। वृत्तं, कतो स बुद्धो?, ननु भगवानेव वर्द्धमानः, युद्धाज्ञावत्ता वामन्चूणिः आह-अजवि सो ताव भट्टारगं ण पेच्छति तो कहं तस्स आणाए बुद्धो बट्टति ?, उच्यते-ननूपदिष्टानि महाध्ययनानि, अनागतं | 1.४४७॥ चेच तेण भट्टारकेण णातं जहा आर्द्रको नाम तत्समीयं एतो अण्णाउथिए तुं विहरिस्सति, वुत्तो य समाणो एताणि एरिसाणि
| उत्तराणि दाहितिचि तेण भगवता भासितं, गणधरेहिं तु सुत्तीकतं, उक्तं च-"अगागतो भासियाणि" कायेति अतित एवमिणं, | अथवा प्रत्येकबुद्धो सो तेण पुग्वं एते अत्था आगमिता, तेण तेसिं अण्णउत्थियाणं तमुत्तरं देइ, इच्चेवमेसा भगवतो पुब्बतित्थ
गराणं च समाधी वुत्तो, एत्तो तिविधो दसगादि, तत्थ विसेसेण दंसणसमाधिणा अधिगारो वुचति, जेग मिच्छदिट्ठीसु पडिहतेसु PA संमचं थिरीहोति, सति य संमचे णाणचरित्ताइपि होति, ऑस्स समाधौ त्रिविधेऽपि सुटु स्थित्वावा, ति विधेणंपि मणसा वयसा
कायसा, मणसा तावत् ण मिच्छदिट्ठीए समणुण्णाति तिणि तिसवाणि पावादियमताणि, जेसिं एतेसिं पंचण्ई गहणेण सव्वेसिपि गहणं कतं भवति, ते सव्वे असन्भावस्थिते मण्णति, वायाए वि पडिहणति, कायेणवि तेसिं अब्भुट्ठाणाति वा अहो सन्मार्गाव| स्थिताः यूयमिति हस्तपरिवर्तनादिभिः क्षेपैस्तान्निरासत्करोति, एवं अण्णाइंपि सायवैशेपिकवौद्धादीनि तिविधेण करणेण गच्छति | गरहति, इच्चेतानि तिणि तिमट्ठाणि कुप्पावयणाणि य सताणि मिच्छादसणसमुई तरित्ता, मिच्छादसणसमुद्दओहमिति जलं, मिच्छा| दसणे हि तस्मिन् मिथ्यादर्शनसमुद्भवो भवतीति कारणे कार्यवदुपचारो, महाभावो महाँचासौ भावो, यश्च महाभवौषः महंतो वा भवौधो यथा मिथ्यादर्शनोघन्तरित्ता संमत्ते द्वाति एवं अन्नाणौघं भवकारणंतिकाऊण तं तरोत, अचरित्तोघं संवरणावारूढो तरिक्ष आदाणवचि, आदीयत इत्यादान, एतान्येव ज्ञानदरिसणचारित्राणि आदानं, मुमुक्षोः कम्मं उदीरेजा कथयेत्यादि, उक्तं-"अद्विते |
४४७॥
(U
७९२]
[462]
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आगम
(०२)
प्रत
सूत्रांक
॥६९
८२||
दीप
अनुक्रम
[७९३
८०६ ]
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र -२ (निर्युक्तिः+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [७], उद्देशक [-], निर्युक्ति: [ २०१-२०५], मूलं [६९-८२]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र - [०२] अंग सूत्र [०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि :
श्रीसूत्रताङ्गचूर्णि
||४४८||
२ श्रु०
६ आर्द्रा
गठवेति परं" तथा चोक्तं- 'गुणसुट्टितस्य वयणं०' इति ब्रवीमीति अञ्जसुधम्मो जंबुसामी भगति, इति उदाहरेज्जासित्ति सुधमों, परोपदेशाचैवं ववीमि ।। इति आर्द्रकीयाख्यं षष्ठमध्ययनं समाप्तम् ॥
साम्प्रतं णालंद, तस्म संबंधो, अहे आधारसुतं वृत्तं इमं सावगमुतं यत्राक्षेपपरिहारैः श्रावका वर्ण्यन्ते, अथवा प्रायेण आधारे सुगडे य हेड्डा साधुसुताई बुत्ताई, इह तु सावगधम्म अधिगारो, कथं १, मावयस्य साधुपूले धूळे पाणातियाते पञ्चकखामि हुमा णाणुजाणति, अथवा छड्डे अण्णउत्थियएहिं सह वातो, इह तु सतित्थिएहिं सूत्रस्यापि सूत्रेण 'आदाणत्रं धम्म उदाहरेज', सो य धम्मो दुविधो-साधुधम्मो अ गिट्टीधम्मो अ, साधुधम्मो पंचमछट्ठेसु बुत्तो, इह तु यावगधम्मो इत्युक्तः सम्बन्धः, णामणिष्करणे णालदह, णालंदा, नगारखेति, आह च- "गतं न गम्यते किंचित्, अगतं नैव गम्यते । गतागत विनिर्मुक्तं, गम्यते" तमेवार्थ, अकारो वर्त्तमानमेवार्थं प्रतिपेधयति, यथाऽघटः, माकारः क्रियानिषेधकः यथा मा गच्छ, मा कुर्वीत, आह च "मा कार्षुः कम्माणुचिन्ने परो” मा गीत तिष्ठतं, अन्योर्ध्वजातिधर्म्मात् स्वात्मानं बधत, शान्तं वा, नोकारस्तु प्रदेशं प्रतिषेधयति, स च त्रिष्वपि कालेषु, यथा नो अहमेवं कृतवान् नो करोमि नो करिष्यामि, तदुपयोगस्तु नो सदाऽऽसीत्, इदानीं नकारस्त्रि कालविषयी, नाहमेवं कृतवान् न करोमि न करिष्यामि, आह हि "नामिस्तृप्यति काष्ठानां०" उक्तो नकारः, इदानीं अलंशब्दस्स व्याख्या, अत्र गाथा - णामअलं ठचणअलं ||२०१|| पर्याप्तिभूपणवारणेपु, अत्र गाथा-पजत्तीभावे खलु पढमो वीओ भवे अलंकारे ॥ २०२ ॥ पर्याप्तौ ताब अलं देवदत्तो यज्ञदत्ताय, अलं केवलज्ञानं सर्वभावोपलब्धी, अलं च श्रुतज्ञानं उपलब्धौ, भावे त्वेवं, उक्तं च- "द्रव्यास्तिकन (ह) यारूढः, पर्यायोद्यतकार्मुकः। युक्तिसन्नाहयान् वादी, अ (प्र)वादिभ्यो भवत्यलं ॥१॥ विभूषणेऽपि, अलंकारैः अलंकृता स्त्री, वर्त्तमानेन
अथ द्वितिय्-श्रुतस्कन्धस्य सप्तमं अध्ययनं आरभ्यते
[463]
नालशब्दयो विचारः
॥४४८॥
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आगम
(०२)
भाग-2 “सूत्रकृत" - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [७], उद्देशक [-], नियुक्ति: [२०१-२०५], मूलं [६९-८२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
प्रत
निक्षेपाः
सूत्रांक
श्रीरातकताहचूर्णिः ४४९॥
॥६९८२|| दीप अनुक्रम [७९३८०६]
| अलंकृतं नभश्चन्द्रमसा, उक्तं च-'भवतस्त्वलमेव संस्तवेन', धारणेऽपि अलं, अलं तरैतेहि, अलं प्राणातिपातेन यतः इहामुत्रा
पायाः,उक्तं च-"अलं कुतीथैरिह पर्युपासितैरलं वितर्काकुलकाहलैमतैः। अलं च मे कामगुणैनिपेवितैर्भयंकरा ये हि परत्र चेह च ||१||" अत्र प्रतिषेधेऽलंशब्देनाधिकारः, अत्र गाथा-पडिसेहणगारस्सा इत्थिसहेण चेव अलसद्दो० ॥२०३।। स्त्रीलिङ्गमेतत् , रायगिहे णगरंमि णालंदा णिवासिणां देति विभवं सुखाद्यश्च इत्यतो णालंदा, बहिनंगास्य बाहिरिका, जालंदायां भवंग गालंदइज, अत्र गाथा-णालंदाए समीवे ॥२०४।। 'पासावचिजे पश्यतीति पाइर्चः तीर्थकरः पासस्म अवचं पासावर्ष, नासो पार्वखामिना प्रबाजितः, किन्तु पारम्पर्येण पाश्र्वापत्यस्थापत्यं पामावचिजं, स भगवं गौतम पासावचिजो पृच्छिताइओ अञ्जगौतम उदओ, जहा तुम्भं सावगाणं विरुद्धं पञ्चक्खाणं, पुच्छा गतो उत्तम, चोरग्गणविमोक्खणता, तथा च-इह खलु गाहावतिपुत्ता वा धम्मसवणयसियाए एज वा, से तो जान सञ्चेव से जीये जस्म पुगि दण्डे अणिक्खिते इंदाणिं णिक्विते, एवं परियागावि, तह दीहाउअ अप्पाउअ समाउअत्ति, एवमाइयाई, उवम्माई सोतुं उवसंतो । सुत्ताणुगमे सुत्तमुच्चारेतब-तेणं कालेणं तेणं समएणं (सूत्रं ६९) अतीतानागतवर्तमानस्विविधः कालः, तेनेति च तृतीया करणकारक,तेन यदतीतेन कालेण| राजगृहस्य सम्प्रयोगोऽभूत , समयग्रहणं तु कालैकदेशे, यस्मिन् समये गौतमो पुच्छितो स व्यावहारिका नैवयिकोऽपि तदन्तर्गत | एय, जहा कञ्जमाणो कडे, एवं पुच्छेजमाणे विबुद्धो, अब समयो गृहीतः, सेमा तु णो पुच्छासमया, एत्थ णयमग्गणा कायब्बा, राज्ञो गृहं राजगृह, पासादीयं०, तस्य राजगृहस्य बाहिरिया णालंदा अद्धतेरस कुलकोडीओ० । तत्थ लेवे नाम गाहावई (सूनं ७०) लेवे णाम संज्ञा,गृहस्य पति: गृहपतिः, होसु होत्था, आदिः आदित्यो वा आत्यंः दीप्तचिचो नाम तुष्टः, पर्याप्तधन- 11४४९||
Sinila
[464]
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आगम
(०२)
प्रत
सूत्रांक
॥६९ -
८२||
दीप
अनुक्रम [७९३
८०६ ]
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र -२ (निर्युक्तिः+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [ ७ ], उद्देशक [ - ], निर्युक्तिः [२०१-२०५ ], मूलं [६९-८२]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र -[०२ ] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि :
श्रीसूत्रकताङ्गचूर्णिः
॥४५०॥
बानू 'विच्छिण्ण विपुलभवनरायणासण (जाण) वाहणाइयो' विस्तीर्णानि आयामतो विस्तरतश्थ, कानि तानि १, भवनशयनासनानि, विलानि बहूनि 'पुल महत्वे' विशेषेण पुलानि विपुलानि कानि तानि ?, यानानि वाहनानि 'यथासंख्यमनुदेशः समाना' मितिकृत्वा तैर्थिस्तीर्णैः भवनशयनासनैर्विपुलैश्च यानवाहनैराकीर्ण उपभोग्यतः संप्राप्ता इत्यर्थः, धनं कृतं, अथवा धनग्रहणेन वैड्र्यादीन रत्नानि परिगृह्णन्ते, धनधान्य इति च कृता, शाल्यादीनि धान्यानि बहुजातरूपरयतं कंठ्यमेतत्, आयप्पओत इति आयोगो वृद्धिकाप्रयोगः (व्यापारः) इत्यर्थः, अथवा आयोगस्यैव प्रयोगः, द्वन्द्वो वा समाससंज्ञा, ताभ्यां संयुक्तं, विविधं विशिष्टं वा छड्डितं विच्छतिं दीयमानं भुञ्जमानं वा भुक्तशेषं च बहुदासीदासं कण्ठ्यमेतत्, 'बहुजन' इति उत्तमाधममध्यमो जनस्तस्य जातिकुलैश्वर्यवत्तैरपरिभूतो मान्यः पूज्य इत्यर्थः, से णं लेवे समणोवासए होत्या, जाव विहरति । तस्स णं लेवस्स गाहावईस्स णालंदा बाहिरियाए बहिता उत्तरपुरच्छिमे दिसिभागे एत्थ णं (सूत्रं ७१) लेवस्स गाहावइस्स हत्थिजाणा वडे होत्या, किन्हे किन्हछायो, प्रायेण हि वृक्षाणां मध्यमे वयसि पत्ताणि किण्हाणि भवन्ति, तेसिं किण्हाणं छाया किन्हछाया, फलितत्तणेण आदित्यरसिचारणात् कृष्णो भवति, बाल्यावस्थानि क्रान्तानि पर्णानि शीतलानि भवन्ति, यौवने तान्येव किसलयमतिक्रान्तानि रक्तभावा ईषद्धरितालाभानि पाण्डूनि हरितानीत्यपदिश्यते, हरितानां छाया हरितच्छाया, एत एव कृष्णनीलहरिता वर्णा यथास्वं स्वे स्वे वर्णे अत्यर्थं युक्ततमा भवन्ति, स्निग्धाथ तेण णिद्धो घणकडितडिच्छायत्ति अन्योऽन्यशाखा प्रशाखानुप्रवेशा घणकडितडिछाए, रम्मे महामेघ इति जलभारणामे प्रावृमेधः समूहः संघात इत्यनर्थान्तरं, मूलान्येषां बहूनि दूरावगाढानि च संतीति मूलवन्तः, एवं शेषाण्यपि, गिट्ठरं यद्यपि पाण्डुरजीर्णत्वादवाङ् शुष्यंते तथाप्यच्छेद्यात् तन्निरुप
[465]
लेपभावकः
॥४५०॥
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आगम
(०२)
प्रत
सूत्रांक
६९
८२||
दीप
अनुक्रम
[७९३
८०६]
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र -२ (निर्युक्तिः+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [७], उद्देशक [-], निर्युक्ति: [ २०१-२०५], मूलं [६९-८२] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र -[०२] अंग सूत्र [०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि :
सूत्रक
क्र्चूर्णि :
४५१ ॥
भोगत्वाच वृक्षाणां कालेनैवापाण्डुरा भवन्तीति मूलवन्तः, एवं शेषाण्यपि, प्रसंसा एवं ताव पासादीया, तस्स णं बहुदेसमजनभाए लेवरस गाहावतीस्स सेसद्विया णाम तस्स णवगं घरं, तथा जं सेसं गृहोपयोज्यं काष्ठेष्टकालोहादि, तेण कृता, केचिद् ब्रुवते -गृहोपयोज्यात् द्रव्यात् यच्छेषं तेन कृता, उदयशाला उदकप्रवाहो सुहं होत्था । तस्सि च णं गिहपदेसम्मि (सूत्रं ७२), तत्थोवरगउवट्टाणियगपाणियघराणि पदेसा, तत्थण्णतरे पदेसे भगवं गोतमे विहरति, कथं द्वितो, कथं विहरति १, उच्यते, ण चंक्रमणादिलक्षणो विहारो गृहीतः, किन्तु उर्द्धजाणुअघोसिरज्ञाणकोट्ठोवगते, विसेसेण वा कर्म्मरजो हरतीति विहरति, कथं सावओ १ कथं प्रपा १, उच्यते, प्राग् श्रावकत्वात् प्राक्श्रावकता, साम्प्रतं निरुपभोगित्वादल्पसागारिका, अत एव भगवान् गौतमः अत्रावस्थितः, भगवं च णं आहे आरामंसि आगत्य रमंते यस्मिन् इत्यारामः, अहे वा आरामस्य, गृहं अधो अधः, तत्थ भगवान् वर्द्धमानसामी द्वितो सेसा य साधवो, तत्थ तत्थ देउलेसु मभासु द्वितो, अह उदए पेढालपुत्ते पासावचिले ॥ २०५ ॥ निग्गन्धे निर्गथो, किलायं भगवं वर्द्धमानखामी भवति न भवतीति १, दुक्खं हि भगवान् अयं ज्ञास्यत इति गौतमखामीं आगत्य भगवं गौतमं एवमाह-अस्थि खलु मे आउसे ! (सूत्रं ७३ ), प्रदिश्यते इति प्रदेशः, प्रवचनस्य प्रश्न इत्यर्थः, तथाऽहमपि, व्याकराहि, एवं पुट्ठे उदरणं पेढालपुत्रेणं सवायं शोभनवाकू सवायः, शोभना तु 'अलियमुवघातजणणं' इत्यादि, अथवा निर्व | हणसामर्थ्यात् शोभनवाक्, सोचा जाणिस्सति, किंचि सुचतेविण संमते, वितियचउत्था भंगा सुष्णा, तदेवं ब्रूहि यदि श्रुत्वा | ज्ञास्यामः ततो वक्ष्यामः, न चेत् ज्ञास्यामो भगवंतं प्रक्ष्याम इत्यर्थः, भगवता गौतमेनोके-सवायं उदए पेढालपुत्ते य एवं वयासी सवायंति न मिथ्याहिमानात् पूयाविमत्या, केवलं तस्योपलंभात्, अस्थि खलु गौतम ! कम्मा उत्तिया णाम कर्म करो
[466]
गौतमोद कपेढालौ
॥४५१॥
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(०२)
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [७], उद्देशक [-], नियुक्ति: [२०१-२०५], मूलं [६९-८२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत' जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
गौतमोदकपेढालौ
प्रत सूत्रांक ॥६९८२|| दीप अनुक्रम [७९३८०६]
श्रीमत्रक- तीति कर्मकारः सं पा शिल्पी वा कर्मकारस्य पुत्राः कर्मकारपुत्राः, कर्मकारपुत्राणामपत्यानि कर्मकारीयपुत्रा, समणे उवाताङ्गचूर्णिः सन्तीति समणोबासगा, तुभआगंति युष्माकं प्रवचनं, सच्चादितौ वा वचनं प्रवचनं, गाहावति समणोवासए 'एवं पञ्चक्खावेंति' ॥४५२॥
स्यात्कथं मया श्रुतं ताब, क ?, साधुममीपं गतेन वा, वसता तवाम समीपा गतागते तुस्सइत्ति, कथं ते प्रत्याख्यानमित्युक्तं एव माह-'णण्णस्थ अमिओएण' अन्योति परिवर्जनार्थः, अभियुज्यत इत्यभियोगः, तंजहा–रायामिओगेणं गणामि० बलामि.
रायाभिः जहा वरुणो णागमच्चु(णत्तु)ओ रायाभियोगाद संग्रामं कृतवान् , अण्णो या कोथि रायवित्तो वा जीवो संग्रामे पराBI हन्यते, एवं गणाभियोगेवि, मल्लगणादी, जहा रायभियोगो तथा हिंस्रव्याघ्रमादिजीषितान्तकरानिवारयेत , नाशरीरस्य धर्मों
भवतीत्यतः ते, अत्रापि रायाभियोगबद्रष्टव्य, आकार एव च एतावान् भवति, जे पञ्चक्खाओ चेव रायाभियोगादि आगारं करोति, जहा स हिमादिभिभूतो पलायतो तसे पेल्लेति, स्यात् , कथं तसपायोसु णिक्खिवितस्स आयरियस एगिदियवधाणुगा ण भवति ?, उच्यते-'चोरग्गहण(वि)मोक्खणयाए'ति उदाहरणं-एगमिणगरे रण्णा तुडेण अंतेपुरस्स रति सच्छंदपयारो दिण्णो णागरेहिवि रायाणुवत्तीए, बरिसे वरिसे तद्दिवसं महिलाचारोऽणुण्णातो य, पत्ते च दियो रण्णा घोसावितं-जो पुरिसो अतीति तस्स दंडो सारीरो, ते च णिति, चिडेसु वारेसु ताओ रायाणिओ णगरमहिलाओ य सच्छंदं सुहं रति अभिरमंति, तत्थ कदायि एगस्स वाणियस्स पुत्ता मावणे चवहारमाणा अतीव कयविकये वहमाणा अत्थलोभी जहिच्छितं पणियं विकमाणा ते वढिता जाव
रो अर्थतो, महिलाओ य आहिंडिऊण पन्चत्ताओ, ते य भीता तंमि चेव सावणे णिलुका, वत्ते महिलाचारे सूचकेहिं रणो कहिता, बज्झा आणचा, पिता य तेसिं सव्यपगतीहि समं विष्णवेति, दण्डं देमि, अप्पथ मम पुत्ते, राया अतीव बडिजमाणो
।।४५२॥
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आगम
(०२)
भाग-2 “सूत्रकृत" - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [७], उद्देशक [-], नियुक्ति: [२०१-२०५], मूलं [६९-८२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत' जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
प्रत
सूत्रांक
श्रीयत्रक-1 ताङ्गचूर्णिः ॥४५३
॥६९८२|| दीप अनुक्रम [७९३८०६]
भणति-एक ते जेट्टपुतं मुश्रामि, सो भणति-सचे मुबह, इतरो भणति-जेहपुत्तं ते मुआमि, इतरे गा मुआमितिकदु, तं मोतुं 10 सभूतसेसा विरसमाणस्स चातेति, एवं साधूवि सावंग भणति-छम जीवणिकाएसु णिक्खिप्प दंडं, सोणेन्छति, इत्यतः चोरग्रहण- विचार: मोक्खणट्ठताए साधुणा सेमा काया अणुण्णाता ण भवंति, स्यात् कथं चोरास्ते स्वगृहे तिष्ठन्तः १, उच्यते, राज्ञा न तेषां अनु- IN | जातस्तस्यां रात्रौ नगरे पास इत्यतः, अथवा सेत्ति पुत्ता रष्णा कम्हि य आयोए णिउचा, तेहिं कि किंचि तस्थ अविहतं, क्वापि तदेव जाइजमाणो राया चिराणुगतोचिकाऊण एकं विमति, उदए आह-तसेहिं येईदियादीहि गिधयति धकारस्य इखत्वे कृते निधय भवति, निक्षिप्येत्यर्थः, एवं तेसिं साधूर्ण पचक्खंतार्ण सम्बगतिग्राहित्यात् साना दुपगक्खातं भवति, तथा च-न जातित्रसः कश्चिजीवोऽस्ति, सानां सर्वकालत्वात् , तथा प्रत्याचक्षाणानां श्राराणामध्यसर्वकालत्वादेव प्रसाणां दुपचखातं भवति, एवं ते परमं पञ्चक्खावेति-माणंति, पर इति, साधूनां तावत्परः श्रावकः, अतिचरंति सयं पतिणं, अतीत्य चरंति अतीत्य वर्तन्त इत्यर्थः, कतरं, पतिणं च यथा वयं तसेभ्यो विरता इत्यर्थः, यदि हि अत्यन्तत्रमाः स्युः सकाये मोतुं अण्णास्थ, अण्णत्थ ण उयवजेज इत्यर्थः, श्रावकानामतिचारेयुः खां प्रतिक्षा, जम्हा य ते साधुणो जाणंति णस्थि कोयि अचंततसाति, सो हि य पचक्खावेन्ता घिजादिता भवंति श्रावकाः, मृपावादवादित्वाचातिचरन्ति, खां मृपानादवेरमणप्रतिज्ञा, थावकस्यापि साधू पच्चक्खंतिओ परो तेण परेण अप्पणो पञ्चक्खावेमाणा असर्वकालत्वात् त्रसानां अतिचरंति स्वां प्रतिज्ञां, य था वयं सेभ्यो विरता इति, अप्पाणं साधुं च पञ्चक्वायतयं विसंवादयन्ति 'कस्स गं तं हेतुति कस्माद्धेतोरित्युक्तं भवति, संसारित्वात्सजीवानामिति हेतुः खल्विति विशेषणे, किं विशिनष्टि ?, न कश्चित्संसारी जीयोऽस्ति हि तासु तासु गतिसु न संसरति, थावरावि विप्र
11४५३॥
SEX
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(०२)
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [७], उद्देशक [-], नियुक्ति : [२०१-२०५], मूलं [६९-८२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] “सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
प्रत
त्रसभूतविचार:
सूत्रांक
॥६९८२|| दीप अनुक्रम [७९३८०६]
श्रीमत-2 काराः त्रिप्रकारेप्येव प्रसेपूपपद्यन्ते, असा अपि त्रिप्रकाराः त्रिप्रकारेवेव स्थावरेपूपपद्यन्ते, थावरा पाणा विष्पमुचमाणा केयि थायरा, ताङ्गचूर्णिः
थावरत्ता य कालं किचा तसकायंसि उवबजते ततो सावगस्स तसस्स द्वाणं पइणं भवति, जओ सावगेणं स्थावराणं ण पचक्खा॥४५४॥
यति, तसावि केइ तसचाओ कालं किया थावरकायंसि उबवजेजा, ततो सावगस्स तं थावरद्वाणं अघत्तं भवति, जतो सावगेण तसाणं पञ्चक्खातंति, धातनीयं घात्यं वा घतं, दोभेव एताई संसारिजीवट्ठाणाई, तसट्ठाणं थावरहाणं च, तं च तसट्ठामं सावगस्स स्थूलत्वात् प्राणातिपातस्य तीयाध्यवसायोत्पादकत्वाल्लोकगरहितत्वाच अघतं, स्थावरट्टाणं पुनस्तैरेव कारणैः सह तेजोवायुभ्यां धनं, दृष्टान्तो नागरकवधनिवृत्तिवत् , यथा कश्चिद् ब्रूयात् मया नागरको न हन्तव्य इति, स च यदा तं नागरकं ग्रामगतं हन्यात तदा तकि प्रत्याख्यानं न भग्नं भवति ?, सात्कथं सुप्रत्याख्यापितं भवति साधोः कथं च सुप्रत्याख्यातं भवति श्रावकस्य ?, उदओ आह-तत उच्यते, तेसिं साधूर्ण पञ्चक्खायंताणं एवं पञ्चक्खायमाणाणं सुपचक्खातं होजा सागाण तेहिं साधूहि पच्चक्खावेताणं एवं सोपचक्खातं होजा, एवं ते परं पञ्चक्खावेमाणा, परशब्दो हि उभयग्राहि, पञ्चाइक्खंतस्स हि पञ्चक्खावेमाणे परो, पचक्खावेतस्सवि पञ्चक्खाइओ परो, इत्युवाच, यथापि परशब्दः नातिचरन्ति स्वां स्वां प्रतिज्ञा, णण्णत्थ अभिजोएणंति, सो हि गाहावतित्ति यावन्न व्रतानि तावद् गृहपतीत्युच्यते गृहीतानुव्रतस्तु थावकः उपासको वा, तसभूतेहिं पाणेहि ति ऋजुमूत्रादारम्य सर्व एव उपरिमा णया नैयायिका ते तु वर्तमानमेवार्थ प्रतिपद्यन्ते न त्वतीतानागते इत्यतो नेवयिकनयमधिकृत्योच्यते असत्वं भूतं येषां तत्र भूता, वर्तमानमित्यर्थः, न खनागतं धृतघटदृष्टान्तसामर्थ्याच ते भवन्ति त्रसभूताः, ते हि त्रसभूतेहिं पच्चखंतस्स साधुस्स अलियवयणवेरमणं ण भग्गं भवति, पचक्खावेंतस्स य सावगस्स स्थूलगषाणातिपातवेरमणं ण भग्गं भवति,
॥४५॥
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भाग-2 “सूत्रकृत" - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [७], उद्देशक [-], नियुक्ति: [२०१-२०५], मूलं [६९-८२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
प्रत
HA
PRIMATER
सूत्रांक ॥६९८२|| दीप अनुक्रम [७९३८०६]
श्रीसूत्रक-IG को रटान्तः, क्षीरविगतिप्रत्याख्याने दधिपानवत् , यथा क्षीरविगतिप्रत्याख्यायिनः सस्वरमपि दधि पिपतः प्रत्याख्यान न
वसभूतताहचूर्णि: भजते एवं सभूता मया सचान हन्तव्या इति स्थावरानपि हिंसतोऽपि न प्रत्याख्यानातिचारो भवति, एवं तसभूते पचक्खाउंविचारः ॥४५५॥
A सावगस्स, थावरेसु सत्वं नास्तीतिकृत्वा स्थावरान हिंसतोऽपि न सप्राणातिपातातिचारो भवति, एवं सति भासापरकमे-- विजमाणे भासापरिकम्मे णाम वाग्विपयविशेषः, स्यात् को विशेषः । ननु भासाभिधानभृतशब्देन सहगृहीतं नित्यं यो विशेपो
विजमाणो, को हि णाम अविसेसीतं पचक्खाइ ?, कोघेण, माणोऽपि कोधाणुगतो चेव धूमानियन , लोभेण सावगा जाता संता MAI अम्हं असणादी दाहिन्ति, देशो नाम उपदेशः रष्टिी उपदेशः, अपिः पदार्थादिपु, उम्मग्गदेसणा य भवति, यतु पचखाणं | | सुज्झति, मोक्खं णयणशीलो णेयाउओ, अपियाई जाव रोयह । गौतमो भगवानाह-णो ग्वलु आउसो! (सूर्व ७५),
पेढालस्य तत्कथं न रोचति ?, उन्मार्गवर्जनवत् , को णाम सचेतणो जाणमाणो उज्जुयं खेमं आसण्णगमणं च पंथं मोतूण तधि
वरीतेण पंथेण वच्चेजा ?, को वा जाणतो णिविसं भोअणं मोचूण सविसं भुंजेआ?, समणा चे माहणा तत्पुरुषः समासः, AN अथवा माहणा श्रावकः, एवं आइक्खंति जाव पण्णवेंति-थो खलु समाणे समाणा समणेहिं तुल्या समाणा अमच्छूमणैस्तुल्या
इत्येवमाख्यान्ति, अणुगामियं खलु जाए अणुगच्छन्ति संसारं सा अणुमामिया भवति, अभूतोभावनं अभ्याख्यानं भवति, नियो | वा, संयतयत् , सो असंयतं संयतं ब्रवीति सो अभ्याख्यातो भवति, संयतं वा असंजतं भणति सोवि अभिक्खातो भवति, उक्तं
हि-"जे णं भंते ! परं असंतेणे. अप्पगंपि अब्भाइक्खा०"विधि अजाणंति अम्हे पचखाणविधिजाणगा, ते समणेचि ते आयHAरिया सिस्साणं समगाणं उनदिसंति जहा सावगाण एवं पञ्चवावेआह, जेहिवि अण्णेहिं पाणेहिं जाव सहि संजमंति तेवि ॥४५५॥
SANTOSHIARMANCE
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भाग-2 “सूत्रकृत" - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [७], उद्देशक [-], नियुक्ति : [२०१-२०५], मूलं [६९-८२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-०२] "सूत्रकृत' जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
सभूतविचार:
प्रत सूत्रांक ॥६९८२|| दीप अनुक्रम [७९३८०६]
श्रीमत्रक- स्यात्कयरे स्यादन्ये प्राणा एगिदिएक पंचिदिए, तत्थ वणस्सतिकाएण दरिसणेई, वणस्सतिकायसमारंभस्म पनक्खाणं तं भाई- ताङ्गणिछेदस्वेत्यर्थः, तत्य णाम तेग वणमतिभूतस्स पञ्चकखातं, किं कारणं ?, सोचि संसारी कदायि पुढविकाएसु उववञ्जति तेण तं ॥४५६॥
| पुढविकाइयं वर्धतेण तुम्भंचएणं पञ्चक्खाणं भग्गं भवति, अथ भूतशब्दमंतरेणापि वणस्सइत्ति समारंभपचक्खाणं सुज्झति, कस्स
त्रसेष्वपरितोषः, अथवा जेहिवि अण्णेहिवि पञ्चाइक्वंति तेवि ते अन्भाइक्रांति, कथं तर्हि ?, अत्र हि प्रत्याख्येया गृह्यन्ते, नतु सपथक्वंतओ पञ्चक्खावेतओ वा कथं अन्भाइक्खित्ता भवंति ?, जेण तेसु भूतशब्दः प्रयुज्यते, भूतशब्दो हि यातोऽगगतिं गत्वा
औपम्ये वा तदर्थं वा, औपम्ये तारत् सो देवलोकभूतेऽन्तेपुरे गतो, तदर्थेन सीदीभूतो परिणिचुतो, औपम्ये तावन्न घटते, किं कारणं ?, णस्थि अण्णो कोयि तसकायो, जहा देवलोके देवडी, तत्र शब्दादिगुणोपेतत्वाद्देवलोकभूतं अंतेपुरं बरं, एवं ताव णस्थि कोइ अतसओ जेण तसा तसभूता बुधेञ्जा, तदर्थोऽपि न घटते, कथं ?, जात्यभेदात् यथा उदकं अभिनायामुदकजातो अशीतं सीतीभवति, शीतं वा अशीतीभवति, किमेवं त्रसस्त्रसत्वेनाविगत एवं सन् त्रसीभवति, वसीभूतश्च पुनखसीभवति? यसाचैवं तस्माद्भूतशब्दो होद एव, होढवाभ्याख्यानमित्यतो येऽपि प्रत्याख्येया तेऽपि अब्भाइक्संति, कथं ?, जो हि साधु साधुभूत भणेजा तेण सो अवभक्खातो, कथं णाम सो साधु साधुभूतो पुण असाधु साधूभूतं भर्णतो तं साधुमकमाइक्खंति, कस्स गं तं हेतु ?, कस्माद्धेतोः अभक्खा होति, जेण तसथावराणं पाणाणं अण्णोणं संक्रमणं अविरुद्धं, सत्यप्पविरोधे तसेसु उबवण्णा थावराणे तसट्ठाणं अघत्तं अघातनीयमित्यर्थः, अर्थतः प्राप्तं तसाणं थावरेसबवण्णाणं ठाण मेतं घत्तं, तदपि, अणट्ठाए अघतं, अट्ठाए पत्तं, शेष कंठणं णागरओ मए ण घातेतिब्योति तं गामपि गतं यो घातेति तेण पञ्चक्खाणं भग्गं भवति, एवं तसा मए ण पातयि
- " HEIR I
tion
॥५६॥
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भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र -२ (निर्युक्तिः+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [७], उद्देशक [-], निर्युक्तिः [२०१-२०५ ], मूलं [६९-८२]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र -[०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
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श्रीसूत्रकवाङ्गचूर्णिः १४५७॥
तव्या, सो य थावरेपि तत्ताए मने घातेंतो तमथावरेग पुट्ठो, जइ पुण तसभृतो भणेल तो मुंबेजा, तदयुक्तं कथं १, णिच्छयणए 1. पडुच गगरद्वितो नागरओ तीर्थकारुवत्, एवं सो मए तसो ण घावेयव्योति तस्यामेव जातौ वर्तमानोऽघात्यः, थावरगतो पुण 'ण चैव तसो भवतीत्यतो तसद्वाणं अघतं, उदओ सवाधं उदर (सूत्रं ७६), ण रोसेण पडिणिवेसेण वा, ओभावणदृता वा न केवलं, किं तु कुमलं गवेषित्वा, कतरे तुम्भे वदह तमपाणा कंठो, सवायं भगवं गोयमे उदयं पेढालपुतं एवं वयासी-जे 1. तुम्भे वयह तसभूता पाणा ते वयं वदामो तसा पाणां भूता, एते तसा विअंति, तथा य तमभूता यद्यप्येकः भृतशब्दोऽधिकः, तस्याप्यर्थः भवतो न भवतीत्यतो तुल्या, एकाश्रयत्वात् एगट्टा, सुखं सुखोचारणात्, सपनीततराप्येवं उपनीयतरा, तसा पाणा, अर्थमुपनयतीत्युपनीतं भवति, किं सुखतरं वसभृताभिधाने अत्थो वणिजति ?, मन्यत इत्यर्थः तसामिधानेन सुखतरं उपणिजति, भूतसद्दो पुण औपम्ये तदर्थे च वर्त्तते, तदर्थे तात्रत् जम्हा भूतो भवति भविस्सति तम्हा भुते, अथवा सीतीभूते परिणि . व्बुडे य, तम्हा उसिणे उसिणभृते जाते आविहोत्था, औपम्येऽपि स देवलोकभूते, स एवं द्विधा भूतशब्दो वर्त्तते, अध्येयं संमोह जनयति नतु निष्णयं कथं ? न हि कश्चित्रसतुल्योऽन्यः कायोऽस्ति जेण वच्चेज, परिशेषात् तदर्थ एवं घटते, तदर्थोऽपि च भूत| शब्दमन्तरेणापि स एवार्थः सेत्स्यति, परि समन्तात् कुश आक्रोश, नैनिंदध आक्रोशत इत्यर्थः, नयनशीलो नेयाइओ मोक्षं नयः तीत्यर्थः, अभिमुखं नंदध प्रशंसत इत्यर्थः अयंपि निदेशे, दर्शनं दृष्टिर्वा देशः उपदेशो मार्गः स्वसिद्धान्त ख्यापनार्थमित्यर्थः, किंचान्यत्-जं तुम्भे भगह तसभूएहिं पाणेहिं णिक्खिप्प दंडंति तं समयविरुद्धं, कहं ?, भगवं च उदाहु संतेग़इया पुरिसा भवन्ति, गर्भवतिया संखेजवासाउया आयरिया वृत्तपुन्यति अतीतकालो गहितों, एगग्गणेण वरमाणोवि गहितो अणागतोवि,
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त्रसभूतविचारः
॥४७॥
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भाग-2 “सूत्रकृत" - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [७], उद्देशक [-], नियुक्ति: [२०१-२०५], मूलं [६९-८२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-०२], अंग सूत्र-[२] “सूत्रकृत' जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
प्रत
सूत्रांक
श्रीवत्रक- ताङ्गचूर्णिः ॥४५८|
॥६९८२|| दीप अनुक्रम [७९३८०६]
अतीतम्गहणं तु अनादिसिद्धमार्गस्थापनार्थ, 'गुपू रक्षणे तस्या गोत्रं भवति, उक्तं हि-"ण णिचहे मन्तपदेण गोत" संयममित्यर्थः, सभूत'अणुपुब्वेणं ति अनुव्रतानुक्रमः, अथवा थोरथोत्रं संजममाणो जाब एगारस समणोबासगपडिमा, एवं अणुपुपीए 'माणुस्सखेत्त- विचार: जाति०' अथवा 'अट्ठण्हं पगडीणं' अथवा 'सवणे गाणे य विष्णाणा' संखं ठावेंति, किं ?, कोयि एक अणुवतं कोयि दोणि जाव पंच एवं उत्तरगुघोसु विभासा, नागार्जुनीयास्तु एवं अप्पाणं संकसावेंति, 'कष गतौ तस्मिन्नेव गृहीधर्म सम्यक् आत्मानं कसाचेति संकसावेंति, न प्रबजतीत्यर्थः, ताणि पुण यताधि एवं गेहंति णण्णत्थ अभिजोएणं जाव अहाकुसलमेव, जहा साधू सवतो विरतो एवं तेसिपि, जहा इत्युपमाने, थकारस्य व्यञ्जनलोपे कृते आकारे अवशिष्टे भवति, किं ज्ञापकं ?, ततो पच्छा तसा अधा लहूए स णाम पट्टवेतव्वे सिया, जेसु पुण सो पञ्चक्खाणं करेति तसथावरा वा स्यात् , कथं ?, तसो थावरो वा भवति ?, उच्यते-तसावि वुचंति (सूत्रं ७७), तहा लहुए सणाम एस्सा तसत्ति संज्ञा सा दुविधा, गोणी पारिभापिकी च विभापितव्या, इयं तु न पारिभापिकी इन्द्रगोपकवत, गोणि भास्करवत , तत्कथं संभारकडेण तसा णाम, णामसमारंभो णाम, प्रसत्वात असेधूपपद्यते, किमुक्तं भवति ?, जइवि तेहि थावराणामकर्म बद्धं तं च लहुं थावरेवि, थावरेसु ण उवयजति, उक्तंहि-यद्गुरुसंपञ्चासन्न, वसंतीति वसा गोणीसंज्ञा, जति पुण तसा बचेञ्जा तेण तसभूतणाम णामकर्म वुचेज, तत्रोघतो तेण तसा चेव अब्भुवगतंति, लोगुत्तरे च तसा चेव अभ्युपगम्यन्ते, न तु तमभृता, उदग आह-केचिरं तसा बुचंति ?, जाव तसाऊ अपलिक्खीणं, उकोसेणं जाय तेत्तीसं सागरोवमाणि, नागार्जुनीयास्तु आउअं चणं पलिक्खीणं भवति तसकायद्वितीए या न ततो आउ विप्पजहिता तिण्डं थावराणं अण्णतरेसूववजंति, थावरावि वुचंति संभारकडेण, उदिजमाने उदीर्णे इत्यर्थः, णामं च णं तहेब ) ॥४५८॥
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भाग-2 “सूत्रकृत" - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [७], उद्देशक [-], नियुक्ति: [२०१-२०५], मूलं [६९-८२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[२], अंग सूत्र-०२] "सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
प्रत
सूत्रांक
॥६९८२|| दीप अनुक्रम [७९३८०६]
श्रीमत्र- अपलिक्खीणे दो आदेसा, ते ततो आउयं विप्पजहित्ता, लोगोति, ते तसा ते पाणावि, अपि पदार्थादिपु, पाणावि भूता जाव सभूतताङ्गन्चूर्णिः 7 सत्तावि, एवं ताणं चत्वारि णामाणि अविशिष्टानि तसेसु वति, इदं तु विशिष्टं तसा दुचंति, महाकायिति, प्रधानेनाहिगतं तीर्थ- विचार: ॥४५९ करक्रियाऽऽहारकशरीराणि प्रतीत्य बहुत्वं वैक्रियं प्रतीत्य, योजनशतसहस्र, चिरद्वितीयं तेतीसं सागरोवमाई ।। सवायं उदए
भगवं गोतमं (सूत्रं ७८), आउसंतो! गोतमा ! छिण्णं सो कोयि जाव सबपाणेहिं स दंडो णिक्खित्तो स्थात् , को हेतुः, उच्यते-'संसारिया खलु खलु विशेषणे, संसारिया एव संसरंति, ण तु सिद्धा इत्यर्थः, अविरुद्धः संक्रम इतिकत्वा, सब्वेवि तसा थावरकाए उबवण्णा, तेसिं च सन्वेसिं पाणाणं स्थावरेसूबवण्णाणं ठाणमेयं घतं, जं तसपाणा एवं सच्चे तसथावरा होजा, थावरा वा तसा होजचि, ततो सावओ कतरे ते तसा जेसु संजतो होजा, सवायं भगवं गोतमे उदयं पेढालपुत्तं-असा वक्तव्यं, किं उत्तरमत्र निमित्ताभावे नैमित्तिकाभाव इतिकृत्वा प्रदीपप्रकाशवत , तावकं प्रवाद अनुसृत्य वादोऽनुप्रवादः, अनुसृत्य योऽन्यः प्रवादा, जहा 'पुढवीआउजलेण य अग्गिधणेणं तणेण य भुइटुं । कजं जणो करेति अस्थस्थी धम्मकामे य ॥१शा एवं उबवत्तीए । णजति, जइ सब्वे थावरा तसेसु उववजेजा जेसु य सावएण णिक्खित्तो दंडो, पच्छा सावगस्स तेसु थावरेसु तसीभूतेसु ठाणमेतं | अवत, कतरेसु थावरेसु ?, जेसु सावओ दंडं णिक्खियति, ज्ञापकं प्रियमाणावि हु उदयं रुचेति, उदगं अप्काएवि पुण्णाए, | अथवा अपगंतव्ययं संसारिणो पाणा तसा थावरेसु उववजंति, थावरावि तसेस, एवं अम्हं यत्तब्वे तुम्हेवि अणुवदह, जद एवं | सम्म मुणह से एगतिया, ण सव्येसिं, थावराणं तसेसवण्णाणं ठाणमेयं अघतं, ते पाणावि बुचंति ते अप्पतरा ते बहुतरा जाव णो णेआउए । इह खलु संतेगतिया मणुस्सा (सूत्रं ७९), संखेजवासाउया कम्मभूमगा आयरिया असावगा, सण-17 ४५९॥
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भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [७], उद्देशक [-], नियुक्ति: [२०१-२०५], मूलं [६९-८२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत' जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
प्रत सूत्रांक ||६९
८२||
दीप अनुक्रम [७९३८०६]
धीयपक- सालगा चुना,, पुणे तिविधो कालो गहितो, जे इमे मुंडा एतेसु इमो आमादायां जापजी पाए उक्त भवति, तेसिं च अगारीणं सभूतनारणिः
विचार: केद गरबदता, पच्छा मो, ते जइचि पुचि अधकारिणो तथापि ण उद्दवेंति, कदाइ ते पवइमा पच्छा पचक्खाणी, जावि उद्दवेति ॥४६०||
रेण अण्णेण वा केणइ कारणेण तहाचि तरस तस्मतं पञ्चक्खाणं ण भजति, उक्तो दृष्टान्तः अयमोपनया-एवमेव समणोवासगस्मवि थावरेसु पाणेसु दंडो णिक्सित्तो, त य थावरा कालं काऊण तसेसु उपाअंति पच्छा सो तमेव ण मारेति जहा सो पचक्खाणी पव्वइत संत ण मारेति उप्पथ्यइतं मारेति एवं सावओऽवि तसं तसीभूतं न मारेइ, पुणरनि थावरीभृतं मारेमाणोवि
ण अपञ्चक्खाणीति, से एवमाजाणहत्ति उपसंहारो गहितो, एवं च ज्ञायमाने वा सम्म गाणं पडिवण्णं भवति, एवं ताव नेसुन MA चखाणं करेति तेषु कर्मभूतेषु विधिरुक्तः, इदानीं प्रत्याख्यानिनो गृह्यन्ते, ते च पूर्वमप्रत्याख्यानीभूतं पश्चात्प्रत्याख्यान्ति,
पच्छा पुणरवि अपचक्खाणं भवति, तंजहा-भगवं.च णं उदाहु णियंठा खलु गाहावति तहप्पगारेहिं कुलेहि आरिएहि भोजि
यट्ठियपव्यावणारिया, शेष कंठध, शुभोऽव्याधिः, कुष्ठादिस्तु विशेषतः, मनसा ज्ञायते मनोज्ञः मनसा नामः, दुक्खिणो सुहो 4. जवि अहं तेण रोगान्तकेण अभिभुतो बंधवे भणेज, हंत संप्रेपणे भयात्रायंतीति त्रातारो इमं दुक्खं परिएत ममं अर्जनरक्षणादि
समुत्थं भवति, निमित्तमेव दुक्खमुत्थितं मा वधते, तद्भवं तदेणं प्रत्यापयन्तु, स्याद् अचेतनत्वात् , कामभोगानामामन्त्रणं, उक्तो
आगारः, दृष्टान्त उच्यते, पृथक सत्रीकरणं ?, उच्यते, णिक्खेवो चुचो वितिए. दंडे, णिक्एिनेसु भुंजतिकामो दरिसितो, अथवा Pसमणोवासगा अधिकृता, तेसिं च णो कप्पति अण्णउत्थिया वा अन्नउस्थियदेवताणि चा, साधुणा ते दूरतो. बजेयवत्तिकाऊणं
ते उद्वितेविण पचक्खावेस्सति इत्यतः पृथक् सूत्रीकरणं, णियंठा पुच्छितब्यत्ति, ते चेव पासावचिजा णियंठा पुच्छिऑति तुम्भंति, ४६०||
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भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [७], उद्देशक [-], नियुक्ति: [२०१-२०५], मूलं [६९-८२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत' जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
। उदकबोधः
प्रत सूत्रांक ॥६९८२|| दीप अनुक्रम [७९३८०६]
थीयत्रक- किं पुरा संमतं उदाहु णावि, अथवा पुच्छिजंति तुम्भपि किं दार्शन्तिकोऽर्थो दष्टान्तेन साध्यते !, न तु प्रतिज्ञामात्रेण, देवसिद्धिः)) ताङ्गवृणिः17 आबामात्रादिति चेत सर्वस्य सर्वसिद्धिरिति परिशेपात दृष्टान्तसिद्धिरिति, तत्र दृष्टान्तः, इह खलु परियागा.चरगादयः परिया-AI ॥४६१ | इयाओ तेमि व यथाखं प्रबजिताः स्त्रियः, यथा चरिका-मिक्षुणीत्यादि, अण्ण उत्वियाई तित्थायतणाई, ते चेव पासंडिया चरि-1
गादयः ते पुण केइ चरगे' चेत्र वचंति, केड अणणे चरगतब्बणियादि वुत्ता जेसु पचक्खाति सापओ,जे य पचक्खायंता सावगा आगारिणो परियाइगा य, इदाणिं जं बुत्तं णस्थि ण से केई परियाए जेण समणोवामगस्न एगपाणाएवि दंडे णिक्खित्ते सब-10 पाणे हिंसादंडे अणिक्खिा , तत्थ बुत्ते ते' दुविधा सावगा सामिग्गहा य निरभिग्गहा य साभिग्गहे पडच वुचति भगवं च णं | (सूत्रं ८०), भगवं तित्थगरो चशब्देन शिष्या ये चान्ये तीर्थफराः, संतेगइया समणोबासगा जेसिं च णं.णो खलु वयं पब्यदत्तए,
वय णं चाउद्दसट्टमुद्दिट्ट पडिपुण्णति चतुर्विधं धूलगं पाणाइपातं पचक्खाइस्सामो जाय थूलगं परिग्गह, सो चतुर्विधं पोसहितो, मणियमा सामाइयकंडो चेव होति सामाइयकड़ोय भणति-मा खलु ममट्ठाए किंचि रधणपयणण्हाणुम्मदणचिलेवणादि करे,
| महेलियं अण्णं भणति-कारवेद, होति इस्सरो महेलियं दोसीणमहाणसियाण वा संदेसं.देति, तत्थ विपस्सामोत्ति, एवं अगारिसं| देसए दायवे, अथवा यदन्यत् सामाइयकडेण कर्नव्यं तथापि पचक्खाणं करिस्सामो ते, अमोजत्ति अपेयत्ति आहारपोसहो गहितो, असिणाईतित्ति सरीरसकारपोसहो, आसंदपलियं० दब्भसंथारगतो पोसहो चेव, सातासोक्वाणुबन्धो य सुसिरं च, जे पुण ते तहा पोसहिया चेव दंडणिक्खेवो, एवं सम्बपोसहेवि, जेण वातादिएण वग्वादीण या कुड्डपडणेण वा ते केवि वत्तव्या संमं कालगता, न घालमरणेनेत्यर्थः, नागार्जुनीयास्तु सामाइयकडेऽहिकाउं सर्वपाणातिवातं पञ्चक्खाइक्खिस्सामो तदिवसं, उक्तं ॥४६१॥
PADMINIलामाल
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श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [७], उद्देशक [-], नियुक्ति : [२०१-२०५], मूलं [६९-८२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-०२] “सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
प्रत
श्रीपत्रक
वाजचनि
सूत्रांक ॥६९८२|| दीप अनुक्रम [७९३८०६]
हि-“सामाइयंमि तु कते." यतश्चैवं तेण जं भणितं णस्थि णं से केथि परियाए जेण समणोवामगस्स एगपाणाएवि दण्डे उदकबोध: णिक्खिये, गणु पोसहकरणेण चेव दंडणिक्खेयो एवं सब्वपोमहे देसपोसहेवि देसदंडणिक्खयो, उक्तं च-'जत्तो जनो णियत्ति०' एवं ताव सामिग्गहा बुचंति । भगवं च णं उदाहु संतेगइया समणोबासगा भवंति तेसिं च णं एवं खलु मुंडा भविता णो खलु
वयं अणुव्यताई मूलगुणे अणुपालेचए, णो खलु उत्तरगुणे, चाउद्दसट्ठमीसु पोसह, अणुच्चयं सम्मइंसणसारा, अपच्छिममारणंतिमरणवकंखमाणोति, मा य हु चिंतेजासि जीयामि, वरं सब्वं पाणातिवाय पञ्चक्खाइम्सामि, वुत्ता चउहि आलावएहिं पञ्चक्खाइणो, पदाणिं जेसु पञ्चक्खाति ते पुणो चुचंति-भगवं च णं संतेगतिया मणुस्सा महारभा महापरिग्गहा अधम्मिया सब्बातो पाणाइ
वातातो अपडिविरता जाव परिग्गहातो, आदाणसोत्ति कम्माणामादाणं जाव कमादानानां प्रकारा हिंसाधा तेसु'सगमादाए'त्तिा स्वकर्म आदाय दुर्गतिगामिणोति णिस्यदुर्गतिं गच्छति, ते पाणावि बुचंति तसावि बुचंति जाव पोयाउए । जइ सव्वे तसे मरि। बायरे उववजेजा तोवि तुम्भवयं वयणं ण गेज्झं होजा, जेण के तमा तसेसु चेव उववजंति तेण अणेगंतिया वा प्रमाणं । भगवं
च णं संतेगतिया मणुस्सा अपरिग्गहा अधम्मिया जाव सगमादाए सोग्गइमायाए सोग्गइगामिणो देवेपूत्पद्यन्ते देवगति गच्छंKA तीत्यर्थः, ते पाणाइ०, भगवं च णं संतेगतिया मणुस्सा अप्पारंभा अप्पपरिग्गहा जाव एगचाओ पाणाइयायाओ पडिविरता एग-4
चाओ अपडिविरता चेव सावगा, जेहिं समणोवासगस्स आदाणसो दंडे णिक्खितो ततो आउसं सगमादाए सोग्गइगामिणो देवेषूपपद्यन्ते, उकोसं जाव अच्चुओ कप्पे, ते पाणावि बुचंति, भगवं च णं संतेगइमा पञ्चायान्ति ते पाणा यिस्थ य परत्थ य संते. णो विप्पजहंतीतिकट्टु, तेसु सावगस्स सुपचक्खातं भवति, जम्हा य ण सम्ये तसा थावरेसु उववअंति, तम्हा अमेगंतो, अणेगं- ॥४६॥
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श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [७], उद्देशक [-], नियुक्ति : [२०१-२०५], मूलं [६९-८२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] "सूत्रकृत' जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
श्रीस्त्रक- नाङ्गचूर्णिः ॥४६॥
प्रत सूत्रांक ॥६९८२|| दीप अनुक्रम [७९३८०६]
तिकश्व हेतुः ? भगवं च० संतेगतिया पाणा दीहाउया, कयरे पाणा?, तसा, तस्थवि नारकदेवा अवज्झा तहवि सावओ तेसु पच्च- उदकवोधः क्खड, सेसतिरिक्खजोणिया बेईदिया जाव पंचिंदिपतिरिक्खा मणुस्सा, एतेसु दमपाणातिवादी भवति, भावपाणाइवादो तु|4 चउसुवि गतिपु, मणुस्सतिरिया पुण दीहाउया णिरुषकमाओ उत्तरकुरुगादीणं अवि दब्धपाणाइवातो णस्थि, धम्मचरणं पहुंच IM दीहाउया वा अप्पाऊ वा, सेसेसुवि सुसमकालेसु उसण्णं णिरुवकम्माऊया, दोसु दुस्समकालेसु चउढाणपडिता, इह तु चरणकाले चेच सायगो भवति, तेहिं दीहाउएहिं सावओ पुब्बामेव कालं करेति, ते य दीहाऊया तसत्तर्ण विप्पजहति, तेसु सावगस्स सुपशक्खातं भवति, समओ विसए सुपचक्खातं भवति, कथं ?, भो तेहिं समाउआ इथे कालं करेति, ते य तसेसु वा अण्णत्थ वा | उववजंति जावजीवं पञ्चक्खाणंति तसेसु विरता चेव होति, तेण अप्पाउआ तसा ते पुव्यामेव समणोवासगाओ कालं करेंति, तत्थ | जइ तसेसु उववअंति तेसु पञ्चाक्खातं घेव, अथ स्थावरेसु आसी ततो सोऽविरतो चेव, दृष्टान्तः स एव क्षीरप्रत्याख्यायी, तदेव ||V क्षीरं दधिभूतंपि, सुप्रत्याख्यातं भवति, इदाणिं दिसिवतं देसावगासियं च पहुच चुचइ, भगवं च उदाहु एवं वुतं भवति-णो खलु वयं संचाएमो मुंडे भविचा० णो खलु चाउद्द० णो खलु अपच्छिम० वयं पधदिवसेसु वा दिया वा रातो वा अभयं तं | चंक्रमणादि कुर्वते न भवति, खेमं करोतीति खेमकरः, सामाइयदेसावगा० पुरओ काउं पुरस्कृता पाइणं खेम पयच्छामो अभयं,
तं चंक्रमादि कुर्वतो न भवति खेमं करोतीति खेमकरः॥ तत्थ आरेणं (सूत्रं ८१), परेणं जावतिए णिक्खिते दिसिवतं देसा| वगासियं वा कतं, णव भंगा नवसूत्रदण्डकाः, श्रावकेन पश्च योजनानि किल देसावगासिकं गृहीतं तत्र चेयं भावना-पंचभ्यो 1 योजनेभ्यो आरतो ये वसाः पाणिनस्तेपां प्रत्याख्यानं करोति, तत्र ते पंचयोजनाभ्यंतरे केऽपि त्रसाः ते स्थानत्रये उत्पद्यते, ॥४६३॥
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भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [७], उद्देशक [-], नियुक्ति: [२०१-२०५], मूलं [६९-८२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[२] “सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
श्रीमत्रक-
प्रत सूत्रांक ॥६९
॥४६॥
८२||
दीप अनुक्रम [७९३८०६]
तत्र प्रथमं तावत्पश्चयोजनीभ्यः अंतरवत्तिषु त्रसेप्वाश्रयः प्रथमसूत्रदण्डका, तथाऽमावेश प्रमः पंचयोजनीभ्य उत्तरवर्तिपु स्थानरेपृत्पद्यते द्वितीयः, तथाऽसावे पंचयोजनवर्ती स्थानरः पञ्चभ्यो ये परेण वर्तन्ते त्रसस्थावरास्तेपूत्पयो तृतीये, दानी ते पंचभ्यो योजनेभ्यः परेण वन्ते बमस्थावरास्ते पंचयोजनाभ्यन्तरवर्तिपु त्रसेपूत्पद्यन्ते ते प्रथमः तथा त एव पंचयोजनबहिर्वतिनो त्रसस्थावराः पंचयोजनाभ्यन्तरवर्तिपुत्पद्यन्ते द्वितीयस्तु, त एव पञ्चयोजनबहिर्वनिष्वेव उत्पद्यन्ते तृतीयः, एते च सर्वे मिलिता नव भवंति, अयं भावार्थ:-पञ्चायोजनीअभ्यन्तरवर्तिपु त्रसेषु सूत्रदण्डवयं एवं पंचयोजनाभ्यन्तरवर्तिपु स्थापरेषु सत्रदण्डकवयं, तथा च पंचयोजनबहिसिनो ये प्रसाः स्थावरास्तेषु सूत्रदण्डकाय, अत्र च ये ते पंचबहिर्बनिनों प्रमाः स्थावरास्ते परिहारमङ्गीकृत्यकाकारा एव,"जपि दिसिवतं ण संखेवितं भवति तंपिदिणे दिणे देमावगासिएणं संखेवेति, जण दिवसं खित्तं तरति संखिवंति, अट्ठा णाम कृण्यादिकर्मसु जे तसे विराधेति, 'अथवा आयट्ठाए परवाए उभयट्ठाए वा, अणट्ठा पाम भमंतो खुइंतो
वा विराधेति, जं च वुत्त' जहा सव्वे तमा थावरा होति तेज ते ठाणं घनतिकाउं' कथं सावओ विरतिं करिस्सति', णेतं भूतं M. वा भव्यं वा जण सयथावग तसीहोहिन्ति, ये ते ण घाएत्ति सावओ तेणं अविरते भविष्यतीत्यत्र बमो-भगवं चणं ण एतं भूत
वा भव्वं वा, एवं सो उदओ अंणगारो जाहे भगवआ गोतमेण यहूहिं हेऊहिं णिरुचरो कतो ताहे अंतो हिलएणं एवमेतंति पडिबजमाणो बाहिरं चेहूँ ण पयुजति, 'जहा एवमेतं तुम्भे, वीरत्तेण दोण्ह वोच्छहनि, तते णं भगवं गोतमे णं उदगं एवं बदासी
आउसो ! उदग जेणं समणं वा माहणं वा सम्म पण्णवेमाणं वा स परिभासेइमित्ति-परिभवति मन्नति एवं बुझा गृह्णाति मिथ्या॥ध्यवसायेन, अथवा परि समन्ता मामेस परिभापते, कथं नाम एस एतं अटुं गेण्हेजा एवं मत्या, सेसं च ती आयहिताय जाण
॥४६४॥
[479]
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आगम
(०२)
प्रत
सूत्रांक
६९
८२||
दीप
अनुक्रम [७९३
८०६]
भाग-2 “सूत्रकृत” - अंगसूत्र -२ (निर्युक्तिः+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [७], उद्देशक [-], निर्युक्ति: [ २०१-२०५], मूलं [६९-८२]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता.....आगमसूत्र -[०२], अंग सूत्र-[०२] “सूत्रकृत” जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
244
श्रीसूत्रकृ विचूर्णिः ।।४६५।।
दंसणचरितजुत्तं मगं परिभाषते सेव तं परिवजा, भासिअमाणं आगमित्ता ज्ञात्वेत्यर्थः, गाणं सुतवाणं प्राप्य वा आगमित्ता दंसणं सम्यग्दर्शनं प्राप्य, आगमेणं चरिचं लब्ध्वा प्राप्य इत्यर्थः, पावाणि हिंसादीनि, अथवा अंड कम्मपगडी गहिताओ, खलु एवं कम्म परलोअं दव्यभावे पलिपंथो, विग्घा वक्खोडा, मोक्खं ण गच्छति, नागार्जुनीयास्तु जो खलु समणं वा हीलमाणो परिपासति ही-लजयां, हेव्यमाणः परिभ्रामति मनसावि, तत्र वयमा तस्मिं स ब्रूते अड्डे भासिजमाणे यदि सत्यमेव तन्मनसा गृह्णाति तथावि बाहिरकरणेणं. वायाए ण पसंसति यथा साधु साध्विति कायेन नांगुलिस्फोटनादिभिः प्रशंगति, मनसा नास नेत्रप्रसादो भवति, अथवा वायाए हेलयति छिन्धतीति तदा कारण विक्षिपति मनसा नेत्रवप्रसादो न भवति आगामि| ताणं २ भावाणं जाणणत्ताए आगमित्ता दंमणं भावाणं दंसणचाए आगमेचा चरितं णायाणं पावाणं अकरणता, से खलु परलोहा अपडिमंथचाए चिट्ठति, प्रशस्तमिदानीं सो खलु समणो वा माहणो वा परिभासति सतिमिति मण्णति त्रिभिरपि कायवाङ्मनोभिर्निन्दति साधु सुष्ठु वा अगुलिस्फोटनादिभिः प्रशंसति मनसा नेत्रवप्रसादेन परलोगविसुद्वित्ति मोक्खं आगमेसिभद्रो देवेसु उचचञ्जति ?, एवं पृष्टो भगवता गोतमेणं, तते गं से उदए जमेवं स्यात् किं कारणं अणादायमाणो प्रस्थितो, जतो न जाणामि किं भगवं गोतमेण भण्णिहिति १, तते णं भगवं गोतमे उदगं एवं क्यासी-आउसो उदगा जो खलु तहारूचस्स सचस्म समणस्स वा माहणस्स वा अंतिए एगमवि० सोचा अप्पणो चेत्र सुहुमा अप्पणो चेव आत्मनिगता सूक्ष्मः अन्तगता, नान्ये, ज्ञायते अनन्यतुल्यं अनुत्तरं, योगानां क्षेमं निरपायं लभत्ता प्रापिता अथवा सूक्ष्मं पडिलेहति किं एसो जाणति छिण्णसंशयः सोविताय तं वंदति जाव प्रज्जुवासति अर्थतोऽपदिश्यते इत्युक्तो भगवं उदगाह बंदियच्वे जाव पज्जुवासियच्वें, गौतमाह-जह
द्वितीय- श्रुतस्कन्धः समाप्तः
[480]
उदकबोधः
1188411.
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आगम
(०२)
भाग-2 “सूत्रकृत" - अंगसूत्र-२ (नियुक्ति:+चूर्णि:)
श्रुतस्कंध [२], अध्ययन [७], उद्देशक [-], नियुक्ति: [२०१-२०५], मूलं [६९-८२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता......आगमसूत्र-[०२], अंग सूत्र-[०२] “सूत्रकृत" जिनदासगणि विहिता चूर्णि:
प्रत सूत्रांक
उदकयोध:
श्रीयंत्रक- एवं जाणसि किं ण चंदसि ?, इत्युक्तो गौतमेन ततः स उदगः पेढालपुचो भगवं गौतम एवं वदासी-एतेसिणं भंते ! पदा ताजाणकतराई जाई पुच्छणाए चुत्ताणि मदीयपक्षस तानीत्यर्थः, अण्णाणता एवम णो सद्दहित, एतेसिणं झ्याणि जाणणताए एतमटुं ४५ सदहामि जद्द सनेति यव्वं सब्यमिति ।।
॥६९
८२|| दीप अनुक्रम [७९३८०६]
4555555555555555555555555555555555555 नमः सर्वज्ञदेवाय विगतमोहाय, समाप्तं चेदं चूर्णितः सूत्रकृताभिधानं द्वितीयमङ्गामिति ।।
9 45454599999999999999999999999
आमजEE
-
E
१४६६॥
सूत्रकृताङ्गसूत्रस्य जिनदासगणि विहिता चूर्णि: परिसमाप्ता:
मूल संशोधकः सम्पादकश्च पूज्य आनंदसागरसूरीश्वरजी महाराज साहेब किचित वैशिष्टय समर्पितेन सह पुन: संकलनकर्ता मुनि दीपरत्नसागरजी M.Com., M.Ed., Ph.D., श्रुतमहर्षि)
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नमो नमो निम्मलदंसणस्स पूज्य आनंद-क्षमा-ललित-सुशील-सुधर्मसागर गुरुभ्यो नम
भाग-2
पूज्य आगमोध्धारक आचार्य श्री सागरानंदसूरीश्वरेण संशोधित: संपादितश्च “सूत्रकृतांगसूत्र” [भद्रबाहूस्वामी रचिता नियुक्तिः एवं जिनदासगणि विहिता चूर्णिः]
(किंचित् वैशिष्ठ्यं समर्पितेन सह) मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित:
"सूत्रकृत” चूर्णिः” नामेण
परिसमाप्ता
सचूर्णिक-आगम-सुत्ताणि श्रेणि, भाग-२ [आगम-२]
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ਰਾਸ਼ ਵਾਰਸ ਨਹੀਂ ਕੀਤਾ ਸਰਬ
मा
आगम
वाचना शताब्दी वर्ष
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आराम आजम आजम, आजम
उजम
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नमो नमो निम्मलदंसणस्स
सचूर्णिक-आगम-सुत्ताणि
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मूल संशोधक
SISTER
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आजम
आगम
आगाम
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आजम
पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्य
श्री आनंदसागरसूरीश्वरजी महाराज आज
आजस
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अभिनव संकलनकर्ता
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आगम
आगाम
Stent
आजम
राजम
आगम दिवाकर मुनिश्री दीपरत्नसागरजी [M.Com., M.Ed., Ph.D., श्रुतमहर्षि ]
म
प्रत- प्राप्ति और पेज-सेटिंग कर्ता : के चेरमन श्री प्रवीणभाई शाह, अमेरिका मुद्रक : नवप्रभात प्रिन्टींग प्रेस अमदाबाद Mo 9825598855 / 9825306275
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ईस प्रोजेक्ट के संपूर्ण-अनुदान-दाता
सच्चारित्र चूडामणि स्वर्गस्थ पूज्यपाद गच्छाधिपति आचार्यदेव श्री देवेन्द्रसागर
सूरीश्वरजी महाराज साहेब
श्री परम आनंद श्वेताम्बर मूर्तिपूजक जैन संघ वीतराग सोसायटी, प्रभूदास ठक्कर कोलेज रोड, पालडी, अमदावाद
करीब पचास साल पहेले परम पूज्य स्व र्गस्थ गच्छाधिपति आचार्य देव श्रीमद् देवेन्द्रसागरसूरीश्वरजी महाराज साहेब द्वारा संस्थापित इस संघमें श्री शीतलनाथ भगवंत का जिनालय भी है, जिन के प्रतिष्ठाचार्य भी पूज्य देवेन्द्रसागरसूरीश्वरजी म. ही है।
इस संघमें पूज्य साधू -भगवंत एवं साध्वी -महाराज के लिए उपाश्रय भी है, जहां हर-साल चातुर्मास करवा के श्रावक-श्राविकाओ को धर्म-आराधन से लाभान्वित करवाया जाता है | इस संघमें आयंबिलभवन, उबाला हुआ पानी, ज्ञान-भण्डार एवं पाठशाला की भी बहोत अच्छी सुविधा प्रदान हो रही है | ऐसे सम्यग्-मार्गी संघ की सद्भावना और प्रभावक आचार्य पूज्य श्री हर्षसागरसूरिजी म० की प्रेरणा से इस शास्त्र के लिए अनुदान प्राप्त हुआ है |
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________________ आसाआजामा मूल सशाषक पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्य श्री आनंदसागरसूरीश्वरजी महाराजसाहेब आम आगमआणम् आगम् आगम आगम आज आगम - 02 'सूत्रकृत्' मूलं एवं चूर्णि: आगम आणम् आगा अभिनव-संकलनकर्ता आगम आगम दिवाकर मुनिश्री दीपरत्नसागरजी आगम [M.Com., M.Ed., Ph.D., श्रुतमहर्षि] म आजम आजम आजम आजम आजमआर [486]