Book Title: Uttaradhyayan Sutram Part 02
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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औपपातिकमरे समुग्ग-णिमग्ग-गूढ-जाणू एणी-कुरुविंदा-बस-बट्टा-णुपुत्व-जधे संठिय-सुसिलिट-विसिह-गूढ-गुप्फे सुपडटिय-कुम्म-चारु-चलणे ऊरू यस्य स तथा, सुन्दर-गजग्डादग्डसदृशोहयुगलयानिति भार, 'समुग्गणिमग गूढ-जाणू' समुद्ग निमग्न-गूढ-जानु -समुद्ग सम्पुटक-तम्योपरितनाधस्तन रूपयोर्भागयो सधिवत् निमग्नगूढे अश्यन्तावृत-मामपुटे इत्यर्थ, तादृशे जानुनी 'घुटना' इति प्रसिद्धे यस्य स तथा, उपचित मान दृश्यमानजान्चस्थिक इत्यर्थ । 'एणी-कुरुर्विदावत-वा-णुपुल्च-जघे' एणी-कुरबिन्द -- वर्ग वृत्ता-नुपूर्व्यजन - एण्या --हरिण्या इव, कुरुविन्द -तृणविशेष , व मूत्रनलनक च, ते इव च वृत्ते चर्तुले, आनुपूर्येण तनुरूपे जो यस्य स तथा यदा-एणी-कुरुपिन्दावर्त्त-वृत्ता नुपूय॑जद्ध-इति छाया, तन-एण्या इव, कुरुविन्दावर्त =भूपगविशेप हर च वृत्ते= वर्तुले आनुपूर्येण तनुस्वरूपे जद्धे यस्य स तथा, 'सठिय-सुसिलिट्ठ-विसिद्ध-गूढगुप्फे' सस्थित-सुश्लिष्ट-विशिष्ट-गूढ-गुल्फ -सस्थितौ-मुसस्थानवती, सुश्लिष्टीदण्ड के समान उन प्रभुको दोना जघाएँ थीं । (समुग्ग निमग्ग-गूढ-जाणू) डिब्बे के समान प्रभुके घुटने गुप्तढकनी से युक्त एव अन्तर रहित होनेसे सुन्दर थे । अर्थात् उपचित होनेसे प्रमुके जानु की अस्थिया दृष्टिगोचर नहीं होती थीं । (एणी-कुरुविंदा-वत्त-चट्टा-णुपुर-जये) एणी-हिरणी की जद्धा समान, तथा कुरुविन्द-तृणविशेष और टोरी के बलके समान अथवा कुरुविन्दात नामक भूपणके समान गोल पतली-ऊपर से मोटी नीचेकी ओर उतरती २ पतली प्रभुकी दोनो जधाएँ थीं । (सठिय-सुसिलिट्ठ-विसिट्ठ-गूढ-गुप्फे) शोभन आकारयुक्त,- अच्छी
रवीन सु१२ ती (गय ससण-सुजाय-सन्निभोरु) स्तिशुराउन (हाथीना सूटना) वी ते प्रभुनी भन्ने धामती (समुग्ग-णिमग्ग -गूढ “जाणू) मानी पेठे प्रभुना धुर। गुप्त उपाय तम४ मत२ २डित * હવાથી સુંદર હતા, અર્થાત્ ઉપસ્થિત રહેવાથી પ્રભુના ઘુટણના હાડકા
माता नता (ण्णी कुरुविंदा यत्त बहा-णुपुव्य-जये) मेएरी-डिसीनी । સમાન, તથા કુરૂવિદ તૃણવિશેષ, અને દોરીની વલ સમાન, અથવા કુરૂ 'વિન્ડાવ નામક ભૂષણ સમાન ગોળ પાતળી ઉપરથી જાડી તેમજ નીચન
त उतरती उतरती पातमी प्रभुनी भन्ने पायो ती (सठिय-ससि लिट विसिटू -गूढ गुप्फे) शोलायमान मारपणा, सारी शत भणे तेभर