Book Title: Uttaradhyayan Sutram Part 02
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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औपपातिकसने
से वि य सिणाइत्तए, णो चेव णं हत्थ-पाय-चर-चमस-पखालणट्टयाए पिवित्तए वा ॥ सू० ३७ ।।
मूलम्-अम्मडस्स णो कप्पड-अण्णउत्थिया वा अ___ण्णउत्थियदेवयाणि वा अण्णउत्थियपरिग्गहियाणि वा चेइयाइ
पक्खालणट्ठयाए पिरित्तए वा' नो चैत्र सल हस्त-पाद-चर-चमस-प्रक्षालनाऽर्थे पातु वा, शेषपदव्याख्याऽस्यैवागमस्योत्तरार्धे एकोनविंशतितमे सूत्रे प्रदर्शिता, अत्र सूत्रे जलस्य परिमाण प्रदर्शितमस्ति । सू ३७॥
टीका-'अम्मडस्स णो सप्पड़' इत्यादि ।
'अम्मडस्स णो कप्पड' अम्बडस्य न कल्पते, अस्य 'वदितुम्' इत्यवान्चय । कान् पन्दितु न कल्पते । अनाऽऽह-' अण्णउत्थिया वा' अ ययूथिकान् वा-अ यत्-तीर्थ करमघापेक्षया भिन्न यद् यूथ-सघस्तदन्ययूथ तदस्त्येषामित्य ययूथिका =गाक्यादिभिक्षव तान्, 'अण्णउत्थियदेश्याणि वा' अययूथिकदैवतानि वा-अन्ययूथिकाना दैवतानि अन्ययूधिकनैवतानि-अर्हद्भिन्नान् देवान वा, 'अण्णउत्थियपरिग्गहियाणि वा चेइयाइ' ही कल्पता है, हाथ, पैर, चरु एव चमचा को धोने के लिये नहीं और न पान के लिये ही। ‘आढक' आदि का अर्थ इसी आगम के उत्तरार्ध में उन्नासने मूत्र का व्याख्या मे प्रदर्शित किया गया है ।। सू ३७॥
'अम्मडस्स णो कप्पइ' इत्यादि ।
(अम्मडस्स) इस अम्बड को (अण्णउत्यिया) अययूथिक-तीर्थंकरम्घ की अपेक्षा शाक्यादिक भिक्षुओं का मघ, एव (अण्णउत्थियदेवयाणि वा) अन्यसघ द्वारा उपास्यरूप से समत अहंत-प्रभु सिवाय दूसरे देवता, (अपणउत्थियपरिग्गहिया હાથ, પગ, ચરુ તેમજ ચમચા ધોવા માટે નહિ અને પીવા માટે પણ નહિ ' आढक' माहिना अर्थ मे०४ मागभना उत्तराधमा सामावाशमा सूत्रनी વ્યાખ્યામાં કરવામાં આવ્યે છે (સૂ. ૩૭).
'अम्मडस्स णो कप्पइ' त्यात
(अम्मत्स्स ) से भगाउने (अण्णउत्थिया) भी यूयाणा-तीर्थ ४२स बनी अपेक्षा शय लिक्षुभाना सध, तेमन (अण्णउत्थियदेवयाणि वा) भील स५ । पास्य३५थी समत मत प्रभु सिवाय जीव, (अण्ण उत्थियपरिम्गहियाणि वा चेझ्याइ) तथा भी यूयमा जी गये। रैन साधु