Book Title: Uttaradhyayan Sutram Part 02
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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દ૨૮
औपपातिकको
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तेरस सागरोनमाड ठिई, अणाराहगा, सेसं त चेव ॥ सु०५६॥
मूलम्-से जे इमे सपिण-पचिंदिय-तिरिक्खजोणिया पजत्तया भवति, तं जहा-जलयरा थलयरा खहयरा, भवन्ति-उपयते, एतेषा विशिष्टश्रामण्यजय देवच, प्रयनीकनाजन्य किन्चिपिकव, तेन ते देवेषु चाण्डालतुल्या गति। तहिं तेसि गई। नत्र तेपा गति , 'तेरस सागरोवमाइ ठिई' योदश सागरोपमाणि स्थिति । 'अणाराहगा' अनाराधका भवति । ' सेस त चेव' शेप तदेव ॥ सू० ५६॥
टीका-'से जे इमे' इत्यादि । ' से जे इमे' अथ य इमे 'सण्णि-पविदिय-तिरिक्खजोणिया पन्नत्तया भवति' सज्ञि-पञ्चेन्द्रिय-तिर्यग्योनिका पाता भवन्ति, के ते? इत्याह-'त जहा' तद्यथा-'जलयरा थलयरा खहयरा' जलचरा स्थलचरा खेचरा 'तेसि ण अत्येगइयाण मुभेण परिणामेण पसत्थेहि अज्म
प्रकार देवों में किल्बिपिक जाति के देव होते हैं । (तहिं तेर्सि गई) वहीं पर उनकी गति होती है। वहा (तेरस सागरोवमाइ ठिई ) १३ सागर की उनकी स्थिति होती है। (अणारागा सेस त चेव) ये जीव अनाराधक होते हैं। इस विषयमें अवशिष्ट पूर्ववत् समझना चाहिये। सू ५६ ॥
'जे इमे' इत्यादि।
(जे इमे सण्णि-पचिंदिय-तिरिक्ख-जोणिया) जो ये सज्ञि-पचेद्रिय-तियेच-- योनि के पर्याप्त जीव हैं, (त जहा) जैसे-(जलयरा थलयरा खहयरा) जलचर, स्थलचर और खेचर । (तेसिं ण अत्थेगइयाण सुभेण परिणामेण पसत्येहि अज्झवसाणेहिं ) જેવી રીતે લેકમાં ચાડીલ આદિ હોય છે તેવી જ રીતે દેવામા કિબિષિક जतिना व डोय छ (तहिं तेसिं गई) त्या तमनी गति होय छे त्या ( तेरस सागरोवमाइ ठिई) १३ 'सागरनी तमनी स्थिति हाय छ (अणाराहगा सेस त चेय) या विषयमा डीनु मधु म प्रमाणे समन्यु જોઈએ એ જીવ અનારાધક હોય છે (સૂ પ૬).
से जे इमे' त्या
से जे इमे सण्णि-पचिंदिय-तिरिक्स-जोणिया) २ मा सनी-५यान्द्रय तिय य-योनिना पर्यास ७ , (त जहा) 24 (जलयरा थलयरा खह यरा) सयर, स्थसय२ मन मेयर (तसिं ण अत्थेगइयाण सुभेण परिणामेण