Book Title: Uttaradhyayan Sutram Part 02
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti

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Page 1091
________________ उपराप्ययनले आमिपाद् निराभिपा=विषयभोगाजिता, शन्दादयो विषया हि विषयीनीवाना गृद्धिहेतुत्वादामिपोपमाः-तद्वर्जितेत्ययः, तथा-परिग्रहारम्भनिटत्तदोषा परिग्रहारम्भावेच जीवदूपणाद्दोपो, ताभ्या निटत्ता, अथा-परिग्रहारम्भयोोपाः अमिष्या निर्दयतादयस्तेभ्यो निटत्ता, आपैताद्दोपशब्दस्य परनिपातः । एवभूता सती मौन-मुनिभाव चरिष्यामि-अनुष्ठास्यामि ।। ४१ ॥ ' दवग्गिणा जहा रंगणे, डज्जमाणेसु जंतुसु। " अन्ने सत्ता पमोयति, रागदोसवसगया ॥४२॥ - एंवमेव वैयं मूंढा, कामभोगेसु मुच्छिया। डज्झमाणं न बुज्झामो, रागदोसैग्गिणा जैग ॥४३॥ . , छाया-दाग्निना यथाऽरण्ये, दद्यमानेपु जतुपु। , अन्ये सत्चाः प्रमोदन्ते, रागद्वेपवशगत ॥४२॥ - एवमेव धय मूढाः, कामभोगेपु मूछिताः। दह्यमानं न बुध्यामहे रागद्वेषाग्निना जगत् ॥४३॥ टीका-दवग्गिणा' इत्यादि, यथा अरण्ये अटच्या दाग्निना-दवानलेन दद्यमानेषु सत्सु जन्तुषु-माणिषु, ग्रहसे परिवर्जित होकर (निरामिसा-निरामिपा) शब्दादिक विषयभोगोंका सर्वथा परित्याग करती हू और (उज्जुकडा-ऋजुकृता) माया आदि शल्योंसे रहीत तप एव सयमकी आराधनामे तत्पर होना चाहती है। इस तरह (परिग्गहारभ नियत्तदोसा-परिग्रहारभ निवृत्तदोषा) परिग्रह और आर मसे अन्य दोपोसे निवृत्त होती हुई मे (मोण-मौनम् ) मुनिभावका (चरिसामि-चरिष्यामि) आचरण करुंगी ॥४१॥ फिर भी रानी कहती है-'दवग्गिणा' इत्यादि। ___ अन्वयार्थ-(जहा-यथा) जैसे (रण्णे-अरण्ये) वनमे (दवग्गिणा-दवा निरामिपा शाहि विषयगाना सर्वथा परित्याग ३ छु, तमर उज्जुकडा-ऋजुकना. भाया माहिशयोथी विहीन त५ मन सयभनी साधनामा तत्५२ था या छु मा शत परिगहारभनियत्तदोसा-परिपहारमनिवृत्तदोषा परियड मने मारथी मत पोथी निवृत्त मनीन मौण-मौन मुनि भानु चारिस्सामि-चरिष्यामि माय२५ उरीश ॥४॥ । शथी शी ४ छ-" व्वग्गिणा"-त्याहि !, . सम्पयाथ-जहा-यथा रेभ रणे-अरण्ये वनमा व्वग्गिणा-दवामिना पा

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