Book Title: Uttaradhyayan Sutram Part 02
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti

View full book text
Previous | Next

Page 1099
________________ ८८० उत्तराभ्यास तथा-- मूलम् नागोव वधणं छित्ता, अप्पणो वसइ वैए । ऐय पत्थं महारांय !, इसुयारे ति में" सैंय ॥४८॥ छाया-नाग इस बन्धन छित्चा, आत्मनो सति बजेः। एतत्पव्य महाराज! इपुकारेति मया श्रुवम् ॥४८॥ टीका-'नागोव्य' इत्यादि हे राजन! नागा-हस्ती यथा-बन्धन छिच्चा, आत्मनो वसति विन्ध्याटवीं वनति । तथा त्वमपि पन्धन-ज्ञानापरणीयादिकर्मपन्धन छित्वा आत्मनो वसतिमुक्तिस्थान मजेः गच्छ। एपमुपदिश्य निगमयितुमाह-'एय' इत्यादि-हे महाराज! इपुकार ! इत्येतत्पथ्य हित यन्मया साम्मत भवते प्रोक्त तत् मुनिजन सन्निधौ मया श्रुतम् । न तु मया स्त्रमनीपया प्रकल्प्य मोक्तम् ॥४८॥ इव) गरुड़के समीपमे सर्पकी तरह (सकमाणो-शङ्कमानः) भयत्रस्त होकर (तणुचरे-तनुचरे) यतनापूर्वक क्रियाओमें प्रवृत्ति करो ॥४७॥ अथवा-'नागोव्व' इत्यादि। ___ अन्वयार्थ-हे राजन् ! (इव-इव) जैसे (नाग-नागः) हस्ती (षधण छित्ता-बन्धन छित्त्वा) बधनको छेदन करके (अप्पणो वसई वए-आत्मनो वसतिं व्रजति) अपने स्थानभूत विंध्याटवीमे जाता है इसी तरह आप भी (बघण छित्ता-बन्धन छिया) ज्ञानावरणीय आदि कर्म बन्धनको नष्ट कर अपने स्थानभूत (वसइ वए-वसतिं व्रजे.) मुक्तिमें जाओ (महारायमहाराज) हे महाराज इपुकार ! (एय पत्थ-एतत्पथ्यम्) इसीमें भलाई है। उरगोव्व-सुवर्णपाच उरग इव १३नी सामे ५सा सपना भाई सकमाणोशकमान नयस्त याने तणुचरे-तनुचरे यत्नपूलिया-योमा प्रवृत्ति | ॥४७॥ अपा-"नागोव्य"-त्याहि । अन्वयार्थ-3 स! इव-इव २a vधनभा पाये नाग-नाग हाथी मे बधण छित्ता-बन्धन जित्वा मधनने ताडी नाभी अपणो वसइ वएआत्मनो वसतिं ब्रजति पाताना स्थानभूत विध्याटवाभा यात्या लय छे से प्रभारी मा५ ५ बधण छिता-बन्धन छित्वा ज्ञानावरीया धनना नाश ४री वाताना स्थानभूत वसइ वए-वसति धजे भुतिमा पाया गया महाराय-महाराज 3 भा०४ ५२ ! एय पत्थ-एतत् पथ्यम् मा भारी

Loading...

Page Navigation
1 ... 1097 1098 1099 1100 1101 1102 1103 1104 1105 1106