Book Title: Uttaradhyayan Sutram Part 02
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti

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Page 1084
________________ प्रियदर्शिनी टीका अ० १४ नन्ददत्त-नन्वप्रियादिपइजीयचरितम् ८६७ वा-पुनः सर्वमपि । धन-समस्तमपि रजतस्वर्णरत्नादिक धन तव भवेत् तथापि सर्वमपि जगद् धन च ते तव कृते अपर्याप्तम् परिपूर्ण स्यात् तृष्णाया निरवधिकलात् । अयमा भातु तत्पर्याप्तम्, तथापि तत्सर्वं जगद् धन च तर त्राणाय-रक्षगाय-जन्मजरामरणाद्यपनोदनाय नैस भवेत् । अतो वान्तसदृशमिद ब्राह्मणधन त्वया नेव ग्राह्यम् ॥ ३९ ॥ फिरभी-'सव्वजग' इत्यादि। अन्वयार्थ-हे राजन् ! (सन्च जग-सर्वजगत् ) समस्त भी लोक (जह तुह भवे-यदि तव भवेत् ) यदि आपके आधीन हो जाय (वा-वा) अथवा (सव्व धण वि भवे-सर्व धनमपि भवेत् ) तीन लोकका जितना भी रजत म्वर्ण आदि धन है वह भी आपके खजानेमें भर दिया जाय -उस पर आपका एक छन प्रभुत्व स्थापित हो जाय तो भी (सव्व पि ते अपज्जत्त-सर्वमपि ते अपर्याप्तम् ) वह समस्त लोक एवं समस्त धन आपके लिये पर्याप्त नहीं हो सकता है, क्यों कि तृष्णा अपर्याप्त है. उससे भी आपकी वह तृष्णा शात नही हो सकती है। अथवा थोड़ी देरके लिये यह मान लिया जाय कि उससे तृष्णाकी शाति हो भी जाय, तो भी (त तव ताणाय नैव-तत् तव त्राणाय नैव) वह समस्त वैभव आदि परिकर जन्म जरा एव मरणादिकसे आपकी रक्षा नही कर सकता है। इस लिये इस ब्राह्मणका धन जो कि वमन जैसा है आपको ग्रहण करना उचित नहीं है। श्री ५y-" सव्व जग"-त्या ! अन्वयार्थ-3 शन् । सव्व जग-सर्व जगत् सघ rnd ५ जइ सुहं भवे-यदि तव भवेत् ने आपने माधिन नय वा-वामया सव्व धण विभवे-सर्व धनमपि भवेत् तो नुरेई सुव माहि धन छे ते पy આપના ખજાનામાં ભરી દેવામાં આવે એના ઉપર આપનુ એક છત્ર પ્રભુત્વ स्थापित मना on a ५५ सव्वपि ते अपनत्त-सर्वमपि ते अपर्याप्तम् से સમસ્ત લેક, અને સઘળું ધન આપને માટે પર્યાપ્ત બની શકનાર નથી કારણ કે, તૃષ્ણા અપપ્ત છે આ કારણે આપની એ તૃષ્ણા શાત થઈ શકે તેમ નથી અથવા થોડા સમય માટે એમ માની લેવામાં આવે કે તૃષ્ણાની શાતિ થઈ प य प त तव ताणाय नैव-तत् तव त्राणाय नैव ते सपणा भय આદિ સઘળું જન્મ, જરા અને મરણાદિકથી આપની રક્ષા કરી શકે તેમ નથી આ માટે એ બ્રાહ્મણનું ધન કે જે વમનના જેવું છે તે લેવુ આપના માટે ઉચિત નથી.

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