Book Title: Uttaradhyayan Sutram Part 02
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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प्रियदर्शिनी टी म० १४ नन्ददत्त-नन्दरियादिपइजीयचरितम् ८१ यतश्व धर्मादन्यकिमपि न प्राणाय वा शरणाय या भरतीत्याह
मूलम्नाह रमे पक्खिणि पजरे वा, संताण छिन्ना चरिसौमि माण।
अकिंचणी उज्जुकंडा निरीमिसा, परिग्गहारभ नियत्तदोसा ॥४॥ ___ छाया-नाह रमे पक्षिणी पञ्जरे इव, सन्तानच्छिन्ना चरिष्यामि मानम् ।
अकिञ्चना गजुकता निरामिपा, परिग्रहारम्भनिटत्तदोप ॥४१॥ टीका-'नाद'-इत्यादि।
हे राजन् ! इव-यथा पजरे पक्षिणी न रमते-सुख नानु भाति, तथैवअहमपि जरामरणाग्रुपद्रासहितेऽस्मिन् भवपारे न रमे = रतिं नानु भवामि । अतोऽह सतानच्छिन्ना छिन्नबोटित सन्तान-स्नेहपरम्परा यया सा, परित्यक्तपरिवारस्नेहपरम्परेत्यर्थः, तथा अकिञ्चना-द्रव्यभावपरिग्रहरहिता, तथा ऋजुकृता माया शल्यादि रहित तपासयमसमाराधनतत्परा स्था,-निरामिषा-निष्क्रान्ता
धर्मके सिवाय कोई त्राण और शरण नहीं होता है इस यातको लेकर रानी कहती है-'नाह रमे' इत्यादि ।
अन्वयार्थ-हे राजन् ! जय धर्मके सिवाय रक्षक इस जीवका कोई और नहीं है तब (वा-इव) जैसे (पजरे-पन्जरे) पीजरेमें बद हुई (पक्खिणि-पक्षिणी) पक्षिणी (न रमे-न रमते) वहां मुखका अनुभव नहीं करती है उसी तरह (अह-अहम् ) में भी जरा एव मरण आदिके उपद्रवसे युक्त इस भव रूपी पीजरेमे (न रमे-न रमे) सुग्वानुभव नहीं करती है। इसलिये अब म (सताण छिन्ना-सतानच्छिन्ना) पारिवारिक स्नेह वधनसे रहित तथा (अकिंचणा-अकिञ्चना) द्रव्य एव भाव परि
ધર્મના સિવાય કોઈ રક્ષણ અને શરણ નથી બનતુ આ વાતને લઈને २९ ४९ छ-" नाह रमे"-त्याह!
અન્વયાર્થ-હે રાજન્ ! જ્યારે ધર્મના સિવાય આ જીવનનું રક્ષણ કર ना२ ४१४ नयी वा-इव भ पजरे-पजरे पारामा पुरपामा आवत पक्खिणिपक्षिणी पक्षी त्या न रमे-न रमते सुमनो अनुसर 30 शतु नथी मेर प्रभारी अह-अहम् हु प वृद्धावस्था मन भ२९ माहिना 6पद्रवयी युत मा म१३पा पारामा न रमे-न रमे सुमना अनुभव नथी ४N Asती मा भाट हु सतोणछिन्ना- सतानछिन्ना परिवारना स्नेहमयनयी २डित तथा अकिंचणा-अकिश्चना द्रव्य भने माप परियडथी परिपळत ने निरामिसा