Book Title: Uttaradhyayan Sutram Part 02
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
View full book text
________________
६६८
स्नातो भवान पापैः प्रमुच्यते इति । अय भावः-यथा भवन्मते यत्रो यनविषिक्षास्मद्विज्ञाताद् यज्ञाद् याविधेश्वान्यस्तथैव भवतो इदः शान्तितीर्थ चाऽप्यस्मविज्ञाताद् इदात् शान्तितीर्थाचान्यदेव किम् ? इति । हे यक्षपूजित ! सयत! एतत्सर्व नोऽस्मान् अख्याहि कथय । वय भावः सकाशे एतत्सर्वं ज्ञातुमिच्गम ॥४५॥
तेपा प्रश्न श्रुत्वा मुनिराइ
धम्मे हरए व संतितित्थे, अगाइले अत्तपसनलेस्से । जहिसि पहाओ विमलो विसुद्धो, सुसीइभूओ पंजहामि"दोस ॥४६॥ छाया-धर्मों, इदो, ब्रह्म शान्तितीर्थम् , अनाविलम् आत्मप्रसन्नलेश्यम् । ___ यस्मिन् स्नातो विमलो विशुद्धः, मुशीतीभूत मजहामि दोषम् ॥४६॥_ आप पापों से छूट जाते हो ? (जक्ख पूझ्या सजय-यक्षपूजित सयत) हे यक्षपूजित मुनिराज ! यह सब बातें हम (भवओ सगासे-भवतः सकाशे) आप से (नाउ-ज्ञातुम् ) जानने के लिये (इच्छामु-इच्छामः) इच्छुक हो रहे है सो (अक्खाहि-आख्याहि ) बतलाईये ॥
भावार्थ-ब्राह्मणों को स्नान के विपय में पूछने की जिज्ञासा बढाने का कारण यह हुआ कि जिस प्रकार मुनिद्वारा प्रतिपादित यज्ञ, प्रसिद्ध यज्ञ से विलक्षण है उसी प्रकार इनके मतानुसार स्नान भी प्रसिद्ध स्नान से विलक्षण ही होगा अतः उन्हों ने मुनिराज से स्नान के विषय में इस प्रकार प्रश्न किया कि-महाराज वह जलाशय आप की दृष्टि में कौनसा है कि जिस मे आप स्नान करते हैं । तया ऐसा वह तीर्थ भी कौनसा है कि जिसमे स्नान करने पर पापों से छूटा जाता है ॥४५॥ छो? अर्थात् ४या ४या तीयमा स्नात २४२. भा५ पापाथी छुटी छ ? जस्खपूहया सजय-यक्षपूजित सयत से यक्ष पुछत मुनिराश ! 241 सघणी पाता । भवओ सगासे-भवत सकाशे पानी पासेथी नाउ-ज्ञातु Mgan भाटे इच्छामुइच्छाम ४२४ मनी का छीय तथा अक्साहि-आरयाहि मा५ ते अमान मता।
ભાવાર્થજ્ઞાનના વિષયમાં પૂછવાની બ્રાહાની જીજ્ઞાસા વધવાનું કારણ એ હતું કે, જે રીતે મુનિરાજ દ્વારા પ્રતિપાદિત યજ્ઞની પ્રસિદ્ધિ, યજ્ઞથી વિલક્ષણ સ્વરૂપે છે એજ રીતે એમના મત અનુસાર સ્નાન પણ પ્રસિદ્ધ સ્નાનથી વિલક્ષણજ હશે! આથી તેમણે મુનિરાજને સ્નાનના વિષયમાં આ પ્રકારને પ્રશ્ન કર્યો કે, 'મહારાજાએ જળાશય આપની દૃષ્ટિમાં કયું છે કે જેમાં આપ રનાન કરે છે તથા એવુ એ તીર્થ કર્યુ છે કે જ્યાં સ્નાન કરવાથી પાપોથી છુટી જવાય છે? એ છે