Book Title: Uttaradhyayan Sutram Part 02
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti

View full book text
Previous | Next

Page 1035
________________ कामभोगाः कालत परिमाणतवालपमुखजनका प्रचुर मनन्तद्ववकास सन्ति। तथा चैते ससारपरिभ्रमणकारका पहला क्रिकपारलौकिकदुःखाना खनिक रूपाच सन्ति ॥१३॥ कामभोगानामनखनित्यमेव दर्शयति परिव्ययंते अणियंत्तकामे, अहो य रोओ परितप्पमाणे । अन्नप्पमत्ते धणमेसमोणे, पैप्पोति मच्चुं पुरिसे जर चे ॥१४॥ छाया-परिननन् भनित्तमामः, अद्वि च रानी परितप्यमानः । अन्यममत्तो धनमेषयन्, प्राप्नाति मृत्यु पुरुषो जरी च ॥१४॥ टीका-'परिन्वयते' इत्यादि पुरुपः परित्रजन-विषयसुखलाभार्थमितस्ततः परिभ्रमन् , अनिवृत्तकामा-न निवृत्तः कामामपियोपभोगतृष्णा यस्य स तया, विषयोपभोगतृष्णासहितः सन् अद्वि-दिने, रानौ च परितप्यमानः परितः समन्तात् तप्यमानः चिन्ताग्निना समन्ताद् परिमाणकी अपेक्षा अल्पसुखजनक एर अनन्त दुःखवर्धक हैं । संसार परिभ्रमणमे ये ही प्रधानरूपसे कारण है तथा इसलोक सबधी एव परलोक सबधी समस्त अनर्थो की एकमात्र खानरूप हैं ॥१३॥ फिर इसी वातको कहते हैं-'परिश्वयते' इत्यादि। अन्वयार्थ-(अणियत्तकामे-अनिवृत्तकामः) जिसकी विषयोपभोग तृष्णा निवृत्त नहीं होती है ऐसा (पुरिसे-पुरुषः) पुरुष (अहो य राओ परितप्पमाणे-अद्वि च रात्रौ परितप्यमानः) रातदिन उसकी पूर्तिकी चिन्तासे सतप्त होता रहता है । और (परिव्वयते-परिव्रजन् ) इधर उधर 'विषयसुखके लाभके लिये घूमता हुआ वह (धणमेसमाणे-धनमेषयन्) અને પરલોક માટે અનર્થોની ખાણ સમાન છે એનું તાત્પર્ય એ છે કે, એ કામગ કાળ અને પરિમાણની અપેક્ષાએ અલ્પ સુખજનક અને અનત દુખવર્ધક છે સંસાર પરિભ્રમણનું પ્રધાન રૂપથી એજ કારણ છે તથા આ લોક સ બ ધી અને પરલોક સ બ ધી સઘળા અનર્થોની એક માત્ર ખાણરૂપ છે ૧૩ श से पातने ४ छ–“परिव्वयते" त्या ! अन्वयार्थ:-अणियत्तकामे-अनिवृत्तकाम ना विषय सोशवानी । निवृत्त थती नयी सेवा पुरिपे-पुरुष ५३५ अहो य राओ परितप्पमाणे-बहि च रात्रौ परितप्यमान सनी पूतिनी चिंता॥ सतत २a! ४२ छ भने परिश्वयते-परिप्रजन् मही ती विषय सुमन सामने भाट १८४न। २०२

Loading...

Page Navigation
1 ... 1033 1034 1035 1036 1037 1038 1039 1040 1041 1042 1043 1044 1045 1046 1047 1048 1049 1050 1051 1052 1053 1054 1055 1056 1057 1058 1059 1060 1061 1062 1063 1064 1065 1066 1067 1068 1069 1070 1071 1072 1073 1074 1075 1076 1077 1078 1079 1080 1081 1082 1083 1084 1085 1086 1087 1088 1089 1090 1091 1092 1093 1094 1095 1096 1097 1098 1099 1100 1101 1102 1103 1104 1105 1106