Book Title: Uttaradhyayan Sutram Part 02
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti

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Page 1068
________________ प्रियदर्शिनी टीका अ० १५ नन्ददत्त-नन्दप्रियादिपइजीपचरितम् पक्षी आकाशमार्गेण गमने नितरामशक्तो येन केनापि हिंस्रपशुना पराभूयते । यथा वा रणे-युद्धे भृत्यविहीनः भृत्याः पदातयस्तेम्पो विहीनो नरेन्द्रो रिपुभिः पराभूपते। यथा मा पोते भग्ने सति विपनमारः-विपनो पिनष्टः सारो भाण्ड द्रव्य यस्य स तयाभूतो, पणिक स्वमविपतिभिः, पराभूयते। तया-त्रहोणपुन: पुनाम्या पहीणो-रहितः-अहमपि अस्मि-भवामि पराभूतो भवामि । पुनरियोगज दुःख सोदु न ममामीति भावः । 'या' शब्दः-समुच्चये ॥३०॥ फिर दृष्टान्त द्वारा समझाते है-'पखाविहूणोव्य' इत्यादि। अन्वयार्थ हे बामणि ! (जहाडा-यथा इर) जैसे इस लोकमे (पखा विहणो परपी-पक्षविहीनः पक्षी) पक्षोंसे विहीन पक्षीकी दुर्दशा होती है-अर्थात्-पक्षविहीन पक्षी जिस प्रकार आकाशमार्गसे जानेमे सर्वधा अशक्त हो जाता है और चाहे जिस किमी भी हिंसक प्राणीके द्वारा पोडीत होता है तथा (रणे भिच्चविहीणुन्ध नरिंदे-रणे भृत्यविहीनः नरेन्द्रः) सग्राममे मृत्योसे-सैनिको से रहित राजाकी जैसी दुर्दशा होती हैं-अर्थात् रणमें जिस प्रकार सैनिक वहीन राजा शत्रुओ से तिरस्कृत होता है, तथा (पो विषण्णसारो वणिउन्ध-वा पोते विपन्नसारः वणिक) जहाजके नाश होने पर विनष्ट धनवाले वणिककी जैसी दुर्दशा होती है (तहो पहीणपुत्तो अपि अम्हि-तथा प्रहीणपुत्रः अहमपि अस्मि) उसी तरहकी दुर्दशा मेरी भी पुरोके अभाव में होगी। अर्थात् मै पुत्रों के चिरजन्य दुःखको सहन करने के लिये सर्वथा अक्षम ह ॥३०॥ ५ यात समावे -“ पखाविहूणोव्य "-त्या । स-पयाय-3 ग्राम ! जहा इह-यथा इह भाभा पसा विहूणा पक्सी-पक्षविहान पक्षी पानी ४ा छ तवा पक्षीनी रे ॥ થાય છે–અર્થાત્ પાખ વગરનું પક્ષી જેમ આકાશમાર્ગે જવામાં સર્વથા અશક્ત બની જાય છે અને તે કઈ પણ હિંસક પ્રાણીથી પરાભવિત થઈ જાય छ तम रणे भिच्चविहीणुव्ब नरिंदो-रणे भृत्यविहीन नरेन्द्र इव सयाममा સૈનિક વગરના રાજાની જેવી દશા થાય છે અર્થાત-યુદ્ધ મેદાનમા સિનિકે पने An शत्रुमाथी तित थाय छ qणी पोए विवण्णसारो वाणिउच्चपोते, विपन्नसार वणिगिवान नाश य धु धनवा पनी २ દુર્દશા થાય છે એ રીતની પુત્રના અભાવમાં મારી પણ દુર્દશા થશે અર્થાત્ હું પુત્રના વિરહજન્ય દુખેને સહન કરવામાં સર્વથા અસમર્થ છુ . ૩૦

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