Book Title: Uttaradhyayan Sutram Part 02
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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प्रियदर्शिनी टोका अ० १४ न-रदत्त-नन्दप्रियपइजीपचरितम् ८४५ ___तथा-जरया-जीर्यते क्षीयते शरीरादिकमनयेति, जरा-द्धावस्था तया, वागुरातुल्यया-यथा वागुरो मृगस्याभिघातयोग्यतायाः सपादने पटीयसी तमा जराऽपि लोकस्येति भावः । परिवारितःपरिवेष्टितः, तथा-रजनी-रात्रिः दिवसाऽनिनामावित्वाद् दिवसाथ, अमोघा = जवन्ध्यशस्त्रतुल्या उक्ता। रात्रिदिवस रूपाणां शराणा निपातेन प्राणिना अवश्यमभिघातो भवतीति भावः। हे तात ! एवम् अनेन प्रकारेण, अभ्याहतादि विपये निर्णय विजानीत ॥२३॥ पुनरपि कुमारी दूता
मूलम्-- जा जा बच्चइ रैयणी, न सा पडिनियंत्तइ ।
अहंम्म कुणमाणस्स, अहला "जति रीईओ ॥ २४॥ - छाया-या या नजति रजनी, न सा मतिनिर्वते ।
जधर्म कुर्वतः, अफला यान्ति रात्रयः ॥२४॥ टीका-'जा जा• इत्यादि
या या रजनी रानिः, तदविनामावित्वद् दिवसोऽपि प्रजति गच्छति, सा तो हमारे जैसोंकी गणना ही क्या है। (जराए परिवारिओ-अरसा परिवारितः) मृग वागुरा-जालके तुल्य जरा है । सो यह लोक उस जरासे परिवेष्टित हो रहा है। तथा (अमोहा रयणी चुत्ता-अमोघा रजनी उक्ता) अमोघ शस्त्रपातके तुल्य यहा दिन और रातें हैं। जिस प्रकार शस्त्रोंके निपातसे प्राणियोंका घात हो जाता है उसी प्रकार दिवस एवं रात्रिरूप शस्त्रोंके निपातसे प्राणियोका धात होता रहता है । (ताय एव वियाणह -तात एव विजानीत हे तात ! इस घातको आप जानो ॥ २३ ॥
इस प्रकार कहकर पुन पुत्राने कहा-'जा जा वच्चइ' इत्योदि।
अन्वयार्थ-(जा जा रयणी-या या रजनी) जो जो दिन और राते ४ा छे त्या सभा२। पानी त थुत्री ॥ ४या २ही ? जराए परिवारिओजरसा परिवारित भृग पशुस २वी वृद्धा१२॥ छ मा as को वृद्धावस्थाथी परिवटित थई २० छे तथा अमोहा रयणी वुत्ता-अमोघा रजनी उक्तो अमाप શમ્રપાતની માફક દિવસ અને રાત છે જે રીતે શસ્ત્રોના ઘાથી પ્રાણીઓને નાશ થાય છે એજ પ્રમાણે દિવસ અને રાતરૂપ શસ્ત્રોના ઘાથી પ્રાણીઓને નાશ થતું રહે છે ताय एव वियाणह-तात अव विजानीत तात! मापातने भा५ । ॥ २३॥
मा प्रभाव हीन शथी पुत्रमे ४[--"जा जा वच्चई"-त्याह! अन्वयार्थ---जा जा रयणी-या या रजनी २२६स भने रात्री वच्चह