Book Title: Uttaradhyayan Sutram Part 02
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti

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Page 1039
________________ . . ९२६ . पुनः किं चिन्तयति ? तदाह मूलम्इमंच मे अत्थि, ईमचं नस्थि, इमं च मे किञ्चमि में अकिञ्। ते ऎवमेव लालप्पमाण, हरा 'हरति ति' कह पैमाओ॥१५॥ छाया-इद च मे अस्ति, इद च नास्ति, इद च मे कृत्यमिदमकृत्यम् । तमेवमेव लालप्यमान, हरा हरन्तीति कय प्रमादः ॥ १५॥ टीका-'इम च मे' इत्यादि मे-मम, इद च धान्यादिकम् अस्ति, इद रजतसुवर्णा भरणादिक च मम नास्ति । च पुनः इद पइम्स्तुसुखकारक गृहादिफ मम करय करणीयम् , इद च अलाभदायक वाणिज्यादिक मम अकृत्यम्-अकरणीयम् । एवमेर अनेन प्रकारेणैव '२ जरा एव मृत्यु घेर लेती है तब वह पश्चात्ताप करने लगता है पर अब क्या होता है। मरकर इसको दुर्गतिमें भटकना ही पड़ता है ॥१४॥ विषयी लोक और क्या विचारता है सो इस गाथा द्वारा कहते हैं'इम च में इत्यादि। अन्वयार्थ-(इम-इदम्) यह धन धायादिक (मे-मे) मेरा है और (इम-इदम् ) यह रजत सुवर्णादिक (मे-मे) मेरा (नत्थि-नास्ति) नहीं है। 'तथा (इम मे किच्चम् इम अकिच्च-इद मे कृत्यम् इदम् अकृत्यम् ) यह नवीन घर कि जिसमें छहो ही ऋतुओंमें आराम मिल सके मुझे बनवाना है, तथा यह जो मेरे घर पर अलाभ दायक व्यापार आदि चल रहा है उसको बद कर देना है-वह करणीय नहीं है । (एव-एवम्) પ્રમાણે પ્રમાદી બનેલા એ મનુષ્યને ધીરે ધીરે વૃદ્ધાવસ્થા અને મૃત્યુ ઘેરી લે છે ત્યારે તે પશ્ચાત્તાપ કરવા લાગે છે પરંતુ હવે શું થઈ શકે? મરીને તેણે " દુગરતિમા જ ભટકવું પડે છે ૧૪ ' વિષથી લોકે બીજુ શુ વિચારતા હોય છે આ ગાથા દ્વારા કહેવામા माछ-"इम च मे"-त्याही सम्पयार्थ:-इम-इदम् मा धन धान्या मे-मे भा३ छ भने इमइदम् मा २०४० सुपात मे-मेम भास नत्यि-नास्ति नथी, तथा इम मे किच्च इम अकीच्च-इद मे कृत्य इदम् अकृत्यम् से नवीन ५२४ « छ ऋतु એમાં આરામ મળી શકે તેવું બનાવવું છે, તથા મારા ઘરમાં આ જે અલા ભદાયક વેપાર ચાલી રહેલ છે એને બંધ કરી દે છે, તે કરવા નથી

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