Book Title: Uttaradhyayan Sutram Part 02
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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प्रियदर्शिनी टी १० १३ चित्र सभूतचरितवर्णनम् ___ ततो निदानादप्रति-कान्तस्य वत्कृतनिधारणयाऽप्यप्रतिनिटत्तस्य तस्य= कृतनिदानस्य मे=ममेदमेतादृश फलमभूत् । यत्-यस्मालारणादह वन्त चारित्रधर्म जाननपि कामभोगेषु मूच्छितोऽस्मि । धर्म जाननपि निदानप्रभावेण त कर्तुं न शक्नोमीति भावः ॥ २९॥ तर आपने मुझे ऐसा करना तुमको उचित नहीं है। इस प्रकार समझाया भी था परन्तु (अप्पडितस्स तस्स मे-अप्रतिक्रान्तस्य तस्य मे) मैंने उस निदान से अपने आपको प्रतिनिवृत्त नहीं किया था। (इम ण्यारिस फल-इदम् एतादृशम् फलम्) यह उसका मुझे ऐसा फल मिला है (यत्) जो (धम्म जाणमाणे वि-धर्मम् जानन् अपि) श्रुतचारित्ररूप धर्मको जानता हुआ भी (काम भोगेमु मुच्छिओ-कामभोगेपु मूच्छितः) में काम भोगों में मूच्छित बना हुआ है।
भावार्य-चारित्रमोहनीय कर्मकी तीव्रता मुझ मे क्यों है इसका भीकारण मुनिराजसे चक्रवर्तीने स्पष्ट कह दिया। उसमे उसने कहा कि महाराज। सभूतमुनिके भवमें सनत्कुमार चकवर्ती को ऋद्धिसंपन्न देखकर मैने "इसी तरहसे भोगोंका भोगनेवाला में भी होऊ" ऐसा जो. निदानवध किया था-ओर जापके समझाने बुझाने पर भी मैंने उसका परित्याग नहीं किया था। वही कारण है कि मै धर्मकों जानता हुआ भी अभीतक विषयों मे गृद्ध बना हुआ ह ॥ २८ ॥ २९ ॥ नथी मारीत समा०यु ५ तु ५२तु अप्पडिकतस्स तस्स मे-अप्रतिक्रान्तस्य , तस्य मे से निहानथी भने घोताने २७ शऽये न तो मा इम एयारिस फल-इदम् एतादृशम् फलम् ॥ मेनु भने ३॥ भणेय छे धम्म जाणमाणे वि-धर्मम् जानन् अपि श्रुतत्यारित्र३५ धर्मने तता छ। ५ कोमभोगसु मुच्छिओ-कामभोगेपु मूच्छित हु म सागमा भूछित मन छु
ભાવાર્થ-ચારિમેહનીય કર્મની તીનતા મારામાં કેમ છે, એનું પણ કારણ મુનિરાજને ચક્રવર્તીએ સ્પષ્ટ રૂપમાં કહી દીધુ એમા તેણે બતાવ્યું કે, મહારાજ સ ભૂતમુનિના ભવમાં સનસ્કુમાર ચક્રવર્તીને સ્ત્રીરત્ન સહિત રિદ્ધિસપના જોઈને મે “આજ પ્રકારના ભેગોને ભોગવનાર હુ બનું.” એવો જે નિદાન બંધ કરેલ હતો અને આપના સમાવવા છતા પણ મે તેનો. પરિત્યાગ. કરેલ ન હતો એજ કારણકે, ધમને જાણતા હોવા છતા પણ વિશ્વમાં મૃદ્ધ બની ગયેલ છુ ૨૮ ૨૯ उ०९९