Book Title: Uttaradhyayan Sutram Part 02
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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७८६ पुनरपि चक्रवर्ती निदानफळमुदाहरणेन माह
मूलम् - नागो जहा पंकजलावसण्णो, दहें थल नाभिसमेई तीरं । एंव वयं कामगुणेसु गिद्धी, न भिक्षणो मग्गमणुव्वयोमो॥३०॥ छाया-नागो यथा पडूजलानसन्नी, दृष्ट्या स्थल नामिसमेति तीरम् ।
एर पय कामगुणेषु गृद्वा, न भिक्षार्मार्गमनुननामः ॥ ३०॥ टीका-'नागो' इत्यादि।
यथा पङ्कजलायसन्नः-पका कर्दमस्तत्माय यज्जल तयावसनो निमग्नः, नागः =हस्ती स्थल दृष्ट्वापि तन गन्तु वीर नाभिसमेविगतु न शक्नोतीत्यर्थः, एवमेव हे मुने! वयमपि कामगुणेषु गृद्धा धर्म जानन्तोऽपि मिलोसाधो मार्ग-प्रत्रज्या नानुनजामः-न सीकुर्म इत्यर्थः ॥ ३० ॥ फिर चक्रवर्ती निदानका फल उदाहरणसे कहते है-'नागोजरा'इत्यादि
अन्वयार्थ-(जहा-यथा) जैसे (पकजलायसन्नो-पङ्कजलावसन्नः) जलसहित कीचडमे फसा हुआ (नागो-गजः) हस्ती (थल-स्थलम्) स्थल देखकर भी (तीर नाभिसमेइ-तीर नाभिसमेति) तीर पर आने में अस- . मर्थ होता है (एव) उसी प्रकार (कामगुणेसु गिद्वा-कामगुणेषु गृद्धाः) शब्दादिक विपयों मे गृद्ध बने हुए (वय-वयम् ) हम लोग धर्मको जानते हुए भी (भिक्खुणो मग्गम् न अणुव्वयामो-भिक्षोः मार्ग न अनुव्रजामः) साधुके मार्गका अनुसरण नहीं कर सकते है।
भावार्थ-हाथी जब कीचडमे फंस जाता है, तब वह तीरको देखता हुआ भी जैसे तीर पर नहीं आसकता उसी प्रकार हे मुने। हम लोग
५२यती निदाननु ५ हारथी ४ छ-"नागो जहा"-त्याह
मन्वयार्थ:-जहा-यथा रेभ पकजलावसन्नो - पङ्कजलावसन्न थी मरेला यिमा सास नागो-गज हाथी थल-स्थलम् स्या छत। ५ तीर नाभिसमेइ-तीर नाभिसमेति डिनारे भाषामा असम खाय छे एव-एवम्
४ प्रमाणे कामभोगेसु गिद्धा-कामभोगेषु गृद्ध शहा विषयामा शुद्ध मन वय-ययम् हुमने तgan छत ५ भिक्खुणो मग्ग न अणुव्वयामो-भिक्षो , मार्ग न अनुव्रजाम साधुना भानु अनुसरण श शत नथी
ભાવાર્થ-હાથી જ્યારે કાદવમાં ફસાઈ જાય છે ત્યારે તે કિનારાને જોવા છતા પણ ત્યાં પહોંચી શકતા નથી આજ પ્રમાણે હે મુનિ ! હું પણ