Book Title: Uttaradhyayan Sutram Part 02
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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प्रियदर्शिनी टीका अ० १३ चित्र-संभूत चरितवर्णनम्
टीका-'महत्यभूया' इत्यादि
महार्थरूपा = अनन्तद्रव्यपर्यायात्मकतया यहथरूपा, तथा-वचनाल्पभूतास्वल्पाक्षरा, एतादृशी गाया गीयते तीर्थकरगणवरादिभिरिति गाथा, मोक्षार्थाभिधायिनी सूत्रपद्धतिः, नरसङ्घमध्ये विपुलजनसमुदायमध्ये, अनुगीता-अनु= अनुलोम-श्रोतुरनुकूल गीता-स्थविरैः कथिता । या गाया श्रुत्वा भिक्षनः साधव शीलगुणोपपेता:-शील चारित्र, गुणो-ज्ञान ताभ्यामुपपेता=युक्ताः सन्तः, इहजैनशासने मोक्षार्थ यतन्ते यत्नपन्तो भनन्ति । तामेन गाथा श्रुत्वाऽह श्रमणो जातोऽस्मि न तु दरिद्रत्वात् । अय भाव.-सर्वभोगोपभोगसपन्नः महर्दियुतोऽनेक__ इस प्रकार मुनिराजका कयन सुनकर चक्रवर्तीने कहा कि जब आपके पास मेरी जैसी विभूति थी तो फिर मुनि होने का क्या कारण हुआ? इसका उत्तर अब इस गाथा द्वारा दिया जाता हं-'महत्थरूवा' इत्यादि ___अन्वयार्थ (महत्यरूवा वयणप्पभूया-महार्यरूपो वचनाल्पभूता) अनन्त द्रव्यपर्यायात्मक वस्तुको विपय करने वाली होनेसे विस्तृत अर्थवाली तथा स्वल्प अतर वाली ऐसी गावा-सूनपद्धति (नरसघमज्झेनरसहमध्ये) स्थविरोंने विपुलजनसमुदायके बीचमे (अणुगांया-अनु. गीता) गाई-(या सोच्चा-या श्रुत्वा) जिस गाथा को सुनकर (भिक्खुणोभिक्षव) भिक्षुजन (सीलगुणोववेया-शीलगुणोपपेताः) चारित्र एव ज्ञान गुणसे युक्त वनकर (इह) इस जैनशासनमें (ज्जयते यतन्ते) मोक्षप्राप्ति के लिये प्रयत्नशील बनते है सो मैं भी " तामेव गाया श्रुत्वा" (समणोम्हि जाओ-श्रमणो जातोऽस्मि) उसी गाथा को सुनकर ससार शरीर एव भोगासे विरक्त बनकर मुनि हो गया हू।दरिद्री होनेसे मुनि नहीं हुआ है।
મુનિરાજનું આ પ્રકારનું કથન સાભળીને ચકવીએ કહ્યું કે, જ્યારે આપની મારા જેવી વિભૂતિ હતી તે પછી મુનિ થવાનું શું કારણ બન્યું? श्मना उत्तर या गाथा द्वारा मापामा भावेश छ-" महत्थरूवा "-त्याह!
___म-क्याथ--महत्थरूवा वयणप्पभया-महार्थरूपा वचनाल्पभूता मनतद्रव्य પર્યાયાત્મક વસ્તુને વિષય કરનાર હોવાથી વિસ્તૃત અર્થવાળી એવી ગાથા सूत्र पद्धति नरसघमज्जे-नरसघमध्ये स्थवीशन विधुर बन समुदायनी क्यमा अणुगाया-अनुगीता पाठ या सोच्चा-या श्रुत्वा २ थान सामगीन भिक्खुणोभिक्षव मिन सीलगुणोववेया-शीलगुणोपपेत यास्त्रि भने ज्ञानगुयथा युत मनार इह-इह मानन शासनमा ज्जयते-यतन्ते भाक्षात माटे प्रयत्नशील मन छ तो ५५ समणोम्हिजाओ-श्रमणो जातोस्मि से गायाने सामान સ સાર, શરીર અને ભેગોથી વિરક્ત થઈને મુનિ બની ગયું છું પણ દરિદ્રી હેવાથી મુનિ થએલ નથી