Book Title: Uttaradhyayan Sutram Part 02
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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अथ उत्तरार्द्धम् - मूलम् तेण कालेन तेण समर्पणं समणस्स भगवओ महावीरस्स जेट्टे अतेवासी इदभूई णाम अणगारे गोयमगोत्ते ण
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टीका' तेण काले' इत्यादि । ( तेण काळेण तेण समर्पण समणस्स भगाओ महावीरस्स ) तरिमन् काल तस्मिन् समये श्रमणस्य भगवतो महानाग्स्य (जेडे अवासी उदभूई णाम अणगारे ) ज्येष्ठोऽतेनासीन्भूतिनामा अनगार, ज्येश्वमस्य मयमपर्यायेण सर्वश्रेष्ठत्वात्, अन्तेवासी - शिष्य, इन्द्रभूतितनामक, अनगार=साधु, सकादृश इत्याह- ' गोयमगोत्ते ण ' गौतमगोन गौतम गोतमारय गोन यस्य स तथा 'ण' इति वास्याकारे, 'सत्तुस्सेहे ' सप्तोसेघ - समहस्त उत्स= उष्ट्र्यो यस्य स तथा, 'सम- चउरस-सठाण-सठिए ' सम-चतुरस्र - मस्थान - सस्थित - सम च तच्चतुरस्र चेति उत्तरार्ध का अनुवाद मारभ-
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'तेण कालेन ' इत्यादि ।
( तेण कालेन तेण समरण) उस काल एव उस समय में (समणस्स भग ओ महावीरस्स) श्रमण भगवान् के महावीर क (जेट्टे अतेरासी) 'नडे शिष्य (गोयमगोते ण) गौतमगोत्री ( सम- चउरस - सठाण सठिए) समचतुरस्रमस्थानमपन्न (सत्त
(१) जिसमें अग एव उपाग की रचना सम प्रमाणोपेत (जिसका जितना प्रमाण होना चाहिये उस माफिक) होता है, कमती बढ़ता नहीं होती, उसका नाम 'समचतुरस्त्र संस्थान' है। इसमें एक सौ आठ अंगुल के उच्छ्राय वाले अंग और उपाग होते है। आकार बडा ही सौम्य होता है ।
ઉત્તરાધના અનુવાદના પાર ભ
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' तेण कालेण ' धत्याहि
( तेण कालेन तेण समग्ण ) ते अस तेभन ते सभयभा ( समणस्स भग वओ महावीरस्स) श्रमण लगवान महावीरना ( जेट्टे अतेवासी ) भोटा शिष्य ( गोयमगोत्ते ण ) गौतम गोत्री ( समचरस - सठाण - सठिए ) 'अभयतुरस(૧) જેમા આગ તેમજ ઉપાગની રચના સમપ્રમાણેાપેત (જેવુ જેટલુ પ્રમાણ હોવુ જોઈએ તે પ્રમાણે) હાય, વધુ ઘટુ ન હોય તેનુ નામ 'समन्यतुरस-५ स्थान' हे आभा सेम्सो भाई सागज (तसु ) ना ઉચ્છ્વાયવાળા અંગ તથા ઉપાગ હેાય છે. આકાર અહજ સૌમ્ય હોય છે