Book Title: Uttaradhyayan Sutram Part 02
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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औपणातिकमत्र सिएसु देवेसु देवत्ताए उववत्तारो भवति । पलिओवम वाससहस्समभहिय ठिई। आराहगा? णो इणहे समझे। सेस तं चेव ॥ सू० १३॥
मूलम्-से जे इमे जाव सन्निवेसेसु पव्वइया समणा 'कालमासे काल किचा' कालमासे काल या 'उकोसेण जोडसिएम देवेसु देवत्ताए उववत्तारो भवति' उत्क्रोशेन न्योतिपिफेषु देवेषु देवत्वेनोपपत्तारो भवति, 'पलिओवम वाससयसहस्समभहिय ठिई' पन्यापम वर्षशतसहस्राम्यधिक स्थिति -- वर्षशतसहस्राणि अभ्यधिकानि यत्र तत्-वर्षशतसहस्राभ्यधिकम् एकलक्षवधिक पन्योपम स्थिति प्रजप्तेति । शिष्य पृच्छति-एते ज्योतिपिका देवा 'आराहगा?' आराधका = परलोकस्याराधका भवन्ति किम् ?, उत्तरमाह-'णो इणद्वे समटे' नाऽयमर्थ समर्थ =सगत , परलोकस्याराधका न भवति। अस्यार्थस्तु-अौनोत्तरार्दैऽष्टमे सूत्रे व्याख्यात ॥ सू० १३ ॥
टीका-' से जे इमे' इत्यादि । ‘से जे इमे' अथ य इमे 'जाव सनिवे मरण के अवसर मे मृत्यु के वावर्ता हो, (उक्कोसेण जोइसिएम देवेसु देवत्ताए उव वत्तारो भवति) उत्कृष्ट रूप से ज्योतिषी देवों मे देवरूप से उत्पन हो जाते हैं। (पलि
ओवम बाससयसहस्समभहिय ठिई) वहा पर उनकी स्थिति १ लाख वर्ष अधिक एक पल्यप्रमाण होती है। गौतम पूछते है-हे नाथ । (आराहगा) ये परलोक के आराधक होते है या नहीं ? उत्तर--(णो इणद्वे समढे) ये परलोक के आराधक नहीं होते है ।। सू १३ ॥
से जे इमे जाव' इत्यादि
(से जे इमे) जो ये (जाव सन्निवेसेसु) ग्राम नगर आदि स्थानो मे (पव्वइया ४मक्सरे ४८ ४शने (उक्कोसेण जोइसिएसु देवेसु देवत्ताए उववत्तारो भवति)
३५थी ज्योतिषी हेवामा ३१३चे उत्पन्न थ य छ (पलिओवम वास सयसहस्समभहिय ठिई) त्या तमनी स्थिति साम १२ २ ४ ५८यप्रभाय होय छे गौतम पूछे छे , हे नाथ ! (आराहगा) तमा ५२४॥ साराध होय छे , नडि ? उत्तर-(णो इणद्वे समढे) तम्मा ५२सना मा२। ५४ होता नथी (सू १३)
" से जे इमे जाव" त्यात (से जे इमे) रे (जाव सन्निवेसेसु) म नगर माहि स्थानोमा (पव्वइया