Book Title: Uttaradhyayan Sutram Part 02
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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মাথখানি
से पुबग्गहिए उदए अणुपुत्वेण परिभुंजमाणे झीणे। सू० २२॥
मूलम्-तए णं ते परिवायगा झीणोदगा समाणा तण्हाए पारम्भमाणा २ उदगदायारमपस्समाणा अण्णमण्ण सदावेति, सदावित्ता एव वयासी ॥ सू० २३ ॥ कचित् प्रदेशमागताना 'से' तत् 'पुच्चग्गहिए' पूर्वगृहीतम् 'उदए' उदकम् 'अणुव्पुवेण' आनुपये ग 'परिभुजमाणे' परिभुज्यमान 'झीणे' क्षीग-क्षय प्राप्तम् ।। सू० २२॥
टीका-'तए ण ते परिवाया' इत्यादि । 'तए ण ते परिवाया' तत खलु ते परिवाजका 'झीणोदगा समाणा' क्षीणोदका सत , 'तण्हाए' तगयापिपासया, 'पारम्भमाणा २' प्रारभ्यमाणा २-पीड्यमाना २-व्याकुलीभवत , व्या कुलीभावेहे तुगर्भविशेषणमाह--' उदगदायारमपस्समाणा' उदक्दातारमपश्यन्त , ' तेषामदत्ताग्राहित्वादिति भाव , 'अण्णमण्ण सद्दाति' अन्योऽन्य शब्दयन्ति परस्परमाहयन्ति, शब्दयित्वा=आहूय 'एव क्यासी' एवमवादिषु -एवं-चक्ष्यमाणप्रकारेण वदन्ति स्म ॥ सू० २३ ॥ था कि इतने में (से पुबग्गहिए उदए अणुपुत्वेण परिभुजमाणे झीणे) चलतेसमय अपने स्थान से लाया हुआ जल क्रमश पीते २ खतम हो गया ॥ सू० २२ ॥
'तए ण से परिवाया' इत्यादि ।
(तए ण) इस के बाद (ते परिवाया झीणोदगा समाणा) वे परिवाजा कि जिनका पानी बिलकुल समाप्त हो चुका है, (तण्हाए पारब्भमाणा २) पुन तृषा से अत्यत पीडित व्याकुल होते हुए (उदगदायारमपस्समाणा) उस समय किसी पानी दाता को देसतरमणुपत्ताण) तेना था। मा तेमा न्याय भेटमामा (से पुव्वमा हिए उदए अणुपुत्वेण परिभुजमाणे झीणे) यासती मते पाताना स्थानी લાવેલ જલ હળવે હળવે પીતા પીતા પૂરૂ થઈ ગયુ (સૂ ૨૨). ___ "तए ण ते परिव्वाया " छत्याहि ।
(तए ण) त्यार पछी ( परिव्याया झीणोदगा समाणा) ते परिवा
भना पाणी मिास समास यई यूश्या, (तण्हाए पारव्भमाणा २) तेमा तरसथीम पीडित-व्याग २४ने (उन्गदायारमपस्समाणा) ते सभये ई पालना हाताने न नवाथी (अण्णमण्ण सद्दावेति) ५२२५२ मे मानने