Book Title: Uttaradhyayan Sutram Part 02
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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औषपातिक सूत्र व्वायए समणोवासए अभिगयजीवाऽजीवे जार अप्पाणं भावेमाणे विहरह, णवर ऊसियफलिहे अवगुद्वारे चियत्ततेउरघरदारपवेसी एय ण वुच्चइ ॥ सू० ३३ ॥ परिमाजक श्रमगोपासक, 'अभिगयजीवाजी' अभिगतजावाजा जीनाजक्तित्वन, 'जाव' यावत्-अन यावच्छन्दादिद दृश्यम्-उपलब्धपुण्यपाप, आसपमरनिजरा क्रियाऽधिकरणवधमोक्षकुशल इति, 'अप्पाण भावेमाणे' आत्मान भावयन् विहरतिविचरति । 'णवर '-अयमा विशेष - असियफलिहे उतिस्फटिक =स्फटिकरागिरिव निर्मल , 'अवगुदुवारे' अपावृतद्वार -' अवगु' इतिदेशीय गन्द, उद्घाटितकपाट द्वार -अतिधार्मिकतयाऽस्य प्रवेशकाले जनै कपाट उद्घाट्यते इति भाव । 'चियत्ततेउरघर दारपवेसी' त्यक्ताऽ त पुरगृहद्वारप्रवेश --त्यक्त =प्रीत्या जनैर्दत्त अत पुरगृहद्वारेपु प्रवेशा यस्य स तथा, अतिधार्मिकतया सर्वत्र प्रवेशेऽनागवनीय इति भाव । 'एय ण वुचः' एव खल्लूच्यते एतादृश सोऽम्बड उच्यते ॥ सू० ३३ ॥ होकर (अभिगयनीवाजीवे जाव अप्पाण भावेमाणे हिरइ) जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रय, मवर, निर्जरा, वध एव मोक्ष इनका ज्ञाता होता हुआ अपनी आत्मा को भावित करता हुआ विचर रहा है। (णवर) परन्तु (एवं ण बुच्चइ) इतना में अवश्य कहता ह कि यह अम्बट परिवाजक (असियफलिहे) स्फटिकमणि की राशि के समान निर्मल, (अरगुद्वारे) जिसके लिये सभी के घरो का दरवाजा हर बरत खुला रहता है। ऐसा है, और (चियत्ततेउरघरदारपवेसी) यह विश्वस्त होने के कारण गजाके अत - पुर में भी वे-रोकटोक आता जाता है। सू० ३३॥
वासए) श्रमशापास थ न (अभिगयजीवाजीवे जाय अप्पाण भावमाण विहरइ) ०१, २0१, पुष्य, पाप, मासप, म १२, नि रातभर मध, भार भेना ज्ञाता थईने पाताना मात्माने भावित । वियर (पर) ५२.तु (एर ण बुच्चइ) मेट तो अवश्य १ छु २ मा परिवा४४ (सियफलिहे) टिमणिनी राशि (खाना)) पहेनिस (अवगुदुवारे) જેના માટે બધાના ઘરના દરવાજા હર વખત ખુલ્લા રહે છે એવા છે, અને (चियत्ततेउरघरदारपवेसी) विश्वासु वाना र शतना मत पुरमा પણ કઈ જાતની કટાક વિના આવે જાય છે (સૂ૦ ૩૩)