Book Title: Uttaradhyayan Sutram Part 02
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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औपपातिकसत्रे
महावीरस्स अदूरसामंते उड्ढजाणू अहोसिरे झाणकोट्टोवगए संजमेण तवसा अप्पाण भावेमाणे विहरड ॥ सू १ ॥
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अनेकयोजनप्रमाणक्षेत्राऽन्तर्वर्तिवस्तुदहनसमर्थत्वाद् विशाला तेजोलेश्या = निशिष्टतप सम्भूतलधिविशेषोद्भवा तेजोज्वाला यस्य स तथाभूत सन् 'समणस्स भगवओ महावीरस्स अदूरसामते ' श्रमणस्य भगवतो महावीरस्याद्दूरसमीपे - अदूरसमीपे = नातिदूरे नातिसमीपे - उचितदेशे, 'उड्ढजाणू ' उर्वजानु ऊर्ने जानुनी यस्य स ऊर्ध्वजानु - उत्कुटुकाssसनवान्, 'अहोसिरे' अध शिरा = अधोमुसो, नोचं न तिर्यग् वा क्षिप्तदृष्टि, 'झाण- कोट्ठो - चगए' ध्यान - कोष्ठो-पगत - ध्यान कोष्ठ इन ध्यानकोष्ठस्तमुपगत, यथा कोष्ठगत धान्य विकीर्णे न भवति तथैन "यानगता इन्द्रियात करणत्तयो बहिर्न यान्तीति
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आराधना से इन्हे तेजोलेश्या प्राप्त हो चुकी थी, जिसकी इतनी सामर्थ्य होता है कि अनेकयोजनप्रमाण क्षेत्र के भीतर रही हुईं वस्तुओं को वह क्षणमात्र में दग्ध कर डालती है, परन्तु ऐसी विपुल तेजोलेश्या को भी इन्होंने अपने शरीर के भीतर ही अन्तर्हित कर रखी थी, उसका उपयोग नहीं करते थे, और ये (समणस्स भगवओ महावीरस्स अदूरसामते) श्रमण भगवान् महावीर के न अतिदूर और न अतिनिकट, किन्तु पास ही कुछ दूरी पर (उड्डाणू) घुटनों को ऊँचाकर ( अहोसिरे) शिर को नीचे कर के ( झाण-कोट्ठोवगए) ध्यानरूपी कोठे में विराजमान थे, अर्थात् ध्यान मे बैठे थे । ध्यान को जो कोष्ठ की उपमा दी है उसका हेतु यह है कि जिस प्रकार कोठे मे रहा हुआ धान्यादिक इतस्तत (इधर-उधर ) नहीं बिखरता है उसी प्रकार ध्यानगत इन्द्रिय एव अन्त करण की वृत्तिया વિપુલતેજોલેશ્ય એ આથી હતા કે તેમને જે કે વિશિષ્ટ તપસ્યાની આરાધનાથી તેન્ડ્રેલેશ્યા પ્રાપ્ત થઈ ચૂકી હતી, જેનુ એટલુ સામર્થ્ય હોય છે કે અનેક ચેાજનના પ્રમાણુ ક્ષેત્રની અદર રહેલી વસ્તુઓને તે ક્ષણ માત્રમા ખાળીને ભસ્મ કરી નાખે છે, પરંતુ એવી વિપુલ તેોલેશ્યાને પણ તેઓએ પેાતાના શરીરની અંદર જ અન્તહિત કરી રાખી હતી, તેના ઉપયોગ કરતા नहोता (समणस्स भगवओ महावीरस्स अदूरसामते) तेथे श्रभशु लगवान भडा વીરની બહુ દૂર નહિ તેમ બહુ પાસે નહિ પણ તેમની પાસે જ થાડે જ દૂર ५२ (उड्ढजाणू) धुरो उथा उरीने (अहोसिरे) शिरने नभावीने (झॉण - कोट्टो बगए) ध्यानयी जेहामा विराभान ता--अर्थात् ध्यानमा मेठा हुता ધ્યા નને જે કેાઠાની ઉપમા આપી છે તેના હેતુ એ છે કે જેમ કાઢામા ભરેલા ધાન્ય આદિક આમતેમ વિખરાઈ જતા નથી તેમ ધ્યાનમા ચેટેલી ઇન્દ્રિઓ