Book Title: Uttaradhyayan Sutram Part 02
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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औपातिकमरे पक-परितावियाओ ववगय-खीर-दहि-णवणीय-सप्पि-तेलगुल-लोण-महु-मज्ज-मस-परिचत्त-कया-हाराओ अप्पिन्छाओ अप्पारंभाओ अप्पपरिग्गहाओ अप्पेणं आरंभेण अप्पेणं समास्वेद-जल्ल-मल्ल पक-परितापिता -अस्नानकेन स्नानाऽभाषेन हतुना स्पेट जल्लमन्सपढ्दै -स्वेद = प्रस्वेद , जल्ल =शुष्क प्रस्वेद , मल्ल =रजोमान कठिनीभूतम्, प८ =आदीभूत रज , ते परितापिता = क्लेगिता -ममृता इत्यर्थ , 'पवगय-सीर-दहि णरणीय-सप्पि-तेल-गुललोण-महु-मज्ज-मस-परिचत्त-कया-हाराओ' व्यापगत-क्षीर-दधि-नवनीत-सपिस्तैल-गुड-लवण-मधु-मद्य-मास-परित्यक्त-भृताऽऽडारा -व्यपगतानि क्षीरटपिनवनीनसीपि यस्मात् स व्यपगतक्षीरधिनवनीतसर्पि, तेलगुडलपणमधुमघमास परित्यक्त , तत पदद्वयस्य कर्मधारय , क्षीरादिमासपर्यतरहित इत्यर्थ , तादृश कृत =सेषित आहारो याभिस्तास्तथा, 'अप्पिच्छाओ' अपेच्छा , 'अप्पारभाओं' अल्पारम्भा -अप आरम्भ =पृथिव्याधुपमर्दनव्यापारो यासा तास्तथा, 'अप्पपरिग्गहाओ' अल्पपरिग्रहा -अन्पधनधा यसग्रहा। 'अप्पेण आरभेण अप्पेण समारभेण अप्पेण आरभसमारभेण' अपनाऽऽरम्भेण अन्पेन पसीना से लथपथ रहा करता है, एव पशीना के शुष्क हो जाने से उस पर बैठी हुई धूलि, काले कठिन मेल के रूप मे परिणमित होकर उनके शरीर को मलिन बनाये रहती है। (ववगय-वीर-दहि-णवणीय-सप्पि-तेल-गुल-लोण-महु-मज-मस-परिचत्त कया-हाराओ) कितनीक ऐसी होता हैं कि जो दूध, दही, मक्सन, सर्पि-घृत, तैल, गुड, नमक, मधु, मद्य, एव मास से वर्जित आहार किया करती है, (अप्पिच्छाओ) और जिनकी इच्छाएँ स्वभावत अल्प हुआ करती है, (अप्पारभाओ अप्पपरिग्गहाओ अप्पेण आरभेण अप्पेण समारभेण अप्पेण आरभसमारभेण वित्तिं कप्पेमाणीओ) वे अल्पआरभ से, परितावियाओ) 32क्षी सेवा डाय छे ४२ स्नान । ७२पाथी पसीनाथी લથપથ રહ્યા કરે છે, તેમજ પસીને સુકાઈ જવાથી તેના પર ઉડીને પડેલી ધૂળ કાળા અને કઠણ મેલના રૂપે પરિણામ પામીને તેમના શરીરને મલિન मनाच्या ४२ छ (ववगय-खीर-दहि-णवणीय-सप्पि-तेल्ल-गुल-लोण-महुमज्ज-मस-परिचत्त-कया-हाराओ) 32ी सेवा हाय छ २ ईध, दही, भाभर, सवि-धी, तेस, गण, भी, भय, भध, तभा भासथी पनित माहार र्या ४२ छ, (अप्पिच्छाओ) मने रेमनी नछामा पलायी। म८५ २घा ४२ छ (अप्पारभाओ अप्पपरिग्गहाओ अपेण आरभेण अप्पेण