Book Title: Uttaradhyayan Sutram Part 02
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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पीयूषयपिणी-टीका स २७ भगवदन्तेयामिवर्णनम कसपार्डव मुक्कतोया, सखइव निरगणा, जीवो विव अप्पडिहयगई भावो मिथ्या पाति , स ट्रिपियो न था उन्नो यस्ते तथा । 'डिण्णसोया' छिन्नस्रोतस-छिन्नसमारप्रवाहा । 'निरुबलेवा' निरपलेपा -कर्मबन्धहतुरुपलेपो रागादिस्तेन रहिता , निरपलेपतामेव 'कसपाटय' दयाटिं-'मुहुयायासगो इव' इत्यन्तैस्पमानोपमेयमानै प्रदर्शयति, तर-सपाईन मुदगोया' कास्यपानाच मुक्ततोया-मुक्त-व्यक्त तोयमिव ससारयन्धतुपास्नेहो यैस्ते तया, यया काम्यपात्र्या पतितमपि जल लिप्त न भवति तथा ममारनन्धहेतुस्तेषु लिमो न भवताति भान , 'सब इत्र निरगणा' शव इस मिथ्यावादि भावग्रन्थ है। इन दोनों प्रकार के ग्रन्या से रहित होने के कारण ये 'छिन्नाथ' कह गये हैं। (छिण्णसोया) ससार का प्रवाहरूप स्रोत इनसे अलग हो चुका था। (णिरुवलेवा) कमर म कारणभूत रागादिक लेप से भी ये रहित थे, इसलिये निस्पलेप थे । इमा पात को जागे के सपाईव' से लेकर 'सहयहुयासणो इव' यहाँ तक के उपमान पत्रों के द्वाग मूत्रकार प्रकट करते है । ( कसपार्टव मुक्तीया) कॉसे का भाजन जिस प्रकार पाना के ससर्ग से सर्वथा रहित होता है उसी प्रकार जल के तुन्य स्नेह को मसार का धन का हेतु होने से जिन्हनि सर्वथा छोड दिया, अथवा कसे के भाजन म गिग हुला जल जैसे लिम नहीं होता उसी प्रकार ससारनयनहतु आवव जिनम लिप्त नहा होता, अत वे काँसे के भाजन के समान निरुपलेप कहे गये है। (सस इन निरगणा) शख मे હિરણ્ય આદિ દ્રવ્યગ્ર થ છે મિથ્યાત્વ આદિ ભાવગ્રન્થ છે આ બને પ્રકારના ગ્રોથી રહિત હોવાના કારણે તેઓને છિન્નગ્રંથ કહેવામાં આવ્યા छ (छिण्णसोया) २५ मारना प्रवा३५ श्रोत तेमनाथी यस यई युध्या ता (णिरुवलेवा) भएमा ४१२ मृत साहिडपथी ५० तेश्या २हित छता, तथा नि३५३५ ता मा पातने माना 'कसपार्डर' थी सन 'सुहुयहु यासणी इस' मडी सुधीना भानपहाथी सूत्रा२ ७२ छ (कसपाईन मुक्ताया) हासानु पास रे पाणीना नसाथी सर्वथा हित डाय તેજ રીતે જલન તુલ્ય અને જે, સમાગ્ના બ ધનને હેતુ છે તેને જેમણે સવ થા છેડી દીધો, અથવા કાસાના વાસણમાં પડેલા પાણી જેમ લિપ્ત થતા (ટતા) નથી, તેવી જ રીતે - સાબ ધનનો હેતુ આઝવ જેઓમાં લિપ્ત થતું નથી, તેથી તેઓને કાસાના વાસણની પિ નિરૂપલેપ કહેવામા આવ્યા છે (सस इव निरगणा) मा भ प २ हाती नयी वीर रीत