Book Title: Uttaradhyayan Sutram Part 02
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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पीयूषषिणी-टीका सू ३५ व्यन्तरदेययर्णनम्
३३७ विभूसण-धरा सव्वोउय-सुरभि-कुसुम-सुरडय-पलंबसाभंत-कतवियसत-चित्त-वणमाल-रडय-वच्छा कामगमा कामरूवधारी णा_णाविह-वण्ण-राग--वरवत्थ-चित्त-चित्लय-णियंसणा विविह-देसतायेर चारविभूषणानि तेपा धरा । 'सम्बोउय-सुरभि-कुसुम-सुरइय-पलब-सोभत-कतरियमत चित वणमाल राय बच्छा' सतु-सुगमि-कुसुम मुरचित प्रलम्ब-गोभमान-कान्तकिमचिनसनमाला-रतिद वक्षम -सर्वपु कतुपु मुरभीगि यानि उसुमानि ते सुरचिता प्रलम्बा च गोभमाना च का ता च विकसन्ती च चित्रा-विचित्रा चासो वनमाला-पुष्पलक्, तथा रतिनानि=सुन्तगगि यथासि येपा ते तया, 'कामगमा' कामगामिन -इच्छागामिन । 'कामस्पारी' कामरूपगारिण -स्वेच्छानुसाररूपधारका । 'णाणाविह-वण्ण-राग वरवत्यचित्त चिल्लिय णियसणा' नानाविध-वर्ण-राग वस्त्र चित्र-देदीप्यमान-निवसना नानाविधवों गगो येषु तानि-नानाविपवर्णरागागि तानि तथाभूतानि वरवस्त्राणि चित्राणि-विचित्राणि "चिलिय' देदीप्यमानानि, नियमनानि परिधानानि येषा ते तथा, 'चिल्लिय' इतिदेशीयशब्द , रक्तानि बहुविधपरिधाननसनानि परिदधाना इयर्थ । 'विविह-टेसणेवच्छ-गहिय वेसा' विविध देश-नपथ्य-गृहीत-वेपा विविधानाम् अनकेपा देशाना नेपथ्य =प्रसाधनविग गृहीत है। (सबोउय-मुरभि-कुसुम-मुरडय-पलव-सोभत-कत-वियसत-चित्त-वनमाल-रइय-बच्छा) उनके वक्ष स्थल, सदा समस्त स्तुओं के मुरभित पुष्पों द्वारा रचित रखा २ सुन्दर फिमित चित्र-विचित्र वनमालाओं द्वारा मुहावने रहा करते है। (कामगमा) इनका गमन इच्छानुसार हुआ करता है । (कामरूबधारी) इच्छानुसार ये रूपा को धारण करते रहते है। (णाणाविह-यण्ण-राग-वरवत्थ-चित्त-चिल्लियणियसणा) अनेक प्रकार के रगवाले तथा चित्र-विचित्र प्रभावाले ऐसे चमकते हुए वस्त्रों को ये पहिरा करते है। (विविह-देसी-णेवच्छ-गहिय-वेसा) अनेक देशों ( सव्योउय-सुरभि कुसुम सुरइय पल सोभत-कत-वियसत चित्त वनमाल रइय वच्छा ) તેમના વક્ષસ્થલ હમેશા સમસ્ત ઋતુઓના સુંદર પુષ્પ દ્વારા બનાવેલી લાબીલાબી સુદર વિકસિત ચિત્ર-વિચિત્ર વનમાલાઓથી શોભાયમાન રહે છે (कामगमा) तमनु गमन Jछानुसा२ थ य छ (कामरूवधारी) छtनुसार तेमा ३५ पा२६४ ४२॥ २ छ (गाणाविह वण्ण राग-वरवत्य-चित्त चिल्लियणियसणा) भने पानी सपा तथा चित्रवियित्र प्रमाणा मेवा यभा२ पत्री तमा परे छ (विविह देसी णेव च्छगहिय वेसा) भने शाना तेसो पो॥ ५९२ ३ (पमुइय कदप्प कल्ह केली-कोलाहल प्पिया) प्रभुहिताना