Book Title: Uttaradhyayan Sutram Part 02
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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ओपपातित्रसूत्र
मण आक्खमाणा अकरण पावाणं कम्माण आइस्वह । णत्थि ण अण्णे केइ समणे वा माहणे वा जे एरिस धम्ममाइक्खि तए, किमग । एत्तो उत्तरतर १, एव वढित्ता जामेत्र दिस पाउ व्भूया तामेव दिस पडिगया ॥ सू०५९ ॥
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नम्, 'वेरमण आइ+खमाणा अकरण पाना कम्माण आइ+सह ' विरमगमाच क्षाणा अकरण पापाना कर्मणामारयाय = पापरूपाणा कर्मणामकरणम् = अनाचरण कथयथ, ' णत्थि ण आणे के समणे या वाहणे जे एरिस धम्ममाइक्खित्तए ' नास्ति खन्वय कोऽपि श्रमणो वा नाह्मणो वा य इदृश धर्ममारयायात्, 'किमग पुण एत्तो उत्तरतर' किमङ्ग । पुनरेतस्मात् उत्तरतरम् - अस्माद्धर्मापदगादुत्कृष्ट कथयिष्यताति का सम्भावना ' न काप| यर्थ, ‘एन नदित्ता जामेव दिस पाउन्भूया तामेत्र दिस पडि गया' एनम् उदित्वा यस्था एन शि प्रादुर्भूतास्तामेन दश प्रतिगता ॥ सू०५९ ॥
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क्खह) प्राणातिपातादिक के विरमग का उपदेश देते हुए आप पापरूप कमी को नहीं करने का उपदेश भी देते है । अत ( णत्थि ण अण्णे केइ समणे वा माहणे वा जे एरिस धम्ममाइ क्खित्तए) इस सार में हे नाथ | एसा और कोई दूसरा श्रमणना नाग उपदेष्टा नहीं है जो इस प्रकार के धर्म का उपदेश दे सक, (किमग ! पुण एत्तो उत्तरतर) फिर सस उत्कृष्ट धर्म का उपदेश फोन दे सकता हे ' अर्थात् कोइ नहा ' (एव वदिता जामेव दिसिं पाउन्भूया तामेव दिस पडिगया) इस प्रकार कह कर वे सन जिस दिशा से आये थे उसी दिशा की ओर चले गये ॥ सू ५९ ॥
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विरस्त थवान! उपदेश ज्यो छे (वेरमण आइक्समाणा अकरण पावाण कम्माण आइम्सह) प्राणातिपातादिना पिरभणुना उपदेश हेती वमते आये या ३५ उर्भों न उखाना पशु उपदेश यो छे भाटे (णत्थि ण अण्णे केइ समणे वा माहणे वा जे एरिस वम्ममाइक्सित्त) या ससारमा, हे नाथ । येवो जीने કાઇ શ્રમણ જે બ્રાહ્મણ ઉપદેષ્ટા નથી કે જે આ પ્રકારના ધર્મના ઉપદેશ स्थायी शडे (किमग । पुण एत्तो उत्तरतर) तो भी मानाथी उत्सृष्ट धर्मनाथ हेश माथी राजे । अर्थात् जेध नहि (एव वदित्ता जामेव दिसिं पाउन्भूया तामेव स पडिगया) मा अनेडीने ते मघा ने दिशामेथी खाऱ्या हुता તે જ દિશા તરફ પાછા ચાલ્યા ગયા (સ્ ૫૯)
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