Book Title: Uttaradhyayan Sutram Part 02
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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वदित्ता णमसित्ता एव बयासी - सुअखाए ते भते । णिग्गंधे पावयणे जाव किमग । पुण एत्तो उत्तरतर १ एव वदित्ता जामेव दिस पाउवभूए तामेव दिस पडिगए | सू०६० ॥
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णमसित्ता एव वयासी' दिना नमस्यि या एवमवादान् -' सुअक्साए ते भते ! णिग्गथे पात्रयणे जात्र किमग ! पुण एत्तो उत्तरतर ' स्वाग्यात तर भदत न न्थ प्रवचनम् यावत् किमङ्ग ! पुनस्तस्मादुत्तरतरम् एव दत्ता जामेव दिस पाउन्भूए तामेव दिस पडिगए ' एवम् उतिया यस्या एवं दिश प्रादुर्भूत तामेव दिग प्रतिगत ॥ सू० ६० ॥
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निर्मथ
वयासी) वदना एव नमस्कार कर फिर उन्हान प्रभु से इस प्रकार कहा- (मुअक्खाए ते भते ! णिग्गथे पात्रयणे) हे भरन्त । आपन निर्मथ प्रवचन का उपदेश बहुत ही सुदर पूर्वापरविरोधरहित- सर्वोकृष्ट किया है । (जार किमग पुण एत्तो उत्तरतर) इस प्रवचन में ऐसा कोइ सा भी निषय बाका नहीं बचा जिस पर आपन प्रकाश न डाला होअच्छी तरह से निवेचन नहीं किया हो। आपने सब कुछ एक ही साथ बहुत है। अच्छी तरह मीठे शब्दों में समझा दिया है, हमने तो ऐसा उपदेश आजतक नहीं सुना, कल्याण एव जीव नके उपयोग सब विषय आपने कहे है । - इत्यादि । एव वदित्ता जामेव दिस पाउन्भूए तामेव दिस पडिगए) इस प्रकार प्रभु का स्तुति रूप में कह कर कूणिक राजा जिस दिशा से आये थे उस दिशा की ओर वहा से वापिस चले गये ॥ सू० ६० ॥
एव वयासी) वहना तेभन नमस्कार नेपछी तेथे प्रभुने खा ४ह्यु-(सुअक्साए ते भते । णिग्गये पावयणे) हे लहन्त । सायो। सा निर्थन्थ
પ્રકારે
પ્રવચનના ઉપદેશ બહુજ
સુદર-પૂર્વાપરધિરહિત-સર્વોત્કૃષ્ટ
થયા છે
( जाव किमग । पुण एत्तो उत्तरतर) मा निथन्थ अवयनमा सेवा अर्ध य વિષય બાકી રહ્યો નથી જેના ઉપર આપે પ્રકાશ ન નાખ્યા હાય-સારી રીતથી વિવેચન ન કર્યું હાય આપે તમામે તમામ એક સાથેજ બહુજ સારી પેઠે મીઠા શબ્દોમા સમજાવી દીધુ છે અમે તે એવા ઉપદેશ સાભળ્યે નથી કલ્યાણ તેમજ જીવનમા ઉપયોગી બધા વિષય આપે કહ્યા છે ઈત્યાદિ ( एव वदिता जामेव दिस पाउन्भूए तामेव दिस पडिगए) मा પ્રકારે પ્રભુની સ્તુતિરૂપમા કહીને કૃણિક રાજા જે દિશાએથી આવ્યા હતા તે દિશા તરફ પાછા ચાલ્યા ગયા (સ્ ૬૦)
આજ સુધી