Book Title: Uttaradhyayan Sutram Part 02
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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पोषणिो -टीका स ३० यिनयभेदप्रायश्चित्तभेदधर्णनम
मूलम्-से कि त वेयावच्चे? वेयावच्चे दस विहे पण्णत्ते. प्रापितोऽहमनेन'-ति हतो शुश्रूपा । ३ । कयपडिकिरिया' कृतप्रतित्रिया 'भक्ताग्निोपचार कृने सति प्रसन्ना गुग्यो मे अंतरानरूपा प्रतिक्रिया-प्रयुपकार करिप्यता"ति सुद्धया गुम्णा शुश्रूषाकरणम् ।। अत्तगोसणया आनेगवेषणता-आर्तस्य वितस्य गवेपगना-औपत्रमपयादिना पाटितस्योपकार इत्यर्थ ।५। 'टेमकाण्णुया' ढाकालनता देगकालोचितार्थमम्पाटनम् ।।। 'सबहेमु अप्पडिलोमया' मर्थित थप्रति टोमता-मनप्रयोजनेपु आनुमूल्यम् । 'मे त लगेगोवयारविणए, से त विणए' म एप कोपचारविनय , स एप पिनय ॥ मृ० ३०॥
टीका-सभ्यतरतपसस्तृतायभट वैयाऋत्य नाम तप पृच्छति-से किं त __ यावच्चे' अथ फि नद पयावृत्यम ( माधूनामाहागपपाटिभि माहाय्यकरण यावृत्यम्, तत्
आदि लाकर देना, ( क्रयपडिकिरिया ) कृतप्रतिक्रिया-कृत उपकार का ध्यान रखकर प्रत्युपकार करने का भावना से प्रानियुक्त व्यवहार करना, ( अत्तगवेसणया) आर्तगवेपणता-रोगादि अवस्था से युक्त गुरु महाराज आदि का औपर-मेपन द्वाग उपचार करना, ( देसकालण्णुया) देशझालनता-दशकाल क अनुमार प्रवृत्ति करना , ( सबढेम्स अप्पडिलोमया) सन कार्यों में अप्रतिकृता अथात् अनुकूलता रमना । ( से त लोगोवयारविणए ) यह सन लोकोपचारविनय है । (से त विगए ) इस प्रकार विनय तप का वर्णन जानना चाहिये । सू० ३० ॥
से ति वेयावच्चे।
सूनकार अन आभ्य तर तप का जो तृताय भेद वैयावृत्त्य तप ह उसका मान-पान माहिसावी माप, (कयपडिकिरिया) कृतप्रतिडिया-रेखा ઉપકારને ધ્યાનમાં રાખીને પ્રત્યુપકાર કરવાની ભાવનાથી પ્રીતિયુક્ત વ્યવહાર ४२३।, (अत्तगवेसणया) मातंगवेषता-गाह मपश्यावाणा गुरुमहारा माहिना मौषध-पाथी उपन्यार ४२३), (देसकालण्णुया) शासज्ञता-हेश उसने मनुसगने प्रवृत्ति २वी, (सबसु अपडिलोमया) मा आभा मप्रतिसता अर्थात् मनु:गता रामवी (से त लोगोपयारविणए ) से पधा
पया२पिनय छ (से त पिणए ) से सारे विनय तपनु पणुन त नये (५ ३०)
‘से कि त वेयावन्चे' त्याहि સૂત્રકાર હવે આભ્યન્તર તપને જે ત્રીજે ભેદ વિયાવૃજ્ય તપ છે તેનું