Book Title: Uttaradhyayan Sutram Part 02
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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औपपातिकसने चरित्तविणए। से किं त मणविणए' मणविणए दुविहे पण्णत्ते, त जहा-पसस्थमणविणए १, अप्पसस्थमणविणए २। से कित अप्पसत्थमणविणए ? अप्पसत्थमणविणए-जे य मणे सावजे १, तीर्थकरै कथितमकपाय चारित्रमिति तत् यथारख्यातचारित्र, तस्य कपायरहितचारित्रस्य विनय १५ । से त चरित्तविणए' स एप चाग्निपिनय । 'से किंत मणविणए' अथ कोऽसौ मनोविनय ? उत्तरमाह-'मणविणए'-मनोविनय मन्यत चिन्यतेऽननति मन , तत्सम्बधी विनय , 'दुविहे पण्णत्ते' द्विविध प्रनत , 'त जहा' तद्यथा-पसत्थमणविणए' प्रशस्तमनोविनय -प्रशस्तम्-अपयरहित मनोऽत करण, तस्य विनय १११ 'अप्पसत्यमणविणए' अप्रशस्तमनोविनय -अप्रगस्तमनसो विनय ।२। 'से कि त अप्प सत्यमणविणए' अथ कोऽसौ अप्रशस्तमनोविनय - उत्तरमाह-'अप्पसत्यमणविणए-जे है, इस रूप के चारिन का नाम यथारयातचारित है। इस चारित्र का विनय करना सो यथाख्यातचारित्रविनय है ५। (से त चरित्तविणए) यह सन चारित्रविनय है । प्रश्न(से कि त मणविणए) मन का विनय कितने प्रकार का है ? उत्तर-( मणविणए दुविहे पणत्ते) मनोविनय दो प्रकार का कहा गया हे, (त जहा) जैसे-(पसत्थमणविणए) प्रशस्त मन का विनय-पापरहित मन को अपनाना प्रशस्तमनोविनय है । (अप्पसत्य मणविणए) अप्रशस्त मन का विनय करना सो अप्रशस्तमनोविनय है । प्रश्न-(से कि त अप्पसत्थमणविणए) अप्रशस्तमनोविनय क्या है। उत्तर-( अप्पसत्थमणविणए जे य मणे सावजे १, सकिरिए २, सफक्कसे ३, कडुए ४, गिट्ठरे ५, फरसे ६, છે તીર્થંકર પ્રભુએ જે યથાર્થતા તેમજ અભિવિધિના અનુસાર ચારિત્રનું પ્રતિપાદન કર્યું છે તે રૂપના ચારિત્રનું નામ યથાખ્યાતચારિત્ર છે આ ચારિત્રને विनय ४२व ते यथाज्यातयास्त्रिविनय छ (से त चरित्तविणए) मा मया ચારિત્રવિનય છે.
प्रश्न-(से कि त मणविणए.) मनना विनय शु छ ? Ben प्रारना छ ?
उत्तर-(मणविणए दुविहे पण्णत्ते) मनोविनय मे प्रारना छ (त जहा) रभ-(पसत्यमणविणण) प्रशस्त मनना विनय-पापडित भनने सपना
प्रशस्तभनोविनय छ (अप्पसत्थमणयिणए) प्रशस्त मनना विनय ४२३॥ ते सशस्तमनोविनय छ प्रश्न-(से कि त अप्पसत्थमणविणए) सप्रशस्त मनाविनय
त्ति२-(अप्पसत्यमणविणए-जे य मणे सावज्जे, सकिरिए, सक कसे, कडुए, जिरे, फरसे, अण्यकरे, छेयकरे, भेयारे परितावणकरे, उद्दवणकरे, भूओवघाइए)