Book Title: Uttaradhyayan Sutram Part 02
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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औपपातिकम
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सणाविणए अवि पण्णत्ते, त जहा-अब्भुट्टाणे इ वा १, आसणाभिग्ग हे इ वा २ आसणप्पदाणे इ वा ३, सकारे इ वा ४, सम्माइ वा ५, किकम्मे इ वा ६, अजलिप्पग्गहे इ वा ७, एंत
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'से किं तस्साए' अथ कोऽसौ शुश्रूपणाचिनय - 'सुस्मृसणाविणए ' शुश्रूषणाविनय 'अणेगविहे पण्णत्ते' अनेकविध प्रजम -'त जहा' तद्यथा- 'अच्भुद्राणे इवा' अभ्युत्थानमिति वा, 'इति' 'वा' इति पद्वय वाक्यालङ्कारे, एवमग्रेऽपि वो यम् । अभ्युथानम्-आचार्यादेरागतस्य अभिमुसम्-स्थानम् अभ्युत्थान- विनयाऽर्हस्य दर्शनादेवाऽऽसनयाग | १| 'आसणाभिग्ग इवा' आसनाभिग्रह इति वा, आसनाभिग्रह गुर्वादिर्यनयनोपवेष्टुमिच्छति तन तनाssसनप्रापणम् |२| 'आसणप्पराणे इवा' आसनप्रदान मिति वा, गुरौ समागते सति आसनदानम् | ३| 'सक्कारे इ चा ' सत्कार इति वा विनयाऽर्हस्य गुर्वादि वन्दनादिनाssदरकरणसत्कार |४| 'समाणे इवा' सम्मान इति वा, ममानो वा गुर्वाद आहारवस्त्रादिप्रशस्तवस्तुना समाननम् ॥५॥ 'किइकम्मे इ चा ' कृतिकर्म इतिया - कृतिकर्म= यथाविधि वन्दनम् |६| (से किंत सुणाविए) शुश्रूपगाविनय कितने प्रकार का है ' ( सुस्मृसणाविणए अणे गविहे पण्णत्ते) शुश्रूषणाविनय अनेक प्रकार का है, (त जहा) जैसे (अभुडाणे इ वा आये हुए आचार्य आदि के आने पर खडे होना । विनय के योग्य साधुजन को देखते ही आसन का परित्याग करना (१) । (आसणाभिग्गहे इ वा ) गुर्वादिक जहा २ बैठना चाहे वहा २ आसन लेकर उपस्थित रहना, अथवा आसन पहुँचाना (२) । (आसणप्पदाणे इ वा) गुरुके आने पर आसन प्रदान करना (३) (सकारे इवा) विनययोग्य गुर्गादिक का वन्दना आदि द्वारा सत्कार करना ( ४ ) | ( समाणे इ वा ) गुवादिकों का आहार, वस्त्रादिक प्रस्तवस्तुओं द्वारा समान करना (५) । (किकम्मे इ वा ) यथाविधि बन्दना करना यह कृतिकर्म है, अर्थात् गुर्दाविणए ) કેટલા પ્રકારના हे ? ( सुस्सूसणाविणए अनि पण्णत्ते) शुश्रूषयाविनय अनेड प्रहारनो छे, (त जहा ) भ े- (अब्भु ट्ठाणे इ वा ) अडी "ड" "वा" मे मे शब्दो वायास जरभा वपराया हे पधा શૈલા આચાર્ય આદિની સામે જવુ, વિનયને ચેાગ્ય સાધુજનેને જોતા જ આસનને परित्याग ४२वो (१) (आसणाभिग्गहे इ वा ) शुरु साहिद क्या क्या मेसवा थाडे त्या त्या शासन साने हार रहेचु, अथवा आसन यहोयाउनु (२) (आसणप्प दाणे इ वा) गुरु यावे त्यारे आसन अहान ४२५ (3) (सकारे इवा) विनय योग्य गुरु साहिन बहना आदि द्वारा सत्र ४२ (४) माहिउनु आहार-वस्त्रादि प्रशस्त वस्तुयोथी सन्मान ४२५ (4) (किक
शुश्रूषयाविनय
(समाणे इ वा ) गु३