Book Title: Uttaradhyayan Sutram Part 02
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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औपपातिकको अणिलो इव निरालया, चंदा इव सोमलेस्सा, सगेडव दित्ततेया, सागरो इव गभीरा, विहग इव सव्वओ विप्पमुका, मदरो इव अप्पकपा, सारयसलिलव सुद्धहियया. खग्गिविसाण व एगजाया, 'अणिलो इस निरालया' अीिल इय निराल्या -परा व गृहरहिता , 'चदो इत्र सोमलेस्सा' चद्र इव सौम्यठेश्या -अनुपतापइतुमन परिणामधारिण , 'मूरो उत्र दित्ततेया' सूर्य इव पतेगस -यत शरीरमण्या भावतो जानन च देटीयमाना । 'सागर र गभीरा' सागर हर गम्भीरा - गोकानिकारणम्योगेऽपि निर्निमारचित्ता । 'विहग इस सव्वो पिप्पमुवा' विहग इव सर्वतो विप्रमुक्ता -परिचारपरि यागात् नियतवासरहित नाचेति भाव । 'मदरो इव अप्पापा' मन्टर इन अप्रझम्पा -मेरुवत् परिपहोपसर्गपवनैरचलिता । 'सारयसलिल मुद्धडियया' शारसलिलमित्र शुदहृदया -यथा शरदृतो जल निर्मल भवति तथा परमनिर्म द्वन्या इति भार । 'सम्गिविसाण से रहित थे । (चदो इस सोमलेस्सा) चन्द्र के समान उनकी रेश्या सौम्य थी। (मूरो इस दित्ततेया) सूर्य के समान ये दीप तेजनाले थे। शारारिक काति द्रव्यतेज, एव ज्ञान यह भावतेज है। (सागर इव गभीरा) सागर के तुल्य ये गभीर प्रकृति के थे । हर्प शोक आदि के कारणों के उपस्थित होने पर भी इनके चित्त में किसी भी तरह का विकार उत्पन्न नहीं होता था। (विहग इव सचओ विप्पमुक्का) पक्षा की तरह ये नियमित निवास से रहित थे। (मदरो इव अप्पकपा) मेरुपर्वत की तरह परीपह एर उपसर्गरूप परन से ये अचलित थे। (सारयसलिल व सुद्धहियया) शरद ऋतु के जल समान उनका हृदय निर्मल था। (खग्गिविसाण व एगजाया) खड्गी न्सपेक्षा रायता नहता (अणिलो इस निरालया) पवननी पडे धरथी २डित बुता ( चदो इव सोमलेस्मा) यद्रनी पे तमनी वेश्या सौभ्य ती (सूरो इव दित्ततेया) सूर्यना पेठे तसाहीत-शस्वी उता शरीर, ति द्रव्यते। तभा ज्ञान २ लावत छ (सागर इव गभीरा) सागरना पागली२ प्रकृतिना તેઓ હતા હર્ષ શેઠ આદિના કારણે આવી જતા પણ તેમના ચિત્તમાં કોઈ प तन वि२ उत्पन्न थ। नहाता (विहग इव स वओ विप्पमुक्का) पक्षीनी पे तमा नियमित निवामथी २डित ता (मदगे इस अप्पकपा) 5પર્વતની પિ પરીષહ તેમજ ઉપરાગરૂપ પવનથી તેઓ અચલિત હતા । सारयसलिल व सुदहियया) श२६ ऋतुना खानी पे तमनाय निर्भ डता (सग्गिविसाण व एगजाया ) मडगी () शीगडानी पहे.