Book Title: Uttaradhyayan Sutram Part 02
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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पीयूषयपिणी टीका व २४ भगवद तेयामिवर्णनम
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ज्ञाननलिका - निरतिचारज्ञाननन्त । ' दस गरलिया
,
लिया, अप्पेगइया मणेणं सावा - णुग्गह- समत्या, एव वएणं मननलिका दर्शन - श्रद्धा तद्रूप बल्मस्येपामिति दर्शननलिका - सुरैरपि सम्यक्पतालयितुमशक्या इत्यर्थ, ' चारितपलिया ' चाग्निनलिका -ढचारिननलयुक्ता, अप्पेगडया' अप्येककेकेचित, 'मणेण साना-णुग्गह- समत्या , मनसा थापा - नुग्रह - समर्थ - मनसैव मनोरा गापाऽनुग्रहा = निग्रहानुग्रहों कर्तुं समथा, ' एव' एवम् अनेन प्रकारेण ' चरण काएण , वाचा कायेन च निग्रहानुग्रहयो समया । 'अप्पेगडया' अप्येकक-' खेलोसहिपत्ता ' वेलीपाता ~ सेल टेमा, म पधि सकलरोगादयचारज्ञानवान थे । कितनक श्रद्धा थे । इस पल का प्रामि होने पर सम्यकून से चलायमान करने के लिये कोइ भी शक्ति कार्यकर नहा हो सकती है । कितनेक चारित्ररूपनिष्टि थे । इस शक्ति की जागृतिमे आत्मा अपने गृहीत चारित्र से रचमात्र भी शिथति नहा होता है । ( अप्पेगझ्या मणेण सावा - णुग्गह-समत्था एचएण कायेण ) कितनेक मन से ही आप एच अनुग्रह करने में समर्थ थे । इसी तरह वचन और काय से भी समझ लना चाहिये । ( अप्पेगइया खेलोसहिपत्ता, एव जल्लोसहिपत्ता, विप्पोसपित्ता, आमोसहिपत्ता, सव्वमहिपत्ता) कित नेक ऐसे थे जिन्हे वेलोपन पि प्राप्त थी । इस लभियाले मुनिजन का स्वेदज मल भी समस्त शारारिकों का अपहारक होता है। कितनेक ऐसे थे जिन्हे डोपनि प्राप्त थी । इस वाले मुनि के थूक की पदे तक भी रोग पर ओषधिका हेमा भेटसीओ ज्यानि उत्पन्न थती नथी ( णाणनलिया दसणवलिया चारित पलिया ) सामेड निरतियार ज्ञानवान हुता डेटला श्रद्धाઅલ–સ પન્ન હતા, આ ખલની પ્રાપ્તિ યતા સમ્યક્ત્વથી ચલાયમાન કરવાને ઈ પણુ સમર્થ નથી. કેટલાએક ચારિત્રરૂપ ખિિરષ્ટ હતા. આ શક્તિની જાગૃતિમા આત્મા પાતે ગ્રહણ કરેલ રિત્રયી ચાડે પણ શિથિલ થતા नथी ( अप्पेगइया मणेण सानाग्गहसमत्था एव वरण कायेण ) डेटला मे મનથી જ શાપ તેમ જ અનુગ્રહ કરવામા સમર્થ હતા. એવી જ રીતે વચન रमने जयाथी पशु समछ सेवा लेये (अप्पेगइया खेलोसहिपत्ता, एव जल्लो सहपत्ता पोसहपत्ता आमोसहिपत्ता सच्चोसहिपत्ता) नेटसा मेवा हुता नेमोने જલૌષધિ લવિ પ્રાપ્ત હતી આ લબ્ધિ (સિદ્ધિ)વાળા મુનિજનના સ્વેદ (પરસેવા)ના મલ પણુ સમક્તાીરિક પવેશનો નાશ કરે છે કેટલાએક એવા હતા