Book Title: Uttaradhyayan Sutram Part 02
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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पीयूपयर्पिणी-टीका सू. २४ भगवदन्तेयामियर्णनम नोपातेन नतनयन गच्छति, ततो द्वितायोपातेन पण्टासनम , तत प्रतिनिवर्तमाना एकोपातेन म्यम्थानमागच्छति । पण्डकपनादृर्ष तेषा गनिनास्ति ।
येऽटमाष्टमनिरन्तरतप करणेनाऽऽ मान भावयन्ति तेषा नट्याचाग्णनामकलन्धि समुपद्यते, ये तया लल्या युक्तान्त जड्याचारणा उच्यन्ते । जटघाचारणास्तिर्यग्गया एकेनोपातेनतत्रयोदय ग्चकाग्दीप गलन्ति, तत पर तेपा गति स्ति, तत प्रतिनिवर्तमाना प्रथमोपातेन नन्दावरचा हापमागन्यन्नि, द्वितीयो पातेन स्वस्थानम् । ते पुनधगया में निगमिपर म्यम्यानादसोपत्या पण्टकचनमपिरोहन्ति । तत प्रतिनिवर्तमाना प्रथमोपातेन ननरनमागच्छन्ति, ततो द्वितीयोपातेन स्वस्थानमायाति । पण्डकपनादृचं जयाचारणानामपि गतिनास्ति । पण्डऊरन तक चले जाते हैं । फिर वहा मे लौटकर एक ही छलाग में अपने स्थान पर वापिम आजाते है । पण्टकचन से आग उनका गमन नहा है। जपाचारण नामकी यि उन माधुजनों को प्राप्त होती है, जो निरन्तर-अन्तरगहित अष्टम की तपस्या करते हैं। हम पिसपन मुनिजन यदि निग्छे गमन करे तो प्रथम ही उत्पात में तेरहवा द्वाप जो रचकनर द्वीप हे वहा तक पहुँच जाते हैं, इसके आगे नहीं जाते है । क्यों कि आग इनकी गति नहीं होती है। यहा से वापिस होकर ये प्रथम उपात में नन्दीश्वर द्वाप आ जाते हैं और द्वितीय उत्पात में अपन स्थान पर आ जाते हैं। यदि ये ऊपर की ओर उड़ें और मेस्पर्वत पर जाने की इच्छावाले हो तो अपने स्थान से एक हा उपात में पण्डकपन म पहुँच जाते हैं। वहा से जन ये वापिस होते हे तो प्रथम उपात में ये नढननन आजाते है और फिर द्वितीय उपात से अपन स्थान पर । पण्डकान से आगे जपाचारणवालों की भी गति नहीं है। સુધી જાય છે, અને બીજા ઉત્પાતથી પ ડકવન સુધી ચાલ્યા જાય છે પછી ત્યાંથી પાછા આવતા એક જ છલાગમા પિતાના સ્થાન પર પાછા આવી જાય છે પડકવનથી આગળ તેમનું ગમન નથી
જ ઘાચારણ નામની લબ્ધિ એ સાધુઓને પ્રાપ્ત થાય છે કે જે નિરતરસતત અદમ-અછમની તપગ્યા કરે છે આ લબ્ધિવાળા મુનિજને જે તિરછા ગમન કરે તે પ્રથમ જ ઉત્પાતમા તેરમે દીપ જે રૂચકવર નામે દ્વિીપ છે, ત્યા સુધી પહોંચી જાય છે, તેનાથી આગળ નથી જતા, કેમ કે આગળ તેમની ગતિ થતી નથી ત્યાંથી પાછા વળતા તેઓ ગ્રામ ઉત્પાતમાં નદીશ્વરદીપ આવી જાય છે, અને બીજા ઉત્પાતમાં પિતાના નાનપર આવી જાય