Book Title: Uttaradhyayan Sutram Part 02
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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पीयूषधपिणी-टीका सु २० कूणिकता सिद्धाना महापीरस्य च स्तुति १२७ मितिभाव । 'धम्म-पर-चाउरत-चच-बट्टीण'-धर्म-दर-चातुरन्त-चक्र-वर्तिभ्य दानशीलतपोभावैश्वतसृणा नरकादिगतीना चतुर्णा वा कपायाणामन्तो नागो यस्मात् , अथवा चतम्रो गतीश्चतुर कपायार वा अन्तयति-नागयतीति, यहा-चतुर्भिर्दानशालतपोभावै कृना अतो रम्य , 'मृतावससिते रम्ये समाप्तावन्त इष्यते' इति विश्वकोपात् । अथवा चचारो दानादयोऽन्ता =अवयवा यस्य, यद्वा च वागे दानादय अता स्वरूपागि यस्य, 'अन्तोऽवयवे स्वरूपे च' इति हेमचन्द्र , स चतुरन्त स एव चातुरन्त , स्वार्थिक प्रजायण, चातुरन्त एव चक्रएव उन्मार्ग गमन से उमकी रक्षा करता है, उसी प्रकार प्रभु ने भी धर्मद्वारा जीयों को उनके अभीष्ट स्यानरूप मुक्तिस्थान में पहुँचाया हे, एव कुमार्ग-कुधर्म-से उनकी रक्षा की है । (धम्म-पर-चाउरत-चक-यट्टीण) दान, गील, तप एव भाव इन चार का सहारा लेकर चार नरकादिगतियों का, अथवा-चार क्रोधादिक रुपायों सा जिससे नाश होता है, अथवा-चार गतियों एवं चार कपाया का जो विनाश करता है, अथवा दान, शील, तप एव भाव इनको लेकर जो रम्य है, अथवा-ये चार दानादिक जिसके अवयव है, अथवा-ये चार दानादिक जिसके निजस्वरूप हे वह चातुरन्त है। अन्त शब्द के कोपों मे " मृताववसिते रम्ये समातारन्त इप्यते" " अन्तोऽवयवे स्वरूपे च" इस प्रकार अनेक अर्थ है। उन्हीं अर्थों को लेकर यहा "अन्त" शब्द के अर्थ का स्पष्टीकरण किया गया है। स्वार्थ म अण् प्र यय करने से “चातुरन्त " ऐसा पद निष्पन्न हो जाता ધર્મ દ્વારા જીવોને તેમના અભીષ્ટ સ્થાનરૂપ મુકિતસ્થાનમાં પહેચાયા છે. तभा हुभाग सुधभथी तेमनी २क्षा 30 (धम्मवर चाउरत चक्क चट्टीण) દાન, શીલ, તપ, તેમજ ભાવ એ ચારને આશ્રય લઈને ચાર નરકાદિ ગતિ એને, અથવા ચાર ફોધાદિ કવાયોને જે વિનાશ કરે છે, અથવા દાન, શીલ, તપ તેમજ ભાવ એ લઈને જે રમ્ય છે, અથવા એ ચાર દાનાદિક જેમના અવયવ છે, અથવા એ ચાર દાનાદિક જેના નિજસ્વરૂપ છે તે यातुरन्त छ मत ना अपामा "मृतारवसिते रम्ये समाप्तानन्त इप्यते” “ अन्तोऽनयवे स्वरूपे च" सारे मने अर्थ अर्था લઈને અહી અત શબ્દના અર્થનું સ્પષ્ટીકરણ કરવામાં આવેલુ છે पाथमा अण् प्रत्यय ४२पाथी " चातुरन्त " मेषु ५६ निष्पन्न लय छ આ વાતુરન્ત જ એક ચક્ર છે, કેમકે ચક જે પ્રકારે બીજાને ઉકેદ કરે છે