Book Title: Uttaradhyayan Sutram Part 02
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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औपपातिकमचे हियएधारा-हय-नीव-सुरहि-कुसुमव चंचुमालइय-उसविय-रोमकूवे वियसिय-वर-कमल-णयण-वयणे पयलिय-वर-कडग-तुडिय-केअरशयेन प्रमुदितहत्य , 'धारा हय-नीव-मुरहि-कुसुमव चचुमालइय-सविय रोमकूवे' धारा-हत-नीप-सुरभि-कुसुममिन रोमाञ्चितो-च्छित-रोमकूप, तन-धाराभिजलधरजलधारामि आहत=सिक्त यत्-नीपस्य-कदम्नस्य सुरभि-परिमलयुक्त कुसुम-पुप्पम तदिव 'चचुमालइय' इति देशीय गन्द, रोमाञ्चित इत्यर्थ , अतएव-उच्छ्रित --उच्चता गतो रोमकृपो-रोमस्थान यस्य स उच्छ्रितरोमकूप , तत पदद्वयस्य कर्मधारय । 'पिअसिय वर-कमल-णयण-वयणे' विकसित वर-कमलनयन-बदन -विकसितवरकमलवनयनवदन यस्य स तथा, 'पयलिय-वर-कडगतुडिय-केजर मउड-कुडल हार-विरायत-रइय-पच्छे' प्रचलित-वर कटक-त्रुटित-केयूरमुकुट-कुण्डल हार-विराजमान-रचित-चक्षस्क -प्रचलितानि अकम्पितानि वर-कटक-त्रुटितकेयूर-मुकुट-कुण्डलानि यस्य स तथा, तब-वरौ श्रेष्ठौ, कटको वलयो, त्रुटितेवाहुरक्षकभूषणे, केयूरो-बाहुभूपण भुजनविशेषौ, मुकुट शिरोभूपणम्, कुण्डले कर्णभूषणे-इति, तथा हार =अष्टादशसरिकादिक , विराजमान =गोभमान , रचित =विन्यस्त - बहुत ही हृष्ट तुष्ट एव आनन्दित हुए, (धारा हय-नीव-सुरहि कुसुमव चचुमालइय ऊसविय रोमकूवे) जिस प्रकार बरसात का धारा से सींचे जाने पर कदम्ब के सुगन्धित फूल एकदम विकसित हो जाते है, उसी प्रकार भगवान् के पधारने का समाचार सुनकर राजा के रोम सडे हो गये, (वियसिय-वर-कमल णयण-वयणे) उनके नेत्र और मुख दोना कमल के समान विकसित हो गये। (पयलिय-वरकडग-तुडिय-केजर-मउड-कुडल हार-विरायत रदय बच्छे) अपार हर्ष के मारे कम्पित इनके गरार पर भृत श्रेष्ठ दोनों वलय, दोनों त्रुटित-बाहुरक्षकभूषण, घg &ट तुष्ट तमन मान हित थया [धारा-हय-नीव-सुरहि-कुसुमव चचु मालइय-ऊसविय-रोमकूवे) 2 मारे १२साहनी धाराथी सी याये।। ४४ मना સુગધિત ફૂલ એકદમ ખીલી નીકળે છે તે જ પ્રકારે ભગવાનના પધારવાના સમાચાર સાભળીને રાજાના રામે રમ આન દથી પુલકિત થઈ ઉભા થયા, वियसिय वर-कमल-णयण-ययणे) तेमन नेत्र तथा भुभ भन्ने सना भविडसी जय( पयलिय-पर-कडग-तुडिय-केमर-मउड-कुडल-हार-विरायत रद्धय-बच्छे) अपार अपने सान पायभान यता तेमना शरीर ५२ धारण કરેલા શ્રેષ્ઠ બને વલય (કડા), બને ત્રુટિત-બાહુરક્ષક ભૂષણ, બને કેર