________________
ततीयः सर्गः
पटप्रकृतिना सम्यग्बोधावृतिविधायिना । प्रतीहारात्मनान्येन ज्येष्ठदर्शनरोधिना ।।९५॥ मधुदिग्धोनखड्गारधारामाधुर्यधारिणा । मधेनेव परेणातिमतिविभ्रमकारिणा ॥१६॥ दृढेन निगडेनेव गतिधारणकारिणा । तथा चित्रकरेणेव विचित्राकारसर्गिणा ।।९।। कुलालेनेव चान्येन नीचैरुच्चैनियोगिना । 'माण्डाकरकरेणेव लभ्यविधनविधायिना ॥१८॥ कर्मणोऽष्टविधस्येवं भेदेन फलदायिना । मिथ्यादृष्टिगुणस्थाने बाध्यन्ते जन्तवो भवे ॥१९॥ स्थानेषु नियमेनोर्व त्रयोदशसु भव्यता । जीवानां प्रथमस्थाने भव्यताऽभव्यताद्वयम् ॥१०॥
१२. क्षोणमोह-क्षपक श्रेणीवाला जीव दसवें गुणस्थानमें चारित्रमोहका पूर्ण क्षय कर बारहवें क्षीणमोह गुणस्थानमें आता है यहाँ इसका मोह बिलकुल ही क्षीण हो चुकता है और स्फटिकके भाजनमें रखे हुए स्वच्छ जलके समान इसकी स्वच्छता होती है।
१३. सयोगकेवली-बारहवें गुणस्थानके अन्त में शुक्लध्यानके द्वितीय पादके प्रभावसे ज्ञानावरणादि कर्मोका युगपत् क्षय कर जीव तेरहवें गुणस्थानमें प्रवेश करता है। यहाँ इसे केवलज्ञान प्रकट हो जाता है इसलिए केवली कहलाता है और योगोंको प्रवृत्ति जारी रहनेसे सयोग कहा जाता है । दोनों विशेषताओं को लेकर इसका सयोगकेवली नाम प्रचलित है।
१४. अयोगकेवली-जिनकी योगोंकी प्रवृत्ति दूर हो जाती है उन्हें अयोगकेवली कहते हैं । यह जीव इस गणस्थानमें 'अ इ उ ऋ ल' इन पाँच लघ अक्षरोंके उच्चारणमें जितना काल लगता है उतने ही काल तक ठहरता है। अनन्तर शुक्लध्यानके चतुर्थं पादके प्रभावसे सत्तामें स्थित पचासी प्रकृतियोंका क्षय कर एक समयमें सिद्ध क्षेत्रमें पहुँच जाता है।
आचार्य जिनसेनने उक्त चौदह गुणस्थानों में सुखके तारतम्यका भी विचार किया है। सुख आत्माका गुण है और वह उसमें सदा विद्यमान रहता है परन्तु मोहके उदयसे उसका विभाव परिणमन होता रहता है अतः ज्यों-ज्यों मोहका सम्पर्क आत्मासे दूर होता जाता है त्यों-त्यों सुख गुण अपने स्वभावरूप परिणमन करने लगता है। मिथ्यादृष्टि जीवके मोहका पूर्ण उदय है इसलिए उसके सुखका बिलकुल अभाव बतलाया है। मिथ्यादृष्टि जीवके जो विषय सम्बन्धी सुख देखा जाता है वह सुखका स्वाभाविक रूप न होकर वैभाविक रूप ही है। बारहवें गुणस्थानमें मोहका सम्पर्क बिलकुल छूट जाता है इसलिए वहाँ सुख स्वभावरूपमें प्रकट हो जाता है परन्तु वहाँ उस सुखको वेदन करनेके लिए अनन्त ज्ञानका अभाव रहता है इसलिए उसे अनन्त सुख नहीं कहते । केवलज्ञान होनेपर वही सुख अनन्त सुख कहलाने लगता है।
१ ज्ञानावरण, २ दर्शनावरण, ३ वेदनीय, ४ मोहनीय, ५ आयु, ६ नाम, ७ गोत्र और ८ अन्तरायके भेदसे कर्म आठ प्रकारके हैं। इनमें से ज्ञानावरण कर्मपटके समान सम्यग्ज्ञानको ढकनेवाला है। दर्शनावरण कर्म द्वारपालके समान श्रेष्ठ दर्शनको रोकनेवाला है। वेदनीय कम मधुसे लिप्त तलवारको तीक्ष्ण धाराके समान माधुर्यको धारण करनेवाला है। मोहकर्म मदिराके समान बुद्धिमें विभ्रम उत्पन्न करनेवाला है। आयुकर्म सुदृढ़ बेड़ीके समान किसी निश्चित गतिमें रोकनेवाला है। नामकर्म चित्रकारके समान विचित्र आकारोंको सृष्टि करनेवाला है। गोत्रकर्म कुम्हारके समान उच्च-नीचका व्यवहार करनेवाला है और अन्तरायकर्म भाण्डारीके समान प्राप्त होने योग्य पदार्थों में विघ्न करनेवाला है । इस प्रकार फल देनेवाले आठ प्रकारके कर्मोसे ये प्राणी मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें निरन्तर बद्ध होते रहते हैं ॥९५-९९।। दूसरे गुणस्थानसे लेकर अन्तिम गुणस्थान तकके तेरह गुणस्थानोंमें नियमसे जीवोंके भव्यपना ही रहता है और प्रथम गुणस्थानमें
१. भाण्डागार क., भाण्डाकार घ. ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org