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आगम के अनमोल रत्न
लगता था और लोग धान्य के अभाव में तापसो की तरह वृक्षों की की छाल, कन्दमूल और फल खाकर जीवन बिताने लगे । इस समय लोगों की भूख भी भस्मक व्याधि की तरह जोरदार हो गई थी। उनको पर्याप्त खुराक मिलने पर भी तृप्ति नहीं होती थी । जो लोग भीख मांगना लज्जाजनक मानते थे वे भी दंभपूर्वक साधु का वेष बनाकर भिक्षा के लिए भ्रमण करने लगे । माता-पिता भूख के मारे अपने बच्चों को भी छोड़कर इधर उधर भटकने लगे। भूखे मनुष्यों के भटकते हुए दुर्वल कंकालों से नगर के प्रमुख बाजार भौर मार्ग भी श्मशान जैसे लग रहे थे । उनका कोलाहल कर्णशूल जैसा लग रहा था।
ऐसे भयंकर दुष्काल को देखकर राजा बहुत चिन्तित हुआ । उसे प्रजा को दुष्काल की भयंकर ज्वाला से बचाने का कोई साधन दिखाई नहीं दिया । उसने सोचा यदि मेरे पास जितना धान्य है, वह सभी बाँट दूं, तो भी प्रजा की एक समय की भूख भी नहीं मिटा सकता इसलिए इस सामग्री का सदुपयोग कैसे हो ? उसने विचार कर के निश्चय किया कि प्रजा में भी साधर्मी अधिक गुणवान एवं प्रशस्त होते हैं और साधर्मी से साधु विशेष रक्षणीय होते हैं । मेरी सामग्री से संघ रक्षा हो सकती है । उसने अपने रसोइये को बुलाकर कहा
"तुम मेरे लिये जो भोजन बनाते हो; वह साधु साध्वियों को दिया जावे और अन्य आहार, संघ के सदस्यों को दिया जावे। इसमें से बचा हुआ आहार मै काम में लूगा ।"
__ राजा इस प्रकार चतुर्विध संघ की वैयावृत्य करने लगा । वह स्वयं उल्लास पूर्वक सेवा करता था । जब तक दुष्काल रहा, तब तक इसी प्रकार सेवा करता रहा । संघ की वैयावृत्य करते हुए भावों के उल्लास में राजा ने तीर्थङ्कर नाम कर्म का उपार्जन किया ।
एक दिन राजा आकाश में छाई हुई काली घटा देख रहा था। बिजलियाँ चमक रही थीं । लग रहा था कि घनघोर वर्षा होनेवाली है किन्तु अकस्मात् प्रचण्ड वायु चला और नभ मण्डल में छाये