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आगम के अनमोल रत्न
किया और मर कर वे अवेयक विमान में देव रूप से उत्पन्न हुए । वहाँ उन्हें २८ सागरोपम का आयुष्य प्राप्त हुआ ।
काशी देश की राजधानी का नाम 'वाणारसी' था। यहाँ 'प्रतिष्टसेन' नाम के राजा राज्य करते थे। उनकी रानी का नाम 'पृथ्वी' था । जैसा नाम वैसे ही उनमें गुण थे । नंदिषेण मुनि का जीव देवलोक से चवकर भाद्रपद कृष्णा अष्टमी को अनुराधा नक्षत्र में महारानी पृथ्वी की कुक्षि में चौदह महास्वप्न पूर्वक उत्पन्न हुमा । गर्भ काल में महारानी ने क्रमशः पांच और नौ फणवाले नाग की शय्या पर स्वयं को सोयी हुई देखा । ज्येष्ठ शुक्ला द्वादशी को विशाखा नक्षत्र के योग में भगवान ने जन्म ग्रहण किया । अन्य तीर्थंकरों की तरह भगवान का भी इन्द्रादि देवों ने जन्मोत्सव आदि किया। गर्भ काल में माता का पार्श्व (छाती और पेट के अगल बगल का हिस्सा) बहुत ही उत्तम और सुशोभित लगता था अतः पुत्र का नाम श्री सुपार्श्वकुमार रखा गया । सुपार्श्वकुमार ने क्रमशः यौवन-वय को प्राप्त किया । युवा होने पर सुपार्श्वकुमार का अनेक राजकुमारियों के साथ विवाह हुआ । पाँच लाख पूर्व तक युवराज पद पर अधिष्ठित रहने के बाद पिता ने सुपार्श्वकुमार को राज्य गद्दी पर स्थापित क्यिा। पिता के द्वारा प्रदत्त राज्य को आपने खूब समृद्ध किया और न्याय पूर्वक प्रजा का पालन किया। इस प्रकार चौदह लाख पूर्व और बीस पूर्वाङ्ग तक राज्य का संचालन करने के बाद ज्येष्ठ कृष्णा त्रयोदशी को अनुराधा नक्षत्र में बेले का तप करके आप पूर्ण संयमी बन गए। नौ मास की कठिन साधना के बाद घनघाती कर्मों का क्षय कर केवलज्ञान केवलदर्शन प्राप्त किया । वह दिन फाल्गुन कृष्ण छठ का था और उस दिन चित्रा नक्षत्र का भी योग था.।
भगवान के मुख्य गणधर का नाम 'विदर्भ' था । आपके कुल ९५ गणधर थे। तीन लाख साधु, चार लाख तीस हजार साधियाँ, २०३० चौदह पूर्वधर. ९००० अवधिज्ञानी, ९१५० मनःपर्यवज्ञाना,