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___ आगम के अनमोल रत्न
- वे प्रामानुग्राम विचरण करते पुण्डरीकिनी नगरी के वाहर नलिनीवन उद्यान में पधारे । महाराजापुण्डरीक भी अनगारों के दर्शन के लिए उद्यान में गया। वहां उन्हें वन्दना कर उनकी पर्युपासना करने "लगा। पुण्डरीक महाराजा ने कण्डरीक अनगार के शरीर को अत्यंत सूखा हुआ एवं रोग से पीड़ित देखा। यह देखकर वह बोला-भगवन् ! मैं आपके शरीर को सरोग देख रहा हूँ। आपका सारा शरीर सूख गया है । अतः मै आपकी योग्य चिकित्सकों से, साधु के योग्य औषध, 'भेषज तथा उचित खान-पान द्वारा चिकित्सा करवाना चाहता हूँ। भाप मेरी यान शाला में पधारें । वहाँ प्रासुक, एषणीय पीठ, फलक आदि ग्रहण कर, ठहरे । स्थविर ने राजा की प्रार्थना स्वीकार को और दूसरे दिन कण्डरीक अनगार स्थविरों के साथ राजा की यान शाला में पधारे।
राजा पुण्डरीक ने योग्य चिकित्सकों को बुलाकर कण्डरीक भन-गार की चिकित्सा करने की आज्ञा दी। चिकित्सकों ने विविध प्रकार की चिकित्सा की । चिकित्सा और अच्छे खानपान से उनका रोग शान्त हुआ और शरीर पूर्ववत् हृष्टपुष्ट हो गया । उनके स्वस्थ हो जाने पर साथ वाले मुनि तो विहार कर गये किन्तु कण्डरीक वहीं रह गये । उनके आचार विचार में शिथिलता आ गई । यह देख कर पुण्डरीक राजा ने मुनि को बहुत समझाया । उनके समझाने से मुनि वहाँ से विहार कर गये । कुछ समय तक स्थविरों के साथ विहार करते रहे किन्तु बाद में शिथिल हो कर पुनः अकेले हो गये और विहार करते हुए पुण्डरीकिनी नगरी आ गये । राजा ने मुनि को 'पुनः समझाया किन्तु उन्होंने एक भी न सुनी और राजगद्दी टेकर भोग भोगने की इच्छा प्रगट की । पुण्डरीक ने कण्डरीक के लिए राजगद्दी छोड़ दी और स्वयं पंचमुष्टि लोचकर प्रवज्या ग्रहण की । “स्थविर भगवान को वन्दना नमस्कार करके एवं उनसे 'चातुर्याम' धर्म स्वीकार करने के बाद ही मुझे आहार करना कल्पता है ।" ऐसा कठोर अभिग्रह लेकर पुण्डरीक ने कण्डरीक के वस्त्र-पात्र ग्रहण कर