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पू० श्रीनृसिंहदासजो म.
महाराज ने गुरु भक्तिवश प्रेरित हो कर विक्रम सम्वत् १८४७ को आषाढ़ कृष्ण अमावस्या के दिन 'गुरुगुण कीर्तन' नामक हिन्दी कविता वनाई । यह चरित्र उसी के आधार पर लिखा गया है।
पूज्य श्री नृसिंहदासजी महाराज पूज्य श्री रोडीदासजी महाराज के स्वर्गवास के पश्चात् आचार्य श्री नृसिंहदासजी महाराज इस सप्रदाय के आचार्य वने । आप जाति के खत्री थे। मेवाड़ में रायपुर के निवासी थे । आपके पिता का नाम गुलावचंदजी और माता का नाम गुमानावाई था । आप विवाहित थे । आपका एक बार व्यापारार्थ लावा सरदारगढ़ आना हुमा। वहाँ पर आपने पूज्य रोडीदासजी महाराज का व्याख्यान श्रवण किया। इससे आपका वैराग्य हो गया और संयम ग्रहण करने का दृढ़ निश्चय कर लिया । आप वहीं पूज्यश्री की सेवा में रह गये आपने' अल्प समय में ही सामायिक प्रतिक्रमण सीख लिया। यह समाचार जव उनके कुटुम्बियों को मिला तो वे बहू को लेकर लावा सरदारगढ़ भाये । इन लोगों ने आपको खूब समझाया किन्तु जिसकी आसक्ति नष्ट हो गई हो वह त्यागमार्ग में शिथिलता किस प्रकार बतला सकता है ? अन्ततः पत्नी को छोड़ स. १८४२ की मार्गशीर्ष ९ के दिन लावा सरदारगढ़ में पूज्यश्री के पास दीक्षा ले ली । आपने तपस्वीजी की सेवा में रहकर शास्त्रों का गहन अध्ययन किया । पूज्य श्री रोडीदास जी महाराज के स्वर्गवास के बाद भापकी नम्रता, गम्भीरता, गुरुसेवा सहिष्णुता और मिलनसार प्रकृति से प्रभावित होकर उदयपुर से श्री संघ ने मिलकर आपको आचार्य पद दिया । तत्कालीन सन्तमुनिराजों में आपकी खूब प्रतिष्ठा थी । आप अत्यधिक प्रभावशाली आचार्य थे। उदयपुर के महाराणा भीमसिंहजी आपका बड़ा सम्मान करते थे। उन्होंने आपका कई बार व्याख्यान श्रवण किया । आपके प्रतिभाशाली २७ शिष्य थे । वादविवाद में माप लोक विश्रुत थे। कोई भी प्रति