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श्री.जोधराजजी मक
सं० १९४० के आसपास हुभा था। माता पिता के परम वात्सल्य में - भापका लालन-पालन हुआ किन्तु यह वात्सल्य अधिक समय तक न रह सका । प्रकृति को कुछ और ही इष्ट था। आपकी लघु अवस्था में ही
आपके माता पिता का स्वर्गवास हो गया । मातृ पितृ वियोग के कारण आपके हृदय पर बड़ा आघात लगा । माता पिता के स्नेह से वंचित होने के साथ आप पर जीवन और व्यवसाय को चलाने की भी जिम्मेदारी आ पड़ी । आप एक बार व्यवसाय के निमित्त राजकरेडा आये वहाँ आप अनायास ही रामद्वारे पहुँचे । रामस्नेही सन्तों. का आपने उपदेश सुना ।
पहले मातृ-पितृ वियोग के कारण संसार से उदासीनता के भाव विद्यमान थे ही उस पर रामस्नेहियों का उपदेश लगने से आप एकदम विरक्त हो गये । संसार के प्रति एकदम घृणा हो गई और त्याग मार्ग अंगीकार करने की भावना पैदा हो गई । जब मानव पर' दुःख आता है तब उसकी सोई हुई शक्ति जागृत हो जाती है तदनुसार आपने त्यागमार्ग स्वीकार करने की अपनी मनोगत भावना रामस्नेही सन्त के सामने प्रगट की । रामस्नेहो ने सच्ची सलाह देते हुए कहा-जोधसिंह ! यदि तुम आत्मकल्याण करना चाहते हो तो जैनमुनि के पास जाओ और उन्हीं के पास दीक्षा ग्रहण कर अपना आत्मकल्याण करो। इसी प्रकार की योग्य सलाह देकर आपको मेवाड़ संप्रदाय के सुप्रसिद्ध आचार्य श्री एकलिंगदासजी महाराज की सेवा में भेज दिया । आप 'एकलिंगदासजी महाराजश्री की सेवा में पहुंचे और उनके पास रहकर अध्ययन करने लगे। पूज्य महाराज श्री की सेवा में रहकर आपने अल्प समय में ही सामायिक प्रतिक्रमण थोकडा स्तवन आदि सीख लिये ।
। निरन्तर पूज्य श्री के वैराग्यमय उपदेशों को सुनकर आपके मानस में वैराग्य भावना जागृत हो गई । जिसका अन्तःकरण स्वच्छ और निर्मल होता है उस पर वीतराग की वाणी का प्रभाव पड़े बिना