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यू० श्रीरोडीदासजी म०
सर्पराज का तपस्वो दर्शन
एक बार आप उदयपुर विराज रहे थे। खुले मकान के भीतरी भाग के मैदान में भाप गर्मी के दिनों में तप्त शिला पर भातापना ग्रहण कर रहे थे । खड़े हो कर कायोत्सर्ग में लीन हो गये । उस समय एक बहुत बड़ा विषधर सर्प तपस्वीजी के चरणों को अपने शरीर से आबद्ध कर उनके चरण चूमने लगा । तपस्वीजी अपने ध्यान में तल्लीन थे । उनकी भाँखे बन्द थीं । वे जब ध्यान करते थे तब उन्हें बाहरी दुनियाँ का कुछ भी पता नहीं रहता था । वे भात्मानन्द में शरीर की पीड़ा और भूख प्यास तक को भूल जाते थे । उस समय एक भाई तपस्वीजी के दर्शन के लिये भाया, और झुक झुक कर वन्दना करने लगा । ज्यों ही उसकी दृष्टि तपस्वीजी के चरणों की भोर पड़ी, त्यों ही वह एक भयंकर दृश्य को देख कर घबरा उठा। देखता है कि एक भयकर काला विषैला नागराज (सर्प) तपस्वीजी के चरणों को लपेट कर फण से तपस्वीजी के चरण चूम रहा है । वह भाई अपने आपको किसी तरह से सम्भाल कर वहां से भागा और चिल्लाचिल्ला कर लोगों को एकत्र करने लगा । सैकड़ों लोग एकत्र हो कर तपस्वीजी के समीप आये और यह अपूर्व दृश्य देखने लगे। तपस्वीजी के पैरों से सर्पराज को हटाने की किसी में भी हिम्मत न हो सको। अव तपस्वीजी ने ध्यान खोला तो सामने सैकड़ों लोगों को एकन पाया और अपने पैरों को लपेटे हुए सर्पराज को देखा । तपस्वीजी ने नागदेव को सम्बोधन कर कहा-"दयापालो"। सर्पराज भो तपस्वीजी का -भाशीर्वचन सुनकर शान्त भाव से वहां से चल दिया । यह थी तपस्वीजी की तप महिमा ।
आपने इस प्रकार उत्कृष्टतम सयमी साधना में सतीस वर्ष व्यतीत किये । तप से आपका शरीर प्रतिदिन क्षीण होने लगा। अन्त में जब शरीर को संयमी जीवन की साधना के लिए अयोग्य पाया तो उदयपुर के पावन क्षेत्र में मापने यावज्जीवन के लिए संलेखना पूर्वक