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पू० श्रीरोडीदासजी म
समय वैष्णवेतर साधुओं को आने भी नहीं दिया जाता था। अगर जैन मुनि वहाँ पहुँच जाते तो वहां उन्हें इतना परेशान होना पड़ता था कि वे एक दिन भी वहाँ नहीं टिक सकते थे।
तपस्वीजी विहार करते हुए वहाँ पहुँच गये । शहर के बाहर एक वृक्ष की छाया में विराज गये । यहाँ के गुसांईजी महाराज प्रायः सायंकाल रथ में बैठ कर घूमने के लिए निकला करते थे । अपने नित्य कार्यक्रम के अनुसार गुसांईजी घूमने के लिए निकले । साथ में नगर के नायब हाकिम श्रीमान् संघवीजी साहब थे । वे अच्छे प्रतिष्ठित, सज्जन और धर्मात्मा थे। वे तपस्वीजी के परम भक्त थे। अचानक वृक्षके नीचे विराजे संत पर गुसांईजी की दृष्टि पड़ी । महन्तजी ने नायब हाकिम को पूछावृक्ष के नीचे ये कौन बैठे हैं ? उत्तर में संघवीजी साहब ने कहाये मेरे गुरु हैं । गुसांईजी ने कहा-अच्छा, ये तुम्हारे गुरु हैं ? जी हाँ, तो फिर यहाँ क्यों बैठे हैं ? उष्ण ऋतु और लू की भयं. कर मौसम है। इस पर हाकिम साहब ने कहा-"यहाँ नहीं-विराजे तो फिर कहाँ पर विराजेंगे ? गाँव में जैन मुनियों को आने भी नहीं दिया जाता । व्रजवासी लोग उन्हें गाली और पत्थरों से मारते हैं ।" संघवी साहब के मुख से जैन मुनियों के त्याग और तप की महिमा सुनी तो गुसाईजी जैन मुनियों के त्यागी जीवन से बड़े प्रभावित हुए । उन्होंने उसी समय शहर में घोषणा करवाई कि जैन मुनियों के साथ अच्छा सलूक किया जाय, गाली-गलौज आदि से उनका अपमान न किया जाय । गुसांईजी ने मुनियों के लिए नाथद्वारा क्षेत्र खोल दिया। तपस्वीनी नाथद्वारा में पधार गये और अपने तप-त्याग एवं अमृत-- मयी वाणी से सैकड़ों व्यक्तियों को सम्यक्त्वी बनाया। तपस्वीजी ने मेवाड़ के अनेक नयेनये क्षेत्रों में घूमकर और वहाँ के लोगों को प्रतिबोध देकर हजारों की संख्या में उन्हें सम्यक्त्वी बनाया । यह था तपस्वोजी के धर्म प्रचार का प्रत्यक्ष और अनूठा उदाहरण ।