________________
४४
पू० श्रीएकलिंगदासजी म०
का संचय जीव ने किया है उसका फल समय आने पर अवश्य मिलता है । अस्तु ! दस ग्यारह वर्ष की कोमल अवस्था में ही हमारे चरिवनायकजी पर माता पिता के वियोग का वज्रपात टूट पड़ा । मातापिता के स्वर्गवास से दोनों भाई अनाथ हो गये । संचित कर्म को यही इष्ट था । शायद कर्मदशा भापको बचपन से ही स्वावलम्बन
का पाठ सिखाना चाहती थी इसीलिये कुदरत ने माता पिता की - स्नेहमयी ममता से आपको वंचित रखा । पावन पथ की ओर बढ़ने की आपके जीवन की यह सबसे बड़ी प्रेरक घटना थी।
माता पिता के वियोग के बाद घर का सारा भार आपके ज्येष्ठ भ्राता मोडीलालजी पर आ पड़ा । मोडीलालजी ने बड़ी कुशलता के साथ घर का भार संभाल लिया । इन्होंने अपने नन्हें भाई को मातापिता का प्यार दिया । वे अपने प्राणों से भी बढ़कर नन्हें भाई को प्यार करते थे। उन्होंने कभी भी बालक एकलिंगदास को माता पिता का वियोग खटकने नहीं दिया । वास्तव में दोनों को राम लक्ष्मण की जोड़ी थी।
धीरे धीरे अवस्था के के बढ़ने के साथ ही साथ बुद्धि की कुशलता और पुरुषार्थ से दोनों भाई जीवन निर्वाह के लिये व्यवसाय करने लगे । व्यवसाय के साथ ही साथ आपका धर्म की ओर भी झुकाव होने लगा । पुद्गलों से महत्व हटाकर आत्मा के स्वरूप में आपका मन रमण करने लगा । आपने मुनिराजों के प्रवचनों से प्रभावित होकर -रात्रि भोजन, तिथियों में हरी बनस्पति आदि का त्याग कर दिया ।
संयोगवश मेवाड़ सम्प्रदाय के तत्कालीन प्रखर व्याख्याता आग'मज्ञ प्रभावक संतशिरोमणि मुनि श्री रिखबचन्द्रजी महाराज के शिष्य घोर तपस्वी श्री वेणीचन्दजी महाराज का संगेसरी आगमन हुआ । मुनिश्री के शुभागमन से सारा गाव हर्षित होकर मुनिश्री की सेवा में जाने लगा । उनके सारगर्भित भाषण सुनकर अपने आपको धन्य मानने लगा । श्री एकलिंगदासजी भी प्रति दिन नियमित रूप से