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पू० श्रीएकलिंगदासजी म०
: और स्थान के निश्चित होने के बाद भी भाई ने दीक्षा को कुछ दिन
आगे बढ़ा देने की प्रार्थना की । उस समय विदुषी महासतीजी श्री नगीनाजी भी वहीं विराजमान थीं। उन्होंने कहा-'शुभस्यशीघ्रम्' शुभ कार्यों में लाख विन्न भाते हैं अतः अब ऐसे शुभ कार्य में विलम्ब करना उचित नहीं । आज्ञापत्र प्राप्त होने के बाद व्यर्थ समय खोना • अच्छा नहीं है। आखिर महासतो जो की दीर्घदृष्टि के सामने सबको -झुकना पड़ा।
जिस शुभ घड़ी की प्रतीक्षा हो रही थी वह आ पहुँची। सं. -१९.४७ की फाल्गुन शुक्ला प्रतिपदा मङ्गलवार के दिन हमारे चरितनायकजी की दीक्षा जैन जगत के महान सन्त वेणीचन्दजी महाराज के पास बड़े समारोह के साथ आकोला में सम्पन्न हुई । दीक्षा के अवसर पर आकोला का व भास पास का मानव समूह उमड़ पड़ा । दीक्षा समारोह अपने ढंग का शानदार था । दीक्षा विधि की समाप्ति के बाद पू. श्री वेणीचन्दजी महाराज ने विहार कर दिया । दीक्षा होने के - सात दिन के बाद हमारे चरितनायक जी के बड़े भ्राता मोडीलाल जी का स्वर्गवास हो गया ।
दीक्षा धारण करने के पश्चात् मुनिश्री एकलिंगदासजी ने विद्या. • ध्ययन आरम्भ किया । आपका संवत् १९४८ का प्रथम चातुर्मास अपने गुरुदेव वेणीचन्दजी महाराज के साथ का सनवाड नामक ग्राम में हुआ। विदुषी महासती श्री नगीनाजी ने लगातार तीन वर्ष तक आपको शास्त्रीय ज्ञान करवाया। इसके बाद आपने अपनी बुद्धि की प्रतिभा, परिश्रम और गुरुदेव की कृपा से खूब अच्छी योग्यता प्राप्त कर ली । आप जैन आगमों के प्रकाण्ड विद्वान् बन गये । आपने अपने हाथ से अनेक शास्त्र और ग्रन्थों का आलेखन किया ।
___ आपका द्वितीय चातुर्मास गुरुदेव के साथ सं. १९४९ का आमेट में हुआ। इसके बाद आपके क्रमशः चातुर्मास इस प्रकार हुए