________________
पू० श्रीएकलिंगदासजी म०
xommmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm सुकुमार मुखाकृति से वह अपने माता पिता को आनन्दित करने लगा । उसकी एक एक मुस्कान से माता पिता का हृदय आनन्द से भर जाता था । माता पिता के प्रेम के साथ ही बालक को सुन्दर संस्कार भी मिलने लगे। बाल्यकाल के पवित्र संस्कार भावी जीवन के निर्माण में बड़े सहायक सिद्ध होते हैं । अत. वालक संस्कारी हो इस बात का माता पिता को अवश्य ध्यान रखना चाहिये ।।
माता पिता ने योग्य वय में वालक को पाठशाला में भेज दिया। चरित नायक अब नियमित रूप से पाठशाला में जाने लगे । तत्कालीन व्यवस्था के अनुसार बालक स्कूल में पढ़ने लगा। इनकी वृद्धि बड़ी तीव्र थी। शिक्षक के दिये गये पाठ को ये अल्प समय में ही तैयार कर लेते थे। इनके विनम्र स्वभाव और प्रतिभा से शिक्षक. स्वयं चकित थे।
महापुरुष बनने वाले व्यक्ति में कतिपय विशेषताएँ जन्म से ही हुआ करती हैं । तदनुसार हमारे चरितनायकजी में ऐसी कई विशेषताएँ थीं। यद्यपि ये माता पिता की प्रेरणा से पाठशाला में अवश्य पढ़ने जाते थे किन्तु उन्हें इस बाहरी शिक्षा में जरा भी रसानुभूति नहीं होती थी । इनके धार्मिक संस्कार जागृत होने लगे । इनका ध्यान आध्यात्मिक शिक्षा की ओर अधिक जाने लगा । ये प्रतिदिन अपनी वैठक पर सामायिक करते, भाला फेरते और नया धार्मिक ज्ञान प्राप्त करते । इन्होंने धीरे-धीरे सामायिक प्रतिक्रमण स्तवन थोकड़े आदि: याद कर लिये। माता पिता का वियोग
कर्मसिद्धान्त का यह नियम है कि प्रत्येक प्राणी को अपने संचित शुभा-शुभ कर्म का फल भोगना ही पड़ता है। निर्दोष दिखने वाले वालक भी अपने पूर्वसंचित कर्म के शिकार होते हुए दिखाई पड़ते हैं। भले ही वर्तमान में उनके कोई पाप कर्म दृष्टि गोचर नहीं होते। हों किन्तु संचित अवश्य होते हैं । जिस प्रकार के शुभाशुभ कार्य: